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________________ सूत्रकृतात्रे अन्वयार्थः -- गोशालक आर्द्रकमुनिं प्रत्याह - ( समणे उभीते ) मीतस्तु श्रमणो महावीरस्वामी, भोः ! तब तीर्थकरो भयभीतः सन् ( आगंतगारे) आगन्त्रमारे आगवणायामारे-आगन्तुकावा से धर्मशालायाम् (आरामगारे) आरामगारे -भारामः स्यादुपवनं जायगेहेऽपि (वासं ण उबेह) वास स्थिति नोपेति भीतः सन् किन्नाम शर्म विन्दति जनाकुळे न वसति । कथं नो पैति तत्राह हेतुम् । (बहवे - मणुस्सा ऊणाविरित्ता य लवालवा य दक्खा हु संती) बहवो मनुष्या ऊनातिरिक्ताश्र A ''आगंतगारे' आरामगारे' इत्यादि । शब्दार्थ - 'समणे उभीते श्रमणस्तु' भीतः' श्रमण महावीरं भिरु डरपोक है, क्योंकि 'आगंनगारे - आगन्तगारे' वे आगन्तुकावास-धर्म शाला में 'आराबगारे-आरामगारे' तथा उद्यानों में बने मकानों में वासं पण उदेह - वासं न उपैति' ठरते नहीं है, उनके वहां नहीं ठहरने का कारण यही है कि 'बहवे मणुस्सा ऊगातिरिक्ता लवालवा य दक्खा -हु संति-हवे मनुष्याः ऊनातिरिक्ताः लपालपाश्च सन्ति' वहां बहुत से न्यून, अधिक, वक्ता मौनी अथवा दक्ष पुरुष निवास करते हैं, ॥१५॥ अन्वयार्थ - गोशालक आर्द्रक सुनि से कहता है - श्रमण महावीर 'मोरु डरपोक हैं, क्यों कि वे आगन्तुकावास धर्मशाला या सराय में तथा, उद्यानों में वने मकान में नहीं ठहरते हैं। उनके वहां नहीं ठहरने का कारण यही है कि वहां बहुत से न्यून, अधिक, वक्ता, मानी या 1 F. 12 1 'आगतगारे आराम गारे' इत्याहि - शब्दार्थ — गोशाला भुनीने हे छे - 'समणे उभीते - श्रमणस्तु ma:' ang usiak (a stai seus d. Fuk-'amiant-Anzanit’ तेथे भागन्तुभवास अर्थात् धर्मशाणाभां तथा 'आरामगारे - आरामगारे' उद्या - नामां नावामां आवे भानाम 'वास ण उवेइ-चासं न उपैति निवास उरता नथी. त्यां तेनुं न रहेवानुं र ४ छे - ' बहवे मणुस्सी उणातिरित्तावालवा दक्खा हु संति- बहवे मनुष्याः ऊनातिरिक्ता लपालपार्श्वे सन्ति' त्यां ઘણા ખરા ન્યૂન અધિક, વક્તા, મૌની, અથવા દક્ષ પુરૂષા નિવાસ કરે છે. ૧પા અન્વય.—ગોશાલક આદ્રક મુનીને કહે છે કે—શ્રમણુ મહાવીર ભીરૂ અર્થાત્ ડરપેાક છે. કેમકે તેએ આગન્તુકાવાસ-ધમશાલા વગેરેમાં તથા ઉદ્યાનામાં બનાવેલ મકાનમાં રહેતા નથી. તેઓ ત્યાં ન રહેવાનુ‘ કારણુ એજ છે કે–ત્યાં ઘણા એવા ન્યૂન અથવા અધિક વક્તા વિગેરે પુરૂષો નિવાસ કરે છે. પેાતાનાથી જે ઉતરતા હાય કે ન્યૂન કહેવાય છે. પેાતાનાથી જે ઉત્તમ 154
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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