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________________ समयार्थबोधिनी डीका वि.व.अ. ६ आर्द्रकमुनेगर्गौशालकस्य संवादनि० ५८५ मूळम्-जे सावि बीयोदंगभोइभिक्खू, भिक्खं विहि जायंति जीवियट्री। तेजाइसंजोगमचि पहाय कायोवगाणंतकरी भवंति।१०। छाया-- ये चापि पीजोदकमोनिभिक्षयो, भिक्षाविधि यान्ति जीवितार्थिनः । ते शाबिसंयोगमपि प्रहाय, कायोपमा नान्तकरा भवन्ति ॥१०-१ । तो करते हैं । जब सचित्त जल और स्त्री का लेबन दोनों ही करते है तो लाधु और रहस्य अन्नर ही क्या रहा ? ऐसा मानने पर तो सब गृहस्थ भी साधु ही कहलाएँगे। अतएव आपने साधु की जो परिभाषा ही है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि वह गृहस्थ में भी घटित होती है ॥९॥टीका सरल ही है ॥९॥ ' ''जे याधि बीथोदामोइभिखू' इत्यादि । शब्दार्थ---आईक मुनि पुनः कहते हैं-जे थावि-ये चापि' जो 'भिक्खू-भिक्षुभिक्षु होकर भी 'बीयोदगोइ-धीजोदकभोजिना' सचित्त बीज एवं सचित्त जलका सेवन करते हैं, और 'जीवियट्टीजीवित्तार्थिनः' जीवननिर्वाह के लिए 'भिक्खं विहिं जायंति-भिक्षाविधियान्ति' भिक्षावृत्ति करते हैं 'ते णाइसंजोगमवि पहाय-ते ज्ञाति संयोगमपि प्रहाय वे अपने ज्ञाति जनों यन्धु, यान्धवों के संपर्क को त्यागकरके भी 'कायोवगा-कापोपगा' अपनी कायाका ही पोषण करने માની લેવામાં ન આવે? તેઓ પણ સચિત્ત જલ સ્ત્રી વિગેરેનું સેવન કરે છે. જે સાધુ અને ગૃહસ્થ અને સચિત્ત જલ અને સ્ત્રિનું સેવન કરતા હોય તેં સાધુ અને ગૃહસ્થમાં શો ફેર છે? જે એમ જ માનવામાં આવે તે સઘળા ગૃહસ્થો પણ સાધુ જ કહેવાશે. તેથી જ આપે સાધુની જે પરિભાષા કરી છે તે બરાબર નથી. કેમકે તે ગૃહમાં પણું ઘટિત થાય છે. ઝાલા , ટીકાથ સરલ જ છે. તેથી અલગ બતાવેલ નથી. 'जे यावि बीयोदगभोइभिक्खू' या शा--३शथी माद्र मुनि छ -'जे यावि-ये चापि 'भिक्खु भिक्षु' सिक्षु यने ५५y 'बीयोदगभोई-वीजोदकभोजिनः' सयित्त भी सथित पायीनु सेवन रे छ, भने 'जीवियद्वी-जीवितार्थिन" न निale ४२०॥ भाट 'भिक्खं विह जायंति-भिक्षाविधि' भिक्षावृत्ति अरे छे, ""गाह संजोगमवि पहाय-ते ज्ञातिसंयोगमपि प्रहाय' मा पोताना तिन माधवाना स ५४°ना त्या परीने ५५ 'कायोवगा-कायोपगा', पाताना शरीरनु सु०७४
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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