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________________ २३३ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् तन्मार्गे तस्याऽभिमुखो भवति, 'अदुवा संघिच्छे यए' अथवा सन्धिच्छेदको भवति-धनमाइतं तद्गृहभित्तिकादौ छिद्रं संधाय तेन यथागृहस्थित धनमपहरति 'अदुवा गंठिच्छेदए' अथवा ग्रन्थिच्छेदक:-प्रन्थिच्छेदनं कृत्वा धनं गृह्णाति (गिरहकट्टा-पाकिट मार) शब्देन प्रसिद्धः 'अदुवा उरभिए' अथवा औरभ्रिको मेषादिकं चास्यति, ततो वधकाय दत्वा धनमर्जयति, 'अदुवा सोवरिए' अथवा शौकरिकः-अथवा वराहमेव चारयति धनलाभाय, 'अदुवा वागुरिए' अथवा बागुरिकः वागुरां-जालं निर्माय क्षिप्त्वा च मृगादिकं बन्नाति आजीविकायै 'अदुवा साउणिए' अथ शाकुनिका-पक्षिघातका, कश्चि न्मार्गमावृत्य-आततरय जालं पक्षिम एच ग्राहको भाति, 'अदुवा मछिए' अथवा कधिन्मारिस्यको भवति-मत्स्योद्योगेन धनमर्जयति । 'अदुवा गोघायए' अथवा गोघातकः कश्चिद्भवति, 'अदुवा गोवालए' अथवा गोपालकः कश्चिद्भवतिगोपालनमेव करोति-ततः वधकाय दत्वा धनमर्जपति, 'अदुवा सोवणिए' अथवा शौवनिकः श्वानं पालयति तस्करजन्यादि वधाय 'अदुवा सोचणियंतिए' अथवा श्वभिरन्तको भवति, कश्चित् श्वानं पुरस्कृत्य प्राण्यन्वरस्य हिंसा मनुवर्ततेकरने के लिए मार्ग में उसके सामने जाता है। कोई सेंध लगाता है -दीवार में छेद करके उसमें घुस कर धन चुरा लेता है। कोई ग्रन्थिच्छेद करता है-जेध कट होता है। कोई भेडे चराता है और घातकी-हत्यारा को बेचकर धनोपार्जन करता है, कोई धन के लिए शूकरों को घराता है, कोई जाल बना कर मृग आदि को फंसाता है, कोई पक्षियों का घात घरता है, कोई जाल फैला कर पक्षियों को 'पक्रड़ता है, कोई मछलियां मार कर धन कमाता है, कोई गायों का घात करता है, कोई गायों को पालन करके घातकी आदि को बेन कर धनोपार्जन करता है. कोई तस्कर (चोर) आदि के वध के लिए कुत्ता पालता है अथवा कुत्ते को आगे करके-छुछकार कर-किसी प्राणिकी ઘરમાં પ્રવેશ કરીને ચોરી કરે છે કે ગ્રંથી છેદન કરે છે અર્થાત ગજવા કાપે છે. કેઈ બકરા ચરાવે છે, અને ખાટકી–હત્યારાને તે વેચીને ધન મેળવે છે, કઈ ધન મેળવવા માટે શું રે-ભુંડેને ચરાવે છે, કેઈ જાળ બનાવીને મૃગ વિગેરેને ફસાવે છે. કે પક્ષિાની હિંસા કરે છે. કોઈ માછલી મારીને ધન કમાય છે. કઈ ગાની હિંસા કરે છે. કોઈ ગાયનું પાલન કરીને ખાટકી-વિગેરેને વેચીને ધને મેળવે છે, કેાઈ ચેરના વધ માટે કુતર પાળે છે, અથવા કુતરાઓને આગળ રાખીને-ઉશ્કેરીને કંઈ પ્રાણીની सू० ३०
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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