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________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६३१ अन्वयार्थ:-(उई) ऊर्ध्वदिशि (अहेय) अधोदिशि (तिरियं दिसासु) नियंगदिशाम (तसथावराणं) त्रसस्थावराणां जीवानाम् (लिंग) लिङ्गम्-जीवत्वचितम्चलनस्पन्दनाङ्कुरोद्भवादिकम् (विन्नाय) विज्ञाय-ज्ञात्वा (भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणा) भूताभिशङ्कया जुगुप्समानः-घृणां कुर्वन् (वदे) वदेव निरवधभाषामुच्चारयेत (करेजा व) कुर्याद्वा, एतादृशस्य (कुओविहऽत्थी) कुतोऽप्यस्ति जीवनभयमकथमपि जीवनभयं नास्तीति ॥३१॥ 'तिरिय दिसासु-तिर्यग दिशासु' तिर्थी दिशाओं में 'तसथावराणं-त्रसस्थावराणां वस' और स्थावर जीवों के 'लिंग-लिङ्ग' लिंगको अर्थात् जीवत्व के चिह्न चलन स्पन्दन आदिको 'विनाय-विज्ञाय' जानकर 'भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणा-भूनाभिशङ्कया जुगुसप्तमानः' जीव हिंसा की आशंका से ज्ञानी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुवा 'वदे-वदेन' यदि निदोष भाषा का उच्चारण 'करेज्जा व-कुर्यात् वा' करे और निरवद्य प्रवृत्ति करे तो 'कुओ विहत्यी-कुतोप्यस्ति' जीव हिंसाकाभय कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता ॥३१॥ ____अन्वयार्थ-ऊर्वदिशा में अधोदिशा में और तिर्की दिशाओं में प्रस और स्थावर जीवों के लिंग को अर्थात् जीवत्व के चिहून चलन स्पन्दन आदि को जान कर भूतों के हिंसा की आशंका से ज्ञानी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ यदि निर्दोष भाषा का उच्चारण करे और निरपद्य प्रवृत्ति करे तो जीवहिंसा का भय कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता ॥३१॥ दिसासु-तिर्यग् दिशासु' ति हिशामा 'तसथावराण-त्रसथावराणां' त्रस भने स्था१२ वाना 'लिंग-लिङ्ग” सिसने अथवा त्वना बिल बन २५-हन विगेरेने 'विन्नाय-विज्ञाय' agीन 'भूयाभिसंकाइ दुगुछमाणा-भूताभिशङ्कया जुगुप्समानः' भूतानी हिसानी माथी ज्ञानी पु३५ साथी el ४२ता थ! 'वदे-वदेत'ने निपि भाषानु यार करेज्जा व-कु. र्यात् वा' ४२ मने निषध प्रवृत्ति रे तो 'कुओ विहत्यी-कुतोप्यस्ति हसानो ભય કેવી રીતે થઈ શકે છે? અર્થાત્ કદાપિ થઈ શકતું નથી. ૩૧ અન્વયાર્થ–ઉર્વદિશામાં, અદિશામાં અને તીઈિ દિશાઓમાં વસ અને સ્થાવર જીના ચિહ્નને અર્થાત્ જીવપણના ચિહ્ન ચલન સ્પન્દન વિગેરેને સમજીને પ્રાણિની હિંસાની શંકાથી જ્ઞાની પુરૂ હિંસાની ઘણા કરતા થકા જે નિર્દોષ ભાષાને ઉચ્ચાર કરે અને નિરવદ્ય પ્રવૃત્તિ કરે તે જીવહિંસાને ભય કેવી રીતે થાય છે ? કદાપિ તેમ થતું નથી. ૩૧
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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