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________________ सूत्रकृताचे अन्वयार्थ :- ( अहवा वि) अथवाऽपि (मिलक्खू ) म्लेच्छ (नरं) नरम् - पुरुषम् (विष्णागबुद्धीए) अयं विण्याक इति बुद्रचा (मूले विद्दूण) शूले विद्या - आरोप अग्नौ पचेत् (वावि) वापि - अथवापि (कुमारगं) कुमारम् ( अलावुयंति) अलाबुरूमिति मत्वा शुळे आरोग्य पचेत् (पाणिरहेण न लिप्पइ) प्राणिबधेन न लिप्यते इति ( अह ) अस्माकं मतम् ||२७|| टीका- 'अहवा वि' अथवाऽपि 'मिलक्खू' म्लेच्छ' 'विभागबुद्धीए' विषयाक बुद्धया 'नरं' नरम् - पुरुषम् 'स्ले' शूळे 'विधूण' विद्ध्वा 'पपज्जा' पचेद 'वावि' 'अहवा वि विण' इत्यादि । शब्दार्थ - शाक्य फिर कहते हैं- ' अहवावि - अथवापि पूर्वोक्त से विपरीत 'मिलक्खू - म्लेच्छः' यदि कोई म्लेच्छ 'नरं नरं' किसी मनुor को 'पिण्णागबुद्धीए - पिण्याकबुद्धया' खलपिंड समझ कर 'मुलेविद्धूण-शूले विध्वा' शुल में वेध कर 'पएज्जा - पचेत्' अग्नि में पकाता है 'वाचि-वापि' अथवा ' कुमारगं-कुमार' किसी कुमार को 'अलावुयंति - अलाबुकम् इति' तुंया समझकर शूल में वेध कर पकाता है वह 'पाणिवण न लिप्पह-प्राणिबधेन न लिप्यते' हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता यह हमारा मन है । गा० २७॥ . ६२४ अन्वयार्थ -- --शाक्य फिर कहता है-पूर्वोक्त से विपरीत यदि कोई म्लेच्छ किमी मनुष्य को वलपिण्ड समझ कर, शुल में वेध कर आग में पकाता है अथवा किसी कुमार को तृषा समझ कर शूल में वेध कर पकाता है तो वह हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता । यह हमारा मत है ॥२७॥ つ अवा वि विण' इत्यादि शब्दार्थ — ते शाम्य इरीधी आर्द्र भुनिने डे छे - ' अहवावि-अथ - वापि' पडेला थन अर्थाथी उटी 'मिलक्खु म्लेच्छ.' ले अर्थ २२७ 'नरंनरम्' अर्थ भासने 'पिण्णागबुद्धीर - पिन्ना बुध्या' जसपिंड समने 'सूले विद्धूण-शूले विश्वा' शूजमां वींधीने 'पपज्जा - पचेत्' अग्निमां रांधे 'वावि-वोपि ' वो तो 'कुमारगं- कुमारकम् । कुमारने 'अलावुत्ति - अलाबुकम् इति' तुडुं मानाने शुणथी वा धीने पाये तो ते 'पाणिवहेण न लिप्पइ - प्राणिवघेन न लिप्यते' हिंसाथी थवावाजा पापथी सीं पाते। नथी. या गाभारे। भत छे. ॥२७॥ અન્વયા ફરીથી શાકચ મતવાદી કહે છે કે—પહેલાં કહ્યાથી જુદી રીતે જો કોઈ મ્લેચ્છ કેાઈ મનુષ્યને ખલપિ'ડ સમજીને શુથી વીધીને અગ્નિમાં રાંધે અથવા કાઈ કુમારને તુંબડું સમજીને શૂળથી વી'ધીને પકાવે તે તે હિં'સા જન્ય પાપથી લીપાતા નથી. એવા અમારા મત છે. નારણા 1
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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