Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - २८
अनन्तजीव स्वामी हो अर्थात् एकशरीर को भोगने वाले अनन्तजीव जिसकर्म के निमित्त से हों वह साधारण नामकर्म है। इसका उदय निगोदजीवों में रहता है। जिसके उदय से धातु- उपधातु अपने रूप में स्थिर न रहें अर्थात् एकधातु दूसरी धातुरूप से परिणमन करती रहे उसे अस्थिरनामकर्म कहते हैं। ' जिसके उदय से अमनोज्ञ - असुन्दर अवयव हों उसे अशुभनामकर्म कहते हैं। अथवा नाभि से निचले अवयव अशुभ होते हैं यह अशुभनामकर्म का कार्य है।
जिसके उदय से रूपादिगुणों से सहित होते हुए भी अन्यजन प्रीति न करें उसे दुर्भगनामकर्म कहते हैं। अथवा जिसके उदय से दुर्भाग्य हो वह दुर्भगनामकर्म है। जिसके उदय से अमनोज्ञस्वर हो उसे दुःस्वरनामकर्म कहते हैं। प्रभारहित शरीर का कारण अनादेयनामकर्म है। अथवा जिसके उदय से बहुजन मान्यता प्राप्त न हो वह अनादेयनामकर्म है । अयश का कारण अवश: कीर्तिनामकर्म है।
जिसके उदय से साधु आचरण वाले कुल में जन्म हो उसे उच्चगोत्र कहते हैं। इससे विपरीत नीचगोत्र है ।
जिसके उदय से दान देने की इच्छा होते हुए भी न दे सके उसे दानान्तरायकर्म कहते हैं। जिसके उदय से लाभ को चाहते हुए भी लाभ न हो वह लाभान्तरायकर्म है। भोगने की इच्छा होते हुए भी जिसके उदय से न भोग सके उसे भोगान्तरायकर्म कहते हैं । उपभोग की इच्छा होते हुए भी जिसके उदय से उपभोग न कर सके वह उपभोगान्तरायकर्म है । वीर्य में विघ्नकरनेवाला वीर्यान्तरायकर्म है।
आगे नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों में अभेदविवक्षा से जो प्रकृति गर्भित की हैं उनको कहते हैं -
देहे अविणाभावी, बंधणसंघाद इदि अबंधुदया । वण्णचउक्केऽभिण्णे, गहिदे चत्तारि बंधुदये ॥ ३४ ॥
अर्थ - पाँचशरीरों के साथ अविनाभाव रखने वाले पाँचबन्धन और पाँच सयात का शरीरों अन्तर्भाव हो जाता है। इस कारण इन दसप्रकृतियों का बन्ध व उदय नहीं है तथा वर्णादिं भेद रूप प्रकृतियों का मूल वर्णचतुष्क में अन्तर्भाव हो जाता है। इस कारण चार प्रकृतियों का ही बंध और उदय होता है।
१. रा.बा. ८ /११ / ३४-३५ में लिखा है कि यदुदयात् दुष्करोपवासादितपस्करणेऽपि अंगोपांगानां स्थिरत्वं जायते तत् स्थिरनाम | यदुदयादीषदुपवासादिकरणात् स्वल्पशीतोष्णादि संबंधाच्च अंगोपांगानि कृशी भवन्ति तदस्थिर नाम । अर्थ - जिसकर्म के उदय से दुष्कर उपवासादि तप करने पर भी अंग उपांग की स्थिरता रहती है, अंगोपांग कृश नहीं होते वह स्थिर नाम है। जिसकर्म के उदय से एकादि उपवास आदि करने से या साधारण शीतोष्ण आदि से ही अंगोपांग कृश हो जाएँ वह अस्थिर नाम है।
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