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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૬૫
વિભકત્યર્થ નિર્ણય
: દ્રવ્ય સહાયક : પૂ. આ. શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મ.સા. સમુદાયના દીક્ષા દાનેશ્વરી પૂ. આ. શ્રી ગુણરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની
પૂ. સાધ્વી શ્રી પૂણ્યરેખાશ્રીજી મ.સા.ની શિષ્યા પૂ. સાધ્વી શ્રી કુલરેખાશ્રીજી મ.સા. ની પ્રેરણાથી
શ્રી વિશાનીમા જૈન ધર્મશાળા-પાલિતાણા સં. ૨૦૬૮ના ચાતુર્માસમાં શ્રાવિકા ઉપાશ્રયની
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સનેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૬૯
ઈ. ૨૦૧૩
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.)22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके ww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
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454 226 640
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30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
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164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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254 282
118 466
342 362
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शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. _अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता / टीकाकार भाषा संपादक / प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
| भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
| जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी । आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि | पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा
सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि । जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
| फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मंबई सर्कल-१ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
जिनविजयजी
| जैन सत्य संशोधक
सं./हि
514 454 354 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीसी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. | हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. | जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. ब्रज. बी. दास बनारस 133 | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी
गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१, २ ।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
| सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. | हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण बर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. ब्रीजभूषणदास बनारस 153 | ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168 282
182 384 376 387
गुज.
174 320
286 272
142 260
232 160
भवन
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304 122 208
70
संस्कृत
310
462
512
264
तीर्थ
144
256
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक
विषय भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे | 155 | उणादि गण विवृत्ति ।
| पू. हेमचंद्राचार्य व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति । | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि-सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष
पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी
भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास । तीर्थ | संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र । 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी
संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय
गिरिधर झा
न्याय संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम वती-१
शिवाचार्य
न्याय संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम बती-२
शिवाचार्य न्याय संस्कृत
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् उपा. यशोविजयजी | न्याय | संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी | लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम्
पू. भानुचन्द्र गणि टीका
| ज्योतिष | संस्कृत
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष
| संस्कृत
सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निवन्ध
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी | ज्योतिष संस्कृत/गुजराती मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष संस्कृत
अनप मिथ 176| मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष
संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष | गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
| पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष | गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
75
488 | 226
365
190
480
352
596 250 391
114
238 166
368
88
356
168
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
। विषय
भाषा
पृष्ठ
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
संस्कृत
364
222
330
156
248
504
448
444
616
632
पुस्तक नाम
कर्ता टिकाकार 181 काव्यप्रकाश भाग-१
पूज्य मम्मटाचार्य कृत 182 काव्यप्रकाश भाग-२
पूज्य मम्मटाचार्य कृत 183 काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३ । उपा. यशोविजयजी 184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
श्री कुम्भकर्ण नृपति 185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
श्री कुम्भकर्ण नृपति 186 | नृत्याध्याय
श्री अशोकमलजी 187 | संगीरनाकर भाग-१ सटीक | श्री सारंगदेव 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक श्री सारंगदेव 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक श्री सारंगदेव 190 संगीरनाकर भाग-४ सटीक श्री सारंगदेव 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192 जैन ग्रंथो
श्री हीरालाल कापडीया 193 | न्यायबिंदु सटीक
पूज्य धर्मोतराचार्य 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ पूज्य ज्ञानसुन्दरजी 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० पूज्य ज्ञानसुन्दरजी 196 | शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ पूज्य ज्ञानसुन्दरजी 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० पूज्य ज्ञानसुन्दरजी 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ पूज्य ज्ञानसुन्दरजी 199 | अध्यात्मसार सटीक
पूज्य गंभीरविजयजी 200 | छन्दोनुशासन
एच. डी. वेलनकर 201 | मग्गानुसारिया
श्री डी. एस शाह
संस्कृत पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला संस्कृत
श्री चंद्रशेखर शास्त्री हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
नारद
84
| 244
220
422
304
446
414
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315
307
361 301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | बादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक थी शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती
| श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि । गुजराती | श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत | आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री बरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
महादेव शर्मा
386 351
260
272
530
648
510
560
427
संस्कृत
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
विविध कर्ता
संस्कृत
महादेव शर्मा
112
रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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चौखम्बा-संस्कृत-ग्रन्थमाला !
(ग्रन्थसंख्या १२) विभक्तार्थनिर्णयः ।
।
न्यायानुसारिप्रथमादिसप्तविभक्तिविस्तृतविचाररूपः ।
नैयायिकाग्रणीमहामहोपाध्यायझोपाख्यः ११०. __श्रीगिरिधरोपाध्यायविरचितः । ........
Amrewariciswwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwऊळ
• तर्कतीर्थन्यायरत्नश्रीजीवनाथमिश्रेण परिशोधितः
इन्द्रसागर
काश्याम् विद्याविलासनाम्नि यन्त्रालये श्रीयुत वावू . हरिदासगुप्तेन मुद्रयित्वा प्रकाशितः ।
सन् १९०२ ईस्वी वैक्रमसंवत् १९५८
शुभम् ।
Aho! Shrutgyanam
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Aho! Shrutgyanam
Page #13
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भूमिका।
विदितमस्त्वेतत्खलु सर्वेषामेवात्रभवतां कारकार्थानधिजिगमिषूणां व्युत्पित्सतां च तत्र, तत्रापि न्यायधोरणीपरिष्कृतमनसा प्रेक्षावतां संमदावहकार्यम्। ___यत्किल जागरूकेष्वपि प्रथमादिनिखिलविभक्तिव्युत्पादनच
योग्यताकेषु नैयायिकमतानुसारिषु व्युत्पत्तिवादशब्दशक्तिप्रकाशिकापवाक्यरत्नाकरशब्दार्थरत्नादिषु बहुषु निबन्धेषु यथाऽयं मुद्रयित्वा प्रकाशनायोपक्रान्तः पुरातनोऽप्यधुनैव प्रकाशनान्नव्यतामिव दधानोऽन्वर्थामाख्यां बिभ्रद विभक्त्यर्थनिर्णयनामा नतिदुरूहतया, विस्तृततया, परिपूर्णप्रतिपाद्यविषयतया, परोक्तिनिराकृतिसद्युक्त्यादिगर्भिततया चेदानीन्तनप्रचारशालीदृशग्रन्थापेक्षया 5वश्यं खकीयविषयबुभुत्सुजनमानसेभ्यो ऽधिकं रोचिष्यते निबन्धो न तथा निबन्धान्तरम् इति संभाव्यते । अत्र च क्रमेण प्रथमादिसप्तविंभक्तिविचारो भगवत्पाणिनिकृतसुविभक्तिविधायकसूत्रविवरणव्याजान्न्यायमतमनुरुन्धानेन ग्रन्थक; विहितः । अस्य प्रणेता मिथिलादेशीयो मगरोलीग्रामवास्तव्यः फणदहकुलजन्मा झोपाख्यो गिरिधरोपाध्यायः । अयं च महोपाध्यायवागीशशर्मतो जयन्तीदेव्याऽलम्भि, पदवाक्यरत्नाकरामृतोदयादिविविधनिबन्धनिबन्धुरशेषशास्त्राम्बुधिपारदृश्वनः श्रीनगरनृपालफतेहसागुरोः खकीयपैतृव्यभ्रातुः श्रीगोकुलनाथोपाध्यायातू समधिगतविद्यश्च संपन्नः। गोकुलनाथोपाध्यायः पञ्चदशाधिकषोडशशततमशकाब्दे मिथिलामभूषयदिति तदीयग्रन्थादितो निश्चीयतेऽतोऽर्थात्तच्छिष्यस्यास्य ग्रन्थकर्सरपि तत्समकालतेति निर्विचिकित्सम् । तच्छिष्यता तु खयमेवानेन विभक्त्यर्थनिर्णये तत्र तत्र " इति पदद्वाक्यरत्नाकरेऽस्मदूगुरुचरणा" इत्यादिलेखेन प्रकाशिता। पवाक्यरत्नाकरस्य गोकुलनाथोपाध्यायकर्तृत्वे च तत्कृतग्रन्थान्तिमलेख एव प्रामाण्यपदवीमधिरोहति । अस्य च विभक्त्यर्थनिर्णयस्यैकमेव पुस्तकमधिगतं तदेवाश्रित्य श्रीयुतबाबूहरिदासगुप्तविक्षप्त्यनुरोधादेतद्ग्रन्थरत्नं सं.
C
Aho ! Shrutgyanama
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शोध्य तदीयविद्याविलासनामके यन्त्रालये प्राचीकशम् । एतद्ग्रन्थकर्तृसमयाद्यवधारणे मामकः श्रमस्तु दरभङ्गाभूपाश्रितमहामहोपाध्यायचित्रधरमित्रैः खयमेव तत्सूचयित्वा परिहत इति भृशमेतदीयोपकारं कलयामि, अस्य च कृतेऽपि श्रमपुरस्सरे शोधने शरीरिमात्रसाधारणभ्रान्त्यादिजनितं दोषं सौजन्यधुरीणैः सारस्पृहयालभिः परिशीलितमरालचातुरीकै विपश्चिद्वरैरुपेक्ष्यमाणमाशासानः, सकलाध्येत्रध्यापकादिसौकर्यमेतद्ग्रन्थात्संभावयन् निबन्धुरपि तादृशबुधैकजनवेदनीयश्रमसाफल्यमधुनैवावधारयन् शोधनप्रकाशनादीनां चापि गुणिहक्पथगामितयैव सार्थकतां मन्यमानो गुणिजनाविभूतिमेवैतद्व्यापारात्प्रीयमाणः परमेश्वरो विद्धात्विति कामयते।
. १९५९ वर्षान्ते } .
तर्कतीर्थन्यायरत्नोपाधिकः
श्रीजीवनाथमिश्नः
शुभम्।
Aho! Shrutgyanam
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________________
शुद्धिपत्रम् ।
mmsvvv
पृ० पं० अशुद्धम् ३८ यत्किचिदू ३ २३ अनवच्छदकत्व
१ रूपान्तरस्य । ५ रम्भसंगच्छ २० वच्छिनत्वं १४ न्वयेनामार्थ
२४ तिर्थस्य ८४ स्यतीत्यादी
२१ योगित्बेना २४ तदूबारण २५ खार्थकसव् . ७ करणत्वेनाऽव्या १९ द्वितीयाथता . २० मवछिन्ना १८ द्वानुत्पत्यान्वय १९ उन्यरत्वस्यै । ६ निभादिशकल
९ स्वार्थप्रसिध्या ३० ६ बहुज घटित ३० १६ विशेषणया .. ३२ २३ नागकालयो । ३४ १७ तावच्छदक ३९ ३ प्रवशनीय ३९ ९ धिकरण्य ४७ १४ पात्पर्थ . ४८ २४ वचनाबहुश ५१ १० सिाध्यपुनर्वसू
शुद्धम् यत्किचिद् अनवच्छेदकत्व रूपान्तरस्य रम्भःसंगच्छ वच्छिन्नत्वं न्वये नामार्थ तिर्थस्य स्यतीत्यादौ योगित्त्वेना तद्वारण खार्थकसुब् करणत्वे नाऽव्या द्वितीयार्थता. मवच्छिन्ना द्वानुत्पत्त्यान्वय ङन्यतरत्वस्यै निभादिसकल खार्थाप्रसिध्या बहुघटित विशेषणतया नागतकालयो तावच्छेदक, प्रवेशनीय धिकरण्य तात्पर्य वचनादू वहुशः सिध्यपुनर्वसू
Aho I Shrutavanam
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५४ १० सबोधनम् ५५ १२ ममुपपन्नम् ५६ १ सम्बोधस्य ६१ १० च्छब्दस्यन्यत्रा ७१ १२ क्रिय
सम्बोधनम् मनुपपन्नम् सम्बोध्यस्य च्छन्दस्यान्यता क्रिया
नुपप यति फलव्य वियोग इयां संसर्ग धिकरण पारस्या
रक्यं
।
७१ २२. पप
१० प्यति ११ फव्य २३ विरोग
३ इयं ७७ १२ ससर्ग ७८ १५ धिकर ७९ ३ पारास्या ८० ११ रेक्यं ८१ २२ धेयव०
१७ पवत्यपि २२ कर्मणां कर्मता १० प्रतयो
१३ रमत्या ८४ १९ कर्तृवं
१५ म्याद १ दिती ११ प्रकृत्यार्था १३ याच्छिन्न १७ दिती ७ स्यैव
८ ममवे ८८१० तत्रबोध ८८ २५ यतनो ..
धेयत्व पचत्यपि कर्मणां शराणां कर्मता प्रतियो नमत्या कर्तृत्वं .
म्यादि द्विती
प्रकृत्यर्था । यावच्छिन्न द्विती
स्थैव
.
समवे नञा बोध यतश्चैत्रो स्यन्दो
९१
४ दति
दिति
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धत्वातू
.
९३ ५ धवातू ९३ ६ निषध ९३ . २४ मल्ला ९४ १३ येन ९५ २३ मियत्र
निषेध. मल्लो
त्म्येन
मित्यत्र
का
प्र
भेदस्य ख्यार्थ कण्ठः भि
यो
९७ १० भेस्य ९९ १८ ख्यातर्थ १०२ ६ कण्टः १०२ १७ मि १०२ १९ य १०३ १७ वो १०९ २४ क्रिवा ११३ २० नाया ११४ १० विशेष ११४ १७ ख्यावा ११८ २१ पतया १२३ २ त्यत्ति ११५ १३ क्रिया ना १२३८ ज्ञानखरूप
क्रिया नामा निवेश ख्यातवा षयतया स्पत्ति क्रिया यस्य क्रिया ना शानखरूपक्रियाप्रयोज्यत्वाभावात् क्रियते घटः खयमेघेत्यत्र तुतिप्रत्ययार्थस्योत्पतेः कृतिस्वरूपक्रिया त्पत्ति पञ्च पयो । त्वमर्थः इत्या विषयत पत्ति व्यापारा
१२७ २ त्यत्ति १३८ २४ पञ्ज १३९ १३ पया १४२ ३ त्वर्थः १४२ ७ इया जाणार १४२ १८ विषत १४३ १२ पत्त १४४१२ व्यारा
Aho Shontavanam
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खल्प चिदा नो तण्डुला तादृश
१४५ १८ खल्य १४६ २० भिदा १४७ १० तो १५० २ तण्डलां . १५० १५ तादश १५१ १७ यज् १५७ ११ दोग्धा १५९ २० त्वात १६३ ३ यात्ता
रायन्ता १६८ ८ त्यध १८३ २३ फलवा १८६ २५ पार्थ १८४ २ वाक १८४ ८ द्वितीययोश्च द्वयं
पज् दोग्धी त्वातू यान्ता ण्यन्ता त्यध फलावा यार्थ वाचक द्वितीययोश्च परत्वान्वयिसमवेतत्वमवधिश्च द्वयं पन्थं
तथा
देवंदे ज्ञाफ ,
सूत्रे
सूत्रं
१८६.१७ पन्थ १८७ ११ तथ १८७ १६ देवदे १८७ २५ शाफा १८८ २ सूत्र १८८ ४ सूत्र १८९ १९ णेचा १९० १८ व्दन १९० २५ कायां १९१ २३ वच्छेदक १९२ १० मामा १९६ १२ प्रतिधात १८६ १४ दीप्यते रर्थ २०४ १७ द्वितीयवा २११ २१ प्रकत्या २१२ १ द्वेणैः
णेच्छाचा ब्देन कां घच्छेदकताऽवच्छेदक माना प्रतिघात दीप्यतेरर्थ द्वितीयावा प्रकृत्या - द्रोणैः
.
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मादिना मतुबर्थता
दर्शित
२१२ ५ मादिना २१२ ९ मतुवर्थता २१८ ७ दशित २२१.८ पत्त्यामह २२२ १८ च्छेदकसवन्धा २२२ २१ विशष्यतया २२२ २१ विशषणतया २२२ २२ चाधयत्व २२३. ५. कन्याभिन्न : २२३ १२ विशेष्येऽवाधे २२४ २४ सहार्थः एवं
२२४ २४ दिवसवृत्तेर्वा २२५१ स्तद्वतः २२८ २२ कालिकत्वविशे २३१ २५ निगमकाले २३२८ विधयाय॑स्तेन २३७ २४ यत्र द्वितीयां २४३ १२ युक्तप्रधाने २४३ २५ चाशुप्रयोज २४९ २ कार्यभाव २५३ ६ व्यावृत्तः प्रतीते २५३ २४ भावद्यावर्त २६० १५ धमपदं २६३ ५ पदेस्य, २६६ १८ प्रतियोगिता २६८. ४ तृतीयाथ। २६८ १४ कर्मतिड्योगात २७१ २ कामनया गवि
पत्न्या सह च्छेदकसंबन्धा विशेष्पतया विशेषणतया चाधेयत्व कन्याऽभिन्न विशेष्ये बोध सहार्थः समानकालिकत्वं सहार्थे कालिकं विशेषणतया दैशिकं विशेष्यतया दीर्घत्वमन्वेति श्वासण्डा इत्यस्य दण्डसहशा:श्वासा इत्यर्थः एवं दिवसवृत्तेर्निशावृत्तेवी स्तद्वन्तः कालिकत्वे विशेष निर्गमकाले विधयाऽर्थस्तेन यत्र तु पय इति द्वितीया सहयुक्त प्रधाने चाक्षुषप्रयोजकार्याभाव व्यावृत्तेः प्रतीते भाववद्यावर्त धूमपदं पदस्य प्रतियोगिता तृतीयार्थ कर्मतियोगात कामनया दीयमानायां गाव
.
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________________
२७४ १ त्वत्राहन्यमानः २७५ १७ संभवेवा २७९ १२ हुतिस्तिष्ठतिः ૨૦ १ भावे वा फले
२८० २० तत्रेच्छायांउत्कर्ष २८१
(4)
१ निरूपितावच्छेदकतायाः
प्रतियोगित्वेनसम्वन्धेनचा २८९ ६ धेयत्वं वा भार्याकर्म
२९० १८ प्रयोगानुपपतेः ३१२ १९ सम्बन्धस्य घटके
३२२ ९ पत्रात्पतपित
३२३ २ श्रान्ताः रचना ३२५ १५ बन्धस्य प्रतियोगि
• ३३९ ११ प्रयोजकोनिश्चयस्त्वर्थाकर्तव्यत्वप्र
३५२ २३ ज्ञानस्यचरणा ३५४ १९ वयोवाध्यः
३५४ १२ शेषेषष्ठयव ३५४ १५
न्वयबाधः
३५४ १८ पपत्तः त्यगा ३५४ २० यवेभ्या
३५५ २२ शब्दना ३६० १ त्रीणि पितृत ३६० २ मंजानः इति ३६३ ९ दर्शितः प्रभवत्यर्थ
३६३ १२ नस्यचाक्षुषस्यवा
त्यत्राहन्यमानः संभवेन न्हुविस्तिष्ठतिः
भावे ज्ञानसामान्यविषयत्वा
भावे वा फले
तत्रेच्छायां चतुर्थ्यर्थे उत्कर्ष
...
800
धेयत्वं वा भार्याविशेषितमन्विति भार्याकर्म
प्रयोगे चतुर्थीप्रयोगानुपपतेः सम्बन्धस्य संयोगसमवायस्वरूपस्य घटके
पत्रात्पतति पतङ्गे
श्रान्ताः संसर्गरचना बन्धेन पत्रान्तरनिष्ठ भेदस्यापि पतने सत्त्वात् वृत्त्यनियामकसंबन्धस्य प्रतियोगि प्रयोजको निश्चयाभाव इति वाक्यार्थः निश्चयस्त्वर्थात्कर्तव्यत्वप्र
ज्ञानमन्धस्य चरण
न्वयो बोध्यः
शेषे षष्ठयेव न्वयबोधः
पपत्तिः त्यागा
यवेभ्यो
शब्देना
त्रीणि मातृतः त्रीणि पितृतः भजानः पितृत इति दर्शितः प्रकाशः प्रभवत्यर्थः श्नस्य लौकिकस्य चाक्षुषस्यप्रत्यक्षस्य वा
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३७८ ९ शादेश्यस्यवाअभाव
३७९ २२ भेदस्याप्रसिद्धावपि ४०२ १ त्रप्राति
४०६१ प्रतियोगिक ४०६ २५ ठत्वं ४०८६ निरूपकत्वा ४०८ २० धात्वथ ४०९ २३ नंदीकूलानि ४१८ ३ चन्द्रमसः ४२१ १७ पक्कपूर्वी वेदा
सादेश्यस्यसंयोगस्य वा अभावश्च भेदस्याऽव्यावर्तकत्वेपि तद्व सामान्याभेदस्य प्रसिद्धावपि त्र विभक्त्यर्थाधेयत्वद्वारैवान्वयः यत्र तुनान्वयस्तत्र प्राति प्रतियोगिताक रूप्यत्वं निरूपकखामित्वा धात्वर्थ नदी कूलानि चन्द्रमः पक्कपूर्वी सूपान् अधीतपूर्वी वेदान् मिति कृतपूर्वीकटमित्यत्र कृत प्रमाणत्वस्य कर्नु कट वाराणसी 'तस्यति वाट्टैन्धन त्वशब्देन तित्वस्य' न्ति
४२९ दमिति कृत ४२७१७ प्रमाण वस्य ४२७ २५ तर्क ४२९ ७ कट ४२९८ वाराणासी ४३१२० तस्यति ४४१११ वार्दन्धन ४४६ १४ स्वशदेन ४५१ १० तिवस्य ४५४१८ न्तिड ४५४ १९ रता
करणत ४५९ १२ भदस्य ४५९ १३ रातर ४५९२४ त्वातूनच ४६१ ९ पत्तः ४६७ २४ त्वेऽभ्यु ४६९६ तादि ४६९ २४ नराणां मध्ये
रया
करणता भेदस्यरोत्तर त्वात् न युक्तमेतद् नच पत्तेः त्वाभ्यु त्यादि नराणां मध्ये क्षत्रियः शूर इत्यादी मध्ये सप्तमी
४७५ ५ पञ्चमी
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विषयसूची।
पू० पं०
४ ग्रन्थारम्भः ११ विभक्त्यर्थद्वैविध्यम १२ कारकत्वानुगमपूर्वपक्षः २३ कारकत्वानुगमपरिष्कारः
३ कारकलक्षणपदकृत्यम् २० ९ विभक्तित्वानुगमपूर्वपक्षः २२ २३ विभक्तिलक्षणम्
५ प्रत्ययत्वानुगमपूर्वक्षः २६ ८ प्रत्ययलक्षणसिद्धान्तः
१५ प्रत्ययलक्षणपदकृत्यम् ३१ ४ तिप्रत्ययशक्त्यादिविचारः ३४ १ सुबर्थनिरूपणारम्भः
२ प्रातिपदिकार्थेतिसूत्रार्थ: ३७ १९ उक्तसूत्रार्थे पद्वाक्यरत्नाकरकृन्मतम् ११ २२ भावाख्यातस्थलीयबहुवचने फणिभाष्यकृन्मतम् ५४७ संबोधनेतरप्रथमाऽर्थविचारसमाप्तिः . " ९ संबोधनप्रथमाऽर्थारम्भः "१० संबोधने चेतिसूत्रार्थः ५६ २४ अत्रैव पदवाक्यरत्नाकरकृन्मतम ५८७ संबोधनप्रथमाऽर्थः ६३ २३ दार्शनिकरीतितोऽचेतनसंबोध्यत्वासंगतिनिराकरणम् ६४४ आलंकारिकगीततस्तन्निराकृतिः
१५ वार्तिककून्मतेन वाक्यलक्षणम् ६७ १४ महाभाष्यमतेन तल्लक्षणम् १७. पदवाक्यप्रमाणविदां नयैर्धात्वर्थतिङन्तार्थप्रथमान्तार्थ
प्राधान्यबोधनम् ६८३ संबोधनप्रथमाऽर्थविचारसमाप्तिः.. ६९ २ द्वितीयार्थारम्भः । ” ९ कर्तुरीप्सितेतिसूत्रार्थः: १३८ १ तथायुक्तमितिसूत्रार्थः " १२ अकथितं चेतिसूत्रार्थः १५३ २१ अकर्मकधातुभिरितिवार्तिकार्थः १५५ ४ गतिबुद्धिरितिसूत्रार्थः .
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१६४ २५ जल्पतिश्रुग्रहेतिवार्तिकार्थः १६८ २१ दृशेश्चेतिवार्तिकार्थः १६९ २५ अभिवादिहशोरितिवार्तिकार्थः १७१२४ हक्रोरितिसूत्रार्थः १७३ १९ नीवह्योरितिवार्त्तिकार्थः
" २२ वहेरनियन्तृकर्तृकोतिवार्तिकार्थः १७४ २ आदिखाद्योरितिवार्तिकार्थः
.६ भनेरहिंसेतिवार्तिकार्थः । ” १५ शब्दायतेरितिवार्तिकार्थः ” १८ अधिशीङितिसूत्रार्थः । १७५ ६ अभिनिविशश्चेतिसूत्रार्थः १७६ ७ उपान्वेतिसूत्रार्थः " १२ अभुक्त्यर्थेतिवार्तिकार्थः १७७ १ क्रुद्रुहोरुपेतिसूत्रार्थः " ११ कारकद्वितीयाऽर्थविचारसमाप्ति ” १३ कारकेतरद्वितीयाऽर्थारम्भः १८० १८ उभसर्वतसोरित्यस्यार्थः १८३ ९ अभित इत्यस्यार्थः । १८४ ५ अन्तरान्तरेणेतिसूत्रार्थः १८५ १० अनुर्लक्षण इतिसूत्रार्थः . ११ कर्मप्रवचनीययुक्त इतिसूत्रार्थः
” १९ तृतीयाऽर्थ इतिसूत्रार्थः " २२ हीन इतिसूत्रार्थ:" ". २५ उपोऽधिके चेतिसूत्रार्थ: १८६ ५ लक्षणेत्थमितिसूत्रार्थः .... १८७ १६ अभिरभाग इतिसूत्रार्थः
" २३ अधिपरी इतिसूत्रार्थः १८८४ सुः पूजेतिसूत्रार्थः "७ अतिरतीतिसूत्रार्थः ” २४ अपिः पदेतिसूत्रार्थः १९१ ४ कालाध्वनोरितिसूत्रार्थः १९३ ३ कारकेतरद्वितीयाऽर्थविचारसमातिए १९४ १ तृतीयाऽर्थविचारारम्भः " ६ कर्तृकरणयोरितिसूत्रार्थः
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१५३ १४ स्वतन्त्रः कतैतिसूत्रार्थः २०० १३ साधकतममितिसूत्रार्थः २०३ ८ दिवः कर्म चौतिसूत्रार्थः २०४ १७ संज्ञोऽन्यतरेतिसूत्रार्थः २०५ ११ तृतीया च होश्छन्दसीतिसूत्रार्थः " १८ अशिष्टव्यवहार इतिवार्तिकार्थः २०६ ९ अपवर्ग इतिसूत्रार्थः । २०७ १४ कारकतृतीयाऽर्थविचारसमाप्तिः " १६ अकारकतृतीयाऽर्थविचारारम्भः " १८ प्रकृत्यादिश्य इतिवार्तिकार्थः २२० १४ सहयुक्त प्रेतिसूत्रार्थः । २४३ १६ येनाङ्गेतिसूत्रार्थः २५० १५ इत्थंभूतेतिसूत्रार्थः २६० ६ हेतावितिसूत्रार्थः २६३ ११ षष्ठी हेत्वितिसूत्रार्थः " २५ सर्वनास्नस्तृतीया चेतिसूत्रार्थः २६४ १८ निमित्तेतिवार्तिकार्थः
"२५ प्रसितेतिसूत्वार्थः २६५ १२ नक्षत्रे चेतिसूत्रार्थ: २६६ ११ तुल्यार्थरितिसूत्रार्थः २६८ २० तृतीयाविचारसमाप्तिः २६९ २ चतुर्थीविचारारम्भः
७ चतुर्थी संप्रदान इतिसूत्रार्थ: " १० कर्मणा यमभीतिसूत्रार्थः । ४३१५ क्रियाग्रहणमितिवार्तिकार्थः २७८१० रुच्यर्थेतिसूत्रार्थः २७९ १२ श्लाघन्हुङितिसूत्रार्थः २८३ १४ धारेरुत्तमतिसूत्रार्थः २८५ ३ स्पृहोरितिसूत्रार्थः २८७ ८ क्रुधदुहेर्पातिसूत्रार्थः २९१ १७ राधीक्ष्योरितिसूत्रार्थः २९२ २३ प्रत्याझ्यामितिसूत्रार्थः २९५ २५ अनुप्रतीप्तिसूत्रार्थः । २९७ १४ परिक्रयण इतिसूत्रार्थः
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२९९ १४ कर्मणः करणसंक्षेतिवार्त्तिकार्थः ३०० १३ गत्यर्थकर्मणीतिसूत्रार्थः ३०१ ८ क्रियार्थोपपदस्येतिसूत्रार्थः ३०२ २०. तुमर्थाच्चेतिसूत्रार्थः ३०४ १५ मन्यकर्मेतिसूत्रार्थः ३०७ ५. कारकचतुर्थीविचारसमाप्तिः
७ अकारकचतुर्थीविचारारम्भः ". ९ तादर्थ्य इतिवार्तिकार्थः ३०८ ६ क्विपि संपतिवार्तिकार्थः ३०९ २ उत्पातेनेतिवार्तिकार्थः " १७ हितयोगे चेतिवार्तिकार्थः ३१० ५ चतुर्थी चाशिष्येतिसूत्रार्थः " ९ नमःखस्तीतिसूत्रार्थः ३१८ ८ चतुर्थी विचारसमाप्तिः ३१९ २ पञ्चमीविभक्तिविचारारम्भः " ७ अपादाने पञ्चेतिसूत्राथः " १२ ध्रुवमपोतसूत्रार्थः ३३७ १७ जुगुप्साविरामेतिवार्त्तिकार्थ: ३३९ १८ भीतिसूत्रार्थः ३४५ २४ पराजेरितिसूत्रार्थः ३४७ १७ वारणार्थेतिसूत्रार्थः ३५५ ८ अन्तर्धावितिसूत्रार्थः ३५७ ५. आख्यातोपेतिसूत्नार्थः ३५९ ६ जनिक रितिसूत्रार्थः ३६१ २५ भुव इतिसूत्रार्थः ३६४ २५ करणे चेतिसूत्रार्थः ३६५ १४ ल्यब्लोप इतिवार्त्तिकार्थः ३६६ १४ कारकपञ्चमीविचारसमाप्तिः " १६ अकारकपञ्चमीविचारारम्भः " १९ यतश्चाध्वेतिवार्तिकार्थः ३६८ १४ अन्यारादीतिसूत्रार्थः । ३७६ २५ ) अप्परी इतिसूत्रार्थः . ३७७ ३ आङ्मर्यादेतिसूत्रार्थः ” १० पञ्चम्यपेतिसूत्रार्थः का
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३८७ २५ प्रतिः प्रतीतिसूत्रार्थः ३८८ ३ प्रतिनिधीतिसूत्रार्थः ३८९ २० अकर्तेतिसूत्रार्थः ३९० ९ विभाषा गुण इतिसूत्रार्थः ३९९ १६ पृथगिति सूत्रार्थः ४०१ ३ दूरान्तिकार्थैरितिसूत्रार्थः १४ दूरान्तिकार्थेभ्य इति सूत्रार्थः ४०२ ५ पञ्चमी विभक्त इतिसूत्रार्थः ४०४ २४ अकारकपञ्चमीविचारसमाप्तिः ४०५ २ षष्ठीविभक्तिविचारारम्भः
39
55
७ षष्ठी शेष इतिसूत्रार्थः ४०७: २ ज्ञोऽविदेतिसूत्रार्थः
55
४०८
१८ अधीगेतिसूत्रार्थः ९ कृञः प्रतीतिसूत्रार्थः ४०९ १४ रुजार्थेतिसूत्रार्थः
४१०
२ अज्वरीतिवार्त्तिकार्थः
55
८ आशिषि नाथ इतिसूत्रार्थः
१७ जासिनिप्रेतिसूत्रार्थः
४११ ७ व्यवहृपणोरितिसूत्रार्थः,
59
(५)
४१२ ४ कृत्वोऽर्थेति सूत्रार्थः ४१६ ३ दिवस्तदेतिसूत्रार्थः
55
१२ विभाषोपेतिसूत्रार्थः
२० द्वितीया ब्राह्मणइति सूत्रार्थः
"
४१७ ४ प्रेष्यब्रुवारीतिसूत्रार्थः २४ चतुर्थ्यर्थ इतिसूत्रार्थः
27
४१८ ९ यजेश्चेतिसूत्रार्थः
39
२० कर्त्तृकर्मेतिसूत्रार्थः ४२५ १८ उभयप्राप्तावितिसूत्रार्थः ४२६ ५ अककारयोरितिवार्त्तिकार्थः ४२७ १२ तस्य चेतिसूत्रार्थः
४२८ ५ अधिकरणेतिसूत्रार्थः
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१६ न लोकेति सूत्रार्थः ४२९ १० कमेरनिषेध इतिवार्त्तिकार्थः ४३० १ द्विषः शेतिवार्त्तिकार्थः
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" ७ अकेनोरितिसूत्रार्थः . ४३२ ८ कृत्यानामितिसूत्रार्थः " १९ गुणकर्मणीतिवार्तिकार्थः ।... " २१ कारकषष्टीविचारसमाप्तिः ४३३ १ अकारकषष्ठीविचारारम्भः " ८ चतुर्थी चेतिसूत्रार्थः ” २४ षष्ठ्यर्थे चतुर्थीतिवार्तिकार्थः ४३४ ५ षष्ठ्यतसेतिसूत्रार्थः " २० .एनपेतिसूत्रार्थः ४३५ ५ षष्ठीविचारसमाप्तिः ४३६ २ सप्तमीविभक्तिविचारारम्भ " ७ सप्तम्यधीतिसूत्रार्थः " १२ आधारोऽधीतिसूत्रार्थः ४३९ १७ क्तस्येनितिवार्तिकार्थः ४४० ४ कारकसप्तमीविचारसमाप्तिः
" ६ अकारकसप्तमीविचारारम्भ ४४७ १० साध्वसाध्वितिवार्त्तिकार्थः " २२ अर्हाणामितिवार्तिकार्थः ४४८ २१ निमित्तादितिवार्तिकार्थः ४५० २३ यस्य च भावनेतिसूत्रार्थः ४५५ १ षष्ठी चानेतिसूत्रार्थः । ४५६ ९ स्वामीश्वरेतिसूत्रार्थ .. ४५७ १० आयुक्तेतिसूत्रार्थः ४५८ २ यतश्चेतिसूत्रार्थः ४७० ११ साधुनिपुणेतिसूत्रार्थ: ४७१ १२ अप्रत्येतिवार्त्तिकार्थः " १७ सप्तमीपञ्चम्यावितिसूत्नार्थः ४७५ २ अधिरीतिसूत्रार्थः
" ६ यस्मादधिकमितिसूत्रार्थः ४७६ ७ विभाषा कृत्रीतिसूत्रार्थः ४७७ १२ अकारकसप्तमीविचारसमाप्तिः " १५ ग्रन्थसमाप्तिः १६ ग्रन्थकृत्पित्राद्युल्लेखः .
इति । शुभम् ।
..
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સરસ્વનીકુરૂકુંભાર २सन५३४ाना AMAEne senile
ATTA
S
विभक्तयर्थनिर्णयः ।
क क्रमांक MC श्रीगणेशाय
न म बहुविधरूपपरिग्रहजगदभिनाटनमिहाकाइन् । स्वयमपि नटति सुकुतुको यस्तस्मै शंभवस्तु नमः॥१॥ ध्रुवोऽपाये कमेंहितफलहितः साधकतमः सदाधारोऽभौष्टः परफलकभावेन जगताम् ॥ स्वतन्त्रः कर्तासि म्फुटवलयशेषः प्रथमया सुलिङ्गख्यातस्त्वं विशदय विभक्ती गिरिश ता: ॥२॥ इह खलु सर्वेषां विभक्त्यर्थानां भगवत्यन्वय इति विभक्त्यर्थो निरूप्यते । तत्र कारकाकारकभेदात्म द्वेधा । ननु कारकत्वस्थानुगतत्वाभावेन न तेन रूपेण विभत्यर्थता कारकाणां प्रातिखिकरूपेण तदर्थत्वे द्वेधा विभागो ऽनुपपन्नः । न च क्रियान्वयित्वरूपं कारकत्व नाननुगतमिति वाच्यम् । कुमार्य इव कान्तस्य त्रस्यन्ति स्टहयन्ति चेत्यादी षष्यर्थशेषस्यापि क्रियान्वयित्वात्तवातिव्याप्तेः । न च षट्यर्थभिन्नलमपि विशेषणमिति वाच्यम् । तथा सति तण्डुलस्य पोक इत्यादौ षयर्थस्याकारकत्वापत्तेः । अथ कर्तृकर्मणोः कृतीति सूत्नविहितषयाः कारकार्थकत्वेन तण्डुलस्य पाक इत्यादौ षष्यर्थस्य कार
पं.श्री चंद्रसागरजी गणिवर।
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कारकसामान्य विल्लारः कत्वेऽपि नाव्याप्तिः कृतान्यषष्यर्थभिन्नत्वे मति क्रिया: न्वयित्वस्वरूपस्य कारकत्वस्य कारकलक्षणत्वेनाभ्युपगमाद्दर्शितषयाः कृाक्तत्वेन तदर्थस्य निरुक्तकारकत्वानपायादिति चेन्न । सुराणां पातासावित्यादौ -
तथेषषष्ठया अर्थे ऽतिव्याप्तेस्तत्र निरुक्तकारकत्वस्य सत्वात् । न च धात्वर्थेतरान्वयायोग्यत्वमस्तु विशेषणं तथा च शेषषष्ठार्थस्य धात्वर्थेतरस्मिन् राजः पुरुष इत्यादौ पुरुषादावन्वयानातिव्याप्तिरिति वाच्यम् । एवं सति हितीयाद्यर्थकारकेऽव्याप्तेः । दण्डं दधातीत्यादौ यादृशोऽधिकरणादिदितौयार्थो धारणान्वयी तादृशस्यैवाधिकरणादेहितीयार्थस्यानुदण्डं जातिरित्यादौ जात्यन्व यात्। किञ्च धात्वर्थेतरान्वयायोग्यत्वं धात्वर्थतरान्वययोग्यत्वमविज्ञाय दुग्रहं तच्च कारकान्यत्वमेव तथा सत्यन्योन्याश्रयः स्यात् तादृशान्वयायोग्यत्वस्वरूपकारकत्वज्ञानस्य तादृशान्वययोग्यत्वरूपकारकान्यत्वज्ञानस्य च परस्पराधौनत्वात् । एतेन धात्वर्थान्वयायोग्यत्वं शेषत्वं शेषभिन्नत्वं कारकत्वमित्यपि परास्तम् । धात्वर्थान्वयायोग्यत्वस्य कारकत्वस्वरूपाग्रहे दुर्ग्रह त्वेनान्योन्याश्रयप्रसङ्गात् । किं च शेषत्वमपि नेदृशं भवति मम प्रतिभाति कान्तस्य त्रस्यतीत्यादौ शेषस्य धात्वर्थान्वयित्वात् । एतेन धात्वर्यान्वितबर्थत्वं कारकत्वं विभक्त्यर्थस्य विभक्त्यर्थद्वारक क्रियान्वयित्वं कारकत्वं विभक्ति प्रकृत्यर्थस्येत्यपि परास्तम् । दार्शतषष्ठया अर्थे प्रकृत्यर्थं चातिव्याप्तः। यत्त्वपोदानाद्यन्यतमत्वं कारकत्वं नात: काप्यव्यास्यतिव्याप्तौ इति तन्न अपादानत्वादेरपि क्वचित्षष्ठार्थत्वात् । किं चापादानत्वादिकमपि नैकं ध्रुवत्वासोढत्वादिभेदेन बहुविधत्वात् इति
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विभक्तवर्थनिर्णये कथमुक्तान्यतमत्वं कारकत्वमिति । न च धूवाद्यन्यतमत्वेनापादानादिं निरुच्य तावदन्यतमत्वं कारकत्वं निर्वाच्यमिति वाच्यम् । कतिपयापादानादिकं जानतां सकलापादानादिकमजानतां ध्रवादी कारकत्त्वग्रहानापतेः । प्रतियोगित्ज्ञानं विना यावदपादानादिभेदस्यैव दुर्गहत्वेन तदन्यतमत्वस्य नितरां दुर्ग हत्वात् । न च तावदपादानादित्तिगगनाभावादिव्यक्तिरेवान्यतमत्वं तस्य यत्किंचिदपादानादिग्रहेऽपि ग्रहसंभवादिति वाच्यम् । गगनाभावादिव्यतेस्तावदपादानादित्तित्ववैशिष्ट्योतौबौजाभावात् सर्वेषामेव कदा चित्त चित्कारकत्वेन तावहुत्तिगगनाभावादेरव्यावर्तकत्वात् व्याघ्रादिभेतीत्यादौ यादृशस्य हेतुत्वादेरपादानत्वं तादृशहेतुत्वादेर्व्याघ्रस्य भयमित्यादौ षष्ठार्थत्वात् । एतेन तावदन्यतमत्वं कारकपदप्रवृत्तिनिमित्तमिति कारकपदवाच्यत्वमेव कारकत्वमिति निरस्तम् तावदन्यतमत्वस्य निर्वहनासहत्वादिति चेत् । उच्यते । नामार्थान्वयप्रयोजकतानवच्छेदकीभूतक्रियान्वयितावच्छेदकधर्मवत्वे सति पदोन्तरासमभिव्याहृतमुबर्थत्वं कारकत्वं कान्तस्य बस्यतौल्यादौ षष्ठयर्थ वारणाय भूतान्तं धर्मविशेषणम् । न च नामार्थान्वयाप्रयोजकत्वमेव तद्दारणार्थमस्तु किमनवच्छेदकत्वविवचयेति वाच्यम् व्याधाविभेतीत्यादौ हेतुतादेः कारकस्याव्यापनात् व्याघ्रस्य भयमित्यादौ नामार्थान्वयिवात् अनवच्छेदकत्वविवक्षणे तु तादृशस्य हेतुतात्वादेः सत्वान्नाव्याप्तिः तावतापि दर्शित षष्ठवर्थे ऽतिव्याप्तिः तत्व हेतुतादेः संबन्धत्वेन रूपेणान्वयात् संबन्धत्वस्य निरुतानवच्छेदकत्वविरहेऽपि तादृशस्य रूपान्तरस्य सत्वा
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कारक सामान्यविचारः ।
दिव्यवच्छेदकान्तं विशेषणं तेन भयहेतुतात्वादे रूपान्तः रस्य प्रकृते क्रियान्वयितानवच्छेदकत्वात् शेषत्वेन भयहेतुतादेः कारकस्यान्वयेऽपि हेतुतात्वादिना नन्वयात् अत एव कर्तृत्वादिकारकस्य कदन्तायें कर्ट त्वत्वादिना ऽन्वयार्थं कर्ट कर्मणोः कृतीत्यादिष्टथक्सूचारम्भसंगच्छते अन्यथा शेषत्वेन कारकस्य सर्वस्यान्वयसंभवे पृथक सूत्र प्रणयनस्य वैयर्थ्यापत्तेः शेषत्वं तु संबन्धत्वं सप्रतियोगित्वं वेत्यन्यदेतदित्यादिकं षष्ठीविवरणे व्यकौभविष्यति कर्मादिपदोपात्तानां कर्मादीनां कारकत्ववारणाय सुबर्थत्वमुक्तम् तत्रापि दण्डं दधातीत्यादौ दण्डवृत्तित्वादिस्वरूप कर्मत्वस्यानुदण्डं जातिरित्यादौ नामार्थना तावन्वयात् कर्मकार के ऽव्याप्तिः स्यात्तद्दारणाय पदान्तरासमभिव्याहृतत्वं सुपो विशेषणम् दर्शितकर्मत्वामार्थान्वये कर्मप्रवचनीयान्वादिपदसमभिव्याहारस्य तत्र सत्वात् अन्यथा दण्डं जातिरित्यादावपि ताहशान्वयबोधप्रसङ्गात् । नन्वेवमपि गेहे पचतीत्यादौ गेहवृत्तित्वस्य पाकान्वयित्वेन कारकत्वं तस्य गेहे घट दूत्यादी घटादिनामार्थे ऽन्वयान्निरुक्तकारकत्त्वविरहात्स
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कारकेऽव्याप्तिः । न च कर्तृ कर्मान्यतर घटितपर परासंसर्गावच्छिन्नष्टत्तित्वस्यैव सप्तम्यर्थतया कारकत्वं तादृत्तित्वस्य नामार्थेऽन्वयासंभवात् कथमव्याप्तिरिति वाथ्यम् सप्तम्यधिकरणे चेति सूत्रेणाऽऽधेयत्व सामान्यस्यैव सप्तम्यर्थत्वन प्रतिपादनाद्दर्शितपरंपराघटितदृत्तित्वस्य सप्तम्यर्थत्व ेन प्रतिपादने गेहे घट इत्यादावाधेयत्वसामान्यस्यानानुशासनिकत्वापत्तेरिति चेद् । मैवम् । दर्शितसूत्रेणाधेयत्व सामान्यस्य दर्शितपरंपरा संसर्गाव
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विभक्त्यर्थनिर्णये
च्छिन्नाधेयत्वस्य च द्वयोर्योग विभागेन सप्तम्यर्थत्वप्रतिपादनात् | यहा यादृशसंसर्गेण क्रियायामन्वय स्तादृशसंसौव नामार्थे ऽन्वयो विवक्षितः एवमाधेयत्वसामान्यस्य सप्तम्यर्थत्वो ऽपि न चतिस्तस्य दर्शितपरम्पराधटिताधेयत्वौयस्वरूपसम्बन्धेन क्रियायामन्त्रयात् नामार्थे तु संयोगाद्यवच्छिनाधेयत्वीय स्वरूप सम्बन्धेनेति दर्शितपरम्पराघटिताधेयत्वीय स्वरूपसम्बन्धेनान्वयसम्भवात्सप्तम्यर्थाधेयत्वकारके नाव्याप्तिः । नामार्थान्वयस्तु नामार्थविशे ष्यकशाब्दबोधे बोध्यः अन्यथा सुपां लिङ्गसयातिरिक्तस्वार्थे प्रकृतिभूतनामार्थविशे षकशाब्दजनकत्वनियमादसम्भवापत्तेः । तथापि गगनं न पश्यतीत्यादौ द्वितीयादेः स्वार्थविशे षणक नञर्थविशे ष्यकबोधजनकत्वाद्व्याप्तिरिति नाम्नि निपातातिरिक्तत्व विशेषणम् । यदि ति कर्ट कर्मणोरपि कारकत्व ं तदा न्यायमते तत्राव्याप्तिः तिङः प्रथमान्तार्थविशे ष्यकशाब्दप्रयोंजकत्वादिति विभाव्यते तदा नामार्थान्वयप्रयोजकतावच्छेदके तिर्थतानवच्छेदकत्वं विशेषणम् । सुप्पदस्याने विभक्तिपदं च बोध्यम् । शाब्दिकमते च नाव्याप्तिरतो न तद्दिशेषणम् । ननु यदि क्रियायां नामार्थे चान्वये एकसंबन्धावच्छिनत्वं विशेषणम् तदा सप्तम्यर्थ - कारके ऽव्याप्तिर्दर्शित पर पराघटिता धेयत्वीयसंसर्गेणाधेयत्वविषयकनामार्थविशेष्यकशब्दाप्रसिद्धेः तादृशसंसर्गका धेयत्व विषयकशाब्दबोधौपयिकाकाङ्क्षाया नानि विरहात् तथा च तोदृशशाब्दप्रयोजकतानवच्छेदकत्वघटितलक्षणाप्रसिद्ध्या सर्वत्रैवासंभवः । षष्ठ विना पदान्तरासमभिव्याहृतविभक्तौना मर्थस्य क्रियान्व
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कारकसामान्यविचारः। यघटकसंबधेन नामार्थेऽनन्वयादिति चेन्न । हिविधाधेयत्वस्य सप्तम्यर्थत्वान्युपगमेन संबन्धविशेषानवच्छिन्नान्वयस्य लक्षणेऽप्रवेशात् । एकसंबन्धावच्छिन्ना वयविवक्षणे तु क्रियानिरूपितसंबन्धावच्छिन्न प्रकारतानिरूपितविशेष्यतासंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य नामार्थनिठस्य शाब्दाभावस्य प्रयोजकतावच्छेदकत्वमेव नामार्थास्वयप्रयोजकतानवच्छेदकत्वं बोध्यम् । तादृशशाब्दाभावप्रयोजकतावच्छेदकत्वं विभक्त्यर्थतावच्छेदकापादानत्ववादी संभवति । तथा हि । क्रियानिरूपितत्वोपलक्षिततत्संबन्धावच्छिन्नविभक्त्यर्थप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासंबन्धेन शाब्दं प्रति नामजन्योपस्थिते विशेष्यतासंबन्धन प्रतिबन्धकत्वं वक्तव्यम् । न च वृक्षात्यततीत्यादौ विभागासमवायिजनकत्वस्य पञ्चम्यर्थस्य पतन क्रियान्वयिनोऽन्वयेनामार्थस्यायोग्यत्वादेव क्षात्पर्णमित्यादौ शाब्दबोधो न भवति नामजन्योपस्थितेः प्रतिबन्धकत्वमयुक्तामिति वाच्यम् । कचिदयोग्यत्वेऽपि नामार्थस्य सर्वत्र तथात्वविरहात् वृक्षाकर्मेत्यादौ योग्यतायाः सत्वाच्छाब्दापत्तिवारणाय दर्शितप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावावशयकत्वात् । एवं क्रियान्वितापादानत्वाद्यर्थकतत्तविभतर्नाम्ना मममनाकाङ्गत्वेन तोदृशशाब्दाभावप्रयोजकनामनिराकाङ्गत्वाश्रयविभक्तिजन्योपस्थितिप्रकारकत्वात्मकतादृशशाब्दाभावप्रयोजकतावच्छेदकत्वखरूपनामार्थान्वयप्रयोजकतानवच्छेदकत्वं विभक्त्यर्थतावच्छेदकेस्पष्टम् । एवं धातुसाकाकविभक्तिजन्योपस्थितिप्रकारत्वस्वरूपं क्रियान्वयितावच्छेदकत्वमपि स्पष्टम् । तादृशसंबन्धावच्छिन्नविभक्त्यर्थप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासं
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विभक्त्यर्थनिर्णय बन्धेन शान्दं प्रति धातुजन्योपस्थितेर्विशेष्यतासंबन्धेन हैतुत्वात् । ईदुशहेतुहेतुमद्भावग्रहार्थमेव नामार्थोपस्थितेः प्रतिबन्धकत्वं प्रदर्शितम् न तु वास्तवम् धातुजन्योपस्थितेर्हेतुतयैवातिप्रसङ्गवारणसंभवात् । अत एव तगडलस्थ पाक इत्यादौ नामजन्योपस्थितिसत्वेऽपि धातुजन्योपस्थितिबलात्तण्डुलकर्मताक: पाक इति शाब्दबोध उपपद्यते । न्यायमते दर्शितहेतुहेतुमद्भावे विभक्तौ तिडन्यत्वमपि विशेषणम् । एवं धातुभिन्ननिराकाङ्गताप्रयोजकार्थवभिन्ना तिङन्या या विभक्ति स्तङ्गिनायाः पदान्तरासमभिव्याहताया विभक्तरर्थ: कारकम् । अत्र पदान्तरासमभिव्याहारोऽपि विभक्तिस्वरूपशब्दधर्मतयाधातुभिन्ननिराकाङ्गताप्रयोजको बोध्यः । अवार्थस्य निराकाकताप्रयोजकत्वं विभक्त्यर्थतावच्छेदकरूपेण क्रियान्वयनिरूपकसंबन्धप्रतियोगित्वेन च बोध्यमतो न पूर्वोक्तोव्याघस्य दरम् भूतले घट इत्यादी नोमसाकासत्वेऽपि दोघः यदि पततीतिविनाकृताया क्षादिति पञ्चम्या अर्थीन कारकमिति मन्यते तदा धातुसमभिव्याहृतत्वचरमविभक्तौ विशेषणं बोध्यम् । एवं कान्तस्य त्रस्यतीत्यादी षष्प्रर्थश षस्य नामनिराकाङ्गत्वप्रयोजकत्वान्न तत्र कर्मत्वेऽव्याप्तिः तिङन्यत्वविशेषणात्तिर्थकट त्वादी नाव्याप्तिः पदान्तरासमभिव्याहृतत्वविशेषणाहण्डमनुजातिरित्यादौ द्वितीयार्थाधेयत्व नातिव्याप्तिः । एवमौदृशसुप्तिविभक्त्यर्थद्वारा नामार्थस्यापि कारकत्वं मन्तव्यम्। यदि च तिर्थस्य न कारकत्वं मन्यते तदा धातुभिन्ननिराकासत्वप्रयोजकः पदान्तरासमभिव्याहृतस्य धातुसमभिव्याहृतसुपोऽर्थः कारकम् । अत्र धातुभिन्ननिराका
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___ कारकसामान्यविचारः। यत्वप्रयोजकत्व धातुभिन्नपदव्यतिरेकप्रयुक्तव्यतिरेकाप्रतियोगिस्वप्रकारकशान्दसामान्यकत्व तथाभूतसुवर्थस्य बोध्यम् । सामान्यपदोपादानात्कान्तस्य वस्यतीत्यादी षष्ठार्थस्य श षस्य तादृशशान्दप्रकारत्वेऽपि न तनातिव्याप्तिः । शषप्रकारकशाब्दसामान्ये तादृशक्यतिरेकाप्रतियोगित्वविरहात् । कान्तस्य केश इत्यादी धातुभिन्न पदेनापि शेषप्रकारकशान्दजननात् । तगडलस्य पाक इत्यादौ षष्ठयर्थकर्मत्वादौ नाव्याप्तिः । कर्मत्वप्रकारकशाब्दसामान्यस्य तादृशव्यतिरेकाप्रतियोगित्वात् । धातुभिन्नपदेनकमत्वप्रकारकशाब्दाजननात् एवं स्वप्रकारता स्वार्थ कसुवर्थ तावच्छेदकरूपेण क्रियानिरूपितसंबन्धेन चावच्छिन्ना बोध्या तेन व्याघ्राहिमेतीत्यादौ पञ्चम्यर्थ हेतुत्वस्य गेहे पचतौत्यादौ सप्तम्यर्थाधेयत्वस्य व्याघ्रस्य दरमित्यादी भूतले घट इत्यादौ शषत्वेन क्रियानिरूपकायसम्बन्धेन शाब्दप्रकारत्वापि नाव्याप्तिः पञ्चम्यर्थतावच्छेदकहेतुतात्वन क्रियानिरूपककर्ट कर्मान्यतरघटितपरम्परासंबन्धेन च दशितस्थले शाब्दप्रकारताया अनवच्छिन्नत्वात् । एव सति तगडलं पचतीत्यादौ तण्डुलीया कर्मतेत्यवान्तरवाक्योर्थबोधस्य हितीयाप्रकृतिभूतधातुभिन्नतण्डुलादिपदव्यतिरेकप्रयक्तव्यतिरेकप्रतियोगित्वेनासम्भवः स्यात् तहारणार्थ सुपात्तग्य स्वप्रकारकत्यत्र प्रकारकत्वस्य निवेशो निष्प्रयोजन एव स्वविषयताकत्वनिवेश नापि तबारणसम्भवात् विषयतायाः क्रियानिरूपकत्वोपलक्षिततत्तत्संबन्धावच्छिन्नत्वविशेषणात् । तण्डुलौया कर्मतेत्यत्र कर्मताया विश ष्यत्वेऽपि तस्य दर्शितसम्बन्धानव.
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faraifoर्णये ।
च्छिन्नत्वात् । न चैषं पश्य मृगो धावतीत्यादौ दृशिकयायां शाब्दिकमते धावनक्रियाया न्याथमते धावनकर्तृ मृगादेवक्यार्थस्य कर्मतासंसर्गेणान्वयात् तादृशवाक्यार्थोधस्य निरुक्तव्यतिरेकाप्रतियोगित्वेन तद्विषयसंसर्गी भूतकर्मत्वेऽतिव्याप्तिरिति वाच्यम् । संसर्गीभूत कर्मत्वस्य सुबर्थत्वाभावात् । यदि च कर्मत्वादिकं न हितोयार्थः कर्मत्वादिसंसर्गकशाग्दे हितौयादिसमभिव्याहारस्तन्वमिति मतमाश्रीयते तदा पश्य मृगो धावतीत्यव कर्मत्वस्य कारकत्वमिष्टमेव । यदि तु नेष्यते तदा खविषयताकशाब्दे सुप्समभिव्याहारप्रयोज्यत्वं विशेषयामि त्यन्यदेतत् । एवं पदान्तरासमभिव्याहृतत्वं निरर्थकपदासमभिव्याहृतत्वं बोध्यम् । दण्डमनु जातिरित्यादावन्वादिपदस्य निरर्थकताया वच्यमाणत्वात् । सुवर्थत्वावच्छेदकत्वमपि सुब्जन्योपस्थितिप्रकारत्वं बोध्यम् । तथा च निरर्थकपदसमभिव्याहारज्ञानाभावविशिष्टसुबज्ञानजन्योपस्थिति प्रकारीभवद्धर्मावच्छिन्नदर्शित सम्बन्धावच्छिन्नप्रकारताकशाब्दसामान्ये निरुत्तव्यतिरेका प्रतियोगित्वोपपत्तये पदान्तरासमभिव्याहृत सुबर्थत्वमुपात्तम् । एवं च धातुविनाकृतसुबर्थस्य कारकत्ववारणाय धातुसमभिव्याहृतत्वं साकाङ्गत्वार्थक मुपात्तम् । इत्थं च धातुपदव्यतिरेकप्रयुक्तत्र्यतिरेकप्रतियोगित्वमेव निरुताशाब्दसामान्ये विशेष बोध्यम् । एतावतैव षव्यर्थशेषातिप्रसङ्गवारणसम्भवात् । तदयं समुदायार्थः धातुपदव्यतिरेकप्रयुक्त व्यतिरेकप्रतियोगिनिरर्थक पदसमभिव्याहारज्ञानाभावविशिष्टस्वार्थकास व ज्ञानजन्योपस्थितिका
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कारक सामान्यविचारः ।
रोभवद्दर्मावच्छिन्न क्रियानिरूपकत्वोपलक्षितसम्बन्धाब
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च्छिन्नस्त्रप्रकारताकशाब्दसामान्यनिरूपक वर्थत्वं कारकत्वमिति । कान्तस्य केश इत्यादी षव्यर्थशेषेऽतिव्याप्ति वारणाय प्रतियोग्यन्तं शाब्दविशेषणम् । तावतापि कान्तस्य वस्यतीत्यादौ वध्यर्थशेषेऽतिव्याप्तितादवस्थ्यमिति सामान्यपदम् । शाब्दसामान्ये निरुक्त।तियोगित्वासम्भवस्स्यादिति शाब्दे स्त्रप्रकारताकत्वं विशेषणं तावतापि व्याघाहितीत्यादी पञ्चम्यर्थभयहेतुत्वादेर्व्याघ्रस्य दरमित्यादौ पच्यर्थशेषत्वेन शाब्दप्रकारतयाऽव्याप्तिरसम्भ वो वा स्यादिति धर्मावच्छिन्नान्तं प्रकारताविशेषणम् । ताबतापि शेषत्वस्य सुब्जन्योपस्थितिमकारतया तद्दोषतादवस्थ्यमिति खार्थकत्वं सुपो विशेषणम् । तत्रापि तादृशोपस्थितिप्रकारकरणत्वस्य शत्य इत्यादी शाब्दप्रकारतावच्छेदकतया करास्त्रेऽतिव्याप्तिरिति प्रकारपदं विहाय प्रकारीभवदित्युक्तम् । तदर्थस्तु सुबन्यज्ञानजन्योपस्थितिप्रकारत्वाभावविशिष्टं तादृशोपस्थितिप्रकारत्वमापन्नो बोध्यस्ता दृशप्रकारत्याभावस्तु सामानाधिकरण्यकालिकविशेषणताभ्यामवच्छिन्न प्रतियोगिताको बोध्य स्तेनशत्य इत्यादी करतात्वप्रकारतायाः सुबन्यततिज्ञानजन्योपस्थितिप्रकोरत्वेन स्वेनैव दर्शितोभयसम्बन्धेन विशिष्टत्वात् तदभाववैशिष्ट्य विरहाग्नाव्याप्तिरिति । न च सुब्ज्ञानजम्योपस्थितिप्रकारत्वावच्छिन्न एव प्रकारीभवदित्वन्तेनोच्यतां तावतैव शत्य इत्यादी शाब्दसम्भवेSपि करणत्वे नाव्याप्तिस्तव करातात्वप्रकारतायास्तद्वितप्रयोज्यत्वात् किं तादृशप्रकारतायां निरुक्तप्रकारत्वा
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विभक्त्यर्थनिर्णये। भाववैशिष्टयनिवेशेनेति वाव्यम् । यत्र शत्य इत्यादी शतेनेति निराकाशं केन चिदुक्तं तव तौयाजम्योपस्थितिप्रकारत्वापन्न करणतात्वस्य शाब्दप्रकारतावच्छेदकत्वेनाव्याप्तितादयस्थ्यानिकतप्रकारत्वाभाववैशिष्टयनिवेशे तु टतोयाप्रयोज्यप्रकारतायास्तद्धितप्रयोज्यप्रकारत्वेन दर्शितोभयमंबन्धविशिष्टत्वात् निरुतप्रकारत्वाभाववैशिष्टाविरहाद्दर्शितस्थले शान्दसम्भवेऽपि करणत्वेनाव्याप्तिरिति निरुतप्रकारत्वाभावप्रतियोगितायाः सामानाधिकारणयमावावच्छिन्नत्वोक्तौ शतेन क्रोणातीत्यादौ करणत्वेव्याप्तिस्तव करणतात्वप्रकारतायाः सामानाधिकरण्येन तहितप्रयोज्यप्रकारताविशिष्टत्वात् पतः कालिकविशेषणतावच्छिन्नत्वमपि तव्यतियोगितायामुक्तामेतावन्मात्रोक्तो प्रकृत्यर्थतावच्छेदकप्रकारतया कालिक संबन्धेन विशिष्टायाः सुप्प्रयोज्यतायाः सर्ववैव करगतात्त्वादी मत्वान्निसक्तप्रकारत्वाभावविशिष्ट प्रकारताविर हादसम्भवः स्यादिति सामानाधिकरण्याकरिछन्नत्वमपि प्रतियोगितायां निवेशितमिति । दण्डं दधातीत्यादी दृष्टस्य दगडकमत्वस्यानुदण्डं जातिरित्यादौ हितोथाथतावच्छेदकाधेयतात्वेन शाव्दप्रकारत्वेन तवाव्याप्तिरिति विशिष्टान्तं सुबत्तानस्य विशेषणम् । न च निरर्थकपदासमभिव्याहृततया सुबिशेष्यतां तावतैव दर्शिताव्या । प्तिवारणसम्भवात् किं ताशसमभिव्याहारज्ञानामा- . वस्य मबजाने वैशिष्टानिवेशनेनेति वाच्यम् । दण्डं जा. तिरित्यादौ तादृशसमभिव्याहारज्ञानबलात् शाब्दमम्भवेनोक्ताव्यास्यनुद्धारात् । न चैवमपि तादृश समभि
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कारकसामान्यविचारः। व्याहारज्ञानाविषयत्वं सुपो विशषणमस्तु । दर्शितस्थल हितीयायास्तादृशसमभिन्याहारज्ञानविषयत्वात् । शाब्दसम्भवऽष्यव्याप्तिसम्भवात् किं सुब जाने तादृशज्ञानाभाववैशिष्टपनिवेशवेनेति वाच्यम् । यत्व दण्डो जातिरित्यादौ प्रथमायां तादृशसममिव्याहृतद्वितीयात्वभमस्तन शाब्दसम्भव नोक्ताऽब्याप्तिसम्भवात्तत्र प्रथमायास्तादृशस्त्रमभिव्याहारज्ञानाविषयत्वात् । सुब्जाने तु तादृशसमभिब्याहारज्ञानाभाववैशिष्टयनिवेशनेऽव्याप्ति नं भवति खबिषयतावछेदकप्रकारकत्वसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य तादृशसमभिव्याहारत्तानाभावस्य सुबचाने वैशिष्ट्यनिवेशात् । दगडी जातिरित्यादौ प्रथमानाने तोदृशसमभिव्याहारज्ञानस्य स्वविषयतावच्छेदकहितीयात्वप्रकारकत्वेन सम्बन्धेन तत्व तदभाववैशिष्ट्यविरहात् । एवं सति दगडं दोधातीत्यादौ द्वितीयाज्ञाने स्वविषयतावच्छेदकप्रकारकत्वसबन्धेन कालातरीयस्य पुरुषान्तरौयस्य तादृशसमभिव्याहारज्ञानाभावस्य सत्वेन तादृशजानाभावाविशिष्टस्वार्थकसुबजानाप्रसिध्या दण्डकर्मत्वेऽज्याप्तिः स्यादिति तादृशसमभिव्याहारज्ञानाभावप्रतियोगिता कालिकविशेषणतासामानाधिकरण्याच्या सम्बन्धाम्यामवछिन्ना बोध्या। अत एव शत्य इत्यादी शाब्दसम्भवनाव्याप्तेर्वारणार्थ सुबन्यज्ञानजन्योपस्थितिप्रकारवाभावविशिष्टत्वं धर्मे विशेषणमस्तु तावतेवाव्याप्तिवारणसम्भवात् स्वार्थकत्यादि प्रकोरीभवदित्यन्तं व्यर्थमिति परास्तम् । स्वार्थकत्याद्यनुत्तौ तादृशससभिव्याहारज्ञानाभावस्य मुलानं
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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विना निवेशयितुमशक्यत्वात् । अनुदण्डं जातिरित्यादौ शाब्दप्रकारतया दण्डक र्मत्वेऽव्यात्यनुहारात् । न चास्तु स्वार्थकेत्यादिकं धर्मविशेषणं तथापि सुबन्यजन्योपस्थितिप्रकारत्वाभावस्य वैशिष्ट्य धर्मे धर्मविशेषणीभूततादृशोपस्थितिप्रकारत्ने वा निवेशनीयमित्यक्ष विनिगमकाभाव इति वाच्यम् । पुरुषान्तरीयतद्वितजन्योपस्थितेः सार्वदिकत्वसम्भवनेन शतकरणत्वेऽव्याप्तिसम्भावनात् मुबन्यजन्योपस्थितौ शाब्दे च तत्पुरुषीयत्वं निवेश्याव्याप्तिसम्भावननिरासेऽपि पुरुषभेदेन का रकभेदापत्तेः तादृशोपस्थितिप्रकारतायां तु मुत्रन्य जन्योपस्थितिप्रकारत्वाभावस्य वैशिष्ट्यनिवेशे तत्प्रतियोगितायां स्व निरूपक ज्ञानसमानाधिकर णज्ञानौयत्व सम्बन्धेनाप्यवच्छिन्नत्वप्रवेशात् पुरुषान्तरीयतहितजन्योपस्थिते: सावैदिकत्वसम्भावनेऽप्यव्याप्ति सम्भावननिरासात् तत्पुरुषीयत्वानिवेशेन विनिगमकसम्भवात् । एवं गेहे पचतीत्यादी सप्तम्यर्थाधेयत्वस्य गेहे घट इत्यादौ शाब्दप्रकारतया तत्त्राव्याप्तिः स्यात्तद्दारणाय क्रियानिरूपकत्वोपलक्षितसम्बन्धावच्छिन्नत्वं स्वप्रकारताविशेषणम् । तेन गेहे घट इत्यादौ सप्तम्यर्थाधेयत्वस्याधेयत्वीय स्वरूपसम्वन्धेन शाब्दप्रकारत्वेऽपि क्रियानिरूप के कर्तृकर्मान्यतरघटितपरम्परासम्वन्धावच्छिन्नाधेयत्वीय स्वरूप संबन्धेन तत्र शाब्दप्रकारत्वविरहान्नाव्याप्तिरिति । तत्र हि क्रियानिरूपकत्वविशिष्ट सम्बन्धावच्छिन्नत्वोक्तौ कान्तस्य वस्यतीत्यादौ पष्टार्थशेषस्य वासनिरूपकत्व विशिष्टस्वरूपसम्बन्धेन कान्तस्य चेष्टा इत्यादौ चेष्टान्वयविषयकशाब्दप्रकारत्ववि
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कारकसामान्यविचारः। रहात् षष्यर्थशेषऽतिव्याप्तिः स्यादिति क्रियानिरूपकत्वापलक्षितत्वेन सम्बन्धी विवक्षितस्तेन तथोपलक्षितेन स्वरूपसम्बन्धेन षष्टयर्थशेषस्य चेष्टान्वय विषयकशाब्दप्रकारत्वान्न तत्वातिव्याप्तिः । यदि च सप्तम्या हिविधमाधेयत्वमर्थस्तदा तगडुलन्न पचतीत्यादाविव तण्डुलं नेत्यादौ तण्डलकमंत्वस्य नअर्थान्वयविषयकशाब्दप्रकारकर्मत्वादावव्याप्तिरमम्भवो वा स्यात् तहारणाय निमतसम्वन्धावच्छिन्नत्वं स्वप्रकारताविशेषणं बोध्यम् । यदि च धातुविनाकृतात् तण्डुलं नेत्या दिवाक्या कर्मत्वादेनजर्थान्वयविषयकशाब्दबोधो नाभ्युपेयते नजर्थे कर्मत्वादेरन्वयबोधे नञो धातु समभिव्याहारस्य तन्त्रत्वादिति । तदा निरुतसम्बन्धाबच्छिन्नत्वं न स्वपकारताविशेषणं तगडुलं न पचतीत्यादी कर्मत्वस्य नञर्थान्वयविषयकशान्दप्रकारत्वेऽपि तादृशशाब्दस्य धातुपदव्यतिरेकप्रयुक्तव्यतिरेकप्रतियोगित्वान्न तत्राव्याप्तिरिति । एवं निरुक्तशाब्दसामान्यस्य लक्षणत्वे श्रोतरि निरक्तशाब्दसामान्यस्य समवायेन सत्वात्तवातिव्याप्तिः स्यादनिरूपकत्वमुक्तं निरूपकत्वं प्रकारत्वं बोध्यम् । तावतापि धात्वर्थतावच्छेदकादावतिक्याप्तिरिति सुवर्थत्यमुक्तं सुवर्थत्वं तु सुजन्योपस्थितिप्रकारोभवद्धर्मत्वं बोध्यमिति । अत्रयमुपपतिनिरर्थकपदासमभिव्याहृतहितीयार्थकर्मत्वप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन शाब्दं प्रति भावप्रत्ययान्यप्रत्ययप्रकृतिधौतुजन्योपस्थितेविशेष्यतासम्बन्धेन हेतुत्वं सेन घटादिपदेन लक्षणया पाकोपस्थिती योग्यतासत्वेऽपि तगडुलं
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विभक्त्यर्थनिर्णये। घट इत्यादौ न तथा शाब्दबोधः । भावाख्यातस्थले हितौयान्तपदत्वेऽपि तण्डुलं पच्यत इत्यादौ न शाब्दबोध इत्यन्वयव्यभिचारवारणाय प्रकृत्यन्तं धातुविशेषणम् । न चोतव्यभिचारवारणाय भाव प्रत्ययाप्रकृतित्वमेव धातुविशेषणमस्तु किं हितोयप्रत्ययपदप्रव शेनेति वाच्यम् । • तथा सति तण्डुलं पच् इत्यादौ शाब्दापत्तेः । इत्थमेव निर्वि भक्तिकस्य शब्दस्य शाब्दाप्रयोजकत्वरूपमसाधुत्वमुपपद्यते । इदमेवासाधुत्व"लः कर्मणि च भाव चाकर्मकम्य" इति सोऽकर्मकेभ्य इति पदं भावप्रत्ययान्तधातोः कर्मत्यप्रकारकशाबदाप्रयोजकललक्ष ज्ञापयति । एवं षष्ठार्थस्य कर्मत्वस्य कर्तृत्वस्य च प्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन शाब्दं प्रति कृदन्तधातुजन्योपस्थिते विशेष्यतासम्बन्धेन हेतुत्वन्तेन तण्डुलस्य पाकः पाचको मैत्रस्य पाकः पाच्यो व त्यादौ तगडुलकर्मत्वमैत्रकटत्वप्रकारकपा कविश ष्यकशाब्दबोधस्य नानुपपत्तिरिति षष्यर्थयोः कर्मत्वकर्ट लयोन कारकत्वानुपपत्तिः । एव लादेशादियोगे"न लोके" तिसूत्रेण षष्ट्या निषेधेनासाधुतथा तण्डुलस्य पचनं मैत्रस्य पच्यमानो व त्यादौ कर्मत्वकदृत्वप्रकारकशाब्दानुत्पत्याऽन्वयव्यभिचारः स्यात् । तहारणाय लादेशादिभिन्नत्व कृति विशेषणं देयमिति । यदि तगडलं पाचक इत्यादौ हितीयार्थकम्त्वस्य धात्व. र्थेनान्वयः "कर्ट कर्मणोः कृती"ति सवेण षष्ठीविधायकेन द्वितीयाया अपवादादिति । तदा लादेशादिभिन्नकदन्यत्त्वमपि भावप्रत्ययान्यप्रत्यये विशेषणं देयमिति । एवं पच्यत इत्यादी कर्माख्यातस्थले द्वितीयर्थिकर्मत्वस्य न
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कारकसामान्यविचारः। धात्वर्थेऽन्वय इति कर्मप्रत्ययान्यत्वमपि तत्र विशेषगांवोध्यम् । अथ कनकर्मतान्यतरबोधकशब्दासमभिव्याहृतत्वं धातोरेव विशेषणं बोध्यम् । तेन छेत्तुं सांप्रतं - क्ष इत्यादौ नारद इत्यबोधि स इत्यादौ निपातेन कर्मकमत्वयोर्बोधने धात्वर्थेहितीयार्थस्य नान्वय इति इदमेवासाधुत्वं कर्मप्रत्ययनिफातसमभिव्याहृतधातोरथें स्वार्थान्वयबोधाप्रयोजकत्वलक्षणं द्वितीयाया"मनभिहिते" इति सर्व ज्ञापयति। एवं तृतीयार्थकट त्वकरणत्वप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन शाब्दं प्रति कट बोधकपदासमभियाहृतकरणबोधकपदासमभिव्याहृतसप्रत्ययधातुजन्योपस्थितेविशेष्यतासंबन्धेन यथायोग्यं हैतुत्व तेन घटादिपदेन लक्षणया पाकोपस्थितावपि चैवेण घटः चैत्रेण काठे न घट इत्यादौ न तथा शाब्दबोधः । न वा पचनं पचति वा इत्यादौ चैत्रेणेति टतौयार्थकर्ट त्वस्य धात्वर्थेऽन्वयबोधः । न वा पचनमित्यादौ काठे नेति टतौयार्थकरणत्वस्य धात्वन्वयबोध इति । न्यायमतेएवं कार्यकारणभावाः शाब्दिकमतेऽप्येते कार्यकारणभावाः । परं तु कर्मत्वकर्ट त्वकरणत्वानि न विभतीनामर्थाः किं तु कर्मकर्ट करणानि । ते कर्मत्वकर्टत्वकरणत्वान्यनिवेश्यकार्यकारणभावा यथोक्ता बोधयाः। एवं पञ्चम्यर्थविभागजनकत्वाद्यपादानत्वादिप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासंबन्धेन शाव दं प्रति प्रत्ययान्तधातुजन्योपस्थितेविशेष्यतासंबन्धेन हेतुत्व तेन घटादिपदेन लक्षणया पतनोपस्थितावपि न तथा वृक्षाहट दूत्यादौ शाब्दबोधः । वृक्षात्मतति पत्यते पतनमित्यादौ
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
तु तथा शाब्दबोधः । चोराद्विभेतीत्यादी हेतुतासामान्यविलक्षणस्य भयहेतुत्वस्य पञ्चम्यर्थस्य बिभेत्याद्यर्थ एवान्वयात् । चौराइनलाभ इत्यादावनन्वयात् न भयहेतुत्वेऽव्याप्तिशङ्का "भौवार्थानां भयहेतुरि" ति सूचे भयपदोपादानमेतदर्थमेवेत्यादिकं वच्यते । अब कृत्तद्दितयोरपादानबोधकत्वं न दृश्यते समासे तु चौरभीत इत्यादौ चौरपदस्य चौरभीते लक्षणा भौतशब्दस्य तात्पर्यग्राहकत्त्वम् । तथा च धातुजन्योपस्थितिविरहात्पञ्चम्यर्थान्वयसम्भवादपादानबोधकपदासमभिव्याहृतत्वम् धातोर्न विशेषणं न्यायमते प्रयोजनविरहादिति । शाब्दिकमते कृत्तद्धितसमासेषु वृत्तिखौकारात् धातुजन्योपस्थितिसम्भवाञ्च तद्विशेषणमेव । यदि च व्याघ्र इति विभेति भेत्तुं सांप्रतं व्याघ्र इत्यादिप्रयोगानुरोधात् निपातोभयापादानमभिधत्ते तदा न्यायमतेऽपि तद्विशेषणं बोध्यमिति । एवं चतुर्थ्यर्थ खत्वनिरूपकत्वादिप्रकारतानिरूपित विशेष्यता संबन्धेन शाब्दं प्रति संप्रदानबोधकपदासमभित्र्याहृतमप्रत्ययधातुजन्योपस्थिते विशेष्यता संबवेन हेतुत्वं तेन घटादिपदेन लचणया दानोपस्थितावपि न तथाशाब्दबोधः । न वा दानीयो ब्राह्मणायेत्यादौ चतुर्थ्यर्थ संप्रदानत्वस्य धात्वर्थेऽन्वयबोधः । भवति च ब्राह्मगाय ददाति यते दानमित्यादौ तथाशाब्दबोधः । एवं सप्तम्यर्थस्य कर्तृकर्मान्यतरघटितपरम्परासंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वस्य प्रकारतया ऽऽधेयत्वसामान्यस्य निरुक्तसंबन्वावच्छिन्नप्रकारतया वा निरूपितं यद्विशेष्यत्वं तेन संबन्धेन शाब्दं प्रति विशेष्यतासंबन्धेनाधिकरणबोधकप
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कारकसामान्यविचारः ।
दासमभिव्याहृतधातुजन्योपस्थितेर्हेतुत्वम् । तेन घटादिपदेन पाकोपस्थितावपि न तथाशाब्दबोधः । न वा प चनौ स्थाल्यामित्यादौ सप्तम्यर्थाधियत्वस्य धात्वर्थऽन्वयवोधः । भवति च स्थाल्यां पचति पच्यते पाक इत्यादी तथाशाब्दबोधः । एवं कारकलक्षणे समुपपन्ने कर्तृत्वादोनां धात्वर्थविशेष्यकनिरुक्त सुबज्ञानजन्योपस्थितिप्रकारौभवद्धर्मावच्छिन्नप्रकारताकशाब्दकालावच्छेदेनैव का - रकत्वं यथा धूमादीनां व्याप्तिपचधर्मताज्ञानकालावच्छेदेनैव वह्निगमकत्वस्वरूपं वह्निलिङ्गत्वमिति । इत्थं च क्रियान्वयित्वमित्यपि प्राचीनलक्षणं संगच्छते । तथा हि । अन्वयित्वमात्रोक्तौ नामार्थान्वयिनि षष्ठ्यर्थशेषादावतिव्याप्तिस्तद्दारणार्थमुपातेऽपि क्रियापदे कान्तस्य वस्वतीत्यादौ सा तदवस्थैवेति क्रियामात्रान्वयित्व त द्वाच्यम् । तदर्थस्तु धातुं विना स्वविशेषणताकान्वयबो - / धाजनक सुबर्थत्वमिति तिर्थस्य कारकत्वमते सुप्पदस्थाने विभक्तिपदं बोध्यमिति विभक्तिज्ञानजन्योपस्थितिविषयो विभक्त्यर्थंस्तत्र तादृशोपस्थितौ निरुक्तान्वयबोधस्याजनकत्वमनुपधानं बोध्यमिति । एवं धातुं विना स्व विशेषणता कान्त्रयबोधानुपहितस्य विभक्तिज्ञानजन्योपस्थिति सामान्यस्य विषयः नामार्थान्वययोग्यः कारकइति । अत्र स्वविशेषणतायां सुपपदस्थाने विभक्तिपर्द प्रक्षिप्य पूर्वोक्त विशेषणं बोध्यमिति षष्ठ्यर्थशेषेऽतिव्याशिवारणायानुपहितस्येत्यन्तं सामान्यविशेषणं तवाप्यसम्भववारणाय धातुं विनेत्युक्तं कान्तस्य वस्यतोयादौ षष्ठार्थशेषेऽतिव्याप्तिवारणाय सामान्यपदमिति । इष्टसा
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विभक्त्यर्थनिर्णये। धनवादावतिव्याप्तिवारणाय नामार्थान्वययोग्यत्वं विशेषणं स्वविश षणताविश षणकृत्यं पूर्वोक्तं बोध्यमिति इयास्तु विशेषः । प्रथमानार्थविश ध्यताकतिर्थकट - त्व कमवत्तिप्रकारतया शाब्दं प्रति धातुसमभिव्याहृततिजन्योपस्थितेविशेष्यतया हेतुत्वमिति शान्दिकमतेऽप्ययं हेतुहेतुमद्भावः । परंतु प्रथमान्तार्थविशेषणताककर्ट कर्मविशष्यतया शाब्दं प्रतीति विशेषः । तेन ति देवदत्तव्यादौ न तथाशाब्दबोध इति । एवं निरर्थकपदसमभिन्याहारज्ञानाभावविशिष्टहितीयादिज्ञानजज्योपस्थितिविशेश्यतापन्नं कर्मत्वम् । तत्वादिभक्तिजन्योपस्थितिविशेष्यतापन्नं कर्ट त्वं करणत्वं संप्रदानत्वमपादानत्वमधिकरणत्वं नानाविध कारकपदस्य शक्यम् । नानार्थमेव कारकपदं तथा च कर्मत्वादिसकलमाधारण कारकपदवाच्यत्वमेव कारकत्वमिति । यथा गोष्टथिव्यादिसकल साधारणं गोपदवाच्यत्वं गोत्वमिति । ननु नानार्थत्वाभ्युपगमेऽपि कारकपदस्य कारकपदवाच्यत्वं कारकत्वं न भवति कारकपदाधुनिक सङ्केतविषये द्रव्यादावतिव्याप्तेः । न च नित्यसंकेतेन कारकपदवत्वं तत् आधुनिकसंकेतविषये द्रव्यादौ नित्वसंकेताभावानातिव्याप्तिरिति वाच्यम् । तथा सति कर्मत्वादौनामतथात्वादसंभवापत्तेः तेषां शाब्दिकसंकेतेन कारकपदवत्वादिति चेन्न । कर्मत्वादौ कारकपदस्य नित्यसङ्केतात् । व्याकरणे कुवापि कारकसंजाया अभावात् शाब्दिकसङ्केताप्रसतोः । अत एव कारक"इत्यधिकारसूत्रसत्वा व्याकरणे"ध्रुवमपायेऽपादानमित्यादिना का
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कारकसामान्यविचारः ।
रकगगणाभिधानं सङ्गच्छते । कारकपदस्यानित्य सङ्केतभावे कारकसंज्ञाग्राहकसूत्रं विनाऽधिकारसूत्राभिधानम्यासङ्गत्वापत्तेरिति कारकपदवाच्यत्वमपि निष्प्रत्यूहमिव्यास्तां विस्तरः ॥
शकारकत्वस्य विभक्त्यर्थतावच्छेदकत्वविरहेऽपौदृशकारकत्वावलौढस्य रूपान्तरेण विभक्त्यर्थत्वमचतमेव । एवमौदृशकारकत्वशून्योऽकारको ऽस्यापि तथैवविभक्त्यर्थत्वमिति ॥
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ननु कारकाकारको कथं विभक्तार्थी स्यातां विभक्तित्वस्यैत्र दुर्निरूपत्वात् । तथा हि । विभक्तित्वं न सुबि राकाङ्क्षप्रत्ययत्वम् पाचयति पिपचतीत्यादौ णिच्सनोरतिव्याप्तेः न च सुप्तिङोरन्यतरनिराकाङ्गत्वं प्रवेशनीयमिति णिच्सनोर्नातिव्याप्तिस्तयोस्तिङाकाङ्क्षत्वादिति वाच्यम् । चैत्रः पचति फत्कारविशेषादित्यादौ पञ्चमीतिपोः परस्परसाकाङ्गत्वेनोभयोरव्याप्तेः । तार्तीयोक इत्यादी तौयादितद्वितेऽतिव्याप्तेश्च । ईक
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प्रकृतेस्तीयस्य सुप्तिङ्गिराकाङ्गत्वात् । अत एव सुप्तिङोरप्रकृतित्वं तन्निराकाङ्क्षमिति दर्शितयोः पञ्चमौतिपोनीव्याप्तिरिति परास्तम् । सुप्तिङन्य रत्वस्यैव सम्यकृत्वे तदन्यतराप्रकृतित्वे व्यर्थविशेष्यत्वाच्च । यत्तु प्र कृत्यर्थ विधेयतानिरूपित खोयोद्देश्यता कशाब्दजनक शब्दत्वम् सुप्तिङोरेव तथाभूतशाब्दजनकत्वमिति लचणसंगमः कृत्तद्दितादेरर्थे प्रकृत्यर्थस्य न विधेयतयान्वय इति न तत्वातिव्याप्तिरिति । तदसत् । सुप्तिङोरर्थे प्रकृत्यर्थस्य विधेयत्वेनान्वयेऽननुभवात् मानाभावाच्च । किं च
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विभक्त्यर्थनिर्णये। तण्डलं पचतीत्यादौ तण्डुलीया कर्मतेत्यवान्तरवाक्यार्थबोधे तण्डलस्य विधेयत्वं कर्मवस्योद्देश्यत्वं यदि भवति तदा तण्डुलमोदनीयत्वादिति द्वितीयार्थकमतापक्षकन्यायप्रयोगः स्यात् । यदि प्रकृत्यर्थविशेषणतानिरूपितस्वार्थविशेष्यता कबोधजनकत्वमेवाभ्युपेयते तदा प्रत्ययान्तरसाधारण्यान्नटं लक्षणम् । अपि च दाक्षिरित्यादौ तद्धिता? पत्ये दक्षादेः प्रकृत्यर्थस्य तुल्ययुक्त्या दिधेयतयाऽन्वये बाधकाभावात्तद्धितेऽतिव्याप्तिः । एवं पिपनेत्यादौ सनोऽर्थे इच्छायां पाकस्य तथान्वयात्मन्प्रत्यये कर्तेत्यादौ कदथें आश्रये कृतेस्तथान्वयात्कृत्प्रत्यये चातिव्याप्तिः । न च दर्शितस्थलेषु प्रकत्यर्थस्य विधेयतया न प्रत्ययार्थे स्वयस्तथासत्यपत्यं दक्षस्य चैत्रस्य च इच्छा पाकस्य भोजनस्य च आश्रयः कृतानस्य चेत्यादौ दक्षचैत्रयोः पाकभोजनयोः कृतिज्ञानयोर्युगपविधेयताहयशाल्यन्वयबोध इब दाक्षिश्चैत्रस्य पिपक्षा भोजनस्य कर्ता ज्ञानस्येत्यादौ दक्षचैवयोः पाकभोजनयोः कृतिज्ञानयोयंगपविधेयताइयशाल्यन्वयबोधस्स्यादिति वाच्यम् । प्रत्ययार्थे प्रकान्वयम्य व्युप्तन्नत्वेन प्रकृत्यर्थान्यस्य चैवादेस्तद्धिताद्यर्थे विधेयतयान्वयबोधस्यानुपपत्तेः । अन्यथा तवापि तण्डुलमोदनस्येत्यादी तगड़लौदनोभयविधेयताकान्वयबोध: स्यात् न चेयमिष्टापत्तिस्तथासति सर्वदर्शनसिद्धान्तविरोधमदूषणमन्युपगच्छतो भवतः प्रदर्शितस्थले तहिताद्यर्थे चैत्रादेरन्वये कुतो नेष्टापत्तिः । न चैवं दाक्षिः सुन्दर इत्यादी सुन्दरतादात्म्यस्य प्रकृत्यन्यस्य तहितार्थोन्वयो न स्यादिति वाच्यम् । दचाप
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कारकसामान्यविचारः। त्यस्वरूपविशिष्टस्य तदितान्तवाक्यार्थस्याप्रत्ययार्थतया तत्व सुन्दरतादात्म्यात्वयस्य निष्प्रत्यूहत्वात् । तद्धितार्थ केवलापत्ये सुन्दरतादात्म्यान्वयस्य केनाप्यनभ्युपगमात् न चैवं तगडुलमोदनस्ये त्यादौ तण्डुलकर्मत्वे वाक्यार्थे श्रोदनादेरन्वयः स्यादिति वाच्यम् । प्रकृत्यर्थविशेषितप्रत्यथार्थस्वरूपवाक्यार्थस्य विशेष्यतथाऽन्वये कृत्तद्धितान्तर्थस्यैव प्रयोजकत्वात् । तण्डुलकर्मत्वादिरूपवाक्यार्थ स्य विशेषतयाऽन्वये धात्वर्थस्य प्रयोजकत्वात्तण्डुलमोदनस्येत्या दावोदनादेरन्वयासम्भवात् । यत्र प्रकृत्यर्थस्य प्रत्ययार्थे नान्वययोग्यता पारिमाण्डल्यादौ तत्र नञसमभिव्याहारेऽन्वयबोधस्य प्रामाणिकत्वे तु तवैव प्रकत्यर्थविशेषितनञर्थस्याप्रकृत्यर्थस्य प्रकृतिलक्ष्यस्य वान्वय. । इति वच्यते । एतेन प्रथमोक्तपदार्थस्यैवोद्देश्य त्वं भवति"यच्छब्दयोगः प्राथम्यं भवेदुद्देश्य लक्षणमिति व्युत्पतेरत एव'न्यक्कारो द्ययमेव मे"इत्यादाबविमृष्टविधेयांशकत्वं दोषमाचक्षते काव्यविदः । तथा च तगडुलमित्यादौ तगडलीया कमतेति बोधे तगडलस्य विधेयत्वं न भवति । किं तु पर्वते बद्भिरित्यादौ विशेषणीभूतपर्वता देरिव तण्डुलस्योद्देश्यत्वमेव । तथा च प्रकृत्यर्थोद्देश्यतानिरूपितसुबर्थविधेयताकशाबदजनकशबदत्वं विभतित्वमिति परास्तम् । तद्धितादिप्रकृत्यर्थस्योद्देश्यतया ऽन्वये बाधकाभावात् । तद्धितादावतिव्याप्तिरिति चेत्।। उच्यते । मंख्यावाचकप्रत्ययत्वं विभक्तित्वमिति प्रत्ययत्वमात्रोक्तो कुत्तहितादावतिव्याप्तिरिति संख्यावाचकत्वमुक्तम् । यद्यपि संख्यात्वविशिष्टस्य वाचकत्वं न विभ
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
तथा कोनां किं तु एकत्वत्वविशिष्टस्य द्वित्वत्वविशिष्टस्य तार्थे ताथ बहुत्वत्वविशिष्टस्य चेति संख्यात्वव्याप्यजातिविशिष्टमात वाचकत्वं वक्तुमुचितं तथापि लाघवेन संख्यामात्रविबार्थे ष्यताकबोधोद्देश्य कसंकेतवत्वं निवेशनीयं तावतैव - समीहितसिः पार्थिवमित्यादितचितस्य सम्बन्धिता-त्वेन संख्याबोधकत्वोपगमे तनातिव्याप्तिवारणाय बाथ मात्रपदमुक्तम् । तदर्थस्तु संख्येतराष्टत्तित्वं तथा च मो- संख्येतराष्टत्तिविशेष्यता कबोधोद्द श्यक सङ्केतवत्वं संख्यावाचकत्वं बोध्यमिति । ननु चैत्रो मैत्रश्च पचतञ - इत्यादी द्वित्वस्य चैवो मैवो जेवश्च पचन्तीत्यादौ बकृ- हुत्वस्य बोधाहि वचनबहुवचनतिङोः संख्यावाचकत्व - पस्तु तिङेकवचनग्य संख्यावाचकत्वे न मानमस्तीतिडेकवचनेऽव्याप्तिरिति चेन्न । तथा सति पुपुत्र- षौ पचतीति प्रयोगप्रसङ्गात् । मम तु तिङपस्थाप्यै'यां- कत्वस्य द्वित्व विशिष्ट पुरुषेऽन्वया योग्यत्वमिति वह्निनात्या सिञ्चतीतिवत् न तादृशप्रयोगः सम्भवति । न च द्विवचनप्रथमान्ते द्विवचनतिङन्तस्य समभिव्याहारस्तयोः परतास्परार्थान्वयानुभवे तन्त्रमिति न तथाप्रयोगः सम्भवतीति. श्य- वाच्यम् । पुरुषौ खी च पचन्तीत्यादौ बहुवचनतिङन्तभ- समभिव्याहारेऽपि तथाप्रथमान्तार्थेऽन्वयदर्शनेन तथाया तिङन्तसमभिव्याहारस्यातन्वत्वात् । न च तथाप्रथमा - त्॥ तबहुवचनतिङन्तस्यापि समभिव्याहारस्तन्वमिति नः
वय.
भव
न
- दर्शितसमभिव्याहारस्या तन्वत्वमिति वाच्यम् । तथापि कि- तथाप्रथमान्ते बहुवचनान्तस्येव एकवचनान्तस्य तिङभ- न्तस्य समभिव्याहारः कुतो न तन्त्रमिति बौनानुयोगे
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कारकसामान्यविचारः। संख्यान्वयायोग्यत्वस्यैव बोजत्वेन प्रदर्शनीयत्वात् । अत एव पचतोत्यादौ टतीयाप्रसङ्गवारणाय कर्ट संख्यानभिः धानं हतीयाप्रयोजकमित्याख्यातवादे दीधितिकनिः प्रमाणीकृतमिति । इत्थं च संख्यावाचकत्वं शतादिशब्देऽतिव्याप्तमिति प्रत्ययत्वमुपातम् । ननु प्रत्ययत्वं दुर्निरूपमिति विभक्तित्वं दुर्निरूपमेव । तथा हि । प्रत्ययत्वं न तावत्पदार्थान्वितस्वार्थकत्वं नामधात्वादावतिव्याप्तेः । नापि पूर्वपदार्थान्वितस्वार्थकत्वम् । राजपुरुष इत्यादिसमासेऽतिव्याप्ते: अत एव पूर्वपदार्थान्वितप्रधानीभूतस्वार्थकत्वमिति परास्तम् । यत्त शब्दान्तरार्थाविशेषिते यादृशे स्वार्थ धर्मिणि विङर्थस्यान्वयबोधने स्वरूपायोग्यः स निभतुल्यसदृशप्रतियोग्यनुयोग्यधिकरणाधेयादिशब्देश्यो निपातेभ्यश्च भिन्नः शब्दस्तादृशाथै प्रत्यय इति कतद्धितादीनां स्वार्थे तिर्थान्वयस्वरूपयोग्यत्वात्तेष्वव्याप्तिरिति शब्दान्तरार्थाविशेषितत्वं स्वार्थस्य विशेषणं तस्या अङ्गकमित्यादी कादिप्रत्ययस्य कमस्तीत्यादौ शिरःप्रभृतिस्वार्थ तिर्थान्वयस्वरूपयोग्यत्वात् तत्राव्याप्तिरिति यादृशत्वं विशेषणम् । तेन कादिप्रत्ययस्याल्पादिस्वरूपस्वार्थे तिर्थान्वयस्वरूपयोग्यत्वान्न तवातिव्याप्तिरिति । अस्तीन्द्राणीत्यादाविन्द्र शब्दार्थाविशेषिते डोवर्थे स्त्रियां तिर्थान्वयस्वरूपायोग्ये श्रानुगागमेऽतिव्याप्तिरिति स्वार्थ इत्यतम् । प्रत्ययमावस्य स्वार्थ प्रकृत्यर्थान्वयस्वरूपयोग्यादसम्भवः स्यादिति तिर्थः स्येत्युक्तम् । चन्द्रनिभोऽस्तीत्यादौ निभादिशब्दानां पूर्वपदार्थचन्द्राद्यविशेषिते स्वार्थे सदृशादी तिर्थान्वयस्व
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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अपायोग्यत्वात्तत्वातिव्याप्तिरिति निभादिभिन्नत्वं शब्दस्य भिविशेषणम् । समुच्चय विकल्पार्थकानां चवादिनिपाताप्रनां स्वार्थे तिर्थान्वयस्वरूपायोग्यत्वात्तत्वातिव्याप्तिरिति ब्दे निपातभिन्नत्वं विशेषणम् । कादिशब्दस्य शिरः प्रभृत्यर्थे रूप- प्रत्ययत्ववारणाय तादृशार्थे इत्युक्तमिति मतम् । तदपि पं न न सम्यक् । निभादिशकलशब्दस्य प्रतियोगिनोऽवगमने । स्वाशक्यतया तावद्भिन्नत्वस्य दुर्ग्रहत्वात् । किं च संबदि- न्धीत्यादाविनप्रत्ययार्थस्य संबन्धिनः शब्दान्तरसंबन्धेन विभूत- शेषितत्वात्तदविशेषितस्वार्थप्रसिध्या तवाव्याप्तिः । यदि षिते चाविशेषितत्वमनन्वितत्वमित्युच्यते तदाऽपि खले कपोयो- तन्यायेन शाब्दमते दाचिरस्ति पाचकोऽस्तीत्यादौ प्रकृदि- पर्थेन समं तिर्थस्य तहितकृत्प्रत्ययार्थे युगपदन्वयेन इति तयोरव्याप्तिः । श्रपि च संबोधनान्तस्य निर्विभक्तिकस्य ष्व च चैवादिप्रातिपदिकस्य स्वार्थे तिर्थान्वयायोग्यत्वाषां तादृशतादृशचैवादिपदेऽतिव्याप्तिः । न च चैत्रोऽस्तौदौत्यादाववयदर्शनेन चैवादिपदानां न तिर्थान्वयायोवाग्यत्वमिति दर्शितस्थलेषु संबन्धीत र प्रथमासमभिव्याहाया-रस्य सहकारिणो विरहान्नान्वयबोध इति वाच्यम् । वान एवं सति हि कृत्तद्दिवस्थलेऽपि प्रकृतिसमभिव्याहारस्य वि सहकारित्वान्न तिर्थान्वयायोग्यत्वमिति तवाव्याप्तिः । न च कृत्तद्दितस्थले प्रकृतिसमभिव्याहारो न तिङर्थान्वये वार्थ तन्त्रं किं तु प्रकृत्यर्थान्वय एवेति वाच्यम् । प्रत्यये प्रकृ- तिसमभिव्याहारस्य प्रत्ययार्थान्वयमात्रे तन्वत्वाव्यकृतिपूर्व- विनाकृतस्य कुवाप्यननुभावकत्वात् । एवं च पाकोऽस्तीत्यादौ घञप्रत्यये ऽव्याप्तिश्च पदान्तरार्थानन्विते धातुष
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स्व
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कारकसामान्यविचारः ।
अभयोपस्थापिते पाके तिङर्थान्वयस्य सर्वजनसिद्धतय वस्तिर्यान्वय योग्यत्वादिति तदपि शब्दान्तरार्था विशेषितस्य स्वार्थस्य विशेषणतया ऽन्वयबोधनायोग्य शब्दः प्रत्यय इति तदपि तादृशयोर्लिङ्गसंख्य योर्विशेष
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तथाऽन्वययोग्ये सुपि पाकमित्यादौ तादृशस्य पाक स्य कर्मत्वे विशेषणतया ऽन्वययोग्ये घञ्प्रत्यये चाव्या त्या नादरणीयमिति । तस्मात्प्रत्ययत्वं दुर्वचमिति चे दुच्यते । सार्थक शब्दोत्तरत्वज्ञानाविषयो यः शब्दः शाब्द बोधं नार्जयति स प्रत्ययः प्रकृतीनां नामधातूनां साथकशब्दोत्तरत्वज्ञानाविषयाणामपि शाब्दबोधार्जकत्वं प्रत्यानां तु सार्थक शब्दोत्तरत्वज्ञान विषयाणामेव तथा- | त्वमिति तथा च स्वार्थविषयकथाव्दसामान्ययाभावप्रयोजकाभावप्रतियोगिसार्थक शब्दोत्तरत्वज्ञानौयोत्तरप्रकारतानिरूपित विशेष्यता वत्स । र्थक शब्दत्वं प्रत्यथत्वमिति । राज्ञः पुरुष इत्यादौ पुरुषपदे राजपदोत्तरत्वप्रकारक ज्ञानविषयतायाः सत्वादतिव्याप्तिरिति प्रतियोग्यन्तं ज्ञानविशेषाम् । पुरुषपदे षष्यन्त राजपदोत्तर
ज्ञानस्य निरुक्त प्रतियोगित्वविरहात् पुरुषो राज इत्यतोऽपि शब्दोदयान्नातिव्याप्तिरिति असंभववारणार स्वार्थविषयकत्वं शाब्दविशेषणं राजपुरुष इत्यादिसमा से पुरुषपदे राजपदोत्तरत्वज्ञानं राजपदार्थविशेषणत कपुरुषपदार्थविशेष्यताकशाब्दबोधस्य जनकमतः पुरुष राज इत्यादौ न तथा शाब्दबोधः । पुरुषो राजेत्याद राजपदार्थान्वितविभक्त्यर्थतादात्म्यस्य पुरुषपदार्थों वि शेषणतयाऽन्वयात् । राजपदार्थस्यानन्वयान्न व्यभिचा
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विभक्त्यर्थनिर्णये। . तय इति राजपदार्थविशेषणताकपुरुषविशेष्यताकशाब्दाभाथोपियोजकाभावप्रतियोगिनो राजपदोत्तरत्वज्ञानस्य विष ग्टि में पुरुषपदे ऽतिव्याप्तिरिति तहारणाय तादृशशाब्द सा
मान्यीयत्वेनाभावो विशेषितस्तेन पुरुषपदार्थविषयकशाकि ब्दसामान्य प्रति राजपदोत्तरज्ञानं न जनकं पुरुषस्तिष्ठ
तीत्यादौ व्यभिचारात् न तादृशशाब्दसामान्यीयाभावप्रयोज काभावप्रतियोगिराजपदोत्तरत्वज्ञानमिति तद्दिष
य पुरुष पदे नातिव्याप्तिरिति संयोगाद्युत्तरत्वज्ञानस्य ताथ- तादृशप्रतियोगित्वादसंभव: स्यादिति शब्दपदसुपात्तम् ।
प्र-अध्युत्तरत्वेनेडो जानमध्ययनशाब्दं प्रति हेतुरिति ताथिा- दृशाभावप्रतियोगिनोऽध्युत्तरत्वज्ञानस्यविषये इधातामाव- तिव्याप्तिस्तदारणाय सार्थकत्वं शाब्दविशेषणम् । अतर- यादिशब्दस्य निरर्थकत्वान्न तवातिव्याप्तिः । सार्थकशयथ- दोत्तरत्वज्ञानस्य प्रकृतितावच्छेदकप्रकारतानिरूपितत्तर- विशेष्यतावति प्रकतिशब्दे ऽतिव्याप्तिरिति विशेष्यतापति- यामुत्तरत्व प्रकारतानिरूपितत्वं विशेषणम् । न च सार्थत्तर- कशबदोत्तरत्वप्रकारतानिरूपितज्ञानविशेष्यतावत्वं प्र
त्य- वेश्यतां तावतैव समोहितसिद्धेस्तादृशोत्तरत्वज्ञानौयत्वणाय स्योत्तरत्वप्रकारतायां निवेशो व्यर्थ इति वाच्यम् । यत्न मा इन्द्राणीत्यादौ पचतीत्यादौ इन्द्रोत्तरानुगुत्तरत्वेन डीगता पो जानं पजत्तरशबुत्तरत्वेन तिङो जानं शाब्दजनक 'रुषः तत्र सार्थकशन्दोत्तरत्वप्रकारतानिरूपितविशेष्यताया गाद डीपि तिङि चासत्वात्तयोरव्याप्तिप्रसङ्गात् । तादृशोत्त
वि रत्वज्ञानीयोत्तरत्वन कारताया निवेशे तु तादृशागमो[चा त्तरत्वप्रकारतानिरूपितविशेष्यताया डौपि तिडि च
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" कारकसामान्यविचारः। सत्वान्न तयोरव्याप्तिरिति । एवं शबानुगाद्यागमे ऽति व्याप्तिवारणाय सार्थकपदं श्रागमस्यनिरर्थकत्वान्न तवा तिव्याप्तिवारणाय सार्थक पटं आगमस्य निरर्थकत्वान्न तत्रातिव्याप्तिः "वं रूपं शब्दस्याशब्दसंञ"ति शवाद्या गमानां वरूपार्थकत्वादतिव्याप्तितादवस्थ्यमिति श बदपदं दृत्तिमदर्थकं तेन सार्थकपदं हत्त्या स्वरूपेतरा थमारकपरमिति । अत्र विशेष्यता तादृशाभावप्रतियो गितावच्छेदिका बोध्या। तेनास्तिघट इत्यादावमुत्तरति बुत्तरं घटपदमित्याकारकासुत्तरत्वज्ञानीयोत्तरत्वप्रकारतानिरूपितविशेष्यताया घटपदे सत्वे ऽपि नातिव्याप्तिः। घटपदनिष्ठतादृशविशेष्यतायास्तादृशाभावप्रतिचोगितानवच्छेदकत्वात् । तादृशोत्तरत्वेन घटपदजानस्य शाब्दाहेतुत्वात् । असुत्तरस्तिप् घटपदं चेत्याकारकज्ञानादपि तथा शाब्दोदयात् । अत्र चैनोऽस्तीत्यादौ चैवपदार्थविशेष्यकसुबर्थलिङ्गसंख्या प्रकारकशाब्दप्रति प्रातिपदिकोत्तरः सुबिति चैत्रपदोत्तरः सुबिति वा ज्ञानं हेतुः। असर्थसत्ताविशेषविशेषणकतिर्थाश्रयत्वविशेष्यकशाबद प्रति धातूत्तरस्ति इति असुत्तरस्ति इति वा ज्ञान हेतु एवमिन्द्राणीत्यादाविन्द्रपदार्थप्रकारकस्वस्वामिभावस सर्गकडीवर्थस्त्रीविशेष्यकशाब्दं प्रति इन्द्रपदोत्तरानुग त्तरो डीविति ज्ञानं हेतुः पचतीत्यादौ पजर्थविशेषण व तिर्थयत्नविशेष्यकशाब्दं प्रति पजुत्तरशबुत्तरस्ति विवि ज्ञानं हेतुः तेन स्वचैत्रेत्यादौ असित्यादी आनौइन्द्र त्यादौ तिपचैत्यादौ न तथा शाब्दबोधः उत्तरत्वं ध्वंसः तविशिष्ट उत्तरः तथा च चैत्र इत्यादी चैत्रपदद
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
विविशिष्टं सुपदमिति ज्ञानस्य चैत्रपदत्वावच्छिन्नप्रकारतवा निरूपितध्वंस त्त्वावच्छिन्नविशेष्यत्वावच्छिन्न प्रकारतावानरूपित सकारत्वावच्छिन्न विशेष्यताकज्ञानत्वेन अस्तीद्यादावुत्तरत्वज्ञानस्य अस्त्वावच्छिन्न प्रकारतानिरूपित
ध्वंसत्वावच्छिन्न विशेष्यत्वावच्छिन्नप्रकारता निरूपिततरातित्वावच्छिन्न विशेष्यता कज्ञानत्वेन इन्द्राणीत्यादावुतेयो उत्तरत्वज्ञानस्य इन्द्रत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितध्वंसतत्वावच्छिन्नविशेष्यत्वावच्छिन्न प्रकारतानिरूपितात्वाप्रकवच्छिन्न विशेष्यत्वावच्छिन्न प्रकारतानिरूपित ध्वंसत्वावनव्या च्छिन्नविशेषात्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपिते प्रति- स्वावच्छिन्नविशे ष्यतोकज्ञानत्वेन पचतीत्यादावुत्तरत्वदज्ञा- ज्ञानस्य पच्त्वावच्छिन्न प्रकारतानिरूपित ध्वंसत्वावच्छिविशेष यत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितकारकत्वावहिचै- विशेष्यत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितध्वंसत्वावच्छि
कारक -
कार
प्रानविशेषात्वावच्छिन्नप्रकारता निरूपितत्वावच्छिन्नविहेतुः शेष्यताकज्ञानत्वेन हेतुत्वमेवमन्यवाप्याम् | शबानु शब्द क्तिपामनुबन्धानामानुपूर्वी न ज्ञानहेतुतायां निविशते व्यहेतुत्वात् गौरवप्रयोजकाच्च प्रयोगव्युत्पादनार्थमेव ते सूत्रबस कारेण निर्दिष्टश: एवमानुपूर्वीज्ञानहेतुत्वे सिद्धे तत्र पदा'नुगु
क
व्यवधानस्य निवेशनमफलं नितरान्तन्निर्वचनायासासादनमिति व्यवहितेऽपीदृश विशिष्टवैशिष्ट्य ज्ञानात् शाब्दबिति बोधो निष्पृत्यूह एव । एवं यत्पदध्वंस वैशिष्ट्यज्ञानं शाइन्द्रे ब्दे हेतुस्तत्मार्थकं वज्जन्यत् पदं प्रकृतिरिति विशेषकृत्यं दर्शितप्रायमिति । यदि बहुमपि प्रत्ययत्वेन द संग्राह्यस्तदा प्रत्ययलक्षणे तादृशनिरुक्तशब्द बहुजन्य
*to
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वं
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कारक सामान्यविचारः ।
तरत्वं निवेशनीयमिति । वस्तुतस्तु निपातादिवदान्य योग्यं शब्दान्तरमेव बहुच् अन्यथा तहितत्वे बहुगु इत्यादी बहुशब्दानन्तरं सुबुत्पत्तिप्रसङ्गात् कृत्तचित् तिसूत्रे तडितान्तस्यैवोपादानात् अन्यथा पचतकि भव htत्यादी सुबुत्पत्तिप्रसङ्गात् । तहितमूत्रसहचरितं ब 'हुच्मूत्रं बहुजघटितसमुदायस्य तडितसाम्यं ज्ञापयति तेन प्रातिपदिकत्वं तद्धितसुबादिकं च भवतीति । अ एव यदि बहुच्प्रत्ययः स्यात्तदा प्रत्ययः परश्चेत्यनन्त न बहुजिति मुनि: सूत्रयेत् । बहुच्मूचे पुरस्तादित्य क्षया मात्रालाघवात् तावतैव बहुचः प्रकृतिपूर्वत्वलाभमम्भवादिति परास्तम् । एवं निभशब्दोऽपि सन्निभशब्दवत् न पदोत्तरत्वेन ज्ञातः शाब्द हेतुस्तादृशहेतुताग्राहकाभावात् । प्रत्ययस्य तथा हेतुत्वे प्रत्ययः परश्चेत्यनुशासनस्यैव ग्राहकत्वात् । तथा च निभं कमलस्य मुख मित्यादौ शाब्दादयोऽभीष्ट एव । एवं शाब्द हेतोः प ध्वंस विशिष्ट पदज्ञानस्य ध्वंसविशेषणया भातं सार्थ पदं प्रकृतिः ध्वंसविशेषतया भातं सार्थकं पदं प्रत्ययः तदुक्तं वाक्यपदीये भर्तृहरिणा ।
यः स्वेतरस्य यस्यार्थे स्वार्थस्यान्वयबोधने । यदपेचस्तयोः पूर्वा प्रकृतिः प्रत्ययः परः ।। अपेक्षा पूर्वापरभावापन्नत्वेन ज्ञानं । तत्र प्रकृतेः प तथा ज्ञानं शब्दाङ्गमित्यत्र न प्रमाणम् । उत्तरत्वे प्रत्ययज्ञानस्य वाचकतावच्छेदकत्वविरहेऽपि विभक्ति वावलौढस्य रूपान्तरेण वाचकत्वमचतमेव । विभक्तिर पि द्विधा । सुप्तिङ्भेदात् । लिङ्गवाचिका विभक्तिः सु
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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न्यलिङ्गाचिका विभक्तिस्तिङ ङौप्रत्यये कदादौ चातिगुप्तिवारणायोभयत्र विभक्तिपदम् । सुपोऽपि प्रथमाहितयितृतीया चतुर्थी पञ्चमो षष्ठी सप्तमोभेदात्सप्तविधाः । भवतिङोऽपि प्रथममध्यमोत्तम पुरुषभेदात्त्रयः । विध्यादयस्तितं बङर्थाः । कुसुमाञ्जलिप्रभूतिमूलग्रन्ये विस्तृताः प्रसङ्गेनायति त्रापि व्यक्तोभविष्यन्ति । तत्र विध्याद्यर्थेऽपि तिङा ति| वादिना तेत्वादिना शक्तिः न त्वादेशीभूततत्तल्लकारानन्तरयां तिङि लादेशत्वज्ञानविरहिणोऽपि पुंसस्तत्तदर्थावइत्यपे - गमात् । पचतीत्यादौ विध्याद्यर्थवं धो न भवति योग्यलाभ- रायास्तात्पर्यस्य वा विरहात् । तात्पर्यग्राहकस्तु पचेदि - शब्द- तिङो विकार एवेति मन्तव्यम् । एवं वर्त्तमानातीगयानागतेषु कालेषु तिङां तित्वादिना तेत्यादिनैव शस्तवापि तत्तद्विकाराविकारसमभिव्याहाराणां तात्पकत्वात्पचेदित्यादौ तात्पर्यया हकविरहात् वर्तमा : पद- नादे नं बोधः वर्तमानादिकालस्तु तिर्थकृत वन्वेतीति थकन युक्तम् । तण्डुलः पच्यते इत्यादिकर्माख्यातेऽनन्वयप्रसङ्गात् । न च तत्र तिर्थकर्मत्र एवान्येतीति वाच्यम् तथापि फलस्योत्पत्तेः पूर्वं प्रयुक्त पच्यते श्र न इत्यादावुत्पत्तिस्वरूपफलाधेयत्वे वर्तमानस्त्रस्यान्वेतुम योग्यत्वेनाऽनन्वयप्रसङ्गात् । श्रोदनस्याविद्यमानतया वर्तमानोपत्पय्याधे यत्वाऽनिरूपकत्वात् । अतः परिशेषाङ्गावाख्यारत्वेन तस्थले क्रियान्वयस्यावश्यकत्वाच्च तिङर्थः कालः क्रिया भक्तिन्वयोति तव तिङ्प्रयोगाधिकरणं लवः काष्टा वा वतिर र्तमानः कालः ईदृशवर्तमानकालवृत्तिध्वंसप्रतियोगी: मा कालोऽ तीतकालः तादृशवर्तमानकालवृत्तिप्रागभावम
त्यनु
मुख
ययः
सु
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कारकसामान्यविचारः। तियोगी तादृशवर्तमानकालध्वंसाधिकरणं वा कालीऽनागतः कालः अत्र वयः काला स्वस्वाधयत्वेन क्रियायामन्वियन्ति क्वचित् व्यापारे क्वचित्फले तत्र पचति अपचत् पच्यतीत्यादी व्यापार कालस्यान्वयः । न च पचतौत्यत्र वर्तमानकाल आधयत्वेनान्वेतु अपचदित्यन विद्यमाननाशप्रतियोगित्वमतीतत्वमन्वेति न त्वतीतकाल त्तित्वं पक्ष्यतीत्यत्र विद्यमानप्रागभावप्रतियोगित्वादिरूपमनागतत्वमन्वेति न त्वनागतकालत्तित्वमिति वाच्यम् । “सदेव सौम्येदमग्र आसीत्""एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म""तदैक्षत एकोहं बहु स्यामि"त्यादिश्रुतिवाक्ये भगवत्सत्ताया भगवदिच्छाया अतीतत्वस्य बाधेनानन्वयप्रसङ्गात् । एवं भगवान् प्रलयं करिष्यतीत्यादी भगवत्कृतेर्भावित्वस्य बाधेनानन्वयप्रसङ्गात् । अतीतकालत्तित्वस्थ भगवदिच्छायां भाविकालत्तित्वस्थ भगवत्कृतौ निष्पत्यहतयाऽन्वयसम्भवात् । एवं वर्तमानकालोऽनागतकालश्च क्वचित्वत्तिध्वंसप्रतियोग्यत्तित्वेन स्वाधेयत्वेन चोभाभ्यां संबन्धाभ्यामन्वेति यथा वियुज्यते वियोच्यते संयुज्यते संयोच्यते इत्यादौ तेन कृष्णोन वियुज्यते वियोच्यते व जमगडल: गोवर्धनेन संयुज्यते संयोच्यते वा दूति नाधुनिकप्रयोगः । अन्यथा कृष्णा वियोगगोवर्धनसंयोगयोवर्तमानानागतकालत्तित्वेन तथाप्रयोगो दुर्वार: स्यात् । एवं नष्ट अनश्यहा इत्यादावतौतकालत्तित्वं नाशे,न्वेति नश्यति नश्यतीत्यादौवर्तमानानागकालयोदर्शिताभ्यां संबन्धाभ्यां नाशे न्वयः इत्यमेवप्रयोगांतिप्रसङ्गे वारिते नश्यतिनश्यतिनष्टइत्यादौप्रत्ययस्यानागतव
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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तमानातीतानामुत्पत्तीनां क्रमेण प्रत्यायक व कल्पनमफलमेवेति मन्तव्यम् । फलें तु आस्ते इत्यादौ रिफम्भूसंयोगानुकूलव्यापार आस्यर्थः । तत्र व्यापारस्याविद्यामानत्वेऽपि स्फिग्भूसंयोगफलस्य विद्यमानतायामास्तइति प्रयोगाद्दर्तमानकाल आधेयत्वेन स्फिग्भूतसंयोगे फलेवेति । एवं जागर्तीत्यादौ मिद्दामनोविभागानुकूलोव्यापारो धात्वर्यस्तवापि मिहामनोविभागरूपफले वर्तमानकालस्थान्वयः । एवं दण्डं दधातीत्यादौ धारणास्थसंयोगानुकूलव्यापारी धात्वर्थः तत्रापि वर्तमानकालस्य धारणाख्यसंयोगरूपफलेऽन्वयः । अत्रासिष्यते जागरिष्यति दण्डं धास्यतीत्यादावनागतकालः खदृत्तिध्वंप्रतियोग्यत्तित्वेन खाधेयत्वेन चोभाभ्यां संबन्धाभ्यां फलेऽन्वेतीति फलस्य विद्यमानतायां न तथाप्रयोगः । एवमास्त अजागरत् दण्डमधादित्यादावतीतकालः खध्वंमाधिकरणवत्तित्वेन स्वाधेयत्वेन चोभाभ्यां संबन्धाभ्यां फलेऽन्वेतीति फलस्य विद्यमानतायां न तथाप्रयोगः । यदि चासेः स्फिग्भूसंयोग एवार्थ उपविशेः स तदनुकूलव्यापारश्चार्थ उपविशतीत्यत्र वर्तमानकालस्य व्यापार एवान्वयः । श्रस्ते इत्यत्र स्फिग्भ संयोगस्वरूपव्यापार एव वर्तमानकालस्यान्वयः । एवं नागतैरपि मिद्दामनोविभागस्वरूपव्यापार एवार्थः तचैव कालस्यान्वय इति विभाव्यते तदापि दण्डं दधातीत्यादौ फले कालस्यान्वयोनिष्प्रत्यूह एवेति दिक् ॥
कर्तृत्वादयस्तिङर्थाः सुबर्था अपीति न पृथक् तन्यन्ते । सुबस्तु सुपां क्रमेणैव निरूपणीया इति क्रमेण सुपस्तदर्थाश्च निरूप्यन्ते ।
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प्रथमाविभक्तिविचारः। तत्र सुऔजसिति त्वयः प्रत्ययाः प्रथमा । तदर्था अनुशासनसिद्धा अनुशासनं तु “प्रातिपदिकार्थलिङ्ग परिमोणवचनमाचे प्रथमे"ति प्रातिपदिकार्थः सत्ता व्यक्तिरिति यावत् लिङ्ग पुमान् खौ लौवं च परिमाणं गु
त्वं परिमितिश्च वचनमेकत्वं हित्वं बहुत्वं चैति । मावग्रहणां द्वितीयाद्यर्थकर्मत्वादिव्यवच्छेदार्थमिति । ननु रामो राजेत्यादौ व्यक्तोः प्रातिपदिकाप्रकृतित एव लाभात् कथं प्रथमार्थत्वम् । न चैकदानेकटत्तिरामत्वादिजातिवाचिनो रामादिशब्दान्न व्यक्तिलाभ इति व्यक्तिमानार्थं प्रथमायास्तदर्थकत्वमिति वाच्यम् । जातिशक्तिवादिनामपि मते जात्या व्यक्त्याक्षेपसम्भवेन व्यक्तेरन्यलध्यतया प्रत्ययार्थत्वाप्रसक्तः । अत एव तेषां तिडो भावनावाचित्वे भावनयाऽऽक्षेपेण कर्तुर्बोधने पचतीत्यादावनभिहिताधिकारीयटतीयाया न प्रसक्तिरिति । यत्तु घटाद्यर्थेषु सुपा शक्तिः घटादिपदानामनन्तानां शतले शततावच्छेदकानन्त्यसम्भवन सुपामेकविंशतिसंख्याकानां शक्ततावच्छह कला घवसन्भवेन तथात्वौचित्यादिति । तदपि न सम्यक् । घटादिपदानां निरर्थकत्वे प्रातिपदिकसंज्ञाविरहे तदनन्तरं सुबुत्पत्तेर प्रसक्तः दधि भवतीत्यादौ सुपो लोपात्तन दध्यादि पदार्थानवगमप्रसङ्गात् । न च तत्रानुसन्धीयते विभक्तिरिति सांप्रतम् । तथापि राजपुरुष इत्यादिसमासे राजपदार्थावगमस्याशक्यत्वात् । न चानाप्यनुसन्धीयते षष्ठौति वाच्यम् । तथा सति ऋवस्य राज़ इत्यादाविव सस्य राजपुरुष इत्यत्रापि - द्वादे राजान्वयप्रसङ्गात् । दर्शितसमासे नैयायिकानां
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
३५ राजपदलक्षगायाः शाब्दिकानां कृतेश्च वैयध्येनाकल्पनापत्तेश्च । किं च चैत्र इत्यादी सुवर्थचैलव्यक्ती सुबर्थयो लिङ्गसंख्ययो भेदान्वयोऽवश्यमभ्युपेयस्तथासति रूपं घट इत्यादौ तन्तुपटावित्यादी रूपघटयोस्तन्तुपटयो. भेंदान्वयबोध: स्यात् । अथ प्रातिपदिकानां घटादिपदानां घटत्वेन सकल घटवाचकत्वेऽपि घटोऽस्तीत्यादावस्तित्वान्विततहटव्यक्तिबोधः प्रथमयेति चेत् न । घटपदेन घटोपस्थितावस्तिपदेनास्तित्वोपस्थितावबाधितत्वातहटव्यक्तीर्घटत्वेन शाब्दभानमन्भवात् तद्यक्तित्वेन भानस्याप्रामाणिकत्वादिति प्रातिपदिकार्थस्य न कथमपि प्रथमार्थत्वं सम्भवतीति चेत् । अवाहुः । घटो नील इत्यादौ विशेषणविभक्तो न्र्नीलपदोत्तरप्रथमाया अभेदोऽर्थः स घटादी विशेषणीभूयान्वेतीति । तबाभेदो यदि भेदत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वेनरूपणाधस्तदाऽप्रसिद्धिः । भेदत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाऽप्रसिद्धेः । यदि च भेदप्रतियोगिकाभावत्वेन तदा नौलभेदगगनोभयत्वावच्छिन्नाभाववति पौते नौलाभेदावगमप्रसङ्गः । यदि च नौलप्रतियोगिकभेदत्त्वावच्छिन्नाभावत्वेन तदा यत्किंचिन्नोलभेदवति नौले नीलाभेदानवगमप्रसङ्गः । यदि च नौलत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदत्वावच्छिन्नाभावत्वेन तदा शत्यानन्त्यम् । नौलादेः पदार्थैकदेशे नौलत्वावच्छिन्वप्रतियोगिताकभेदे ऽनन्वयप्रसङ्गः नौलपटतात्पर्यण प्रयुक्तस्य घटो नील इति वाक्यस्य प्रामाण्यप्रसंगश्च । तमाझेदो ऽत्यन्लाभावश्च वयमर्थस्तत्व भेदे नीलव्यतिः स्त्ररूपात्मिकया प्रतियोगितया भेदस्तु तवेदव्यक्तिी
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प्रथमाविभक्तिविचारः। स्वरूपावच्छिन्नया प्रतियोगितया अत्यन्ताभावन्वेिति । यदि निरवच्छिन्नप्रतियोगितया नीलादेः प्रतियोगिनो भेदादौ भानं भेदविशेषणतया भासमानस्य नौलादे दव्यक्तिस्वरूपनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकताया अनवच्छेदकत्वं च न सांप्रदायिकमित्युच्यते तदा तूभयात्तित्वोपलक्षिलधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावेऽत्यन्ताभावे च खण्डशशक्तिस्तदादिपदवत् स्मरणं खूपलक्षणोभयावृत्तित्वांशपरौहारेगा प्रातिपदिकोपस्थापिततत्तातित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदत्वेन भेदविषयकमत्यन्तोभावत्वेनात्यन्ताभावविषयकं च भवति तब नौलादिपदार्थस्य तत्तयक्तित्वेऽन्वयः नौलान्विततादृशभेदत्वावच्छिन्नप्रतियोगितया भेदोऽत्यन्ताभावे ऽन्वेति तादृशात्यन्ताभावः समानविभक्तिकघटादिपदार्थेऽन्वेति । यदि नौलादेस्तद्यक्तित्वे पदार्थैकदेशान्वयो न व्युत्पत्तिसिद्ध इत्युच्यते । तदा उभयात्तित्वोपलक्षितधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितायां भेदेऽत्यन्ताभावे च विषु सुविभक्तोः शक्तिस्ततोभयात्तित्वांशमपहायप्रातिपदिकोपस्थापितव्यक्तीयतद्यक्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगितायाः स्मरणम् । तादृशप्रतियोगितायां नौलादेः प्रकृत्यर्थस्यान्वयः नौलाद्यन्विततादृशप्रतियोगिताया भेदेऽन्वयः तथाविधान्वितभेदत्वावच्छिन्नप्रतियोगितासंसगेंण भेदस्यात्यन्ताभावेऽन्वयस्तथाविधान्वितात्यन्ताभावस्य समानविभक्तिकधादिपदार्थेऽन्वयः । एवमीदृशभेदात्यन्ताभावः प्रतियोगिस्वरूप एव यत्न प्रतियोग्यननुगतस्तचैव सामान्यधर्मावच्छिन्नभेदस्यात्यन्ताभावः
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
३७ प्रतियोगितावच्छेदकस्वरूप इति स्वरूपभेदाभावस्तन्नीलादिव्यक्तिस्वरूपी नौलपदादिप्रातिपदिकार्थो दर्शितरौत्या भवति प्रथमार्थ इति । न च भेदस्याभावः प्रतियोगी न सम्भवति तेन सममविरोधात् । किं तु प्रतियोगितावच्छेदकमिति वाच्यम् । प्रतियोगितावच्छेदकसंबन्धेनैव प्रतियोगिनोऽभावविरोधित्वात् । तस्यावाप्यविकलत्वात्तद्यक्तित्वस्वरूपतादात्म्येन संबन्धेन तहातीः प्रतियोगिन्या विरोधित्वात् । न च तद्यक्तित्वस्य धर्मविधया प्रतियोगिताया अवच्छेदकत्वं संसर्गविधयेति कथं तेन संबन्धेन विरोधिलमिति वाव्यम् । भेटे संसर्गविधया प्रतियोगिताया अवच्छेदकस्यैव धर्मविधया अवच्छेदकत्वात् । तादृशस्यैवावच्छेदकस्याभेदाभावत्वोपगमात् । तदभिसन्धानेन योग्यानुपलब्धिहेतुतावादे प्रत्यक्षालोके मिथै न हि यथा तादात्म्यमन्योन्याभावस्थाभावस्तथान्योन्याभावोऽपि तदभावरूप: घटाप्रतियोगित्वादित्युक्तभेदप्रतियोगितायाः संसर्गविधयावच्छेदकस्य तादात्म्यस्य धर्मविधयावच्छेदकात्मकान्योन्याभावविरहस्वरूपप्रदशनं संसर्गीभूतावाछेदकधर्मीभूतावच्छेदकयोरैक्यं विना नोपपद्यत इति । गुरुचरणास्तु भवतु स्वरूपभेदाभावस्तयक्तिस्वरूपस्तथापि स न प्रथमार्थी मानाभावात । घटो नौल इत्यादौ स्वरूपभेदाभावात्मकतादात्म्यसंसगेंगौव शाब्दबोधीपपत्तेः । न चाभेदस्य संसर्गत्वोपगमे स्वन्तनौलपदेन स्वन्तघटपदस्य पौर्वापयरूपाथास्ताङ्ग्याया
आकाङ्क्षायाः शाब्दप्रयोजकत्वे गौरवमधिकवर्णघटितत्वात् । अभेदस्य पदार्थत्वे नौलविशेषणकामेदविशेष्य
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प्रथमाविभक्तिविचारः। कबुद्धौ नौलपदस्य सुना सहाकाहाया भेदप्रकारकघटविशेष्यकबुद्धौ तेनैव सुना सह स्वन्तंघटपदस्थाकाङ्क्षायाः स्वप्रयोजकत्वस्वीकारे लाघवं नीलघटपदयोरेकनाकाङ्क्षायामप्रवेशन तयोर्विशेष्यविशेषणभावव्यत्वासप्रयुकस्याकाक्षाधीहेतुताभेदस्य गुरुतरस्थाप्रसतरिति वाच्यम् । नीलाभेदविधेयकपटोद्देश्यकबुद्धौ नौलघटपदयोः पौर्वापर्यस्वरूपाकाङ्गायाः प्रयोजकत्वस्य तवाप्यावश्यकखात् । अन्यथा नौलो घट इत्यादितो नीलाभेदविधेयकबोधापत्त: । न च नौलो घटो जलपूर्ण इत्यादौ नलपूगावविधेयत्वबोधस्थलेऽभेदस्य प्रथमार्थत्वपक्षे घटे नौलाभेदविशेषणकान्वयबोधो दर्शितरीत्याऽकासाहयस्य प्रयोजकत्वेनैवोपपद्यते । भेदस्य संसर्गतापचे स्वन्तनीलघटपदयोरेकलाकाङ्क्षाप्रवेशे विशेष्यविशेषणभावव्यत्यासप्रयुक्तं गौरवं दुष्परिहरमिति वाच्यम् । यतोऽभेदस्य सुबर्थत्वपक्षेऽपि स्वन्तघटपदस्य पदोत्तरत्वाद्यविशेषितेन सुना सहाकाङ्क्षा न तथाविधाययोपयोगिनी तथासति नौलः पटः घटो दण्ड इत्यादी स्वन्तघटपदस्थ दण्डोत्तरसना सहाकावाग्रहे घटे नौलाभेदान्वयबोध: स्थादित्यवश्यं नीलपदोत्तरसुना सहाकाङ्क्षा वक्तव्या । तथाचैकस्यामाकाज्ञायां नौलघटपदयोः प्रवेशे विशेष्यविशेषणभावव्यत्यासप्रयुक्तं गौरवं तवापि दुष्यरिहरमिति। न च प्रथमान्तनील पदप्रथमान्तघटपदयोराकाङ्क्षाज्ञानस्य नौलविशेषणकतादृशतादाम्यसंसर्गकघटविशेष्टकशाब्द प्रति हेतुत्वे नौलघट इत्यादिकर्मधारयस्थले व्यभिचारस्तत्र स्वन्तनौलपदघटिताकाङ्क्षाज्ञानविरहा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
दिति वाच्यम् । कलय: कृष्ण इत्यादी व्यभिचारवारगार्थमव्यवहितोत्तरोत्पत्तिकत्वं जन्यतावच्छेदकेऽवश्यं प्रवेशनीयमत एव कर्मधारयस्थले व्यभिचाराप्रसक्तः । न च शिखी विनष्टः क्षुदुपहन्तुं शक्या सुरभिचन्दनमात्रातमित्यादौ विनष्टशक्याघ्रातानां तादात्म्यसंसर्गेण शिखिनि क्षुधि सुरभिचन्दने चान्वयो बाधित इति सा - मानाधिकरण्यानुपपत्तिरभेदस्य सुवर्थत्वपक्षे तस्य स्वाश्रयशिखावत्वेन स्वाश्रयोपहननवत्वेन स्वाश्रय सौरभवत्वेन खेन संसर्गेणान्वयसम्भवाद्भवति सामानाधिकरण्य मिति वाच्यम् । ततः परम्परा संसर्गावच्छिन्न शक्तिकर्मतावतोऽभिधानात् । क्षुधो न द्वितीया ताहशस्य कर्मणस्तादाम्य संसर्गेणान्वयः क्षुधि निष्पत्पूह एव । शिखाविशिष्टे विनष्टस्य सौरभविशिष्टेचन्दने आघातस्य च तादात्म्यसंसर्गेणान्वयः । शिखा सौरभं विशेषणमादाय पर्यवस्यति । अत्रैवार्थे "सविशेषणे ह विधिनिषेधौ सति विशेष्यबाधे विशेषणमुपसंक्रामत इति प्रमाणयन्ति तान्तिकाः । एवं युक्तयाऽभेदस्य विभक्त्यर्थे प्रतिहते अनुशासनमपि विभक्तीनां साधुत्व मार्च ज्ञापयति । तथा हि । " लुपि युक्तवद्यक्तिवचने " इत्येकं सूचं लुप्ते प्रत्यये प्रकृतिलिङ्गवचने प्रयोक्तव्ये न *तु लवण । यवागूरित्यादौ लवणादिपदवद्विशेष्यनिघ्नतया लिङ्गवचनान्तरप्रयोगः । यथा पञ्चाला नाम क्षत्रियाः नियतबजवचनान्तपुल्लिङ्गपञ्चालशब्दविषयास्तेषां नि वासे जनपदे प्रवृत्तस्य तहिताणो लुपि सति पञ्चाला जनपद इति तथा विदेहाः कुरवो मगधा मल्या अङ्गा
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प्रथमाविभक्तिविचारः। बङ्गाः कलिङ्गाः सुमाः पुङ्गा इत्यादौत्यर्थक"विशेषणानां चाजाते रि"त्यपरं सर्व तहिशेषणवाचिनां पदाना तहल्लिङ्गवचने स्यातां जातिवाचिपदं वर्जयित्वा तथा पञ्चाला रमणीया: जातौ तु पञ्चाला जनपद एवं गोदयोनिवासग्रामे गोदौ बहुचौरवृतौ जातौ तु गोदौ ग्राम इत्यर्थकं तदेतत्सूत्रहयं पूर्वाचार्याणामनूद्य"तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वादि"ति पाणिनिमुनिरसवयत् । तत्प्रकृतिनियतलिङ्गवचनत्वं लुप्ततहितकानां पञ्चालादिशब्दानां तविशेषणपदानां च विशेष्यतुल्य योगक्षेमं नियतलिङ्गवचनत्वं न शिष्यं न वक्तव्यम् | संज्ञा नियतव्यवहारस्तत्प्रमाणकत्वादिति सूत्रार्थस्तथा च यथा क्षत्रियविशेष प्रवर्तमानानां पञ्चालादिशब्दानां नियतपुल्लिङ्गबहुवचनत्वं व्यवहारेणैव तथा लुप्ततद्धितेऽपि व्यवहारस्तु लिङ्गवचनादिनियतोऽपि न लिङ्गवचनार्थक: किं तु साधुत्वार्थः । अत एव नियतस्त्रीलिङ्गबहुवचनत्वेनापशब्दस्य तविशेषणपदस्य च नियत पुल्लिङ्गबहुवचनत्वेन दारशब्दस्य तविशेषणपदस्य व्यवहारो लिङ्गवचनस्वरूपमथं विशेष्ये विशेषणे वा न तु कापि बोधयति यथाऽपो रसमय्यः रामस्य दाराः पुण्यमया इति विशेषणविभक्तीनां साधुलार्थतयोपपत्तौ निरर्थकत्वे तदनुपपत्तिन भवतीति पंदवाक्यरत्ना करे प्राहुः । युज्यते चा.. यमर्थः । स्वरूपभेदाभावस्य तद्व्यक्तिस्वरूपस्य प्रथमार्थत्वे नौलेऽपि यत्किञ्चिन्नौलव्यक्तिभेदसत्वान्नीलो न नौल इति प्रयोगः स्यात् । न च तवापि तादृशाभेदसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदस्य नौले सत्वात्कथं न तथाप्र
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+ विभक्त्यर्थनिर्णये ।
योग इति वाच्यम् । नञ्स्थलेऽन्वधितावच्छेदकावच्छि प्रतियोगिताकत्वस्यैव भेदे भानोपगमात् । नीलत्वाबछिन्नप्रतियोगिताकमेदस्य नीलेऽसत्वात् भवतु स्वरूप्रभेदाभावत्वस्य पदार्थतावच्छेदकतया तदवच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदस्य नौले सत्वात्तथा प्रयोगो दुर्वार एवेति । यत्त तिनिपाताभिहितकारकः प्रथमार्थश्चैवः पचति तण्डुलः पच्यते छेत्तुं सांप्रतं वृक्ष इत्यादौ कर्तृत्वं कर्मत्वं प्रथमयाऽप्यभिधीयते। अत एव प्रातिपदिकार्थविशेष्यकतिङर्थान्वयबोधे प्रातिपदिकस्य प्रथमान्ततानियमः । तेन ब्राह्मणस्य पक्तृत्वसंप्रदानत्वोभयविवचायां पचति कर्ट - ब्राह्मणाय देहीति न प्रयोगः तिङा प्रथमया च arrated ता प्रतिपाद्यते । एकत्वेने कत्वसंख्येव । एवं प्रातिपदिकार्थविशेष्यक तिथे प्रकार कान्वयबोधे तिङ्जन्याया इव सुग्जन्याया अपि उपस्थिते: सहकारित्वमत एव चैवः पचत इति न प्रयोगः न वा पचति ब्राह्मणाय देहीत्यस्य शशानजापत्या वारणेऽपि पच्यति देवदत्ताय देहोत्यादि प्रयोगो दुर्वारः । चतुर्थ्यास्तिङकारकानभिधायित्वात् । न च चैत्रः सुन्दर इत्यादीन कारकार्थोपपत्तिरिति वाच्यम् । तत्राप्यध्याहृतास्त्रि क्रियाकर्तृत्वस्य प्रथमयाऽभिधानात् । "अस्तिर्भवति परः प्रथम पुरुष प्रयज्यमानोऽस्ती" ति कात्यायनस्मरणात् । न -च रामो रावणस्य कल्को नेच्छस्य हन्तेत्यादौ कथं क्रियापदाध्याहारः अस्तीत्व घस्यान्वे तुम योग्यत्त्वादिति वा च्यम् । अत्र वाक्य भेदस्यावश्यकत्वे श्रासीदिति रामोभविष्यतीति कल्किन्यध्याहारसम्भवात् भवतिपर इत्य
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प्रथमाविभक्तिविचारः । स्योपलक्षणवात् । न च भगवतो दशावताराः । मत्स्यः कूमर्मी वाराहो नरसिंहो वामनो रामो बलभद्रो बुद्धः कल्की चेत्यादिविभागवाक्ये आसोदस्ति भविष्यतीत्येकतमस्याध्याहारासम्भवात् केषां चिदवताराणामतीतत्वात् कस्य चिविद्यमानत्वात् कस्य चिद्भावित्वादिति वाच्यम् । उद्देशवाक्याथै विभागवाक्यार्थस्यान्वयविवक्षणे सन्तीध्याहारमम्भवात् । विभागवाक्यार्थे उद्देशवाक्यार्थस्यान्वयविवक्षगो तु अस्तिसन्तीत्येवाध्याहारसम्भवात् तवैकवचनान्तबहुवचन्तयोस्तिङन्तयोरुभयोरपि साधुत्वात्। न चातोतानागतयोः कथं वर्तमानसत्ताया मध्याहृततिङन्तार्थस्यान्वय इति वाच्यम् । वर्तमानत्वाविवक्षणेऽपि धात्वर्थेऽस्य सम्बन्धे विवक्षिते लटप्रयोगस्य साधुत्वात् । "वारिदः सुखमाप्नोति सुखमक्षय्यमन्नद"इत्यादिदर्शनात् । न च "हंसीव धवला कौति रित्यादी धवलपदाकोतिपदादध्याहृतास्तिपदार्थ स्वरूपभवनकर्तृत्वार्थिका प्रथमोत्पद्यतां हंसीपदाल्कथं सेति वाच्यम् । तनापौवनिपातार्थभवनकतत्वार्थकतया प्रथमाया उपपत्तेः । न चेवनिपातस्य कर्तत्वार्थकत्वोपगमे करणकमत्वार्थकत्वोपगमः स्यात् । तथा च "शरैरुरिवोदीच्यानुचरिष्यवसानिवे"त्यादा विवनिपातेन करण कर्मत्वा भिधानात् - तोयादितौयानुपपत्तिरिति वाच्यम् । दर्शितस्थले इव निपातस्य सादृश्यमानार्थकत्वात् करणकर्मत्वाद्यर्थकले मानाभावात् । उसै रसानित्यादौ समानलिङ्गवचनत्वेन साधुत्वार्थिका तृतीया हितीया । तेन उससदृशैःशरै रससदृशानुदीच्यानिति प्राथमिको बोधः ।
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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अतएवेवपदयं सङ्गच्छते । ततो रविक कोलकरकरमकर्म र सट्टशशरकरण को दोच्य कर्मको डरकर्ता रघुरिति विशिष्टवाक्यार्थबोधस्तव तृतीयाद्दितौयार्थयोः करणत्वकर्मत्वयो इत्विर्थे नान्यात् । तृतीयाद्वितीययोर्नानुपपत्तिरिति कालापैरुक्तम् । तदसत् । घटो
घटात्यन्ताभाव शाब्दे प्रथमया कर्तृत्वाभिधानासम्भवात् । यदि च तवास्तिधात्वर्थान्विततिङर्थात्यन्ताभावविशेष्यतया घटः प्रतीयते तदाऽपि प्रथमया कर्तत्वाभिधानमसम्भवि प्रथमोक्तकर्तत्वस्य नञर्थान्वयासम्भवात् । न च तिङ्प्रथमाभ्यामेकमेव कर्तृत्वमुपस्थाप्यते । तत् नञर्थे सघटे विशेषणतयाऽन्वेतीति प्रथमया कर्तृत्वाभिधानं निराबाधमिति वाच्य म् प्रथमार्थाभावस्य प्रातिपदिकार्थेऽन्वयासम्भवाः प्रकृत्यर्थे प्रत्ययार्थाभावान्वयस्याभ्युत्पन्नत्वात् । न च तवाश्रयत्वस्वरूपकट त्वाभाव एव तिङ्प्रथमवोरर्थस्तस्य घटेऽन्वयः नञ्पदं तात्पर्यग्राहकमत एव तिङधन्वयिनि प्रथमान्तार्थे तिर्थसंख्यान्वयस्य व्युत्पन्नत्वाद् घटी घटा वा नास्तीति न प्रयोग इति वाच्यम् । तथासति कर्तृत्वस्यैकदेशतया तत्र धात्वर्षानन्वयप्रसङ्गात् । धावन्तिकत्वाभावस्य तिर्थत्वाभ्युपगमे तण्डुलं प्रचति नेत्यादौ धात्वर्थस्यैकदेशतया तत्र तण्डुलकर्मत्वानन्वयप्रसङ्गात् । धात्वर्थान्विततिर्थान्वयिनि तादशतिङर्थान्वितनञर्थान्वयिनि च प्रथमान्तार्थे तिर्थसंख्यान्त्रयस्य व्युत्पन्नत्वान्न घटो घटा वा नास्तीति प्रयोग इति । वस्तुतस्तु कर्तृस्वस्य तिर्थत्वमावश्यक
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प्रथमाविभक्तिपिचारः। मेव पचतीत्यादौ प्रथमां विना तिडा प्रतीयमानत्वात् । प्रथमार्थत्वं तु न युज्यते तिङ विना प्रथमया कुवाप्यप्रतीयमानत्वादन्यलण्यत्वाच्च । पटो न वट इत्यादौ पटघटभेदान्वयबुद्धौ जायमानायां घटपदोत्तरप्रथमायाः कथमपि कटत्वप्रत्यायकत्वं न मम्भवतीति न कर्ट त्वं प्रथमार्थ इति पचतीत्यादौ तृतीयाया असाधुत्वात् षध्या असाधुत्वात्षयर्थस्याविवक्षणादा द्वितीयादेरर्थस्यायोग्यत्वात् प्रयोगबाधे"न केवला प्रकृति: प्रयोक्तव्ये"ति साधुत्वार्थं प्रथमोपात्ता प्रथमा चैत्रादिपदानन्तरं प्रयुज्यत इति । लिङ्गं पुंस्त्वं स्त्रीत्वं लोबत्वं च तत्र शोणिताधिकशुक्रसमवेतप्राणित्वं पुंस्त्वम् । शुक्राधिकशोणितसमवेतप्राणित्वं स्त्रौत्वम् । समशुक्रशोणितोभयसमवेतप्राणित्वं क्लीबत्वम् । तथा च निरुक्तम् । शुक्रातिरेके पुमान् भवति शोणितातिरेके स्त्री भवति हाम्यां समन पराढो भवतीति । चतुर्भजो हलायुधो मकरध्वज इत्यादौ पुं. स्त्वम् अदितिः श्रीधेनुरित्यादी स्त्रीत्वम् मार्दङ्गिक कुण्डलि गायनं हन्न लमित्यादौ लौवत्वं प्रथमाऽभिधत्तइति लिङ्गं प्रथमार्थोऽनन्यलभ्यत्वात् । घटादिशब्दे तु पु. स्त्ववाचकसुपप्रकृतित्वं पुस्त्वमौपचारिकमिति । एवं तटोत्यादौ तटशब्दे ईत्वेन स्रौत्ववाचकस्य ङीप्रत्ययस्य प्रकृतित्वं स्त्रौत्वम् । भुजेत्यादौ भुजशब्दे पात्वेन स्त्रीत्ववाचकस्य टाप्रत्यस्य प्रकृतित्वं स्त्रौत्वं दधीत्यादौ दधिशब्दे नपुंसकत्ववाचकस्य लोपस्मारितसुपः प्रकृतित्वं नपुंसकत्वं कुण्डमित्यादौ कुण्डशब्दे नपुंसकत्ववा_ चकस्यामस्मारितसुपः प्रकृतित्वं नपुंसकत्वं सर्वत्र शब्दे.
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विभक्त्यर्थनिर्णये। ध्वौपचारिकमिति । परिमाणं गुरुत्वं परिमितिश्च द्रोणो ब्रोहिरित्यादौ गुरुत्वविशेषवाचिनो द्रोण शब्दाव्यथमा गुरुत्त्वमभिधत्ते । प्रथमार्थगुरुत्वे द्रोणपदार्थस्याभेदेनान्वयस्तादृशगुरुत्वं ब्रौहावन्वेति । एवं द्रोणाभिन्नगुरुत्ववान् ब्रीहिरिति वाक्यार्थबोध: । वितस्तिः शङ्ख इत्यादी हादशाङ्गलपरिमाणवाचिनो वितस्तिशब्दात् प्रथमा परिमाणमभिधत्ते । प्रथमार्थपरिमाणे वितस्तिशब्दार्थस्याभेदेनान्वयस्तादृशपरिमाणस्य शोऽन्वयः एवं वितस्त्यभिन्नपरिमाणवान् शङ्ख इति वाक्यार्थबोध इत्यनन्यलध्यत्त्वाद् गुरुत्वत्वेन गुरुत्वं परिमाणत्वेन परिमाणं च प्रथमार्थ इति अव गुरुत्वविशेषविशिष्टबाचिनो द्रोणशब्दम्यार्थः ब्रीही परिमाणविशेषविशिष्टवाचिनो वितस्तिशब्द म्थार्थः शङ्ख तादात्म्येनान्वेति । तावतैव बौहौ गुरुत्वविशेषवैशिष्ट्यस्य शङ्ख परिमाणविशेषवैशिष्ट्यस्यावगमसम्भवात् । गुरुत्वत्वेन गुरुत्त्वस्य 'परिमाणत्वेन परिमाणस्य भानमप्रामाणिकमेवेति गुरुत्वं परिमाणं च न प्रथमार्थ इति पदवाक्यरत्नाकरे गुरुचरणाः । युज्यते चायमर्थः । तथा हि । यदि परिमाणं प्रथमार्थस्तस्य प्र. कृत्यर्थविशेषितस्य प्रातिपदिकान्तरार्थोऽन्वय स्तदा राज: पुरुष इत्यादाविव द्रोणो ब्रौहिरित्यादौ समानविभक्तिकतानियमो न स्यात् । तथा च द्रोणो ब्रीहिं ब्रौहिणाबौहे झैही वेत्यादिप्रयोगः स्यादिति । यदि च द्रोणो बौहिः वितस्तिः शङ्ख इत्यादी गुरुत्वत्वेन गुरुत्वं परिमागा त्वेन परिमाणं प्रतीयत एव तदा गुरुत्वं परिमाणां च प्रथमार्थ एवानन्यलम्यत्वात् । यदि च प्रक त्यविशे.
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प्रथमाविभक्तिविचारः। षितयोस्तयोः प्रथमार्थयोः समानविभक्तिकपदान्तरार्थएवान्वयस्तदा तादाल्यान्वय इव गुरुत्व परिमाणान्व ये पि समानविभक्तित्वं तन्त्रमभ्युपेयमिति । । वचनमेकत्वं हित्वं वहुत्वं च तत्रैकत्वं क्वचित्मक त्यर्थतावच्छेदकव्यापकसंसर्गेण प्रक स्यर्थेऽन्वेति यथा परमेश्वर डूत्यादौ समवर्यप्रक त्यर्थतावच्छेदकव्यापकसमवायेनैकत्वं परमेश्वरऽन्वेति । कचित्पदान्तरार्थव्यक्तिविशेषघटितेन प्रक त्यर्थतावच्छेदकव्यापकेन संसर्गेण प्रक त्यान्वेति यथा पशुना रुद्र यजत इत्यादौ तद्यागव्यक्तिकर्मपशुत्वव्यापकसमवायनैकत्वं पशावन्वेति । ईदृशमंमगें
कत्ववैशिष्टयमेव सजातीय हितोयराहित्यं ज्ञापयति । एवं हित्वमपि अाखिनेयावित्यादावश्विनौपुवत्वप्रकत्यर्थतावच्छेदकव्यापकसंसर्गेण हित्वमाश्विनेययोरन्वेति । सारखतौ मेषौ भवत इत्यादी मेषक कमावनाचिप्लाय यागभावनायां यस्यां मरस्वत देवतयोर्मेषयोः कर्मतयान्वय स्तद्भावनाकर्ममेषनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितानवछेदकपर्याप्तिसंसर्गेण हित्वं मेषयोरन्वेति। ईदृशसंसगेंगण हित्ववैशिष्ट्यमेव सजातीयतृतीयराहित्यं ज्ञापयति । इत्थं संसर्गवैचिच्यणैकत्व हित्वयोरन्वयसम्भवेन नाव्यावर्तकत्वं न वा विपशुको रुद्रयागः न च निमेषक: सरस्वतीयागः यागस्वर्गयोहेतुहेतुमगावे एकत्वहि वयोर्यागे कर्मतायां वा वैशिष्ट्य प्रवेशनौयमित्यादिकं सुधीमिरूद्यमिति । बहुत्वं तु नेहशसंसगणान्वति सजातीयराहित्यस्य ज्ञापयितुमशक्यत्वात् बहुत्वस्य सकलसंख्याव्यापकत्वात् । कपिञ्जलानालभेते त्यादी. बहुत्वत्वेन वित्वस्य
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विभक्त्यर्थनिर्णये। बोधस्तात्पर्यगौव संसर्गवैचित्र्यण त्रित्वबोधनासम्भवात् । एवं यत्न प्रकृत्यर्थतावच्छेदकमेकं तत्र प्रत्यर्थतावच्छे - दकव्याप्यसंसर्गेण हित्ववहुत्वयोरन्वयस्तेत घटाकाशयोदि त्वस्य घटपटाकाशानां बहुत्वस्य च गगने सत्वादाकाशावाकाशा इति न प्रयोगः यत्र प्रत्यर्थतावच्छेदकं नाना धवखदिरावित्यादौ तत्र द्वन्दूस्खले व्य त्यत्तिवैचिच्यण धवत्वखदिरत्त्वनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितानबच्छेदकपर्याप्त्या हित्वं तयोः प्रकृत्यर्थतावच्छेदकयोरवेति तादृशपर्यास्या स्वाश्रय प्रकृत्यर्थतावच्छेदकवत्वसम्बन्धेन प्रकृत्यर्थयोर्वाऽन्वेति । एवं बहुत्वमपि धवखदिरपलाशा इत्यादी प्रकृत्यर्थतावच्छेद केषु प्रकत्यर्थेषु वा दर्शितरीत्याऽन्वेति । एवं वामे बहनू कुशान् कृत्वा दक्षिणे तु कुशवयमित्यादावपि तात्पर्यविशेषण बहुशब्दार्थतावच्छेद के विखे पात्पर्यविशेषण बहुवचनार्थवित्वस्यान्वयः किं वा वचनार्थबहुत्वात्मकविस्वविशिष्टेषु कुशेषु बहुशब्दार्थवित्वविशिष्टस्य तादाव्येन निराकाङ्गत्वमिति बहुशब्दप्रयोगमार्थक्याय कुशविशेषणं वित्त्वे तथान्वयविशेष्य योग्यताया इव निराकारताया अपि विशेषणाचयप्रयोजकत्वात् । एवं वामे नव कुशधारगां सांप्रदायिकं युज्यते विशिष्टानामिति । एवं यदाऽऽदिशन्ति पूज्यपादा इत्यादौ पादविशेषण पूजायामनिर्धारितविशेषम्य बहुत्वस्य विवक्षितस्य बहुवचनार्थस्य सविशेषणे होतिन्यायादन्वयः । एवं गोदौ ग्रा. म इत्यादौ हित्वस्य गोदयोर्निवासग्रामविशेषगीभूतयोरन्वयो निराआध एव । गोदशब्दोऽपि नासत्यशब्द
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प्रथमाविभक्तिविचारः ।
वन्नित्यद्दिवचनान्तोऽपि न द्दित्वविशिष्टवाचकः येन निराकाङ्क्षतया नान्वयः प्रसज्येत । ननु गगनपदस्य शब्दविशिष्टवाचकतया गगनपदार्थैकदेशे शब्दे बहुत्वान्वयविवचायां गगनानीति प्रयोगः स्यात् । एकदेशेऽग्वयानभ्युपगमें पूज्यपादा इत्यचैकदेशे पूजायां बहुत्वान्वयो न स्यात् । एवं वेदाः प्रमाणमित्यत्र प्रमाणत्वेनैकत्वान्वयः स्यादिति चेत् । व्युत्पत्तिवैचिचैान्वयोपगमेन समोहितसिद्धौ नैकदेशाऽन्योऽभ्युपेयते पूज्यपादा इत्थव पूजाविशिष्टपादे बहुत्वान्वयः पादे बाधात्पूजायां पर्यवस्यति शिखी विनष्ट इत्यादिवत् । एवं प्रमाणमित्यव प्रभाविशेषितल्युडर्थकरणे एकत्वान्वयः करणे बाधात्प्रमायां पर्यवस्यति । तवापि स्वाश्रय शाब्दParacaeम्बन्धेन प्रमायामन्वेति सविशेषणे हौतिन्यायात् तदेव विशेषणं यत्सामान्यधर्मवतः व्यावर्तयति यथा घटे नौलादिः नौलान्यष्टात् स्वाश्रयघटं व्यावर्तयति । शब्दस्तु नेदृशं येन गगनानीति प्रयोगः स्यात् प्रजा प्रमा चेदृशमेव विशेषणमिति सविशेषणे हौतिन्यायस्य विशेष्ये योग्यताया इव चाकाङ्क्षाया अपि बाधः प्रापक एव सति विशेष्यबाधे इत्यस्य विशेष्यान्वयाभावे सतीत्यर्थः । एवं वामे बहनूकुशानित्यत्र बहुत्वविशिटकुशे बहुशब्दार्थस्य बहुत्वविशिष्टस्य तादात्म्येनान्वयो निराकाङ्क्ष इति कुशविशेषणवजत्वेऽन्वयः पर्यवस्यति । बहुशब्दोत्तरबहुवचनं साधुत्वार्थमेव कुशश`ब्दोत्तर बहुवचना बहुशब्दाच्च वित्वोपस्थितिस्तात्पर्यविशेषेणैवेति । क्वचिदेकत्वस्याप्येवं रीत्याऽन्वयः । यथा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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वेदाः प्रमाणमित्यादौ प्रकृत्यर्थतावच्छेदकप्रमाणत्वे तद्द्वारा प्रमाणे वा एकत्वस्यान्वयः । यत्र तु "विंशत्याद्याः सदैकत्वे सर्वाः संख्ये य संख्ययोरि" ति कोशेनानुशिष्टस्यैकवचनस्यार्थ एकत्वं विंशतित्वादिसंख्यायामन्वेति । यथा विंशति ब्रह्मणाः शतं धार्तराष्ट्राः सहस्रं भानोः करा इत्यादौ विंशतित्वादौ बहुत्वान्वयविवक्षणे तु बहुवचनमपि प्रमाणं यथा “ असंख्याताः सहस्राणि ये रुद्रा अधिभूम्यामिति श्रुती' तिस्रः कोत्यो ऽर्धकोटौ च तीर्थाना वायुरब्रवीदि" ति पुराणे ।
किमेकयैव विंशत्या बाहुभिस्त्वं विकत्थसे । पश्य रावण नाराचैश्विनद्मि कति विंशती: ॥ इादी लोके च तथा प्रयोगदर्शनात् । ते श तानि वयं पञ्चेत्यव बहुवचनान्त तच्छब्दविशेषणात् । संख्येयवाचिनः शतशब्दा बहुवचनं बहुवचनान्तास्मच्छव्द विशेषणात्पञ्चशब्दाद्दजवचनञ्च साधुत्वार्थमेव । एवं दशशतान्यम्भोज संवर्तिका 'इत्यादी संख्य यवाचिनो दशशब्दस्यार्थः संख्ये यवाचिशतशब्दार्थे तादाम्येनान्वेति । शिखी विनष्ट इत्यादाविव सविशेषणे होति न्यायेन शतत्त्व संख्यामादाय पर्यवसानं शतत्वे दशत्वविशिष्टतादाम्यावगमे महत्वसंख्या लाभ इति । जातिगतेकत्वविवचायामेकवचनं बहुवचनं च प्रमाणम् । "जात्याख्यायामेकस्मिन्बहुवचन मन्यतरस्यामि " त्यनुशासनात् । जातिरूपे एकस्मिन्नर्थे बहुवचनमेकवचनं च स्यादिति मचार्थः । यथा सम्पन्नो व्रीहिः सम्पन्ना व्रीहय इत्यादी व्रीहित्वातावेकत्वमेकवचन बहुवचनाभ्यां प्र
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प्रथमाविभक्तिविचारः। त्याय्यते । तत्राप्येकजातिविवक्षिता तत्रैवायं वचनव्यवस्था एकजातिविवक्षगात् सम्पन्नौ बीहियवावित्यादी नैकवचनबहुवचने । एको व्रीहिरित्यादौ न बहुवचनं "संख्यायोगे प्रतिषेधो वक्तव्य" इतिवार्तिकेन निषेधात् । एवं ब्राह्मणेन हतः पततीत्यादौ ब्राहाणत्वजातावेकत्वमन्वेति ब्राह्मणत्वखरूपैकजातिमत: सामान्येन हननान्वयविवक्षणात् ब्राह्मणसामान्यकर्तकस्यैव हननस्य पातित्यप्रयोजकत्वं न तु ब्राह्मणविशेषकत कस्य । एवं गृहं संमाष्टोत्यादौ गहत्व एवैकत्वमन्वेति गृहसामान्यकर्मत्वस्यैव संसर्गेऽन्वयान्न तु गहविशेषकर्मत्वस्येति । "अस्मदो इयोश्चे" त्यनुशासनेनाहं ब्रवीमि आवां ब्रूव इत्यर्थ न्यतरस्यां वयं ब्रूम इति बहुवचनमस्मदर्यान्वितमेकत्वं हित्वं चाभिधत्ते। “सविशेषणस्य प्रतिषेधो वक्तव्य"इति वार्तिकेन विशेषण योग बहुवचनस्य निषेधः यथा देवदत्तोऽहं बीमीत्यादौ । युष्मदि गुरावेकेषामित्यनुशासनेन त्वं गुरुरावां गुरू इत्यर्थेऽन्यतरस्यां बहुवचनं यूयं गुरव इत्यादौ युष्मदर्थान्वितमेकत्वं हित्वं चाभिधत्ते । “फल्गुनी प्रोष्ठपदानां च नक्षत्रे" इत्यनुशासनेन फल्गुनीप्रोष्ठ पदाभ्यां शब्दाभ्यामुत्तरमन्यतरस्यां बहुवचनं फल्गुनी नक्षत्रगतं प्रोष्ठ पदानक्षत्रगतं च हित्वमभिधत्ते । नक्षत्रगहणेन फल्गुन्यौ माणविक इत्यादौ न बहुवचनम् । “छन्दमि पुनर्वस्वोरकवचनम्" इत्यनुशासनेन "विशाखयोच” इत्यनुशासनेन च पुनर्वमुशब्दाहिशाखाशब्दाच्चोत्तरमन्यतरस्या मेकवचनं पुनर्वसुनक्षत्वगतं विशाखानविगतं च हिल मभिधत्ते छ
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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न्दसि यथा पुनर्वसुर्नचत्रमदितिर्देवता पुनर्वसू नक्षत्रमदितिर्देवता यथा वा विशाखा नचवमिन्द्राग्नी देवता विशाखे नचत्रमिन्द्राग्नी देवता । लोके तु पुनर्वस विशाखाशब्दौ नित्यद्विवचनान्तौ नासत्यशब्दवत् । तिष्यपुनर्वखोर्नचवइन्द्र बहुवचनस्य दिवचनं नित्यम्" इत्यनुशासनेन तिष्यश्च पुनर्वसू चेति विग्रहसमानार्थकात् तिष्यपुनर्वसू इति इन्द्रादुत्तरं द्विवचनं तिष्ये पुनर्वस्वोश्च वर्तमानं बहुत्वमभिधन्ते । फल्गुनो वान्तवग्रहणेऽनुवर्तमानेऽस्मिन्सूत्रे पुननं चत्रग्रहणं पर्यायेणापि इन्द ं सूचयति । तेन पुष्यपुनर्वसू सिां ध्यपुनर्वसु इत्यादिद्दन्दोऽपि द्विवचनं तथा नित्यगृहणं बहुवचनं निषेधति । बहुवचनस्येति विशेषोपादानं तिष्यपुनर्वस्विति क्लौवैकवचनान्तद्दन्द्र सूचयति ज्ञापयतिच सर्वो इन्द्रो विभाषैकवद्भवतीति क्लौवैकवचनान्तज्ञापनेन क्लबद्दिवचनान्तद्दन्दस्य निषेधोऽवगम्यते । तेनतिष्यपुनर्वसुनौ इति न इन्दः । जात्याख्यायामित्यादितिष्यपुनर्वस्वोरित्यन्तमूत्राणां तात्पर्यार्थाः काशिकासंमताः प्रदर्शिताः । एवं तिङर्थानामे त्वादीनां प्रथमान्तार्थेऽन्वयः भावाख्यातस्थले तिङर्थभावनाया विरहात् तदन्वयिप्रथमान्तार्थासम्भवान्न तिर्थसंख्यान्वय सम्भव इति चैत्रेण स्योयते इति साधुत्वार्थमेकवचनं भावाख्यातस्यले न तु द्विवचनवहुवचने । फणिभाष्यकृतस्तु उट्रासिका श्रस्यन्ते हतशायिकाः शय्यन्ते इति भावाख्यातवहुवचनं दर्शयन्ति स्म । तेषामयमाशयः । भावाख्यातस्थले एकत्वादिसंख्या धात्वर्थेऽन्वेति । न च पच्यते
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प्रथमाविभक्तिविचारः। चैत्रेणेत्यादौ धात्वर्थव्योपाराणां बहुत्वात्कथमेकत्वान्वय इति वाच्यम् । व्यापाराणां बहुत्वेऽपि पूर्वापरौभूतानां तेषामेकबुद्धिविषयतयैक्यसम्भवात् । बुद्धिगतैकत्वस्य स्वाश्रयविषयत्वसंबन्धेन व्यापारेष्वन्वयसम्भवात् । तदुक्तम् ।
गुणभूतैरवयवैः समूहः कमजन्मनां। बुद्ध्या प्रकल्पिताभेदः क्रियेति व्यपदिश्यते ॥ इति पूर्वापरीभूतं भावाख्यातमाचष्टे । यथा पति व्रजतीत्युपक्रमप्रभृत्यपवर्गपर्यन्तमिति निरुक्तमप्यममर्थ संवदति । न चैकबुद्धिविषयतया व्यापाराणामैक्ये भावाख्याते कथं द्विवचनबहुवचनोपपत्तिरिति वाच्यम् । तादृशव्यापाराणां पुनः सम्भवे बुध्यन्तरविषयतया तथा हित्वान्वयसम्भवात् द्विवचनस्य पुन: पुन: सम्भवे पुनर्बुध्यन्तरविषयतया तथा बहुत्वान्वयसम्भवात् बहुवचनस्य चोपपत्तेः । एवमास्यन्ते इत्यादौ उपवेशनव्यापाराणां मुहुरन्तरोत्थाने विचतुःकृत्वो जातानां बहुतया बहुवचनोपपत्तिः । शय्यन्ते इत्यत्रापि शयनव्यापाराणां मुहुरन्तराजागरणे विचतुः कृत्वो जातानां बहुतया बहुवचनोपपत्तिः । इत्थं चोपवेशनक्रियाविशेषणस्य उष्ट्रवासिकाशब्दस्य शयनक्रियाविशेषणस्य हतशायिकाशब्दस्य बहुवचनान्तत्वं बहुत्वविशिष्टव्यापारे बहुत्वान्यसंख्याविशिष्टस्य तादात्म्येनान्वयायोगात्ममानवचनत्वं तन्त्रम् । उष्ट्रासनसदृश उष्ट्रासिकाऽर्थः । हतशयनसदृशो हतशायि- .. कार्थ इति उष्ट्रासनसदृशानि वर्तमानासनानि हतशयनसदृशानि वर्तमानशयनानौति वाक्यार्थबोध: । नम्वेवं धात्वर्थे संख्यान्वयोपगमे लिङ्गसंख्यान्वयायोग्यत्व
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विभक्त्यर्थनिर्णये। मसत्वं व्याहत्येत । तत्रापि लिङ्गान्वयायोग्यत्वस्यं घटपठादिप्रातिपदिकादिसाधारणतया संख्यान्वयायोग्यत्वस्यैवासत्वशब्दार्थत्वादिति चेत् । साक्षात्संख्यान्वयायोग्यत्वमसत्वं धात्वर्थस्य बुद्धिहारा संख्याऽन्वयित्वेऽपि निकतासत्वमव्याहतमेव । न चैवं वेदाः प्रमाणमित्यादी संखप्रायाः प्रमिति करणे साक्षादनन्धयादसत्वं स्यादिति वाच्यम् । प्रमाणानौत्यादौ प्रमाणे साक्षात्संखयान्वयादयोग्यताया विरहात् । अयोग्यतापर्यन्तधावनेन कचित्संखवाया अनन्वयेऽपि नासत्वमिति । यहा प्रातिपदिकार्थत्वं सत्वं तदभावोऽसत्वं तच्च धात्वर्थे निरावाधमेव । अत एव प्रातिपदिकार्थः सत्ता इति काशिकारतिस्तत्र प्रातिपदिकार्थ इति भावप्रधानो निर्देशस्तेन प्रातिपदिकप्रतिपाद्यता सत्तेत्यवगम्यते । प्रातिपदिकाथोदाहरणमुच्चैर्नीचैरित्यपि तत्र वृत्तौ दृश्यते । अन्यथालिङ्गसंखयान्वययोग्यत्वरूपसत्वस्योदाहरणामव्ययस्थले - लग्नं स्यादिति । तथा च सूत्र प्रातिपदिकार्थोक्तियत्न लिङ्गाद्यन्वययोग्यो नार्थस्तत्वापि साधुत्वार्थ प्रातिपदिकसंज्ञाबलात्पथमा भवतीति ज्ञापनार्थमिति । एवं सुऔजस् इत्यत्र उकारजकारावनुबन्धी न वाचकताकुक्षिप्रविष्टौ श्रीकृष्णस्वाता इत्यव श्रूयमाणस्य कृष्णः पालथितेत्यादौ विसर्गभावं प्राप्तस्यापि सकारस्य रुत्वेन रूपेण पुंस्त्वैकत्ववाचकत्वं सारस्वतौ मेषौ भवत इत्यादौ श्रूयमाणस्यावौत्यादौ दीर्धकारभावं प्रोप्तस्याप्यौकारस्यौत्वेन औटःसाधारणेन रूपेण पुंस्त्वदित्ववाचकत्वम्। एवं सुमनसखिदिव इत्यादौ श्रूयमाणम्य सुमनसो ना
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प्रथमाविभक्तिविचारः। के इत्यादावोकारभाव प्राप्तस्यापि अस पस्त्वन शससाधारणेन रूपेण पुंस्त्वबहुत्ववाचकत्वं लिङ्गवाचकता तु असः जस्शस्ङसिङस्साधारणेनास्त्वेन रूपेण बोध्या । एवं सुबन्तस्यापि लिङ्गसंखग्रावाचकतावच्छेदक साधारणं रूपं सुधीभिरूद्यमिति द्वितीयादौनां लिङ्गसंखार्थकत्वम् । सूत्रे मावग्रहण प्रथमायां कर्मत्वाद्यर्थकत्वव्यवच्छे हमुखेन प्रथमार्थस्य सर्वसुवर्थत्वं ज्ञापयत्स्चयति । इति विभक्त्यर्थनिर्णये सम्बोधनेतरप्रथमार्थनिर्णयः ।
सम्बोधनमपि प्रथमार्थस्तथा चानुशासनम् ॥ . "सम्बोधने चे"ति। सबोधनं बोधोद्देश्यकच्छा तत्र ज्ञानमिच्छा च खण्डशः प्रथमार्थः ।तत्व प्रातिपदिकार्थ: समवेतत्वसम्बन्धेन ज्ञानेऽन्वेति । प्रातिपदिकार्यान्विते जाने उद्देश्यतासम्बन्धेनेच्छा ऽन्वेति ज्ञानं च विशिष्टविषयतासम्बन्धेन वाक्याथै इन्वेति । एवं प्रातिपदिकाथसमवेतज्ञानस्योद्देश्यतया ज्ञानसमवायितयोद्देश्यत्वस्वरूपं सम्बोध्यत्वमर्थतः प्रातिपदिकार्थस्य प्रतीयते एतदेव सम्बोध्यत्वं काशिकायामाभिमुख्यपटेनोक्तम् । एवं सति ब्रह्मन् पालयेत्यादौ ब्रह्मसमवेतेष्टज्ञानविषयएकत्वकर्तृकमाशंसाविषयपालनमिति शाब्दिकस्य ब्रझसमवेतेष्टज्ञानविषय आशंसाविषयपालनकतैकस्त्वमिति तार्किकस्य शाब्दबोधः । एवं यादृशरूपावच्छेदेन सम्बोध्यत्वं प्रथमया प्रत्याय्यते तादृशरूपविशिष्टमेव यष्मदा परामण्यते सम्बोध्यतावच्छेदकोपलचितधर्मविशिष्ट एव युष्मत्पदशक्तः। देव त्वं पुरुषोत्तमोऽसीत्यादी पु सत्त्व कत्वविशिष्टदेवत्वावच्छेदेन सम्बोध्यत्वमेकवचनप्र
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विभक्त्यर्थनिर्णये। थमथा प्रत्याय्यते । त्वंशब्देनापि पुरत्व कत्वविशिष्टदेवत्वविशिष्ट उच्यते । अत एव सर्व लिङ्गेऽपि युष्मदस्मदोः समानरूपता । इत्थं च हे ब्राह्मणास्त्व प्रसौदेत न प्रयोगः सम्बोध्यतावच्छेदकतयोपलचितेन बहुत्वविशिष्टब्राह्मणत्व न विशिष्टस्य युष्मदा परामर्थे तत्रैकवचनस्यानन्वितार्थकत्वादसाधुत्वाच्च।
हे चण्ड हे मुण्ड बलै बहुभिः परिवारितौ। तत्र गच्छत गत्वा च सा समानौयतां लघु । इत्यादाबकत्वविशिष्टचण्डत्वकत्वविशिष्टमुण्डत्वखरूपधर्महयावच्छेदेन प्रथमया संबोध्यत्वबोधनेऽपि ताह- . शचगडत्वविशिष्टस्य तादृशमुण्डत्वविशिष्टस्य च युष्मदापरामर्शात्ततो न द्विवचनममुपपन्नम् । एकपटकपटावित्यादिद्दन्तस्थले इव हित्वान्वयसम्मवात् ।
हे सौमित्र सखा यस्त निविशेषस्त्वया गुहः ।।
युवां गत्वा नदीमेनां शीघ्रमानयतं पयः ॥ इत्यादौ यच्छब्दाकाङ्क्षापूरणाक्षमेन तच्छब्देन युष्मद एकशेष स्मृततच्छब्देन शक्त्या युष्मदा लक्षणया वोपस्थापितं गुहमादाय द्वित्वान्वयसम्भवात् युष्मदुत्तरं हिवचनोपपत्तिरिति रीतिरियं भवच्छन्देऽपि बोध्या । तेन हे ब्राह्मणा भवान् प्रसौदत्वित्यादिको न प्रयोगः । यत्र अर्जुनार्जुन सात्यके सात्यके । लामाका
कृतमनुमतं दृष्ट वा यैरिदं गुरुपातकं । तर मनुजपशुभि निमर्यादैर्भवनिरूदायुधैः ॥ नरकरिपुणा साध तेषां सभौमकिरीटिना-। सयमहमसृङ्मेदोमांसः करोमि दिशां बलिम् ॥
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प्रथमाविभक्तिविचारः। __ इत्यादौ सम्बोध्स्यय हित्वे भवच्छन्दो बहुवचनान्तस्तत्र न सम्बोध्यार्थको भवच्छब्दः किं तु शवन्तः तेन मनुजपशुभवनविशिष्ट रिति यैरित्यस्य विशेषणम् । यत्त नाथ पालयेत्यादौ पालनकर्ट त्वस्य सम्बोधनप्रथमान्तार्थएवान्वय इति । तदसत् । गुणीभूते प्रथमान्तार्थे आख्यातार्थान्वयायोगात् । सम्बोधनप्रथमान्तार्थस्य सम्बोध्यत्वे गणीभूतत्वात् । अन्यथा नारायण इव नरो गच्छतीत्यादौ नारायणेऽपि गमनकट त्वान्वयप्रसङ्गात् । किं च युष्मदोऽमामानाधिकरण्ये मध्यमपुरुषो न स्यात् । • न च युष्मत्पर्यायो यः सम्बोधन प्रथमान्त इति मध्यमपुरुषोपपत्तिरिति वाच्यम् । तथा सति भवच्छब्दसामानाधिकरण्येऽपि मध्यमपुरुषप्रसङ्गात् । नन्वेवम् ।
अकाण्डशक्तिनिर्भिन्ने वत्से जहति चेतनां ॥ हताश राम कस्यार्थे दग्धं जीवितमिच्छसि । इत्यादी रामस्य वक्तः सम्बोध्यत्वमनुपपन्नम् । तदा हि तस्य वाक्यार्थज्ञानासत्वे वाक्यप्रयोगोऽनुपपन्नः । वाक्यार्थज्ञानस्य सत्वे तु तस्य सिद्धतया तवेच्छाविरहवाक्यार्थसिद्धौ शाब्दबोधो न भवतीति चेन्न । मानान्तरजन्यवाक्यार्थज्ञानसत्वेऽपि वाक्यार्थगोचरशाब्दत्वावच्छेदेनेच्छासम्भवात् । श्रवणसिद्धौ मननेच्छावत् सिद्धेः शाब्द प्रत्यप्रतिबन्धकत्वात् । प्रतिबन्धकत्वे वा शाब्देच्छाविरहविशिष्टायास्तस्यास्तथात्वाच्चेति वक्तुरपि स्ववाक्यजन्याभीष्टवाक्यार्थबुद्धिसमवायितया सम्बोध्यत्वमवाधितमिति संप्रदायः । ननु सम्वोध्यपुरुषवृत्तिवाक्यार्थज्ञानस्य सिद्धत्वनिश्चये करणापाटवेन प्रयुक्तस्य चैत्र त्वं गच्छेति वा
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विभक्त्यर्थनिर्णये। क्यस्य प्रामाण्यापत्तिः । भाविभूतायाः पुरुषान्तरीयायाबूच्छाया विषयत्वस्य चैवीयवाक्यार्थज्ञाने बाधितत्वात् । एवं सम्बोध्यपुरुषत्तिवाक्यार्थज्ञानस्य वाक्याजन्यत्वेऽपि अटहौतपदसङ्केतं म्लेच्छमुद्दिश्याचार्यैः प्रयुज्यमानस्य शङ्गापरीत्यादिवाक्यस्य प्रामाण्यसम्भवात् उपहास्यत्वाभावप्रसङ्गच म्लेच्छे मानान्तरजन्यवाक्यार्थज्ञानस्य म्लेच्छवाक्यार्थज्ञाने चायेंच्छाविषयत्वस्याबाधितत्वात् म्लेच्छस्य सम्बोध्यत्वोपपत्तौ दर्शितवाक्यप्रामाण्यस्य निष्पत्यहत्वात् । तत्तत्कालीनत्वेन तत्तत्पुरुषोयत्वेन चेच्छायांतत्तहाक्य जन्यत्वेन ज्ञानस्य च सम्बोधनप्रथमार्थत्वे शक्यानन्त्यमिति चेन्न । यतः स्वघटितवाक्यप्रयोगोपधायकत्वोपलक्षितेच्छायां स्वघटितवाक्यजन्यत्वोपलक्षिते जाने च सम्बोधनप्रथमायाः शक्तिः । यथा तदादिपदोनां स्वप्रयोगोपधायकबुद्धिप्रकारत्वोपलक्षितधर्मविशिष्ट शक्तिः शक्तिग्रहस्तु सामान्योपलक्षितविशेषावगाही सर्वोपसंहारेण । तथा हि। तत्पदत्वावान्तरतत्तात्वोपलक्षितास्तत्तत्यदत्त्वव्यक्तीर्धर्मितावच्छेदकोक त्य तत्यदप्रयोगोपधायकबुद्धिप्रकारचगवान्तरतत्तात्वो पलक्षितधर्मविशिष्टबोधकलावगाहो वृत्तिग्रहः । फलतस्तत्पदत्वावच्छेटेन तत्तधर्मविशिष्टवाचकतामेवावगाहते । तथा सम्बुद्धिप्रथमाया अपि प्रथमात्वावान्तरतत्तास्वोपलक्षिततत्तत्पथमात्वावच्छेदेन सम्बोधनप्रथमाप्रयोगोपधायकत्वावान्तरतत्तात्वोपलक्षितधर्मविशिष्टच्छावाचकत्वं गृह्यते । इच्छायां तादृशोपलक्षितधर्मम्तद्यक्तित्वमेव । न च तद्यक्तित्वेनेच्छावगमे वाचकतायामि छाप्रवेशो व्यर्थ इति वा व्यम् । दू
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प्रथमाविभक्तिविचारः । च्छात्तितद्यक्तित्वलाभार्थमिच्छाप्रवेशात् । अथ वैच्छाह त्तित्वोपलचितत्वेनापि धर्मो विवक्षणीय इच्छा वाचकतायां न प्रवेश नोयेति । एवं स्वघटितवाक्यजन्यत्वेनोपलक्षितं ज्ञानमपि दर्शितरीत्या सम्बुद्धिप्रथमावाच्यमिति यथा तदादिपदानां न शक्त्यानन्त्यं तथा सम्बोधनप्रथमाया अपौति पदवाक्यरत्नाकरे गुरुचरणाः । अत्रेदं तत्वम् । ज्ञानेच्छा सम्बोधनप्रथमार्थः सा चेच्छा चैत्रस्य मैबीयगमन कर्तृत्वज्ञानं भवत्त्वित्यादिविशेषाकारा सर्वत्र सम्बोधनस्थले । एवं चैत्र मैत्रो गच्छतौल्यादौ चैत्रश्चैत्र-- प्रातिपदिकान्मत्र यगमनकट त्वं मैत्री गच्छतौति वाक्यात्प्रतीयते ऽनन्यलभ्यतया ज्ञानेच्छा सम्बोधनप्रथमार्थः । तत्रेच्छायां चैत्रादिप्रातिपदिकाष्टस्य समवेतत्वसंसर्गावच्छिन्नस्य प्रकारतानिरूपितज्ञानत्वावच्छिन्नविशेष्यत्वावच्छिन्नोद्देश्यताप्रतियोगित्वेन सम्बन्धेनान्वयः इच्छा तु खोद्देश्यत्वावच्छिनतानत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपित्रविषयितासंसगोवच्छिनप्रकारतासंबन्धेन वाक्यार्थे मैत्रीयगमनकट त्वादावन्वेति । एवं चैत्र मैत्री गच्छतोत्यादौ चैत्रस्य व्यासङ्गवशाहाक्यार्थज्ञानानुत्पादेऽपि न सम्बोध्यत्व हानिः दर्शितसंसर्गेण चैत्रच्छायामिच्छायाश्च वाक्यार्थेऽन्वयस्य निष्पत्यूहत्वात् । उद्देश्यता तु वाक्यप्रयोगप्रयोजकतत्तदिच्छोयोद्देश्यताल्वेन संमर्गमध्ये निविशते । एवमेवाशौर्लिङ्लोटोरर्थस्थेच्छाया अप्यु हे श्यताप्र. यीकतत्तदिच्छोयोद्देश्यतात्वेन संसर्गमध्ये निविशते ।भवतु वा स्वप्रयोक्तावच्छेदकत्वो पलनिधर्मविशिष्ट प्रयो करि सम्बोधन प्रथमायाः आशौलिङ्लोटोच्च शक्तिस्तव
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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देवदत्तादेः प्रयोक्तस्तत्तत्कालावच्छिन्न समवेतत्वेन संबन्धेनेच्छायामन्वयः । तेन चैवस्य कालान्तरे देवदत्तसम्बोध्यस्य मैत्रीयगमनकर्तृत्वादिस्वरूपवाक्यार्थज्ञाने सिहत्वनिश्चयदशायां पुरुषान्तरम्य तादृशचैत्रीयवाक्यार्थज्ञानेच्छायां यज्ञदत्तं सम्बोधयता देवदतन करणापाटवेन प्रयुक्ते चैव मैलो गच्छतीत्यादौ चैत्रस्य सम्बोधात्वविरहादप्रामाण्यं कालान्तरीय पुरुषान्तरीयेच्छयोस्तद्वाकाप्रयोजकत्वात्तयोरिच्छयोस्तत्तदिच्छोयो श्यता घटितसंबन्धमध्ये प्रवेशाभावात् । प्रयोगजनक यज्ञदत्त विषयकसम्बोधनेच्छायां तदिच्छौयोद्द श्यत्व घटितेन दर्शित संसर्गेण चैत्रस्यान्वयासम्भवात् । प्रयोक्तः प्रथमार्थत्वपक्षे देवदत्तसमवेततत्तत्कालिकेच्छायां दर्शित संसर्गेण चैवम्यान्वयासम्भवाच्च । एवं प्रयोक्त पुरुषेणोपलचिताया ज्ञानेच्छाया उद्देश्यतयाऽनुपलचितायास्तत्तदिच्छौयोद श्यतया वाऽवच्छिन्नं यज्ज्ञानत्वावच्छिन्न विशेष्य त्वं तन्निरूपितसमवेतत्यसंसर्गाच्छन्न प्रकारतावच्छेदकत्व संबन्धेन ज्ञानेच्छोपलक्षितधर्मविशिष्टे युष्मत्पदस्य शक्तिः त तदिच्छा देश्यताव्यक्तरुद्दश्यतात्वेनैव संबन्धमध्ये प्रवेश: । यथा स्वर्गकामो यजेतेत्यादौ दृष्टसाधनत्वं विधार्थस्तवाव्यवहितपूर्वकालः अधिकरणं श्रभावः प्रतियोगितावच्छेदकत्वं धमश्च खण्डयो विप्रर्थस्तवेष्टत्वेनोपस्थितः स्वर्गोऽव्यवहितपूर्वकाले सोऽधिकरणे तदभावे सप्रतियोगितायां साव च्छेदकत्वे तदभावे सधर्मेऽन्वेति तत्र स्वर्गाव्यवहितपूकालस्याननुगमेऽपि तत्तत्क्षणावच्छिन्नाधिकरणतयाऽ भावस्य स्वर्गादिकार्याधिकरणेऽन्वयस्तेन तत्तत्क्षणाव
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प्रथमाविभक्तिविचारः। च्छेदेन स्वर्गाधिकरणवृत्तिोऽभावस्तत्प्रतियोगितावच्छेदकत्त्वाभाववान् धर्म इति लिङर्थबोधस्तत्व यथा न शक्यानन्त्य तथावापि यदि चाव्यवहितपूर्वकालो लिङय न निविशते किं त्वधिकरणमभावः प्रतियोगितावच्छेदकत्वं धर्मश्चेति पञ्च लिङा: तत्र स्वर्गोऽधिकरणेऽधिकरणं तत्तत्स्वर्गाव्यवहितपूर्वक्षणविछिन्नाधेयतासंबन्धेनाभावे प्रतियोगितायां सावच्छेदकत्वे तदभावे सधर्मेऽन्वेति । एवं यागा वावच्छेदेन स्वर्गाधिकरगनिष्ठाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभाववधर्मवत्ताज्ञानमेव यागप्रत्ती हेतुः सधर्मस्तु यागत्वमेव दर्शितधर्मत्वेन रूपेण यागत्वावच्छेदेन गृद्यते । एवमेवान्यनापौष्टसाधनताजानस्य प्रवर्तकत्वं संसगंघटितविशेषं सामान्येनावगाहमानमिष्टसाधनताजानं सामान्येन व्यभिचारग्रहः प्रतिरोद्धं नेष्टऽतः स्वगत्वावच्छेदेन सामान्यतो व्यभिचारग्रहेऽपि न क्षतिः । न चैवं व्यभिचारग्रहेपि दण्ड विशेषत्वादिना घटकारगाताग्रहः स्यात् घटत्वावच्छेदेन सामान्यतो व्यभिचारग्रहस्य सामान्यविशेषावगाहि कारणताग्रह प्रत्यविरोधित्वादिति वाच्यम् । मामान्यतो व्यभिचारग्रहस्य सामान्यतः कारणताया ग्रहविरोधित्वे निष्पत्य - हत्यात् । प्रकृतेऽपि स्वर्गत्वावच्छेदेन सामान्यता न यागकारणताग्रहः दण्डविशेषत्वादिना सामान्यतो विशेषावगाही कारणताग्रहस्तु न सम्भवति । घटत्वावच्छिन्नं प्रति दगडत्वादिना सामान्यत: कारणत्वस्यावश्यकत्वे विशेषवंटित कारणताया एवाप्रमिद्देः । प्रकते तु स्वर्गत्वावान्तरबैजात्यावच्छिन्न प्रति यागत्वेन कारणतायाः
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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सत्वात् सामान्य ेन तदवगाही कारणताग्रहः सम्भवत्येवेति लिङो न शक्त्यानन्त्यम् । युष्मच्छब्दस्य तु ततदिन्छौयोद्देश्यतायाः संसर्गविषयाऽपि सङ्केत प्रवेशे कुतो न शक्त्यानन्त्यमिनि विभाव्यते तदा य हम च्छन्दस्य स्वप्रयोगोपधायकेच्छौयोद्देश्यत्वावच्छिन्न विशेष्यतानिरूपितसमवेतत्वसंसर्गावच्छिन्न प्रकारतावच्छेदकत्व - सम्बन्धेन स्वोपलक्षितधर्मविशिष्टे शक्तिः । युष्मच्छन्द• परस्य स्वशब्दस्योभयत्र परिचायकतया कथनमिति कालान्तरीय पुरुषान्तरीयेच्छ । घटित सम्बन्धेन विद्यमानस्यैतत्पुरुषप्रय तस्य य मच्छब्दस्य न्यत्वासत्वान्नातिप्रसङ्गः । तत्तद्युष्मच्छब्दस्य तत्तत्कालीन ज्ञानेच्छा विषयेऽर्थतः शक्तिपर्यवसानेऽपि न शक्त्यानन्त्यं युष्मच्छब्दस्य सामान्यरूपेणैव सङ्केतग्रहे प्रवेशात् । यदि च य ुष्मच्छब्दाच्चैचत्वादिना चैवादिर्न प्रतीयते तथा सति त्वं चैत्र इत्यादौ चैत्रश्चैव इत्यादाविव निराकाङ्गतयाऽनन्वयः स्वादिति तदा ज्ञानेच्छाप्रकार एव य ुष्मच्छन्दवय शक्तिस्तच ज्ञानेच्छायाः स्वप्रयोज्य वाक्य प्रयोगोपधायच्छी योद्देश्यत्वावच्छिन्नज्ञानत्वावच्छिन्न विशेष्यतानिरूपितसमवेतत्व संसर्गतानिरूपितत्व संबन्धेन वैशिष्ट्यं प्रकारत्वे विशिष्टप्रकारत्वस्य वैशिष्टं धर्मिणि खरूपसंवन्धेन बोध्यमिति ज्ञानेच्छाविशिष्टप्रकारत्वविशिष्टो युमच्छन्दार्थः । स्वप्रयोच्येत्याद्युपादानात्कालान्तरीयायाः स्वज्ञानेच्छायाः प्रकारे नातिप्रसङ्गः स्वशब्दस्य ज्ञानेच्छापरिचायकत्वान्न शक्त्यानन्त्यमिति । एवं ज्ञानेच्छायाः स्वप्रयोज्यवाक्प्रप्रयोगोपधाय के च्छीय समवायेन वैशिष्ट्य
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६२ - प्रथमाविभक्तिविचारः । वान माच्छब्दार्थ इति । एवं चैत्र त्वे पश्येत्यादौ चैत्र प्रकारकजानेच्छाप्रकारः आशंसाविषयदर्शनकर्ता ज्ञानेच्छाप्रकार इतिशाब्दबोधस्य विशेषण विशिष्टयोरुहे श्यतावच्छेद कविधेययोर्विशेषणभेदाईदेनोपपत्तिः कनक कुण्डलवान् मणिकुण्टलवानितिवत् एव म्लेच्छमुद्दिश्याचायैः प्रयुज्यमानस्य शुङ्गापसरेत्यादिवा कास्य म्लेच्छे सम्बोध्यत्वय मदर्थत्वयोन्निराबाधत या शक्तिश्चमाजन्यस्वसम्भवेऽप्यगृहीतसङ्केतकोद्देश्य कतयोपहास्यत्वं सम्भवत्य व शक्तिबमजन्यत्वस्थोपहास्यत्वाप्रयोजकत्वात् तथासत्यपभ्रंशेऽप्युप हास्यत्वापत्तेः । इच्छाविषयज्ञानस्य सम्बोधनार्थत्वे तत्समवायितावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मस्य वा युष्मत्पदप्रतिनिमित्तत्वेऽम्युपतेऽपि शक्तिबमजन्यत्वं नोपहासप्रयोजकमन्यथा भगवउत्तानस्य सिद्धतया ।
तत्रेच्छाविरहात् भगवत्सदोधाकस्य भगवत्परय ष्म' च्छब्दघटितस्य
खकर्मफलनिर्दिष्टां यां यां योनि बजाम्यहं । तस्यां तस्यां हृषौ केश त्वपि भक्तिर्दृढाऽस्तु मे ॥ इत्यादिवाक्यस्य शक्तिबमजन्यतयोपहास्यत्त्वापत्तेः । अगृहौतपद संकेतकोद्देश्यकवाक्यत्वस्योपहासप्रयोजकत्वे भगवतो गृहौतपदसंकेतकत्वात् । तदुद्देश्यकवाक्यस्य नोपहास्यत्वमिति ज्ञानेच्छायाः सम्बोधनप्रथमार्थत्वे भगवत: संबोध्यत्वं निराबाधमेव । भगवत्प्रत्यक्षस्य सिइत्वेऽपि भगवतः शाब्दत्तानं जायतामितौच्छायाः सम्भवात् । न च भगवतः शाब्दबाधे कथं तादृशौच्छा सम्भवेदिति वाच्यम् । बाधितविषयेऽपौच्छासम्भवात ।।
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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नवपल्लवसंस्तरेऽपि ते मृदु दूयेत यदङ्गमर्पितं । तदिदं विषहिष्यते कथं वद वामक चिताधिरोहणम् ॥ → इत्यादी मृतेन्दुमतौ वचनशुश्रूषादेर्दर्शनात् । स्वकर्मफलेत्याद्युक्तवाको । |
- विश्वरूपकृतविश्व कियत्ते वैभवाद्भुतमणौ हृदि कुर्वे । हेमनति कियनिजचौरे काञ्चनाद्रिमधिगत्य दरिद्रः ॥
इत्यादौ भगवतः संबोध्यत्वं निष्पत्यूहमेव । एवं "जानीहि नाथ दोनोऽमी "त्यादौ दीनाभिन्नमत्व टकभवनविषयके श्रशंसाविषयत्वत्कट कज्ञाने अथ वा भबनकट त्वान्वित दीनाभिन्नमहिषय कस्याशंसो विषयज्ञानस्य कर्तृत्वान्विते त्वंपदार्थे नाथप्रकारकज्ञानेच्छाप्रकारत्वस्य संबुद्धिप्रथमान्तार्थस्यान्वयः नाथस्य मदीयदीनभावविषयज्ञानविषयकं ज्ञानं जायतामितीच्छासम्भवात् । इच्छाविषयत्वस्य ज्ञानविषयक ज्ञानवृत्तित्वपर्यन्तधावनं मदीयदौनभावज्ञान स्यापितात्मकत्वार्थमुपेक्षा ज्ञानस्या.नुत्र्यवसायविषयत्वानियमादिति । यत्र संबोधनपदघटितवाक्यं "नारायणि नमोऽस्तु ते" इत्यादिस्वरूपं मुजः श्रयते तव ज्ञानान्तरेच्छया संबोध्यत्वनिः । एव 'मकाण्डशक्तिनिर्भिन्न इत्यादिवाक्ये ज्ञानान्तरेच्छया वक्तरपि संबोध्यत्वनिर्वाहः । एवं
शोचनीयाऽसि वसुधे या त्वं दशरथच्युता । रामहस्तमनुप्राप्य कष्टात्कष्टतरं गता । इत्यादावचेतनस्य वसुधादेर्बाधितविषयेपोच्छासम्भवेन ज्ञानेच्छा प्रकारतया संबोध्यत्व युष्मत्यदप्रतिपाद्यत्वटोर्निर्वाहेऽपि कष्टतरगततादात्म्यान्दयवाधाव सुधावा
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प्रथमाविभक्तिविचारः। . सिलोके लक्षणा तत्प्रयोजनं तु रामवरागत्वरूपवसुधाधर्मस्य लोके प्रतिपत्तिरिति । एवं सति गृहीतपदसकेतकोश्यकतया नास्य वाक्यास्योपहास्यत्वमिति दार्शनि कसिद्धान्तः । चेतनतादात्म्यारोपण वसुधायाः संबोध्यत्वं युष्मत्यतिपाद्यत्वं कष्टतरगततादात्म्यान्वयश्च सम्भवतीति । अत एव तुल्ये प्रस्तुते तुल्यस्याभिधानमित्य प्रस्तुतप्रशंसालंकार ईदृशस्थले स्फुरति पुत्रशोकसन्तप्तस्य वक्तुब्राह्मणस्य प्रस्तुतस्य तादात्म्यारोपण युमत्प्रतिपाद्यत्वसंबोध्यत्वयोर्वसुधायामुपपत्तौ युष्मदर्थे सम्बोधनान्तार्थे वसुधातादात्म्येनाध्यवसित: प्रस्तुतोऽर्थोऽन्वेति व्यञ्जनयोपस्थितइति रसविद्याविदः । युष्मदेकवचनादिव्यवस्था पूर्वोक्ताऽनुसन्धेया । श्रीस्वाहोत्यादी सम्बोधनैकवचनस्य सः श्रूयमाणत्वात् स्त्वेनैव वाचकत्वं हरे विष्णो रामेत्यादौ लोपः स स्मारक इति । तदिदं सम्बोध्यत्वं क्रियायां विशेषणम् “एकतिङ्वाक्यमिति कात्यायनवाक्यात् । तत्र भाष्यकारेण ब्रूहि देवदत्तेति वाक्यमुक्तम् । तस्यायमभिसन्धिः । "आमन्त्रितस्य चेति सूत्रेणामन्त्रणार्थकप्रत्ययान्तपदानां पदात्पराणामेव निधाता नाम सर्वानुदात्तः स्वरो विधीयते स च देवदत्तपदे तदा स्यात् यदि देवदत्तपदब्रूहिपदयोव्यं पेक्षा स्यात् । पदयोन्य॑पेक्षारूपसामर्थ्य विरहे समर्थ: पदविधिरिति व्यवस्थापनात् पदसम्बन्धिनो निघातविधेरप्रत्तेः देवदत्तपदे निघातो न स्यात् । तथा च वार्तिक । “समानवाये निघातयन्मदमदादेशा” इति समानवाक्यं समर्थवाकामेव ब्रूहि पददेवदत्त पदयोव्यपेक्षा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
तदैव भवति यदि देवदत्तसम्बोध्यत्वं वचनक्रियायामन्वेति । न च ब्रूहीत्यव तिर्थकर्तरि सम्बोधनप्रथमातार्थस्य देवदत्तस्य तादात्म्येन सम्बोधनार्थस्य वा समवायेनान्वयोऽस्तु तावताऽप्येकवाक्यत्वरूप सामर्थ्य सुपपद्यत इति वाच्यम् । मध्यमपुरुषार्थे कर्तरि युष्मदर्थातिरितस्य तादात्म्येनान्वयायोगात् । व्रजानि देवदत्तेत्यव तिर्थकर्तरि सम्बोधनप्रथमान्तार्थस्य तादात्म्येन संबोधनार्थस्य च समवायेनाऽयोग्य तयान्वयासम्भवाच । तथाचीतं हरिणा ।
सम्बोधनपदं यच्च तत् क्रियाया विशेषणं । व्रजानि देवदर्त्तति निघातील तथा सति ॥ तस्मात्प्रातिपदिकविशेषितं सम्बोध्यत्वं क्रियायां विशेषणं तिङन्तविनाकृतं वाक्यमेव नास्तीति कात्यायनानुसारिणी वैयाकरणाः । फणिभाष्यकृतस्तु एकतिङवायमिति नानुमन्यन्ते । पश्य मृगो धावति, जानीहि जगज्जगन्नाथाज्जायते, अस्ति साधवः सोदन्ति, भवति दुजना मोदन्ते, इत्याद्यनेक तिङन्तमध्येकं वाक्यं मन्यन्ते तत्र मृगकर्तृकधावनस्य धावनकर्तृ मृगस्य वा कर्मतया दर्शने, जगत्कर्ट कनाथहेतुकजननस्य नाथहेतुकजननक - जगतो वा कर्मता ज्ञाने, साधुकर्ट कसोदनस्य सौदनक' साधोर्वा कर्तृ तथा सत्तायां, दुर्जनकट कमोदस्य मोदकर्तृ दुर्जनस्य वा कर्तृ तथा संसर्गेण भवने, यथादर्शनमन्त्रयोपगमादेवाक्यतानिर्वाहः । तथोक्तं च ।
मुबन्तं हि यथाऽनेकं सुबन्तस्य विशेषणं । तथा तिङन्तमध्या हस्तिङन्तस्त्र विशेषणम् ॥
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प्रथमाविभक्तिविचारः। __ अत एव “तितिङ" इति सूत्रमतिङन्तात्परं तिङन्तं निहन्यत इत्यर्थकम् अग्नि दूतं वृणीमहे इत्यादौ तिउन्ते वृणीमहे शब्दे निघातखरं विदधाति तत्र सूत्र पचति भवतीत्यादी भवतीत्यादितिङन्ते निघातवारणायातिङ इति पदं सार्थकम् । अन्यथा तिङन्तयोरेकवाक्यताविरहे सामर्थ्याश्रितनिघातविधेस्तिङन्तपरे तिङन्ते प्रसक्तिन भवतीति व्यर्थमेवातिपदं स्यात् । न चैकतिवाक्यमित्यनेन नाने कतिङन्तवाक्यस्य निषेधः किं तु वाक्यं सतिङन्तमेवेति नियम इति वाच्यम् ।
कष्टा वेधव्यथा कष्टं नित्यमुहहनलमः । श्रवण नामलङ्कारः कपोलस्य तु भूषणम् ॥ इत्यादेस्तिङन्तशुन्य वाक्यस्य दर्शनात् । न चास्तिभवनिपरः प्रथम पुरुषो प्रयुज्यमानोऽप्यस्तौति कात्यायनवचनात् तिङन्तशून्यवाक्येऽस्तीत्यध्याहार इति वाच्यम् । अध्याहारे मानाभावात् । तिङन्तविना कृतं वाक्य न्नानुभावकमिति व्युत्पत्तिरपि न सम्भवति । तथा हि । प्रथमान्ततिङन्तवटितवाक्यस्थले प्रथमान्तार्थस्य तिङन्तेइन्वयोऽथुपियते भूतले न घट इत्यादावस्तीत्यध्याहारे तिङर्थे नञर्थविशेषणघटस्यान्वयासम्भवात् न च भूतलवृत्तित्वाभावो घटान्वेतीति वाच्यम् । कारकस्य कारकान्वितनञर्थस्य वा क्रियातिरिक्तोऽन्वयस्याव्युत्पन्नत्वात् न च भूतलाधेयत्वाभावोऽस्ती यत्र धात्वर्थ एवान्वेति धात्वर्थविशेषणे तिर्थकर्तरि घटस्य तादाम्य नान्वयइति वाच्यम् । घटपदस्यातीतघटपरतायां घटस्य तिङर्थकर्तरि योग्यताविरहात् तादात्म्येनान्वयासम्भवा
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विभक्त्यर्थनिर्णये। त् । न च भूतलाधयत्वमध्याहृतास्तिधात्वर्थं सत्तायामन्वेति तविशेषणे तिर्थकर्तरि घटविशषितो नअर्थभेदोऽन्वेतीति वाच्यम् । तथा सति घटवपि भूतले घटान्योऽस्तौतिवत् घटो नास्तीतिप्रयोगापत्तेः । न च भूतलाधेयत्वान्वितेनाध्याहृतास्तिधात्वर्यन सत्तया विशेषितस्य तिर्थकतु नत्रभेदे ऽन्वयस्तथान्वितो भेदो घटे ऽन्वेतौति वा व्यम् । तथा सति क्रियायाः प्राधान्यनियमभङ्गापत्तेः । एवं सति शाब्दस्य क्रियामुख्यविशेष्यकत्वनियमरक्षार्थमस्तोत्यध्याहारो व्यथं एव तादृशनियमभङ्गस्य स्वयमेव वहस्तितत्वादिति । अत एव भूतले न घट इत्यादी प्रतियोगितासंवन्धेन प्रातिपदिकार्थविशेषितस्य स्वार्थात्यन्ताभावस्यान्वयबोधने नजनुयोगिवाचकपदे सप्तम्यपक्ष्यते नापेच्यते विभक्त्यर्थविशेषितस्येति सर्वतान्त्रिकमिद्धा व्यवस्थितिरिति । एवं सुबन्तसमुदायस्तिङन्तसमुदायः सुबन्ततिङन्तोभयसमदायश्च विविधं वाक्यं तव प्रधानार्थे सम्बोध्यत्वान्वय दू. ति महाभाष्यानुसारिणः । एवं चैत्रः पचतीत्यादौ धात्वर्थः प्रधानभिति शाब्दिकाः । तिर्थो भावना प्रधानमिति भाट्टाः । प्रथमान्तार्थः प्रधानमिति तार्किकाः। तदनुसारिणोऽन्येऽपि दार्शनिकाः । तेषां तेषां तत्र तत्र प्रधानार्थे सम्बोध्यत्वान्वय इति । अत एव देवदत्त यनदत्तः समागत इत्यादौ समागताभिन्नयत्जदत्ते देवदत्तसम्बोध्यत्वान्वयः । एवं सम्बोधनान्तपदं तिङन्तमानमाकासमिति भ्रमः । एवं प्रथमार्थ: सम्बोध्यत्वं लिङ्गंसया च नञर्थेऽभावे नान्वेति । तेन यज्ञदत्तः समागतो
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प्रथमाविभक्तिविचारः। देवदत्तेनेत्यादौ समागतयज्ञदत्ते देवदत्तसम्बोध्यत्वाभावस्य न प्रतीतिः न वा घटो नेत्यादौ लिङ्गसङ्ख्याभावप्रतीतिरिति ।
इति विभक्त्यर्थनिर्णये सम्बोधनप्रथमार्थनिर्णयः ।
इति प्रथमाविवरणं समाप्तम् ।
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
अथ द्वितीया ।
अम् और शसिति वयः प्रत्ययाः । तत्र सुमनसमर्चयति सुमनसौ सुमनसो वेत्यादौ श्रूयमाणत्वाद समस्तत्वेन औकारस्य औत्वेन सः अस्त्वेन वाचकत्वं टशावनुबन्धो कचिदप्यश्रूयमाणत्वान्न वाचकता कुचिप्रविष्टाविति । अनुशासन सिद्धस्तु द्वितीयाया अर्थ: अनुशासनं च "कर्मणि द्वितीये " ति तंत्र कर्म कर्मत्वं वा द्वितीयार्थ इत्यादिकमग्रे स्फुटीभविष्यति कर्मपद सङ्केतग्राहकं पूर्वोक्तमनुशासनम् । " कर्तु रोप्सिततमं कर्मे "ति तचानोतेः सन्नन्ततया निष्पन्नोऽपोप्साशब्दो रूढ्या इच्छ माचमभिधत्ते । न त्वाप्तीच्छामिति सन्नन्तस्याप्नोतेरिच्छेवार्थः । एवं वीप्सा शब्दो रूढ्या व्याप्तिमभिधत्ते न तु व्याशौच्छामिति सन्नन्तस्य व्याप्नोतेर्व्याप्तिरेवार्थः । एवं सन्नताप्नोतेः कर्मप्रत्ययेन तेन विषयो विषयताऽऽश्रयो वाऽभिधीयते। एवं "क्तस्य च वर्तमाने" इति विशेषानुशासनेन fastयोगे सिद्धा षष्ठी कर्तृत्वमाधेयत्वखरूपमभिते । तमप्प्रत्ययस्तु प्रकृत्यर्थतावच्छेदकान्वितमतिशयं प्रकर्षमभिधत्ते । कर्मपदवाच्यं कर्मशब्दार्थः । धात्वर्थस्य तिङर्थस्य वा व्यापारस्याश्रयः कर्ट शब्दार्थः । एवं व्यापाराश्रयनिष्ठेच्छाप्रकृष्टविषयः कर्मपदवाच्य इति स्वार्थः । इच्छा तु व्यापारजनिका बोध्या ग्रामसंयोगो भवत्वितीच्छायां ग्रामसंयोगसाधनं स्पन्द इति ज्ञानात्महत्यागमनोत्पत्यागमनप्रयोजकेच्छाविषयत्वं ग्रामे कर्मत्वं व्यापारप्रयोजकत्वस्येच्छायां लाभार्थं कर्तुरिति पदं तेन
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द्वितीयाविभक्तिविचारः माषेष्ववं बध्नातीत्यादावश्वभोजनेच्छाविषयत्वेऽपि माषस्य न कर्मत्वं तुरगभोजनेच्छाया बन्धनाप्रयोजकत्वात् । तमपग्रहणं प्राधान्येन विषयललाभार्थम् । तच्च क्रियाजन्यफले सानाविशेषणत्वं तेन भोजनव्यापारस्य पयस्महितौदनकण्ठसंयोगो भववितीच्छाप्रयोज्यत्वेऽपि पयसो न कर्मत्वं पयसः कण्ठसंयोग फले साक्षाहिशेषणतया दूच्छाविषयत्वाभावात् । तेन पयसा सहोदनं भुङ्क्ते इत्यादौ पयःपदान्न हितौया । सर्वमेतहालोपलालनं न तु हितोयार्थोपवर्णनम् । द्वितीयातो दर्शितेच्छाविषयत्वस्य केनाप्यप्रतीयमानत्वात् । एवं"कारके इत्यधिकारः । कारकशब्दार्थः पूर्वमुक्तः । सप्तमौ निर्धारणार्था । तेन ईप्सितादिभिन्न कारकं न कर्मेप्सितादिकारकं कर्मेत्यन्वयबोधस्तेन कर्मशब्दसङ्केतोऽत्र कारके प्रदर्शितो न तु सर्वत्र । तेन कर्मपदार्थस्योत्क्षेपणादेरप्रदर्शनेन न न्यूनत्वमिति । एवं कारके इति सप्तमी प्रथमास्थाने इति नमः । एवं कर्मणि हितीयेत्यादौ अनभिहिते इत्यधिकारसूत्रेणाभिहिते कर्मणि द्वितीया निषिध्यते । अभिधानं तिङ्घत्तद्धितसमासैरन्येनापि अतः पच्यते पक्को वा तण्डुल दूत्यादी तिङा कृता कर्माभिधानात् तण्डुलपदान्न हितीया । नैयायिक: पण्डितः शत्योऽश्व इत्यादौ तहितेन कर्माभिधानात् न्यायपदादशवपदाहा न द्वितीया प्रासानन्दः पुरुष इत्यादौ समासेन कर्माभिधानात्पुरुषपदान्न द्वितीया समासस्याभिधायकत्वं शाब्दिकमते न्यायमते त्वानन्दकट,कप्राप्तिकर्मण्यानन्दपदस्य लक्षणा प्राप्तशब्दस्य तात्पर्यग्राहकत्वमिति आनन्दपदेनैव कर्मप्र
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विभक्त्यर्थनिर्णये। तिपादनात्पुरुषपदान्न द्वितीया एवं विषरक्षोऽपि सम्बर्ध्य स्वयं छेत्तु मसांप्रतमित्यादौ निपातेन कर्माभिधानानुक्षपदान्न द्वितीया । उतार्थानामप्रयोग इति न्यायमेवानुवदतौदं सूत्रम् । अत एव धात्वर्थान्तर्भूतकर्मकधातुयोगे न द्वितीया । यथा उदयगिरिसंयोगानुकूलव्यापारवाचिन उदयतेोगे उदयगिरिमुदेतीति न द्वितीयाप्रयोगः । एवमनभिहिते इति कर्तादौ सर्वत्र सम्बध्यते तेनाभिहिते कर्तरि करणे च न टतोया। संप्रदाने न चतुर्थी तथा ऽपादाने न पञ्चमी तथाऽधिकरणे न सप्तमी काद्यमिधानं तु कारकलक्षणे दर्शितमिति । नन्वभिहिते कर्मणि द्वितीयानिषेधे पक्कमोदनं भुङ्क्ते इत्यादो कता कर्माभिधानादोदनपदाद् द्वितीया न स्यात् । न च भोजनकर्मणोऽनभिधानाद् द्वितीयोपपत्तिरिति वाच्यम् । एवमपि चैत्रेण गम्यमानं ग्रामं मैत्री गच्छतोत्यादी गमिकर्मणः कृताभिधानात् द्वितीयाऽनुपपत्तः । न च चैत्र कर्ट कगमनकर्मणोऽभिधानेऽपि मैत्रकर्ट कगमनक मेणोऽनभिधानात् न हितीयाऽनुपपत्तिरिति वाच्यम् । एवमपि दृष्टमपि कान्तं मुहुः पश्यतीत्यादी कर्तभदेनापि क्रिय भेदविरहात दुशिक्रियाकर्मणः कृताभिधानात् द्वितीया नुपपत्त: । एवं दृश्यं पश्यति कृत्यं करोति इत्यादी यत्प्रत्ययेन कर्मणाऽभिधानात् द्वितीयापपत्तश्चेति चेन्न । यतोऽनभिहिते" इति सूत्वस्यान्य एव तात्पर्यार्थः । तथा हि । अनभिहिते इति सति सप्तमी तेन कर्मण्य न भिहिते सति द्वितीया भवतीत्यर्थः अत एवाभिधानाभावः कमनिष्ठो द्वितीयावाच्यतायां न निवि
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द्वितीयाविभक्तिविचारः। शते । एवं द्वितीयार्थविशेषण कान्वययोग्यार्थकपदे कर्मबोधकशब्दासमभिव्याहृते सति द्वितीया भवतीत्यर्थः । हुश्यं पश्यति कृत्यं करोतीत्यादौ पश्यति करोतीतिपदयोः कर्मबोधकपदासमभिव्याहृतत्वात्तदर्थयोहितीयार्थान्वययोग्यत्वाच्च दृश्यकत्यशब्दाभ्यां न द्वितीयाऽनुपपत्तिरिति विशेषः कोरकलक्षणोक्तरीत्यावसेय इति सकर्मकधात्वर्थो हितोयान्वययोग्यः सकर्मकत्वं तु न्यायमतेऽधिकरणविशेषितफलाघच्छिन्नव्यापारस्य तादृशफल व्यापारोभयस्य वा वाचकत्वमित्यादिकं सिद्धान्ते स्फुटीभविष्यति । शाब्दिकमते तच्च फलाधिकरणावाचकत्वे सति स्वार्थफव्यधिकरणव्यापारवाचित्वम् । तेन शब्दोत्पत्तरनुकूलव्यापारे शक्तेन शब्दायतिना शब्दस्य, स्फिग्भूसंयोगानुकूलव्यापार्थकेनोपविशतिना स्फिग्भूदयस्य, अधः संयोगोनुकूलव्यापारवाचिना पततिनाऽधः पदार्थस्य, सर्वावयवाधस्संयोगानुकूलव्यापारवाचिना शयतिनाऽधस्सर्वावयवदयस्य,उदयगिरिसंयोगानुकूलव्यापारार्थकेनोदेतिना उदयगिरेः, मिद्धामनोविभागानुकूल व्यापाराधकेन जागर्तिना मिधामनोदयस्य,मिहामनः संयोगानुकूलव्यापारार्थकेन निद्रातिना मिद्धामनोदयस्यावयवायचयानुकूलव्यापारार्थकेन क्षीयतिनाऽवयवस्यावयवोपचयानुकूलव्यापारार्थकेन वर्धतिनाऽवयवस्थ,प्राणशरीरमंयोगानुकूलव्यापारार्थकेन जोवतिना प्राणशरीरहयस्य, प्रागाशरीरात्यन्तविरोगफल कव्यापारार्थन मियतिना प्राणशरीरदयस्य, च, फलाधिकरणस्याभिधानात् शब्दायत्युपविशतिपततिशयत्युदेतिजागर्तिनिद्रातिक्षीयति
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विभक्त्यर्थनिर्णये। वर्धतिजीवतिमियतीनां न सकर्मक त्वमिति तेषां वारणाय सत्यन्तम् । अनुचितकर्माऽनुत्पादफल कव्यापारीलज्जेरर्थः अनुचितकर्म यहेतुकं ततः पञ्चमी स्वतो लज्जते परतो लज्जत इति दर्शनात् । अनुत्पादरूपफलाधिकरणस्यानुचितकर्मणोऽभिधानादेव लज्जतिरकर्मकः । एवं स्वगतानिष्टचिन्तनं बिभतेरथः । चिन्तनविषयतारूपस्य फलाधिकरणस्य चिन्तनसमानाधिकरणस्य फलस्य वाऽनिष्ट स्थाभिधानादिभेतिरकर्मकः । श्रात्मधारणानुकूलव्यापारार्थकस्य भवतेरात्मधारणस्वरूपफलसमानाधिकरणब्यापारवाचकत्वम् एवं सुखस्य फलस्य समानाधिकरणं व्यापारमभिदधतो रमतेः गतिरूपफलसमानाधिकरणनित्तिमभिदधतस्तिष्ठतेश्च फलसमानाधिकरणब्यापारवाचकत्वमिति भवतिरमतितिछत्यादीनां वारणाय फलव्यधिकरणत्वं व्यापारे विशेषणम् । तच्च फलाधिकरणनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वं तेन गम्यादेः फलाधिकरणबत्तिव्यापारवाचित्वेऽपि न सकर्मकत्वहानिः गम्यादेर्धात्वन्तरार्थफलाव्यधिकरणव्यापारार्थकत्वेऽपि सकर्मकत्वार्थ फले स्वार्थत्वं विशेषणम् । तेन स्पन्दमभिदधतः स्पन्दतेः यत्नमभिदधतो यते मचिमभिदधतो रोचतेः दुःखमभिदधतोबाधते: नाशमभिदधतो नश्यतेः दौप्तिमभिदधतो दीप्यतेश्च व्यापारमानार्थकतया स्पन्दतियतिरोचतिबाधतिनयतिदीप्यतीनां स्वार्थफलाभावान्न सकर्मकत्वमिति । अकर्मकपर्यायोऽकर्मक एव यथा शब्दायतिपर्यायः घटपटायतिप्रभृतिः लज्जतिपर्यायस्वपति: रमिपर्यायो दो
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
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यत्यादिः विभेतिपर्याय स्वस्यतिः बाधतिपर्यायी व्यतिः रोतिपर्यायस्वदतिः । एवमन्येऽपि बोध्याः । फलत्वं तु न वार्यव्यापारजन्यत्वे सति धात्वर्थत्वं जन्यताप्रवेशेन गौरात् किं तु धात्वर्थव्यापार विशेषणतया भासमानत्वे सति धात्वर्थत्वम् । एवं विषयता ज्ञानं च जानाते: उद्देश्यत्वमिच्छा चेच्छतेः । साध्यत्वाख्यविषयत्वं यत्नश्च उत्यत्तिस्तदनुकूलव्यापारश्च वा करोतेः बाध्यत्वाख्यविषथत्वं द्वेषश्च द्विषेः लौकिकविषयता प्रत्यक्षं च साचात्करोतेः सा घ्राणजं च जिघ्रतेः सो रासनं च रसयतेः । सा चाक्षुषं च पश्यतेः सा स्पार्शनं च स्पृशतेः सा श्रावणं च विषयता शब्द च शृणोतेः विधेयताऽनुमितिश्च तृतीयान्तविधेयबोधकशब्दयोगे उद्देश्यताऽनुमितिश्चानुमातेः विधेयता तर्कश्च तृतीयान्ततादृशशब्दयोगे उद्देश्यता तर्कचापाद्यतेश्चार्थः । विषयतादीनां ज्ञानादौ विशेषणतयाऽन्वयित्वान्निरुक्तफलत्वं निराबाधमिति "जानात्यादीनां निरुक्त सकर्मकत्वं निष्प्रत्यूहमिति । सुखवन्तमात्मानमिच्छति सुरभि चन्दनं जिघ्रति ध्वनन्तं शङ्ख शृणोतीत्यादौ सविशेषणे हौति न्यायेन सुखसौरभनिsarनानां द्वितीयार्थे ऽन्वयस्तस्य च धात्वर्थफलेऽन्वयः । एवमेवेदृशस्थले कर्मलकारोपपत्तिरत एव " दधानो निध्वानमश्रूयत प्राञ्चजन्य" इति माघः । पुष्पं जिघ्रतीत्यादौ प्राणजानुगुणप्राणसन्निकर्षस्तदनुकूलव्यापारश्च शक्या भक्त्या वा जितेरर्थ इत्युपपत्तिः । एवं धात्वर्थफलशालित्वं कर्मत्वमिति । अत्र शाब्दिकाः । आश्रयः कमहितीयार्थः । तथाहि । धातूनां फले व्यापारे च श
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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क्तिः । एकपदोपात्तयोरपि परस्परमन्वयो भवति यथा तिर्थानां साधनताघटकानामधिकरणाभावादीनां यथा वा तिर्थक सङ्ख्ययोस्तत्र फलं विह्नित्तिसंयोगादि तायेण पविगम्यादिनाऽभिधीयते वह्निः पचतौलीर्ध्व ज्वलनत्वेन चैवः पचतोत्यवः धिश्रथ गावतारात्कारास्तादूयेण व्यापाराः पाचकः पचतीव प्रयत्नत्वेन व्यापाराः पचिनाऽभिधीयन्ते रथो गच्छतीत्यत्र स्पन्दत्वेन तुरगो गच्छतीत्यत्र प्रयत्नत्वेन व्यापारा गमिनाऽभिधीयन्ते । तत्र सकलव्यापार नुगतस्य धर्मस्यासत्वात् सत्वे वा तेन धर्मेण व्यापाराणामप्रतीतेन्ननुगतं प्रवृत्तिनिमित्तमिति बुद्धिविशेषविषयत्वोपलक्षितधर्मविशिष्टे सर्वनाम्नाभिवाथ वा फलजनकतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मविशिअष्ट धातूनां शक्तिः अत एव विक्लित्तिजनकतावच्छेदकतया यो धर्मी गृहीतस्तद्दर्मविशिष्टमेव पचिनोपस्थाप्यते धात्वर्थव्यापार एव भावनोत्पादना क्रिया चेति व्यपदिश्यते तत्र प्रधानतया भासमाने व्यापारेऽधिश्रयणादौ फलस्य विक्लित्यादेरनुकूलत्वादिना संसर्गेण तिर्थस्य वर्तमानकालस्य कर्तुश्च तत्तत्स मर्गावच्छिन्नाधेयतयाऽन्वयः कर्तरि तिङपात्ता सङ्ख्या समवायादिना प्रथमातार्थश्व तादाम्येनान्वेति प्रथमान्तार्थे सुबर्थ सङ्ख्याऽन्वेति फले द्वितीयार्थस्याश्रयस्याधेयतयाऽऽश्रये प्रातिपदिकार्थस्य तादात्म्येन प्रातिपदिकार्थे सुबर्थ सङ्ख्यायाः समवायादिनाऽन्वयः । एवं चैत्रस्तण्डुलं पचतीत्यादौ एकत गड़लाभिन्नाश्रयष्टत्तिविक्लित्यनुकूलाधिश्रयणादिक्रियावर्तमानकालवृत्तिरे कचैत्राभिन्नैका श्रयवृत्तिश्चेत्यन्वय बोध
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द्वितीयाविभक्तिविद्यारः । स्तन फलस्य विक्लित्ते आंतुना तण्डुलस्य प्रातिपदिकेन च लाभादनन्यलभ्यस्तण्डुलाभेदान्वययोग्य आश्रयो हितौयाऽर्थः । एवं कर्माख्यातस्यापि आश्रयोऽर्थः इयस्तु विशेषः । कर्माख्याते चैत्रेण तण्डुलः पच्यते इत्यादौ तण्डुलाभिन्नाश्रये तिर्थसंख्याया अन्वयः तृतीयाऽर्थः आश्रये चैत्राभेदस्यान्वयो न तु संख्यायाः चैत्रः तण्डुलं पचतीत्यादौ काख्याते ति
र्थाश्रये तिर्थसंख्याऽन्वयः द्वितीयाऽर्थाश्रये न संख्या - वय इति संख्याऽतिरिक्त विषय उभयविधवाक्यात्समानाकार एव शाब्दबोधः युज्यते च क्रियायाः प्राधान्य "भावप्राधानमांख्यातमि"ति निरुतात् । तिङन्तघटितवाक्ये भावस्य क्रियायाः प्राधान्यमिति तदर्थात् । "धात्वर्थः केवलः शुद्धो भाव इत्यभिधीयते इति परिभाषया क्रियाया भावपदार्थत्वात् । केवलः कारकाद्यनवच्छिन्नः शुद्धो धात्वर्थतावच्छेदकानवछिन्न इति । अत एव पचन्तिकल्पं पुरुषा इत्यादौ प्रधानीभूतक्रियायां कल्पबर्थस्य विशेषणत्वाद् विशेष्यौभूतक्रियायां लिङ्गसंख्याऽन्वयायोग्यत्वात् कल्पशब्दस्य सामान्ये नपुंसकमिति तौबत्वं ततस्माधुत्वार्थमेकवचनम् । यदि च कल्पबर्थस्य कर्तरि प्रथमान्तार्थेऽन्वयोऽभ्युपेयते तदा विशेष्यस्य लिङ्गसंख्यान्वययोग्यतया कल्पशब्दस्य पुंसलं ततो बहुवचनं च स्यात् श्राचार्यकल्या: हिजा इति वत् पचन्तिकल्पा इत्यपि स्यात् । एवं च तिङतिङ" इति सूत्रे ति
ग्रहणां संगच्छते । तथा हि । अतिङ्कुन्तात्परस्य तिङन्तस्य निघातखरो भवति तत्रातिङ इति पदस्य प्रयोजनं
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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महाभाष्येण पश्य धावति मृग इत्यव प्रदर्शितं तेन तिङन्तपरे धात्रतिपदे निघातखरो निषिध्यते । तत्र पदविधेर्निघातस्य सामर्थ्याश्रिततया तिङन्तयोर्व्यपेक्षायामेवेदं प्रयोजनं भवति तिङन्तयोर्व्यपेक्षा तु तदैव सम्भवति यदि क्रियायाः प्राधान्यं स्यात् । तेन मृगकर्तृकधावनक्रियायाः कर्मतासंसर्गेण दृशिक्रियायामन्वयः सम्भवति क्रियाया धात्वर्थत्वात् धातोरधातुरितिपर्युदासात्प्रातिपदिकसंज्ञा विरहान्त्र द्वितीयाप्रसङ्गः । धावनकर्तृम्मृगस्य प्रधानस्य दृशिक्रियायां कर्मतयाऽन्वये मृगदाद द्वितीया स्यात् । द्वितीयायां लटोऽप्रथमासामानाधिकरण्ये शत्रुशानजापत्या दर्शितवाक्यप्रयोग एव न स्यादिति । एवमाश्रयस्य द्वितीयार्थत्वे तत्तत्ससर्गावच्छिन्नाधेयत्वेन सम्बन्धेन तस्य फलेऽन्वय इति व्युत्पत्तिवैचिच्च संसर्गविशेषलाभसम्भवात् न संसर्गविशेषावच्छिनवमाश्रये विशेषणमिति संसर्गभेदेन भिन्नं न शक्त्यानत्यमिति अधिकरणताया आधेयताया वा द्वितीयाऽर्थतापक्षो न युज्यते ऽधिकरणतात्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वे गौरवात् कालं पचतीति प्रयोगप्रसङ्गाच्च । कालत्यधिकरणतानिरूपकत्वस्य विक्तित्तावबाधित्वात् । तत्तत्संगविच्छिन्नाधिकरणत्वादेस्तत्तद्दातु साकाङ्क्षद्दितीयाशक्यत्वे शक्त्यानन्त्यमिति । श्रधिकरणस्य द्वितीयार्थत्वे तु अधिकरणत्वं जातिवत्स्वरूपेणैव द्वितीयाप्रवृत्तिनिमित्तं तञ्चाखण्डोपाधिर्गगनाभावस्वरूपोऽतिरिक्तो वेत्यन्यदेतत् । अधिकरणस्य संसर्गविशेष लाभो व्युत्पत्तिवैचिच्य णेत्युक्तमिति न शक्त्यानन्त्यमिति तण्डुलं पचतीत्यादौ तण्डुलात्म
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द्वितीयाविभक्तिविचारः । धिकरणस्यावयवशिथिलसंयोगस्वरूपायां विलित्तौ वायघटितसामानाधिकरण्येन तदवच्छिन्नाधेयत्वेन सम्बन्धेनान्वयः ग्रामं गच्छतो त्यत्र ग्रामात्मकाधिगास्य धात्वर्थफले संयोगे समवायावच्छिन्नाधेयत्वेन न्धेनान्वयः घटं जानातीत्यादौ घटाद्यात्मकाधिकस्य धात्वर्थफले विषयत्वे स्वरूपसम्बन्धावच्छिजाधेय। सम्बन्धेनान्वयः । बर्हि होती त्यत्र वन्हिसंयं गादुको व्यापारो जुहोतेरर्थः । वन्हेर्धातु नोक्तत्वात् वह्निन्न द्वितीया बर्हिस्वरूपाधिकरणस्य धार्थफले दयोगे समवायावच्छिन्नाधेयत्वसम्बन्धेनान्वयः । पःट्रव्यप्रतियोगिकण्ठसंयोगानुकूलोव्यापारो भुजेरर्थः । हनं भुङ्क्ते इत्यादौ धात्वयंफले पार्थिवद्रव्यप्रतियोगिण्ठ संयोगे ओदनस्वरूपाधिकरणस्य समवायावच्छिवेयत्वसम्बन्धनान्त्रयः । न च पार्थिवट्रव्यस्य फलाधिस्य धातुनोतत्वादोदनपदात्कथं हितोयेति वाच्यम् । सुना फलस्य संयोगस्य प्रतियोगित्वे विशेषणतयाऽधि. णस्याभिधानेऽपि फलेऽधिकरणस्यौधेयतया विशेणत्वेनभिधानादोदनपदाद् द्वितीयोपपत्तेः । उपविशतिना फले स्फिग्भुवोरधिकरणयोराधेयतया विशेषणत्वेना पानात् स्फिग्भूपदाभ्यां न हितोया सम्भवति । एवं ट्रकप्रतियोगिकसंयोगस्तदनुकूलव्यापारप्रच सिञ्चतेरर्थः । धिकरणस्य जलादेराधेयत्वान्वयविवक्षायां जलमषेञ्चतीत्यत्र जलपदाद् हितोयोपपत्तिः । जलादिव्याजन्यत्वस्य फले विवक्षायां जलेनाभिषिञ्चति रोतिरुमित्यादौ जलपदात् तृतीयोपपत्तिः । एनमन्यत्वा
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विभक्त्यर्थनिर्णये । पि धात्वर्थफले संसर्गविशेषावच्छिन्नाधेयत्वेन सम्बन्धेनाश्रयत्वस्यान्वयः सुधीभिरू हनीयः । एवं कर्तकर्मणोराश्रयत्वेनाविशेषेऽपि धात्वर्थस्य व्यापारास्याश्रयः कर्ता फलस्याश्रयः कर्मेति विशेषः सम्भवति । नन्वेवं गम्यर्थस्य स्पन्दस्याश्रयत्वेन कर्तृत्वमिव तोदृशस्य संयोग स्याश्रयत्वेन कर्मत्वमपि चैत्रस्य स्यात् तथा च चैनो गमिकर्मेतिव्यवहारप्रचैत्रश्चैवं गच्छतौति हितौयापत्तिाचेनि चेत् न परया कर्ट संजया कर्मसंज्ञाया बाधात्कर्मव्यवहाराप्रसतोः । कर्मसंज्ञाया एव हितीयाप्रयोजकत्वाकर्मसंज्ञाविरहे द्वितीयाया अप्रसक्तेश्च न च क संतया कथं कर्मसंज्ञाबाध इति वा व्यम् । या पराऽनवकाशा चेति परिभाषणात् अत एव अपादानसं प्रदान करणाधारण कर्मणां कर्तुं चोभयसंप्राप्तौ परमेव प्रवर्तते इति
पठन्ति । एवं कर्मगतस्य फलस्य विवक्षायां प्रधानीभूहतधात्वर्थाश्रयत्वेन कर्मणः कतत्वमेव यथा पच्यते त
ण्डुलः स्वयमेव एवमपादानत्वस्य विभागादे/तुना प्राधान्येन बोधनेऽपादानस्य कत त्वमेव यथा गिरिरपसरतोत्यादौ । एवं संप्रदान करणाधिकरणानामपि कर्तत्वमाकलनीयमित्याहुः । तार्किकास्तु आयो न द्वितीयाबाच्यः । आश्रयतात्वविशिष्टस्याश्रयस्य शक्यतावच्छेदकत्वे गौरवात् तेन रूपेण वाच्यत्वासम्भवात् । न चाश्रयत्वमखण्डङ्गगनाभावाद्यात्मकं तस्य निरवच्छिन्नशक्यतावच्छेदकं सम्भवतीति वाच्यम् । जातीतरस्य निरवच्छिन्नावच्छेदकत्वासंभवात् । अन्यथा एथिववादिचतुष्टयान्यतमत्वस्वरूपस्याखण्डोपाधेट्रव्यारम्भकताया
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
मवच्छेदकत्वसम्भवे गुरुणः स्पर्शवत्वस्यानवच्छेदकत्वं स्यात् । यद्यन्यतमत्वस्य पृथ्यादिभिन्नप्रतियोगिघटितस्य भेदस्य नाखण्डत्वं तदा गगनादिप्रतियोगिघटितस्य गगनाभावादेरपि नाखण्डत्वं तुल्यत्वात् । निरवच्छिन्नविषयतया गगनाभावादेरप्रतीतेः । गगनाभाव इति प्रतीतो गगनप्रतियोगिकस्त्र द्रव्यादिषट्कान्योन्याभावविशिष्टस्य विषयत्वात् । न चातिरिक्तमेवाश्रयत्व' द्वितीयाप्रवृत्तिनिमित्तमिति वाच्यम् । शब्दप्रवृत्तिनिमित्तानुरोधेनातिरिक्तवस्तु कल्पनाया अन्याय्यत्वात् । अन्यथा समासप्रवृत्तिवादिनां खपुष्पादिशब्दप्रवृत्तिनिमित्ततयाऽतिरिक्तवस्तु कल्पनाप्रसङ्गः । अथ खपुष्पादिकमतिरिक्तं क्लृप्तमेवेति चेत् तर्हि अतिरिक्तखपुष्पादिसदृशस्यातिरिक्तवस्तुनो द्वितौयार्थत्वकल्पनाऽपेक्षया ख- । पुष्पं पश्येत्यादौ कर्मत्वेन क्ल प्तम्य खपुष्पस्य लाघवात् द्वितीयार्थत्वं स्यात् । अथाधिकरणत्वाधेयत्त्रयोरातिरेक्यं दौधितिकृद्भिर्युक्त्या वयवस्थापितमिति खपुष्ये न कापि तादृशी युक्तिरिति चेत् तत्राप्यधिकरणताऽऽ - धेयत्वयोरातिरैक्यं दोधितिकृतिरङ्गीकृतम् । अन्यथाऽधिकरणता इत्याकारकप्रतीत्यनुपपत्तेः प्रकारत्वानिरूपित विशेष्यतायाः प्रकार विना प्रकारतायाश्चासिद्ध: । दर्शितप्रतीतावधिकरणात्वं विनाऽन्यस्य प्रकारत्वायोगात । अगत्याऽधिकरणतत्वविशिष्टस्य हितया प्रवृत्तिनिमित्तत्रमिति चेन्न । लाघवादधिकरगातात्वस्यैव द्वितीयावृत्तिनिमित्तत्वाद्गतिसम्भवात् । न चाधिकरणतानां तत्तत्संसर्गावच्छिन्नानां द्वितीयार्थत्वे
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विभक्त्यर्थनिर्णये। शत्यानन्त्यमधिकरणतासामान्यस्य तथात्व कालं पचतीति प्रयोगप्रसङ्ग इति पूर्वमेवोक्तमिति वाच्यम् । अधिकरणतासामान्यस्यैव हितीयार्थत्वात् । अधिकरणताया: खनिरूपिततत्तत्संसर्गावच्छिन्नाधेयत्वसम्बन्धेन फलेऽन्वयोपगमात् । कालिकविशेषणतासम्बन्धावच्छिन्त्राधेयत्वस्य विक्लित्तिसम्बन्धत्वानभ्युपगमात् । न च तण्डुलं पचतीत्यत्र तण्डलाधिकरणतायाः खनिरूपितेन तण्डुल सामानाधिकरण्यावच्छिन्नाधयत्वेन सम्बधेन फले विक्लित्तावन्वयेन सम्बन्धस्य खनिरूपितलविशेषणं गौरवमावहत्याश्रयस्य तादृशाधयत्वसम्बन्धेनान्वये स्वनिरूपितत्वाप्रवेशान्न सम्बन्धगौरवमित्याशयस्यैव हितीयार्थत्वं युक्तमिति वाच्यम् । सम्बन्धगौरवस्याकिंचित्करत्वात् । वाच्यतावच्छेदकगौरवस्य लक्षगाजाने हेतुतागौरवापादकत्वात् द्वितीयाशक्याधिकरगा सम्बन्धीतिलक्षणाज्ञानस्याधिकरणातात्वविशिष्टाधिकरणत्वावच्छिन्नाधिकरणविषयतानिरूपितसम्बन्धविषयताकत्वेन हेतुत्वं वाच्यं तदपेक्षया हितौयाशक्याधिकरणतासम्बन्धीतिज्ञानस्याधिकरणतात्वावच्छिन्नाधिकरणताविषयतानिरूपितसम्बन्धविषयताकल्वेन हेतुत्वं लघुभूतमिति सम्भवति लघौ गुरौ न शक्यतावच्छेदकत्वं मन्यन्ते तान्त्रिका: । नन्वाश्रयस्याधिकरणताया वाऽऽधय चसम्बन्धेन फलेऽन्वयोपगमे प्रातिपदिकाथस्वाधेयत्वेन कर्मत्वाख्यसम्बन्धेन धात्वर्थफलेऽन्वयोऽस्तु तत्र द्वितीयासमभिव्याहारस्तन्वमित्येवास्तु किमधिकरगास्याधिकरणताया वा द्वितीयार्थत्वकल्पनया प्र
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
त्युत द्वितीयान्ततिङन्तवाक्याकाङ्क्षाज्ञानघटितशाब्दसामग्रयां द्वितौयाजन्याया अश्र रोपस्थितेः प्रवेशेन गौरवमाधौयते इत्यनया रौत्या सर्वा विभक्तिर्निरर्थिव । न च तण्डुलं पचति न जलमित्यादी जलकर्म कपाकस्याप्रसिद्धेस्तत्कर्तृत्वाभावो न प्रत्येतुं शक्यते किं तु पार्क जलकर्मकत्वाभावः तत्र द्वितीयाया निरर्थकत्वे कर्मणोऽनुपस्थितेर्न जलकर्मत्वाभावप्रतीतिः सम्भवतीति वाच्यम् । तत्र कर्मत्वाख्याधेयत्वसम्बन्धेनावच्छिन्नप्रतियोगिता कस्य जलाभावस्यैव पाके प्रतीतेः आधेयत्वसम्बन्धस्य नृत्यनियामकतया प्रतियोगितानवच्छेदकत्वे त्वाश्रयस्य द्वितीयार्थतावादेऽपि तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाश्रया
भावाप्रसिद्धेर्जलकर्मकत्वाभावप्रतीत्यनुपपत्तेः । न चाश्रयस्य यार्थत्वे जलं न पचतीत्यच जलभेद अश्रिये तस्य पाकेऽन्वयस्तथा च जलान्यकर्मकत्वं पाके प्रतौयत इति नानुपपत्तिरिति वाच्यम् । प्रकृत्यर्थाभाव - स् प्रत्ययार्थे प्रत्ययार्थाभावस्य प्रकृत्यर्थे चान्वयस्याव्युत्पन्नत्वात् माषतण्डुलोभयं पवत्यपि तण्डलं न पचतीतिप्रयोगापत्तेश्च तण्डुलान्य कर्मकत्वस्य माषकर्मकपा के सत्वात् । अथ द्वितौयाया निरर्थकत्वं न युज्यते । तथा हि । कर्मता सर्गको हितीयासमभिव्याहारो न हेतु: "देवाकय संग्रामे चापेनामादिताश्शरा" इत्यादौ चापकर्तृकासादनकर्मणां कर्मता संसर्गेणाकर्णनेऽन्वय बोधस्य विना द्वितीयां दर्शनात्। न चात्र वाक्यार्थस्य कर्मतान्वयेऽपि शब्दान्तरार्थाविशेषितप्रातिपदिकार्यस्य कर्मतासंसर्गेण बंधे द्वितीयासमभिव्याहारो हेतुः प्रकृते आसा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
दितशब्दार्थविशेषितानां शराणामाकर्णने कर्मतथाऽन्ययेsपि न व्यभिचार इति वाच्यम् । नौलं घटं पश्येत्यादी नीलपदार्थविशेषितस्य घटस्य कर्मतया दर्शनेऽन्वयवोवादन्वयव्यभिचारादिति द्वितीयाया आश्रयोऽर्थः तेन वाक्यार्थस्य कर्मतासंसर्गेणान्वयबोधे द्वितौयार्थस्य नविशेषतया न प्रकारतया मानमिति द्वितीयाज्ञानस्य तज्जन्योपस्थितेर्वा न व्यभिचार इति जलं न पचतीत्यत्र जलाश्रयाभावः पाके प्रतीयते नृत्यनियामकसम्बन्धस्य प्रतियोगिता नवच्छेदकत्वे बौजाभावादिति चेन्न । यतोनृत्य नियामकसम्बन्धो न प्रतियोगिमत्ताबुद्धिजनकः । ग गनादिसंयोगस्य मृर्ते सत्वेऽपि मृतं गगनादिमत् गगनादि मूर्तवति प्रतीत्यनुदयात् तथा च प्रतियोगिमत्ताबुधजनकत्वेन व्यधिकरणसम्बन्धतुल्यो हत्यनियामकसंबन्ध इति व्यधिकरणसंबन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकस्येव नृत्यनियामक संबन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकस्यायभावस्य केवलान्वयित्वमित्येव नृत्यनियामक संवन्धस्य प्रत्ययर्थाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वे बीजमिति नञ तत्संबन्धावच्छिन्नप्रत्ययार्थाभावो न बोध्यते । यदि बोध्येत तदा नृत्यनियामकमंबन्धेन प्रतियोगिसंबन्धिनि यथा मृर्ते न गगनादि गगनादौ न मृर्तमित्यादि प्रयोगस्तथा तण्डलं पचत्यपि तण्ड़खं न पचतौति प्रयोगः स्यात् । न चैवं द्वितीयाया निरर्थकवेऽपि जलं न पचति तण्डुलं न पचतीत्यादावन्वयबोधानुपपत्तिस्तदवस्थेति वाच्यम् । आश्रयस्याधिकरणनायात्रा द्वितीयार्थत्ववादे द्वितीयाया निरर्थकत्ववादे च
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द्वितीयाविभक्तिविचारः। सर्वपक्षेऽनुपपत्तेराधेयत्वस्य हितोयार्थत्वं युज्यत इति चेत् एवमेवैतत् अत एव परसमवेतधात्वर्थफलशालित्वं कर्मत्वमिति तान्त्रिका वदन्ति । तेषामयमाशयः । द्वितीयाकाङ्गाप्रयोजकतावच्छेदकधर्मवत्वं सकर्मकत्वं तादृशो धर्मों नानाविधः । पचिगम्यादौनामधिकरणाविशेषितफलव्यापारोभयवाचकत्वं तथा शब्दायल्यादेरधिकरणविशेषितफलवाचकत्वान्न द्वितीयाऽऽकाका रमत्यादेईितीयार्थभेदान्वययोग्यार्थकत्वविरहान्न हितोयाऽऽकाङ्क्षा यत्यादौनां व्यापारमानवाचकतया फलावाचकत्वान्न द्वितीयाऽऽकाङ्क्षा शौस्थासामधिपूर्वकत्वं तथा वसस्तु उपान्वध्याउन्यतमपूर्वकत्वं तथा अधिकरणविशेषितफलवाचकानां शब्दायत्यादीनां हितौयार्थभेदान्वयायोग्यार्थकानां रमत्यादीनां फलावाचकानां यत्यादीनां च कालादिवाचकशब्दोत्तरहितीयाभिन्नहितीयानिराकोसत्वस्वरूपाकर्मकत्वेन व्यवत्रियमाणानां णिजन्तत्वं तथा न तु शाब्दिकोक्तं सकर्मकत्वमधिशीङादावकर्मकणिजन्ते चाव्याप्तेः । एवं धाताकावहितौयार्थत्वं कर्मत्वं तदपि नानाविधं अधिशौस्थासादौनामाधारत्वम् अकर्मकणिजन्तानामणिजन्तखकर्टवं पचिगम्यादीनां परसमवेतधात्वर्थफलशालित्वम् इदं कट त्वं च गतिबुध्यशनार्थकानां शब्दकर्मकाणां च णिजन्तानां तत्र धात्वर्थफलस्य धातुना लाभात् परसम
तत्वं द्वितीयार्थः तंत्रापि परत्वं भेदः समवेतत्वमाधेयत्वं खण्ड शो द्वितीयार्थः तत्र प्रातिपदिकार्थ आधेयत्वे निरूपितत्वसंसर्गेण भेदे च तत्तद्यक्तित्वावच्छिन्न
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
प्रतियोगिता संबन्धेनान्वेति श्रधेयत्वं फले स्वरूपेण भेदो व्यापारे सामानाधिकरण्येनान्वेति । एवं ग्रामं गच्छति चैत्र इत्यादावेकग्रामवृत्तिसंयोगानुकूलाया एकग्रामवृत्तेश्च क्रियाया अनुकूलकृतिमानेकः चैत्र इति शाब्दबोधः । तत्तद्यक्तित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताया भेदसंबन्धोपगमान्मल्लो मल्लं गच्छतीत्यादौ नान्वयबोधानुपपत्तिरन्यथा मल्लत्वावच्छिन्नप्रतियोगिता कभेदसमोनाधिक
या मल्लगमनक्रियाया अप्रसिद्धेः शाब्दानुदयः स्यात् । न च शब्दायें भेदेऽन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगितैव संबन्धो व्युत्पन्न इति वाच्यम् । नञर्थभेद एव तथाभ्युत्पत्तेः । अथ वा भेदे प्रातिपदिकार्थ आधेयत्वसबन्धेनान्वेति भेदः प्रतियोगितावच्छेदकतासंबन्धेन व्यापारेऽन्वेति । दर्शितस्थले गभ्यमल्लटत्तिभेदस्य गन्टमल्लगमने प्रतियोगितावच्छेदकतायाः सत्वात् गन्तृभेदस्य गम्ये सत्वात् नानुपपत्तिरिति । ननु भेदांशे द्वितीयाथक्तिकल्पनमप्रामाणिकं भेदानुभवस्य विवादग्रस्तत्वात् । कर्टसंज्ञया कर्मसंज्ञाया बाधात् चैत्रश्चैनं गच्छतीति प्रयोगप्रसक्त्यभावादित्युक्तत्वादिति चेन्न । निषेधप्रतीत्यन्यथाऽनुपपत्तेराख्यातवादे दीधितिकृतिः प्रमाणत्वेनोतत्वात् । तथा हि खगो भूमिं गच्छति न तु स्वमिति सर्वजनोनः प्रयोगस्तत्व भूमिकर्मकगमनकर्तृत्वं स्वकर्मकगमनकर्तृत्वाभावश्चेत्युभयमथ वा स्वकर्मकत्वाभाववतो भूकर्मकगमनस्य कर्तृत्वं खगे प्रतौयते । तत्र स्वपदोत्तरद्दितौयाऽऽधेयत्वमावमभिधत्ते यदि तदा गमि फले संयोगे स्त्रायत्वस्य सत्वान्न तस्य निषेधः । न व
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द्वितीयाविभक्तिविचारः । गम ने स्वाधेयसंयोगजनकत्वस्य सत्वात्तस्य निषेधः । न वा स्वाधे यसंयोगजनकगमनकट त्वस्य खगे सत्वात्तस्य निषेधो नञा बोधयितुं शक्य इति निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिः भेदस्य बितौयार्थत्वे तु स्वपदार्थविहगत्तिभेदस्थ प्रतियोगितावच्छेदकताया विहगकर्ट कगमने विरहा - त्तस्य निषेधो नञा बोध्यत इति निषेधप्रतीत्युपपत्तिः । एवं रूपं न गच्छतोत्यादौ रूपत्तित्वाभाव एव गमिफले संयोगे नजा बोध्यते रूपसमवेतसंयोगस्या प्रसिद्ध : . रूपकर्मकगमन कट त्वोभावस्य बोधयितुमशक्यत्वात् । न च गम्यादिसमभिव्य हृतहितीयायाः समवायाद्यवच्छिन्नाधेयत्वं यद्यर्थस्तदा शक्त्यानन्त्यं जातिमभावं वा न गच्छतीत्यादौ निषेधप्रतीत्यसम्भवञ्च जातिनिरूपितस्याभावनिरूपितस्य च समवायावच्छिन्नाधेयत्वस्याप्रसिद्धेरिति वाच्यम् । आधे यतात्वेनाधेयतासामान्यैव हितौयार्थत्वेन शक्त्यानन्त्यविरहात् गम्या दसम भित्र्याहारे तु समवायावच्छिन्नाधेयत्वीयस्वरूपसंबन्धेन फले संयोगादावाधेयत्वस्यान्वयोपगमात् दर्शितस्थले जातिनिरूपितस्याभावनिरूपितस्य चाधेयत्वस्य ममवायावच्छिन्नाधेयत्वीयस्वरूपसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिता कमभाव संयोगे बोधयता नञा निषेधप्रतीतिसम्भवाच्च । कालि
कविशेषणतासंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वीयस्वरूपसंसर्गस्य द्वितीयार्थाधेयताया अनन्वयोप्रयोजकत्वात् का लं पचतीत्यादिको न प्रयोगः अत एव कालिकविशेषणतादिघटितव्यापकत्वार्थ पृथगनुशासनमित्यादिकं वक्ष्यते । एवं स्वावयवावच्छेद्याधिकरणतानिरूपितत्वसंबन्धे न
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विमत्स्यथानणय |
प्रकृत्यर्थस्य द्वितीयार्थावेयत्व ेन गम्यादिफलसंयोगायोग्य वक्तव्यः । स्वपदं परिचायकमवयवः समवायौ तेन गगनं चेवनं कालं दिशं वा गच्छतीति न प्रयोगः । न च मनः परमाणुं गच्छafaप्रयोगोऽनुपपन्न इति वाच्यम् । इष्टत्वात् । परमागुमन सोर्मिथः संयोगसत्वेऽपि गगनघटयोरिव गम्यगन्टभावानभ्युपगमात् । गगनं गच्छतीत्यादौ गगनपदं दर्शितसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताका काशाभावपरं तादृशाकाशाभावस्य विशेषणतया द्वितीयार्थाधेयत्वेऽन्वय इति यदि च वृचादौ संयोगो व्याप्यवृत्तिर्न तु तदधिकरणता तदा द्वितीयार्थाधेयत्वस्य स्वनिरूपक प्रकृत्यार्यात्मकाधिकरणावयव निष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतासमानाधिकरणेन समवाय। च्छिन्नाधेयत्वीय स्वरूप संसर्गेण गमिफले संयोगे त्यजिफले विभागे चान्वयस्तेन गगनादिकं गच्छति त्यजति वेति न प्रयोगः । दर्शितसंसर्गेण दितीयार्थाधेयत्वस्य संयोगे विभागे च बाधात् । गगनादिकं गच्छति त्यजति वा इत्यादौ दितौयार्थाधेयत्वस्य दर्शितसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताको भावः संयोगे विभागे चान्वेतीति तत्प्रयोगोपपत्तिः । प्राचीं गच्छ - तीत्यादी दिगुपाधिमत उदयगिरिसंनिहितदेशस्य प्रा'चौपदेन प्रतिपादनान्नानुपपत्तिः । एवं शकुनिः खं ग
छतीत्यादौ खशब्देन वायुमण्डलस्य प्रतिपादनान्नानुपपत्तिः । एवं प्रयोक्तृपुरुषाधिष्ठित देशावधिकगमनकट देशममवतपरत्वनिरूपितापरत्वस्य समानाधिकरणः संयोग आङ्पूर्वस्य गमेः फलं तादृशापरत्वस्यासमानाधि
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
करणः संयोगः आङ्वर्जितस्य गमेः फलमिति तेन प्रयागात्काशौ मागच्छति शक्रप्रस्थं गच्छतीति प्रयोगः प्रयागात् शक्रप्रस्थमागच्छति काशीं गच्छतौति न प्रयोगः पाटलिपुत्रस्थानामिति । नतु भेदस्य द्वितीयार्थताभ्युपगमेन विहगो भूमिं गच्छति न तु खमित्यादौ निषेधप्रतीत्युपपादनेऽपि चैवो ग्रामं गच्छति न तु मनुष्यमित्यादौ निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिस्तदवस्यैव गम्यर्थ संयोगे चैत्रात्मक मनुष्य समवेतत्वस्य व्यापारे च मनुष्यान्तरहत्तिभेदस्य प्रतियोगितावच्छेदकतायामत्वात् । द्वितौयार्थयोराधेयत्वभेदयोर्निषेधस्य तव बोधयितुमशक्यस्वात् चैत्रो मनुष्यं गच्छतौतिप्रयोगापत्तिश्च । न च तत्तन्मनुव्यनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकं तत्तन्मनुष्यष्टत्तिसंयोगजनकत्वविशिष्टं यावत् तावदभाबकूट एव नञा प्रतिपाद्यते । तथा च चैवात्मकमनुष्यवृत्तिसंयोगजनकत्वविशिष्टं यत् चैत्रात्मकमनुष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छ्रेकत्वं चैत्रकर्मकान्यदीयग-मनेऽस्ति तदभावस्य नञा बोधनात् मनुष्यान्तरकर्मकचैव कगमने यत्किंचिन्मनुष्यष्टत्तिसंयोगजनकत्वविशिष्टस्य यत्किंचिन्मनुष्य निष्ठ भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य विरहेऽपि चैवो मनुष्यं न गच्छतौ न प्रयोगः तादृशतावदभावकूटस्य तादृशचैवगमनेऽसदिति वाच्यम् । भेदस्यैव द्वितीयार्थतया तावदवच्छेदकत्वस्यानुपस्थित्या तदभावग्रहासम्भवात् तावदभाव कूटस्य युगसहस्रेणापि ग्रहीतुमशक्यत्वाच्च । तस्माद् द्वितीयाया भेदार्थकत्वेऽपि निषेधप्रयोगोपम तिर्न सम्भवतीति चेन्न । यत
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विभक्तत्वनिर्णये ।
श्री ग्रामं गच्छति न तु मनुष्यमित्यादौ स्वसमवेतसंयोगजनकत्वख प्रवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वोभय संबन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताको मनुष्यसामान्याभावो गमने मजा बोध्यते । संयोगेन घटो नास्तीत्यव तृतीयान्तसंयोगपदमिव द्वितीया प्रतियोगितावच्छेदकसंसर्गानुवादकतयोपयुज्यते अतो न काऽप्यनुपपत्तिः । न च दर्शितसंबन्धोभयस्य नृत्यनियामकत्वात्कथं प्रतियोगितावच्छेदकत्वमिति वाच्यम् । यतः स एव हत्यनियामक: खावच्छिन्न प्रतियोगिताकतयाऽभावस्य जगद्दत्तित्वप्रयोजको यः संबन्धः प्रतियोगिवैशिष्ट्यबुद्धिं न जनयति यथा गग'नादिसंयोगो गगनादिवैशिष्ट्यबुद्धिं न जनयति तदवच्छिन्नप्रतियोगिता कोऽभावो जगह, त्तिः प्रकृते दर्शितसंबन्धेन यस्य गमने मनुष्यात्मक प्रतियोगिवैशिष्ट्यबुद्धिजनकत्वान्न तदवच्छिन्नप्रतियोगिताको जगह तिरिति
छिन्नप्रतियोगिता का भावस्य केवलान्वयित्त्व प्रयोज कत्वरूपस्य त्वनियामक संबन्धप्रतियोगितानवच्छेदकत्ववौजस्य दर्शितोभयसंबन्धे विरहान्नानुपपत्तिरिति । न चैवमधिकरणं द्वितीयार्थोऽस्तु तस्यैव दर्शितोभयसंबन्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावः प्रकृते प्रतीयेतेति वायम । अधिकरणस्य द्वितीयार्थत्वे शक्यतावच्छेदकगौरवर, दर्शितत्वात् । न चैवं दर्शितस्थले संसर्गानुवादकतयः पाधुवे द्वितीया सर्वच साधुत्वार्थमेवास्तु किमाधेयत्वादौ तस्याः शक्तिकल्पनेन ग्रामं गच्छतौलव दर्शितोभयसंबन्धेन गम्यर्थे व्यापारे प्रातिपदिकार्थस्य ग्रामस्थान्वयः तादृशसंसर्गेय प्रातिपदिकार्थप्रकारक शाब्द
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द्वितीयाविभक्तिविचारः। बुद्धौ हितौयान्तप्रातिपदिकजन्या पदार्थोपस्थिति: गम्यादिधातुजन्या व्यापारोपस्थितिश्च कारणं तेन ग्रामोग्रामात् ग्रामेण वा गच्छतोत्यादौ न तथा शाब्दबुद्धिः ग्रामोपस्थितेहितौयान्तपदाजन्यत्वाद् न वा घटपदेन लक्षणया स्यन्दोपस्थितावपि ग्रामं घट इत्यादौ तथाशाब्दबोध: स्यन्दीपस्थितेर्धातुजन्यत्वाभावात् । एवं सर्ववैव खटत्तिफलसंबन्धित्वस्ववृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वोभयसंबन्धन प्रातिपदिकार्थप्रकारकशाब्दबुद्धौ हितीयान्तपदजन्योपस्थिति: मामान्यतः कारणां धातुजन्योपस्थितिस्तु विशेषत: कारणं तेन स्पन्दिजन्योपस्थितेर हेतुत्वाद् ग्रामं स्पन्दते इत्यादौ न तथा शाब्दबोध: । न च दशितोभयसंबन्धस्य कर्मत्वात्मकत्वात्कमतासंसर्गेण प्रातिपदिकार्थप्रकारकशाब्दे हितोयान्तपदजन्योपस्थितेयभिचार:"देवाकर्णय संग्रामे चापनासादिताः शरा"इत्यादी पूर्वमेव दर्शित इति कथमौदृशः कार्यकारणभाव इति वाच्यम् । आसादनकर्मशराणां वाक्यार्थत्वात्यातिपदिकार्थत्वविरहात् व्यभिचाराप्रसक्तः । कृदन्ततद्धितान्तसमासानां वाक्या नां प्रातिपदिकसंज्ञाविधानाहाक्यार्थस्यापि तेषामर्थस्य प्रातिपदिकार्थत्वमक्षतमेवेति कर्मतासंसर्गेण कृदन्तादिवाक्यार्थप्रकारिका शाब्दधौः प्रातिपदिकार्थप्रकारिकैवेति पाचकमानय दाक्षि भोजय स्वेष्टदेवं पूजयेत्यादौ न हितीयान्तपदजन्योपस्थितेरन्वयव्यभिचारः । एवं खगो भुवं गच्छति न तु स्वमित्यत्रोपि दर्शितोभयसंबन्धात्मककर्मत्वसंसर्गेण भूप्र कारिकायास्तथाविधसंसर्गावच्छिन्न प्रतियोगिताकस्वाभावप्रकारिका
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विभक्त्यर्थनिर्णये । यास्तथाविधसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्वाभावप्रकारिकाया एव शाब्दधियः समभ्युपगमः । वृत्त्य नियामकसंबन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकतायास्त्वयैवाभ्युपगमादति चेन्न । त्यनियामकसम्बन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वेऽपि हितौयायाः सार्थकत्वस्यावश्यकत्वात् चैनो ग्रामं गच्छति न तु मनुष्यमित्यादौ क्वचिमाधुत्वार्थत्वेऽपि सर्वत्र साधुत्वमावार्थतया हितौयायाः कर्मत्वाद्यनर्थकत्वे मानाभावात् । न च कर्मत्वाद्यर्थकत्वे मानाभावात् द्वितीयाया निरर्थकत्वमिति वाच्यम् । विनौया न कर्मलवाचिकेति ज्ञानापि ग्रामं गच्छतौल्यत्र कर्मतासंसर्गेण ग्रामस्य गमनेऽन्वन्यप्रसङ्गात् । ग्रामीयं न कर्मत्वमिति बाधग्रहेपि कर्मतासंसर्गेगा ग्रामस्य गमनेऽन्वयबोधप्रसङ्गाच्च । तादृशबाधस्य कर्मतासंसर्गकग्रामान्वयबुद्धावविरोधित्वात् । एवं गमनं न ग्रामकर्मताकमिति बाधकालेऽपि कर्मतासंसर्गेण ग्रामस्यान्वयबोध: स्यात् । तत्संसर्गाभाववत्ताज्ञानस्य तत्संसर्गकबुद्धावविरोधित्वात् । किं च हितीयाया निरर्थकत्वे कर्म गच्चतौतिप्रयोगः स्यात् । कर्मग कर्मतासंसर्गेण ग्रामेऽन्वयबोधे निष्पत्यूहत्वात् । सार्थकत्वे तु न तथाप्रयोगः सम्भवति । कर्मेत्यत्र हितौयाया निराकानत्वात् । शाब्दिकमते कर्मणो द्वितीयार्थत्वात्कर्म कर्मत्यभेदान्वयबोधो न भवति उद्देश्यतावच्छेदकविधेयतावच्छेदकयोभेदस्य तथान्वयबोध तन्त्रस्य विरहान्न तथाप्रयोगः न्यायमते तु द्वितीयाया आधेयत्वमर्थः । निरूपकतया प्राधेयतावान् कर्मशब्दार्थः । तथा च कर्मेतिहितीयान्तप्रयोगे
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९१ द्वितीयाविभकिविचारः । हितीयार्थाधेयत्वस्योद्देश्यत्वे कर्मशब्दार्थस्याधेयतावतस्तन विधेयत्वं न सम्भवति अभेदातिरित्तसम्बन्धेनोद्देश्यविधेयभावेन प्रकृतिप्रत्ययार्थयोरन्वये प्रकृत्यतावच्छेदकप्रत्ययार्थयोरन्योन्याभावस्य न कर्म गच्छतीति प्रयोगः । एवमधिकरणमाश्रयं वा गच्छतीति न प्रयोगः। अधिकरणाश्रयशब्दयोनिरूपकतया ऽऽधेयतावदर्थकत्वात् । अधिकरणतावदर्थकत्वे तु आश्रयं श्रयन्तौतिवत् अधिकरणमाश्रयं वा गच्छतौतिप्रयोगो भवत्येव । ननु भवतु द्वितीयाया प्राधेयत्वमर्थः । खगो भुवं गच्छति न तु स्वमित्यादौ निषेधप्रतीत्यनुरोधेन भेदोऽप्यर्थ: स्यात् । तथाऽपि यन्मते सत्यनियामकः सम्बन्धः प्रतियोगितावछेदको भवति तन्मते खगो भुवमित्यादौ दर्शितस्थले चैलो ग्रामं गच्छति न तु मनुष्यमित्यादौ च कथं निषेधप्रतीतिः प्रतियोगितावच्छेदकत्वसम्बन्धस्य - त्यनियामकतया तत्संसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य स्ववृत्तिभेदाभावस्थाप्रसिध्या खगकर्तृकगमने तत्प्रतीतेरसम्भवात् । एवं मनुष्यत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वीभयसम्बन्धस्य वृत्त्य नियामकतया तत्सम्बन्धावच्छिन्द्रप्रतियोगिताकमनुष्यसामान्याभावस्याप्रमिध्या चैत्रकत. कगमने तत्यतीतेरसम्भवादिति चेन्न तन्मतेऽपि निषेधप्रतीतिः सम्भवति हितीयार्थभेदस्य स्वसमानाधिकरणफलसम्बन्धित्वप्रतियोगिताव पछेदकत्वोभय सम्बन्धाव- ' च्छिन्नविशेषणतासम्बन्धेन सर्वत्र व्यापारऽन्वयः । एवं खगो भुवं गच्छति नतु स्वमित्यत्र स्वष्टत्तिभेदस्य स्त्रसमानाधिकरणसंयोगजनकत्वसम्बन्धेनावच्छिन्वया विशेष
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विभक्तार्थनिर्णये ।
तथा खगकर्तृके गम्यर्थ व्यापारे सोऽपि प्रतियोगिताबच्छेदकत्वसम्बन्धेनावच्छिन्नया विशेषणतयाऽसत्वात् तादृशसंयोगजनकत्वप्रतियोगितावच्छेदकत्वोभय सम्ब
ब्वावच्छिन्नविशेषणता संसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य स्वरत्तिभेदाभावस्य गत्यर्थव्यापारे निराबाधत्वात्वष्ट त्तिभेदनिषेधप्रतोत्युपपत्तिः । चैवी ग्रामं गच्छति न तु मनुष्यमित्यत्र चैत्रात्मकमनुष्यवृत्तिभेदस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वसम्बन्धेनावच्छिन्नया मनुष्यान्तरवर्तिभेदस्य तादृशसंयोगजनककत्वसम्बन्धेनावच्छिन्नया विशेषणतया चैवकर्तृके गभ्यर्थव्यापारेऽसत्वात् तादृशसंयोगजनकत्वप्रतियोगितावच्छेदकत्वोभयसम्बन्धावच्छिन्न विशेषणतासंसर्गावच्छिन्न प्रतियोगिताकस्य मनुष्यवृत्तिभेदसामान्याभावस्य तथाविधगभ्यर्थव्यापारे निराबाधत्वातु मनुष्यवृत्तिभेदनिषेधप्रतीत्युपपत्तिः दर्शितोभयसम्बन्धावच्छिन्न विशेषणतया भूवृत्तिभेदस्य खगक कगमने ग्रामवृत्तिभेदस्य चैवकर्तृकगमने सत्वात् तदन्वयोपपत्तिः विशेषणता तु तत्तदधिकरणस्वरूपातिरिक्ता वेत्यन्यदेतत् । उभयथापि तस्या वृत्तिनियामकत्वमक्ष - तमेव । यन्तु ग्रामं गच्छतीत्यादौ परसमवेतत्वे भेदमामानाधिकरण्यात्म के द्वितीयाया लक्षणा न तु भेदादौ भक्तिद्दितीयान्तार्थविशेषितभेदसामानाधिकरण्यं व्यापारफले वाऽन्तोति शाब्दिकैरुक्त तन्त्र विचारमहं तथा हि हितोयान्तार्थः प्रतियोगितया भेदे तत्सामानाधिकरण्यंव्यापारेऽन्वेतौत्ययं पक्षो न सम्भवति मल्ला मलं गच्छतीव्यादावन्वयितावच्छेद कौभूत मल्लत्वावच्छिद्र प्रतियोगि
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द्वितीयाविभक्तिविचारः । ताकमल्लभेदस्य मल्लत्तिव्यापारे सामानाधिकरण्यासम्मवात् शब्दार्थाभावेऽन्वयितावच्छेदकतरधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितया पदार्थान्वयस्याव्युत्पन्नत्वात् । न वा द्वितीयान्तार्थ प्राधेयतया व्यापारवान् प्रतियोगितया भेदे तत्यामानाधिकरण्यं फलेऽन्वेतीत्यपि सम्भवति गामं गच्छतौत्यत्र व्यापारवतस्ताटूप्ये णानुपस्थितेः । तव मते त्वाश्रयत्वेन तिडोपस्थापितस्य तस्य धात्वर्थविशेषणतया अन्वितत्वात् हितौयालक्ष्यप्रविष्टभेदेऽन्वयासम्भवात विशेषणतयाऽन्धितस्यापि पदान्तरार्थान्वयीपगमे तु मृगो धावति पश्येत्यत्रापि मृगे विशेषणतयाऽन्वितम्य धावनस्य दृश्यर्थान्वयप्रसङ्गात् । भेदस्य लक्ष्यैकदेशतया तत्त्र पदार्थान्वयस्य सर्वमतेऽप्यव्युत्पन्नत्वाच्च । न च द्वितीयाया आश्रयो वाच्यः भेदो लक्ष्यः प्रकृत्यर्थस्य तादात्म्येनाश्रये आधेयतया भेदे आश्रय आधेयतया फले भेदः प्रतियोगितया व्यापारीन्तीति वाच्यम् । युगपद्दत्तियविरोधात् भेदस्य लघुतया शक्यत्वोपपत्तौ गुरुतयाऽऽश्रयस्यैव लक्ष्यत्वापत्तेश्च । यदपि भेदे द्वितीयाया न शक्तिः किं तु हितीयार्थाधिकरणविशेषितफलप्रकारतानिरूपितविशेप्यतासंबन्धेन शाव्दं प्रति हितौयान्तार्थत्यन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकव्यापारोपस्थितिविशेष्यतासंबन्धेन कारणमतश्चैवचैत्रं गच्छतीत्यत्र न शान्दबोधः । तादृश-'. व्यापारोपस्थितिविरहादिति नव्यशाब्दिकैरुक्तम् । तदस्यसत् । द्वितीयान्तं विनापि गच्छतोत्यादौ फलप्रकारतानिरूपितव्यापारविशेष्यताकशाब्दबोधोदयात् । तत्व क्लसामगवां द्वितीयान्तसमभिव्याहारोऽपि फलप्रकारकशा
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विभक्त्यर्थनिर्णये। ब्दसम्भवादीदृश कार्यकारणभाव मानाभावात् । हितोयान्तसमभिव्याहारात् प्रकृत्यर्थविशेषिताहितीयार्थस्य विशेषणतया फलेऽन्वयसम्भवाद्दर्शित कार्यतावच्छेदकस्याथसमाजगस्तत्वाच्च । किं च दर्शित कार्यकारणभावेन चैवश्चैत्रं गच्छतौत्यन शाव्दवारणेऽपि खगो भुवं गच्छति न तु स्वमित्यत्र निषेधप्रतीत्युपपत्तिनं भवति । स्वकर्मकत्वाभावस्य विना भेदं प्रत्येतुमशक्यत्वादिति मेदस्य हितीयार्थत्वावश्यकत्वे तावतैव चैत्रश्चैवं गच्छतौत्यत्र चैत्रकर्मकत्वशाब्दासम्भवान्निष्प्रामाणिकतरी दर्शितोऽयं कार्यकारणभावः । यदि च पचतीत्यादी भेदप्रतीतिनिषेधमुखनापि न भवतिगम्यादौ तु भुवं गच्छति न तु स्वमिति निषेधप्रतीत्यन्यथाऽनुपपत्या भेदप्रतीतिरावश्यको तत्र भेदः फलविधया धात्वर्थः तत्र हितौयार्थस्याधेयत्वस्याऽन्वयः तस्य च प्रतियोगितावच्छेदकतया व्यापारेऽन्वयः संयोग इव भेदोऽपि फलविधया धात्वर्थ एव तावताऽपि न तु स्वमिति निषेवप्रतीत्युपपत्तिरिति भेदो धातोद्वितीयाया वा शक्य इत्यत्र विनिगमनाविरहः । न च भेदस्य फल विधथा गम्यर्थत्वे भेदरूपफलत्वात् गामत्वम्य कर्मत्वं स्यात् तथा च गामत्वं गच्छतौति प्रयोगापत्तिरिति वाच्यम् । संयोगभेदाभयफलवतो गमिकर्मत्वात् तदुभयविरहेण गामत्वम्य कर्मत्वायोगात्तथा प्रयोगानोपत्तेः । न च चैत्रो ग्राम गच्छति न तु मनुष्यमित्यत्र निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिः । संयोगे चैत्रात्मकस्य भेद चैत्रान्य मनुष्यस्थाधे यतायाः सत्वात् तदभावप्रतीत्यसम्भवादिति वाच्यम्।
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
द्वितीयार्थाधेयत्वस्य संयोगसमानाधिकरण विशेषतासम्बन्धावच्छिन्नाधेयत्वीय स्वरूपसम्बन्धेन भेदेऽन्ययोपगमादर्शि तस्थले मनुष्यनिरूपिताधेयत्वस्य द्वितीयान्तार्थस्य दर्शितमस्वावच्छिन्न प्रतियोगिता कमभावं दोधयता नञो निषेधप्रतीतेर्निष्प्रत्यूहत्वात् किं च भेदस्य द्वितौयार्थत्वोपगमे द्वितीयान्तपदवटित शब्दसामग्रभेदोपस्थितः सर्वत्र प्रवेश ेन भिन्नविषयकप्रत्यचादिप्रति बन्धकतायां गौरवं विनिगमका भावादानन्त्यां च स्यादिति संयोगादिव्यासज्य वृत्तिफलक गम्यादिधातोर्भेदार्थक वे तु गम्यादिवटितशाब्दसामग्रग्रामेव भेदोपस्थितेः प्रवेशेन सर्वत्राप्रवेशेन लाघवं स्यादिति विभाव्यते तदा भेदो न हितीयाया न वा धातोरर्थः किं तु गम्यादिफले संयोगे त्यज्यादिफले विभागे द्वितीयार्थाचे यत्वस्य व्यामारवङ्गेदसमानाधिकरणत्वविशिष्टसमवायावच्छिन्नाधे
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यत्वौयस्वरूपसंबन्धेनान्वयोऽभ्युपेयते तत एव चैवश्चैचं गच्छतौत्यत्र न शाब्दबोधः चैवाधेयत्वस्य दर्शि तसं सर्गेण संयोगेऽयोग्यत्वात् चैत्रो ग्रामं गच्छति न तु कन वा मनुष्यमित्यादौ स्वाधेयत्वस्य मनुष्याधेयत्वस्य च दर्शित संबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताको भावो नञा संयोगे बोध्यते अतो निषेधप्रतीतिरुपपद्यते । एवमेव चैत्रश्चै त्यजतीत्यत्र न शाब्दबोधः । न वा चैत्रो ग्रामं त्यजति न तु स्वं न वा मनुष्यमित्यत्र निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिरितीयमभिनवा रौतिः सुधीभिराकलनीयेति । । एवं कर्माख्यातस्य फलान्वितमधिकरणात्त्वमर्थः । न च हितौयापर्यायत्वानुपपत्तिरिति वाच्यम् । अधिकरणत्वा
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विभक्त्यर्थनिर्णये । धेयत्वयोः समानसंविसंवेद्यतया कर्मत्वशब्दप्रतिपाद्यत्वात् कर्मत्वार्थकतया हितौयाकर्माख्यातयोः पर्यायत्वसम्भवात् । न चैवं कर्माख्याते फलान्विता धैयत्वस्यानभिधानाट् द्वितीयाप्रसङ्ग इति वाच्यम् । फलान्विताधिकरणत्वतहतोरन्यतरानभिधानस्यैव हितौयाप्रयोजकत्वात् तयोरन्यतरबोधकशब्दासमभिव्याहृते द्वितीयार्थान्वययोग्यार्थक पदे सति द्वितीया भवतीत्यस्योक्तत्वात् । एवं चैत्रेण ग्रामो गम्यते इत्यादावेकचैत्रकर्ट कव्यापारजन्यसँयोगाधिकरणतावानेकग्राम इत्यन्वयनोधः । कर्माख्यातस्थले टतौयार्थकतवं व्यापार व्यापार: फले फलं तिर्थाधिकरणत्वे तिङर्थः प्रथमान्तार्थेऽन्वेतीति । अत्रापि चैत्रेण ग्रामो गम्यते न तु स्वात्मा न वा मनुष्य इति निषेधप्रतीत्यनुरोधेन कर्माख्यातस्य भेदोऽप्यर्थः । खावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वसंबन्धेन व्यापारो भेदे भेदोविशेषणतया प्रथमान्तोऽन्वेति । तथा च तादृशसंयोगाधिकरणतावान् व्यापारावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेदवानेकग्राम दूत्यन्वयबोधः । संयोगविशिष्टविशेषणता भेदस्य संसर्गः तादृशविशेषणतासंसर्गावच्छिन्न प्रतियोगिताकस्य व्यापारावच्छिन्नप्रतियोगिताकदाभावस्य खात्मनि मनुष्ये च सत्वान्निषेधप्रतीतिरुपपद्यते। अभिनवरौतौ तु संयोगफलकगम्यादिना विभागफलक त्यज्यादिना च समभिव्याहृतस्य कर्माख्यातस्थार्थोऽधिकरणत्वं व्यापारवद्भेदसमानाधिकरणत्वविशिष्टसमवायावच्छिन्नाधिकरणत्वीयस्वरूपसंबन्धेन प्रथमान्तार्थेऽन्वेति । चैत्रेण ग्रामो गम्यते न तु स्वात्मा न वा मनुष्य इत्यत्व
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
गम्यर्थफलसंयोगान्वितं तिङर्थाधिकरणत्वं दर्शितसंस'गण ग्रामे निराबाधमिति तस्य ग्रामेऽन्वयो भवति तस्य तु दर्शितसंसर्गावच्छिन्न प्रतियोगिताकोऽभावः स्वात्मनि मनुष्ये च निराबाध एव स्वात्मनि दर्शितसंसर्गेण मनुष्यान्तरे स्वरूपसंबन्धेनापि चैत्रकर्तृकव्यापारजन्यसंयोगाधिकरणत्वस्यासत्वादिति निषेधप्रतीत्युपपत्तिरिति । एतेन तिलं जुहोति न तु वहिमित्यादौ भेदस्य द्वितीयार्थत्वाभ्युपगमेऽपि निषेधप्रतोत्यनुपपत्तिः वन्हिसंयोगफलकविहितव्यापारार्थकस्य जुहोतेः फले वन्हिसंयोगे वह समवेतत्वस्य वन्हौ व्यापारवस्य च सत्वात् न च वन्हौ जुहोतिकर्मत्वमिष्टमेवात एव " यथाविधिज्ञताग्नौनामित्यव हुतशब्दार्थस्य हवनकर्मणस्तादात्म्यमग्नौ प्रतीयते एवं " जटाधरान् जुहधीह पावकमित्यत्र हि - तौयान्तार्थस्य वन्हिकर्मत्वस्य जुहोत्यर्थेऽन्वय इति वन्हि - कर्मत्वस्य निषेधो हवनेऽयोग्यतया न प्रत्येतुं योग्य इति वाच्यम् । हुताग्नीनामित्यव पावकं जुजधोत्यत्र च संयोगफलकस्वाहाकरणकप्रक्षेपार्थकतया जुहोतेः कर्मप्रत्ययनिष्ठदितौयोपपत्तेः । न च जुहोतेः संयोग एव फलं न तु संयोग इति वाच्यम् । तथासति वन्हि घृतं जुहोतीति प्रयोगापत्तेः एवं पार्थिवद्रव्यप्रतियोगिककण्ठसंयोगफलकव्यापारार्थकस्य भुजयेंगे दूव द्रव्यप्रतियोगिक कण्ठसंयोगफलकव्यापारार्थकस्य पिबतेर्योगे श्रीदनं भुङ्क्ते न तु कण्ठं पयः पिवति न तु कमित्यत्रापि निषेधप्रतीत्यनुपपत्ति: भुजिपिबतिफलयोर्व्यापारवद्वेदस्य च कण्ठे मत्वात् । एवं प्राणवियोगफलकव्यापारा
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विभक्त्यर्थनिर्णये। र्थकस्य हन्तेोगे शg हन्ति न तु प्राणमित्यत्रापि निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिः प्राणविभागस्वरूपफलस्य व्यापारवहदस्य च प्राणे सत्वात् । एवं यवो इयते न तु वन्हिः श्रीदनो भुज्यते न तु कण्ठः पयः पीयते न तु कण्ठः शवर्हन्यते न तु प्राण दूत्यादिकर्माख्यातेऽपि निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिरिति परास्तम् । अभिनवरीत्या जुहोत्यर्थफले बनिहसंयोग वन्हिभेदावच्छिन्नसमवायावच्छिन्नाधेयत्वीयस्वरूपसं मर्गेण भुज्यर्थे पिबत्यर्थे च फले कण्ठभेदावच्छिन्नसमवायावच्छिन्नाधे यत्त्वीयस्वरूपसं सगेंगा हन्त्यर्थ फले प्राणभेदावच्छिन्नसमवायावच्छिन्नाधेयत्वीयस्वरूपसंसर्गेण हितीयार्थाधेयत्वस्यान्वयोपगमात् । तत्तत्संसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताका बन्धाधेयत्वस्याभावो जुहोत्यर्थफले निराबाध इति निषेधप्रतीत्युपपत्तः दशितसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य कण्ठाधेयत्वाभावस्थ भुज्यर्थे पिबत्यर्थे च फले सत्वात् दर्शितसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य प्राणाधेियत्वाभावस्य हन्त्यर्थफले सत्वान्निषेधप्रतीत्युपपत्तेः । एवं दर्शितसंसर्गे श्राधेत्वस्थानेऽधिकरणत्वं निवेश्यं कर्माख्यातर्थाधिकरणात्वस्य फलान्वितस्य तेन संसर्गेण प्रथमान्तार्थेऽन्वयोपगमात् तत्संसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकः फवान्वितस्याधिकरगणत्वस्याभावो ना प्रथमान्तार्थ बोध्यत इति निषेधप्रतीत्युपपत्तिरित्यादिकं सुधीभिः स्वयमूहनीयमिति धातो: फलव्यापारोभयवाचितावादिनां मतनिष्कर्षः। प्राञ्चस्तु धातोर्व्यापार एवार्थः फलं हितीयार्थः कर्माख्यातस्यापि फलमर्थः एवं द्वितीयाकर्माख्यातयोः पर्या
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द्वितीयाविभक्तिविचारः । यताऽपि स्पष्टा अनभिहिते इत्यनेन फलानभिधानस्यैव हितोयाप्रयोजकत्वमावेद्यते सकर्मकत्वं तु पूर्ववत् हितीयासाकाश्त्वमेव तत्र द्वितीयाऽऽकामाप्रयोजको धर्मः गमित्यजिपच्यादीनां फलान्वितव्यापारानादितात्पर्यकत्वं तहिरहादेव व्यापारमानार्थकानां स्यन्दियतिप्रभुतीनां न द्वितीयाऽऽकाला अतो ग्रामं स्यन्दते सुखं यतत इति न प्रयोगः शौङादेरधिपूर्वकत्वं वसञ्चोपादिपूर्वकत्वं तथा । तत्त्राधिकरणत्वमाधेयत्वं वा हितोयार्थः पूर्वोक्ताकर्मकत्वेन व्यबङ्गियमाणानां णिजन्तत्वं तथा तत्राणिजन्तधात्वर्थकट त्वं हितीयार्थः गतिबुध्यशनार्थकानां शब्दकर्मकाणां च णिजन्तानां च फलमणिजन्तधात्त्रर्थकर्तत्वं च हितीयार्थ: अधिकरणविशेषितफल विशिष्टव्यापारवाचकाः शन्दायत्यादयः फलसमानाधिकरणव्यापारवाचका रमत्यादयश्चानापि मते तथैव तत्र फलस्य धातुनोतत्वादुतार्थानामप्रयोग इति न्यायान्न फलार्थ कहितीयाप्रसङ्गः । नन गमित्यज्योर्व्यापारमात्रार्थ - कत्वे पर्यायत्वं स्यात् न च तदर्थार्थकत्वं तत्पर्यायत्वं स्वार्थ व्यापारार्थकत्वं त्यजिगम्योः परस्परं तदिष्टमेति वाच्यम् । तथा सति त्यागे वक्तव्ये गमनमिति गमने वक्तव्ये त्याग इति च प्रयोगप्रसङ्गादिति चेन्न । गमेः संयोगावितव्यापारानादितात्पर्यकत्वात् त्यजेविभागावितव्यापारानादितात्पर्यकत्वात्तथाप्रयोगप्रसङ्गविरहात् । न चैवं त्यजिगम्योस्तथातात्पर्यावधारणे त्यजतिगच्छतीत्यादौ त्यजनं गमनमित्यादौ च धातोवळपारमानबोधने तात्पर्यविरहेण कम्प्रत्ययाभावेन फलवो
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
१०१ धासम्भवान्मुकत्वं स्यादिति वाच्यम् । कर्मप्रत्ययासमभिववाहारस्थले निरूढलक्ष गाया विभागावच्छिन्नस्य त्यजिना संयोगावच्छिन्नस्य गमिना वयापारस्य बोधनसम्भवात् एवं चैत्रस्तण्डलं पचतीत्यत्र विक्लित्तिद्धितीयाथः । तत्र तत्तत्संसर्गावच्छिन्नाधेयत्वेन संबन्धेन प्रकृत्यर्थ स्य तण्डुलादेरन्वयः एकतण्डुलाधेयविक्लित्यनुकूलव्यापारानुकूल यत्नवानेकचैत्र इत्य न्वयबोधः । एवं ग्रामं गच्छतौल्यत्र संयोगो हितीयार्थः ग्रामं त्यजतीत्यत्र विभागो हितौयार्थ: । एवमन्यत्रापि फलं हितीयार्थीबोध्यः तत्र हितोयार्थस्य संयोगस्य व्यापारेऽन्वये गम्यादिममभिव्याहारस्य तथा विभागस्य व्यापारीन्वये त्यजादिसमभिव्याहारस्य च हेतुत्वात् ग्राम स्यन्दते इत्यादौ हितौयार्थसंयोगविभागयोः स्यन्देनान्वय इत्याहुः । अत्र हितौयार्थे व्यासज्यत्तिसंयोगविभागादिके फले व्यापारवझेदावच्छिन्नसमवायावच्छिन्नाधयत्वसम्बन्धेन प्रकृत्यर्थस्यान्वयः तेन चैत्रश्चैत्रं गच्छतीत्यत्व न शाब्दबोधः । दर्शितसम्ब. न्धेन फले संयोगादौ चैत्रस्यान्वयायोग्यत्वात् चैत्री ग्रामंगच्छति न तु स्वं न वा मनुष्यमित्यत्र दर्शितसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकः खस्य मनुष्यस्य वाभावो नजा फले संयोग बोध्यते अस्मिन्मते प्रकृत्यर्थाभावः प्रत्ययार्थे नजा बोध्यते । एवं तण्डुलं पति न तु गगनमित्यत्र निषेधप्रतीतेरन्यथाऽनुपपत्तेः ग्रामो गम्यते त्यज्यते इत्यादौ कख्यिाते दर्शितसंसर्गे श्राधयत्वस्थानेऽधिकरणत्वं योजनौयं तेन संसर्गेण कर्माख्यतार्थस्य फलस्य संयोगविभागादेः ग्रामादौ प्रथमान्तार्थेऽन्वयः तेन चैत्रश्च त्रेण
આ પુસ્તક શ્રી જૈન મુની
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द्वितीया विभक्तिविचारः ।
गम्यते इत्यत्र न शाब्दबोधः चैत्रेण ग्रामो गम्यते न तु स्वात्मा न वा मनुष्य इत्यादौ तत्संसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताक स्तिङर्थ संयोगस्याभाव: स्वात्मनि मनुष्ये च नञा बोध्यते इति निषेधप्रतौत्युपपत्तिः घृतं जुहोति न तु बन्हिमोदनं भुङ्क्ते न तु कण्ठं शत्रुं हन्ति न तु प्राणमित्यादौ यवा यन्ते न तु वहिरोदनोभु ज्यते न तु कष्ट: शत्रुर्हन्यते न तु प्राण इत्यादौ हितीयाकर्माख्यातयोहि संयोगः पार्थिवद्रव्य प्रतियोग ककण्ठसंयोगः प्राणःत्यन्तविभागः फलमर्यः तत्र द्वितीयार्थे वन्हिभेदेन कण्ठभे देन प्राणभेदेनावच्छिन्न समवाया च्छिन्नाधेयत्वेन सम्बन्वेन प्रकृत्यर्थस्य यथाक्रममन्वयः तत्तत्संमर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताको वाद्यभावो वह्निसंयोगादौ नञाबोध्यते कमीख्यातार्थस्य वह्निभेदाद्यवच्छिन्नसमवायावच्छिन्नाधिकरणत्वेन सम्वन्धेन प्रथमान्तार्थेऽन्वयः तत्संसर्गावच्छिन्न प्रतियोगिताकः कर्माखातार्थस्याभाव: प्रथमान्तार्थे नञा बोध्यते इत्यादिकं सुधीभिरुहनीयमिति । यदा तु धातुना फलमेवामिधीयते तदोक्तार्थानामितिन्यायाद द्वितीया न भवति कर्मस्यभावको धातुर्भवति तव तिङा फलान्वितमाश्रयत्वयभिधीयते फलाविताश्रयत्ववतः कर्मण: कर्तृत्वमेव तत्र निर्वर्त्यविकार्ययोः कर्मणोः कर्तृत्वे कर्मवह्नावशे यथा चोदनः पच्यते स्वयमेव वंशश्विद्यते स्वयमेवेत्यादौ प्राप्य कर्मणः कर्टत्वे तु न कर्मवद्भावो यथा ग्रामो गच्छतीत्यादो अधिकमुपरिष्टाद्यतोभविष्यतीति प्राचीनमतमप्यनवद्यमिति । श्रारव्या तार्थ भावनायां प्रधानीभूतायामेवका.
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विभक्त्यर्थनिर्णये। रकाणामन्ययो न तु धात्वर्थे धात्वर्थस्यापि कारकतया भावनायामेवान्वयात् कारकाणां पगर्थतया परस्परमन्वयायोगात् गुणानां च परार्थत्वादसम्बन्धः समत्वादित्युक्तत्वात्कारकं तु कर्मत्वकट त्वादिकमखण्डपदार्थ: अत एवाध्वयं यजमानयोः संयमनभावनाकर्म वं दम्पन्योराधानभावनाकर्ट त्वं च व्यासक्तमित्युपपद्यत इति भाडाः । नन्वाखघातस्य फलव्यापारोभयवाचित्वाभावादाखातार्थ भावनायां सकर्मकत्वमनुपपन्नमिति कथं तव कर्मकारकान्वय इति चेन्न । यतो विवरणेनाखातस्य फलव्यापारोभयवाचित्वमवधार्यते पचंतीत्यत्र पाकं करोत्युत्पादयति जनयति वेति उत्पत्यनुकूलव्यापारार्थ केन करोत्यादिना तिको विवरणनाखवातस्योत्यत्यनुकूलव्यापारवाचित्वावगमात् उत्पत्यनुकूलव्यापार एव भावनाशब्दार्थ : तत्रानुकूलत्वं सम्बन्धविधया तिजन्यबोध भासते उत्पत्तिव्यापारौ तिङोऽर्थ : एकपदोपात्तयोरपि धात्वर्थयोः फलव्यापारयोरिव तिर्थ वोरप्युत्पत्तिव्यापारयोः परस्पराम्बयो निराबाध एव तत्र तिर्थ भावनाफलोत्पत्यन्वितं कर्म विधा क्वचिदात्त्रय: कचित्प्रातिपदिकार्थः धात्वर्थो यथा पचतोत्यादौ तिर्थ भावनाफलोत्पत्तावाधाराव्यभावसंसर्गेण धात्वर्थः पाकादिरग्वेति अत एव पचती
स्य पाकं करोतीतिविवरणे पाकपदाल्क मानवादिका द्वितीया । प्रातिपदिकार्थो यथा ओदनं पचतौत्यादी हितीयार्थ ओदनान्वितमाधेयत्वं तिङ भावना फलोत्पत्तावन्वेति ओदनार्थी पचतीत्यादावोदनस्याधेयत्व
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
संसर्गेण भावनाफलोत्पत्तावन्मयः यच प्रातिपदिकार्थेनान्वितस्य कर्मतासंसर्गेण तस्यैव वा भावनायामन्वयस्तव धात्वर्थस्य करणतयाऽन्वयः अत एव तादृशस्थले पाकेनौदनं भावयतौति विवरणे पाकपदात्करणत्वानुवादिका तृतीया एवं यत्र नित्यस्थले फलं न भावत्वा
योग्यं तव नित्यतया प्राप्तकर्तवाताको धात्वर्थ एव भावप्रतया भावनाकर्म । तत्र धात्वर्थविशेषणवाचिपदाद्दितीया भवति यथाऽग्निहोत्रं जुहोतीत्यादौ कर्मनामधेयाग्निहोत्रपदात् द्वितीया नीलं घटमानयतीत्यत्वानयनकर्मषटविशेषणनीलपदादिवोपपद्यते यत्र तु तिङर्थ भावनाया स्वर्गादिभाव्यं विना निष्फलतया तिर्थ - प्रवर्तनाया नान्वयः काम्यस्थले धात्वर्यस्य कष्टतया भावात्वायोगात् तत्र स्वर्गादिभावानान्वितायां भावनायां प्रवर्तनाऽन्वयः यथा स्वर्गकामो यजेत विश्वजिता यजेतेत्यादौ स्वर्गकामशब्दोपात्तेनाचिप्तेन वा स्वर्गेण माबान सकर्मिकायां भावनायां तत्र धात्वर्थस्य न कर्म - तयाऽन्वयः एककर्माविकडे कर्मान्तरस्यानाकाङ्क्षितत्वात् किं तु करणतया अत एव यजेतेत्यस्य यागेन स्वर्गं भावयेदिति विवरणम् एवं सति यागकरणिकायाः स्वर्गोत्पतेरनुकूलो वापारः प्रवर्तनागोचर इति वाक्यार्थबोध: तत्र प्रवर्तना शब्दधर्मः स च समवेतोऽतिरिक्तपदार्थ: प्रवृत्तितात्पर्य त्वं वेत्यन्यदेतत् । अत एव करणतयाऽन्वि तस्य यागस्य विशेषणवाचिपदात्त तौया यथा ज्योति - ष्टोमेन यजेत वाजपेयेन यजेतेत्यादी कर्मनामधेयात् ज्योतिष्टोमपदाद्दाजपेयपदाच्च तृतौया कुटिलेन दण्डेन
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Raw विभत्त्यर्थनिर्णये । गां कालयेत्यत्र कालनकरणदण्डविशेषणकुटिलपदादिवोपपद्यते । नन्वेवं गोदोहेन प्रणयेत्यशुकामस्य दनेन्द्रियकामस्य सुजयादित्यादी प्रणयनहवनादेर्धात्वर्थस्य कथं भावनायामन्वयः न तावत्करणतया गोदोहदध्यादिना करणेनावरुद्धायां भावनायां करणान्तराकानाविरहात् । नापि कर्मतया पखिन्द्रियादिना भाव्येन कर्मतयाऽवरुद्धायां कर्मान्तराकाहाविरहात् करणलकमत्वान्यसंसर्गेण धात्वर्थस्य भावनायामन्वयायोगोदिति चेत् दर्शितस्थलेऽनन्वित एव धात्वर्थः किं तु प्रकरणवशादुपस्थितस्यार्थस्यानुवादको धातुः केवलस्य प्रत्ययस्यासाधुतथाऽऽख्यातप्रयोगप्रयोजनकतयोपयुज्यते न तु तदर्थो वाक्यार्थे निविशते अत एव दर्शितस्थले प्रणयतिरनर्थक इति तेषां प्रवादस्मङ्गच्छते । अथैवं सोमेन यजेतेत्यादौ धात्वर्थस्य भावनायामन्वयो दुर्घट: सोमेन करणेनावरुद्धायां करणतयाऽन्वयायोगात् प्रवर्तनाऽन्वयानुरोधात् खगेंण भाव्येन कर्मतयाऽवरुद्धायां कर्मतयाऽप्यन्वयायोगादिति चेन्न । धात्वर्थस्य यागस्य करणतयाऽन्वयात् सोमादिशब्दस्य मत्वर्थलक्षणाऽभ्युपगमेन सोमवदर्थकतया करणीभूतथागविशेषणवाचित्वात्ततस्तुतीयोपपत्तेः । न च किमर्थं सोमादिशब्दे लक्ष्णाऽनन्वित एव धात्वर्थयागोऽस्त्विति वाच्यम् । तथा सति यागस्य परंपरयाऽपि प्रवर्तनागोचरत्वविरहात्तत्र प्रत्त्यनुपपत्तेः । नन्वेवं बौहौनवहन्तौल्यादौ व्रौद्यादीनां सिद्धत्वाहावनाफलोत्पत्तावन्वयायोगात्कथं ब्रौद्यादौनां कर्मत्वमिति कथं वा बौद्यादिपदाद् द्वितीयेति चेत्संस्कार्यत्वमेव ब्री
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१०६ द्वितीयाविभक्तिविचारः। ह्यादौनां कर्मत्वं संस्कारद्वारा वहननकरणकभावनाफलोत्पत्तावन्वयः एवमवहननेन ब्रीहीन भावयेदित्यर्थः । न चैवं मक्तून् जुहोतीत्यादौ सक्तनां सिद्धत्वाद्भूतभाव्युपयोगविरहेण संस्कार्यत्वाभावाच्च कर्मत्वविरहात्मनुपदाद्वितीयाऽनुपपत्तिरिति वाच्यम् । करणार्थकतया हितोयोपपत्तेः । होमस्य भाव्यतया सक्तकरणकत्वस्य भावनायामन्वयात् । एवं सक्तुभिौमं भावयेदित्यर्थः । होमस्य भाव्यत्वं फलान्तरसाधनतया पचतीत्यादी पाकस्येव । तदुक्तं भषादैः ।
भूतभाव्युपयोगं हि संस्कार्य द्रव्यमिष्यते । सक्तवो नोपयोक्ष्यन्ते नोपयुक्ताश्च ते क्वचित् ॥ प्राधान्यमेव तत्रापि हितीया वदति खतः । " विरोधात्तेन सम्बन्धी गुणाभावस्तु लच्यते ॥
अस्थार्थः । भूतोपयोगस्य संस्कार्यतया भाव्यत्वं यथा वहिर्जु होतीत्यादौ परिस्तरणोपयुक्तानां वहिषां संस्कायंतयों भाव्यत्वम् एवं होमेन बहिर्भावयेदित्यर्थः । भाव्युपयोगस्य संस्कार्यतया भाव्यत्वं यथा बौहीनवहन्तीत्यादी भाविपुरोडाशाहुपयोगवतां ब्रोहीणां संस्कार्यतया भाव्यत्वमित्युक्त सक्तूंना तु भूतभाव्युपयोगविरहात्संस्कार्यतया भाव्यत्वं न सम्भवति तथाभाव्यत्त्वमङ्गानामेव मवति तथाभाव्यत्वविरहेऽङ्गत्त्वविरहात्मक्तूनां प्राधान्य प्रधानतया भाव्यत्वं हितोया बदति तच्च न सम्भवति वतो विरोधात्सिद्धानां सतनां भाव्यत्वविरोधात्तेन सन्धी करणादिलक्ष्यते स गुणाभावः भूतभाव्युपयोगन्य इत्यर्थः । एवमग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम इत्यादौ
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
१०७ स्वर्गभाव्यकत्वावरुदायां करणतयाऽन्वितस्य होमस्य विशेषणीभूतनामधेयाग्निहोत्रपदाद्वितीया करणानुवादिका , ननु करणमध्यस्तु द्वितीयाऽर्थः तथाऽपि हितोयाया आधेयत्वमेव मुख्यार्थः एवं टतीयाया: करणत्वं कर्टत्वं चार्यः किमर्थमतिरिक्ताखण्डकर्मत्वकर्ट त्वकल्पनमिति चद्भवतु द्वितीयार्थः आधेयत्वं तथापि कर्मत्वमखण्डमेव संस्कायें वोही भाव्य च कर्मानुगतबुध्यो कमंपदव्यवहारेण चाखण्डकर्मत्वसिद्धिः साधारणधर्म विना ऽनुगतबुद्धिव्यवहारयोरभावात्संस्कार्यभाव्ययोरतिरिक्तकम त्वं विनाऽनुगत कम त्वस्याभावादित्यतिरिक्ताखण्डकम त्वसिद्धिः " अत एवाध्वयु यजमानौ वाचं संयच्छत" इत्यादौ वाचो भाव्यत्वसंस्कारार्थत्वयोरनुपपत्तिः संयमकरण कभावनया भाव्यत्वासम्भवात्संयमस्य संस्कारकत्वासम्भवेन संस्कार्यत्वासम्भवात् वाचमित्यत्र सबन्धित्वं संबन्धी वा हितीयाऽर्थः तथा च वाक्संबन्धिसंयमस्य भाव्यतया भावनाऽन्वयात्कर्मत्वम् इत्यं च वासंयमनभावनाश्रयतया कर्ट त्वेऽपि वाक्संयमेन संस्कार्यतया कमत्वमध्वर्युयजमानयोरुपपद्यते । एवं चौमे वसानावग्नीनादधौतामित्यादावाधानभावनाथयतया पत्युरेव कर्ट त्वेऽपि पत्न्या अध्याधानकर्टत्वं तदप्यतिरिक्तकर्ट त्वं विना नोपपद्यत इत्यतिरिक्त कट लसिद्धिः । एवमतिरिक्त कर्मत्वमध्वयं यजमानयोक्सक्तमतिरिक्तकर्तृत्वं च दम्पत्योामक्तमिति एवं कारकान्तरमष्यामिति भाट्टमतविवेकः ।' तदत्र तिङर्थभावनाफलोत्पत्त्यन्वितस्याधेयत्वस्य हि
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१०८ द्वितीयाविभक्तिविचारः। तौयार्थत्वे प्रोदनं पचतौतिवत् खगें यजेतेत्यादिप्रयोगप्रसङ्गः तण्डुलं, पचति ग्रामं गच्छतोत्यादौ तण्डुलग्रामयोर्भाव्यत्वविरहेण तण्डुलग्रामपदाभ्यां हितीयाऽनुपपत्तिश्च न चात्र सम्बन्धः सम्बन्धधौर्वा द्वितीयाऽर्थः तथा च तण्डुलसम्बन्धिपाकग्रामसम्बन्धिगमनयोरेवान प्रतीतिरिति वाच्यम् । तथाऽपि ग्रामो गमिकर्मेति प्रतौतिव्यवहारयोरनुपपत्तः । भाव्यत्वतंस्कार्यत्वाभ्यां विना तदभिव्यङ्ग्यस्यातिरिक्तकर्मत्वस्याप्यभावेन कर्मत्वप्रतीतिव्यवहारयोरुपपत्त्यसंभवादिकं चिन्तनीयमिति । एवं पचति चैत्रो गच्छति मैत्र इत्यादौ प्रथमान्तार्थप्रधानकशाब्दबोध उपपत्तिसिद्धः । ननु प्रथमान्तार्थप्राधान्यं न युज्यते तथा सति पश्य मृगो धा-। वतीत्यत्र मृगस्य धावनक्रियां प्रति प्राधान्ये तस्य हशिक्रियायां कर्मतयाऽन्वयोपगमें मुगपदाद द्वितीया स्यात् मुगपदस्य प्रातिपदिकत्वाद् द्वितीयाप्रसती शटशानजापल्या दर्शितप्रयोग एव वा न स्यात् मृगस्थ प्राधान्ये गुणीभूतधावनक्रियाया दृशिक्रियायां कर्मतया:न्वयो न सम्भवति एकत्र वाक्याथै प्रधानस्यापरवोक्यार्थे विशेषणतयाऽन्वयादर्शनात् । न च दृशिक्रियायां न मगस्य न वा धावनस्यान्वय इति वाच्यम् । तथा सति पश्य धावति मृग इत्यादौ महाभाष्याभ्युपेतस्यैकवाक्यत्वस्यानुपपत्तिप्रसङ्गात् ।तथा हि "तिकृतिङ"इति सूचं तिङन्तभिन्नपरतिङन्ते निघातखरं विदधाति तत् पश्य धावति मग इत्यादौ धावतिपदे निघातवारणमतिङ इतिपदस्य प्रयोजनं महाभाष्येणोक्तम् ।
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विभक्त्यर्थनिर्णये। तच्च पश्यधावतिपदयोरेकवाक्यताविरहे न सम्भवति प. दविधेनिघातस्य सामाश्रितत्वात् "समर्थः पदविधिरि"ति व्यवस्थापनात् एकवाक्यतास्वरूपसामर्थ्य बिरहादेव धावतिपदे निघाताप्रसक्तरित्यतिङ इति पदस्य महाभाष्योक्तप्रयोजनोपपत्तये पश्य धावति मृग इत्यादावेकवाक्यत्वमावश्यक तरच प्रथमान्तार्थस्य मृगस्य प्राधान्ये न सम्भवतीत्युक्तं धावनक्रियायाः प्राधान्ये तु तस्यादृशिक्रियायां कर्मतयाऽन्वयोपपत्रधातुरिति पर्यु दासाद्वात्तरं द्वितीयाप्रसक्तिविरहात् दर्शितस्थले एकवाकात्वं निष्पत्यूहमिति । एवं पचन्तिकल्पं चैत्रमैत्रयजदत्ता इत्यादी प्रथमान्तार्थस्य कत: प्राधान्ये तस्य लिङ्गसंख्याऽन्वयायोग्यत्वादाचाय कल्पा बिना इतिवत् पचन्तिकल्पास्ते इति प्रयोगप्रसङ्गः क्रियायाः प्राधान्ये तु तस्या लिङ्गसंख्यावयाथोग्यत्वात्साधुत्वार्थ क्लीवैकवचनमिति न तथाप्रयोगः । एवं भावप्रधानमाख्यातमिति निरुतमपि भावस्य क्रियायाः प्राधान्यमादिशतीति तिङन्तस्थले क्रियाप्रधानक एव शाब्दबोध इति शाब्दिकमतमेवय क्तमिति चेत् । उच्यते । पश्य धावति मग इत्यादौ धावनकर्ट मगस्य बाक्यार्थस्य कर्मतया दृशिक्रियायामन्वयोपगमादेकवाक्यत्वमुपपद्यते वाक्यस्य - त्याऽर्थवत्वाभावात्यातिपदिकसंज्ञाविरहेण ततो द्वितीकाप्रसत्यभावात् अत एव "देवाकर्णयसंग्रामे चापनासादिता: शरा" इत्यादौ चापकर्ट कासादनकर्मणां कर्मतयाऽऽकर्णनक्रियायामन्वयेऽपि न द्वितीया एवं “पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकः परमधार्मिक" इत्यादौ पम्यावृत्ति
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११० द्वितीयाविभक्तिविचारः। धार्मिकवकम्य कर्मतया दुशिक्रियायामन्वयऽपि न द्वितीया कालय परिप्लवन्ते गाव इत्यादौ परिप्लवनकर्टगवां कर्मतया कालनेन्वियेऽपि न द्वितीया दर्शि तस्थलेष्वेकवाक्यत्वं तु स्फुटमेव अतः प्रथमान्तार्थस्य प्रधानतायां नैकवाक्यताहानिरिति । यदपि पचन्तिकल्पमित्यादौ कल्पबुत्तरं बहुवचनापत्तिरित्युक्तं तदपि न सुन्दरम् । कल्पबन्तार्थस्य नामाथसामानाधिकरण्ये हि समानलिङ्गवचनत्वं तन्वं प्रकृते तु न्यायमते कल्पवन्तार्थस्य सामानाधिकरण्यविरहात्माधुत्वार्थमेकवचनमेव यु क्तम् । प्रत्यु त कतु राख्यातार्थवादिनां शाब्दिकानां कल्पबन्तार्थस्य प्रथमा न्तार्थे सामानाधिकरण्येनान्वयात् बृहस्पतिकल्पाः पण्डिता इतिवत् पचन्तिकल्पास्ते इति प्रयोगप्रसङ्गः । यत्तु भावप्रधानमाख्यातमिति निरुक्तं तदप्याख्यातार्थेषु संख्याकालभावनासु भावो भावना धात्वथं प्रति प्रधानमित्य तदर्थकमन्यथा नामोऽपि व्यक्तिस्वरूपसत्वप्रधानकशाब्दबोधार्थकताया भावप्रधानमाख्यातं सत्वप्रधानानि नामानौति निरुतेनैव प्रतिपादनादेकतर परिच्छेदस्य कतु मशक्यत्वादिति पदवायरत्नाकर गुरुचरणाः । वस्तुतस्तु पश्य धावति मग इत्यादौ प्रथमान्तार्थमृगविशेषणतिर्थकृतिविशेषणतया शाब्दविषयस्य धावनक्रियायाः कर्मतासंसर्गेण दृशिक्रियायां विशेषणतयाऽन्वयोपगमादप्येकवाक्यत्वं निर्वहति । न चैकत्र वाक्यार्थे प्रधानस्यपरवाक्याथै विशेषणतयाऽन्वय इति नियम इति वाच्यम् । पाचक एधोदकस्योपस्कुरुते इत्यादौ कृ.
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विभत्त्यर्थनिर्णये। दन्तार्थे विशेषणतयाऽन्वितस्य पाकस्य गुणाधानरूपीपस्कार विशेषणतयाऽन्वयदर्शनात् पर्वतो वन्हिमान् धमादित्यादौ प्रतिज्ञाऽर्थे विशेषणताऽन्वितस्य साध्यवन्हे—मादित्यन्तहेत्वथें धूमज्ञाप्यत्वे विशेष्यतयाऽन्वयदर्शनेन वाक्यार्थ विशेषणस्यापरवाक्यार्थे विशेष्यतयेव विशेषणतयाऽप्यन्वये वाधकाभावात् विशेष्यविशेषणभावेनान्वय व्य त्यत्तिवैचिचस्य तन्त्रत्वात् । किं च योरेकमिति न्याय न शाब्दोपगमे तु स्फुटमेकवाक्यत्वं सम्भवति मृग विशेषणतिर्थकृती दृश्यर्थे दर्शने धावने क्रियाया एकदैकविशेषणत्वोपगमात् धावनक्रियायाः कर्ता मगो द्रष्टा त्वमित्याकारकशाब्दसम्भवादिति । ननु प्रथमान्तार्थस्य प्रधानतया निर्दोषत्वेऽपि प्रथमान्तार्थः प्रधान क्रिया वा प्रधानमित्यव विनिगमकाभाव इति चेन्न । चैत्रः पोत्यादौ प्रथमान्तार्थचैत्रादिप्राधान्यस्य लप्तत्वाचैत्रः पचतीत्यादौ प्रथमान्तार्थचैत्रादिप्राधान्यस्योचितत्वात् । न च पचतीत्यादौ प्रथमान्तासमभिव्याहते क्रियायाः प्राधान्यं कृतमिति चैत्रः पचतीत्यादावपि क्रियायाः प्राधान्यमुचितमिति वाच्यम् । पचतीत्यादावपि तिर्थयत्नस्यैव प्राधान्यात् क्रियायाः प्राधान्य विरहात् । किं च धात्वर्थमुख्यविशेष्यकशाब्दबोधीप्रगमे पचन्पचतौति प्रयोगप्रसङ्गः विद्यमानपाकक कर्ट को विद्यमानपाक इत्यन्वयबोधस्य निरपवादत्वात् । न च पचन्नित्यनेन विद्यमानपाकक रवगमादवगतार्थस्य पुनः कथं शाब्दबोध इति वाच्यम् , विशेष्यविशेषणभावव्यत्यासेनावगतार्थस्यापि पुनः शोब्दवोधोदयात् ज्ञान
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११२ द्वितीयाविभक्तिविचारः । वतां ज्ञानमित्यादौ ज्ञानसंबन्धिसंवन्धवज्ञानमित्यग्ययबोधदर्शनात् , प्रथमान्तार्थमुख्यविशेष्यकशाब्दबोधोपगमे तु नेदृश: प्रयोग: सम्भवति उद्देश्यतावच्छेदकविधेययोरैक्येन घट घट इतिवन्निराकाङ्गत्वादिति , अपि च पाचको न पचतीत्यादौ धात्वर्थमुख्यविशेष्यक: शाब्दबोध: कथमपि न मम्भवति यदि नजो भेदोऽर्थस्तत्वप्रतियोगितया पाचकस्यान्वयस्तदा पाचकभेदस्य ति
र्थकतर्यन्वये तादृशकतु: पाकेन्वयो न सम्भवत्ययोग्यत्वात्याचकान्यकर्ट को विद्यमानपाक इत्यन्वयबोधासम्भवात पाकस्य पाचककट कवनियमात् । यदि च नजोऽत्यन्ताभावोऽर्थः तत्र पाचकविशेषितस्य तिर्थकतः । प्रतियोगितयाऽन्वयस्त दाऽपि तस्य पाके नान्वयोऽयोग्यत्वात् पाचकाभिन्नकभाववान् विद्यमानपाक इत्यरवयबोधासम्भवात् कर्ट विनाकृतायाः क्रियायाः कदाऽप्यसत्वात् । न च नञर्थात्यन्ताभावे पाचकाभिन्न कराधारतयाऽन्वयस्तचैवाभावे लडर्थवर्तमानत्वान्वयः सोऽत्यन्ताभावः प्रतियोगितासंवन्धेन पाके विशेषणतयाऽन्वति तथा च पाचकाभिन्नकट त्तिविद्यमानात्यन्ताभावप्रतियोगी पाक इत्यन्वयबोधसम्भवान्न शाब्दबोधस्य धात्वर्थमुख्यविशेष्यकत्वहोनिरिति वाच्यम् । लडर्थवर्तमानत्वस्य नञर्थान्वये व्युत्पत्तिविरहात् विद्यमानपाके तादृशाभावप्रतियोगित्वासम्भवात् दर्शितान्वयबोधस्याप्यसम्भवात् नअमावस्य प्रतियोगिनि विशेषणभावेनान्वयस्थाव्य त्यत्तेश्च तथा सति पाकेन रक्ततादशायां घटे रक्तो नेति प्रतीतिव्यवहारापत्तेः । घटत्त्यत्यन्ताभावप्र
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विभक्त्यर्थनिर्णये
तियोगित्वस्य रक्ते निराबाधत्वात् अभावाव्याप्यवृत्तित्वस्यावश्यकत्वे प्रतियोगित्वस्याव्याप्यवृत्तित्वानभ्यपगमादित्यस्यान्यत्र विस्तरात् । वस्तुतस्तु नञर्थस्य प्रतियोगिनि विशेषणभावेनान्वयोपगमेऽपि न सर्वव शाब्दबोधस्य धात्वर्थ मुख्य विशेष्यकत्वं सम्भवति जलं गगनं वा न पचतीत्यादी जलादिकर्म कपाका प्रसिद्ध पाकच्यत्यन्ताभावस्य जलादिकर्मत्वे प्रतियोगिनि विशेषणभावेनान्वयोपगमे दर्शितस्थले जलकर्मत्वं पाकटयत्यन्ताभाववदिति शाब्दबोधोपगमे शाब्दबोधस्य जलकर्मत्वमुख्यविशेष्यकतया धात्वर्थपाक मुख्य विशेष्य कत्वहाने: स्फुटत्वात् प्रथमान्तार्थ मुख्य विशेष्यकशाब्दबोधोपगमे तु पाचको न पचतोत्यादौ नञर्थात्यन्ताभावे विद्यमानपाका दिकृतेस्तिङन्तार्थस्य प्रतियोग्य नुयोगिभावसम्बन्धेनान्वयस्ताह शात्यन्ताभावस्य विशेषणतया प्रथमान्तार्थे पाचकादावन्यस्तथा च विद्यमानपाककृत्यत्यन्ताभाववान्पाचक इत्यन्वयबोधो निष्प्रत्यूहः पाचकशब्दायें पाककृ तिमति विशिष्टपाककृत्यत्यन्ताभावस्यान्वयबोधे बाधकाभावात् दण्डिमान् रक्तदण्डवदभाववानितिवत् । एतेन भावनाप्रधानकः शाब्दबोध इत्यपि निरस्तम् । न पचतीत्यादावनुपपत्तेः न चात्र तिर्थभावनाया पाकाभावः प्रतीयत इति वाच्यम् । भावना सामान्यशून्ये सुप्तादौ नायं पचतीत्यादिप्रयोगानुपपत्तेः भावनाया विरहात्तत्र पाकाभावप्रतौत्यनुपपत्तेः मृतो न घचतोत्यत्र मृते भावनासामान्यस्य विरहात्तव पाकाभावप्रतीतेः कथमप्युपपत्त्यसम्भवादित्या दिकं सुधीभिः ख
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
यमूहनीयमिति । एवं सति पच्यते तण्डुल इत्यादी कर्माख्यातेऽपि प्रथमान्तार्थमुख्यविशेष्यक एव शाब्दबोधः फूत्कारादिव्योपारजन्यविक्लित्त्यधिकरणतावा नेकतण्डुल इत्याद्याकारकः सम्भवति । ननु व्यापारस्य विक्तिच्यादिफलविशेषणतया भानोपगमे फलत्वापत्तिः धात्वर्थविशेषणतया भासमानस्य धात्वर्थस्य फलत्वाभ्युपगमात् न च नेदं फलस्य लक्षणं किं तु धात्वर्थस्वरूपक्रियाजन्यत्वे सति धात्वर्थत्वं तथा सति व्यापारस्य विक्लित्त्यजन्यतया न फलत्वं किं तु विक्ति तेरेव तथात्वमिति वाच्यम् । क्रियाजन्यत्वस्य फललक्षणे विशेषयितुमशक्यत्वात् जानातीत्यादी विषयतादिफले ज्ञानाजन्येऽव्याव्यापत्तेः न च विषयता न धात्वर्थफलमिति तत्राव्याप्तिर्न दोषाय जानातेर्ज्ञानमात्रार्थकत्वात् श्रत एव घर्ट जानातीच्छति कुरुते चैत्रो मैत्रेण ज्ञायते इष्यते क्रियते घट इत्यादौ सविषयकार्थकधातुयोगे कर्मप्रत्ययेन यथायथं विषयत्वं विषयत्वं वा बोध्यते भाक्तस्तु जानात्यादेः सकर्मकत्वव्यवहार इत्याख्यावादे दीधितिकृतिरुक्तमिति बाच्यम् । फलव्यापारोभयं धात्वर्थमभ्युपगच्छतां नये द्वितीयार्थस्य फलान्वयनियमात्मविषयकार्थकधातुयोगे द्वितीयाऽनुपपत्तेः द्वितीयार्थस्य व्यापारान्वयोपगमे प्राचीनमतप्रवेशेन फलस्य द्वितीयार्थतापत्त्याधावताविरहप्रसङ्गात् । न च कर्माख्याते व्यापारस्य फलत्वमिष्टमिति वाच्यम् । व्यापारस्य फलत्वे तहतः कर्मत्वापत्त्या तहाचकपदाद् द्वितौयापत्तेः । तथा च चैत्रं पच्यते तण्डुल इत्यादिप्रयोगप्रसङ्ग इति चेत् ।
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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उच्यते । कर्माख्याते व्यापारस्य फलविशेषणतया भानेऽपि न फलत्वं भावाख्याते धात्वर्थविशेषणतया भासमानस्य धात्वर्थस्य सर्वाख्याते फलत्वात् दर्शितलक्षणस्य कर्माख्यातेऽपि व्यापारे विरहात् ईदृशफलवतः कर्मत्वात्तद्दाचकपदादेव द्वितीया भवतौति न दर्शितप्रयोगप्रसङ्गः । एवं सति फलस्य धातुना प्राधान्येन विवचायां फलवतः कर्मणः कर्ट वेsपि व्यापारवतो न कर्मत्वं व्यापारस्य निरुक्तफलत्वायोगात् अतो व्यापारवच्च वाद्यर्थकाच्चैवा. दिपदान्न द्वितौया तण्डुलः पश्यते स्वयमेवेत्यादी ककर्त्वाख्यातेन वा तण्डुलस्य फलवत्तया कर्मत्वेऽपि तण्डुलपदाद् हितीयार्थभेदस्या न्वयायोग्यत्वात् कर्माख्यात दूव कर्मकर्चाख्यातेऽधिकरणत्वस्याभिधानादनभिहित इति निषेधाच्च । ननु कर्मगतफलस्येव करणादिकारकगतव्यापाराणामपि धातुना प्राधान्येनाभिधान सम्भवा. त्करणादीनामपि कर्तृत्वं स्यादिति चेदिष्टमेव करणादोनां कर्तृत्वं साध्वसिछिनत्ति महिषमित्यादाववयवारम्भकसंयोग प्रतिद्वन्दौ विभागः फलं तदनुकूलव्यापारश्च छिनत्तेरर्थः स च व्यापारः खड्डादीनामभिघातादिखरूपः पुरुषादोनां खङ्गाद्युद्यमनादिस्वरूपः तव व्यापारफल यो जन्यजनकभावसंसर्गेणान्वयः फले तथाभूते विभागे factersर्थः सामानाधिकरण्यं सामानाधिकरण्यसंबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं वा महिषादिविशेषितमन्वेति न त्वव सामानाधिकरण्यानवच्छिन्नमाधेयत्वं द्वितीयार्थ: तथा सति हि तां छिनत्तौति प्रयोगो न स्यात् स्वाच्च दलद्दयं छिनत्तौति प्रयोगः खड्गादिगताभिघाता
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११६ द्वितीयाविभक्तिविचारः । देर्धातुनाऽभिधाने खड्गादिकरणानां कर्तत्वमेव एवं स्थालौ पचतोत्यादौ विक्लित्यनुकूलव्यापारस्य सन्तापनादेरधिकरणगतस्य धातुनाऽभिधाने स्थाल्यायधिकरणानां कर्तृत्वमेव एवं गिरिरपसरतीत्यादौ विमागस्तदनुकूलव्यापारश्चापसरतेरर्थः स च व्यापारः कर्माभिमुख्यादिस्तद्यक्तित्वादिस्वरूपोपादानगतो यदि विवक्षितस्तदाउपादानस्य कट त्वमेव विभागस्वरूपफलवत्तया पुरुषस्थ कर्मत्वमेवेति पुरुषमपसरति गिरिरित्यपि प्रमाणम् । यदि च स्वजन्यविभागवभिन्नदेशसंयोगानुकूलो व्यापारोऽपसरतेरर्थः स च व्यापारः पुरुषगत: स्पन्दादिर्यदि विवक्षितस्तदा पुरुषस्य कट त्वं क्रियाजन्यविभागवत्तयाऽवधितया वा गिरेरपादानत्वं सम्भवति यदि च कर्माभिमुखत्तिविभागः पर्वतादिगतो विवक्षितस्तदा गिरेः कर्ट त्वमवधितया पुरुषस्यापादानत्वं सम्भवति तेन गिरेः पुरुषोऽपसरति पुरुषागिरिरपसरतौति विविधोऽपि प्रयोगः प्रमाणं धात्वर्थान्तभुतकर्मकत्वाद्दर्शितार्थकोऽपसरतिरकर्मक इति नैतद्योगे हितौयादिकर्मप्रत्ययप्रयोगः । एवं विप्रो ददातीत्यादौ स्वत्वध्वंसस्य तद्दारा स्वत्वान्तरस्य वाऽनुकूलो व्यापारो ददातेरर्थः स च व्यापारोऽनुमत्यादिविप्रगतो यदि विवक्षितस्तदा विप्रस्य कट त्वमेवेति विवक्षावशात्सर्वस्य कारकस्य कर्टत्वमिति अत एव विवक्षात: कारकाणि भवन्तौति प्रवादः। न च प्रधानौभूतधात्वर्थव्यापारवत्वं कर्ट त्वं शाब्दिकस्य संमतं न तु लर्किकस्य तत्कथं न्यायमते दर्शितस्थलेषु कर्ट त्वोपपत्तिरिति वाच्यम् । प्रधानोभूतधा
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विभक्त्यर्थनिर्णये। त्वन्विततिर्थवत्वस्वरूपकर्ट त्वस्य तार्किकसंमतस्य दर्शितस्थलेष्वनपायात् । वस्तुतस्तु धातुना तिङा वा यस्य व्यापारी बोध्यते स कर्ता यथा वन्हिः पचतीत्यत्र करणगती_जलनस्वरूपव्यापारस्य धातुना बोधनाइन्हे: कर्ट त्वमेवं चक्षुः पश्यतीत्यत्र करणसंनिकर्षव्यापारस्य तिङा बोधनाच्चक्षुषः कर्ट त्वमेवं प्रधानौभूतधात्वर्थवत्वं प्रधानीभूतधात्वर्थान्विततिर्थवत्वं चोभयविधमपि कार्ट त्वं नैयायिकसेमतमेव अत एव "प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तो प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत्प्रमाणमि"त्युपक्रमे ऽर्थवति च प्रमाणे प्रमाता प्रमेयं प्रमितिरित्यर्थवन्ती"ति वाल्यायनभाष्यं तत्र प्रमाता स्वतन्तः किं पुनः स्वातन्त्र्यं कारकफलोपभोक्तत्वं यस्मात्कारकाणां फलेनायमभिसंबध्यते तत्समवायो वा इति वार्तिकम् । अत्र तात्पर्यटोकायां मिश्राः । कारकाभिधानसंनिधापितां क्रियां तदिति सर्वनाम्ना परामशति यस्य हि व्यापार प्राधान्येन धातुराख्यातप्रत्ययो वाऽभिधत्ते सः स्वतन्त्रः कर्ता तथा हि विक्लिद्यन्तीत्यत्र तण्डुलादयः कर्तारः पचन्तीत्यत्र देवदत्तादयः तत्कस्य हेतोरकन तण्डुलाापार उपात्तोऽन्यत्र देवदत्तादेरिति प्राहुः । ननु कर्मगतस्यार्थस्य धातुना प्राधान्येनाभिधाने कर्मणः कर्ट त्वं स्यात् तथा च ग्रामो गच्छति घटो जानातीति प्रयोगः स्यादिति चेत् इष्ट एवायं प्रयोगः कर्मस्थभावके धातौ कर्मणः कटत्वादत "एवाधिगच्छति शास्त्रार्थ : स्मरति श्रद्दधातिचे"त्यादयः प्रयोगाः अबाधिगमविषयत्वं स्मरणविषयत्वं श्रद्धाविषयत्वं व्यापारफलयोविशेष्यविशेषणभावव्यत्या
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
सेन धातुना प्रत्याय्यते प्राधान्यवशात्क्रियाभावं प्राप्तस्य फलस्याधिकरणतया भवति शास्त्रार्थोऽधिगमादिकर्तेति प्राञ्चः । नन्वेवमधिगमा देर्विषयताविशेषणतया भागमानत्वेन फलत्वं स्यात् धात्वर्थविशेषणतया भासमानस्य धात्वर्थस्य तथात्वीपगमात् तथा अधिगमाद्यात्मकफलवतः शिष्यादेः कर्मत्वापत्त्या शिष्यमधिगच्छति शास्त्रार्थ इत्यादिप्रयोगः स्यात् न च बुभुक्षितं न प्रति भाति किंचिदिति दर्शनादियमिष्टापत्तिरिति वाच्यम् । अत्र प्रतियोगे द्वितीयाया अकर्मणि साधुत्वात् यत्तु ।
एकदेशे समूहे वा व्यापाराणां पचादयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते तुल्यं रूपं समास्थिताः ||
इति वाक्यपदीयवाक्यस्य एकदेशे फलमात्रे समूहे व्यापारमा वा धातवः प्रवर्तन्ते तेन व्यापाराविवचायां फलमात्रे धातुप्रयोग: यथा पच्यते श्रोदनः स्वयमेव फलाविवक्षायां व्यापारमात्रे धातुप्रयोगः यथो पचति चैत्र इत्यादावित्यर्थं व्याकुर्वाणैरधिगच्छति शास्वार्थ इत्यादी विषयताखरूपं फलमात्रं धात्वर्थः तच्च प्रधानतया क्रिया भवति विशेषणो भूतधात्वर्यस्य फलस्याभावात् फलावाचकत्वादकर्मकः कर्मस्वभावको धातुरिति नैतद्योगे हितोयाप्रसङ्ग इति कैश्चिदुक्तम् । तन्न विचारसहम | विषतया स्वरूपफलमाचार्थकतया अधिगच्छतिस्मरतिश्रद्दधातीनां पर्यायताप्रसङ्गात् । यदपि स्मरति शास्त्रार्थ इत्यादी विषयतया फलमुडोधकारिणोयत्तिर्व्यापारश्च धात्वर्थः फलव्यापा योर्वैयधिकरण्याभावादकर्मकः कर्मस्यभावको
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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रिति नैतद्योगे द्वितीयाप्रसङ्ग इति शाब्दिकैरुक्तम् । तदपि न सुन्दरम् । तथा हि उद्घोषकादिस्तत्वेन स्मरणजनकत्वेन वा स्मृधातुना वाच्यः । नाद्यः । प्रकृते स्मरणावगमस्य सर्वजनसिद्धस्यापलापप्रसंगात् । न द्वितीयः । स्मरणजनक संस्कारादेः शिष्यादिगतत्वेनकर्मस्थभावकत्वाभावप्रसङ्गात् तस्मादधिगमादिविषयतयोर्विशेष्यविशेषणभावव्यत्यासेन धातुना प्रतिपाद्यत्वे, धिगच्छति शास्त्रार्थ इत्यादी द्वितीयाप्रस ङ्गो दुर्वार इति चेत् । अत्र गुरुचरणाः । अधिगच्छति शास्त्रार्थ इत्यादावधिगमविषयताया विशिष्टाया धातोर्लक्षणास्वरूपा वृत्तिः न तु विशेष्यविशे
भावव्यत्यासमात्रेण क्लृप्ताभ्यां खण्डशक्तिभ्यां निवहः खण्डशक्तिजनितपदार्थोपस्थितेः फलविशेषणकव्यापारविशेष्यकशाब्दबोधस्य प्रयोजिकायामधिगमिधातुत्वावच्छेदेन तादृशशाब्दबोधाभावप्रयोजको भूताभा वप्रतियोगित्वस्वरूपाकाङ्क्षा बुद्धावेव सहकारित्वाम्युपगमात् व्यापारविशेषण क फ ल विशेष्य कशाब्दीपयोगिव्युव्यत्यन्तरस्य तत्र खण्ड शक्तिजनित पदार्थोपस्थितेः सहकारित्वस्य च कल्पनमपेक्ष्य विशिष्टे वृत्तिरेव कल्पयितुमुचिता । तथा चाधिगमादिविषयतायां विशिष्टाय धावर्थे विशेषणीभूताधिगनादौ पदार्थैकदेशतया न हिatarsafer इति कर्मस्थभावकानां प्रायेणाकर्मकत्वमन्यत्र भावदेशकालाध्वभ्य इति पदवाक्यरत्नाकरे प्राहुः । तदिदं शाब्दिकमतमेव परिष्करोति न्यायमते तु कर्माख्याते व्यापारविशेषणक फलविशेष्यकशाब्दबोध
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१२० स्थाम्युपगमात्तादृशशाब्दबोधापयोगिव्यत्यत्यन्तरस्य तत्र खण्डशक्तिजनितपदार्थोपस्थिते: सहकारित्वस्य कल्पनमावश्यकमेव । न चावापि विशिष्टत्तिस्वीकारान्निहि इति वा व्यम । तथा सति फलावाचकत्वाद्धातोः कर्मप्रत्ययस्याख्यातादेरनुपपत्तेः । न च फलाबच्छिन्नव्यापारवाचकस्येव व्यापारविशेषित फलार्थकस्यापि फलवाचकत्वमस्त्येवेति न धातोः कर्मप्रत्ययानपपत्तिरिति वाच्यम् । तथा मति फलावच्छिन्नव्यापारवाचकतावादिनामिव व्यापारविशेषितफलार्थ कतावादिनस्तवाप्येकदेशान्वयस्याभौष्टतया कर्मस्थभावेऽप्येक देश हितौयार्थान्वयसम्भवेन धातोविशिष्टे वृत्तिस्वीकारोऽपि द्वितीयाप्रस - ङ गस्य दुवीरताऽऽपत्तः । तस्मात्कर्माख्यात इव कर्मस्थभावकऽपि व्यापारफलयोविशेष्यविशेषगभावव्यत्यासेनान्वयेऽपि व्यापारम्य पूर्वोक्तफललक्षणस्यासत्वान्न तहतः कर्मत्वमित्यधिगमादिमतः शिष्यादेः कर्मताविरहादधिगच्छति शास्त्रार्थ इत्यादौ शिष्यादिपदान्न द्वितीयाप्रसङग इति । वस्तुतस्तु कर्मस्थभावके धातोर्व्यापारमाचमर्थ : फलं तु तिङोऽर्थ : अयमेव कर्माख्यातात्कर्मकाख्यातस्य विशेषः कर्माख्याते व्यापारविशेषिते फले तिङर्थ स्याश्रयत्वस्याऽन्वयः कर्मकाख्याते तु व्यापार तिङयस्य फलस्यान्वय इत्यधिगच्छति शास्त्रार्थ इत्यादौ धातोर्यापारमानार्थकतया फलावाचकत्वादकर्मकत्वमिति कर्मस्थभावकधातुयोगेन द्वितीयाप्रसङ गः शिष्यादिगताधिगमादिसमवायित्त्वस्वरूप कटर स्य संबन्यत्वेन विवक्षायां शेष षष्टी भवतीति शिष्य'
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
१२१ धिगच्छति शास्त्रार्थ इति प्रमाणमियमभिनवा रौतिरिति । कालदेशभावाध्वनामकर्मककर्मत्वमनुशिष्टमिति कालादिवाचकपदेश्यो द्वितीया कर्मस्थभावकयोगे भवतीत्यपि चिन्त्यमेव तथा सति मास श्रास्यते शिष्येरणतिवत् शास्त्रार्थेन मासोऽधिगम्यते इति कर्माख्यातप्रयोगप्रसङ्ग इति यस्य धातो: कचिदपि न कालादिभिन्नगतकर्मत्वबोधकप्रत्ययाकाक्षा सोऽकर्मक: तत्कर्मत्वमेवानुशिष्ठ कालादौनामिति कर्मखभावको धातुस्तु नेदृशाकर्मकः शिष्यः शास्त्रार्थमधिगच्छति शिष्येणाधिगम्यते शास्त्रार्थ इत्यादावधिगम्यादेः कर्मप्रत्ययसाकाशत्वादिति । धातोर्व्यापारमानार्थकतां कर्मप्रत्ययस्य फलार्थकतां मन्वानानां प्राचां मते कर्मस्थभावकधातोापारविशेषितं फलमर्थः आश्रयत्वं तिङर्थः न च व्यापार एव धात्वर्थः फलं तिर्थोऽस्त्विति वाच्यम् । तथा सति कर्माख्याताविशेषप्रसङ्गात् । न च फलमा धावर्थोऽस्त्विति वाच्यम् । तथा सत्यधिगच्छतिस्मरतिश्रद्दधातीनां पर्यायताऽऽपत्तेरधिगमाद्यवगमस्य सर्वसितस्यापलापप्रसङ्गाच्च तस्मादिशिष्टमेव फलं धात्वर्थः फलस्यान धातुनोतत्वादुक्तार्थानामप्रयोग इति न्यायान्न द्वितीयाप्रसङ्ग इत्यस्य प्रागेवोक्तत्वादिति । यत्तु सकर्मकधातूनां पच्यादीनां विक्लित्यादिरूपं फलमेवार्थ: तिङादिप्रत्ययानां व्यापारोऽर्थ इति मन्यन्ते तेषां मण्डनमिश्राणां मते सकर्मकधावूनां कर्मस्थभावकत्वं स्पष्टमेव । नन्विदमयुक्तं विलित्यादेः पूर्वोत्तस्य फललक्षणस्थासत्वाद्धातोफलमाववाचकत्वानुपपत्तिरत एव फलावाचकत्वात्म
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રર.
द्वितीयाविभक्तिविचारः । कर्मकत्वमप्यनुपपन्नमिति चेन्न । प्रत्ययार्थव्यधिकरणधात्वर्थत्वखरूपफलत्वस्य विक्लित्यादावनपायात् प्रत्ययाव्यापारव्यधिकरणार्थकत्वस्वरूपसकर्मकत्वस्य पच्यादिधातूनामुपपत्तेश्च। एवं च प्रत्ययाव्यापारव्यधिकरणधात्वर्थवत्वं कर्मत्वमिति घटं भावयतीत्यादौ णिजथव्यापारव्याधिकरणधात्वर्थवत्वात् घटादेः कर्मत्वमुपपन्नं यत्नाण्यन्ते णिजर्थान्तर्भावः तत्र शम्भघंटं भवतीत्यादौ तिङ्प्रत्ययस्य णिजर्थव्यापार लक्षणया णिचोऽनुसंधानेन वा कर्मत्वोपपत्तिसम्भवात् । एवं प्रत्ययार्थव्यापारवत्वं कटवं चैत्रः पचतीत्यादौ तिर्थवत्वं चैत्रादेः कर्ट त्वं चैवः पाचयतीत्यादौ णिजर्थवत्वं कट त्वं चैत्रादेरिति एवं तिडां व्यापारान्वितकालबोधकत्वमिति न तिर्थकालान्वयानुपपत्तिः भावप्रत्ययानां घनादीनां व्यापारवाचित्वाभ्युपगमादेव ग्रामो गमनवानित्यादिप्रयोगानापत्तिः एवं तिङयसमवायित्वखरूपव्यापारस्य फलतोवच्छेदकविषयतासम्बन्धेन व्यधिकरणानां ज्ञानेच्छाकृतीनां वाचकतया जानातीच्छति करोतयः सकर्मकाः फलतावच्छेदकसम्बन्धेनैव व्यापारवैयधिकरण्यस्य विवक्षितत्वात् अन्यथा कालिकसम्बन्धेन फलसमानाधिकरणब्यापारवाचित्वात्सकर्मकाणामप्यकर्मकत्वापत्तिरतः एव द्यर्थः पचिरिति महाभाष्यमुत्पत्ति विक्लित्तिस्वरूपफलयं पच्यर्थतया प्रतिपादयति व्यापारस्य धात्वर्थत्वे तु व्यर्थ: पचिरिति स्यादिति मण्डनमिश्रमतम् । अत्र शाब्दिकाः । कजः कृतिमात्रफलार्थकत्वे क्रियते घट: स्वयमेवेतिप्रयोगानुपपत्तिः धात्वर्थव्यापारप्रयोज्यधात्वर्थविशेषवत्व
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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स्य कर्मक प्रयोगनिमित्तस्याभावात् । न च विशेषे धात्वर्थत्वं न निविशते तथा च कृतिप्रयोज्यो त्यत्तिस्वरूपविशेषस्य घटे सत्वाद्दर्शितप्रयोगोपपत्तिरिति वाच्यम् । तथा सति कुलोलज्ञानेच्छा प्रयोज्योत्पत्तिस्वरूपविशेषस्य घटे सत्वोत् ज्ञायते घटः स्वयमेवेतिप्रयोगापत्तेः । ननु प्रत्ययार्थोभूतक्रियाकृतविशेषस्य कर्मकर्तृ प्रयोगनिमित्तत्वात् ज्ञायते घटः स्वयमेवेति प्रयोगो न भवति तत्र तिङ्प्रत्ययार्थस्य विषयत्वस्य ज्ञानस्वरूप क्रियाप्रयोषयत्वादिति कृञः कर्मकर्तरि प्रयोगो नानुपपन्न इति चेत् तथापि पचति पच्यति पक्वानित्यादौ फूत्कारादिव्यापारप्रतौतयेऽनेकप्रत्ययानां तत्र शक्तिकल्पने शक्ततावच्छेदकानन्त्यं मम तु पचिधातोरेकस्य फूत्कारादौ शक्तिकल्पने शक्ततावच्छेदक लाघवमिति धातोर्व्यापारवाचित्वं युतं न च द्यर्थः पचिरिति भाष्यविरोध इति वाच्यम् तस्य फलमालगत हित्वबोधकत्वात् न च पचिपर्यायाणां भूयसां धातूनां फूत्कारादी शक्तिकल्पने तवापि न लाघवं किं च पचिगमिप्रभृतीनां भूयसां धातूनां व्यापारेषु शक्तिकल्पनमपेच्याल्पसंख्यकानां प्रत्ययानां शक्तिकल्पने शक्ततावच्छेदकलाघवमिति धातोर्व्यापारवाचित्वं न युक्तमिति वाच्यम् । व्यापारस्य प्रत्ययार्थत्ववादे गच्छतीत्यादौ फूत्कारादेरप्रतीत्या तोधं प्रति पचिसमभिव्याहारस्य हेतुतायाः स्वीकारे तदपेक्षया तत्र पाँचधातोः शक्तिकल्पनाया एव युक्तत्वादिति सर्वधातूनां व्यापारवाचित्वमेवोचितमिति । ननु स्थाली पचतीत्यव पचिसमभिव्याहारेऽपि यथाऽविवचावशाद्योग्यताविरहा
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
हा फूत्कारादेर्न प्रतीतिस्तथा गच्छतीत्यादावपि न तत्प्रतीतिरिति समभिव्याहारज्ञानस्य न हेतुत्वमिति चेत् तथापि धातोर्व्यापारावाचित्वं न युज्यते तथा सति गुरुः शिष्येण वाचयतीत्यादौ जिर्थस्य प्रयोजकव्यापारस्य तिङर्थं प्रयोज्यव्यापारं प्रति प्रकृत्यर्थत्वादप्राधान्यापत्तिराख्यातार्थव्यापारानन्वयिनि गुरौ संख्यान्वयासम्भवादनभिधानेन गुरुपदात्तृतीयाऽऽपत्तिः शिष्य व्यापारस्य तिङभिधानात् शिष्यपदाच्च प्रथमापत्तिश्चेति वदन्ति । तञ्चिन्त्यं णिजर्थस्याप्राधान्येऽपि जिर्थवत्वं कर्तृत्वं गुरावचतमेव । वस्तुतस्तु णिच् प्रकृतिकतिङ एव प्रयोजकव्यापारोऽर्थः स च धात्वर्थफले परम्परासंबन्धेनान्वेति तृतीयार्थप्रयोज्यव्यापारः साचादन्वेति तथा च गुरुः शिष्येण वाचयतौ त्यत्र गुरौ प्रयोजकव्यापाररूपकर्तृत्वस्य कर्तृ संख्यायाश्च तिङ्ाऽभिधानाद्गुरुरित्यत्र ने तृतीयाप्रसक्तिः शिष्ये प्रयोज्य व्यापाररूपकर्तृत्वस्य कर्तृ संख्यायाश्च तिङाइनभिधानान्न दतौयाऽनुपपतिरिति मण्डन मिश्रमते शाब्दिकोक्तो यद्यपि न दोषस्तथापि धातोर्व्यापारावाचकत्वं न युज्यते तथा मतिप्रसृतं गच्छति तिर्यक् गच्छतीत्यादी प्रसृतादिपदार्थानां कर्मविशेषाणां धात्वर्थविशेषयत्वानुपपत्तिप्रसङ्गः फले संयोगादौ तादात्म्येनान्वयायोग्यत्वात् । न चात्र प्रसृतादीनां तिङर्थव्यापारे तादात्म्येनान्वयाविशेषणत्वमिति वाच्यम् तथापि प्रसृतं गम्यते ग्राम इत्यादौ संयोगात्मकफलान्विते तिङर्थाश्रयत्वेऽभेदान्वयायोग्यत्वादनुपपत्तितादवस्थ्यात् किं च वृक्षाद्भूतलं गम्यते इत्यादी पञ्चम्यर्थविभागस्य न
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
मकतासम्बन्धेन संयोगात्मकफले तदन्विताश्रयत्वस्वरूपतिङर्थे वा अन्वयायोग्यत्वात् पञ्चम्यनुपपत्तिः न चाव विभागस्य स्वजनक क्रियाजन्यत्वस्वरूप परम्परासं म्बन्धेन संयोगऽन्वयोपगमान्नानुपपत्तिरिति वाच्यम् तथा सति वृचात्संयुज्यते इत्यादौ पञ्चमीप्रयोगापत्ते. पञ्चम्यर्थविभागस्य दर्शित संसर्गेण संयोगेऽन्वयसम्भवात् एवं कर्मस्थभाव के कर्माख्याता विशेषप्रसङ्गोऽपि कर्माख्यातकर्मकर्चाख्यातयोरुभयचैव फलान्वयत्वबोधसम्भवादिति । नन्वेवं पचत्योदन इति प्रयोगः स्यात् कर्मगतव्यापारस्य धातुना तिङा वा प्रतिपादने कर्मण ओदनादेः कट तोपपत्तिरिति चेन्न कर्मवमावस्यानुशासन सिद्धत्वात् तथा च सूचं 'कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रिय इति कर्मणाऽधिकरणेन तुल्या क्रिया नाम प्रधानोभूतधात्वर्थस्तदग्वि
तिर्थो वेति स कर्मववतौति तदर्थः कर्मात्मकाधिकरणेन तुल्यत्वोक्त्या क्रियाया: कर्मवृत्तित्वं प्रतीयते कर्मवृत्ति क्रियाश्रयः कर्मैव भवतीति कर्तृत्वं कर्मणः स्फुटमिति त कर्मवावोक्त्या कर्मकर्तृ कतिसमभिव्याहारे धातोर्यक्चिणात्मनेपदादीनि कर्माख्यातविहितानि भवन्ति तेन पच्यते अपाचि वा ओदनः स्वयमेवेत्येव प्रमाणं न तु पचत्यपाचौदिति । शाब्दिकास्तु यव भावे लकारस्तव कर्मकायें द्वितीया स्यादिति तगड़लं पच्यते इति प्रयोगप्रङ्गः तद्दारणार्थं " लिड्या शिष्याङ"तिसवे संयुक्त लकारद्दय निर्देशः कल्प्यः तत्राद्यं लकार मनुवर्त्य कर्मवदित्यनुशासनं लकाराभिहितः कर्ता कर्मवृत्तिक्रियः कर्मवतीत्यर्थकं तथा च लकारेण कर्तुरनभिधाने क
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१२६ द्वितीयाविभक्तिविचारः। मंकायं न प्रसज्यते इति तात्पर्याथः कल्प्य: तेन भावाख्याते लकारेण कर्तुरनभिधानान्न हितौयाप्रसङ्गः श्रत एव कुत्यक्तखलर्थप्रत्यया अपि कर्मकर्तरि न भवन्ति खयमेव भेत्तव्यं भिन्नं सुभिदं वा कुसूलेनेत्यादी भावार्थकानां तेषां योगे कर्तरि तोयैव प्रमाणमिति वदन्ति । तदाकरसिद्धान्तानमित्तानविजृम्भितम् । तथा हि । भावे चाकमकेश्य इत्यनुशासने अकर्मकपदस्य कर्मप्रत्ययनिराकाशपरत्वमावश्यकमन्यथा सकर्मकपच्यादितो भावप्रत्ययानुपपत्तेस्तथा च कर्मप्रत्ययनिराकासभ्यो धातुभ्यो भावप्रत्ययस्य विधानेन कर्मप्रत्ययस्यासाधुत्वादेव भावाख्याते न हितीयादिकर्मप्रसङ्गः एवं भावकमणोर्विहितानां कृत्यक्तखलर्थानां कर्तरि विधरभावादेवाप्रसङ्गः अत एव "तयोरेव कत्यक्तखलर्था" इतिचे तच्छब्देन भाबकर्मणो: परामर्श एवकारण कर्ट व्यवच्छेद इति संयुक्तलकारहयनिर्देशकल्पनया मुनिवचनविपर्यसनपातकेनालमिति एवं च लकारेण कतुरनभिधाने कर्मकाय न प्रसज्यत इति तात्पर्यार्थोऽपि न युक्तस्तथा सति कर्माख्याते कर्तुरनभिधानाद्यचिणात्मनेपदादिकर्मकायस्याप्रसङ्गादिति । नन्वेवमधिगच्छति शास्त्रार्थ इत्यादौ प्राप्यकर्मणि कर्तरि कर्मवद्भावः स्यादिति चेन्न निर्वयविकार्ययोः कर्मणोः कर्तृत्वे कर्मवद्धावस्याभ्युपगमेन प्रोप्यस्य कर्मणस्तथात्वे तन्निषेधात् ननु प्राप्यस्य तथात्वे कथं तनिषेध इति चेदन आचार्योपदेश एव शरणमिति । ननु किमिदं निवत्वं विकायं प्राप्यं च कमति चेत् । अत्र गुरुचरणाः । क्रियाजन्यफलोत्पत्तिस्वरू
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। विभक्त्यर्थनिर्णये।
१२७ पेण धात्वर्थन संसृज्यते यत्तन्नित्यं नाम यथा कटं करोतीत्यत्व उत्पादनार्थककरोत्यर्थफलीभूतोत्यत्तिसंस्मृष्टः कटः । यत्तु विकारैर्धात्वर्थफलैः संसृज्यते तहिकार्य विकारस्तु कचिन्नाशस्वरूपः । यथा शg हिनस्तीत्यत्व नाशनार्थकहिंस्यर्थफलीभूतनाशसंसृष्टः शत्रुः क्वचिन्नाशानुकूलोऽवयव विघटनादिः यथा तृणं छिनत्ति कुसूलं भिनत्तीत्यादौ धात्वर्थफलेनावयवविघटनेन परम्परया संसृष्टस्तुणकुसूलादिः उत्पत्तिविकारभिन्नेन फलेन संसृष्टं तु प्राप्यं कर्म यथा ग्रामं गच्छति रूपं पश्यतीत्यादौ संयोगविषयत्वादिफलेन संसृष्टं ग्रामरूपादि । वाक्यपदीये हरिस्तु निर्वादिलक्षणमाह यथा वा ।
सतौ वाऽविद्यमाना वा प्रकृति: परिणामिनी।
यस्य नाश्रीयते तस्य निर्वयत्वं प्रचक्षते ।। " प्रकृतेस्तु विवक्षायां विकार्य कैपिचदन्यथा । यस्य कर्मणः प्रकृति: समवायिकारणं परिणामितया उपादानतया नोपादीयते तत् क्रियाजन्यफलोत्यत्तिमन्निर्वयं कर्म यथा करोतीत्यत्र कटः नह्यत्र सदपि कटोपादानं वीरणं तथात्वेन विवक्ष्यते यत्र च प्रकतिरुपादीयते तद्विकार्य यथा कनकं कुण्डलं करोतीत्यत्र कुण्डलम् अत्रोपादानत्वविषयतया कनकस्य साध्यत्वविषयतया संसर्गेण फलेन वा कुण्डलस्य कृअर्थयत्नेन्वयः विकायें कर्मणि प्रकतिदिविधा कचिदुपादेयतुल्यकालिको सती यथा वौरां कटं करोति कनकं कुण्डलं करोति वेणुदलं वक्र करोतोत्यादी वीरगकनकवेणुदलादिकाः क्वचिदविद्यमाना कार्यासहत्तिस्तदसमान
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८ द्वितीयाविभक्तिविचारः । लको यथा काठ भस्म करोति तण्डुलानोदनं पचयादौ काष्ठतगड लादिका अत्र हि ध्वंस उत्पत्तिश्च T: विक्लित्तिरुत्पत्तिश्च पचेः फलविधयाऽर्थ: काष्ठस्य भस्मोत्पत्तेश्चानुकूलतया कृमोऽर्थे व्यापारे तलविक्लित्तेरोदनोत्पत्तश्चानुकूलतया पच्यर्थे व्यापास्वयः प्रक तित्वं तु काष्ठादेः परम्परया व्यावहारिसति कारिकार्थः । पक्षान्तरमप्याह हरिरेव कैदिति। निर्वत्थं च विकायं च कर्म शास्त्रे प्रदर्शितम् ।। यदसज्जायते यहा जन्मना यत्प्रकाशते ॥ तन्निवत्य विकार्य तु देधा कर्म व्यवस्थितम् । प्रकृत्युच्छेदसंभूतं किंचित्काष्टादिभस्मवत् ।। किंचिद्गुणान्तरीत्यत्या सुवर्णादिविकारवत् । उर्वममतः सत्त्वं स्वाधिकरणसमयध्वंसानधिकरणयसम्बन्ध उत्पत्तिरिति तार्किकवैशेषिकादयः । काविशेषणतासामान्येन न कोऽपि कुत्रापि समये सं
दैशिकसंसर्गभेदेन कालिकविशेषणतायां भेदावत्विात् अत एव गवावयवावच्छेदेन संयोगसंसर्गावहन्तकालिकसमर्गेणावच्छिन्नप्रतियोगिताको गवा। गोमत्यपि काले विद्यते न तु समवायावच्छिन्नलकसंसर्गेण इदानीमवयवेषु समवायेन गौन तु गेनेति प्रतीत्या कालेऽवयवावच्छेदेन गवाभावस्य धीकरणात् अवयवेषु संयोगेन गवाभावस्य व्यात्तितया कालावच्छिन्नत्वासम्भवात् अत एव चिरातस्याप्यनुभवयागादेर्भावनासुकृतादिसंसर्गावच्छि
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
१२९ नकालि कविशेषणतया स्मरणवर्गाद्यव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्वेन तत्तकारणत्वं सूपपादं तथा च ध्वंसप्रागभावखरूपदैशिकसंसर्गावच्छिन्नकोलिकेन पूर्वस्मिन्नेव काले प्रत्यासीदति सर्वो भाव दूति नाभावो विद्यते सत: जन्मना तु प्रकाश एवं प्रकाशस्तु समवायतादात्याद्यव•च्छिन्नकालिकविशेषणतया प्रथमः समवायसंबन्ध इति कापिलाः । तदाह हरिरेव ।
उत्पत्तेः प्रागसद्भावो बुध्यवस्था निबन्धनः । अविशिष्टः सताऽन्येन कर्ता भवति जन्मनः ॥ कारणं कार्यभावेन यदा वा व्यवतिष्ठते । कोयं शब्दं तदा लब्ध्वा कार्यत्वेनोपजायते ॥
यथाहे: कुटिलोभावो व्यग्राणां वा समग्रता । __ तथैव जन्मरूपत्वं सतामेके प्रचक्षते ॥ .
इति एवं चासतः सत्त्वं सतः प्रकाशो वा भवत्युत्मतिर्धात्वर्थफलीभूतोत्पत्तिमन्निवत्य कर्म यथा घटं करोत्योदनं पचतीत्यादौ घटौदनादि यथा वा कनकं कुपडलं करोतीत्यादौ कुण्डलादि धात्वर्थफलीभूत विकारसंसृष्टं विकार्य कर्म यथा शg हिनस्ति काष्ठं छिनत्तीत्यादौ शत्रुकाष्ठादि यथा वा कनकं कुण्डलं करोति तगडलानोदनं पचतोत्यादी कनककुण्ड लादि प्रकृत्युच्छेदेत्यादिकारिका तु प्रकृत्युच्छेदेन संभूतं कर्म निवत्यै सा प्रकृतिविकार्य कर्म यथा काठीच्छेदसंभूतं भस्म निर्वत्यमित्यतः काष्ठं विकायं सत्यामेव यस्यां प्रकृतौ गुणो
त्तिः धातुना प्रत्याय्यते साऽपि प्रकृतिहितीयं विकार्य वमं यथा सदेव शलाकाखरूपं कनकमवयवानामनार
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१३० द्वितीयाविभक्तिविचारः। भकसंयोगमाचविरोधिना कर्मगा भुग्नत्वगुणोत्पत्त्या विकार्य कुण्डलपदस्य हि भुग्नं द्रव्यमर्थः धात्वर्थोत्पत्तिस्तु भुग्नत्व एवार्थतोऽन्वेति इत्यर्थिका । प्राप्यलक्षणमप्याह हरिरव ।
क्रियाकृतविशेषाणां मिडियंत्र न गम्यते । । दर्शनादनुमानाहा तत्याप्यमिति कथ्यते॥ तत्र क्रियाकृतविशेषा उत्पत्तिक्षयोपचयादयो भावविकारा एव गण नौया इति पदवाक्यरत्नाकरे प्राहुः । एवं सकलकर्मगतफलोन्वयि आधेयत्वं हितोयाऽर्थः । ननु भेदस्य हितीयार्थतावादे आत्मानमात्मना वेत्सोत्यादी कथं भेदान्वयः कर्तकर्मणोर्यप्नदात्मशब्दार्थयोरैक्यात शाब्दिकमते परया कर्तृसंजया कर्मसंज्ञाया बाधाद्दर्शितस्थले द्वितीयायो एवानुपपत्तिः न च युष्मदात्मशब्दार्थयोरवच्छेदकभेदेन भेदोपगमादैक्येऽपि कर्तृत्वकर्मलोपपत्तिरिति वाच्यम् । अवच्छेदकभेदेन भेदोपगमस्य बाद्यमनप्रवेशप्रसञ्जकलात् तथा सति चैत्रश्चैत्रं गच्छतौति प्रयोगप्रसङ्गाच्च तथाचीभयमते प्रकृतानुपपत्तिरिति चेत अनाहुः पुष्यवन्तपदवत् हितोयाया भेदाधेयत्वयोरेकशतिखीकारेण दर्शितस्थले भेदबाधे आधेयत्वमावलक्षणाभ्युपगमाविधेः श्येनोदौ बलवदनिष्टाननुबन्धित्वबाधे दृष्टसाधनत्वमानार्थकत्वादिव वाक्यार्थबोधोपपत्तिरिति तार्किकमतमुत्कर्षमावहति । ननु लौकिकवाक्ये विभके लक्षणा तथा हि वार्तिकम् ।।
सुपा कर्मादयोऽप्यर्थाः संख्या चैव तथा तिङाम् । प्रसिद्धो नियमस्तन नियमः प्रकृतेषु वा ॥
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
इति सुपां तिङा च यथानुशासनं तत्रानुशासनानि नियमपर्यवसायौनि स च नियम एकवचनमेवैकत्वं हिवचनमेव द्दित्वं द्दितौयैव कर्मत्वं बोधयतीत्याकारकस्तेन द्वितौयाभिन्ने कर्मत्ववोधकत्वाभावः पर्यवस्यति । नन्वेवं द्वितीया कर्मत्वमपहाय क्वचिद्गगनादिकमपि बोधयेत्तावताऽप्यक्तनियमभङ्गादित्यतः पचान्तरमाह नियम: प्रकृतेषु वेति तथा च द्वितीया कर्मत्वमेव बोधयतोति नियमः स च यावन्तोऽनुशासन सिद्दा द्वितौयार्थास्तेभ्यः प्रतेभ्योऽन्यमर्थं द्वितीया न प्रतिपादयतीत्यर्थतः पर्यवसित इति तस्य वार्त्तिकस्य विवरणम् श्रतः कथमननुशिष्टे आधेयत्वमात्रे द्वितीया साधुरिति चेन्न । विभक्तिः प्रकृतेष्वेवेति नियम शरीरस्यासम्भवदुक्तिकत्वात् तब हि विभक्तितत्वावच्छेदेन प्रकृतभिन्नाप्रतिपादकत्वं च प्रतीयते । ननु विभक्तित्व सामानाधिकरण्येन उद्देश्यतावच्छेदकावच्छेदेनोभयभागान्वय योग्यत्व एवैवकारस्य साधुत्वादन्यथा विभक्तिः कर्मण्येव शब्दो वाचक एवेति प्रयोगप्रसङ्गात् । न च विभक्तितत्वावच्छेदेन प्रकृतप्रतिपादकत्वमस्ति विशेषणवाचकसमभिव्याहृतानामव्ययनिपातसमभिव्याहृतानां च सुपां निरर्थकत्वदर्शनात् प्रातिपदिकार्थः सत्ता सुपामर्थ इत्यस्य प्रागेव निराकृतत्वात् । ननु भवतु तर्हि विभक्तिः प्रकृतेष्विति परिसंख्या विभक्ति: प्रकतेतरन्न प्रतिपादयतीत्येवंरूपा तख एव च्छन्दसि प्रतिप्रसवः सुपां सुत्रिति तेन स्वर्गकामो यजेतेdea महमते प्रथमा यागभावना कर्मत्वं लक्षणया स्वर्गस्य प्रतिपादयन्ती नाननुशिष्टविषया एवं सम्पन्ना ब्रोहय
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१३२ द्वितीयाविभक्तिविचारः। .. इत्यादी जातिगतैकत्वबोधकत्वं बहुवचनस्य जात्याख्यायामित्यनुशासनप्रतिप्रसूतमेवेति नास्त्यननुशिष्टे विभक्तीनां लक्षणाऽपौति चेत् तहि नानार्थवद् द्वितीयाया . आधेयत्वे भेदे च शक्तिव्युत्पत्तिवैचिच्य गोकपदोपात्तयोरप्याधेयत्वभेदयोर्योगपद्येनान्वयबुध्यनुप्रवेश औत्सर्गिकः यत्र कर्ट कर्मणोभिन्नयोः फलं कर्ट भिन्ने वा फलं तत्र भेदाधेयत्वयोर्व्यापारफलान्वय बुद्दितिौयया जन्यते यत्र तु फलस्य व्यापाराधिकरणमात्रगतत्वं तव भेदान्वयबाधादाधेयत्वमाचं हितीया शक्त्या प्रतिपोदयति न चानुशासनव्यत्यय इति बाधसापचत्तित्वेनावाभिधायामेव लक्षणाव्यपदेश: बाधश्चात्र फलाधिकरणयत्किंचिद्यक्तिभिन्ने व्यापारो न वर्तत इति सामा न्याकारेणोपतिष्ठते । तेन व्यासज्यत्तिसंयोगादिफलकधात्वर्थे भेदाधेयत्वयोरुभयोनियमेनान्वय इति चैत्रश्चैवं गच्छतौति न प्रयोग इति वदन्ति । इदमत्र चिन्त्यंयथा हि भेदस्य बाधे आधेयत्वमावं द्वितीया शत्या प्रतिपादयति तथा आधेयत्वस्य बाधे भेदमावमपि बोधयेत्तथा च गगनं पचति पश्यति वेति प्रयोगप्रसङ्गः विक्लित्तौ लौकिकविषयतायां च फले गगनाधेयत्वस्य बाधेऽपि गगनत्तिभेदस्य प्रतियोगितावच्छेदकताया: फूत्कारादौ चाक्षुषे च व्यापारे निष्प्रत्पूहं विद्यमानत्वात् तस्मात्पुष्पवन्तपदवत् हितीयाया भेदाधेयत्वयोः शक्तिराधेयत्वमावे लक्षोल्ययमेव पक्षः साधीयान् न च दर्शितवार्तिकविरोध इति वाच्य नियमः प्रकृतेषु वेति वाकारेणानास्थायाः खय
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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मेव वार्त्तिकेन सूचनात् श्रन्यथा तिङामपि लक्षणा न स्यात् न चेष्टापत्तिरिति वाच्यं घटो नश्यतीत्यादौ शाव्दिकमते आश्रयस्य दार्शनिकमते यत्नादेस्तिङर्थस्य बावन प्रतियोगिनि प्रतियोगित्वे वा तिङो लक्षणां विनाऽ न्वयानुपपत्तिप्रसङ्गात् । ननु भवतु तिङो लक्षणा सुपोऽननुशिष्टेऽर्थे लक्षणायाः क्वाप्यदर्शनाद द्वितीयाया नाधेयत्वमात्रळे लक्षणा युज्यते अत एव सुम्विभक्तौ न ल - चणेति प्रवादः न च विषयत्वे द्वितीयाया लक्षणादर्शनानेदं युक्तम् अत एव घटं जानातीत्यादावन्वयबोधोपपत्तिरिति वाच्यं विषयत्वे द्वितौयाया लक्षणाभ्युपगमस्य निराकरिष्यमाणत्वात् घटं जानातीत्यादावन्वयबोधोपपत्तेर्वच्यमाणत्वाच्चेति चेन्न द्वितीयाया लक्षणाभ्युपगस्यावश्यकत्वात् तथा हि शात्रवान् हिनस्ति हन्ति पुण्यं पुराकृतमित्यादो नाशानुकूलव्यापारार्थकस्य हिंसेईन्तेश्च फले नाशे शात्रवाधेयत्वस्य पुण्याधेयत्वस्य च बाधात् द्वितीयायाः प्रतियोगिनि प्रतियोगित्वे वा यथाद र्शनं लक्षणाभ्युपगम आवश्यक : अन्यथाऽन्वयबोधानुपपत्तेरिति । यदि च दर्शितस्थले प्रतियोगिता नाशश्च si are: fasa व्यापारः शात्रवाधेयत्वस्य पुण्यायत्वस्य च फले प्रतियोगितायां सा नाशे सोऽनुकूलतया तिङर्थे व्यापारे विशेषणौभूयान्वेतोत्यन्यवापि धातोः - शब्दान्तरस्य वाऽर्थकल्पनयोपपत्तौ द्वितीयाया लक्षणा न क्वाप्यभ्यपेयते इति तदा पूर्वोक्ताभिनवरीत्या आधेयत्वमात्रं द्वितीयार्थस्तावतैव स्वं जानातीत्यादावन्वयबोधोपपत्तिः व्यासज्यवृत्तिसंयोगादी गम्यादिफले द्विती
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
यार्थाधेयत्वस्य व्युत्पत्तिवैचिच्येण व्यापारवद्भेदावच्छिन्नसमवायावच्छिन्नाधेयत्वौयस्वरूपसंबन्धेनान्वयोपगमादेव चैत्रश्चैवं गच्छतीत्यादिपयोगवारणं सम्भवतीत्यादिकं पूर्वोक्तं अर्तव्यमिति । केचित्तु ज्ञाधातोर्बुद्धि: फलं तदनुकूलो मनोयोगादिव्यापारश्चार्थः बुध्यन्वयिनि विषयत्वे द्वितीया लाक्षणिको विषये न कर्मसंज्ञामपेक्षते इति स्वं जानातीत्यत्व कर्तरि विषये द्वितीया नानुपपन्ना नियमः प्रकृतेषु वेति वार्तिकं तु निरुटलक्षणामेव नियमयति इयं तु स्वारसिकौ विभक्तेर्विषयत्वादी लक्षणा एवं स्वं हिनस्तौत्यव द्वितीया प्रतियो गित्वं ध्वंसात्मकफलान्वितं लचयति न चापेचते प्रतियोगिनि कर्मसंज्ञामा कडारादिति परया क संज्ञया तदपवादात् अभिधेयमात्रं न द्वितीया प्रतिपादयति भेदमादायैव तस्या खाभिधेयप्रतिपादकत्वादतश्चैल गच्छतौति न प्रयोगः नचैत्रं स्वारसिकलक्षणाया अनि• यम्यत्वे द्वितीया लक्षणया गगनमपि बोधयेदिति वाच्यम् । स्वारसिकलक्षणायामप्यप्रयोगस्य बाधकत्वात् । यदाहुः ।
निरूढा लक्षणाः काश्चित्प्रसिद्धा अभिधानवत् । क्रियन्ते सांप्रतं काश्चित्कश्चिन्नैव त्वशक्तितः ॥
इति अशक्तिरप्रयोगः प्रयोजन राहित्यं च उदाहरन्ति रूपं वस्त्रमिति नेथार्थतापौयमेव यदप्रयोग प्रतितलक्षणात्वं प्रयोजन राहित्यमपि प्रयोजनप्रतिपतिप्रयोजकतावच्छेदकवल्लक्षणात्वविरह इति तत्र तत्रावगन्तव्यमिति वदन्ति । तदपि न सुन्दर तथा हि प्रयो-जनवत्वे सति प्रयोगराहित्यं स्वारसिकलक्षणायां न
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ר
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
१३५, दोषः जान्हव्यादिशब्द लक्षणाप्रयोगविरहापि जान्हव्यां घोष इत्याद्याधुनिकप्रयोगे जान्हव्यादिशब्दे लक्षणायाः सर्वसंमतत्वात् । किं चापूर्वचैत्रादिशब्दस्य शिष्टत्वं प्राचत्वादिचैत्रादिधर्मप्रतिपत्तये चैत्रादिसम्बन्धिनि लक्षणा न स्यात् प्रयोगविरहात् प्रयोजनराहित्यस्यावश्यकतया दोषत्वे सति प्रयोगराहित्यस्य दोषत्वे मानाभावश्च रूपं वस्त्रमित्यादी लक्षणायाः प्रयोजनराहित्येनैव दुष्टत्वात् । अत एव काव्यप्रकाशे प्रयोजनराहित्यं नेथार्थतेति व्यवस्थापितम् । एवं ज्ञाधातोर्बुद्धिः फलं तदनुकूलो मनोयोगादिक्पारश्चार्थ इत्यपि न विचारसह तथा सति भगवान् सर्व जानातीत्यादावनम्बयापत्तेः भगवज्ञानस्य नित्यस्यानुकूलतासंसर्गेण व्यापारोन्यथायोगात् मनोयोगादिव्यापारस्य भगवति बाधितत्वाच्च एतेनाकथितं चेति सूत्रेण विषये कर्मसंज्ञा ज्ञाप्यते इति विषयत्वमनुशासनसिद्धमेव द्वितीयार्थः विषयत्वस्वरूपकर्मत्वं न भेदघटितमिति स्वं जानातीत्यादौ नानपपत्तिरित्यपि निरस्तम् । अव विषयत्वं फलान्वथि व्यापारान्वयि वा आद्ये बुद्धेः फलत्वासम्भवस्योक्तत्वात् जानात्यादियोगे द्वितीयाऽनुपपत्तिः अन्त्ये यत्नम्वरूपव्यापारान्वय सम्भवात् योगेऽपि दुितौयाप्रसङ्गः यदपि कमस्थभावक निर्वयविकार्ययोः कर्मवतावस्यातिदेशेन हितीयानिषेधः प्राप्य कर्मणि तदतिदेशविरहेण न हितीयानिषेध इति कर्मस्थभावके स्वं जानातीत्यादावाधेयत्वमानार्थिका द्वितीया नानुपपन्नेति तदपि चिन्त्यं यव हि फलं धातुना तिङा वा प्राधान्येन प्रत्याय्यते तत्र
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१३८ द्वितीयाविभक्तिविचारः। ज्ञापकादेवमवधार्यते ज्ञापकं तु "तथा युक्तं चानीप्सितमि"ति सूत्रं तथा ईप्सिततमवद् युक्तं धात्वर्थ: फलेनेति शेष: यहा तथा धात्वर्थफलेन युक्तमित्यर्थश्शीऽप्यर्थः ईदृशमनीप्सितमपि कर्मसंज्ञकमित्यर्थकम् । अनीप्सितं वेधा ईप्साया अविषयो देषस्य विषयश्च । आदां यथा ग्राम गच्छस्तणं स्पृशतीत्यत्र टणमौसाया अविषयः हितोयं यथा रथ्यां गच्छंचाण्डालं स्टशतीत्यत्र स्पर्शवत्तया द्वेषस्य विषयश्चाण्डालः इत्थं चाप्यर्थकेन चकारेणप्सिततमानीप्सितयोरांबवक्षणात्तथा युक्तं कर्मति ज्ञाप्यते इति धात्वर्थफलवत्वं सत्रादेवावधारित मिति । गां दोग्धि दुग्धमित्यादौ गवादेः कर्मत्वोपपत्तये "अकथितं च" इत्यनुशासनं अपादानादिभिरकथितं का. रकं कर्मसंतं भवतीत्यर्थकम् । अत्र केचित् दुहे: स्यन्दनं तदनुकूलो व्यापारश्चार्थ: स्यन्दनत्वं द्रवत्वजन्यतावच्छेदिका क्षौरादिक्रियावृत्तिर्जाति: गोपदोत्तरहितीयाया विभागोऽर्थः दुग्धपदोत्तरहितीयाया आधेयत्वमर्थः दितौयार्थविभागस्यानुकूलतया स्यन्दनेऽस्य तथैव व्यापारइन्वयः एवं गोविभागानुकूलदुग्धत्तिस्यन्दनानुकूलव्यापारानुकूलकतिमान्गोपाल इत्याकारको गां दोग्धि दुग्धं गोपाल इत्यत्र शाब्दबोधः न च विभागः पञ्चम्यर्थत्वादपादानत्वमेव तद्विवक्षायामपादानाद्यकथनासम्भवात् कर्मत्वानुपपत्त्या द्वितीयाऽनुपपत्तिरिति वाच्यम् । प्रधानीभूतधात्वर्धान्वयिनो विभागस्यापादानस्वरूपत्वात वृक्षात्पणं पततोत्यादौ प्रधाने स्पन्दे पतत्यर्थे पञ्जयविभागस्यान्वयात् प्रकृते स्यन्दनानुकूलव्यापारे वि-
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विभक्त्यर्थनिर्णये। भागस्यान्वयाप्रसकरपादानत्त्वासम्भवाद्दर्शितानुशामनेन हितीयोपपत्तेः हियोयाविभागस्य स्यन्दनादिरूप फले ऽन्वयसम्भवात् । यहा विभाग: स्यन्दनं व्यापारश्च त्रयो दुहेरर्थाः तत्र फल विशेषण फलवतोऽपि कर्मत्वमिति तापयितुमकथितं चेत्यनुशासनं तेन प्रधानोभूतधात्वर्थे साचाविशेषणस्य धात्वर्थविशेषणीभूतधात्वर्य विशेषणस्थापि धात्वर्थस्य फलत्वमवसौयते धात्वर्थविशेषणीभूत जत्वर्थत्वमेव फलत्वं न तु प्रथमधात्वर्थे प्रधानोभूतत्वं प्रवेशनीयं प्रयोजनविरहादिति स्यन्दनादिविशेषणीभूतविभागादेरपि फलतया तहतो गवादे: कर्मत्वं स्पष्टमित्यत्रापि गवादिपदोत्तरहितीयाय। आधेयत्वमर्थस्तच्च स्यन्दनविशेषणे विभागेऽन्वेति अनापि परसमवेतत्वं हि(तीयाथस्तेन पयोनिष्ठविभागजनकस्यन्दनस्य पयानिष्ठत्वेऽपि ययः पयो दोग्धौति न प्रयोग इत्याहुः । विभाग: स्यन्दनं व्यापारश्च वयो दुहेरास्तत्र विभागं प्रति प्रधानतया स्यन्दनं व्यापारस्तहत्तया दुग्धादेः कर्तृत्वाकर्तृसंज्ञापवादार्थम् अथ वा विभागावच्छिन्नस्यन्दनं व्यापारश्च दुहेरर्थस्तत्र फलैकदेशविभागादिमत्वं कर्मत्वं ज्ञापयितुमकथितं चेत्यनुशासनं विशेषानुशासनेन फलैकदेशे विभागादी हितीयार्थाधेयत्वस्यान्वय इत्यपि वदन्ति । शाब्दिकास्तु गवादः सम्बन्धविवक्षायां शेष षष्ठौ प्रसक्ता रजकस्य वस्त्रं ददातीतिवत् तदपवादायाकथितं चैत्यनुशासनं तथा च गवादिपदोत्तरहितीयायाः सम्बन्धोऽर्थः स विभाग स चौरत्तिस्यन्दने तच्च गोपालव्यापारऽन्वेति एवं गां दोग्धि दुग्धं गोपाल दू
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१४२
द्वितीयाविभक्तिविचारः ।। भवतीति कश्चित् । गुरुचरणास्तु विभागानुत्पादः कर्मानुत्पादो व्यापारश्च मधेराः ब्रजं गां रुणद्धि गोपाल: इत्यादौ द्वितीययोराधेयत्यर्थः विभागानुत्पादः कर्मान पादे स व्यापार योगक्षेमसाधारण्या जनकतया इन्वेति एवं व्रजत्तिविभागानुत्पादस्य प्रयोजको यो गोत्तिकर्मानुत्पादस्तत्प्रयोजकव्यापारानुकूल कृतिमान् गोपाल दू याकारक: शाब्दबोध: व्रजपदोत्तरहितीयाया भेदोऽप्यर्थः तेन गां गां रुणद्धि इति न प्रयोग इति र दवाक्यरत्नाकरे प्राहुः । युज्यते चैतत् विभागानुत्पादस्वरूपगुण फलवत्तया ब्रजस्य गौणकर्मत्वोपपत्तेरिति । व्यापारप्रयोज्यविशेष ज्ञानेच्छा पृच्छतेरथस्तत्र व्यापारी विशेषज्ञानमिच्छा चेति त्रिषु खण्डशक्तिः जानपदं पन्यानं पृच्छति पान्थ इत्यादौ पथिपदोत्तराया विषयता-1 सम्बन्धावच्छिन्नं जानपदीत्तराया व्यापारीयतत्संसर्गावच्छिन्नं द्वितीयाया आधेयत्वमर्थः जानपदविशेषितंव्यापारे पथि विशेषितं विशेषत्ताने आधेयत्वमन्वेति व्यापारस्य प्रयोज्यतया विशेषज्ञाने तस्योद्येश्यितया दूछायामन्वयः एवं जानपदत्तिव्यापारप्रयोज्यस्य विषतया पथि वृत्तेविशेषज्ञानस्योद्देश्यिनी या इच्छा तदाश्रयः पान्थ इत्या कारक: शाब्दबोधः इच्छायां जाप्यमानत्वं विशेषणं तेन प्रतिवादिनो विशेषां तेन प्रतिवादिनो विशेषण शास्त्रार्थ ज्ञातुमिच्छति जिज्ञासाबोधककिंशब्दघटितबाक्यादिव्यापारमप्रयुञ्जाने जनेऽयं प्रतिवादिनं शास्त्रार्थ पृच्छतौति न प्रयोगः प्रयोगस्तु प्रति. वादिनोऽष्टष्टं शास्त्रार्थं ज्ञातुमिच्छत्ययमित्युपपद्यते ।
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
१४३ यत्तु जिज्ञासाबोधकशब्द, पृच्छतेरर्थ: जिज्ञासाविर्षायतया बोधे बोधोऽनुकूलतया शब्दो न्वेति गुरु धर्म टच्छति शिष्य इत्यादौ गुरुसमवेतत्वं द्वितीयान्तार्थो बोधे धर्मविषयित्वं हितौयान्तार्थो जिज्ञासायामन्तीति तचिन्त्यं बोधस्य जिज्ञासाविशेष्यतया अन्वयोपगमे प्रधानफलत्वापत्त्या तहतो गुरोः प्रधानकर्मत्वापत्तेस्तथा सति गुरुर्धमें पृच्छ्यत इत्यादिप्रयोगानुपपत्तेर्वक्ष्यमाणत्वात् न च शब्दत्वेन शब्दः पृच्छत्यर्थो न निविशते तथा सत्यभिनयादिना जिज्ञासा ज्ञापयति जो ऽयं पृच्छतीति प्रयोगानुपपत्तेः शाब्दिकास्तु उत्तरमनुशास्यत्वमनयोगश्च पृच्छतेरर्थः विशेषबोधकवचनमुत्तर जिज्ञासितत्वेन प्रतिपत्तरनुशास्यता किंशब्दघटितवाक्यादिभरनुयोगः जानपद पन्यानं पृच्छति पथिक इत्यत्न परम्परया जानपदाश्रितमुत्तरं पथिविषयिण्यां जिज्ञासितत्वप्रतिपत्ती मा च कः पन्था इति वाक्यादिस्वरूप पथिकानुयोगे जनकतयाऽन्वेतीत्याहुः । अन्ये तु उत्तरमनयोगश्च पृच्छतेरर्थः उत्तरं कृतिहाराधिकरणेन ज्ञानहारा विषयेण चोभयविधेन कर्मणाऽन्वितमिति वदन्ति । तबोमयमते जानपदं पन्थानं पृच्छति पथिक: जानपदः पथिकाय न किंचिदुत्तरयतीत्यादौ गतिश्चिन्त्या । रक्ताशोक कृशोदरी क नु गता त्यक्त्त्वाऽनुरक्तं जनमित्याद्यनयोगदर्शनाद्रताशोकं कशोदरीगतदेशं पृच्छति कामुक इत्यादौ रक्ताशोकव्यापारस्य प्रयोज्यत्वस्वरूपव्यधिकरणसंसर्गस्य कृशोदरोगतदेशीयविशेषज्ञाने इच्छयाऽ वगाहनसम्भवात् पृच्छतेर्दशितव्यापारादिवितार्थक
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१४४ द्वितीयाविभक्तिविचारः । त्वेनान्वयानुपपत्तिरिति । भिक्षतिरपि द्विकर्मक: न च भिक्षतेर्यावति समानार्थकत्वादेव हिकर्मकत्वे सिद्धे दुहियाचिरुधिपच्छिभिक्षिचिञा मित्यत्र पृथगुपादानमनर्थकमिति वाच्यम् । पर्यायगहणार्थमेव पृथगुपादानात् तेन राजानं कनकं प्रार्थयते भिक्षरित्यादिप्रयोगोऽपि साधु'रिति । यत्त भिक्षतेख़नेच्छास्वरूपयाचत्यर्थार्थकत्वेऽपि याचतेरन्तरोपि दिकर्मकत्वज्ञापनार्थ पृथगुपादानं तथा हि याचमानःशिवं सुरानित्यादौ व्यापारजन्यत्वप्रकारिकेच्छा याचतेरर्थः इच्छायां प्रधानकर्मकल्याणावितहितीयार्थविषयिताया अन्वयः व्यापारे च सुराधेयत्वस्य सुरानिति द्वितीयान्तार्थस्यान्वयः तथा च सुरत्तियारारजन्यत्वप्रकारकल्याणवियिताकेच्छाश्रय इत्यन्वयबोध इति । तच्चिन्त्य भिक्षतेरप्य र्यान्तरे द्विकर्मकत्वात्तत्समानार्थत्वस्य याचतावक्षत्वात् पृथगुपादानसमर्थनानुपपत्तेः भिक्षिता शतमखी न सुकृतं यदित्यादावर्थान्तरे भिक्षतेईि कर्मकत्वदर्शनात् यत्कतकं दानप्रसिद्ध तत्र कृपणं कनकं याचते इत्यादिप्रयोगः दण्डकावनतरून् सौतां याचते रामभट्र इत्यादिप्रयोगेण तुल्ययोगक्षेमः अत्र व्यापार: प्राप्तिरिच्छा च याचतेरर्थः तेन तरूवत्तिव्यापारप्रयोज्यायाः सौतावृत्तिप्राप्तेकद्देश्यिनौ या इच्छा तदाश्रयो रामभद्र दूत्यन्वयबोधः एवं याचमान: शिवं सुरानित्यादावपि सुरष्टत्तिव्यापारप्रयोज्यायाः कल्याणत्तिप्राप्तेसद्देश्यिनी या इच्छा तदाश्रय इत्यन्वयबोधः । नन्वेवं सर्ववैव व्यापारप्राप्तीच्छानां त्रयाणां याचचतिपर्यायधावूनामर्थत्वमस्तु राजानं कनक
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विभत्त्यर्थनिर्णये । १४५ याचते इत्यादावस्येतावतैव चरितार्थत्वात् व्यापारस्तुक्वचिद्दानं कचिदन्यादृशः प्राप्तिस्तु संबन्धः प्रकृते राजसमवेतं दानं प्रयोज्यतया कनकत्तिखखत्वरूपे सम्बन्ध स उद्देश्यितया इच्छायामन्वेति याचमान: शिवमित्यत्र सुरत्तिः कृपाव्यापार: कल्याण रत्तिखसमवेतत्वं प्राप्तिस्तयोरन्वयः पूर्ववत् भिक्षिता शतमखौत्यत्र सकलाङ्गसाहित्यं शतमखौव्यापारस्तदाश्रयः कर्मप्रत्ययत्तस्यार्थ: सुकृतवृत्तिखसमवेतत्वं प्राप्तिरिच्छाया उद्देश्यतया सुशतत्तिबसमवेतवे तस्य प्रयोजकतया सकला जन्साहित्यस्वरूप व्यापारे तस्याश्रयैकदेशे धाश्रयत्वे आश्रये वा विशेषणतया अन्वयः आश्रयस्याभेदेन शतमख्यामन्वय इति कृपणं कनकं याचते दगडकावनतरून् सीतां याचते इत्यादौ कपणष्टत्तिव्यापारस्य कनकटत्तिस्वस्वरूप प्राप्तौ दण्डकातात्तिव्यापारस्य सौतात्तिस्वसंनिधानस्वरूपप्राप्ती प्रयोज्यत्वबाधेऽपि बाधितस्य प्रयोज्यत्वसम्बन्धस्येच्छथा अवगाहनसम्भवान् नान्वयानुपपत्तिः इच्छाया बाधितार्थविषयकत्वस्य सम्बुद्धिप्रथमाविवरणे दर्शितत्वात् सन्निधानं तु संयोगः स्वल्यतरसंयोगघटितपरम्परासम्बन्धावच्छिन्नसामानाधिकरण्यं वा न चैवं दण्डव्यापारप्रयोज्याया घटप्राप्तरिच्छा कुलालेऽस्तौति दण्डं घटं याचते कुलाल इति प्रयोगः स्यादिति वाच्यम् इच्छायां जाप्यमानत्वविशेषणेन तव्ययोगवारणात् न च ज्ञाप्यमानत्वं ज्ञानविषयत्वं तस्य विशेषणत्वं न सम्भवति अव्यावर्तकत्वात् भगवउत्तानविषयत्वस्य सर्वत्र सत्वात् याचत्यर्थव्यापाराश
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१४६ द्वितीयाविभक्तिविचारः । यज्ञानविषयत्वस्य तत्त्वे दण्डकातरून याचते इति प्रयोगानुपपत्तिः व्यापाराश्रयदण्डकातरुतानापसिद्धेरिति वाच्यं व्यापाराश्रयज्ञानेच्छास्वरूपजिजापयिषाविषयत्वस्येच्छाविशेषणत्वोपगमात् इच्छाया बाधितार्थविषयकत्वसम्भवेन तरज्ञानाप्रसिद्धावपि तरुजिज्ञापयिषावि. षयत्वस्य स्वसम्बन्धेच्छायां सम्भवान्नानुपपत्तिः घनं जलं याचन्ते सस्थानौत्यादावचेतनसस्यादिकर्तकयाचनप्रयोगे याचतेरिच्छास्थाने पुष्टिरर्थ: तत्व घनत्तिव्यापारस्य प्रयोज्यतया जलवृत्तिस्वसम्बन्धे स प्रयोज्यतया पुष्टौ स निरूपकतया तिङर्थे स्वरूपयोग्यत्वेऽन्वेतीत्येयमन्यवाप्यूमिति चेदस्तु व्यापारादिविकं याचतेस्तत्पर्यायस्य भिक्षत्या देवार्थ: अस्तु जिज्ञापयिषाविषयत्वमिच्छायां विशेषणम् अस्तु चेच्छास्थाने पुष्टयादिकं याच-) त्यादरयस्तावतापि न नः काघि हानिरिति । प्रतियो. ग्युत्पत्तिद्वितीय क्षणोत्यनसंयोगस्य प्रतिहन्दी विभागः कमव्यापारश्च चिनोतरर्थाः अवयवयोगजसंयोगस्य प्रतियोग्यत्पत्तिहितीयक्षणेऽप्युत्पत्तिसम्भवान्नानुपपत्तिः तसंपुष्यं चिनोति मालाकार इत्यत्र तत्तिता दृश विभागः पुष्पत्तिकर्मणि तन्मालाकारव्यापार प्रयोजकतया अन्वेति शाब्दबोधाकारस्तु स्वयमूहनौयः । यतू भिदा हेतुविघटनञ्चिनोतरर्थ: भिदा संयोगध्वंसः विघटनकर्मानुकूलो व्यापार: तर पुष्पञ्चिनोतीत्यत्र तरुवृत्तिसंयोगध्वंसः पुष्पवृत्तिकमणि तहापारे प्रयोजकतथा अन्वेतौति तच्चिन्त्यं तथा सति घटाज्जलमाददाने जनाथं घटं जलं चिनोतौति प्रयोगप्रसङ्गात्
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
घटवृत्ति संयोग ध्वंसानुकूल जलवृत्तिक मोनुकूलव्यापारस्य तव जने सत्वात् न चोदाकर्षणरूपं कर्म विवचितमिति वाच्यम् । तथासति कूपञ्जलं चिनोतीतिप्रयोगापतेः पु. यस्याधराको तरुं पुष्प चिनोतीतिप्रयोगानुपपत्तेश्च प्रकृते तु नलीयकूप संयोगस्य जलोत्पत्तिद्वितीय क्षणोत्पादे प्रमाणाभावान्न तथाप्रयोगः वृत्ततमसंयोगानन्तरमुत्पामानस्य पुष्पस्य स्वावयववृत्तत रुसं योगाधीनतरु संयोगे पुष्पोत्पत्ति द्वितीयचणोत्पादनियमात्तव पुष्पवनोतीति प्रयोग उपपद्यते यदि च खलं क्षेत्रं वा धान्यं चिनोति वनं कच्छ वा शुष्कगोमयानि चितोतीतिप्रयोगोऽपि म-न्यते तदाविभागकर्म ग्रहण व्यापारश्च चिनोतेरर्थः वि"भागः प्रयोजकतया कर्मणि तत् ग्रहणव्यापार अन्वेति कर्मणि द्रवत्वासामानाधिकरण्यं विशेषणं तेन जलं चिनोतीति न प्रयोगः न च दर्शितप्रयोगवारणार्थं क मणि पृथिवीत्तित्वं विशेषणमस्तु तावतैव समोहितसिद्धेरिति वाच्यम् । तथासति भागडं तैलं चिनोतीतिप्रयोगापत्तेः ।
१४७
अयमपि खरयोषित् कर्णकाषायमष सृिमरतिमिरोगजर्जर शोणमर्चिः । मदकलकलपिङ्कीकाकुनान्दीक रेग्यः चितिरुहशिखरेग्यो मानुमानुचिनोति ॥ इत्यव भानुमान् चितिरुहशिखरेभ्योऽर्चिः चिनोतीतिप्रयोगानुपपत्तेश्च अर्चिषस्तेजस्त्वात् तत्कर्मणाः पृथिव्यवृत्तित्वात् विभागस्वरूपगुण फलस्यावधित्वविवचायामवापि गोभ्यः पयो दोग्धीत्यत्रेव पञ्चमीप्रयोगोऽप्युपपद्यते .
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१४८
द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
अत एव संयोगनाशो न चिनोतेर्गुणफलं तथासति द शितपञ्चमीप्रयोगानुपपत्तेरिति । यदि च इष्टकाञ्चिनोतीतिप्रयोगस्तदा सजातीयसंयोगो व्यापारश्च चिनोतेरर्थः इष्टकावृत्तिसजातीयप्रतियोगिक संयोगो व्यापारे प्रयोजकतयाऽन्वेति यदि च इष्टकाभित्तिं चिनोतीतिप्रयोगस्तदासजातीयप्रतियोगिकसंयोग उत्पत्तिर्व्यापारोऽपि चिनोतेरर्थः इष्टकावृत्तितादृशसंयोगस्य प्रयोज्यतया भित्तिवृत्युत्पत्तौ सा प्रयोजकतया व्यापारेऽन्वेतीति चिनोतेरर्थान्तरेऽपि द्विकर्मकत्वमिति । संस्कारः शाब्दबोधः वाक्यानुगुणेच्छा चं ब्रुवेरर्थः नृपहितं ब्रवोतौयत्र नृपसमवेतसंस्कारो विषयतया हितवृत्तौ शाब्दबोधे प्रयोजकतया स चोद्देश्यितया वाक्यानुगुणेच्छायामन्वेति यदि चाभिनयादिना बोधनेऽपि ब्रविप्रयोगस्तदा थाब्दबोधस्थाने ज्ञानसामान्यं वाक्यस्थाने व्यापारमाव ब्रुवेरर्थेषु निविशतेऽन्वयस्तु पूर्ववत् यत्तु ज्ञानानुकूलः शब्दो ब्रुवेरर्थः शिष्यं धर्मं ब्रवोतीत्यव ज्ञानरूपफले शिष्यसमवेतत्वं धर्मविषयत्वं च द्वितीयान्तार्थद्वयमन्वेतौति तदसत् ज्ञानस्यैकस्यैव फलतया गुणफलाभावेन शिप्यादे गया कर्मत्वानुपपत्तेः शिष्यं धर्म ब्रवीति शिष्यस्त न शृणोतीति प्रयोगानुपपत्तेश्च ब्रुविपर्यायवदत्यादयोऽपि द्दिकर्मका इति वदन्ति । कृतिरुपदेशो व्यापारानुगुणेच्छा च शास्तेरर्थः कृतिः प्रवृत्तिर्निवृत्तिश्च उपदेश इष्टसाधनत्वेनानिष्टसाधनत्वेन वा ज्ञानं बोध्यं शिष्यं धममधर्मं वा शास्ति गुरुरित्यव शिष्यसमवेता प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा विषयतया धर्मवृत्तावधर्मवृत्तौ वा इष्टसा
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विभक्त्यर्थनिर्णये । धनत्वेनानिष्टसाधनत्वेन वा जाने प्रयोजकतया तबोहेश्यितयाऽन्वेति इच्छाया धात्वर्थे निवेशात् शिष्य धर्म शास्ति शिष्यो धर्म न प्रवर्तते न वा तमिष्टसाधनत्वेन जानातीत्यादि प्रयोगस्य नानुपपत्तिः । भजात्यागो ग्रहणव्यापारश्च जयतेरर्थ: भङ्गो दातादौ समोहितापदायाद्यनुपहितेच्छा युद्धादी पलायनादिः पाक्षिकशतं जयतीत्यत्नाक्षिकसमवेताभदायाद्यनुपहितेच्छाविषयतया शतवृत्तौ त्याग स चग्रहणव्यापारे प्रयोज्यतयाऽन्वेति श→ महौं जयतीत्यत्र तिपलायनादिकं विषयतथा महीरत्ती त्यागेस चग्रहणव्यापारे प्रयोज्यतयाऽन्वेतीति । स्वत्वनिष्ठानिष्टसाधनताज्ञानप्रयोज्यदेषम्त्यागो ग्रइणव्यापारश्च दण्डयतेरथः गगं शतं दण्डयतीत्यत्र गर्गवृत्तिस्तादृशदेषो विषयतया शतवत्तौ त्यागे स च ग्रहगाव्यापारे प्रयोज्यतयाऽन्वेति शतानपंणदण्डताडनादि सम्भावनया शतस्वत्वे द्वेषः ततः शतस्वत्वनाशेच्छास्वरूपस्त्याग इत्युपपत्तिरिति । अवयवसंयोगनाश उगमनकमव्यापारश्च मनातेरर्थ: दधि घृतं मनातीत्यत्र सामानाधिकरण्येन दधिवृत्तिरवयवसंयोगनाशो तसमवेतीहुमनकर्मणि प्रयोज्यतया उगमनकर्म तु प्रयोजकतया विलोड नव्यापार अन्वेति तस्य दधिनाशजन्यत्वाध्यवयवसं योगनाशस्य तकर्मप्रयोजकल्वाङ्गवत्युपपत्तिः । एवं क्षीरसागर कौस्तुभं मथातीत्यत्रापि क्षीरसागरावयवकौस्तुभसंयोगानां कौस्तुभोगमनप्रतिबन्धकानां नाशे सति मन्दरादिसंयोगजं कौस्तुभोगमनं भवतीति ताहुशसंयोगनाशप्रयोज्यत्वं कौस्तुभोजमने सम्भवतीति ना--
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१५०.
द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
नुपपत्तिरिति । विक्तित्तिरुत्पत्तिर्व्यापारश्च पचेरर्थः तबडलानोदनान् पचतोत्यव तण्डुलवृत्तिविक्तित्तिरोदनवत्तावत्पत्ती सा च प्रयोजकतया व्यापारेऽन्वेतौति । स्वामित्वे सति विनियोगानुत्पादोऽस्वामिसम्बन्धो व्यापारश्च मुष्णातेरर्थः वणिजं हिरण्यं मुष्णातीत्यव स्वाविवित्तिर्विनियोगानुत्पादी हिरण्यवत्तावस्वामिस्वसंबन्धे स च तस्करव्यापार प्रयोजकतयाऽन्वेति विनियोगो दानविक्रयादिः संबन्धः संयोगसामानाधिकरण्यादिरिति । प्रेरकपुरुष देशावधिक प्रेर्य देश वृत्तिपरत्व निखपितापरत्वासमानाधिकरणसंयोगः कर्म व्यापारी नयतेर्वहतेशचार्थः वहतेरर्थे प्रेरक प्रर्ययोः स्थाने वोढ़वोढव्यौ वोध्यौ तादृशापरत्वसमानाधिकरणः संयोग आवस्य नयतेरर्थे निविशते व्यापारस्तु नयतेः प्रेरणादिः वहतेराधेयकर्मानुकूलाधारकर्मादिः ग्राममजां नयतौत्यव ग्रामवृत्तिस्तादशसंयोगोऽजावृत्तिकर्मणि तच्च पुरुषप्ररणास्वरूपे व्यापारे प्रयोजकतयाऽन्वेति ग्रामं भारं वहति पुरुषो दौपं सांयात्रिकं वहति नौरित्यादौ ग्रामवृत्तिसंयोगो भारवृत्तिकर्मणि तच्च पुरुषव्यापारे कर्मणि प्रयोजकतयाऽन्वेति वहतेस्तु क्वचित्संबन्धप्रतियोगित्वे अप्यर्थी यथा वहति यः परितः कनकस्थलीरित्यादौ पत्र हि कनकस्थलौवृत्तिः संयोगस्स्वरूपेण प्रतियोगित्वे तच्च निरुपकतया तिङर्थाश्रयत्वऽन्वेति एवमन्यत्रापि साचात्परम्परास्वरूपः सम्बन्धो बोध्यः परम्परासम्बन्धस्तु गधं वहति वायुरित्यादौ बोध्यः । कर्षकदेशावधिककर्षणीय देशवृत्तिपरत्व निरूपितापरत्वसमानाधिकरणसंयो
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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गः कर्मव्यापारश्च कृषेरर्थः भूमिं शाखां कर्षति फलार्थी - त्यादौ भूमिवृत्तिताह संयोगः शाखावृत्तिकर्मणि तच्च फलार्थिव्यापार प्रयोजकतयाऽन्वेति । संयोगः कमव्यापारश्च हरतेरर्थः स्वगृहं परधनं हरति तरकर इत्यादी स्वगृहटत्तिसंयोगः परधनवृत्तिकर्मणि तच्च तस्करव्यापारे प्रयोजकतयाऽन्वेति उपादानव्यापार उत्पत्तिर्व्यापारश्च करोतेरर्थः उपादानव्यापारस्तु क चित्संयोगः यथा वीरणं कटं करोतीत्यत्र वीरणवृत्तिसंयोगः कटवत्तावत्पत्तौ प्रयोज्यतया सा पुरुषव्यापारे प्रयोजकतयाऽन्वेति क्वचित् क्रिया यथा कनकं कुगडलं करोतीत्यत्र कनकवृत्तिक्रिया कुण्डलोत्पत्तावन्वेति क्वचिदवयवसंयोगनाथः यथा काष्ठं भष्म करोतौत्यत परम्परया काष्ठवृत्तिरवयवसंयोगनाशो भमोत्यत्तावन्वेति । दादश दुहादयः पन्च ण्यादयः एते सप्तदश धातवो द्विकर्मकाः । ग्रहिरपि द्विकर्मक इति के चित् तन्निर्मूलमित्यन्ये तदुक्तम् ।
दुद्याच्यचधिष्टच्छि चिब्रूशासि निमन्थिसुषाम् । कर्मयुक् स्यादकथितं तथा स्यान्नीकृष्वहाम् ॥ युक् द्वितीयमित्यर्थः तथा ।
दुहियाचिमधिमच्छि चिब्रूशा सिजिदण्ड्यः । मन्थिः पचिश्च मुष्णातिर्धातवो मो दुव्हादयः ॥ नयतिवहतिकर्षतीन् करोतिनयतिगणेषु वदन्ति पाणिनौयाः । दुहादिभ्यो द्वादशभ्यः कर्मप्रत्ययेन प्रधानकर्मणो विवक्षणे अविवक्षणेऽपि गौण कर्माभिधीयते यथा गौः पयांसि दुखते दुग्धा वा प्रधानाविवक्षणे
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१५२ द्वितीयाविभक्तिविचारः ।। यथा गौर्दयते दुग्धा वा गौणकर्माविवक्षणे तु प्रधान नकर्माप्यभिधीयते यथा पयांसि दुद्यन्ते दुग्धानि वा न्यादिभ्यः पञ्चभ्यः कर्मप्रत्ययेन गुणकर्मणो विवक्षणे वा प्रधानकर्मवाभिधीयते यथा अजा ग्रामं नीयते अविवक्षणे तु यथा अजा नौयते एवं राजा कनकं या च्यते याचितो वा अत एव राजा सुतं याचित इति यथा वा कनक याच्यते याचितं वा एवं व्रजो गामवरूयते अवरुदो वा यथा वा गौरवरुध्यते अवरुद्धा वाएवं जानपदः पन्थानं व्यते पृष्टो वा प्रच्छिपर्यायवृदिवोध्य: अत एवाहमपीदमचोद्यं चोदो इति । एवं तमः पुष्पमवचीयते अवचितो वा यथा वा पुष्यमवचीयते अवचितं वा अत एव अवचितकुसुमा विहाय वल्लोरिति एवं शिष्यो धर्ममुच्यते उक्तो वा एवं शिष्यो धर्ममनुशास्यते अनुशासितो वा यथा वा धर्मो नुशास्यते अनुशासितो वा एवमाक्षिक: शतं जीयते जितो वा यथा वा शतं जीयते जितं वा अत एव कृतप्रणामस्य महौं महोभुजे जितां सपत्नेन निवेदयिष्यत इति एवं गर्गः शतं दण्ड्यते दण्डितं वा एवं क्षौरनिधिः कौस्तुभं मथ्यते मथितो वा अत एव देवासुरैरमृतमम्बुनिधि ममन्थे इति यथा वा कौस्तुतो मथ्यते मथितो वा एवं तण्डुल श्रोदनं पच्यते पक्को वा यथा वा भोदनः पच्यति पक्को वा एवं वणिग्घिरण्यं सुष्यते मुषितो वा अत एव रत्नानि मुषितो वणिगिति यथा वा कनक मुष्यते मुषितं वा एवं मारो ग्राममुच्यते जढो वा एवं परधनं स्वगृहं वियते हृतं वा यथा वा परधनं हियते
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ROID विभक्त्यर्थनिर्णये। तं वा एवं शाखा भूमि कुष्यते कष्टा वा यथा पा शाखा कृष्यते कृष्टा वा एवं कटो वोरणं क्रियते कृतो वा यथा वा कटः क्रियते कृतो वा तदुत्ताम् ।
प्रधानकर्मण्याख्येये लादीनाहि कर्मणाम् ।
अप्रधाने दुहादीनां ण्यन्ते कर्तुश्च कर्मणः ॥ इति प्रधानफलवत् प्रधानकर्मगुणफलवदप्रधानकर्म बोध्यम् । तदिदं कर्म वाक्यपदीये प्रोक्तम् ।
निर्वत्यै च विकायं च प्राप्यं चेति विधा मतम् । तच्चेप्सिततमं कर्म चतुर्धाऽन्यत्तु कल्पितम् ॥ औदासीन्येन यत्प्राप्यं यच्च कतुरनीप्सितम् ।। संतान्तरैरनाख्यातं यद्यच्चाप्यन्यपूर्वकम् ॥ निर्वयविकार्यप्राप्यलक्षणं हरिणोतं पूर्वमेवप्रदर्शितम औदासीन्येन प्राप्यं ग्राम गच्छंस्तुणं स्पृशतीत्यादौ टगादि अनीप्सितं तु रथ्यां गच्छन् चाण्डालं इष्टशतीत्यादी चाण्डालादि संज्ञान्तरैरनाख्यातं तु गां पयो दोग्धि इत्यादावकथितमित्यनेन कर्म गवादि अन्यपूवकं तु करमभिध्यतीत्यादौ संप्रदानसंज्ञाबाधकानुशासनेन कर्म क्र रादि तदनुशासनं तु वक्ष्यते मासमास्ते इत्यादी मासादेः कर्मत्वोपपत्तये "अकर्मकधातुभिर्योगे देश: कालो भावो गन्तव्योऽध्वा च कर्मसंज्ञकइति वाच्यमि"ति वार्तिकम् । अवा कर्मकधातवस्तु सकर्मकलक्षणे प्रोक्ताः देश: देशत्वावान्तरधर्मवान् कुरुपचालादिः न तु सामान्यतो देश: न वा ग्रामवादिना ग्रामादिः तेन कुरून् खपिति तिष्ठति वेति प्रयोगः न तु देशं ग्रामं वा खपिति तिष्ठति वेति प्रयोगः । कालः
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द्वितीयाविभाक्तविचारः । कालवावान्तरधर्मवान् माससम्बत्सरादिः न त सामान्यतः कालः तेन मासं सम्बत्सरं वाऽऽस्ते इति प्रयोगः न तु कालमास्ते इति प्रयोगः । भावो गोदोहादिः तेन गोदोहं तिष्ठतौति प्रयोगः । यद्यपि गोदोहादिशब्दस्य कालार्थकतया कालग्रहणोनैव दर्शितप्रयोग सिद्धेः भावग्रहणमनर्थकं तथापि घञन्तेन प्रतिपाद्यमानोऽपि कालः कर्म भवतीति प्रपञ्चार्थमेव भावग्रहणम् । गन्तव्योऽध्वा ऽध्वत्वावान्तरधर्मवान् क्रोशयोजनादि न तु सामान्यतोऽध्या सामान्यव्यवच्छेदार्थ गन्तव्यपदं तेन क्रोशं योजनं वा रमते सांयात्रिक इति प्रयोगः न तु अध्वानं रमत इति प्रयोगः । न च "कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे" हितोयाइत्यनुशासनेनैव मासमास्ते कोशं रमते इत्यादिप्रयोगोपपत्तेः प्रकृतवात्तिके कालाध्वग्रहणमनर्थकमिति वाच्यं प्रकृतवार्त्तिकैन कर्मसंज्ञानापनेन कर्माख्यातप्रयोगोपपादनात् तेन कुरव: सुष्यन्ते माम अास्यते क्रोशो रम्यते गोदोहः स्थीयते इत्यादि प्रयोग: अव कुरूने खपिति क्रोशं रमत इत्यादौ दैशिकेन कर्ट घटितपरम्परया साक्षादा संसर्गेणावच्छिन्नमाधेयत्वं हितीयार्थः स च खापादिप्रधानीभूतधात्वर्थान्वयौ एवं मासमास्ते गोदोहं तिष्ठतीत्यादौ कालिकसम्बन्धावच्छिन्नमाधैयत्व हितीयाथ: सोऽपि प्रधानोभूतासनादिधात्वर्थान्वयौ एवं कुरवः सुष्यन्ते क्रोशो रम्यते इत्यादौ दैशिकतादृशसं मर्गावच्छिन्नमधिकरणत्वं कर्माख्यातार्थः एवं मास आस्थत गोदोहः स्थीयते इत्यादौ कालिकतादृशसंसर्गावछिन्नमधिकरणत्वं कर्माख्यातार्थः । एवं कुरून् स्वपि
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विभक्त्यर्थनिर्णये। ति कुरवः सुप्यन्ते इत्यादी शाब्दबोधः स्वयमूद्य इति । गमयति दिगन्तमरातीनित्यादावरात्यादेः कर्मत्त्वोपपत्तये"गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थशब्दकर्माकर्मकाणामणि कर्ता स णावि"त्यनुशानम् । गत्यर्था गमिव्रज्यादयः बुध्यर्थाः बुध्यतिजानात्यादयः । प्रत्यवमानं भोजनं तदर्था अशिभुज्यादयः शब्दकर्माणः शब्दाभिन्नकर्मकारकोपलक्षितक्रियावोचिनो वदत्यध्येत्यादयः अकर्मका देशकालभावगन्तव्याध्वभिन्नकर्मान्वयायोग्यार्था सिरम्यादयः अत्र “सनाद्यन्ताधातव" इत्यनेन णिजन्तस्य धातु णिप्रकृतिधात्वर्थस्य फलतया तद्वतोऽरात्यादेः कर्मत्वं स्पष्टमिति कतुरीप्सिततमानीप्सिताभ्यां कर्मसंज्ञासिद्धी गत्यादिसर्व नियमार्थं तेन गमयति दिगन्तमरातीनिज्यादावरास्यादीनामिव पाचयत्यन्नं यज्ञदत्तं देवदत्त इत्यादौ यत्तदत्तादीनां कर्मत्वं नेष्टमिति पाचयत्यादियोगे न कर्मसंज्ञा भवतीति नियमार्थमिदं सत्रम् । एवं पाचयत्यन्नं यत्तदत्तेन देवदत्त इत्येव प्रमाणं तदाहुः । 29 गुणक्रियायां स्वातन्त्र्यात्प्रेरणे कर्मतां गतः ।
नियमात्कर्मसंज्ञायाः स्वधर्मेणाभिधीयते ॥. इति गुणक्रियायां णिच्प्रकृतिधात्वयं प्रधाने स्वातन्यात्माक्षादाश्रयत्वात् स्वधर्मेण स्वधर्मस्वातन्त्र्यस्याभिधायकेन टतोययेति यावत् प्रेरणे गिजथें कर्मतां गतोऽपीति शेषः नियमात् गत्यादिकर्मण्येव कर्मसंज्ञाज्ञापनादिति प्राचीना: । नवौनास्तु गत्यादिसर्व विधायकमेवान्यथा परया कटं संजया कर्मसंज्ञाया वाधात् गत्यायणिजन्तकर्तर्णिजन्तेऽपि कर्मत्वाप्रसङ्गात् प्रयोज्ये
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द्वितीयाविभक्तिविचारः। कट संज्ञां विना णिच एवानुत्पत्त: हेतुमति हिणिविधीयते कतु: प्रयोजको हेतुरिति कट संज्ञा सापेक्षतया कर्मसंज्ञायामुपजीव्यत्वात् कट संक्षाबलवती । एवं स्वकारकविशिष्टा क्रिया णिजऽन्वेतौति गुणक्रियाकारकसंज्ञाऽन्तरङ्गतया बलवती । तदुक्तमभियुक्तः ।
परत्वादन्तरङ्गत्वादुपजीव्यतया तथा। प्रयोज्यस्यास्तु कट त्वं गत्यादेविधितोचिता ॥ कर्ट त्वमस्तु तथापि गत्यादेः गत्यादिसूत्रस्य विधिता विधायकतेत्यर्थः तथा च गत्यादिसूत्रेण कट संजाया अपवादात् कर्मसंज्ञाविधानमिति । नन्वेवमरात्यादेः कः कर्मसंनया कर्ट संचाबाधे दिगन्तस्य कमैप्सिततया कतुरोप्सिततमत्वाभावात्कर्मसंज्ञाविरहात गमर्यात दिगन्तमरातीनित्यादौ दिगन्तमिति हितोयानुपपत्तिरिति चेन्न । “कर्तुरीप्सिततमं कमें"ति सूत्रे कर्ट शब्दस्य कर्ट संज्ञाविशिष्टार्थकत्वाभावात् धातूपात्तव्यापाराश्रय खतन्त्रमावार्थकत्वात् । एवं दर्शितस्वातन्त्र्यस्यारात्यादावनपायात् कर्तुरीप्सिततमत्वं दिगन्तमिति द्वितीयोया नानुपपत्तिरिति वदन्ति । वस्तुतस्तु प्राचीनमतेऽपि परया कर्तसंजया न कर्मसंज्ञाया बाध: गमयति दिगन्तमरातीनित्यादावरात्यादेः गां पयो दोग्धोत्यादौ पयस इव न च दु. हादेः प्रधानव्यापारस्य गोपाले सत्वात् दुग्धे असखात् पयसो न कर्तृसंज्ञाप्रसक्तिरिति वाच्यं तथा सति णिजन्तस्य धातुत्ववादिनां प्राचामपि मते प्रधानव्यापारस्याराल्यादावसत्वात् णिजथस्यैव प्राधान्यात् । एवं
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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गत्या दिसूले कर्तृशब्दो न कर्तृसंज्ञाविशिष्टार्थकः किं तु दर्शित स्वतन्त्रार्थक इति कर्मसंज्ञा न कर्तसंज्ञामुपजौवति एवं हेतुमति गिजि "तिसूत्रस्य कर्ट प्रयोजको हेतुरिति व्याख्यानेऽपि कर्तृ शब्दः स्वतन्त्रार्थक एवेति णिजुत्यत्तावपि न कर्तृ संज्ञापेक्षेति न कर्मसंज्ञा कर्तृ संज्ञामुपजीवति एवं गुणक्रियाकारकं न प्रधान क्रियाकारकं भवतोति नान्तरङ्गतयाऽपि कर्तृसंज्ञा बलवतीति न चैवमरात्यादेः प्रधानव्यापारानाश्रयत्वे दिगन्तस्य कर्तुप्सिततमत्वाभावात् कर्मसंज्ञानुपपत्तिरिति वाच्यम् । पिजन्तस्य धातुत्ववादिनां गुणफलवतो दिगन्तस्य गां प्रयो दोग्धात्यादौ पथस इवाकथितमित्यनेन कर्मसंज्ञासम्भवात् अत एवाकथितसूत्राव्यवधानेन गत्यादिसूत्रमुक्तं नन्वेवं पाचयति चैत्रेण मैत्र इत्यादौ तृतीयानुपपत्तिः चैवस्य प्रधानव्यापारानाश्रयतया कर्तृत्वाप्रसक्तरिति चेन्न नलेनाभिषिञ्चतीत्यादाविव कमणः करणतया चैत्रेण पाचयतीत्यत्रापि करणार्थकतृतौयोपपतः चैत्रव्यापारजन्यत्वस्वरूपश्चेत्रेणेति तृतौयान्तार्थः पच्यर्थेऽन्वेति तत्र फले व्यापारे चान्वय इत्यन्यदेतत् । भ वतु वा प्रधानीभूतस्य धात्वर्थस्य नदन्विततिर्थस्य वाऽऽ श्रयः कर्ता स च धातुर्भूवादिरणिजन्तो विजाद्यन्तश्च एवमणिजन्तधात्वर्थक तथा प्रयोज्यस्य चेत्रेण पाचयतोत्यव तदर्थकतृतौयोपपत्तिः णिजन्तार्थकतृतिया प्रयोजकस्य मैत्रेण पाच्यते इत्यव तदर्थकतृतौयोपपत्तिः एवं''कर्तृ' करणयोस्तृतीये" ति सूचे कर्तृशब्दी दर्शितार्थक एव न तु कर्तृ संज्ञाविशिष्टार्थकः । नन्वेवं गमयति दिग
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
न्तमरातौनित्यादावप्यरात्यादौ दर्शितकर्तृत्वस्यानपायात् अरातिपदात्तृतीयाप्रसङ्गः न च गत्यादिकर्ता : कमत्त्वात्कथं तृतीयाप्रसङ्ग इति वाच्यम् । गत्यादिसूत्रस्थ नियमार्थत्वात्कर्मसंज्ञाविधायकत्वाभावात् णिजन्तार्थकर्मत्वस्याणिजन्तार्थकर्तृत्वस्य चोभयस्यारात्यादौ सत्वात् द्वितीयतृतीययोरेकशेषस्य कर्तुमशक्यत्वादुभयविधप्रयोगस्य साधुत्वप्रसङ्गादिति चेन्मैवं गत्यादिमूत्रस्य द्विविधनियमार्थकत्वात् । नियमस्तु गत्यादीनामेव कर्ता कर्मेति गत्यादीनां कर्ता कर्मैवेति । कर्मैवेत्येवकारेण कर्मकार्यातिरिक्तं ततौयादिकं व्यवच्छिद्यते । एव‘माकडारादेका संज्ञा" या परा ऽनवकाशा चेत्यबापि परकार्यातिरिक्तस्थानवकाश कार्यातिरिक्तस्य च कार्यस्य व्यवच्छेदः प्रतीयते इति न काप्यनुपपत्तिरिति । गमयति दिगन्तमराती नित्यादावरातिपदोत्तरद्वितीयान्या. कर्तृत्वमर्थः गत्यादिमचे कर्तेति भावप्रधानो निर्देश: कर्तत्वं तु गमयत्यरातोनित्यादौ कृतिः । बोधयति धर्मं माणवकमित्यादौ माणवाकपदोत्तरद्दितीयायाः समवेतत्वलचणं तदर्थः भोजयति मिष्टमतिथीनित्यादावतिथिपदोत्तरद्वितीयायाः कृतिलक्षणं तदर्थः गत्यादिसूत्रे भोजनग्रहणां पानमप्युपलक्षयति तेन पाययन्त्यः शिवन् पय इत्यादिप्रयोगोऽप्युपपद्यते अचापि शिशुपदोत्तरद्वितीयायाः कृतिरेवार्थः । ब्रह्मेनं व्याहारयतौत्यादावेतत्पदोत्तरद्वितीयायाः कृतिलक्षणं तदर्थः । मासमासयत्यतिथौनित्यादावतिथिपदोत्तरद्वितीयायाः कतिलक्षणं तदर्थः द्वितौयार्थो नानाविधकर्तृत्वं णिच्प्र
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
१५९ कृतिधात्वर्थे प्रधानेन तत्संसर्गेणान्वेति । के चित्तु णिजन्तसमुदायस्य धातुतया णिजर्थविशेषणधात्वर्थस्य फलतया तहतः कर्तुः कर्मत्वं स्पष्टमेव हेतुमति चे"त्यनुशासनात् णिची हेतु कर्तुत्वं कत प्रयोजकत्वमर्थः कर्तृत्वं च णिचप्रकतिधात्वर्थवत्वं तदन्विततिर्थवत्वं वा तदपि कचित्प्रयत्नः क्वचिदाश्रयत्वादिकं योदृशधातूत्तराख्यातेन यादृशं क त्वं वोध्यते णिचप्रत्ययेन तादृशकर्तत्वनिर्वाहकव्यापारी बोध्यते स च पाचयतीत्यादौ पाककृतिनिर्वाहक: ज्ञापयतीत्यादौ ज्ञानाश्रयत्वनिर्वाहकः नाशयतीत्यादौ नाशप्रतियोगित्वनिर्वाहकः व्यापारः प्रतीयते निर्वाहकत्वं च स्वरूपसंबन्धविशेषः न तु जनकत्वमतो ज्ञापयतीत्यादौ नानुपपत्तिः एवं च णिचप्रकतिधात्वर्थकलस्य फलतया तहतः स्वतन्त्रस्य कतु: कमत्वात्तादृशफलविशेषणतया स्वतन्त्रकतत्तित्व विवक्षायां पाचयत्योदनं सहायमित्यादयः प्रयोगा: यदा तु पाकादिविशेषणतया सहायादिकत त्वं विवक्षितं तदा पाचयत्योदनं सहायेनेत्यादयः । अथ यत्र चैत्रमैत्रोभयकर्तृकः पाकस्तत्र चैत्रमा प्रयोजयति यजदत्ते मैवेणायं पाचयतीति प्रयोगापत्तिः मैत्रकर्तृकपाकप्रयोजकव्यापारस्य दर्शितस्थले यत्तदत्त सत्वाते तादृशप्रयोगवारणार्थ गिजर्थव्यापारविशेषगाधात्वर्थकतत्वे प्रातिपदिकार्यान्विताधेयत्वस्य तृतीयान्तार्थस्यावयो वाच्यः एवं मैत्रं पाचयतीत्यादिवाक्यजवोधावैलक्षण्याद् द्वितीयातृतीययोरन्नयतात्पर्यभेदेन व्यवस्था न युक्तति चेन्न अगत्या पाकादिविशेषणतान्वितायास्तती
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द्वितीयाविभक्तिविचारः । यार्थकतेः पारतन्च्येण जिविशेषणकत त्वेऽभेदान्वयोपगमेन दर्शितप्रयोगवारणमम्भवात अन्वयभेदेन तृतौयाहितीययोर्व्यवस्थासम्भवात् । धात्वर्थकर्तुत्वं निर्वाहकव्यापारश्च खण्डशो णिजथं इति नैकदेशान्वयशङ्कति वदन्ति । तच्चिन्त्यं चैवं पाचयतीत्यादिप्रयोगाभ्युपगमे गत्यादिसूत्रप्रणायनवैयर्थ्यप्रसङ्गात् नियमार्थतापक्षे सूत्रण गत्यादिकानामेव कर्तु: कर्मत्वज्ञापनात् न च गत्यादिकर्ता कमवेति नियमस्य सूत्रेण ज्ञापनात् देवदत्तेन ग्रामं गमयतीत्यादिको न प्रयोगः प्रयोगश्च अयाचितारं न हि देवदेवमद्रिः सुतां ग्राहयितुं शशाकेत्यादिक उपपद्यत इति वाच्यम् । गत्यादिकानामेव कर्ता कर्मेति गत्यादिकानां कर्ता कम वेति विविधनियमस्य सूत्रेण जापनात् देवदत्तेन गमयतोत्यादिप्रयोगानुपपत्त: अयाचितारमित्यादेरन्यथोपपत्तेश्च तथा हि सुतां ग्राहयितुं देवमयाचितारं न शंशाक न कृतवानित्यर्थे देवदेवस्य ग्राह्यर्थेन ह्यन्वय: अत एव जायाप्रति ग्राहितगन्धमाल्यामित्यत्न कर्मप्रत्ययस्य तस्य गौणकमणि साधुत्वमवसीयते अन्यथा ण्यन्त कतुं श्च कर्मण इत्यनुशासनेन धात्वर्थकर्तरि कर्मण्येव तस्य साधुतया गौणकर्मण्यसाधुत्वप्रसङ्ग इत्यादिक वच्यते । एवं सनन्तस्य धातुत्वात् सन्नथेंच्छाविषयस्य कर्मत्वं भवति । यथा पाकं चिकौर्षत्योदनं बुभुक्षत इत्यादौ पाकौदनयोः कृतिभोजनयोर्धात्वर्थयोः सन्नर्थेच्छायां विशेष्यतासमानकत कत्वाभ्यां संवन्धाभ्यामन्वयः तेनान्यदीयकतिभोजनविषकेच्छासत्व चिकीर्षति बुभुक्षते वा इति न
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विभक्त्यर्थनिर्णये। प्रयोगः समानकर्तकत्वबाधात् न वा पुत्रधनेच्छायां विद्यमानायां चिकोर्षतौतिप्रयोगः कतिविशेष्यत्वबाधादिति वदन्ति तदव विषयतामात्रेण कर्मत्वं न सम्भबति पाकत्वं चिकीर्षतौतिप्रयोगापत्तेः उद्देश्यतया तथात्वे तु ओदनं बुभुक्षत इत्यादावोदनस्यानुद्देश्यत्वात् कर्मत्वानुपपत्तिरित्यादिकं चिन्तनीयम् । मणिकृतस्तु चिकीर्षाकृतिसाध्यत्वप्रकारिका कृतिसाध्यक्रियाविषयेच्छा पाक कृत्या साधयामीति तदनुभवात् कृतिमाध्यत्वप्रकारकफलेच्छावारणाय क्रियाविषयकत्वं विशेषणं कृतिसाध्यत्वबमजन्यायाः कृत्यसाध्यक्रियाविषयिण्या इच्छाया वारणाय कृतिसाध्यत्वं वास्तवं विशेषणम् अनुभवस्तु कतिसोध्यत्वेन पाकमिच्छामीत्याकारक एव पाकं चिकोर्षतीत्यत्र प्राधान्येन पाकस्येच्छाविषयत्वमनुभूयते न तु कृतेः प्राधान्यमुद्दे श्यत्वं धातोश्च सन्प्रत्ययाभिधेयेच्छाप्रकारवाचित्वं तेन कृञ: कृतिसाध्यत्वं तत्यकारकत्वं वार्थस्तच प्रकारितया स्वरूपेण वा संसर्गेणेच्छायां सन्नथेऽन्वेति । ओदनं बुभुक्षत इत्यत्र भोजनविशेष्यतयौदनस्यानुभवात् भोजनस्य कर्मतासंसर्गेणौदनेऽन्वयः तस्य च विषयतया सन्नर्थेच्छायामन्ययः अत्र कृतिसाध्यत्वस्य खनिरूपककृतिसामानाधिकरण्येनौदनस्य स्वकर्मकभोजनजनककृतिसामानाधिकरण्येनापि सन्नर्थेच्छायामन्वयः तेनान्यदीयकृति साध्यत्वभोजनीयकर्मत्वविषयकेच्छायां विद्यमानायां न तथा प्रयोग: दर्शितलक्षणचिकोर्षायाः प्रवृत्तिहेतुत्वात् चिकोर्षतीत्यवत्थन्धात्वर्थनिर्वचनादिति वदन्ति । सोहण्डोपाध्यायास्तु पाकं चिकीर्ष
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द्वितीयाविभाक्तविचारः। तोत्यादौ सन इच्छामाबमर्थ: तत्र धात्वर्यस्य कत्यादरहेश्यित्वसमानकतत्वाभ्यां संबन्धाभ्यामन्वयः धात्वर्थकत्यादौ ताफले साध्यत्वविषयत्वे वा पाककर्मत्वस्य विषयित्वस्याधेियत्वस्य वा अन्वयः समानकर्तृकत्वनिवेशादन्यदीयकृतीच्छायां चिकोतीति न प्रयोगः उद्देश्यत्वनिवेशात्कृतिज्ञानेच्छायां न तथा प्रयोग इति वदन्ति । युज्यते चैतत् तथा हि सन्नर्थच्छायां पाकादिविषयत्वस्य नान्वयः धात्वर्थस्यैवोद्देश्यितयाऽन्वयात् न तु विषयत्वसामान्यस्य हितीयार्थतयाऽन्वयस्तथा सति पाकत्वं चिकीर्षतौति प्रयोगप्रसङ्गाद् उद्देश्यता तु प्रातिपदिकार्थे सन्नर्थेच्छाया न व्यत्यत्तिसिडा तण्डलं पिपक्षतोत्यादौ तण्डलस्य सिद्धतयाऽसम्भवात् न च पाकीयस्तण्डुलो भवत्वितीच्छायामपि तण्डुलं पिपक्षतीति प्रयोगात् प्रातिपदिकार्थस्य विषयतया तत्त्रान्वय इति वाच्यं तथा सति पाकीयं ज्ञानं भवत्वितौच्छायां ज्ञानं पिपक्षतीति प्रयोगोपपतेः विषयतामात्रेणान्वयोयगमेतिप्रसङ्गस्य दर्शितत्वाच्च न चौदनं बुभुक्षत इत्यत्र भोजनविशेष्यतयौदनस्यानुभवादिति मणिविरोध इति वाच्यम् । भोजनविशेष्यतयेत्यत्व बहुब्रीहिणा विशेषगावानुभवस्य बोधितत्वात् । ननु कथ तर्हि पाक चिकोर्षतीत्यत्र प्राधान्येन पाकस्येच्छाविषयत्वमनुभूयते न तु कतेरिति मणः सङ्ग तरिति चेत् प्रवृत्तिहेतुभूतायाचिकौर्षायाः कृतिसाध्यत्वप्रकारकतया पाकस्योद्देश्यत्वसम्भवात्तथैव तन्निर्वचनमुक्तं सामान्यतश्चिकीर्षा शब्दार्थ: धातुप्रत्ययार्थयोरन्वयेन कृतीच्छव । न च तत्र विषयितामायण
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विभक्त्यर्थनिर्णये। पाकस्यान्वयेऽतिप्रसङ्गस्य दर्शितत्वाद् उश्यितया धात्वर्थक्रतेरेव तवान्वयः पिपक्षतीत्यादौ तथादर्शनाद् एवं धात्वर्थफले हितीया त्तार्थस्यान्वयः न तु सन्नथें अत एक गृहं तिष्ठासतौति न प्रयोगः अन्यथा गृहे स्थितिः स्या, दितौच्छाया गृहविषयत्वात् तथाप्रयोगप्रसङ्गात् । नन्वेवं पाकश्विकोय॑ते तण्डुलः पिपक्ष्यते ओदनो बुभुच्यते इयादी पाकतण्डुलादेस्तिङीकर्मत्वस्यान्वयानुपपत्तिः सन्नीकर्मत्वात् सन्नर्थाविशेषितस्य धात्वर्थविशेषितस्य तस्यान्वेतुमशक्यत्वात् । प्रकृत्यर्थविशेषितस्यैव प्रत्ययार्थस्यान्यवान्बेतुं योग्यत्वात् । एवं धात्वर्थकर्मत्वानभिधानादीदृशकर्माख्यातस्थले पाकतगडुलादिपदाद् हितोयाप्रसङ्गश्च तस्मात्याकतण्डुलादिप्रातिपदिकार्थस्य धात्वर्थकर्मत्वं न युज्यते युज्यते च सन्नर्थकर्मत्वमिति न दर्शितहितीयाप्रसङ्गः कर्मतासंबन्धेन धात्वविशिष्टप्रातिपदिकार्थस्य सन्नर्थकर्मत्वोपगमात् तिष्ठासनियोगे न हितीयाप्रसङ्गः तिष्ठतेरकर्मकत्वात् तत्व तादृशप्रातिपदिकार्थस्यासम्भवात् तण्डुलादेस्मिद्धत्वापि कर्मतया पाकविशिष्टतण्डुलस्येच्छोद्दश्यत्वं नानुपपन्नं मुखवन्तमामानमिच्छतोत्यादी सुखविशिष्टात्मनस्तथादर्शनात् अत एवौदनं बुभुक्षत इत्यादौ भोजनविशेष्यतयौदनस्यानुभवादित्युक्तं विशिष्टतण्डुलादेः सन्नर्थकर्मत्वसम्भवात्तण्डुलं पिपक्षतीत्यादिप्रयोगोपपत्तिः पाकज्ञानेच्छायां तु ज्ञानं पिपक्षतीति न प्रयोगः तत्र कर्मतया पाकवैशिष्ट्य स्य ज्ञाने विरहात् कि तु ज्ञानवैशिष्टास्य पाके मत्वात्याकं जिज्ञासतौति प्रयोगोपपत्तिरिति चेत्तथासति गुडपाकस्य
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१६४ द्वितीयाविभक्तिविचारः। कमतया तण्डुले वैशिष्टयमवगाहमानायां गुडपांकीयस्तगडल्लो भवत्वितौच्छायां गुडं तण्डलः पिपच्यते इत्यादिकर्माख्यातप्रोगप्रसङ्गः सन्नर्थकमत्वस्य तगडलगतस्याख्यातेनाभिधानेऽपि गुडगतस्य धात्वर्थपाककर्मत्वस्यानभिधानात् गुडपदाद् हितौयाप्रसङ्गस्य दुर्वारत्वात् । ननु धातोरप्रकृतित्वात् मन्प्रकृतिकन कर्माख्यातेन कथं धात्वर्थ कर्मत्वं तण्डुलादिगतं तण्डुलः पिपच्यते इत्यादौ बोधनीयमिति चेत् कर्मख्यातस्थले प्रथमान्तार्थस्य मुख्यविशेष्यकत्वानुरोधेन सन्नर्थस्य धात्वर्थविशेषणतयाऽन्वयावश्यकत्वे मन्नर्थविशेषितधात्वथं कर्मत्वस्यैव कर्माख्यातेन प्रतिपादनसम्भवात् इष्टपाककर्मत्वस्य तगडुलेऽन्वयवोध उपपद्यते यथा गुरुणा शिज्येग पाच्यते तण्डुल इत्यादी गिप्रकृतिकन कर्माख्यातेन गिजर्थप्रयोजकव्यापारेण प्रयोज्यतासंबन्धेन विशेषितम्य पाकस्य कर्मत्वं तगड़लान्वयि प्रत्याय्यते न हि तत्र णिजथ प्रयोजकव्यापारकर्मत्वं प्रत्याययितुं शक्यत इति । एवं द्वितीयाकर्माख्यातायोः कर्मत्वयोः विशेषणत्वविशेष्यत्वाभ्यां सन्प्रकृतिधात्वर्थ एवान्वयोपगमात गृहांस्तिष्ठासति गृहास्तिष्ठास्यन्ते वा इति न प्रयोगः अत एव"पूर्ववत्सन" इति सूत्रेण सन्नन्तस्यात्मनेपदादिव्यवस्थायां पूर्वस्य प्रकृतिभूतधातोः साम्य तापनेन सकर्मकाकर्मकत्वयोरपि प्रकृतिभूतधातुसाम्यं ज्ञाप्यते इच्छाभिन्नार्थकस्य सन: प्रयोगस्तत्र तत्र द्रष्टव्य इति दिक् । एवं "जल्पश्रुग्रहदृशामुपसंख्यानमिति"वार्त्तिकेन जल्यनिप्रभृतिकर्तरि कर्मसंज्ञा ज्ञाप्यते तेन पुनमक्षराणि ज
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विभत्त्यर्थनिर्णये। ल्ययतीति प्रयोगः तत्र वर्णेतरायत्तित्वेन विशेषितोत्यत्तिापारश्च जपतेरथ: न च वर्णोत्पत्तिः फलविधयाऽर्थ इति वाच्यं तथा सति धात्वर्थान्तर्भूतकर्मकत्वात् शब्दायतिवज् जल्पतेरकर्मकत्वापत्तेः वर्णान् पर्दै वो जल्पतीतिप्रयोगानापत्तेः अथ वा उत्पत्तिः फलतया विकृतस्पृष्टेषत्स्पृष्टाः प्रयत्नास्ताद्रूप्येण व्यापारतया जल्पतेरर्थ: जल्पतिवत् ब्रु विवचिवदिदिप्रभृतयो बोध्याः पुत्रम नराणि जल्पयति पितेत्यत्र पुत्रपदोत्तरहितीयाया विस्तादिव्यापारान्वयिसमवेतत्वमर्थः णिच: शिक्षणाजादिः प्रयोजकव्यापारोऽर्थः एवमक्षरनिष्ठोत्पत्यनुकूलस्य पुत्त्रसमवेतवितादिव्यापारस्यानुकूलो यः शिक्षणादिस्तदात्रयः पितेति वाक्यार्थदोधः अत्र शब्दकर्मकतया जल्पतेः कर्तरि कर्मसंज्ञासिद्धौ वार्त्तिके जल्पतिग्रहणमनर्थकमिति ध्येयम् । एवं यजमानं सूक्तमनुवाकं वा श्रावयतीत्यत्व यजमानपदोत्तरहितीयाया: श्रावणप्रत्यक्षान्वयिसमवेतत्वमर्थ: अत्रापि शृणोते: शब्दकर्मकतया पृथग्यहणमनर्थकमिति ध्येयम् । न च शृणोते: श्रावणत्वमिव शब्दत्वमपि प्रतिनिमित्तं तथा च शिष्यं धर्म थावयतोति प्रयोगोपपत्तये वः पृथग्ग्रहणमिति वाच्यम् । शब्दकर्मेत्यत्र कर्मपदस्थ कारकपरतया शब्दकारककार्थवाचिधातोरुपग्रहात् शाब्दबोधस्य शब्दकरगकतया शृणोतेस्तथात्वात् शाब्दबोधार्थकस्य शृणोतेर्बुध्यर्थकतयोपग्रहसम्भवाच्च न च सूत्रे बुद्धिपदेन जानसामान्यवाचिनामेवोपग्रहो न तु ज्ञानविशेषवाचिनां दृशेश्चेति पृथगनुशासनविरोधादिति वाच्यम् । ज्ञानातिरितार्थेऽपि प्र
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द्वितीयाविभक्तिविचारः। वर्तमानस्य दृशः कर्तरि कर्मत्वज्ञापनार्थ पृथगनुशासनसम्भवात् ।
यत्पथावधिरणुः परमः सा - योगिधौरपि न पश्यति यस्मात् । बालया निजमनः परमाणी
ह्रौदरौशयहरोकृतमेनम् ॥ । नाक की पाइला । दूत्यादी दृशैरवगाहनार्थकत्वस्य दर्शनोत् तेन योगिधियं परमाणुं दर्शयति योगाभ्यास इति प्रयोगोपपत्तिर्दशेश्चेत्यनुशासनफलम् अत एव स्मारयायेनं वनगुल्मः खयमेवत्यादौ इदंपदाद द्वितीयोपपत्तिः स्मरते - नार्थकतया स्मरणकर्तरि गत्यादिसूत्रेणैव कर्मत्वत्तापनात् अन्यथा कर्मत्वेऽनुशासनदौलण्यापत्ते: ननु स्मारयत्येनमित्यादिः क प्रयोगः यदर्थ सूत्रे बुद्धिपदस्य ज्ञानसामान्यविशेषोभयवाचित्वमुपयत इति चेत् णेरणावितिसूत्रे भाष्योदाहरणमिदं तथा हि " पेरणी यत्कर्मणौ चेत्सकर्तानाध्याने"ति सूत्रस्यायमर्थः रापन्ताहातोरात्मनेपदं भवति अण्यन्तधातोर्यत्कर्म णिजन्तधातोः स कर्ता चेद्यथा हस्तिनमारोहतीत्यवाण्यन्तस्यारोहतेईस्तो कर्म तत्वारोहणप्रयोजको न्यगभावादि
ापारो णिचा हस्तिगतः प्रत्याय्यते चेत्तदा आरोहयते हस्ती स्वयमेव एवं पश्यति शिवमित्यत्र दर्शननकर्मशिवस्तव दर्शनप्रयोजक: करुणादिक्पारशिवगतो णिचा प्रत्याय्यते चेत् तदा दर्शयते शिवः स्वयमेवेति ईदृशार्थस्याध्यानार्थकप्रकृतिकण्यन्तसमुदायेन बोधनेऽपि आत्मनेपदं न भवति तत्रेदमदाहरणं स्मरय
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
१६७ स्येनं वनगुल्मः स्वयमेवेति अत्र स्मरणकर्मवनगुल्मगत उरोधकसम्बधादिणिचा प्रत्याय्यत एवमूर्ध्वदिगवच्छिनसंयोगानुकूल व्यापारार्थकस्यारीहतेर्गत्यर्थकत्वमक्षतमेवोर्ध्वस्याधिकस्य निवेशेऽपि गत्यर्थकत्वहानेरयोगात् करेणुरारोहयते निषादिनमित्यनारोहण कर्तरि कर्मत्वं गत्या दिमत्रेणैव जाप्यते एवं शिवो दर्शयते भक्तानित्यत्र दृशेर्जानाथै कतया गत्यादिमत्रेण दृशेश्चेति वार्तिकेन च दर्शनकर्तरि कर्मत्वं ज्ञाप्यते नन्वतारोहतिफलीर्वसंयोगाधिकरणतया हस्तिनो दर्शनफल विषयत्वाधिकरणतया शिवस्य कर्मत्वसम्भवे हस्ती स्वमारोहयते निषादिनमिति शिवः स्वं दर्शयते भतानिति च प्रयोगः स्यादिति चेदिष्यत एवायं प्रयोग: यदि नेष्यते तदा धात्वर्थफलान्वयिनि कर्मणि णिजर्थव्यापारववेदोऽपि कमत्वे तन् स भेदः पूर्वोक्तरीत्या णिजन्वियिफले कर्मत्वान्वयसंसर्गघटको वेत्यन्यदेत् । यत्तु पश्यति भव इति कर्मस्थभावके धात्वर्थफलस्थ णिचा प्रतिपादने दर्शयते भव इति तत्र कर्मस्थभावकधातोरकर्मकत्वान्नैतद्योगे हितीयाप्रसङ्ग इति शाब्दिकैरुक्तं तत्सूत्रार्थानभिज्ञानविजम्भितं तथा हि हेतुमतिचेति सूत्रेण प्रयोजकव्यापारे णि चो विधानाहात्वर्थव्यापारस्याप्रयोजकं फलं प्रतिपादयितुमसामर्थ्यमेव किं च कर्मस्थभावके कर्मणः कर्तत्वादणौ कर्मवायोगात् ण्यन्तस्यात्मनेपदमपि न सम्भवतौत्यन्यत्र विस्तरोऽनुसन्धयः । धर्ममर्थ वा ग्राहयति शिथमित्यत्र गृह्णाते नार्थकत्वे शिष्यपदोत्तरहितोयायाः समवेतत्वमर्थ: संयोगादिलक्षण म बन्धानुकूलव्या
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द्वितीयाविभक्तिविचारः । पारार्थकत्वे तु क तिरर्थः तत्र ग्रहिकतरि कर्मत्वं न प्रयोगसाधुत्वं संपादयति तथा हि जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्यामित्यत्र समासानुपपत्तिः नद्यत्र जायया प्रप्रविग्राहिते गन्धमाल्ये यामिति बहुव्रीहिः सम्भवति । ण्यन्ते कर्तश्च कर्मण इत्यनुशासनेनाण्यन्तधातुकतरि कर्मण्य व कर्मप्रत्ययस्य साधुत्वज्ञापनात् धात्वर्थकर्मगन्धमाल्यादिसामानाधिकरण्येन कर्मक्तस्यासाधुत्त्वात न वा जायया गन्धमाल्य प्रतिग्राहितामित्यर्धपिपल्यादिरसौ तत्पुरुषः तथा मति तत्पुरुषस्योत्तरपदलिङ्गतानियमेन टापोऽनुत्पादप्रसङ्गात् । इत्थं हिकर्तगयन्तेऽपि न कर्मलं कि तु ग्रहिकर्मण एवातो जायया प्रतिग्राहिते गन्धमाल्य यय ति बहुव्रीहिः विग्रहवाक्यात जायाप्रयोजित यत्कर्ट कप्रतिग्रहकर्मणो गन्धमाल्य इति शाब्दबोध: समासे तु जायापदस्य जायाप्रयोजकगन्धमाल्य कर्मकप्रतिग्रहकर्तरि लक्षणा प्रतिग्राहितादिशब्दानां तात्पर्यगाहकत्वमिति एवं गहिगहणमप्यनर्थकमिति ध्येयं माणवक सूर्य दर्शयत्याचार्य इत्यादौ माणवकपदोत्तरहितीयाया दर्शनान्वयिसमवेतत्वमर्थ : अत्रापि दृश श्चेत्यनुशासनेन दर्शनकर्तरि कर्मत्वज्ञापनात् दृशः पृथगगुहणमप्यनर्थकमिति ध्येयम् । दृश श्चेत्यनुशासनं दर्शनकर्तरि कर्मत्वं ज्ञापयति न च दृशेानार्थकतया तत्कर्तरि गत्यादिसूत्रेणैव कर्मत्वसिद्धेः पृथगनुशासनं व्यर्थमिति वाच्यम् । ज्ञानभिन्नार्थ कस्यापि दृश: कतरि कर्मत्वत्तापनार्थतया अवैयर्थ्यात् यथा दर्शयेनमपि केवलान्वयिनः सरणिमित्यादी जातिमत्वसाध्य
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विभक्त्यर्थनिर्णये। कसत्त्वहतोरिदंपदार्थतया तस्य दर्शनकर्तृत्वं बाधितमिति दृशः प्राप्तौ लक्षणा तथा च दर्शयेत्यस्य प्रापयेत्यर्थ. दृश्यर्थप्राप्तिकर्तरि सत्त्वादौ कर्मत्वज्ञापनं दृशेश्चेत्यनुशासन फलम् । न च प्राप्तेर्गतित्वात् तदर्थकस्य दृशः कर्तरि गत्यादिसूत्रेणैव कर्मत्वसिद्धेः पृथगनुशासनवैयर्थ्यमितिति वाच्यम् । गत्यादिसूत्रे गतिवाचकानामेवोपादानात् न तु गतिलक्षकानां अन्यथा पचेर्गतिलाक्षणिकत्वे पाचयति देवदत्तं यज्ञदत्त इति प्रयोगापत्तेः । एवमयस्कान्तमयो दर्शयतीत्यत्राव्यवहितावस्थानं दृशरथः तत्रायःकर्मत्वमव्यवधाने फलेऽन्वेति भयकान्तनिष्ठकतत्वलक्षणं कर्मत्वमवस्थानेऽन्वेति एवं परमाणुं योगिधियंदर्शयतीत्यत्र विषयताप्रतियोगित्वं दृशेरर्थस्तत्र परमाणुविशषितमाधयत्वं विषयत्वे फलेऽन्वेति धौविशेषितं कटत्वमाधेयत्वलक्षण प्रतियोगित्वेऽन्वेति । तादृशप्रतियोगित्वं तु प्रयोजकतया णिजथें योगजधर्मलक्षणातिशयविशेषे योगाभ्यासादिव्यापारेऽन्वेतौति । यत्तु दृशश्चेति पृथगनुशासनेन गत्यादिसूबे बुद्धिपदेन ज्ञानत्वविशिष्टवाचिनामेव ग्रहणं न तु जानत्वव्याप्यविशिष्टवाचिनां स्मरतिजिघ्रत्यादौनामिति ज्ञायते अन्यथा पृथगनुशासनवैयर्यप्रसङ्गादिति शाब्दिकैरुक्तं तन्न पृथगनुशासनसार्थक्यस्य दर्शितत्वात् स्मरतियोगे स्मारयत्येनमितिभाष्यप्रयोगस्य दर्शितत्वाच्च । जिघ्रतियोगेऽपि प्रापयत्योषधीगन्धं वाहान्सतः स्पर्शयति कन्यां वरं परिचारिकेत्यादिप्रयोग इष्ट एव "अभिवादिहशोरात्मनेपदे वेति बाच्य"मिति वार्तिकेनाभिवादिहशोः कर्तरि कर्मवविकल्प
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१७० द्वितीयाविभाक्तविचारः।। आत्मनेपदममभिव्याहारे ज्ञाप्यते तत्राभिवादेरात्मनेपदित्वाद् दृशः परस्मैपदित्वे तु न विकल्पः किं तु दृश: कतरि कर्मत्वमेव अभिवादयते विश्वामित्र रामेण रामवा दशरथ इत्यादावभिवादेनमस्कारोऽर्थः स चोत्कर्षवत्तया ज्ञापनस्वरूपस्तत्रोकर्षप्रकारकज्ञानं व्यापारश्च खण्डशोऽर्थः तत्राभिवाद्यविश्वामित्वादिविशेषितमाधेयत्वमुत्कर्षविशिष्टसमायावच्छिन्नाधेयत्वीयस्वरूपसं सर्गेगा ज्ञानेऽन्वेति ज्ञानं तु प्रयोजकतया व्यापारे त्वत्तोऽहमपकृष्ट इति वाक्यादिस्वरूपान्वेति उत्कर्षस्तु व्यापाराश्रयाभिवादकावधिको वोध्य: रामपदोत्तरटतीयाद्वितीययोापारान्वयिनी कृतिरथ: व्यापारस्तु प्रयोजकतया णिजधैं दशरथव्यापारोन्वेति द्वितीयाधयत्वस्य दर्शितसंसर्गेण ज्ञानेऽन्वयोपगमात् अभिवाद्यान्यस्याभिवाद्यगतोत्कर्षजानेऽपि तमभिवादयते इति न प्रयोगः यदि चोत्कर्ष कारक तानं बमोऽपि धात्वर्थस्तदा उत्कर्षप्रकारतानिरूपितविशेष्यतया समवायेन च हाभ्यां संबन्धाभ्यामवच्छिन्नमाधेयत्त्वमभिवाद्यवाचिपदोत्तरहितीयाया अर्थ इति न काऽप्यनुपपत्तिः । यदि चाभिवाद्यस्य व्यासङ्गवशादुत्कर्षाज्ञानेऽपि अभिवादिप्रयोगस्तदा उत्कर्षवत्ताजिज्ञापयिषा धात्वथै: फलं व्यापारस्तु पूर्वोक्त एव तत्रीत्कर्षप्रकारकज्ञाननिष्ठोद्देश्यतावच्छेदकीभूतयोरुत्कर्ष-' प्रकारतानिरूपितविशेष्यताकत्वममवेतत्वयोर्वर्तमानाभ्यामवच्छेदकत्वाभ्यां निरूपितयोऽवच्छेदकतया सबन्धेनावच्छिन्नमाधेयत्वमभिवाद्यवाचिपदोत्तरहितीयायाअर्थ: उत्कर्षजिजापयिषायां फलीभूतायामन्वेति । सा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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च प्रयोज्यतया दर्शितव्यापारेऽन्वेति शेषं तु पूर्ववत् अव विश्वामित्र समवेत मुत्कर्षप्रकारतानिरूपित विश्वामित्रविशेष्यतामुत्कर्षप्रकारक ज्ञानं भवत्वितीच्छाया उद्देश्यतावच्छेदकइयं समवेतत्वं दर्शितविशेष्यत्वं च तदवच्छदकता विश्वामित्रे स्पष्टा सा चैका दयौ वेत्यन्यदेतत् विश्वामित्रस्य व विशेष्यतया निरूपितोत्कर्ष प्रकारता कंज्ञानं भवत्वितीच्छा तत्रापि विशेष्यतानिरूपितप्रकारताकत्वावगाहने प्रकारतानिरूपितविशेष्यताकत्वावगाहन नियमाद्दिशेष्यत्वस्योद्देश्यतावच्छेदकत्वमिति न विश्वामित्रस्योद्देश्यतावच्छेदकतावच्छेदत्वहानिरिति । भ वतु वा प्रकारित्वस्योद्देश्यतावच्छेदकता तथापि तन्निरूपकावच्छेदकताघटित परम्पराविशेष्यत्वविशेषणतया आसमानाभिवाद्यनिष्ठाऽपि सम्बन्धस्तथा चान्यतरसम्बन्वावच्छिन्नमाधेयत्वमभिवाद्यवाचिपदोत्तरद्वितीयाया
अर्थ: तेन गालवसमवेतस्य विश्वामित्रसमवेतस्य विश्वामित्रोत्कर्षज्ञानस्य विश्वामित्रसमवेतस्य शिवोत्कर्षज्ञानस्य विश्वामित्रविशेष्यक गुणप्रकारकशिवोत्कर्ष प्रकारकसमूहालम्बनज्ञानस्य बेच्छायां विश्वामित्रमभिवादयत इति न प्रयोगः द्वितीयार्थस्य निरुक्ताधेयत्वस्यान्वेतुमयोग्यत्वात् एवमेवाभिवादिपर्याया नमस्करीत्यादयो बोध्याः । एवं मर्यं दर्शयते माणवकेन माणवकं वाऽऽचार्यइत्यादी माणवकपदोत्तरतृतौया द्वितीयया दर्शनान्वयिसभवेत्वर्थ इत्युक्तप्रायम् । "हृक्रोरन्यतरस्यामि त्वनुशा'सनेन कर्मत्वविकल्पज्ञापकेन कर्मकार्यद्वितीयाविकल्पाबोध्यते अत एव गत्यादिमृदस्य गत्यादिकर्ता कर्मैवेति
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द्वितीयाविभक्तिविचारः । नियममानार्थकता न युज्यते गत्यादिसूत्रेणैव गत्याद्यर्थकभिन्नानां कर्तरि कर्मत्वविकल्पावगमेन हक्रोरित्यनुशासनस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गात् । तस्मात् गत्यादीना मेव कर्तेतिनियमे गत्याद्यर्थकोन्यधातुकर्तरि व्यवच्छिन्नस्य प्रतिप्रसवार्थ विधानार्थ वा हृक्रोरित्यस्य पृथगारम्भः पयन्तयोइक्रोरण्यन्तहककर्तरि कर्मत्वं विकल्पेन ज्ञापयति यथा हारयति भारं भृत्येन भृत्यं वा प्रभुरित्यत्र मृत्यपदोत्तरटतीयाहितीययोः कृतिलक्षणं कर्तृत्वमर्थो हरणेऽन्वेति गत्यर्थकतया हृञः कर्तरि कर्मत्वस्य नित्यताप्राप्तौ विकल्पार्थ ग्रहणं सेतुं कारयति वानरैर्वानरान्वा राम इत्यत्र कञो यत्नार्थत्वे वानरपदोत्तरटतीयाहितीययोः समवेतत्वमर्थः उत्पादनार्थत्वे तु कृतिरर्थ इति मन्तव्यम् । अत्र धात्वर्थकर्मणः प्रयोगेऽप्रयोग वा धात्वथकर्तरि णिजर्थकर्मणि तिङादयः कर्मप्रत्यया भवन्ति यथा दिगन्तं गम्यते गमितो वा रिपुर्गम्यते गमिती वा रिपुः, धर्म बोध्यते बोधितो वा माणवक: बोध्यते बोधितो वा मोणवकः, मिष्टं भोज्यते भोजितो वाऽतिथि: भोज्यते भोजितो वाऽतिथि:, पयः पाय्यते पायितो वा शिशुः पाय्यते पायितो वा शिशः, ब्रह्म व्याहार्यते व्याहारितो वा माणवक: व्याहार्यते व्याहा-- रितो वा माणवकः, मासमास्यते आसितो वाऽतिथि: आस्यते आसितो वाऽतिथि:, तदुक्तम् ।
प्रधानकर्मण्याख्येये लादौनाहुहि कर्मणाम् । ॐ
अप्रधाने दुहादीनां ण्यन्ते कर्तुश्च कर्मणः ॥ इति यत्न यादृशकर्ट त्वं हितौथार्थ स्तन तादृशकट -
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विभक्त्यर्थनिर्णये । त्वं कर्माख्यातार्थ स्तहान् कर्मकदर्थ इति मन्तव्यं यत्न धात्वर्थकतुणि जर्थकर्मणो न प्रयोगस्तत्व धात्वर्थकर्मण्यपि कर्मप्रत्ययाः भवन्ति यथा गमितः प्रापिती वा गिरिः, वोधितो धर्मः, पायसं भोजितं, पयः पायितं, वेदो व्याहारितो, मास प्रासितः, एवं सूर्य दश्यते दर्शितो वा मागावकः, केवलान्वयिनः सरणिं दश्यतां दर्शनीयो वाऽयं दर्शनीयो वाऽयं, यद्धात्वर्थकर्तरि णिजर्थकर्मत्वं वैकल्पिकं तत्रापि णिजयकर्मण्येव कर्मप्रत्ययः विश्वामित्रमभिवाद्यते अभिवादितो वा राम:, अभिवाद्यते ऽभिवादितो वा रामः भार हार्यते हारितो वा भृत्यः हार्यते हारितो वा भृत्यः, सेतुं कार्यन्ते कारिता वावानराः कार्यन्ते कारिता वा वानराः, एवं सर्यो दर्शितः, अत एव"विस्तरो दर्शितः शब्दकौस्तुभे" इत्युपपद्यते विश्वामित्रोऽभिवादितः, मारो हारितः, सेतुः कारितः, इत्यादयः प्रयोगा अनुसन्धयाः गमनानुकूलव्यापारवाचकस्य नयतेवहतेशाधिकस्य व्यापारस्य वाचकत्वेऽपि गत्यर्थकत्त्वस्य न हानिरिति गत्यर्थकतया नयतेर्वहतेश्च कतरि प्रसती णिजथंकर्मत्वं निषेधति "नीवद्यो: प्रतिषेधो वक्तव्य"इत्यनुशासनं तेन नाययति वाहयति वा भारंभृत्येनेति प्रमाणं न तु नायति वाहयति वा भार भूत्यमिति “वहेरनियन्तकः कस्ये"ति वक्तव्यम् । इति वातिकन वहः कर्तरि नियन्टकार्ट कणिजर्थकर्मत्वस्थाप्रतिषेधो ज्ञाप्यते नियन्ता तु पशुशिक्षक: तेन वाहयति रथं वाहान्सूत: वाहयति गोणों बलौवर्दान् वणिक् दूत्याद्युपपत्तिः । भोजनार्थतयाऽऽदिखादयत्योः कतरि
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१४४ द्वितीयाविभक्तिविचारः । प्रसक्त णिजयकर्मत्वं निषेधति "आदिखाद्योः प्रतिषेधोवक्तव्य" इत्यनुशासनं तेन णिजन्त योरादिखाद्योरणिजन्तादिखादतिकर्तरि कमत्वनिषेधो जाप्यते तेनादयति खादयति वाऽन्नं वटुनेति प्रमाणं न तु अोदयति खादयति वाऽन्नं वटमिति । "भक्षरहिंसार्थस्य प्रतिषेधो वक्तव्य"इत्यनुशासनं भने: कर्तरि णिजथंकर्मत्वं निषेधति तेन भक्ष यत्यन्नं वटुनेति प्रमाणं न तु भक्षयत्यन्नं वटुमिति हिंसार्थस्य कर्तरि न णिजर्थकर्मत्वनिषेध: हिंसार्थत्वं तु हिंसानुगुणीभूतार्थ कत्वं न तु हिंसावाचकत्वंभक्षिणा मरणानुकूलव्यापारस्य वाऽप्यवोधनात् तेन भक्षयति बलौवर्दान् सस्यमिति प्रयोग उपपद्यते क्षेत्रस्थ सस्यानां प्राणित्वात् सस्यभोजनस्य सस्यमरणानुगुणत्वात् । अकर्मकतया शब्दायते: कर्तरि प्रसक्तं णिजथकर्मत्वं निषेधति "शब्दायतेः प्रतिषेधो वक्तव्य"इत्यनुशासनं तेन शब्दाययति सैनिकैरिति प्रमाणं न तु शब्दाययति सैनिकानिति । वैकुण्ठमधिशेते हरिरित्यादौ वैकुण्ठादेः कर्मत्वोपपत्तये"अधिशौङस्थासां कर्म" इत्यनुशासनम् । अधिपूर्वकाणां शौस्थासां कट कर्माधारः कर्मसंन इत्यर्थकं यद्यप्यधिशयत्यादेरकर्मकस्य कर्मत्वं वैकुण्ठादिदेशस्य मासादिकालस्य च वार्तिकेनैवोपपादितंदेशकालयोरवाधारत्वादनुशासनवैयर्यम् । तथापि वार्त्तिके देशः कुरुत्वपञ्चालत्वादिना कालोऽपि तदवान्तरधर्मेण ज्ञापितः न तु देशत्वेन कालत्वेन प्रकृतसूत्रेण देशत्वेन कालत्वेनापि देशान्योऽपि गृहशय्यादिस्तथाक्तइति न वैयध्यमिति । एवं वैकुण्ठमधिशेतेऽध्यास्तेऽधि
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
१७५ तिष्ठति वा हरिरित्यादौ कर्ट घटितपरम्परासंसर्गावच्छिन्नमाधेयत्वं द्वितीयार्थी धात्वर्थव्यापारी शयनादाववेति शौस्थासामर्थाः पूर्वमेवोक्ता अधिस्तु कर्मप्रत्ययाकाङ्क्षायामुपयुक्नो निरर्थक एव । अभिनिविशतेराधार कर्मत्वं ज्ञापयति । "अभिनिविशश्च" इत्यनुशासनम् । अभिनिपूर्वकस्य विशतेराधारः कर्मसंजक इत्यर्थकम् अभिनिविशते सन्मार्गमित्यनाभिनिविशो धारापन्नज्ञानं तज्जन्मा दृढतरसंस्कारो वाऽर्थः यतिवत्फलावाचकत्वादकर्मकत्वं सन्मार्गादिविशेषितं विषयतासंबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं द्वितीयार्थस्तादृशे जाने संस्कार वा धात्वर्थइन्वेति यदि च साक्षात्संबन्धावच्छिन्नाधे यत्वस्य सप्तम्यथस्येव सप्तम्यर्थानुशिष्टहितीयार्थस्यापि धात्वर्थान्वयोनाम्यपेयते तदा व्यापारानुबन्धिविषयतास्वकर्ट संबन्धघटितपरम्परासंबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं हितौयार्थ इति विशतेस्तु अन्तरवयवावच्छिन्नसंयोगानुकूलो व्यापारोऽ
र्थो ऽत एवायं सकर्मक: अन्तरवयवास्तु विजातीयारम्भकसंयोगवदवयवाः आरबैकावयविभिन्नावयव्यारम्भकसंयोगानधिकरणावयवा वा गृहादिबहिरवयवानामलिन्दादीनां गृहान्याङ्गनायवयव्यारम्भकसंयोगवत्वान्नान्तरव यवत्वमिति अन्तर्विशतीत्यादावन्तरिति लुप्तससमीकमव्ययं न तु लुप्तहितीयान्तमधः पततीत्यत्राधःपदवदतो नानुपपतिरिति मन्तव्यम् । निविशतेस्तु तथाविधः संयोग एवार्थो त एवायमकर्मक इति । यत्न तु कारणतायां प्रविशति निविशते वा इति प्रयोगस्तत्र प्रपर्वस्य वा विशतेर्घटकत्वलक्षणसंवन्धोऽर्थस्तत्र कारणता
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
विशेषितस्य सप्तम्यर्थस्य निरूपकत्वेन निरूपकनिरुपकस्वेन वा संबन्धेनावच्छिन्न स्याधेयत्वस्यान्वय इति एष्वथेंष्वभिनिविष्टानामिति फणिभाष्यप्रयोगदर्शनात् सूत्रे चकारोऽधिकतया क्वचित्कर्मसंज्ञा निषेधं सूचयति यथा पापेऽभिनिविशत इति । उपवसति वैकुण्ठमित्यादौ वैकुण्ठादेः कर्मत्वोपपत्तये " उपान्वध्याङ्गस" इत्यनुशासनमुपादिपूर्वकस्य वसतेराधारः कर्मसंज्ञ इत्यर्थकम् । उपवसति अनुवसति अधिवसति आवसति वा वैकुण्ठं हरिरित्यत्र भूयः कालावच्छिन्नसत्वं वसेरर्थस्तव कर्तृ संब
टितपरम्परा संसर्गावच्छिन्नमाधेयत्वं द्वितीयार्थो धावर्थेऽन्वेति यत्राभोजनमुपवसेरर्थस्तव कर्मसंज्ञानिषेधक"मभुक्त्यर्थस्य तु ने”ति वार्त्तिकम् । तेन वनेतूपवसतीत्येव प्रमाणम् । एकादशी मुपवसेद्वादशौ मथवा पुनः । इत्यादावुपवसेरभोजनं नार्थः किं तु दोषादुपावृत्तस्य गुणैः सह वासः ।
उपावृत्तस्य दोषेभ्यो
यस्तु बासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः इत्यार्षपरिभाषणादतो न द्वितीयानुपपत्तिरिति वदन्ति । वस्तुतस्तूपवसेर भोजनार्थकत्वेप्य कर्मकत्वमचतमेवेति देशकाला दौनामकर्मककर्मत्वं वार्त्तिकेन ज्ञापितमिति न द्वितीयानुपपत्तिः कालिकाधेयत्वस्य द्वितौयाधेयत्वं न तु कट सम्बन्धघटित परम्परावच्छिन्नाधेयत्वस्येति । शौङादीनां वस्यन्तानामनुपसृष्टानामाधारस्थाधिकरणसंज्ञा उपसृष्टानों तु कर्मसंज्ञेत्यन्यपूर्वकं कर्म विज्ञेयमिति । " क्रुधद्रुहोरुपसृष्टयोः कर्मे त्वनुशासनम् । क्रु
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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धरुपसृष्टयोर्यं प्रति कोपस्तत्कारकं कर्मसंज्ञकमित्यर्थकं क्रूरमभिक्र ुध्यतीत्यव करे कर्मत्वं ज्ञापयति । क्र. द्वेषोऽर्थः क्रूरविशेषितं दिष्टतास्वरूपं विषयत्वं द्वितौयार्थः क्रूरमभिद्रुह्यतीत्यत्र दुहेईिष्टाचरणमर्थस्तत्र हैषो व्यापारश्च दयमर्थस्तव क्र ूरादिविशेषितं समवेतत्वंहषेऽन्वेति । यदि च व्यापारमात्रमनिष्टानुकूलव्यापारीदुहेरर्थस्तदा द्वेषो हितीयार्थः क्रूरादिविशेषितो विषयताविशेषेण व्यापारमात्रेऽनिष्टे वाऽन्येति इत्यादिकं वच्यते तवापि क्रद्र होरुपसर्गविनाकृतयोद्देषस्य विषये समवायिनि च संप्रदानसंज्ञा सोपसर्गयोस्तु कर्मसंज्ञेत्यन्यपूर्वकं कर्मेति ।
इति विभक्तार्थनिर्णये कारकहितीयार्थनिर्णयः ॥ नामार्थान्वयिनो द्वितीयार्थ प्रकारकतया संज्ञायन्ते यथा उभयतः सुभद्रां संकर्षणवासुदेवावित्य चोभयशब्दस्य पार्श्वद्दयमर्थः प्रकृते पञ्जरास्थ्नां समूहो न पार्श्वः किं
तत्संनिहितो देशी दिग्वा तसिलो वृत्तिमत्वमर्थः हितयायाः पार्श्वन्वयिसंबन्धित्वमर्थः तथा च सुभद्रासंवविपार्श्वयत्त संकर्षणवासुदेवावित्यन्वयबोधः तदुत
नाम्नो विधैव संबन्धः सर्ववाक्ये व्यवस्थितः । सामानाधिकरण्येन षध्या वाऽपि कचिङ्गवेत् ॥ इति षष्ठौ पदमसमानविभक्तीनामुपलचकम् । पार्श्वपदेन पार्श्वसन्निहित दिशो विवक्षणादग्रपृष्ठयोस्तुल्यान्तरयोरुभयशब्दप्रयोगे न द्वितीया । सर्वतः कृष्णं गोपाइत्व सर्वपदं सर्वदिकपरन्त सेईि तौयायाश्च पूर्वोक्त एवार्थस्तथा च कृष्णसंबन्धिसर्वदिग्टत्तयो गोपा इत्यन्व
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१७८ द्वितीयाविभक्तिविचारः । यबोधः धिक्शाक्यानित्यत्र निन्दिताचारो जुगुप्सा वा धिक्शब्दार्थ: जुगुप्सा तु देषविशेष: हितौयाया आधेयत्वं निन्दिताचारान्वयिजुगुप्सान्वयिविषयित्वं बाऽर्थस्तथा च शाक्यरतिनिन्दिताचार इति शाक्यविषयिणी जुगुप्सेति वा शाब्दबोध: "धिगस्तु तृष्णातरलं भवन्मन" इत्यत्र मन इति हितीयान्तं धिगित्यस्तिक्रियायां कर्त्ततयाऽन्वेति अथ वा धिगित्यस्ति क्रियायामेवान्वेति तथा च जुगुप्सितसत्तावन्मन इत्यन्वयबोध: । धिङमूखैत्यत्र जुगुप्सायां मूर्खसम्बोध्यत्वस्यान्वयः व्यत्यत्तिवैचिच्येा वि. षयितासंसर्गेणा मूर्ख स्यापि जुगुप्सायामन्वयः तेनान्यविषयकजुगुप्सायां मूर्खसम्बोध्यत्वान्वयविवक्षायां न तथाप्रयोगः । पाक्षिप्तभवसिपदार्थ सम्बोध्यत्वस्यान्वयो धिगितिक्रियायां भवने वेतीति कश्चित् । यदि च स्वविषयकद्वेषो न भवतीति धिमामित्यादौ नैषा गतिरिति विभाव्यते तदा गुणाभावदोषान्यतरस्वरूपोपकर्षों धिक्शब्दार्थ: हितीयायाः संबन्धोी: मां धिगित्यत्रापकर्षों मत्संबन्धीत्यन्बयबोधः । गुणा: पाण्डित्यकारुण्यादिर्दोष: क्रोधलोभादिः । एवं धिङमूर्खेत्या शास्त्रानभित्तस्य मूर्खपदार्थस्य मम्वोध्यत्वं वस्तुविवेकराहित्यस्वरूपापकर्षेऽन्वेति दर्शितापकर्षे सूखस्यानन्वयेऽपि न क्षतिरस्य मूर्खसाधारणत्वात् यत्व तु सम्वोध्यसाधारणोनापकर्षस्तत्र हितौयान्तपदापेक्षावश्यको यथा "कृष्ण त्वत्सवका धन्या धिगन्यान् प्राकृतान् जनानि"त्यादौ एतेन धिगर्थे प्रातिपदिकार्थस्य साचादन्वयोपगमे धिक्चेत्रश्चैवेगा वेत्यादिकः प्रयोग: स्यादिति समाहितं सा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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चादन्वयानुपगमात् । एवं धिगध्ययन होनं जनमित्यव पाण्डित्याभावः धिग्व्याधमित्यत्र कारुण्याभावः श्रचान्तंafrera क्रोधः धिक् स्वस्तिवाचनिका नित्यव लोभः धिकपदार्थस्तव द्वितीयार्थसम्बन्धस्यान्वय इति । श्र करुणं धिगित्यव परकौय्स्य सुखस्य दुःखहानेर्वा द्वेषः धिक् क्र ुद्धमित्यत्र हन्तृत्वं धिक् लुब्धमित्यत्र परस्त्रापहारित्वं विपदार्थः एवमन्यत्राप्यहनीयमिति । विक् कृष्णाभक्तमित्यव भक्तिप्रयोज्य गतेविरहः अभक्तिप्रयो ज्याधोगतिर्वा धिकपदार्थ इति । सर्वनाम्नामिव बु• हि विशेष प्रकारत्वो पलक्षितधर्मवति धिकपदस्य शक्तिरिति नानुगमः उपर्युपरिलोकं रविरित्यच धुवावधिकपरत्वनिरूपितापरत्वाधिकरणदेश उपरिपदार्थस्तम्य चाधेयतया प्रातिपदिकार्थेऽन्वयः परत्वान्वयिसमवेतत्वं द्वितौयार्थः तथा च लोकसमवेतध्रुवावधिकपरत्वनिरूपिता परत्वाधिकरण देशष्टत्तौ रविरित्यन्वयबोधः अधोऽधश्चन्द्रमसं रविरित्यव शेषावधिक परत्वनिपितापरत्वाधिकरणं देशोऽधः पदार्थः शेषं पूर्ववत् तथा च शेषावधिक चन्द्रमस्समवेत परत्व निरूपिता परत्वाधिकरण देश तो रविरित्यन्वयबोध अध्यधिगगनं रविरि-त्य मध्यभागोऽधिशब्दार्थस्तस्थान्वयः पूर्ववत् द्वितीयाथः सम्बन्धः गगनशब्दो वायुमण्डलार्थकस्तथा च वायुमण्डल सम्बन्धिमध्य भागवृत्ति रविरित्यन्वयबोधः । बायुमण्डल मध्यभागस्तु दद्यास्ताचलान्तराभूत देशावधिकपरत्वनिरूपिता परत्वाश्रयः सामान्यतस्तु श्रवयवावधिकावयवसमवेत परत्वनिरूपिता परत्वाश्रयो मध्यभागो
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द्वितीयाविभक्तिविचारः। वोध्यः । दिर्वचनं सामौप्यमभिधत्ते द्योतयति वा "उपर्यध्यध: सामीप्ये" इत्यनुशासनात् अत्र उपरिदेशसामीप्यसपरिदेशे बुध्यते । एवमधोऽधिदेशयोरपि सामीप्यं तु संयुक्तसंयोगादिपरम्पराघटकसंयोगानामल्पत्वं बोध्यमिति यदि च द्वितीयाप्रकृत्यर्थनिरूपितसामौप्यं प्रतीयते तदोपर्यु परिपद्मान् नमराश्चपलाः पद्मानधोऽधोनौराणि कामारमध्यधि पद्माः इत्युदाहरणं कामारनिरूपितं मध्यभागे सामोप्यं तु स्वसंयुक्तसंयोगादिपरम्पराघटकसंयोगानां चतुर्दिगवच्छिन्नीनां तुल्यत्वं बोध्यमिति अत एव ।
नवानधोधो हतः पयोधरान् । समूढकपूरपरागपाण्डुरम् । ঘ বীঘিমালনি
रफुटोपमं भूतिसितेन शम्भुना ॥ - इत्यत्र नवमेघसमोपाधरस्थितनारदे उत्क्षिप्तगजकत्तिशम्भूपमा प्रतीयते दूरावस्थिती तु न विशिष्टोपमा सम्भवतीति तदेतदुक्तं वाक्यपदीये।
उभसर्वतसो: कायो धिगुपर्यादिषु त्रिषु । द्वितीयामे डितान्तेषु ततोऽन्यत्रापि दृश्यते॥ धिगिति लुप्तसप्तमीकमव्ययमामंडितमिह सामीप्यबोधकं विवक्षितं वौप्साहिवचने तु न द्वितीयानियमः अत एवोपर्यु परिबुद्धौनां चरन्तीश्वरबुद्धयः इत्यत्र षष्ठीति बदन्ति उपरिवुध्धौनामुत्तानबुद्धीनामुपरौत्यन्वयोपगमादुपरिशब्दस्य नाबोडितत्वमिति न हितोयेति कश्चित् वस्तुतस्तु शेषे षया न काप्यपवाद इति द्वितीयाषयो
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विभक्त्यर्थनिर्णये। रुभयो: समभिव्याहारः प्रामाणिक इति वच्यते । अन्यत्रापि दृश्यते द्वितीयो यथा चैवं यावच्छौतमित्यादी यावद्योगे | यावन्निपातस्योत्तरावधिकपरत्वमर्थः तद. न्वयिनिरूपकत्वं दितीयार्थः अथ वा उत्तरावधिकपरत्वं खण्ड शोऽर्थ: अवध्यन्वयितादात्म्यं दितौयार्थ इति यथा वा“क कर्मप्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनसते इत्यादौ ऋते योगे अत एव"ऋते दितीया चे"ति चान्द्रं सूत्रम् करतेशब्दार्थो वच्च्यते "क्रियाविशेषणानां कर्मत्वं नपुंसकलिङ्गत्वं चे"ति परिभाषणात् स्तोकं पचतीत्यादौ दितोया नपुंसकत्वमजहल्लिङ्गेतरशब्दानां बोध्यं तेन सुखहेतुं पश्यतीत्यत्र न क्लीवत्वं न च क्रियाविशेषगास्य कर्मत्वे कमलकारापत्त्या स्तोकः पच्यते इति प्रयोगः स्यादिति वाच्यं यतोऽनुशासनेन क्रियाविशेषणवाचिप्रातिपदिकानां कर्मत्ववाचिदितौयाप्रकृतित्वं प्रत्याय्यते अत एव शब्दधर्मक्लौवत्वस्याप्यन्वय इति तत्र यदि विशोषणविभक्तस्तादात्म्यमर्थस्तदा दितीयाया अपि यदि च तादात्म्यं संसर्गः विशेषणविभक्तिः साधुत्वार्थिका तदा द्वितीयापि साधुत्वार्थिका तबाद्ये तादात्म्यस्य फलान्वयेऽपि न कर्मत्वं फलान्वयिन आधेयत्वस्यैव तथात्वात् अन्यथा जलं न पचतीत्यत्र जलाधेयत्वाभावस्य विक्लित्यन्वये जलाधयत्वाभाव: पच्यत इति प्रयोगप्रसङ्गात् । दितीयपक्षेऽपि तादात्म्येन फलान्वयिनो न कर्मत्वं न हि सबन्धमावेण फलान्वयिकर्म भवति कालोपाधे: सकमंकमात्रकर्मत्वापत्तः किं तु तत्तत्संसर्गविशषेण फलान्वय्येव तव संसर्गविशेषे तादात्म्यं नान्तभवति येन
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
क्रियाविशेषणस्तोकादौ कर्मलकारः प्रसज्येत अत एव क्रियाविशेषणस्य फलान्वये कर्मत्वमिति तत्र द्वितीयाव्यापारान्वये कर्तृत्वमिति तत्र प्रथमा अथ वा ज्योतिष्टोमेन यजेतेत्यत्रेव करणानुवादिका तृतौया दूव एवमग्निहोत्रं जुहोतीत्यत्रेव स्तोकं पचतीत्यत्रापि भावनाकर्मपाकविषगातीकादिपदात् कमनुवादिका द्वितौया । न च क्रियाविशेषणास्य कर्मत्वपक्षे तव कर्मलकारः स्यादिति वाच्यम् । अस्तीत्युत्पन्नस्यात्मधारामुच्यत इति निरुक्तस्मृत्यात्मधारणानुकूलव्यापारार्थकस्यास्तेरप्यात्मनि कर्मणा कर्मलकारप्रसक्त्या व्युत्पत्तिवैचिच्याभ्युपगमात् । तथा हि येन कर्मणा सकर्मको धातु: तचैव कर्मणि कर्मप्रत्ययस्य साधुत्वंआत्मन: कर्मणो धात्वर्थान्तर्भूतत्वात् धातुनाऽभिधानात् न तेन कर्मणाऽस्तेः सकर्मकत्वमिति न तत्र कर्मलकारप्रमङ्गः तथा फलात्मकस्तोकस्य धातुनाऽभिधानान्न तेन कर्मणा सकर्मकत्वमिति नाव कर्मलकारप्रसक्तिः द्वितीया तु न तेन कर्मणा सकर्मकत्वमपेक्षते यतस्तारं शब्दायति दीर्घमस्तोत्यादौ धात्वर्थान्तिभूतकर्मणः शब्दात्मादे विशेषणे कर्मानुवादिका दृश्यते इत्थमेव क्रियाविशेषणपदोत्तर द्वितीयायाः कर्मानुवादकत्वपचोऽभ्युपेयते एवं फलान्वयिक्रियाविशेषणानांकर्मानुबादिका द्वितीया फलव्यापारयोः संसर्गी भूतकमत्वस्य प्रातिका यथा धात्वर्थान्तर्भूतकर्मफलयोः संसगीभूतकर्मत्वस्य तादृशकर्मविशेषणानां कर्मानुवादिकेति शाब्दिकमतमपि परास्तम् । स्तोकं स्यन्दते इत्यादी
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
व्यापारविशे षापदोत्तरद्वितीयाः कर्मानुवादकत्त्वस्थाप्यसम्भवात् न चात्र व्यापारविशेषणे नपुंसक प्रथमे ति वाच्यं प्रथमायो अननुशिष्टतया असाधुत्वात् व्यापारविशेषणस्य कर्तत्वपक्षे तिङा तगत कर्तृत्वानभिधानात्, तृतीयपत्ते वरत्वात् सुखहेतुं चेष्टते चेतते यतते वेत्यत्र प्रथमाप्रसक्तरसम्भवेन द्वितीयोपपत्तेः कथमम्पसम्भवाच्च तमादर्शितपरिभाषणात् फलव्यापारोभयविशेषणवाचिपदाद दितोयैव साधुरिति "अभितः परितः समयानिकषाहा प्रतियोगेऽपि " अभितः परितः शब्दौ सवत: पर्याय समयानिकषाथब्दी सामीप्यार्थको एतेषां शब्दानां योगे द्वितीया सम्बन्धार्थिका अभितः परितो वा कृष्णं गोपाः लङ्कां निकषा समया वा हनिष्यति इत्यादी. शाब्दबोधाकारः स्वयमूहनीयः हा साधनित्यव हाशब्दार्थः शोकः स च विपङ्गोचरो द्वेषविशेषस्तचालम्बनत्वेन विषयित्वं द्वितीयार्थः तथा च साधुविषयिताको विपद्दष इत्यन्वयबोधः हो राम हा देवर तात मातरित्यत्र सौतायाः स्वविपद्वेषे रामादेर्विषयितया नान्वयः किं तु तत्सम्बोध्यत्वस्येति वदन्ति विपदुद्वेषो न शोकः तथा सति कपयो रामं शोचन्तौतिप्रयोगोपतेः किं तु अनिर्वचनीयस्तत्वेन ज्ञातो वा खेदः शोकस्तत्र द्वितीयार्थः समवेतत्वमन्वेतौत्यपरे प्रतियोगे द्वितीया माणवकं प्रति भान्ति वेदा इत्यव ज्ञानविषयत्वं धात्वर्थ: विशिष्टशक्तस्य धातोः खण्डशः फलवाच-.. कत्वादकर्मकत्वं तव जाने पदार्थोंकदेशे द्वितौयार्थसमवेतत्वान्वयार्थ प्रतेरिहोपादानं तथा च माणवकसम
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१८४ म द्वितीयाविभक्तिविचारः । वेतज्ञानविषया वेदा इत्यन्वयबोध इति वदन्ति प्रतिभाते नमानमर्थः विषयत्वमाख्यातार्थः फलावाकत्वादयमकर्मक इति प्रधानधात्वर्थे द्वितीयान्वयार्थमुपसगंप्रतेरिहोपादानमित्यन्ये अन्तरा शब्दयोगे द्वितीयां. ज्ञापयति "अन्तरान्तरेणायुक्त"इत्यनुशासनमाभ्यां योगे द्वितीया स्वादित्यर्थक मगधान् विदेहानन्तरागङ्गा इत्यत्र परत्वदयनिरूपितापरत्वइयं तदधिकरणदेशो वा अन्तराशब्दार्थः द्वितीययोश्च इयं प्रत्येकमर्थस्तथा च मगधसमवेतन विदेहावधिकेन विदेहमवेतेन मगधावधिकेन परत्वेन प्रत्येक निरूपितं यदपरत्वहयन्तहतौ तहद्देशवृत्तिर्वा गङ्गेत्यन्वयबोधः कचिदप्राप्तिरन्तराशब्दार्थः तयोगेऽपि हितोयैव प्रमाणं प्राप्तिापनं गमनं चेति हिधा तथा हि।
अनुरागमयेन भूयसा मधुरेणापि रसेन को गुणः । प्रियसङ्गमभूमिमन्तरा यदि विच्छिन्नपदा सरस्वती ॥
इत्यत्र भारत्या अनुरागप्रकृतिकेनापि भूयसा शृङ्गाररसेन को गुगो यदि प्रिययोः सङ्गमपर्यन्तमत्तापयित्वा मध्ये विच्छिन्नप्रबन्धा चित्राङ्गादकथासरस्वतौतिप्रकृतंअथ सरस्वत्या नदौविशेषस्य लौहित्यबहुलेन भूयसा मिष्टेन जलेन को गुणो यदि प्रियस्य समुद्रस्य सङ्गममहोमप्राप्यैव विलीनगतिरसावित्य प्राकरणिकमनयोरुपमाध्वनये प्रतीयते इति पदवाक्यरत्नाकरे गुरुचरणाः । अन्तरेणशब्दस्याभावोऽर्थः प्रतियोग्यनुयोगिभावस्तु हितीयार्थः धनमन्तरेण न सुखमित्यत्र हितीयार्थ: प्रतियोगिखे धनस्य खत्तिधनत्वावच्छिन्नत्वाधेयत्वाभ्यां सम्बन्धा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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भ्यां व्युत्पत्तिवैचित्र्य णान्वयोपगमाद् धनसामान्याभावलाभ: अभावयोः प्रयोज्यप्रयोजकभावो योगक्षेमसाधारणः संसर्गस्तथा च धनसामान्याभावप्रयुक्तः सुखसामान्याभाव इत्यन्वयबोधः गीतश्रवणजन्मन ऐहिकस्य नपादिप्रयोज्य स्यामुष्मिकस्य च सुखस्य धनं विनाऽपि सम्भव इति कथं सुखसामान्याभावो धनसामान्याभावप्रयुक्त इति यदि तदा धनमन्तरेण न दानं यागो वेत्युदाहर बोध्यमिति क्वचिदन्तराशब्दस्याप्यभावोऽर्थः यथा अध्ययनमन्तरा न पाण्डित्यमिति । "अनुर्लक्षणे" इति सूत्र लक्षणे द्योत्ये अनुः कर्मप्रवचनीयसंज्ञः स्यादित्यर्थकं"कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया" इत्यनुशासनं कर्मप्रवचनीय योगे द्वितीया भवतीत्यर्थकं लक्षणं हेतुत्वं तथा च जपमनु प्रावर्षदित्यव द्वितीयाया हेतुत्वं जन्यत्वमर्थः प्रवर्षग्रेऽन्वेति अनुशब्दस्तु समभिव्याहारखरूपाकाङ्क्षा प्रयोजकी निरर्थक एव न चानुशब्दस्यैव हेतुत्वमर्थो द्वितीया निरर्थिका तथा ऽस्त्विति वाच्यम् । द्वितीयाया निरर्थकत्वस्य काप्यदृष्टत्वात् दर्शितानुशासनद्वयस्य जपेन प्रावर्षदिति हेतुटतीयाबाधकत्वाच्च । " तृतीयार्थे" इत्यनुशासनं तृतीयार्थे साहित्ये द्योत्ये अनुः कर्मप्रवचनीयसंज्ञः स्यादित्यर्थ तथा च नदौमन्ववसिता सेनेत्यव द्वितीयार्थः साहित्यमन्ववसितार्येऽन्वेति एवं नद्या सह संबद्धेत्यन्वयबोधः । " हौने" इति सूत्रं होने द्योत्ये अनुः प्राकसंज्ञः स्यादित्यर्थकं तथा चानु हरिं सुरा इत्यव होत्वं द्वितीयार्थः सुरेष्वन्वति होनत्वमपकर्षोऽवन्ध्येच्छत्वादिविरहखरूपो बोध्यः । "उपोऽधिकेच" । इति सवं
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
मधिके होने च द्योत्ये उपेति प्राक्संज्ञं स्यादित्यर्थकं तथा चोपहर सुरा इत्यत्रापि द्वितीयाया होनत्वमर्थः शेषं पूर्ववत् अधिकेऽर्थे कर्मप्रवचनीययोगे सप्तमो वच्यते । "लक्षणे त्थंभूताख्यान भागवीप्सासु प्रतिपर्यनवः" इति सूत्रं भागान्तेष्वर्थेषु योत्येषु वीप्साप्रयोगे च प्रत्यादयः प्राकसंज्ञकाः स्युरित्यर्थकं तथा च वृक्षं प्रति परि अनु वा द्योतते विद्यादित्यव लक्षणं द्वितीयार्थस्तच्च धात्वर्थेन निरूपितं जनकत्वं तन्निष्ठजन्यत्वं वा द्योतनं च तेजोविषयकं चाक्षुषं तादृशः साक्षात्कारो वा तत्र वृचहेतुकत्वमन्वेति तत्र वृक्षादेर्हेतुत्वं चक्षुरादिसन्निकर्षाणांसान्निध्येन विद्युदाद्याभिमुख्यद्दारा कथं चित्प्रयोजकत्व - स्वरूपं बोध्यं तिङर्थो विषयत्वं तथा च वृक्षप्रयोज्यस्य तेजोविषयकस्य चाक्षुषस्य साक्षात्कारस्य वा विषयो विदित्यन्वयबोधः धात्वर्थनिरूपित हेतुताविशेषस्य प्रकृते प्रतिपादनात् हेतुतासामान्यप्रतिपादकस्य अनुर्लक्षणे इत्यनुशासनस्य न वैयर्थ्यमतो दण्डमनु घट इत्यादी दण्डादिहेतुकत्वं घटादौ प्रतीयते अत एव परिपन्थ च तिष्ठतीतिनिर्देशस्तत्र परिपन्यशब्दस्य निपात्यमानत्वेऽपि परियोगावैकल्याद् द्वितीया तदर्थो हेतुत्वविशेषो धात्वस्थितावन्तीति । इत्थंभावो वास्तवसंबन्धो द्वितीयार्थः स च क्व चिद्दिषयिविषयभावः यथा विष्णुं प्रति परि अनु वा भक्त इत्यत्र इष्टत्वेन इष्टसाधनत्वेन पूज्यत्वेन वा ज्ञानं भक्तिः दृष्टमामिकं बोध्यं तव द्वितौयार्थो विषयित्वमन्येति तथा च विष्णुविषयकेष्टसाधनत्वादिप्रकारकज्ञानवानित्यन्वयबोधः क्व चिदुद्देश्योद्द श्यिभाव
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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यथायं शत्रून् प्रति धावतीत्यत्र द्वितीयार्थ उद्देश्यत्वंतच्च क्रियाप्रयोजकफलेच्छाविषयत्वं तथा च शत्रपदोत्तरद्दितौयाया शत्रुनाशादिस्वरूपफलेच्छार्थस्तव शवोविषयित्वेन संबन्धेनान्वयः सा चेच्छा प्रयोज्यत्वेन क्रियायामन्त्रेति । एवं शत्रुविषयकना शादी च्छा प्रयोज्यधावनानुकूलकृतिमानयमित्यन्वयबोधः क्व चित्समवायिसमवेतभावः यथा दण्डमनुजातिरित्यत्वं समवेतत्वं हितौयार्थः जातावस्वेति क्व चित्संयोगिसंयुक्तभाव: यथा पुरुषमनुदण्ड इत्यत्र संयुक्तत्वं द्वितौयार्थो दण्डेऽन्वेतौति भागोऽसाधारण स्वत्वाश्रयः तस्मिन् द्योत्ये द्वितीया यथा लक्ष्मीर्हरिं प्रति परि अनु वेत्यादौद्वितीयाया असाधारण खत्वमर्थो लक्ष्म्या दावन्वेति तथ च लक्ष्मीर्हरे रसाधारणखमित्यन्वयबोधः वीप्साप्रयोगे यथा वृक्षं क्षं प्रति परि अनु वा सिञ्चतीत्यादौ शाब्दबोधस्तु टचटच सिन्चतोत्यदेव बोध्यः । " अभिरभागे” भागातिरिक्तार्थं पूर्वोक्ते श्रभिरुक्तसंज्ञकः स्यादित्यर्थकं - तथा च हरिमभि वर्तते इत्यत्र लक्षणं भक्तो हरिमभौत्यत्रेत्यभावः भागे तु यदव ममाभिष्यात्तदर्पयेत्यच षष्यव प्रमाणं न तु द्वितीया वीप्साप्रयोगे तु देवदेवमभिस्तौatra sर्वचनेन वौप्साया द्वितीयाया कर्मत्वस्याभिधा
त् प्रतिपर्यन्वभीनां कर्मप्रवचनीयसंज्ञा गत्युपसर्गसं★पवादाय तेनोपसर्गपरत्वप्रयुक्त षत्वाद्यभावः फलं पयवस्यति । " अधिपरी अनर्थको" इति सूत्रं निरर्थकावेतौ प्रावसंज्ञकावित्यर्थकं तथा चात्रापि विशेषण विभक्तिभिन्ननिरर्थकक्षितौयायामनुशासनविरहान द्वितीया संज्ञाफा
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
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लं तु कुतोऽध्यागच्छति कुतः पयोगच्छति इत्यव गतिर्गतावितिसूत्रण विहितस्य गतावाङादौ परतो गतेरध्यादेर्निघात वरस्याभावो गतिसंज्ञाबाधादिति । "मुः पूजायाम्" इति सच पूजायां धात्वर्थे सुरुक्तसंज्ञः स्यादित्यर्थकमवापि निरर्थकत्वान्न द्वितीया संज्ञाफलं तु सुमितं श मोरित्यव षत्वाभाव उपसर्गसंज्ञाबाधादिति" अतिरतिक्रमणे च" इति सूत्रमतिक्रमणे पूजायां चार्थे द्योत्येऽतिरुक्तसंज्ञस्यादित्यर्थकं तत्संयोगासमानाधिकरणतत्संयोगध्वंसोऽतिक्रमणं सामानाधिकरण्यमेककालावच्छिन्नंबोध्यं पूजा प्रीणनं तच प्रीतीच्छा तथा चाति पर्वतंसार्थः श्रतिदेवान् कृष्ण इत्यवातिक्रमणं प्रीणनं च द्वितीयार्थस्तव तत्तत्संमर्गावच्छिन्नाधेयत्वेन सम्बन्धेन प्रकृत्यर्थस्यान्मयोऽतिक्रमणं सार्थं प्रीणने कृष्णोऽन्वेति एवं पर्वतवृत्तिर्यः पर्वतसंयोगासमानाधिकरणः पर्वतसंयोगध्वंसस्तद्दान् सार्थ दूति देवसमवेता या प्रीतीच्छा तद्विषय: कृष्ण इति चान्वयवोधः काशिकायां तु निपन्नेऽपि वस्तुनि क्रियाप्रवृत्तिरतिक्रमणम् अतिसितमेव भवता अतिस्तुतं भवता पूजायाम् अतिसिद्धं भवता प्रतिस्तुतं भवता शोभनं कृतं भवतेत्युक्त तचेदृशमप्यतिक्रमांतद्द्योतकस्य पूजाद्योतकस्य चातेः कर्मप्रवचनीयतया तद्योगे द्वितीयाविनाकृतदर्शित प्रयोगे षत्वाभाव इत्येव हृदयं न तु पूर्वप्रदर्शितोदाहरणे द्वितीयायाम् असाधुत्व - रत्वमिति । "अपि पदार्थसम्भावनाऽन्ववसर्गगर्दासमुच्चयेषु इति सूत्रं पदार्थादिषु द्योत्येषु अभिरुक्तसंज्ञः स्यादित्यर्थक पदार्थे यथा सर्पिषोऽपि स्यात् इत्यच तिङर्थंस
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विभत्त्यर्थनिर्णये। म्भावनाविषयत्वस्य धात्वर्थभवने उपपादकं दुर्बले कतृत्वं द्योतयन्नपिशब्दः स्थादित्यनेन साकाङ्गः षष्ट्या एवावयवावयविभावसम्बन्धवान् विन्दुरूपोऽर्थः स च विन्दुत्वादेव दुर्बल: अल्पस्य दध्यादेविलोडने विन्दत्यत्तेरपि. संदिग्धत्वात् तत्र विन्दुस्तत्त्वेन सम्बन्धत्वेन वा षध्यर्थ इत्यादिकं वक्ष्यते षष्यविन्दं द्योतयन् पढार्थद्योतकोऽपिशब्द: सर्पिःशब्देन साकाङ्क्षः धातुसममिव्याहृतस्यैवापिशब्दस्य पदार्थद्योतकत्वात् इत्यपियोगाभावात् सपिःशब्दान्न द्वितीया अत एवोक्त सर्पिषो विन्दुना योगो न त्वपिनेति वस्तुतस्तु पदासत्वेन पदार्थद्योतकत्वं पदसत्वे तु निरर्थकत्वमेवेति न द्वितीया षष्यर्थविन्दोस्तिङर्थकर्तृतायां विशेषणतयाऽन्वयः तथा च सम्भावनाविषयभ वन कतता सपिंबिन्यौयेत्यन्वयबोध: सम्भावने यथा अपिस्तुयाद्विष्णुमित्यत्र सम्भावनं लिङर्थस्तच्च सन्देह आपत्तिर्वा धात्वर्थे स्तन्वेति धातुसमभिव्याहृतोऽपिशब्दो लि
थसम्भावनस्य द्योतक: अन्ववसगै यथा अपि स्तुहि इत्यत्न धातुसमभिव्याहृतोऽपिशब्दो लोडथान्धवसर्ग द्योतयति स च कामचारानुज्ञा कामचार: प्रकाराविवक्षणमनुत्ता इच्छा तथा च येन केन चन प्रकारेणे चान्ववसर्ग: प्रकारो भेदकधर्मः अन्ववमर्गो विषयतया धात्वर्थेऽन्वेति गर्दायां यथा अपि स्तौति शाक्यान् धिगित्यत्र तादृशोऽपिशब्दो धिगर्थं गहां द्योतयति सा धात्वर्थेऽन्वेति द्योतकत्वं ( नानार्थशब्दस्य एकवार्थे तात्ययज्ञापनं धिक्शन्दोऽप्य कर्षस्य गायाश्च वाचकत्वान्नानार्थ; ससुच्वये यथा सखे अपि सिञ्च अपि स्तुहि शम्भुमित्यत्र न
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द्वितीयाविभक्तिविचारः। थामूतोऽपिशब्दः समुच्चयमेककर्ट कत्वादिक वाक्यार्थीभूतं द्योतयति एकस्य सम्बोध्यस्य यो: क्रिययोः कटत्वान्वये एकक कत्वं शम्भोरेकस्य कर्मत्वान्वयएककर्मकत्वं वाक्यार्थतयाऽवगम्यते संभावनान्ववसर्गार्थकप्रत्ययस्य प्रकृतिधातोश्च प्रातिपदिकत्व विरहात् गहाविषयधातोः समुच्चयोर्थकवाक्यस्य च पर्यदासन - त्याऽर्थवत्वाभावेन च प्रातिपदिकत्वविरहान्न ततो द्वितौया वस्तुतस्तु निरर्थकत्वादेव न द्वितीया सम्भावनाद्यर्थस्य पदान्तरेण लाभे निरर्थकत्वसंभवात् यदि च समुच्चय एककालिकत्वं तच्च न वाक्यार्थः दर्शितस्थले कालवाचकशब्दाभावात् अत एव विभिन्न कालिको गमनत्यागावाहाय काशी ब्रज त्यजापौति न प्रयोग इति समच्चये कुती न हितोया निरर्थकत्वप्रसक्तेरसंभवादिति विभाव्यते तदाऽपि समुच्चयान्वयिक्रिययोर्वाचकधातोरप्रातिपदिकत्वान्न ततो द्वितीया वस्तुतस्तु एककालिकस्वस्य समच्चयस्य न द्योतकोऽपिशब्दस्तस्य पदान्तरेणालाभे द्योतनासम्भवात् किं तु वाचक एव तथा चापिशब्दन समुच्चयस्याभिधानात् निरर्थकत्वादेव न हितौया अत एव रसो गन्धोऽपि मनोहर: पनसे इत्यत्र रसादिशब्दान्न द्वितीयाऽपिशब्देन समुच्चय बोधने निरर्थकत्वसम्भवात् अत एव कर्मप्रवचनीया द्योतका दितीया वाचिकति न च वैपरीत्यमेवास्त्विति वाच्यं तथा सति निरर्थकहितौयाऽभ्युपगमे सुसिक्तं शम्भोरित्यत्र द्वितीयापत्ते: अत एवार्था द्योतकाधियोगे निरर्थकहितौयायाः साधुतायां बाधिकायामधिवचनत्तातमित्यत्र विवदन्ते तहिदः
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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नचापेर्योगे द्वितौयाविरहे संज्ञा वैयर्थ्यमिति वाच्यं संज्ञाया दर्शितस्थले षत्वाभावफलकत्वात् उपसर्गसंज्ञापबादकत्वादिति । " कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे" इति सूत्रंकालात्रयवाध्वावयववाचिशब्दाभ्यामत्यन्तयोगेऽर्थे द्वितीया स्यादित्यर्थकम् अत्यन्तसंयोगोऽवच्छिन्नत्वं तवावच्छेदको देशविधया कालविषया द्विविधो द्विविधमपि तद्यापकत्वपर्यवसितं व्यापकत्वमभावाप्रतियोगित्वं तत्राभावः प्रतियोगित्वं खण्डशो द्वितीयार्थः यदि चावच्छेदकत्वं विना व्यापकत्वमतिप्रसक्तमिति मन्यते तदावच्छेदकत्वमपि द्वितीयार्थे निविशते एकपदार्थानामपि व्युत्पत्तिवैचिच्येण परस्परान्त्रयोऽभ्युपेयते व्यापकतावच्छेदकः संबन्धो दैशिकः संयोगादिः कालिकस्तु विशेषणताविशेषः तथा चायं मासमधीत इत्यत्र मासस्याधेयत्वेन संबन्धेनाभावे तस्य प्रतियोगितायां तस्याः कालिकसंबन्धावच्छिन्न प्रतियोगित्वोयनिरूपितत्व संबन्धेनावच्छेदकत्वे तस्यान्वयितावच्छेदकतावच्छेदकसंसर्गावच्छिन्नावच्छेदकत्वीय स्वरूप संसंग विच्छिन्नप्रतियोगितयासंबन्धेनाभावे तस्य धर्मे तस्यान्वयितावच्छेदकौयेनाध्ययनत्व संबन्धेनाध्ययनेऽन्वयः एवं मासव्यापकाध्ययनकर्तृत्ववानय मित्यन्वयबोधः प्रतियोगिताया निरूपितत्व संसर्गे कालिकसंवन्धानुप्रवेशात् संयोगेन मासवृत्यभावप्रतियोगित्वस्याध्ययने सत्वेऽपि नान्वयबोधानुपपत्तिः । अवच्छेदकत्वस्य प्रतियोगिता संसर्गेऽन्वयितावच्छेदकसंसर्गस्यानुप्रवेशात् संयोगेन ज्योत्स्नावतः प्रासादादेर्मासवृत्यभावप्रतियोगितायाः संयोगसंसर्गावच्छेदक
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द्वितीयाविभक्तिविचारः ।
त्वस्य ज्योत्स्नानिष्ठस्याध्ययनत्वे विरहेऽपि हित्रदिनाध्ययनस्थले न दर्शितप्रयोगः धर्मस्यान्वयितावच्छेदकप्रतियोगिक सम्बन्धेनान्वयोपगमात्तादृशस्य
मासवृत्य
भावप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य सत्वे विरहात् सत्ववतो दिदिनाध्ययनस्य सत्तायां न दर्शितप्रयोगः एवं क्रोशं कुटिला नदीत्यच क्रोशनृत्यभावप्रतियोगित्वस्य संयोगावच्छिन्नप्रतियोगित्वीयनिरूपितत्वसम्बन्धेनावच्छेदकत्वेऽन्वयः अवच्छेदत्वादेस्तु प्रदर्शित रीत्याऽन्वयो वोध्यः कुटिलत्वं तु तिर्यग्गमनजन्यावयवसंयोगसामामाधिकरण्यं तदभावः सरलत्वं न च तिर्यग्गमनवदंवयवसमवेतत्वं तत् तथा सति कुटिलदण्डादौ कौटिल्यानुपपत्तेः तदवयवे तदा तिर्यग्गमनस्याभावात् सामानाधिकरण्यमेककालावच्छिन्नं बोध्यं तेन पूर्वं कुटिलेऽनन्तरं सरले दण्डे न कौटिल्यप्रतीतिव्यवहारौ रूपादी कौटिल्यप्रतीतिव्यवहारयोरभावात् सामानाधिकरण्यंद्रव्यत्वविशिष्टं बोध्यमिति वस्तुतस्तु मासमधीते इत्यव मासात्मककालिकविशेषणता वच्छिन्नमाधेयत्वं द्वितीयार्थः तन्मासनिरूपितमध्ययनेऽन्वेति हिवदिनाध्ययनेन निरुक्तमाधेयत्वमिति न तव दर्शितप्रयोगः एवं क्रोशं कुटिला नदीत्यच क्रोशत्वमध्वपरिमाणविशेषः तद्वान् क्रोशः क्रोशत्वव्यापक संयोगावच्छिन्नमाधेयत्वं द्वितौयार्थः तत् क्रोशनिरूपितं कुटिलेऽन्वेति कुटिलस्य तादात्म्येन नद्यामन्त्रय इति मासं कल्पणौत्यव कल्याजनकः कल्याणशब्दार्थः कल्याणजनकत्वविशिष्टे मासौयस्य व्यापकत्वस्य निरुक्ताधेयत्वस्य वाऽन्वयोपगमा
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V
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। विभक्त्यर्थनिर्णये।
१९३ विशेषणेऽप्यन्वयः व्यापकत्वस्य निरुताधेयत्वस्य वा विवक्षायां न द्वितीया किं तु सम्बन्धमाचे षष्ठी यथा मासस्य हिरधौते क्रोशस्यैकदेशे पर्वत इति । इति विभक्त्यर्थनिर्णय कारकहितीयार्थनिर्णयः ।
इति द्वितीयाविवरणं समाप्तम् ।
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१९४
पदावर तृतीयाविभक्तिविचारः। अथ तृतीया । टाभ्यांभिसिति वयः प्रत्ययास्तत्र सुमनसा स्तूयत इत्यादौ श्रयमाणत्वादाकारस्यात्वेन च्यामिः त्यस्य भ्यांत्वेन भिसो भिस्त्वेन वाचकत्वं टकारोऽनुबन्धः कचिदम्यश्रयमाणत्वान्न वाचकताकुक्षिप्रविष्ट इति अनुशासनसिद्धस्तुतौयार्थ: अनुशासनं च"कर्तकरणयोस्ततीयेति तन कर्ता करणं चाथ वा कतत्वं करणत्वं च
तौयार्थ इति वक्ष्यते । अत्रा"प्यनभिहिते" इत्यधिकारस्तेन पचतीत्यत्र तिङा कट त्वस्य पक्तोत्यत्न कृता पक्कपूर्वीत्यत्र तद्धितेन पक्कौदन इत्यत्न समासेन कर्तुरभिधाने सति न हतीया एवमक्षा दीव्यन्ते इत्यत्र कर्माख्यातेन फलतः करणत्वस्याभिधाने पचनं काष्ठमित्यत्र कता स्नानौयं चूर्णमित्यत्र तद्धितेन पक्कौदन काष्ठमित्यत्र समासेन करणस्याभिधाने सति न दृतीयेति कर्ट पदसङ्केतग्राहकमनुशासनं "स्वतन्त्रः कर्ते"ति स्वातन्त्र च कारकान्तरानपक्षतया क्रियासम्बन्धवत्वं कारकान्तराणां क
सापेक्षतयैव क्रियासंबन्धित्वं कर्ट घटितमूर्तिकत्वात् अत एव समस्तकारकोपहितं रूपं कर्तुरित्युक्तमात्मतत्त्वविवेके उपहितं व्यापकं तवैव विवरण अपादानादौनांलक्षणं कर्ट घटितं वितं दीधितिकद्भिरिति । क्रिया कापि न कर्तृविनाकृतेति कारकान्तराणां कतसापेक्षत्वनियमः कर्तुश्चापादानादिविनाकृताया अपि क्रियायाः संबन्ध इति न कारकान्तरापेक्षानियमः । यद्यपि जानातीत्यादावपादानं विना स्मन्दत इत्यादौ कर्म विना दर्शितोभयस्थले संप्रदानं विनाऽपि क्रियाया दर्शनानोपादानसंप्रदानकर्मभिः साप
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
१९५
चत्वनियमः करणाधिकरणयोस्तु सकल क्रियानियतत्वात् कथं न तत्मापेचत्वमिति तथापि करणस्य कर्ट - व्यापार्यतया क सापेक्षत्वेनैव क्रियायां न तु कर्तुः करणसापेक्षतया संबन्धः करणाव्यापार्यत्वात् अधिकरगास्य कर्ट कमन्यितरद्वार कक्रियाधारत्वेनैव कारकातरसापेक्षतया क्रियायां संबन्धः न तु कतुस्तथा साचात्संबन्धादिति यहा यः प्रधानीभूतो धात्वर्थस्तदन्विततिर्थो वा व्यापारस्तद्दत्वं खातन्त्र्यमिति टोकाकदभिमतमिति प्रागेवोक्तम् । सर्वमेतद्दालोपलालनं न तु तृतीयार्थोपवर्णनं दर्शितस्वातन्त्र्यस्य तृतौयया कुवापप्रत्यायनात् । अत्र शाब्दिकाः चैत्रेण पच्यते तराहुल दूत्यव विक्लित्तिः प्रयत्नस्वरूपो व्यापारश्च पचेरर्थः आश्रयस्तृतीयाया चाश्रये तादाम्येन चैत्र आश्रयः समवेतत्वेन प्रयत्ने व्यापारेऽन्वेति व्यापारे प्रधाने तण्डुलाभिन्नाश्रयिका विक्तित्तिरन्वेति तत्र धातूपात्तव्यापाराश्रयः स्वतन्त्रः धातूपात्तत्वं न शाब्दबोधविषयः प्रापारो धातुभ्य एवानन्यलभ्यतयाऽऽश्रयमाचं तृतीयार्थइति वदन्ति । तदवापाश्रयत्वस्यो खण्डस्याभावेनाश्रयस्य गौरवान्न शकत्वमिति प्रागेवावेदितं किं त्वाश्रयत्वमाधेयत्वं वा लाघवात्तृतीयार्थ: यदि च चैत्रेण पच्यते इत्यादौ पचिना फूत्कारादिव्यापार एव प्रत्याय्य ते तदाऽऽख्यातस्येव लाघवात्प्रयत्न एव तृतीयायाः शकाइति तार्किकाः। चैत्रेण गम्यते स्पन्द्यते इत्यादी प्रयत्नस्तृतीयार्थः स च समवेतत्वेन चैव विशेषितः साध्यतया गमनादौ विशेषणौभूयान्वेति रथेन गम्यते चैत्रेण ज्ञा
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१९६ र तृतीयाविभक्तिविचारः । यते इत्यादौ तौयाया आधेयत्वमर्थः तच्च निरूपितत्वेन संबन्धेन प्रकृत्यर्थविशेषितं स्वरूपसंसर्गेण धात्वर्थ विशेषणतयाऽन्वेति शोभया प्रतिभायते प्रकाश्यते वा मोदकेन स्वद्यते रुच्यते वेत्यादौ विषयत्वं तौयार्थस्तञ्चाधेयत्वसंसर्गेण प्रकृत्यर्थविशेषितं प्रतियोगितासंसर्गेण धात्वर्थं जाने इच्छायां च विशेषणतयाऽन्वेति जानमावार्थकयो: प्रतिभातिप्रकाशत्योरिच्छामावार्थकयोः स्वदतिरोचत्योविषयत्वार्थककर्ट प्रत्ययेनैव सह सोकाश्त्वात् । प्रतिबिम्बत इत्यादौ प्रतिबिम्बो धात्वर्थः स च स्वविषयासंबद्धत्तिचक्षुःसंयोगप्रयोज्यचक्षुः संयोगजन्यचाक्षुषप्रत्यक्षं तादृशचक्षुःसंयोगः क चित्प्रतीघाततया प्रयोजकः प्रतिधातस्तु देशान्तरसंयोगजनिकायाः क्रियाया जनकः संयोगः यथा सुखचक्षुःसंयोगजनक्रियाजनको दर्पणचक्षुःसंयोगः क चिन्मार्गसंयोगतया गन्तव्यसंयोगप्रयोजक: यथा स्फटिकाधस्थितपद्मरागचक्षुःसंयोगप्रयोजकः स्फटिकचक्षुःसंयोगः एतेन प्रतिहतचक्षुःसंयोगजन्यत्वमा न चाक्षुषविशेषणमिति तत्र तन्तुचक्षुःसंयोगाधीनपटचक्षुःसंयोगजन्यगाटचाक्षुषव्युदासाय स्वविषयासंबत्तित्वं प्रथमचक्षुः संयोगे विशेषणं स्वविषयासंबद्धस्तु स्वविषयसंबन्धित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभाववान् बोध्यः तेन तन्तुषु तत्तन्तुभेदसत्वेऽपि न क्षतिः ईदृशं चाक्ष षमादर्शाद्यविषयकमिदं मुखमित्याकारकमपि प्रतिबिम्ब एव ईहशमेव मुखावगाहित्तानं प्रथमतो जायते तत एवाद” मुखमिति मुखवानादर्श इति विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि
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। विभक्त्यर्थनिर्णये। ज्ञानसम्भवात् प्राथमिकज्ञानं प्रतिविम्बः तविषयत्वमाख्यातार्थो मुख एव न त्वादशैं अत एव मुखं प्रतिविम्बते न तु दर्पण इति प्रयोगोपपत्तिः यदि चादर्शजानं विनापि दर्शितविशिष्टवैशिष्ट्यबोधयोरसम्भव एवेति प्राथमिक ज्ञाने ऽप्यादर्शो विषय एवेति इदं मुखमयमादर्शश्चेति ममूहालम्बनचाक्षुषमेव प्रथमतो जायते तत्कथमुक्तप्रयोगोपपत्तिरिति विभाव्यते तदा स्वविषयेत्यत्र खविषययत्किञ्चिद्यक्तासंबन्धित्वं वक्तव्यं तेनादर्शस्य स्वविषयत्वेऽपि तदृत्तिचक्षुःसंयोगस्य प्रयोजकत्वे मुखप्रतिबिम्वस्य न तथावहानिः एवं प्रतिविम्बते इत्यत्र प्रयोजकचक्षःसंयोगसंबन्धित्तिभिन्नविषयत्वमाख्यातार्थो वाच्यस्तत एव दर्शितप्रयोगोपपत्तिः आदर्शादर्शत्वादिविषयतानां तादृशभिन्नत्वाभावान्मुखमुखत्वादिविषयतानां तादृशभिन्नत्वात् एवं मुखं प्रतिबिम्बते इत्यत्र तिर्थविषयत्वं तादृशभेदेन विशिष्टमुपलक्षितंवेत्यन्यदेतत् । एवं धात्वर्थचाक्षुषमपि तादृशचक्षःसंयोगजन्यत्वेन विशिष्टमुपलक्षितं वेत्यन्यदेतत् उपलक्षणतापक्षेऽपि विषयत्वत्वेन चाक्षुषत्वेन तादृशौ व्यक्तिः प्रतीयत इति नातिप्रसङ्गः बुद्धौ चैतन्यं प्रतिविम्बते इत्यत्र प्रतिबिम्बो भ्रमो धात्वर्थः प्रकारत्वं तु तिर्थः बुद्धिपदोत्तरसप्तमौ तु बुद्धिगतं प्रयोजकव्यापारं वाच्छ्यमभिधत्ते तस्य प्रयोजकतासंवन्धेन धात्वथैवमेऽन्वयः एवं बुदिखाच्छ्यप्रयोज्यभ्रमप्रकारश्चैतन्यमिति शाब्दबोधः यथा च व्यापारस्सप्तम्यर्थस्तथा सप्तमीविवरणे वक्ष्यते । एवं मुखेन प्रतिबिम्व्यते इत्यत्र प्रयोजकचक्षुःसंयोगसंबन्धे
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१९८ र तृतीयाविभक्तिविचार। त्तिभिन्नविषयत्वं तिङ इव तृतीयाया अर्थः तस्य प्रतिबिम्ब तथाविधचाक्षुषे धात्वर्थे विशेषणतया प्रतियोगितासंसर्गेणान्वयः एवं मुखविषयता प्रतियोगितथाविधचाक्ष षमित्यन्वयबोधः चैतन्येन प्रतिबिम्ब्यत इत्यत्र 'प्रकारत्वं तृतीयार्थ: तस्य प्रतियोगितासंसर्गेण धात्वर्थभमे विशेषणतयाऽन्वयः एवं चैतन्यप्रकारताप्रतियोगी भ्रम इत्यन्वयवोधः । घटेन नश्यत इत्यत्र घटो नश्यतीत्यादौ तिङ इव तृतीयायाः प्रतियोगित्वमर्थस्तस्य निरूपितानुयोगितासंबन्धेन धात्वर्थे नाशे विशेषणतयाऽन्वयः एवं घटप्रतियोगिताको नाश इत्यन्वयबोधः वङ्गिना दीप्यत इत्यत्र भाखररूपं भास्वररूपवतेजसंयोगनियताज्यवसंयोगो वा दीप्यतेरर्थः मणिना दीप्यत इत्यव भास्वररूपवत्तेजःसंयोगनियतावयवसंयोगो दीप्यते रथस्तदन्वयिसमवायावच्छिन्नसमवायघटितसामानाधिकरण्यावच्छिन्नमाधेयत्वं वा तृतीयार्थः चैत्रेण शथ्यत इत्यत्राधःस्वावयवावच्छिन्नसंयोगानुकूलव्यापारः शयतेरथस्तदनुकूलप्रयत्नः हतीयार्थः यदि च तादृशसंयोग एव शयतेरर्थः व्यापारी नार्थ: अत एव व्यापार नष्टेऽपि तादृशसंयोगे विद्यमाने शय्यत इति लट्प्रयोगस्तदा तथाविधमाधेयत्वं तौयार्थ आधेयत्वेनाधेयत्वस्य शक्यत्वेऽपि संसर्गविशेषावच्छिन्नाधेयत्वीयस्वरूपसंसर्गेण धात्वर्थेऽन्वयोपगमान्नानुपपत्तिरिति । अत्र प्रयत्नत्वस्य जातितया तदिशिष्टे ततौयायाः शक्तिराधेयत्वादौ लक्षणा यदि चाधेयत्वत्वविषयत्वत्वप्रकारलत्वप्रतियोगित्वत्वान्यखण्डोपाधयस्तदा तत्तविशिष्टेऽपि त
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विभत्त्यर्थनिर्णये। १९९ तौयायाः शक्तिरेव । नृपेण गम्यते गमितो वा दिगन्तंशत्रुरित्यत्र तृतीयार्थः प्रयाणादिव्यापारः नृपविशेषित: प्रयोज्यतासंसर्गेण शवकर्तकगमनेऽन्वेति । आचार्येण वोध्यते बोधितो वा धर्म माणवक इत्यत्र तृतीयार्थीऽध्यापनादिव्यापार प्राचार्यादिविशेषितो माणवकर्तृकबोधे तथाऽन्वेति । यजमानेन भोज्यते भोजितो वा पायसं ब्राह्मण इत्यत्र तृतीयार्थो निमन्त्रणादिव्यापारोयजमानविशेषितो ब्राह्मणकत कभोजने तथाऽन्वेति । गुरुणा व्याहार्यते व्याहारितो वा ब्रह्मेष इत्यत्र तृतीयाथ: शिक्षणादिव्यापारो गुरुविशेषित एतत्कत कव्याहारे तथाऽन्वेति । गुरुणा शाव्यते श्रावितो वा धर्म शिष्यइत्यत्र ततौयार्थो वाक्यादिव्यापारो गुरुविशेषितः शिष्यकर्तकशाब्दबोधे तथाऽन्वेति । गृहस्थेन मासमास्यते
आसितो वाऽतिथिरित्यर्थः शयनासनभोजनादिदानव्यापारो गृहस्थविशेषितोऽतिथिकर्तृकासने तथाऽन्वेति । मुगरेण नाश्यते घट इत्यत्र ततीयार्थो ऽभिघातव्यापारो सुगरविशेषितो घटप्रतियोगिताकनाश तथाऽन्वेति यदि च प्रयाणादिव्यापारी णिजर्थ एव स कथं तृतीया
र्थोऽन्यलभ्यत्वादिति विभाव्यते तदा प्रयत्न आधेयत्वादिकं च तृतीयार्थो णिजर्थप्रयाणादिव्यापारी तत्तत्संसर्गेण यथायोग्यमन्वेति । न च प्रयाणादिव्यापारः प्रयनादिर्वा कथं ततौयार्थो चापकस्यानुशासनस्य विरहात् स्वतन्त्रः कत्र्तव्यत्र धात्वर्थस्य तिर्थस्य वा प्रधानव्यापारस्थाश्रयतायाः कर्तृतात्वेन ज्ञापनान्न तु णिजर्थव्यापारस्येति वाच्यं “गतिबुद्धिप्रत्यक्सानार्थशब्दकर्माकर्मकाणा
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तृतीयाविभक्तिविचारः। मणि कर्ता स णावि"त्यत्राणौत्यस्य ज्ञापकस्य सत्त्वात् यदि च स्वतन्त्र एव कत शब्दार्थस्तदा सूत्रेणीत्यस्य वैययं स्यात् णिजथव्यापाराश्रयस्यास्वतन्त्रत्वादेव तत्र कतत्वाप्रसक्तः तथा च प्रयोजकोऽपि कर्ता भवति तत्र कमंत्वनिषेधकतयाऽगौत्यस्य सार्थक्यं तेन गमयति देवदत्तेन यज्ञदत्तं विष्णुमित्र इत्यत्र देवदत्तपदान्न हितीयेति । एवं प्रयोजकस्य णिजथव्यापाराश्रयस्य कर्तृत्वेऽवगते कत करणयोरित्यनेनैव प्रयोजकवाचिपदात्ततीयेति । अत एव तत्र पञ्चविधः कर्तेत्यत्र प्रयोजकस्वतन्त्रकर्मकतणामेव ग्रहणमिति विविध एव कर्ताऽभिहितत्वानभिहितल्वे स्वन्त्रप्रयोजकयोरवान्तरधर्मी न विमाजकोपाधौ इति कौण्डभद्दे सक्तम् । करणपदसंकेतग्राहकमनुशासनं “साधकतमं करणमि"ति साधकतमत्वं च फलायोगव्यवच्छिन्नव्यापारवत्वं साधकस्य व्यापारस्य साधकं करणमिति ज्ञापयन् तमपप्रत्ययः फलायोगव्यवच्छित्तिं व्यापारे जापपति तथा च फलोपहितव्यापारहारा क्रियाया जनकं करणमिति तत्र फलोपहितव्यापारस्तुतौयार्थः फलोपधानं बिशेषणमुपलक्षणं वेत्यन्यदेतत् । तत्र साक्षाज्जनकन करणमिति तण्डुलविक्लित्त्यौदनं पचतीति न प्रयोगः तण्डलविक्लित्तरोदनोत्पत्ति प्रति साक्षाज्जनकत्वात् फलानुपहितव्यापारकमपि न करणमिति शूर्पण तण्डुलं पचतौति न प्रयोगः सूपव्यापारस्य तण्डलविक्लित्त्यनुपधायकत्वात् व्यापारस्तु क्रियाजनकतावच्छेदकत्वेन धर्मणोपलक्षणेनानुगतौकृततत्तद्ध
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
२०१ मंवान् तृतीयाप्रत्ययेनोपस्थाप्यः एतेन सकलव्यापारमाधारण करूपाभावेन न शक्त्यैक्य तत्तद्रूपेण शक्तिखोकारे नानार्थता युगसहस्रेणाप्यग्रहश्चेति निरस्तम् । यद्याधारादिव्यापारो धातुनाऽनभिधीयमानः क्रियाजनकतया विवक्षितस्तदाऽधारादिकारकगणः करणमेव । तदाहुः ।
क्रियायाः परिनिष्पत्तियंद्यापारादनन्तरम् । विवक्ष्यते यदा यत्र करणं तत्तदा मतम् ॥ .. वस्तुतस्तनिर्देश्यं न हि वस्तु व्यवस्थितम् । स्थाल्या पच्यत इत्येषा विवक्षा दृश्यते यतः ॥ वस्तुव्यवस्थितिविरहेणानिर्देश्यत्वादेव विवक्षाधीनत्वं करणास्येति कारकान्त पौयमेव गतिरिति विवचाऽधौनत्वमपादानादौनामत एव विवक्षातः कारकाणि भवन्तीति प्रवादः । अत्र व्यापाराश्रयः करणटतौयार्थ इति शाब्दिकाः । तन्न विचारसहं व्यापारस्य शकावे लाघवात् तदाश्रयस्य तथात्वे गौरवात् किं च व्यापारस्य धात्वर्थे जन्यत्वेन संसर्गेण साक्षादन्वयस्तदाश्रयस्य तु खव्यापारजन्यत्वसंसर्गेण परम्पराऽन्वय इति वह्निना पचतीत्यत्र टतौयार्थ ऊर्ध्वज्वलनव्यापारो जन्यत्वसंसर्गेण पाकऽन्वेति वचूर्वज्वलनजन्यपाककृतिरित्यन्वयबोधः । अनुभवेन स्मरति योगेन वगच्छति चक्षुषा पशयतीत्यादी दृतीयार्थेषु संस्कागपूर्वसंनिकर्षेषु प्रकृत्यर्थानांजन्यत्वसंसर्गेणान्वयः श्रोत्रेण शृणोतीत्यत्र तृतीया शब्दावच्छिन्नसमवाय सविशेषणे होतिन्याय न श्रोबस्य जन्यतासंसर्गेण शब्दोन्वयः पर्यवस्यति यथा रूपं चक्षषा पश्यतीत्यत्र संयोगे क्वचिज्जन्यत्वातिरिक्तसंसर्गेणापिट
આ પુસ્તક શ્રી જૈન મુની
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तृतीयाविभक्तिविचारः । तीयाथै प्रकृत्यर्थस्थान्वयः यथा चिकौर्षया प्रवर्तते परामर्शनानुमिमौते इत्यादौ तीयार्थ समवाय चिकीर्षापरामर्शयोः स्वप्रतियोगिताकत्वसंसर्गेणान्वयः यदि च शृणीतेः प्रत्यक्षार्थकत्वेऽपि शब्देन शृणोतीतिप्रयोगस्तहा शब्दस्यापूर्ववत्समवायऽन्वय इति वदन्ति । अन्ये तु सर्वच करणटतौयार्थे प्रकृत्यर्थस्य जन्यजनकभावसंसर्गेगोवान्वयः परामर्शनानुमिमौत इत्यादौ दण्डेन घट डूत्यवेव हेतौ तौया न तु करणे इत्याहुः । अत्र वदन्ति । अनुमानौयः परामर्श इत्यत्र करणे छप्रत्ययस्य दर्शनात्परामर्शनानुमिमौत इत्यत्न करणे हतीया न तु हेतौ करणत्वं तु फलोपधायकत्वं तत्रोपहितत्वं करणटतौयार्थः हेतुटतीयायास्तु स्वरूपयोग्यत्वमर्थ इति । तच्चिन्त्यं पटीयास्तन्तव ओदनौय: पाक इत्यादाविव हेतुत्वार्थकेन संवधार्थकेन वा छप्रत्यय न दर्शितप्रयोगोपपादनसम्भवात् उपहितत्वस्य कार्याव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्वस्वरूपस्य कार्य विशेषाणामन्यलभानामज्ञाने दुग्रहस्य कार्य विशेषाणामननुगमेन तत्तत्कार्य व्यक्तीनामननुगततयाऽव्यवहितपूर्वक्षणस्याननुगमेन चात्यननुगतत्वात्तृतीयार्थत्वासम्भवाच्च व्यापारस्य तृतीयार्थत्वे तु प्रकत्यर्थम्य व्यापारे तस्य च. धालथें जन्यत्वसंसर्गेणान्वयान्नाननुगमशङ्गाऽपौति । अत एव सव्यापारककारणं करणमिति. करणस्य स्वजन्यः सन् स्वजन्यजनको व्यापार इति व्यापारस्य च लक्षणं संगछते। ननु घटादौ दण्डादेयापारहारा हेतुत्वमतएव शब्दालों के मिश्चैदण्डकाष्ठादेश्च चक्रम्नमिविक्लित्या
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। विभक्त्यर्थनिर्णये । दिजनकत्वं स्वनिष्ठस्पन्दज्वलनहारत्युक्तं तथा च दण्डेन घट इत्यत्र सव्यापारकहेतुत्वस्य तृतीयार्थतया तस्य च नामार्थान्वयेन करगा त्वस्य कारकत्वहानिरिति चेन्न व्यापारस्य करणटतीयार्थतया तस्य च जन्यत्वसंसर्गेगा धात्वर्थ एवान्वयेन कारकत्वानपायात् हेतुत्वमर्थस्तच साक्षात्परम्परासाधारणमित्यादिकं वक्ष्यते । द्वितीयार्थोऽपि व्यापारो दिवोऽन्वेतौति ज्ञापयितुं"दिवः कर्म चेति सूत्र" दिवः साधकतमं कर्म करणं च भवतीत्येतदर्थकं चकारः संज्ञाहयार्थक: अत एव मनसादेव इत्यत्न करणसंज्ञाप्रयुक्ता तृतीया कर्मसंज्ञाबलात्कर्मोपपदप्रयुक्तोऽणप्रत्ययः"मनसः संज्ञायामि"त्यनुशासनेन तृतीयाया अलुक एवमक्षरक्षान्वा दीव्यतीत्यु भयविधप्रयोगः साधुः के चित्तु दिवः साधकतमे करणसंताप्रयुक्तकायें देवना अक्षा इत्यत्र ल्युट कर्मसंज्ञाप्रयुक्तं तु अक्षादीव्यन्त इत्यत्र लः देवनौया इत्यादावनीयरादिः प्रत्ययः अर्दीव्यन्तीत्यत्र च संज्ञाहयप्रसक्तौ परया तृतीयया हितौयाया बाध इत्यक्षान्दोव्यतीति न प्रमाणमिति वदन्ति । तन्न विचारसहं तृतीयाया द्वितीयाबाधकत्वे बौजौभूतानुशासनविर हात् प्रत्युत परया कर्मसंज्ञया तत्प्रयुक्तद्वितीयादिकायण वा करणसंज्ञायास्तत्प्रय - तटतीयादिकार्यस्य वा बाधापत्तेः न चैवमेवास्तु अक्षान्दीव्यतीत्येव प्रमाणं न चार्दीव्यतीति दीव्यतियोगे तृतीयाहितीयोभयप्रयोगोऽसाधुरेवेति वाच्यं तथा सति "दिवः कर्म चे"ति सूचे चकारवैयर्थ्यप्रसङ्गात्। न च क्काचित्कसंज्ञाहयप्रयुक्तस्य ल्पुटकर्माख्यातादिकायस्योप
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तृतीयाविभक्तिविचारः। पादकतया चकार: सार्थक इति वाच्यं क्वाचित्ककार्योपपादकत्वे बीजविरहेण विशेषेण कार्य योपपादकतयैवैच्छिकविकल्पार्थकस्य चशब्दस्य सार्थकत्वसम्भवात् । एबमौरक्षान्वा दोव्यति मल्य इलान दीव्यते: क्रीडा सा तु सुखव्यापारोभयं सुखमेव वाऽर्थः तृतीयाहितीययोः पातस्वरूपो व्यापारोऽर्थः तथा चाक्षजन्यपातजन्यस्य सुखानुकूलव्यापारस्य सुखस्य वाऽनुकूलकतिमान्मत्स्य इति शाब्दवोधः । न चात्न धात्वर्थफले सुख प्राधेयत्वस्वरूपं कर्मत्वं हितोया बोधयितुमौष्ठे सुखादावक्षाधेयत्वस्य बाधादिति द्वितीयाया अपि व्यापारोऽर्थः अत एव देवना अक्षा इत्यत्र व्यापाराश्रयस्य करणस्य ल्युटाऽभिधानान्न व्यापारार्थिका द्वितीया । एवमक्षा दोव्यन्ते देवनौया वेत्यत्र तिङा व्यापारस्य तदाश्रयस्यानीयराऽभिधानान्त्र व्यापारार्थिका करणतीया "अनभिहित इति निषेधादिति । द्वितीयायाः करणत्वमिव तृतीयाया अपि कर्मत्वमर्थ इत्यावेदयितुं "संजोऽन्यतरस्यां कर्मणी" ति सूत्रम् । सम्पूर्वस्य जानातेः कर्मणि तिौया द्वितीय वा स्थादित्यर्थक पित्रा पितरं वा संजानौत इत्यत्न संजानाते: संज्ञानमसाधारणधर्मेण ज्ञानमर्थस्ततीयादितौययोविषयतास्वरूपं कर्मत्वमर्थः अथ वाधेियत्वस्वरूपमेव कर्मत्वमिहाप्यर्थः विषयतायाः पूर्वोक्तय त्या धात्वर्थफलत्वावश्यकत्वात् तथा च पितृविषयताकं पितृदृत्तिविषयताकं वा ज्ञानं वाकयार्थः सञ्जानौत इत्यत्र "संप्रतिभामनाध्याने इत्यनशासनेन संपूर्वकात् प्रतिपूवकाच्च च श्रात्मनेपदं भवति यद्याध्यानं स्मरणं नार्थ दू
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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केन सिहमात्मनेपदम् । श्राध्याने तु मावा मातरंवा संजानातीत्येव प्रमाणम् । के चितु आध्याने मातरंमातुर्वा सञ्जानातीत्येव साधु " अधीगर्थे " ति सूत्रेण वि हितया षष्ट्या तृतीयाया बाधात् अत एव कृद्योगष
तृतीयाया बाधः पितुः संज्ञानमित्यादावित्याहुः । तन्न विचारसहं षष्ट्या तृतीयाया बाधे द्वितौयाया अपि बाधापतेर्युक्तस्तौल्यात् पितुः संज्ञानं संज्ञा वेत्यव वृत्तिकारमते कुद्योगे कर्मार्थकषष्ट्या कर्मप्रत्ययस्य हितीया तृतीयादेर्वाध इति नाव तृतौयादेः प्रसक्तिरिति । हृविकर्मण्यपि तृतीयां ज्ञापयति" तृतीया च होश्छन्दसी” ति सूत्रं छन्दसि होर्हवेः कर्मणि तृतीया स्याच्चकारादfeatusपीत्यर्थकं यवाग्वा जुहोति यवागूं जुहोतीत्यादौजुह तेर्वन्हिसंयोगफलक खाहाकरणकप्रक्षेपोऽर्थस्तत्र वन्हि संयोगान्वय्याधेयत्वस्वरूपं कर्मत्वं तृतीयाद्वितीययोरर्थः तथा च यवागूवृत्तिवन्हिसंयोगफलकखाहाकरणकप्रक्षेपकर्तत्वं वाक्यार्थः लोके तु घृतं जुहोतीत्यादौ न तृतीयेति । "अशिष्टव्यवहारे दाणः प्रयोगे चतुर्थ्यर्थे तृतीया स्यादिति दास्या संयच्छते कामुक इत्यत्र तृतीया अशिष्ट वेदनिषिकर्ता, व्यवहार इति निमित्तसप्तमौ तथा च वेदनिषिद्यव्यवहारप्रयोजक श्चे हाणोऽर्थस्तदा चतुर्थ्यर्थे तृतीया भवति श्रत एव दाणश्च सा चेच्चतुर्थ्यथे" इत्यनुशासनेन सम्पूर्व कांदा आत्मनेपदं भवति यदि चतुर्थ्यर्थकथा तृतीयया योगो भवतीत्यर्थकेनात्मनेपदं साधयता संप्रदानत्वार्थिका तृतीयाऽपि साध्यते । अत्र वेदनिषिव्यवहारप्रयोजकत्वं वेदनिषिद्दत्वं वा
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तृतीयाविभक्तिविचारः ।
पापानुगुणत्वं न धातोर्न वा तृतीयाया अर्थ इति न शाब्दबुद्धिविषयः किं तु शाब्दानन्तरं मानान्तरगम्यं दा स्तु दानमर्थः तत्खरूपसत्पापानुगुणमिहापेचितमचैवात्मनेपदं साधु तृतीयायाः संप्रदानत्वमर्थः दानसंप्रदानत्वयोः स्वरूपं चतुर्थीविवरणे वच्यते एवं दासीसंप्रदानकदानकर्ता कामुक इति शाब्दबोधः पापनिनुगुणदानेतु भार्यायै संयच्छतीति चतुर्थोपरस्मैपदयोरेव साधुत्वमिति । फलोपहितार्थक धातुयोगे कालाध्यशब्दात्तृतीयेति ज्ञापयितुम् । “अपवर्गे तृतीये "त्यनुशासनम् । अपवर्गे फलप्राप्तौ सत्यां कालाध्वशब्दाभ्यामत्यन्तसंयोगे ऽर्थे -- तया भवतीत्यर्थक अपवर्गः फलं यदिच्छा प्रयोज्याचारविषयः क्रिया तत्फलं प्राप्तिस्तदुपधानं तथा च यत्र फलोपहितो धात्वर्थस्तवात्यन्तसंयोगार्थिका तृतौया अत्य न्तसंयोगः कालिकं दैशिकं वा व्यापकत्वं द्वितीया विवरणोक्तं स्मर्तव्यम् । एवमन्हा क्रोशेन वाऽनुवाको ऽधीत इत्यत्राध्ययनमुच्चारणमनुसंधानं वा धात्वर्थः दृढसंस्कारोपहितमध्ययनमिह धातुनोपस्थाप्यते तत्र धा त्वर्थे ततौयार्थोऽत्यन्तसंयोगो ऽन्वेति तथा चाहयपकस्य क्रोशव्यापकस्य वा दृढसंस्कारोपहिताध्ययनस्य कर्मानुवाक इति शाब्दबोधः । दैशिकव्यापकत्वं कर्तघटितपरम्परासंसर्गावच्छिन्नमिह बोध्यमिति । यत्र फलोपहिता न क्रिया तच मासमधीतोऽपि नाम्यस्तो ऽनुवाक इति द्वितीयैव प्रमाणम् । अत्र फलानुपहितमेवाध्ययनादिकं नात्वर्थ: अत्यन्तसंयोगमात्रं तृतौयार्थः अपवर्गस्तु व्यञ्जनागम्यः दिवसेन भवानयुद्धे -
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विभक्त्यर्थनिर्णये । त्यत्र दिवसाभिव्यापक भवत्कत कमतौतयुद्धमिति प्रथमबोध: विजयफलकं तथाविधयुद्धमिति वैयचनिकोबोध इत्यालङ्कारिका: । तन्न सुन्दरं तव शत्रुविममयुद्ध न तु दिवसेनेत्यवान्वयवोधानुपपत्तेः फलानुपहितक्रियामात्वस्य धात्वर्थत्वे युद्धे दिवसादिव्यापकत्वशवकर्तृकत्वयोरवगमेन तदेकतरस्यापि निषेधप्रतीतेरसम्मवात् तस्माल्कालादिशब्दोत्तरतृतीयाः समभिव्याहार फलोपहितक्रियायां धातुाक्षणिक इति न तु दिवसेनेत्यत्र विजयफल कयुद्धं धात्वर्थः तथा च विजयफलकदिवसाभिव्यापकयुवे शत्रुकत कत्वाभावस्य शत्रौ तथाविधयुद्धकत त्वाभोवस्य वा प्रतीतिसम्भवान्निषेधप्रतीत्युपपतिः दिवसोभिव्यापकयुद्धे शत्रकत कत्वप्रतीते: शत्रौ तथाविधयुद्धकतत्वप्रतोते वा विरोधाभावात् घटवान् नौलघटाभाववानिति वदिति पदवाक्यरत्नाकर गुरुचरणाः । व इति कारकतृतीयार्थनिर्णयः ।
नामार्थान्वयिनस्तुतौयार्था अकारकतया संजायन्ते तत्र नानार्थिकां तृतीयां ज्ञापयति । "प्रकृत्यादिग्य उपसंख्यानमिति वोर्तिकं प्रकृत्या चावित्यत्र सुखजनकस्य साक्षात्कारस्य ज्ञानसामान्यस्थ वा विषयेणा धर्मेण विशिष्टश्चारुपदार्थ: चारुपोथा अभिरामहृद्यसुन्दरमञ्जलादयः । मनसो ऽभिराम इत्यत्र षष्यर्थो जन्यत्वंतथाविधे साक्षात्कार जानसामान्ये वाऽन्वेति मनोऽभिराम इत्यत्राभिरामशब्दस्य सुखजनकमानसविषयधर्मविशिष्टे लक्षणा मनःपदं तात्पर्यग्राहकम् । प्रतिपदार्थस्तु स्वाश्रयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकधर्म
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तृतीयाविभक्तिविचारः ।
नसाधारणो धर्मः भवति च सतो जातिः प्रकृतिरियादी जात्यादिस्तथा असाधारण्यविशेषणात् घटस्य
जातिर्वा प्रकृतिरिति न प्रयोगः प्रयोगस्तु कम्बुप्रवादिमत्वं प्रकृतिरिति । जलस्य शैत्यं पृथिव्या गन्धतेजस औष्ण्यं प्रकृतिरित्यादौ शैत्यगन्धण्ण्यानां संग्रहाय स्थलकालावच्छिन्नत्वं स्वाश्रयनिष्ठात्यन्ताभावे विशेषणं देयमिति । यदि च संयोगो द्रव्यस्य मत्सरः खलस्य चैतन्यमात्मन: प्रकृतिरित्यादिप्रयोगस्तदा देशानवच्छिन्न विशेषणतया स्वाश्रये स्थलकालावच्छेदेन वर्तमानस्यात्यन्ताभावस्य प्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवानसाधारणो धर्मः प्रकृतिरिति द्रव्ये वृचादौ मूलाद्यवच्छेदेन संयोगस्य खले मत्सरस्य आत्मनि ज्ञानस्य घटाद्यवच्छेदेन स्थूलकालावच्छेदेन वर्तमानोऽप्यत्यन्ताभावो न देशानवच्छिन्नविशेषणतयाऽस्तीति नासंग्रहः । वस्तुतस्तु भूयः कालिकस्वाश्रयनिरूप्यसत्तावांस्तादृशो धर्मः प्रकृतिस्तावतैव सर्वसामञ्जस्यात् यदि च पृथिवत्रा गन्धप्रागभावो रक्तप्रागभावो वा गन्धनाशो रक्तनाशी वा प्रकतिरिति न प्रयोगस्तदा स्वसंवन्धिनि प्रतियोगिजातौयासमानकालिकस्य विद्यमानस्य नाशस्य प्रागभावस्य चाप्रतियोगी तादृशो धर्मः प्रकृतिरिति तथाविधनाथप्रागभावप्रतियोगिनी प्रागभावनाशौ न तथासं योगमसरज्ञानानां नाशप्रागभावे स्वसंवन्धिनि विद्यमानौ न प्रतियोगिजा तौयासमानकालिकाविति न तेषामसंग्रहः । यद्दा स्वसंबन्धित विच्छेदकसमनियतो धर्मः प्रकृतिः समनियमघटकक्ग्रापकत्वद्दये प्रतियोगिवैयधिक
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
२०९ रण्यं निवेशनौयं तच्च प्रतियोगिकालावच्छेदेन प्रतियोग्यधिकरणे वर्तमानेभ्योऽन्यत्वं तेन द्रव्यस्य संयोगः संयोगवतो व्यत्वं प्रकृतिरित्यपपद्यते प्रतियोगिकालावच्छिन्नत्वस्य निवेशात् प्रागभावनाशयोन प्रकृतित्वंप्रागभावनाशयोरत्यन्ताभावस्तत्कालावच्छेदेन तदधिकरणे न वर्तमान इति तयोन संबन्धितावच्छेदकत्वव्यापकत्वं चित्ररूपाद्यनभ्युपगमादेशिकाव्याप्यत्तेर्गन्धादेरत्यन्ताभावस्य प्रतियोगिकालेऽपि सत्वान्न व्यापकत्वहानिरिति चित्राभ्युपगमे तु वस्तुत: कल्पोऽनुसरणीय इति प्रकृतिपदोत्तरततौयायास्तादात्म्यमर्थस्तच्चापरपदार्थताबच्छेदकान्वयितावच्छेदके वान्वेति इत्यं च प्रकृत्यभिबचारुत्ववोनिति वाक्यार्थबोध: । एवं नामा सुतीच्याचरितेन दान्त इत्यत्रापि तृतीयायास्तादात्म्यमर्थ : सुतौक्ष्णपदस्य सुतीक्ष्णपदप्रतिपाद्ये लक्षणा नाम वाचकचरितमाचारस्य प्रयत्नस्य विषयः दम इन्द्रियनिग्रहादिः तथा च नामाभिन्नसुतीक्ष्णपदप्रतिपाद्यः चरिताभिन्नदमशौल इत्यन्वयबोधः सुरथो नाम राजाऽभूदित्यादौ नामेति तादात्म्यार्थकलुप्ततृतीयान्तं सम्भावनार्थकं वाऽव्ययं गोत्रेण गार्ग्य इत्यादी तृतीयायास्तादात्यमर्थ: गोत्रशब्दार्थस्तु वंशप्रवर्तक पुरुषो ब्रह्मऋषिः वंशपदार्थ स्तु प्रवर्तकस्याप्रवर्तकस्य वा पुरुषस्योत्तरकालिक: वारम्भकशुक्लपरमाणुभिः परम्परयाऽरस्यमाणः उत्तरकालिकत्वनिवेशात्यराशरस्य वंशो वसिष्ठ इति न प्रयोगः किं तु वसिष्ठस्य पराशर इति प्रवर्तकशब्दार्थस्तु दर्शितवंशत्वखरूपशक्यसंबन्धेन खसंज्ञाशब्दस्य नि
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तृतीयाविभक्तिविचारः। रुढोपचारकः तथा निरूढोपचारका यथा गौतमा गर्गा: शाण्डिल्या इत्यादी गौतमादयः पुरुषाः ववंशे स्वसंजोपचारकाः ब्रह्मऋषिशब्दार्थस्तु ऋषिस्वरूपो ब्राह्मणाः एवं वंशमात्रार्थकत्वे तु चैत्रमैत्रगोत्री एते इति प्रयोगस्तहारणार्थमुपात्तेऽपि प्रवर्तकत्वे विशेषणे एते रघवो यदवः कुरवो रघुयदुकुरुगोत्रा एते इति प्रयोगवारणाय ब्रह्मर्षित्वं विशेषणं न च दर्शितप्रयोगवारणाय ब्राह्मणत्वमेव विशेषणमस्तु किषित्वनिवेशेनेनि वाच्यं दर्शितोपचारकत्वेऽपि न ब्राह्मणत्वमा तन्वं तथाति प्रभाकराः कुमारिला उदयना एत इति प्रयोगप्रसङ्गः कि तु ऋषित्वं तदर्थमेवात्न तत्प्रदर्शनं वस्तुतो गोत्रलक्षणे न तन्निवेश इति पत्न्यां पतिसागोच्यव्यपदेशो गौण - धर्मशास्त्रातिदेशात् पिटसागोच्यव्यपदेशनित्तिरपि ततएव अत एव कन्यादानवाक्यं पिटगोवघटितमेव गायमित्यत्र तद्धितार्थोऽपत्यं तच्च वंश एव एवं टतीयार्था. भेदस्य गर्गपदार्थेन्वयः तथा सति गोत्राभिन्नगर्गापत्यमिति शाब्दबोधः । धान्येन धनीत्यादौ धनपदार्थे तोयार्थाभेदान्वयः जास्या ब्राह्मण इत्यत्र जात्यभेदी ब्राहागणेऽन्वीयमानः सविशेषण होतिन्यायेन ब्राह्मणत्वमादाय पर्यवस्यति न च हतीयार्थोऽभेदः परार्थैकदेश एवान्वेतौति नियम इति वाच्यम् । ईदृशनियम मानाभावात् यत्व पदार्थ सविशेषणे होतिन्यायेनापि प्रथमटतीयार्थीभेदो नान्वेतुमर्हति तचैव पदार्थस्यान्वयिनोऽन्वयिताबच्छेदकस्य वैकदेशेऽन्वेति यत्र तु पदार्थेऽन्वतुमर्हति तत्र पदार्थ एवान्वेति यथा पृथिव्यादौनां नवानां द्रव्यत्वेन
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
२११ गुणवत्वेन वा साधर्म्यमित्यत्न द्रव्यत्वादाभेदस्ततौयान्तार्थः माधर्म्यशब्दार्थे समानधर्मे ऽन्वेति यथा वा वाजपेयेन यजे. ते त्यादौ वाजपेयाचभेदस्ततौयान्ताऽर्थो धात्वर्थयागादावन्वति एवमर्घादिकया सपर्यथा पर्यपूपुजदित्यादौ विशेषणान्तरविशेषितसपर्यादितादात्म्यं धात्वर्थ शुद्धसपर्यादीतीया वोधयति अवशेषितस्यैकधर्मावच्छिन्नस्य तादात्यसंसर्गेगान्वयो निराकाङ्गत्ववाधितो न तु तादात्यविशेषण को नितरां विशेषणान्तरविशषितस्येति ननु धात्वविशेषणे तृतीयाऽपि हितीयेव माधुत्वार्था ततौयान्ता
स्य द्वितीयान्तार्थस्येव तादात्म्यसंसर्गेणैव धात्वर्थेऽन्वयोन तु तादात्म्यविशेषेण इति चेत्तहि कथं सपर्यया पर्यपृपुज दित्यवान्वयोपपत्तिः न च विशेषणान्तरविशेषितस्यैकधविच्छिन्नस्यापि तादाम्येनान्धयो भवत्येव यथा प्रमाऽनभव इत्यत्र प्रमा शब्दार्थस्य यथार्थानुभवण्यानुभवे यथा वा भूसवेरा देशो राजन्यानित्यत्न सर्वसम्यवझूमे वि सुराजदेशस्य देश तादात्म्यान्वयस्तथा प्रकृतेऽपि अर्घ्यदानादिमपर्यायाः सपर्यायां वाजयेपेन यजेतेत्यादौ वाजपयादेर्धात्वर्थयागादौ तादात्यान्वय इति वाच्यं धाखविशेषणे द्वितीयाया एव साधुत्वज्ञापकानुशासनस्य सत्वेन टतौयायास्तथानुशासनविरहात् प्रकतानुशा. सनस्य तथात्वोपगमे प्रकत्या चार्वित्यादेग्नन्वयापत्तेः नामार्थयोस्तादात्म्यसंसर्गेणान्वये समानविभक्तिकत्वस्य तन्त्रत्वात् तृतीयायास्तादाल्यार्थकत्वे तु प्रकृते तादात्म्यप्रकारकान्वयबोधसम्भवात् तथाऽन्वयवोधे समानविभक्तिकत्वस्थातन्त्रत्वात् अत एव द्रव्यत्वेन सा
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ર૬૨ तृतीयाविभक्तिविचारः । धर्म्यमित्यत्र द्रव्यत्वस्य समानधर्मे ट्रेणैः षोडशभिः खारीत्यत्र षोडशानां द्रोणानां खारोपदवाच्ये तादात्म्यप्रकारकोऽन्वयवोधः । नन्वेवं कु टिलेन दण्ड इति कथं न प्रयोग इति चेत्कुटिलादिशब्दानां प्रकृत्यादिगणपठितशब्दापर्यायत्वादेवापयोग इति । एवमादिना पर्यपूपुजदित्येतावतैव सामञ्जस्ये सपर्ययेत्यादिकमपुष्टार्थं न तु निराकाङ्क्षमिति । समवायेन लौहित्यवज्जपापुष्पं समवायिर्मयोगेन स्फटिकशक लमित्यत्र तोयार्थस्तादात्म्यं मतुवर्थतावच्छेदके संबन्धेऽन्वेति तेजसा सूर्यो दानेन कल्पतरूरयमित्यादौ सूर्यादिपदस्य सूर्यादिसदृशे लक्षणा सूर्यसादृश्ये तेजसः कल्पतरुमादृश्य दानस्य तादात्म्यं तौयार्थोऽन्वेति अथ वा समवायेन नौल: पटः कालिकन स्पन्द इत्यादी तौयान्तसमभिव्याहारः समवायकालिकादिसंसर्गकनौलविशिष्टशाब्दधियं जनयति यथा तथा पक तेऽपि तेजसत्यादि तृतीयान्तसमभिव्याहारस्तेजोदानादिस्वरूपतादात्म्यसंसर्गकसूर्यकल्पपादपादिविशिष्टशाब्द जनयति अतः संसर्गानुवादिका तृतीय ति अबच्छेदकत्वमपि क चित्ततौयार्थ: यथा वहत्वेन बन्हेजनकत्वं जन्यत्वं पतियो गित्वं पुकारत्वं विशष्यत्वं वेत्यादौ टतीयायो अव च्छेदकत्वमर्थः तञ्चाधेयतासंबन्धेन प्रातिपदिकार्थेनान्वितं निरूपकत्वसंसर्गेण जनकत्वादावन्वेति । समवायेन ध्वंसो नास्तीत्यादीववच्छेदकतानिरूपकत्वखरूपमवच्छिन्नत्वं तौयार्थस्तच्चे नञऽत्यन्ताभावे स्वाश्रयप्रतियोगिताकत्वसंवन्धेनान्वेति व्युत्पत्तिवैचित्र्येण तृती
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विभक्त्यर्थनिर्णये । थार्थस्य संसर्गीभूता प्रतियोगितैव प्रतियोगिनो ध्वंसपदार्थस्य नजथें संसर्गोभवति अथ वा अवच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वं तृतीयार्थ: तच्च स्वरूपेण संबन्धेन नञर्थेइन्वेति व्युत्पत्तिवैचिल्यण प्रतियोगिनोऽपि संसर्गीभवतौति वदन्ति । ततौयार्थोऽवच्छिन्नत्वं संसर्गीभूतप्रतियोगिताविशेषणतया भासत इति स्वतन्त्राः । वस्तुतस्तु समवायेनेत्यादिततौयान्तसमभिव्याहारः समवायाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसंसर्गेण प्रतियोगिनो ध्वंसादिशब्दार्थस्य नार्थान्वयवोधे हेतुरित्येव रमणीयमिति । इयमेव गति: पटत्वेन घटो नास्ति शशीयत्वेन शृङ्गनास्तोत्यादावपि वोध्या । क चिनिरूपकत्वमपि तृतीयाथः यथा धूमस्य धूमत्वेन वतियाप्तिरित्यत्र निरूपकत्वंततौयार्थः तच्चाधेयतया प्रकृत्यर्थविशेषितं वह्निव्याप्तावन्वेति निरूपकत्वं तु व्यापकत्वलक्षणं घटकत्वमिति संप्रदाय: । अतिरिक्तमित्यन्ये । एवमङ्गुरेणानेकान्त इत्यत्र वहावयःपिण्डेन धूमव्यभिचार इत्यत्र च घटितत्वं व्याप्यत्वलक्षणमतिरिक्तं वा निरूपकत्वं तृतीयार्थः तच्चानेकान्तपदार्थे व्यभिचार धूमव्यभिचारे च प्रकृत्यर्थविशेषितमन्वति । क चिशिकसंसर्गावच्छिन्नमाधेयत्वं तृतीयार्थः यथा समेनैति विषमेयोतीत्यादी यदीयसकलोवयवानां प्रत्येकं स्वसंयुक्त संयोगादिपरम्पराणामूदिगवच्छिन्नानां तुल्यत्वं स भूभागः समो देशस्तदितरो- . विषमस्तथा च कर्ट घटितदैशिकपरम्परासंसर्गावच्छिन्नमाधेयत्व तृतीयार्थः तच्च प्रकृत्यर्थेन समेन विषमेण च देशन विशेषितं धात्वर्थगमनेन्वति न चात्र समादि
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तृतीयाविभक्तिविचारः ।
देशव्यापारस्य जन्यत्व ेन संसर्गेण धात्वर्थगमनेऽन्वयात्करणे तृतीयेति वाच्यं करणत्वविवक्षायामिष्टत्वात् श्रवित्रक्षणे तु आधारस्याधिकरणसंज्ञया तत्कार्येण वा करणसंज्ञायास्तत्कार्यस्य वा वाधात् करणाधारकर्मणामिति भाष्यात् । न चैवं तृतीयार्थाधिकरणत्वस्य धावर्थेऽन्वयोपगमात् कारकत्वापत्तिरिति वाच्यं सर्वत्र धात्वर्थान्वयविरहात् नामार्थे नाप्यन्वयात् । अत एव शाखया कपिसंयोगी वृक्ष इत्यत्र श्वेतः खुरविषाणाभ्यामित्यत्र च तृतीयार्थाधेयत्वस्य शाखाविशेषितस्य कपिसंयोगे खुरविषाणविशेषितस्य श्वेतरूपे सविशेषणे हौति न्यायेनान्वयात् । रजतत्वेन पुरोवर्त्तिनं जानातौच्छति करोति द्वेष्टित्यादौ प्रकारत्वं तृतीयार्थः तच्च धात्वफले द्वितीयार्थे वा विशेष्यत्वे निरूपकता संसर्गेणान्वेतौति वदन्ति । तव घट इति घटघटत्वसमवायान् जानातीत्यादिप्रयोगेण विशेष्यत्वस्य न धात्वर्थत्वं न वा हितौयार्थत्व' सम्भवति घट इति नियतार्थस्य धात्वर्थेज्ञानेऽभेदान्त्रयेन तादृशज्ञानविशेष्यत्वस्य घटत्वसमवाययोरसम्भवात् विषयत्वं फलतया धात्वर्थो न तुहितौयार्थो भगवान् जानातीत्यादावनुपपत्तेरित्यस्य प्रागावेदितत्वात् तथा च तृतौयार्थः प्रकारत्व रजतत्वादिप्रकृत्यर्थं विशेषितं धात्वर्थे फले विषयत्व व्यापारे ज्ञानादौ वा निरूपकत्वं न प्रतियोगित्व ेन वा संसर्गेणान्वेति रजतत्वप्रकारता निरूपित पुरोवर्तिविशेष्यताकत्वमाक्षेपेण परिशेषेण मनसा वा मानान्तरेणावगम्य. ते विशेष्यत्वस्य द्वितौयार्थं तापचेऽपि तत्र तृतीयार्थप्र
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विभक्त्यर्थनिर्णये। कारत्वस्य निरूपकतासंसर्गेणान्वयो न सम्भवति सुबर्थयोः परस्परान्दयस्थाव्युत्पन्नत्वात् तृतीयार्थप्रकारत्वस्य धात्वर्थे ज्ञानादावेवान्वयात् प्रकारतानिरूपितविशेध्यताकत्वस्य मानान्तरादेवलाभ इति । एवं लक्षणस्वरूपप्रामाण्यादिभिरनुमाने निरूपणौये इत्यादौ शाब्दबोधस्तदनुकूलव्यापारश्च निरूपेरथः कर्मकृतस्तु विश - प्यो विषयो वाऽर्थः कर्मप्रत्ययस्थले व्यापारस्य विशेषणतया कर्मप्रत्ययार्थोऽन्वयः प्रकृते कर्मकदर्थंक देशऽपि विशेष्यत्वे विषयत्व वा शाब्दबोधस्य फलस्य विशेषणतयान्वयो व्युत्पत्तिवैविल्यात् तथा चान तृतीयार्थप्रकारत्वस्य लक्षणादिविश षितस्य शाब्दबोधेन्वयः प्रकारतानिरूपितविशेष्यताकत्व लाभ: पूर्ववदेव कृदथै कदेश विशष्यत्व विषयत्वे वा तृतीयार्थ प्रकारत्वस्य निरूपकत्वेन संसर्गेणान्वय इति वदन्ति । तत्र कदथैकदेश धात्वतिरिक्तार्थ स्यान्वयो न व्युत्पत्तिसिद्ध इत्यादिक चिन्तनीयम् । के चित्त फलविशिष्टं कर्म कदर्थः फलस्य देधा शाब्दबोधविषयत्व तृतीयार्थ प्रकारत्वस्य कर्मकदक देश फलेऽन्वयस्तथा चात्र शाब्दबोधानुकूलव्यापारप्रयोज्यस्य लक्षणादिप्रकारकशाब्दबोधस्य विशेष्येऽनुमान इति शान्दवोध इति वदन्ति । तद पि चिन्त्य फलस्य वेधा शाब्दबोधविषयत्वस्याप्रामाणिकत्वात् व्युत्पत्ति चिल्य णैव व्यापारविशेषणकफलविशेष्यकशाब्दबोधसम्भवेनान्वयोपपत्तिसम्भवात् फलादेः कर्मप्रत्ययार्थत्वासम्भवात् कृदथैकदेश धात्वतिरिक्तार्थान्वयस्थाव्युत्पन्नत्वाच्च । परिच्छिन्नत्वमपि क चित्तती
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तृतीयाविभक्तिविचारः। यार्थ : यथा विद्रोणेन धान्यं क्रोणातीत्यादौ द्रोणो गहत्वत्वावान्तरजातिमान् परिमाणविशेषः विद्रोण इति पात्रादित्वान्न स्त्रीत्व विट्रोणत्वमपि ट्रोणत्वावान्तरजातिविश षो द्रोगाहित्व वा परिच्छिन्नत्व ततौथार्थः क्रयकर्मत्व धात्वर्थफले ऽन्वति परिच्छिन्नत्वं तु विट्रोणस्य स्वसमवायिन एकट्रव्यस्योभयद्रव्यस्य बाऽऽरम्भकपरमाणुत्वममनियतसंख्यासजातीयसंख्याध्यापकत्व क्रयजनितस्वत्वस्य सकलेष धान्यतदारंम्भकेष्वेकस्याभ्युपगमात् परमाणुत्तित्वसम्भव न स्वरूपेण समवायेन वा संबन्धेन तादृशसंख्यां प्रति साक्षादेव व्यापकत्व यदि च स्वत्वस्य धान्यत्तित्वमुपेयते न तु तदारम्भकत्तित्वं तदा स्वाश्रयारम्भजननपरम्परासंवन्धेन तावत्परमाणु विश्रान्तेन व्यापकत्व बोध्यम् । एवं विद्रोण समवायिट्रव्यारम्भकपरमाणुसमनियतसंख्यासजातीयसंख्याव्यापकस्य स्वत्वस्थानुकूला क्रयक्रियेत्यन्वयवोध इति गरुचरणा: । विद्रोणो गुरुत्वान्तरं समवायित्वं तृतीयार्थीधान्यपदार्थे धान्यराशावन्वति धान्यराशरतिरिकत्वात् एको महान् धान्यराशिरिति प्रतीतेरन्यथाऽवयविमा. नासिद्धिप्रसङ्गादित्येकदेशिनः । तच्चिन्त्यं यवधान्योभयघटितराशौ यवत्वधान्यत्वयोः स्वीकारे सांकर्यापत्तेः न च तत्व यवधान्योभयत्वजातिरतिरिव स्वीक्रियते न तु धान्यत्व यवत्ववति न सांकार्यमिति वाच्यं यवाद्यर्थि नामप्रतिप्रसङ्गात् न च रुधिरास्थिमांसादौनांशरीरावयवत्ववत् यवादौनामपि तदवयवत्वाद्भवति प्रवृत्यपपत्तिरिति वाच्यं तथाप्यनन्तानां यवधान्योभयत्वा
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विभत्त्यर्थनिर्णये। दिजातीनां राशितव्यागभावध्वंसानां च कल्पनापत्तेरनतिरिक्तत्वाभ्युपगमेन प्रत्याद्यपपत्तेरेको महानिति प्रतीतिरौपाधिकोत्यन्यत्र विस्तरः । के चित्तु एकजातौयमवनमनं प्रति बिद्रोणखरूपगुरुत्वविशेषस्य तदानयारम्भकपरमाणुसमसंख्यकपरमाणुगुरुत्वानां च वैकल्पिको कारणता तथा च तावत्परमाणुगुरुत् विद्रोणपदार्थः तृतीयार्थो वैशिष्ट्य सामानाधिकरण्यं वा वैशिट्यं तु स्वाश्रयारभ्यत्वघटितरपरम्पराखरूपं धान्येषु सामानाधिकरण्यं तु दर्शितपरम्परासंबन्धावच्छिन्नं सत्वेइन्वेतौति वदन्ति । तदपि न विचारसहम् । परमाणुगुरुत्वानामेवावनमनं प्रति हेतुत्वात् अवयविगुरुत्वस्य हेतुत्वे पलमितसर्षपप्रयुक्तावनमनतः तथाविधलोहपिण्डप्रयुक्तावनमनस्य प्रकर्ष प्रसङ्गात् पतनप्रकर्षप्रयोजकत्वेनावयविगुरुत्वस्याभ्युपगमात् कारणोत्कर्षस्य कार्योत्कर्षप्रयोजकत्वादित्यन्यत्र विस्तरः । वस्तुतस्तु । ।
जालान्तरगते भानौ सूक्ष्मं यदृश्यते रजः । का प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते॥
इत्यादिना चसरेवादिघटितं माषसुवर्णनिष्कादिमानं मनुनीतं निष्कादिघटितं च द्रोणादिमानमेवमाढकमितद्रव्यचतुष्टयस्यारम्भकपरमाणुसमसंख्यकपरमाणुगुरुत्वानि द्रोणस्तद्विगुणगुरुत्वानि हिद्रोणस्तेषां गुरुखाना खाश्रयपरमाणुभि: परम्परयाऽऽरयमाणत्वं संबयो धान्यादौ न च तावत्संख्यका: परमाणवः परमाणुत्तिस्तादृशौ संख्या वा द्रोणपदार्थोऽस्तु धान्यादावुभयस्य परम्परासंबन्धो भवतीति वाच्यं तावत्परमाणुनां पर
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तृतीयाविभक्तिविचारः ।
माणुसंख्यायाश्च परम्परा संबन्धस्य तैजसावयविन्यपि सभवात् तत्र द्रोणादिव्यवहारप्रसङ्गात् न च धान्यादौ तुलितत्वस्यैवात्र व्यञ्जकस्याभावान्न द्रोणादिव्यवहार इति वाच्यम् । क्षेत्रादिपूरणस्य धान्यादाविवात्रापि व्यझुकस्य सम्भवात् तस्मात्तथाविधगुरुत्वानि द्रोणपदस्यार्थः यद्दशाद् द्रोणो ब्रौहि: द्रोणः पाषाण इत्युभयप्रतौतेरेकविषयत्वं तैर्गुरुत्वैर्दशितपरम्परया विशिष्टो निरूढलक्षणः यद्दशात् द्रोगा माषं भुङ्क्ते भोम इति प्रयोगः न च तैर्गुरुत्वैः संसृष्टषु धान्येषु विशकलितेष्वपि द्रोणादिव्यवहारप्रसङ्ग इति वाच्यम् । व्यञ्जकाभावादप्रससङ्गाद् व्यञ्जकसत्वे त्विष्टत्वाद् श्रत एव द्रोणः काश्यां हिद्रोगाः प्रयागेऽयोध्यायां चेति पञ्चद्रोणो मम ब्रौहिरिति प्रतीतिव्यवहारौ एवं तृतीयार्थोऽन्यव्यवच्छेदः श्रन्यस्य विद्रोणव्याप्य गुरुत्वत्वावच्छिन्नप्रतियोगिता संसर्गेण व्यवच्छेदेऽत्यन्तभावे ऽन्वयः व्यवच्छेदस्य धान्येऽन्वयः एवकारस्थल इव व्यवच्छेदान्वयिनि धान्ये विद्रोणस्याप्यन्वयः तत्रान्यव्यवच्छेद इव संबन्धोऽपि तृतौयार्थः विद्रो
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विशेषितस्य संबन्धस्य धान्येऽन्वयात् हिद्रोणस्थान्वयोवोष्य इति श्रतः पञ्चद्रोणेन क्रौयमाणे धान्ये हिद्रोणेन धान्यं क्रोणातीति न प्रयोगः न वा द्रोणेन क्रीयमाणे हिटोन क्रौणातौति प्रयोगः क्रौणातेस्तु फलतया प्रतिग्रहः व्यापारतया दानं चार्थः विक्रौणातेरपि फलव्यापारयोर्वैपरीत्येन तदुभयमर्थः प्रतिग्रहः सत्वेच्छा दानं स्वत्वस्वत्वनाशोभयेच्छा फलस्य स्वत्वेच्छायाः प्रयोज्यतया दाने फलस्य दानस्य प्रयोजकतया संबन्धेन
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
२१९ स्वत्वेच्छायामन्वयः अत एव भाविधान्यादिग्रहणार्थधनं प्रयुञ्जाने विद्रोणेन विट्रोणेन वा धान्य क्रोणात्ययमिति प्रयोगः भाविनि स्वत्वानुपगमेऽपि स्वत्वेच्छायाः सम्भवात् एवं मूल्यस्याग्रिमकाललभ्यत्वव्यवस्थायां निष्कशतेनावं क्रौणीत इति प्रयोगः क्रये धान्यादेः कर्मण: स्त्रत्वप्रकारतानिरूपितविशेष्यतया स्वत्वविषयतानिरूपिताधारत्वसंसर्गावच्छिन्नविषयतया वा संबन्धेनावच्छिन्नाधेयत्वे द्वितीयार्थेऽन्वयः विक्रये तु स्वत्वनाशीयविषयताघटितान्यतरमंबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं हितोयार्थः शतेन क्रौणातीत्यत्व खत्वं व्यापारः करणटतीयार्थ: खत्वस्य जन्यत्वेन संवन्धेन स्वत्वनाशेच्छायां दानेऽन्वयः खत्वे सत्येव त्यागो भवति न हि परकीये त्याग इति स्वत्वजन्यत्वं दाने स्फुटमिति शतेन विक्रौणीतइत्यत्र स्वत्वनाशस्टतौयार्थस्तस्य जन्यतया स्वत्वेच्छायामन्वयः स्वत्वोपहितच्छायां स्वत्वनाशस्य हेतुत्वात्परकोयधने तादृशेच्छाविरहादिति स्वत्वनौश: स्वत्वेच्छाजनक इति एवं हिट्रोणेन धान्यं स्वर्ण माषण क्रोणात्ययमित्यत्र विद्रोणान्यहिद्रोणव्याप्य गुरुत्वाभाववद्दिद्रोणधान्यत्तिस्वत्वेच्छाप्रयोज्यायाः सुवर्णमाषस्वत्वजन्याया: स्वत्वस्वत्वनाशोभयविषयकेच्छाया आश्रयोऽयमिति शाब्दबोधः। अकतर्यस्य स्वत्वनाशः ततः पञ्चमौ ध्रुवमपाय अति सूबेनेति वक्ष्यते । वैपणिकान्मीतिक क्रोणातीत्यत्र स्वत्वनाशः पञ्चम्यर्थस्तस्य जनकतया फले स्वत्वेच्छायामन्वयः फलेऽप्यपादानत्वान्वय इत्यादिकं वक्ष्यते । एवं विक्रयकर्मणः स्वामित्वं यत्र तत्र सप्तमी
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तृतीयाविभक्तिविचारः । मौक्तिकं विक्रीणोते राति नागरिके वेत्यादौ "सप्तम्यधिकरणे चे"ति सूत्रेणेत्यादिकं वक्ष्यते द्रोणपरिच्छित्तिमुक्तासंख्यापरिच्छित्ति: काशिकायत्तावुदाहृता पञ्चकेन पशन् क्रोणाति साहस्रेण पशुन् क्रोणातीत्यादि पञ्चकंपञ्चत्वसंख्या साहसं सहस्रत्वसंख्या अवापि अन्यव्यवछेदः संवन्धश्च दृतीयार्थः पच्चत्वस्य सहस्रत्वस्य वा व्याप्यसंख्यात्वेनावच्छ्रिन्नया प्रतियोगितया व्यवच्छेदेनास्यान्वयः व्यवच्छेदस्य पञ्चत्वादिसंबन्धस्य च पशुष्वन्वयस्तेन षटकन विकेन वा क्रीयमाणेषु पशुषु पञ्चकेन पशून् क्रोणातीति न प्रयोग: क चिक्रयकरणं टतीयार्थः यथा विभिः पारावताः पञ्चेत्यादि अत्र व्यापारः क्रयस्तौयार्थः वापारस्य जन्यत्वेन क्रयस्य कर्मत्वेन से बन्धेन पारावतेष्वन्वयः । सहशब्दयोगापि नानार्थिकांटतीयां ज्ञापयति । “सह युक्त प्रधाने” इति सूत्र सहार्थेन युक्त हतीया भवति सहयोगेऽप्रधान प्रधानक्रियाकारके प्रधान कारकसजातीये भवतीत्यर्थक सहार्थः सामानाधिकरण्यं तच्च दैशिकेन कालिकेन दैशिककालिकोभयेन च संबन्धेन घटितत्वात् त्रिविधं वहिना सह धूमो भस्म वेत्यत्र संयोगिसंयुक्तत्वं सहार्थः टतीयायाः प्रतियोगित्वमर्थः आद्यसंयोगेऽन्वेति एवं बङ्गिप्रतियोगिताकसंयोगबत्संयुक्तो धूम इत्यन्वयबोधः । रूपेण सह रस इत्यत्व समवायिसमवेतत्वं सहाथ: तीथार्थस्य प्रतियोगित्वस्याद्यसमवायेऽन्वयः । द्रव्यत्वेन सह धूम इत्यत्र समवायिसंयुक्तत्वं सहाथः प्रतियोगित्वस्य समवायेान्वयः वहिना सह धूमसंयोग इत्यत्र संयोगि
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विभक्त्यर्थनिर्णये। समवेतत्वं सहाथः प्रतियोगित्वं संयोगेऽन्वेति । कालिकेन यथा जातोपुष्येण सह नीपपुष्पमित्यत्र कालस्वरूपण कालि कविशेषण तासंबन्धेनाधिकरणो तेन संबन्धेनाधेयत्वं सहाथ: कालिकविशेषण तयाऽन्वयिप्रतियोगित्वंद्वतीयार्थ: अथ वा काल एव सहार्थ: कालिकाधिकरणत्वस्य तौयार्थस्य काल कालस्य कालिकाधेयतासंबन्धेन नीपपुष्येऽन्वयः । दैशिककालिकोभयेन यथा पत्या सह यजमान इत्यत्र संयोगसंयुक्तत्वं कालश्चोभयंसहार्थ: प्रतियोगित्वं कालिकाधिकरणत्वं चोभयं रतोयार्थः प्रतियोगित्वस्याद्यसंयोगेन्वयः कालिकाधिकरणत्वस्य काले कालस्य कालिकाधेयतया यजमानेऽन्वयः एवं भारमनुहहत्सु सह गच्छत्सु पुत्रेषु सहैव दशभिः पुत्रैर्भार वहति गर्दभौत्यत्रापि दर्शितोभयं सहार्थः ढतौयार्थोऽपि प्रतियोगित्वकालिकाधिकरणत्वोभयमेव पूवैवदन्वयो बोध्यः । सहयोगे कोशिकायामुदाहरभाानि । यथा पुत्रेण सह स्थूल इत्यत्र स्थूलत्वे तौयार्थः तत्र पुचस्याधेयतयान्वयस्तृतौयार्थस्य स्थूलत्वस्य कालिकाधिकरणतया सहार्थे काले कालस्यधेियतया पदार्थैकदेशे स्थूलत्वेऽन्वयः एवं पुत्र स्थूलत्वसमानकालिकस्थूलत्ववान् पितेत्यन्वयबोधः पुत्रेण सह गोमान् पितेत्यत्र स्वामित्वं तृतीयायः तस्य निरूपकतासंबन्धावच्छिन्नसामानाधिकरण्ये सहाथै प्रतियोगितयान्वयः सहार्थस्य मतुबथैकदेशे गोविशेषिते स्वामित्वेऽन्वयः एवं पुत्रस्वामित्व. समानाधिकरणगोस्वामित्ववान् पितेत्यन्वयबोधः अप्रधाना श्रेष्ठे वस्तभूते प्रत्यर्थे सतीत्यर्थः तेनाचार्येण स
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तृतीयाविभक्तिविचारः। हेति न प्रमाणं प्रमाणं च शिष्येण सहाचार्यस्य गौ: अत्र तृतीयार्थः स्वत्वं सहार्थः सामानाधिकरण्यं षष्यर्थः स्वत्वं तृतीयाथैस्य सहाथै तस्य च षध्यर्थे तस्य गव्यन्वयः एवं शिष्यस्वत्वसमानाधिकरणाचार्यस्वत्ववती गौरित्यन्वयबोधः क्व चित्मबन्धमा हतीयार्थः यथा वजेगा सहेन्द्र इत्यत्र संयोगः सहार्थः प्रतियोगित्वं तृतीयार्थः एवं वजप्रतियोगिताकसंयोगवानिन्द्र इत्यन्वयबोधः गधेन सह पृथिवौत्यत्व सहार्थ: समवायः शेषं पूर्ववत् । एवं दक्षिणाभिः सहेत्यहमित्यत्व सहाथ: संबन्ध इति नापरामृष्टे यजे दक्षिणाप्रतियोगिताकोऽन्वेति यजस्थाहंपदार्थे प्रयोक्तरि भगवति तादात्म्यान्वयः दक्षिणाया यज्ञे संवन्धस्तु विहितकालिकस्वविषयकत्यागप्रयोज्यप्रतिष्ठावत्वं प्रतिष्ठा तु फलजनकत्वमिति एवं मुट्रया सह कुण्डली देवदत्त इत्यत्र टतीयार्थः संबन्धः स चाव संयोगः सहार्थः समानकालिकत्वं तच्च काल एव तस्य इन्प्रत्ययार्थैकदेशे संबन्धेन्वयः इत्थं मुद्रासंयोगसमानकालिककुण्डलसंयोगवान् देवदत्त इत्यन्वयबोधः यदि च तिर्थविशेषणधात्वर्थस्येव तद्धितार्थविशेषणतदर्थतावच्छेदकसंबन्धादेः पुत्रेण सह स्थूल: पितेत्यादौ नामार्थतावच्छेदकस्य विशेषणस्य स्थूलत्वादेः सहाथै विशेष्यतया विशषणतया वाऽन्वयोऽभ्युपेयते तदा टतीयायाः संवन्धान्वयि स्थूलत्वान्वयि चाधेयत्वमर्थः तृतीयातार्थविशेषितयोः संबन्धस्थूलत्वयोः सहार्थे विशेषणत्वमिति । ननु सहपदस्य तृतीयायाश्चार्थस्य पदार्थकदेशान्वयो न युज्यतेऽव्युत्पत्तेः किं तु पुत्रेण सह स्थल:
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विभत्त्यर्थनिर्णये । पिता, कन्यया सह रमणीयो वर इत्यत्र पदार्थयोः स्टालरमणीययोस्तादात्म्येन पितृवरान्वयिनोः महार्थे विशेणतया विशेष्यतया वाऽन्वयः विशेषणत्वापन्नयोस्तयोस्ततौयार्थोऽभेदोऽन्वेति एवं पुत्राभिन्नस्थलसमानकालिकस्थल: पितेति कन्याभिन्नरमणीयसमानकालिकरमणोयो वर इति चान्वयबोधो भवति स्थूलयो रमणीययोश्च समानकालिकत्वे भासमाने स्थूलत्बयो रमणीयत्वयोश्च समान कालिकत्वं भासते विशिष्टान्वयवोधसामग्रीबलादिति चेत् एवमन्वयोपगमेऽपि नाभिमत निर्वाह: सहार्थविशेषणतावच्छेदकयोः स्थूलत्वरमणीयत्वयोः “समानकालिकत्वभानायोगात् विशिष्टान्वयस्थले हि यधर्मविशिष्ट विशेषणस्यान्वयस्तत्र विशेष्येऽवाधेऽबाधेपि वा सति तद्धर्मविशेषणस्यान्वयो भवति यथा शिखौ विनष्ट इत्यत्र विनष्टतादात्म्यं शिखायां यथा वा भूवादिर्धातुरित्यत्र तादात्म्यं भुव्यप्यन्वेति न तु विशेषणतावच्छेदके विशेष्यस्य क्वाप्यन्वयः व्युत्पत्तिविरहात् न च मास्तु विशेषणतावच्छेदके स्थलत्वे समानकालिकत्वान्वय इति वाच्यम् । तथा सति कालान्तरेण स्थूलेऽपि पुत्र तथाविधप्रयोगप्रसङ्गात् यदपि सहार्थततौयार्थयोरेकदेशान्वयो न व्युत्पन्न इति । तदपि न सुन्दरम् । एकदेशान्वयस्यावश्यकत्वात् तथा हि पुत्रेण सह गोमान् पितेत्यत्र पुत्राभिन्नगोमतः समानकालिकत्वं गोमति भासते चेत्तहि पुत्रस्य गवान्तरस्वामित्वेऽपि तथा प्रयोगप्रसङ्गः दर्शितान्वयस्य तावतापि सम्भवात् तस्मात्सहाथविशेषणत्वापन्ने मतुबर्थतावच्छेदके स्वामित्वेऽन्वयिता
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રરક
तृतीयाविभक्तिविचारः। वच्छेदके गोस्वामित्वे चैकदेशे तृतीयार्थाधेयत्वस्यान्वयः । गोस्वामित्वे एकदेशे सहार्थस्य विशेषणतयाऽन्वयः सहार्थ: निरूपकतासंबन्धघटितसामानाधिकण्यं प्रतियोगित्वसंबन्धेन स्वामित्वस्य सामानाधिकरण्ये तस्य स्वरूपण गोस्वामित्वेऽन्वयितावच्छेदके तहिशिष्टस्य तादात्म्येन पितर्यन्वयः न चान भवत्वेकदेशान्वयस्तावता सर्वत्र न तत्सम्भव: पुत्रेण सह स्थल इत्यत्र ,पुत्राभिन्नस्य स्थलत्वविशिष्टस्य समानकालिकत्वे विशेणतयाऽन्वयात् स्थूलत्वस्या यन्वयः विशेषणान्वये सत्येव विशिष्टान्वयस्य भावादित्येतावता सामञ्जस्यान्नाचैकदेशान्वयइति वाच्यं यत्र हि स्थूलत्वोपलक्षितः स्थूलपदेन प्रतिपादितस्तत्र विशिष्टान्वयबलादपि न स्थलत्वसमानकालिकत्वलाभ दूत्येकदेशान्वय आवश्यक इति । एवं शिष्यैः सह जटावन्तो सुनयः, यज्ञदत्तग्रहैः सह काकवन्तो देवदत्तमहा इत्यादावेकदेशान्वयं विना नाभिमतनिर्वाह इति एवं सह दिवसनिशाभ्यां दीर्घा: वासदण्डा इत्यत्र दीर्घत्वं कालिकं दैशिकं च बहुतरकालसंबन्धः कालिकं यहशाहीर्घमायुरिति प्रयोगः बहुतरदेशसंबन्धो दैशिक यहशाद् दीर्घः पन्या इति प्रयोगः दीर्घत्वं स्वजातीयापेक्षया बोध्य दिवसो ग्रीष्मे दीर्घः निशा हेमन्ते दीर्घा विरहिवासो बहुतरवायुमण्डलगामितया दीर्घः एवं दीर्घपदोपस्थापितयोः दीर्घत्वयोः कालिके तृतीयार्थाधयत्वस्य दैशिके विशेष्यतया वासस्यान्वयो योग्यतावलात्सहार्थ: एवं दिवसष्टत्तेर्वा बहुतरकालसंबन्धस्य समानकालिको यो बहुतरदेशसंबन्धस्तह
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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तः श्वास दगडा इत्यन्वयबोधः । श्रव दण्डस्य घटिकाया दिवस दोर्घत्वसमानकालिकं दीर्घत्वं विरुद्धमिति दण्डस्य चतुर्हस्तदेशसंबन्धवतः दिवसघटकक्षणसम संख्यकपरमाणुसंबन्धरूपं दीर्घत्वं विरुद्धमिति विरोधालङ्कारः । एकानुपूर्वीक शब्दप्रतिपाद्य योन्नियोरर्थयोरपि सहार्थे विशेषणतया विशेष्यतया चान्वयः । यथा
दोषायोग मह स्थिति स्फुटर सश्रीकायहृद्यः समं । चन्द्रेष नृपो बुधोदयगुरुप्रीतः कविः प्रीतिमान् ॥ पुत्रोऽस्यापि समं बुधेन सततं मित्रान्ति कासादनः । प्रीतः प्राप्तकराडुतोदयगुणोऽत्युच्चः श्रितः सौम्यताम् ॥ अत्र रात्रियोगेन या तेजःस्थितिस्तच स्फुटरमा या तता कायेन हृद्यत्वमेकं दोषराहित्ये नोत्सवस्थित्याच स्फुटारसा पृथिवी यचेदृशलक्ष्मीको योऽ यः शुभावहो विधिस्तेन हृद्यत्त्वमपरमेवं दलान्तरे ऽप्यर्यदयं बोध्यमिति । दर्शितयो द्यत्वयोः सहार्थे समानकालिकत्वे विशेषणविशेष्यभावेनान्वयः तत्र विशेषणे हृद्यत्वे तृतीयान्तार्थस्य चन्द्राधेयत्वस्यान्वयः विशेष्यहृद्यत्वस्य विशेषणतया नृपेऽन्वय इति पुत्रेण सहागत आगच्छति त्यादी कर्तत्वं कारकं तप्रत्ययार्थतावच्छेदकमाख्यातस्य वा शक्यं तृतौया ऽभिधन्ते धात्वर्थ आगमनं कालिकत्वे विशेषणतया विशेष्यतया चान्वेति विशेषणे धाव तृतीयाकारकस्यान्वयः विशेष्यधात्वर्थस्य हृदयेकदेशे तिङर्थे वा कर्तृत्वे विशेषणतयाऽन्वयः । एवं पुत्रकर्तृ ताकागमनसमानकालिकातौतागमनकृति मदभिन्नः तथाविधविद्यमानागमनकृतिमान्वा पितेत्यन्वयबोध:
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तृतीयाविभक्तिविचारः ।
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प्रधानेऽतीतत्वान्वितेऽतीताया विद्यमानत्वान्विते विद्यमानाया गुणक्रियायाः समानकालिकत्वं भासत इति न काऽप्यनुपपत्तिः । प्रधानक्रियाकारकसजातीयं कारकं तृतीयर्थः कत्वादिकं तत्र कर्तृत्वमुदाहृतमन्यदुदाहियते कर्मत्वं यथा हिरण्येन सह गां लभते इत्यत्र लभतैः खत्वं व्यापारश्चार्थः द्वितीयातृतीययोराधेयत्वं कमत्वमर्थः सहार्थः समानकालिकत्वमेवं हिग्गयष्टत्तिव त्वानुकूलव्यापारसमकालिकगोवृत्तिखत्वानुकूलव्यापाराश्रयत्वं वाक्यार्थः । करगात्वं यथा तृणेन सह काष्ठेन पचतयव तृतीययोः करणत्वमर्थः तथा च टकराताकपाक समकालिकंकाष्ठ करताकपाककृतिर्वाक्यार्थः ऋत्विग्भिः सह गुरवे ददातीत्यव चतुर्थोटतौययोः संप्रदानत्वमर्थः तथा च ऋत्विक्संप्रदानताकदानसमकालिंकगुरुसंप्रदानताकदानाश्रयत्वं वाक्यार्थः । कोटरेगा सह तरोः पततौत्यव कोटरापादानताकपतनसमकालिक्तर्वपादानताकपतनकृतिर्वाक्यार्थः । सपत्नीभिः सह कान्तस्य वस्यतीत्यत्र सपत्नीसंबन्धिवाससमकालिककान्तसंबन्धिचा साश्रयत्वं वाक्यार्थः । पौठेन सह गृहे आस्ते इत्यत्र पीठाधिकरणता का सनममकालिकगृहाधिकरणता कासनाश्रयत्वं वाक्यार्थः । सहार्थविशेषणविशेष्ययोः धात्वर्थयोरुभयोस्तृतौयाभिन्न विभक्त्यन्तार्थः सवन्वेति तृतीयान्तार्थो विशेषणे तेन पुत्रस्य ग्रामगमने पितुर्नगरगमने पुत्रेण सह नगरं गच्छति पितेति न प्रयोगः । यत्त्र कर्मत्वादिकारकस्य तृतीयार्थस्य गुणाक्रियायामन्वयो न कर्तृत्वस्य तव प्रधानक्रियाकर्तुरेव
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
રર૭ कट त्वमवमीयते गणक्रियाकारकानभिधाने प्रधानकारकस्य प्रत्ययाभिहितस्य गुणक्रियायामन्ययात् । तदुक्तम् ।
प्रधानेतरयोयंत्र द्रव्यस्य क्रिययोः पृथक् । शक्तिशृणाश्रया तत्त्र प्रधानमनुरुध्यते ॥ प्रधानविषया शक्तिः प्रत्ययेनाभिधीयते।
गुणे यदा तदा तहदनुक्ताऽपि प्रतीयते ॥ इति हिरण्येन सह गां लभत इत्यादी गोलब्ध कतकत्वं हिरण्यलाभे प्रतीयते अतो न चैवेगा हिरगये मैत्रेण गवि लण्यमानायां हिरण्येन सह गां लभते मैत्र इति प्रयोगः अत एव समानकत कत्वादिकं सहार्थ इति निरस्तम् । दर्शितरोत्याऽतिप्रसङ्गनिरासात् समानकतुकत्वादौ च शक्त्यन्तरकल्पनाया अन्याय्यत्वाच्च प. ल्या सह यजत इत्यत्र पतिपदस्याध्याहारे पनौसाहित्यं पत्युविशेषणं यदि च नाध्याहारस्तदाऽपि साहित्यद्वारकं कतत्वं पत्न्या मन्तव्यं पत्नीसाहित्यस्य शौचनदधिकारत्वात् यत्कर्त्तव्यं तदनया सहेत्यभिधानात् । अत्रापि पत्येत्यध्याहारः । यदि च माध्याहारस्तदोऽपि कर्तव्यत्वे कृतिविषयत्वे धात्वर्थकृतौ साहित्यद्वारकं कतत्वं पत्न्या इति एवमन्वयबोधोपपादनेऽपि पत्यैत्यध्याहारं विना मुख्यकर्तव्यताकाङ्क्षाया अनिवत्तिः । भाट्टानां मते कतत्वादिकमखण्डमतिरिक्तमिति पत्न्या अपि कतत्वं निराबाधमिति । के चित्तु पुत्रेण सहागत आगच्छति वेत्यादौ आगमनसमानकालिकागमन कर्ततासंवन्धेन विशिष्टस्तथाविधागमनं च सहशब्दस्यार्थ: विशिष्टस्य तादात्म्येन तथा विधागमनस्य कततया संब
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तृतीयाविभक्तिविचारः। जोन प्रथमान्तार्थे पितर्यन्वयस्त चैवागतशब्दार्थस्यागमनकतरभेदनागच्छतौति तिङन्तार्थ श्रागमनकट त्वस्य यथा योगमन्वयः । न चैवं सहशब्दार्थान्वया देवागमनलाभे आगत श्रागच्छतौतिशब्दप्रयोगो व्यर्थ इति वाच्यम् । तत्तप्रत्ययान्तधातुसमभिव्याहारण व सहशब्दस्य क्रियातहिशिष्टोपस्थापकत्वात् । एवं तृतीयार्थ: कट त्वं समानकालित्वविशेषणीभूतधात्वर्थे सहाथैकदेशेऽन्वेति सहशब्दस्य निपातत्वात्तदर्थस्य भेदान्वयो नामार्थेऽपि न विरुद्धः न च यशसा सह मृच्छतोह शत्रुरित्यत्र तिङन्तेन मोहकर्ट त्वस्योपस्थापनात् सहशब्देन मोहसमान कालिकमोहाभिधाने मोहे यश:कर्ट कत्वबाधादन्वयानुपपत्तिरिति वाच्यम् । तिर्थान्वितमोहोपस्थितावपि मूछतियोगे सहशब्दो हि पुत्रैः सह मूर्च्छति शत्रुरित्यत्र मोहसमानकालिकमोह: यशसा सह मूछति श्रीरित्यत्र दिसमानकालिकवृद्धिः रिपुणा सह मृच्छति यश इत्यत्र मोहसमानकालिकवृद्धिः प्रकृते वृद्धिसमानकालिकमोह एते सहार्थास्तथा च सहाथै कदेशे वृद्धौ यश:कट कत्वस्याबाधनात् नान्वयानुपपत्तिरिति वदन्ति । तन्न विचारसहम् । सहशब्दस्य समानकालिकत्वशक्त्यैव निर्वाहे धातुभेदेन तदर्थभेदेन तत्तत्प्रत्ययभेदेनानन्तशक्तिकल्पनाया अन्याय्यत्वात् यच धातो नार्थस्तव समानकालिकात्वे विशेषणतया विशेष्यतया चान्वये योग्यता तन्त्रमिति वच्यते । यत्र च न नानार्थः शब्दः तृतीयाभिन्नकृतिस्तत्र तौयार्थभिन्नकारकान्त्रिता नामार्थव्यक्तिरेकैव कारकहारा क्रियान्वयिनौ तेन पितरि नन्दिग्राम ग
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
રર. छति ग्रामान्तरं च पुचे पुत्रेण सह ग्रामं गच्छतौति न प्रयोगः अत एव पुत्रेण सह गां लभत इत्यत्र एकस्यामेव गवि पितुः पुत्रस्य च खत्वं प्रतीयते एवं हिरण्येन सह गां पुत्रेण सह लभते पितेत्यत्र सहार्थहयथार्थबोध: तत्र हिरण्यकर्मकलाभसमानकालिकगोकर्मक लाभः हितौयसहाथै विशेषणतया विशेष्यतया वाऽन्वेति तत्र पुत्वकर्तकत्वं हिरण्यलाभे प्रथमसहार्थस्य विशेषणे विशेष्ये गोलाभे चाऽन्वेति द्वितीयसहार्थस्य विशेष्ये गोलाभे विशेष्यतावच्छेदकांशे हिरण्यलाभे च पितकर्तताकत्वमन्वेति व्युत्पत्तिवैचित्त्यात् । ननु हिरण्येन सहेत्यत्र सहाथकर्मत्वं तदन्वयिनिरूपितत्वं तृतीयाऽर्थः पुत्रेण सहेत्यत्र सहार्थः कतत्वं तच्चाधेयत्वं तदन्वयिनिरूपितत्वमेव ततौयाऽर्थः सूत्रेणापि कर्मत्वकत त्वादियोगे तुतीयाऽनुशिष्यते अप्रधाने इति प्रकृत्यर्थस्य तथात्वं सूचयति एवं लाभे हिरण्यकर्मत्वगोकर्मत्वपुत्रकर्तत्वानामन्वयः तथा च पुत्रकत ताकहिरण्यकर्मताकगोकर्मता कलाभका पितेति शाब्दवोध: एतावता सर्वसामञ्जस्ये सहस्य समान कालिकत्वादी शक्तिन कलप्यते मानाभावात् न वा धात्वर्थस्य सहाथै विशेषणतया विशेष्यतया चान्वयः व्यत्पत्त्यन्तरकल्पनागौरवादिति चेन्न सहस्य कर्मत्वादिशक्तिकल्पनायां छत्रेण सहोपानही दधातीत्यकम्यां धारणक्रियायामुपानच्छत्रयोः कर्मत्वासम्भवेनानन्वयापत्तेः पुत्रेण सहागच्छतौत्यत्र पितापुत्रकत त्वयोरेकत्वासम्भवेनानन्वयात्तेश्च तस्मात्सहस्य समानकालिकत्वशक्तः क्लप्ततया व्युत्पत्त्यन्तरकल्पनं न न्याय्यं न च क समान
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तृतीयाविभक्तिविचारः। कालिकत्वे शक्तिः स्लप्तेति वाच्यम् । गर्जितेन सह वष्टिः श्यामाक मञ्जरौभिः सह कङ्गमञ्जरीत्यत्र सहस्य समानकालिकत्वार्थत्वं विनाऽवयस्य दुरुपपादत्वादिति एवं यत्र भिन्नकत कयोः क्रिययोरेशव्यक्तिकर्मकत्वं न सम्भवति योग्यताविरहात् तत्रैकरूपेण नानाव्यक्तीनां कमत्वं यथा पुत्रेण सहोदनं भुते इत्यत्व पुत्रकर्तृ कपितकत कयोभैजनयोरेकोदनव्यतिकर्मकत्वं न सम्भवति ओदनत्वेन नानौदनानामेव तब कर्मत्वमिति भिन्नरूपण नानारूपकर्मत्वसंभवेऽपि पृथुकं पुत्र ओदनं पितरि भुञ्जाने पुत्रेण सह पृथकमोदनं तदुभयं वा भुङ्क्ते इति न । प्रयोगः दूत्येकरूपेणेत्युक्तम् । एवं पुत्रेण सह भुङ्क्ते इत्यत्र सहार्थः समानकालिकत्वं सामानाधिकरण्यस्वरूपं समानदेशत्वं चोभयस्मिन्नेव सहाथै भोजनस्थ विशेषणतथा विशेष्यतया चान्वय: विशेषणे भोजने पुत्रकत कस्यान्वयस्तेन विभिन्ने काले देशे च कालान्तरणकगृहे एककाले गृहान्तरे च भोक्तरि पुचे पितरि वा न तथा प्रयोगः । एवं पतितैः सह न भुञ्जौतेत्यत्र योककालावच्छेदेनैकगृहे पतितापतितयो जने पतितभोजनमपतितं न दूषयति तदैकपात्र - कपत्यधिकरण कत्वस्वरूपं समानदेशत्वं प्रकृते वोध्यमिति पङ्क्तिस्तु परत्वविशेषापरत्वविश षनिरूपकसजातौयाधिकरणं देश: संयोगघटितः परम्परया घटकेन खल्पेन स्वल्पतमेन संयोगेनाभिव्यङ्ग्यपरत्वविशेषोऽपरत्वविशेषः यदि च पुरुषाकृतिकाष्ठनिवेशेऽपि पतिव्यवहारस्तदा साजात्यं समानाकारतया वोध्यमिति एवं पुत्रण
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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मह पचतीत्यत्रापि समानदेशत्वं समानकालिकत्वं च सहार्थतेन देशकालयोर्वेषम्ये न तथा प्रयोगः । सूपेन सहौदनं पुत्रेण सह पचति पितेत्यत्र द्वेधा सहार्थान्वयस्तेन पुत्रकर्तृकसूपकर्मता कपाक्रसमानदेशकालिकौदन कर्मता कपाकसमा नदेशकालिक सूप कर्मता कपाकसमा - नदेशकालिकोटनकर्मकराकृतिमान् पितेत्यन्वयवो - धः । ननु "प्रासोष्ट शत्रुघ्नमुदारचेष्टमेका सुमित्रा सहलक्ष्मणेने"त्यत्र लक्ष्मणप्रसवसमानकालिकत्वं शत्रुघ्नप्रसर्व वाधितमिति कथं सहार्थान्वयः न चात्र स्थूलकालप्रथमजातो लक्ष्मणादिदेव ग्राह्य इति न समानकालिकोत्वान्वयानुपपत्तिरिति वाच्यम् । तथासति " प्रासोष्ट बीभत्समुदारचेष्टमेका पृथा वायुसुतेन साकमि " त्यादिप्रयोगप्रसङ्गात् । प्रथमजातभौमा दिखरूप कालमादाय समानकालिकत्वान्वयसम्भवादिति चेत् प्रकारान्तरेणाव समानकालिकत्वसम्भवस्तथा हि सूतिमारुतोऽच कालो बोध्यः एक एव सूतिमारुतोऽयमजप्रसव हेतुः सूतिमारुतस्य प्रसवप्रयोजकत्वमुक्तं याज्ञवल्क्येन ।
नवमे दशमे मासि प्रबलैः सुतिमारुतैः । निस्साय्यैते बोण इव यन्त्रच्छिद्रेण स ज्वरः ॥
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इति न च बहुवचनेन भूयसां सूतिमारुतानां प्रसव प्रयोजकत्वमुक्तं कथमेकमूर्तिमारुतः कालत्वेनोपादीयत इति वाच्यम् । एककालवर्त्तितया हि मारुतानामेकत्वमिष्यते य एव सूर्तिमारुता लक्ष्मणप्रसवे त एव शचुनप्रसवे प्रयोजका न तु भिन्नाः कल्पनागौरवात् लच्मपनिगमकाले लक्ष्मणस्य प्रतिबन्धकतया न शत्रुघ्न
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तृतीयाविभक्तिविचारः । निर्गम: यथा एकेन पुरुषव्यापारेण कमलपत्राणां स.. चिभेदने प्रथमपत्रभेदनकाले न द्वितीयपत्रभेदनं प्रथमपत्रस्य प्रतिवन्धकत्वादिति जरायुजशरीरस्य शरीरान्तरेऽन्तरवयवावच्छेदेन य: संयोगस्तत्प्रतिद्वन्द्वी विभागो व्यापारश्च पूडोऽर्थः प्रतिइन्द्रित्वं तु नाशकतावच्छेदकवैजात्यं सूतिमारुतसंयोगजक्रियाविशेषजन्यता. वच्छेदकतया सिद्धं तद्वैजात्यवान् विभाग: फलविधया:यस्तेन जरायुजशरीरस्य धातुनाऽनभिधानात्षङो न सकर्मकत्वहानि: वैजा त्यपरिचयार्थ जरायुजशरीरादिकथनं तेन व्याधिवशाझेदकादिप्रसवे प्रसूत इति प्रयोगवारणाय जरायुजशरीरोपादानं बालस्य क्रोडात् क्रोडान्तरगमने प्रसत इति प्रयोगवारणाय शरीरेऽन्तरवयवावच्छेदेनेत्युक्तं तरुः फलानि सते वसुधा भटान् सूते सहस्रपात् शनिं प्रासूतेत्यादौ घूङ उत्पत्तिस्तदनुकूलव्यापारश्चार्थ इति तदुपपत्तिः एवं प्रकृते लक्ष्मणवृत्तिविजातीयविभागानुकूल व्यापाराधिकरणसूतिमारुतकालिकस्यातीतस्य शत्रुघटत्तिविजातीयविभागानुकूलव्यापारस्याश्रयः सुमित्रत्यन्वयबोधः । वैशम्पायनेन सह वेदं जैमिनिरधोत इत्यत्राघौङोऽययमुच्चारणं तदनुकूलश्रावणं चेत्येकोऽर्थः उच्चारणं तु वर्णोत्पत्त्यनुकूलतयोपलक्षितो विवृतादिः प्रयत्नः म तु वितत्त्वादिनैव धात्वर्थे निविशतेऽतो न सकर्मकरवहानि: लिप्यादिना वर्णज्ञानादुच्चारणोऽधीत इति प्रयोगवारणाय श्रावणमुक्तं श्रावगास्य फलतानविधया विवतादिप्रयोजकत्वं वर्णस्य फलस्य साधनतया कण्ठताल्वादिसंयोग तत्मा
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विभक्त्यर्थनिर्णये । २३३ धनतया कण्ठादिक्रियायामिच्छा विस्तादिप्रयत्नश्चेतीयं रोतिर्वोत्पादे बोध्या अधौङो धातोरोदृशार्थवशाव्ययोगो यथा पञ्चाब्दिको ब्रह्मवटुर्वेदमधीत इत्यवानुपूवौविशेषविशिष्टो वर्णकलापो वेदः द्वितीयार्थः साध्यत्वाख्यं विषयत्वं साध्यत्वविषयत्वसंवन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं वा विवृतावन्वेति एवं वेदविषयताकस्य वेदाधेयस्य वा विस्तादेरनुकूलश्रावणाश्रयः पञ्चाब्दिको ब्रह्मवटुरित्यन्वयबोधः । एवमुपाध्यायप्रतिवेशी बालो वा शुको वाऽधौत इति प्रयोग: सूपपादः । अर्थप्रतिपादकत्वेन ज्ञानं प्रतिपादकतासंबन्धनार्थवत्तया ज्ञानं वा फलं तदनुकूलश्रावणं चेत्यपरोऽधोङोर्थः भवति हि विवरणवाक्यश्रवणानन्तरं विद्रियमाण वाक्ये विवरणार्थकत्वबुद्धिः सा शाब्दबोध: ज्ञानसामान्यं वा शाब्दबोधपक्षे इति शून्यवाक्ये पचति पाकं करोतीत्यादौ पचतौत्यत्र तिङ: पचतिपदमर्थः धातुप्रयोग: साधुत्वार्थ: प्रणयेदितिवत् विवरणवाक्यस्य पाककृतिरर्थः प्रतिपादकतासंसर्गेण पतिपदोन्वेति यत्र चेतिसहितं वाक्यं पचतीति पाकं करोतीत्यर्थ इत्यादावित्युपस्थापितस्य पचतिपदस्य पाककृतरित्युपस्थापितायास्तादात्म्येनान्वितेऽर्थपदार्थे प्रतिपाद्यतासंसर्गेणान्वयः एवमर्थे शब्दप्रतिपाद्यताग्रहकाले शब्देऽप्यर्थप्रतिपादकत्वं गृद्यते ज्ञानमामान्यपक्षे तु शाब्दानन्तरं प्रतिपादकत्वमानससम्म-'. वान्नानुपपत्तिरिति । अर्थवत्ताया: शाब्दबोधस्यानुकूलत्वं च पदार्थस्मृतिद्वारा जानसामान्यस्यानुकूलत्वं स्मतिशाब्दादिद्वारा श्रावणस्येति । एवं शास्त्रमधीत इत्यत्र
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तृतीयाविभक्तिविचारः ।
द्वितीयाया विशेष्यत्वं तत्संबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं वाऽर्थः शास्त्र वृत्त्यर्थवत्त्वप्रकारक ज्ञानानुकूलशा व्दाश्रयत्वं वाक्या र्थः वेदमधीते जैमिनिरित्यत्र द्विविधाध्ययनं धात्वर्थः वेदकर्मकाध्ययनाश्रयो जैमिनिरिति वाक्यार्थबोध: एवं द्विविधाध्ययने श्रावणान्वव्याख्यानमुपयोगः पञ्चम्यर्थ इति ज्ञापयति "आख्यातोपयोगे" इति सूत्रमित्यादिकं बच्यते । व्यामादमधीत इत्यत्र पञ्चम्यर्थो वाक्य व्यासविशेषितं श्रवणेऽन्वेति सहाधीत इत्यत्र समानगुरुकत्वमपि सहार्थः तच्च राजातीयवाक्यविषयकत्वं साजात्यं व पुरुष प्रयोज्यतावच्छेदिकया कत्वादिव्याप्यजात्या बोध्यं तेन गुरुभेदेनैककाले एकवेदाध्ययने तथा न प्रयोगः एवं प्रदर्शितस्थले वैशम्पायनकर्ता ताकस्य वेदवि
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कविताद्यनुकूलस्य वेदविषयकार्थवत्वप्रकारकज्ञानानुकूलस्य वा श्रावगास्य समानका कालिकं विषयसजातीवाक्यविषयकं च यद् वेदविषयक विटताद्यनुकूलं वे - 'देविषयका व कारकज्ञानानुकूलं वा श्रावणं तदाश्रयो जैमिनिरित्यन्वयबोधः । “आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते" इत्यत्र कर्तृ घटितं सामानाधिकस्वयं सहार्थः क्रिययोरत्वेति गर्भाशयविभागस्तदनुकूलव्यापारी वा जन्मशब्दार्थः पार्थिवद्रव्यप्रतियोगिक कण्ठसंयोगस्तदनुकूलव्यापारी बाऽऽहारशब्दार्थः जन्माहारयोः nataशवर्तवाङ्गवतिक्रिययोः सामानाधिकरण्यं
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तथा च जन्मकर्तताकोत्पत्तिसमानाधिकरणोत्पत्त्याश्रय वाहार इत्यन्वयबोधः जनिधातोरुत्पत्तिरर्थ इति न चाव समानकालिकत्वं सहार्थं इति वाच्यम् । अनन्वया
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विभक्त्यर्थनिर्णये । पत्तेः जन्मोत्यत्तेरनन्तरमेवाहारोत्यत्तेः सम्भवात् न चोत्तरकालिकत्वं सहार्थोऽस्त्विति वाच्यं तथासति पुत्वागमनोत्तरमागते पितरि पुत्रेण सहागत इति प्रयोगापत्तेः सामानाधिकरण्यस्य सहार्थत्वे तु यत्र क्रिययोः सामानाधिकरण्यं तत्र सहप्रयोग इष्ट एव एवं सहार्थे एकानुपूर्वीकतिङन्तप्रतिपाद्यो नानाविधो धात्वर्थो विशेषणतया विशेष्यतया चान्वेति विशेषणे तृतीयान्ताथश्च यथा यशसा सह मूच्र्छतोह शत्रुरित्यत्र मोह उच्छायश्च धातोरर्थ: यशःकर्तृताकत्वमुछाये तत् समानकालिकत्वे तन्मोहे स तिर्थ आश्रयत्वे तच्छुत्रौ विशेषणनया इन्वेति योग्यताबलात् व्युत्पत्तिवैचित्र्याच्च । यशःकतकसमुच्छ्राय समान कालिकमोहाश्रयः शचुरित्यन्वयवोधः । नानाविधेऽपि धात्वर्थे एकानुपूर्वीकशब्दप्रतिपाद्यो नानाविधोऽर्थस्ततौयाभिन्न विभक्त्यर्थंन्वेति तत्र योग्यतावशात् एकविधार्यान्वितो विभक्त्यर्थो विशेषणेऽपरविधार्यान्वितो विशेष्ये धात्वर्थेऽन्वेति व्य त्यत्तिवैचिल्यात् यथा कैरवं हतवान् राजा भृङ्गण सह सलरमि"त्यत्र धात्वर्थो गमनं हननं च कैरवशब्दार्यः कुमुदं शत्रुश्च कुमदकर्मत्वं गमने शवकर्मत्वं हननेऽन्वेति एवं भृङ्गकतताककुमुदकर्मताकगमनसमानकालिकशत्रुकर्मताकहननाथयो राजेत्यन्वयबोधः । तथाविधनानाविधार्थावितस्तुतीयाभिन्नविभक्त्यर्थः एकविधार्यान्वित: सहार्थस्य विशेषणेऽपरविधार्यान्वितो विशेष्ये एकविधेऽपि धात्वर्थे ऽन्वेति यथा"देवाधिनाथन सह क्षितीशो भृशं धगप्रोतिमसौ विधत्ते इत्यत्न धराप्रौतिशब्दार्थ : पर्वताप्रीतिः
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तृतीयाविभक्तिविचारः। पृथिवीरतिश्च तदुभयकर्मत्वमेकविधे धात्वर्थे विधानेइन्वेति तथा च देवाधिनाथकत ताकपर्वताप्रीतिकर्मताकविधानसमानकालिकपृथिवीरतिकर्मताकविधानानुकल कृतिमान् क्षितीश इत्यन्चयबोधः । तथाविधनानार्यान्विततथाविधविभक्त्यर्थ स्यैकैकं सहार्थ स्व विशेषणे विशेष्ये समानानुपूर्वीकतिङन्तनानाविधधातुप्रतिपाद्ये नानाविधेर्थेऽप्यन्वयः यथा “शिशुः पयो धास्यति सागरैस्मह" इत्यत्र धास्यतिपदेन धयत्यर्थस्य पानस्य दधात्य- . थस्य धारणस्य भावित्वस्य कृतेश्च स्मृतिर्जन्यते पयःपदेन नौरनौरयोहितीयया कमत्वस्य तृतीयया कर्तृत्वस्येति । सागरकतत्वं नीरकर्मत्वं च धारणे क्षौरकर्मत्वं पाने योग्यताबलाहा त्पत्तिवैचिल्याच्चान्वेति एवं सागरकतताकनौरकर्मताकधारणसमानकालिकक्षौरकर्मताकभाविपानानुकूलकृतिमान् शिशुरित्यन्वयबोध: महार्थान्विते विशेषणे विशेष्ये वा धात्वर्थे एकत्र कर्मवाद्यन्वययोग्योपस्थापकपदस्य न तिङन्तेन सहाकाङ्क्षा अत एव पयःपदेन वीरमानोपस्थितौ न तथा शाब्दबोध: न वा क्षौर शिशुर्धास्यति सागरैः सहे"ति प्रयोगः । ननु शिशुः क्षीरं धास्यति पयो वेत्यत्र धास्यतिपदेन सह हितीयान्तस्य क्षौरपदस्य चौरमात्रीपस्थापकपयःपदस्य वा आकाङ्क्षाया दृष्टत्वात्प्रकृते कुतो नाकाङ्क्षा न च प्रकृते तिङन्तेन धारणस्याप्युपस्थापनेन धारणे क्षीरकर्मत्वान्वययोग्यताया विरहात् पानेऽपि न क्षौरकर्मस्वान्वयाकाङ्क्षति वाच्यं तावताऽप्यर्थभेदेऽप्यभिन्नायाः शब्दधर्मवरूपाकाङ्क्षाया अवैकल्यात् योग्यताविरहस्य
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विभक्त्यर्थनिर्णये। वक्तमुचितत्वात् नानार्थ स्थैकत्र योग्यताविरहेऽप्यपरवान्वयस्य दर्शनाच्च यथा सैन्धवो नील इत्यादौ तत्कुतो न दर्शितप्रयोगः पाने क्षौरकर्मत्वान्वयसम्भवादिति चेत् मैवं नानार्थशब्दस्यापि हि नानाविधार्थतात्पर्यनानाविधार्थान्वययोग्यार्थकेनैव पदेन सहाकाङ्क्षा अत एव लवणाश्वतात्पर्ये सति सैन्धवौ नौलाविति न प्रयोगः नौलावयासम्भवात् न च लवणेऽयोग्यत्वान्न नौलान्वयः आकाङ्क्षा तु वर्तत एवेति वाच्यं तथा सत्यश्वे नौलान्वयबुद्धिप्रसङ्गात् तस्मात् तात्पर्यविषयीभूतधास्यतिपदार्थ खार्थान्वयबुध्यभावप्रयोजकाभावप्रतियोगित्वस्वरूपाकाङ्क्षा द्वितीयान्तक्षौरपदे नास्ति क्षीरमितिपदे सत्यप्यन्वयबुद्धेरभावात् न चैवमग्निना सिञ्चतीत्यत्राप्याकासाविरहान्न शाब्दवोध इति वाक्यम् । अग्निपदस्य ट्रवद्रव्यपरतायामाकासासम्भवादर्थभेदेनाकाङ्काभेदाभावात् वह्निपरतायामध्यकाङ्क्षासत्वात् तात्पर्यविषयत्वस्यापरपदार्थविशेषणत्वात् आकाशाग्रहधर्मिपदस्थार्थं तविशेषणत्वाविवक्षणात् अग्निनेति पदस्य धर्मित्वे नाकासाविरहः किं तु योग्यताविरह: पाकलाक्षणिकसिञ्चतिपदस्य धर्मिलेऽप्यग्नितात्पर्यकस्याग्निनेतिपदेन सहाकाङ्क्षा सम्भवत्येवेति । यत्र क्षौरमितिपदस्य क्षौरनौरयोरुभयोरुपस्थापकत्वं तत्रोभया कस्य पय इति पदस्येवाकाङ्क्षाया अवैकल्यात् क्षौरकर्मत्वस्य पाने नौरकर्मत्वस्य धारणेग्वबोधो भवत्येवेति । यत्र द्वितीयान्तपदं विनैव सागरैः सहशिशुर्धास्यतौति प्रयोगः तत्र कर्मत्वान्वयवो
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तृतीयाविभक्तिविचारः। धं विनैव शाब्दबोधः पानधारणोभयकर्मत्वान्वयोग्यार्थकस्य पय इत्यादिहितीयान्तपदस्य तहटिताकाङ्क्षायाश्च विरहान्न कर्मत्वान्वयबोध इति गुरुचरणदर्शिता रीतिरिति । दर्शितेषु श्लेषस्थलीयसहोत्यलङ्कारेषु एकानुपूर्वीकशब्दप्रतिपाद्ययोरथ योस्सर्वत्र तादात्म्यं व्यञ्चनया प्रतीयते वैयचनिकवीधे बाधो न विरोधौ अत एव "सकलकलं पुरमेतज्जातं संप्रति सुधांशुबिम्बमिवे"त्यत्र कलकलसाहित्यकलासाकल्ययोरभेदाध्यवसाये साधारणधर्मोपपत्त्योपमाप्रतीति: तथा च पानधारणयोस्तादोम्याध्यवसायनैक्ये सहाविशेषणविशेष्ययोरेकजातीयक्रिययोः क्षौरनौरयोस्तादाम्याध्यवसायादेक जातीयककर्मत्वान्वयः सागरकतत्वस्य विशेषणे विशेष्ये तिङथं कर्तुः तत्र शिशोरन्वय इति रसविद्याविदः । पयःपदवाच्च लक्षणा पयःपद्वाच्यं कर्मत्वं पानधारणयोरनवेतीति व्यञ्जनाविहेषिणः । “पुमान् स्त्रिये"ति सूत्रस्य खिया सहोतो पुमान् शिष्यत इति व्याख्याने उक्तो कर्म गोऽनभिधानात् कृद्योगप्रयुक्त कर्मत्वार्थकषष्ट्यन्तं पुंस इति पदमध्याहार्यमथ वा प्रधाने शिष्धात्व शक्तिमत: पुंसो गुणे वच्धात्वर्थे उक्तौ शक्तिरनुक्ताऽपि प्रतीयते यथा आइय ब्राह्मणाय ददातीत्यवानुक्तमपि ब्राह्मणकर्मत्वमावहाने प्रतीयते । तदुक्तम् ।
प्रधानविषया शक्तिः प्रत्ययेनाभिधीयते । गुणे यदा तदा तदनुक्ताऽपि प्रतीयते ॥ इति तथा च अनुक्तमपि कर्मत्व पदाध्याहारे प्रकारतया अपरथा पुंसोऽन्वये संसर्गतयोक्तौ भासत इति न
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विभक्त्यर्थनिर्णये। काऽप्यनुपपत्तिः । शान्दिकास्तु सहपदं व्यञ्जकमेव क्रिययोः समानकालिकत्वादिः संसर्गमर्यादयैव भासते "वृद्धो यूने ति निर्देशात् अतः पुत्रगोगच्छतीति वाक्यं प्रमाणमिति वदन्ति । तन्न सुन्दरम् । “सहयुक्तो ऽप्रधाने" इत्यत्र सहयुक्तपदस्य वैयर्थ्यांपत्तेः सहशतःस्य निरर्थकत्वे योगासम्भवात् न चाव सहशब्दसमभिव्याहार एव योग इति वाच्यं सहाथ न योगे इति काशिकोत्तेरनुपपत्ते: साकंसाईसमंशन्दैोगे तृतीयानुपपत्तेः दो यूनेत्यत्र "प्रकृत्यादिभ्य इति वार्तिकेन सिद्धा ततौया तस्याः समभिव्याहारोऽर्थस्तथा च पुत्र राब्दसमभिव्या हारवान् -
शब्द एकविभक्तौ शिष्यत इति सूबवाक्यार्थम् इतिनिर्देशस्य निरर्थकसहशब्दनिष्ठव्यञ्जकत्वाजापकत्वाच्च । दर्शितातिरिक्तोऽपि व चित्महार्थ: यथा समवायेन सह घटत्वं प्रतियोगितामवच्छिनत्तीत्यत्व निरूप्यत्वमवच्छेदकता चावच्छिदो धातोरर्थ: निरूप्यत्वं च ज्ञानजन्यज्ञानविषयत्वं तत्र ज्ञानमावं फलविधयाऽर्थो द्वितीयान्तार्थस्य प्रतियोगित्वाधेयत्वस्य विषयतासंबन्धावच्छिन्नस्य फले जाने तस्य स्वजन्यज्ञानविषयत्वेन संबन्धेनावच्छे, दकत्वेऽन्वयः सहार्थ: समाननिरूपकत्वं तत्रापि निरूपकमावं सहार्थ: निरूपकं च ज्ञानजनकज्ञानविषयः तनापि ज्ञानं विषयस्य महार्थ: ज्ञानविषययोगेकपदार्थयोरपि परस्परमन्वय: आधेयत्वलक्षणकर्तत्वार्थकततीयान्तार्थस्य समवायाधेयत्वस्य प्रतियोगिता ककर्मके धात्वर्थे तस्य स्वविषयकज्ञानजनकत्वेन संबन्धेन ज्ञानस्य विषयतया विषये तस्य स्वविषयकतानजन्यज्ञान
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तृतीयाविभक्तिविचारः। विषयत्वेन तथाविधे धात्वर्थे तस्य तिर्थाश्रयत्वे तस्य घटत्वेऽन्वयः । एवं समवायत्तेः प्रतियोगितात्तिज्ञानज्ञाप्यावच्छेदकत्वस्य ज्ञापकतानविषयो यस्तहिषयकज्ञानज्ञाप्यायाः प्रतियोगितात्तिज्ञानज्ञाप्यावच्छेदक ताया आश्रयो घटत्वमिति शाब्दबोधः । अभावनिरूपकः प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्टः प्रतियोग्येव प्रतियोगित्वतदवच्छेदकत्वनिरूपकः स तु निरूपकत्वेन सहार्थे निविशते न तु तत्त्वेन इति न चात्रापि समानकालिकत्वं सहार्थस्तचैव प्रतियोगिताकर्मकावच्छेदकस्य विशे. षणतया विशेष्यतया चान्वय इति वाच्यम् । तथासति पटत्वेन सह घटत्वमच्छिनत्तौति प्रयोगप्रसङ्गात् पटघटाभावप्रतियोगितावच्छेदकतयोः समानकालिकत्वबाधात् । ननु यथा पुत्रेण सह ग्राम गच्छतीत्यत्र पद्यतिकर्मकस्यैव धात्वर्थस्य विशेष्यत्वे सह प्रयोगः साधुस्तथानापि समवायेन सहेत्यत्व प्रतियोगिताव्यक्तरेकस्योभयकर्मत्वाभवत्युपपत्तिः पटत्वेन सह घटत्वमित्यवैकप्रतियोगित्वव्यक्तेरुभय कर्मत्वासम्भवान्नोपपत्तिरिति चेत् न महानसौयत्वेन सह वह्नित्वमवच्छिनत्तीत्यवेकप्रतियोगित्वव्यक्तेरुभयकर्मत्वासम्भवादसाधुत्वप्रसङ्गात् अवच्छेदकधर्मभेदेन प्रतियोगिताभेदात् । एवं चक्षःप्रतियोगिकत्वेन संयोगे चाक्षुषकारणतामवच्छिनत्तीत्यत्रापि समाननिरूपकत्वं सहाथ: न तु समानकालिकत्वं तथासत्यद्भूतरूपत्वेन सह संयोगत्वमवच्छिनत्तीति प्रयोगप्रसङ्गात् न चाव कव्यक्तिकर्मकत्वसम्भवः कर्मणः कारणताया अवच्छेदकधर्मभेदेन भेदादवच्छेदकताया
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विभक्तार्थनिर्णये । व्यासज्यत्तित्वस्यान्यत्र दूषितत्वादिति कारणताया निरूपकावन्वयव्यतिरेकौ तदवच्छेदकत्वनिरूपकाविति बोध्यम् । क्व चिदभेदोऽपि सहार्थः यथा पटेन सह घटं साक्षात्करोतीत्यव तृतीयाद्दितौययोः कर्मत्वमर्थः तच्चाधेयत्वं सहार्थस्याभेदस्य विशेषणे तृतीयार्थविशेषे धात्वर्थे द्वितीयार्थोऽन्वेति । एवं वटवृत्तिलौकिक विषयताकसाचात्काराभिन्नघटवृत्तिलौकिकविषयताकसाचात्काराश्रयत्वं वाक्यार्थः न चात्र समानकालिकत्वं सहार्थः तथासत्यव्यवहितज्ञानभेदेन तथाप्रयोगप्रसङ्गात् न चेष्टापत्तिः तथासति रूपेण सह गन्धं साक्षात्करोतीति प्रयोगप्रसङ्गादिति । जात्या सह व्यक्ति घटत्वेन सह घटं वा जानातीत्यत्र सामग्रीघटक सामग्रीकत्वं सहार्थ: जातिवृत्तिविषयताकज्ञानसामग्री घटकव्यक्तिष्टत्तिविषयताकज्ञानाश्रयत्वं घटत्वष्टत्तिविषयताकज्ञानसामग्रीकघटष्टत्तिविषयताकज्ञानाश्रयत्वं च वाक्यार्थः न चात्र समानकालिकत्वमभेदो वा सहार्थस्तथासति जात्या सहाभावं घटत्वेन सहे पटं वा जानातीतिप्रयोगप्रसङ्गात् जात्यभावयोर्घटपटयोश्च समूहालम्बनसम्भवात् प्रत्यक्षे व्यकौन्द्रियसन्निकर्षो जातीन्द्रियसन्निकर्षघटक: चनुमितौ व्यापकताया ज्ञानं तदवच्छेदकत्वज्ञानघटक शाब्दबोधे पदार्थस्योपस्थितिस्तदवच्छेदको पस्थितिघटिकाप्रयोजिकेति घटकत्वं व्यापकत्वमिति प्रमायामोह सामग्री सम्भवति न तु भ्रमे श्रत एव भ्रमस्थले घटत्वेन सह पटं जानातीति सहपदघटितो न प्रयोगः किं तु सहपदशून्य एवेति । जात्या सह व्यक्तिं भासते इत्यत्र भासते
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तृतीयाविभक्तिविचारः।
तीया विषयत्वमर्थः तिङ आश्रयत्वमर्थः इच्छायां भासते सुखमित्यत्र सप्तम्यर्थस्याधेयत्वस्य यथाऽन्वयः तथा सप्तमौविवजो वक्ष्यते एवं चाल सहाथ: प्रतियोगिसामग्रीघटकसामग्रीकप्रतियोगित्वं न तु समानकालिकत्वं तथासतिजानभेदै नेच्छाजानाभ्यां वा जातिव्य त्योरवभासे तथा- . प्रयोगग्रसङ्गात् टतीयायाः कत वलक्षणामाधेयत्वमर्थ: तथा च जातित्तिविषयत्वप्रतियोगिसामग्रीकप्रतियोगिकविषयत्वाश्रयो व्यक्रिरित्यन्वयबोध: । जातिव्यक्तिविषयत्वयोः प्रतियोगित्तानमिच्छा वा तत्व जातिविषयत्वप्रतियोगिकतानसामग्रौघटकल्वं व्यक्तिविषयत्वप्रतियोगिज्ञानसामग्या दर्शितमेव इच्छाविषयताया ज्ञान. विषयत्वाधीनत्वात् जातिविषयकेच्छोसामग्यो व्यक्तिविषयकेच्छासामग्रीटितत्वमप्युपपन्नमेव न चावाभिन्त्रप्रतियोगिकत्वं सहार्थो लाघवादिति वाच्यं तथासति जातिव्यक्त्योः समूहालम्बने तथाप्रयोगप्रसङ्गादिति जात्या सह व्यक्तिमवगाहते बुद्धिरित्यत्वावगाहतेविषयताफलकप्रतियोगित्वव्यापारोऽर्थ: तीयाहितीययोः कर्मत्वलक्षमाधेयत्वमर्थ: तिङ आश्रयत्वमर्थः प्रयोजकसामग्रीषटकसामग्रीप्रयोजात्त्वं सहार्थः प्रधानक्रियाक- बुद्धेर्गणक्रियायामपि कट त्वेनान्वयः एवं बुद्धिकटं कजातित्तिविषयताप्रतियोगित्वप्रयोजक सामग्रीघटकसामग्रौप्रयोज्यस्य व्यक्तित्तिविषयताप्रतियोगित्वस्याश्रयो बुद्धिरित्यन्वयबोधः । जातिविषयकज्ञानसामग्यव जातिविषयत्वप्रतियोगित्वप्रयोजिका एवं व्यक्तिविषयकजानसामग्य व व्यक्ति विषयत्वप्रतियोगित्वप्रयोजिके
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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ति तयोश्च घटितघटकभावो दर्शित एवेति शेवालेन सह जलेन संयुज्यत बकः वामतटेन सह दक्षिणतटेन संयुज्यते नदोत्यादौ तृतीययोर्जन्यत्वलक्षणं हेतुत्वमर्थः न तु प्रतियोगित्वमर्थो बाधात् न वाऽऽवेयत्वं साक्षात्संसगविच्छिन्नाधेयत्वस्य धात्वर्थान्वयाव्युत्पत्तेः एकक्रियाप्रयोज्यत्वं सहार्थः एवं शैवालजन्यसंयोगप्रयोजक क्रियाप्रयोज्यजलजन्यसंयोगाश्रयो बक इति शाब्दबोधः । न चात्र समानकालिकत्वं सहार्थः तथासति वायुना सह शैवालेन सह संयुज्यते वक इति प्रयोगप्रसङ्गात् सहाथें प्रयोज्यत्वप्रवेशात् शाखया सह वृक्षेण संयुज्यते कपिरित्यत्राप्युपपत्तिः । एवमन्यादृशोऽपि सहार्थः सुषोभिहृद्यः । इत्थं च‘सहयुक्त प्रधाने" इति सूत्रस्य सहार्थयोगे प्रधानक्रियान्वयिविभक्त्यर्थसजातीये गुणक्रियान्वयिन्यर्थे तृतीया भवतीत्यर्थः सहशब्द तुल्यार्थाः साकं सार्धं समंशबदा बोध्याः । अङ्गविकारार्थिकां तृतीयां ज्ञापयति । "येना ङ्गविकार" इति सूत्रम् । अस्यार्थः काशिकावृत्तौ अङ्गशदो समुदायिनि शरीरे वर्तते येनेति तदवयत्रो हेतुत्वेन निर्दिश्यते येनाङ्गेन विकृतेनाङ्गिनो विकारो लक्ष्यते ततस्तृतीया विभक्तिर्भवति इति लक्ष्यत्वं प्रयोज्यत्वे वि कृतस्य प्रयोजकत्वं विशेष्ये बाधे विकारे विशेषणे पर्यवस्यति तथा चावयवस्य प्रकृत्या लाभात्तृतीयाया विकारोऽर्थः यथा अणा काण इत्यत्र चाक्षुष प्रयोजकगोलकवाभाववान् तथाविधगोलकवान् कायपदार्थ: गोलकस्य वच्छिद्रद्दारा चक्षुषो निर्गमेण संनिकर्ष सम्पादनेन चाक्षुप्रयोजकत्वं चक्षुषो गोलकान्तर्वर्तित्वात् न तु
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तृतीयाविभक्तिविचारः। तस्य कृष्णतारकावर्तित्वं कृष्णतारकाचाक्षुषापत्तेः आलोकविरहान्न गोलकान्तश्चाक्षुषमिति एवं सति काणपदार्थकदेश तथाविधगोलकदयाभावे रतीयार्थविकारस्य प्रयोज्यत्वेनान्वय अक्षिपदं गोलकपरं तथो च गोलकविकारप्रयोज्यतथाविधगोलकदयाभाववान् तथाविधगोलकवानित्यन्वयवोधः अङ्गविकार इति शब्दस्य प्रयोजनं हतीयार्थविकारस्यावयविशरीरभिन्नेम्वयो नेति तेनाक्षि कागामस्येत्यत्र न तृतीया तदर्थान्वययोग्यस्य शरीरस्य शब्देनालाभात् ननु तथाप्यणा चैत्र इति प्रयोगः स्यात् चैत्रपदेन शरोरोपस्थापनात् न च चैत्रे तत्त्वे वा तौयार्थविकारस्य प्रयोज्यत्त्वान्वयासम्भवात् न तथा प्रयोग इति वाच्यम् । तथासति काणमित्यत्र काणपदस्य विकारवदर्थकतया अक्षिपदार्थे गोलकेऽभेदान्वययोग्यतया हतीयार्थविकारप्रयोज्यत्वान्वयायोग्यत्वादेव तोयाप्रसक्तिविरहादभेदेन प्रयोज्यप्रयोजकमावासम्भवादित्यङ्गविकारशब्दो निष्प्रयोजन एवेति चेन्न काणमित्यत्र काणपदस्य चाक्षुषाप्रयोजकार्थकया तदर्थतावच्छेदके तौयार्थविकारप्रयोज्यत्वान्वयसम्भवात् टतीयाप्रसक्तः तनिषेधफलकत्वेनाङ्गविकारशबदस्य सप्रयोजनकत्वसम्भवात् ननु तथासति चाक्षुषाप्रयोजक गोलकं काणपदस्यार्थः तहत्यवयविनि शरीरे निरुढलक्षणाऽस्तु किं काणपदस्य नानार्थतयेति चेत् न हि काणपदस्य नानार्थत्वाभ्युपगमः किं तु तथाविधगोलकमेव शक्यं लक्ष्योऽवयवी लच्यतावच्छेदकं तु न तथाविधगोलकवत्त्वमुत्खातेकगोलके काणापदाप्रयोगप्रसङ्गात्किं तु
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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पूर्वोक्तोभयधर्मवत्वमिति । ननु चाच षप्रयोजकत्वं यदि चाक्षुषोपधानप्रयोजकत्वं तदा निमोलितैकलोचने कापदप्रयोगापत्तेः यदि चाक्षुषस्य योग्यप्रयोजकत्वं तवापि प्रयोजकत्वमुपधायकत्वं तदापि पूर्वोक्तो दोषः निमीलने सति सन्निकर्षादेर्योग्यस्यानुपधानात् यदि योग्ययोग्यत्वं तदा पुष्पकादिना गोलकच्छिद्रमुद्रणे काणपदाप्रयोगप्रसङ्गः तत्र गोलके निर्गमहारकसंनिकर्षयोग्यतायाः सत्त्वात्पुष्पकाद्यपनये चाक्षुषसंनिकर्षयोः सम्भवादिति निरूढलक्ष्यतावच्छेदकमध्येकं न सम्भवतीति चेत् न अविकृतगोलकत्वस्यैव योग्यतात्वात् सपुष्पकगोलके तद्विरहादेव काणपदप्रयोगसम्भवात् विकारास्तु गोलकनिष्ठ प्रत्यासच्या चाक्षुषप्रतिबन्धकतावच्छेदकतयाऽनुगमनीयाः अथ वा गोलकहयप्रयोज्य चाक्षुषाभावचाक्षुषोभयवत्त्वमवच्छेदकता संबन्धेन काणपदस्य लक्ष्यतावच्छेदकं निमौलितैक लोचनेऽतिप्रसङ्गवारणायाहष्टाद्दारकप्रयत्नावरुडगोलकवदन्यत्वेन तद्विशेषणीयं गोलकविकारादेर्दुरदृष्टजनकप्रयत्नसाध्यत्वात् काणेऽप्रसङ्गवारणायादृष्टम्दारकत्त्वं प्रयत्ने विशेषणं पूर्व निमौलितैकलोचनस्य कालान्तरेण गोलकविकारे सति तथाविधगोलकवदन्यत्वस्य विकृतगोलके शरीरे सत्त्वात् आहारपरिणामानादिना शरीरभेदादिति न काणपदाप्रसङ्गः यदि च काणस्याविकृताचिनिमीलने तथाविधगोलकवदन्यत्वविरहात् खापे चोभयघटकचाक्षुषस्य विरहात्काण पदाप्रसङ्ग इति विभाव्यते तदा तया विधातथाविधगोल कहयवदन्यत्वविशेषण मुभयघटक
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तृतीयाविभक्तिविचारः। त्वं च चाक्षुषप्रागभावस्य बोध्यमिति । यहा तथाविधप्रयत्नाप्रयोज्यत्वं चाक्षुषाभावे विशेषणं तत एव निमौलितकलोचने नातिप्रसङ्गः यदि च रोगविशेष कुपथ्यभोजनादिना पुष्पकाद्युत्पत्तिस्तदा गोलकविकाराप्रयोज्यत्वं प्रयत्ने विशेषणमतो नाप्रसङ्गः उभयघट. कत्वं च चाक्षुषप्रागभावस्य चाक्षुषयोग्यत्वस्य वा योग्यत्वं च चक्षनिर्गमावरोधकशून्यच्छि द्रवत्वे सति चक्षः संयोगिगोलकत्वं गोलके तथाविधगोलकसमवेतत्वं शरीरे बोध्यमवच्छेदकतासंवन्धन शरीरे ज्ञानादेहत्यादान्न चाक्षुषप्रारभावहानिरतः सुप्ते काणे न काणपदाप्रयोगः योग्यत्वस्य घटकत्वे तु मृते ऽपि काणे शरीरस्य थावन्न सोफः शोषो बा तावत्काण पदप्रयोगो निष्प्रत्यूह एव तद्गोलकव्यक्तः सत्त्वात् सोफशोषयोरनन्तरं तत्र । काणशब्दो गौण इति एवं गोलकविकाराप्रयोजकयत्नाप्रयोज्यगोलकदयप्रयोज्यचाक्षुषाभाववत्त्वे सति चचर्निर्गमावरोधकशुन्यच्छिद्रवञ्चक्षुःसंयोगिगोलकसमवेतः काणपदार्थ: एवं तृतीयार्थी विकार: प्रयोज्यत्वेन दर्शितचाक्षुषाभावेऽन्वेति स च विकारः क चिह्नोलकनाश: यहलादुत्खातैकगोलके क चिच्चचर्नाश: यदलात्प्रसन्नैकचाक्षषाप्रयोजकगोलके मांसयितैकगोलके च क चित्युत्ष्मकादिः यदलात्पुष्पकादिमदेकगोलके काण पदस्य प्रयोगः न च पुष्पकादिनो चक्ष र्नाश एवेति वाच्यं पुष्पकाद्यपनये चाक्षु षानुत्पत्तिप्रसङ्गात् न च तव पुष्पकाद्यपनायकेन चक्षु रन्तरोत्पाद इति वाच्यं च च र्नाशचक्षु रन्तरतदुत्पत्तिप्रागभावनाशानां क
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विभक्त्यर्थनिर्णये। ल्पनापेक्षया पुष्पकादेश्चक्षुनिगमप्रतिवन्धकत्वकल्पनाया एव लघुत्वात् यत्र तु पुष्पकाद्यपनयेऽपि न चाक्षुषं तत्र चक्षुरन्तरोत्पादकल्पनाऽपि न सम्भवति किं तु पुष्पकादिप्रयोजकव्यक्तिविशेषस्य चक्ष शकत्वकल्पनैव अन्यथानुपपत्तेः विकारास्तु चाक्ष प्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मवत्तयाऽनुगतीकता अतो नाननुगमः एवं काकस्य शापेन गोलकहयप्रयोज्य चाक्षुषाभावन शतप्रयोज्येन न काणत्वमत एवाविकतगोलके काके न काण व्यवहारः न च शापस्यातीततया आधुनिककाकीनां कथमेकनेवत्वमिति वाच्यम् । काकत्वमामान्यलक्षणया सकलकाकोपस्थितौ शापस्य सकलकाकविषयत्वात् शापविषयता स्वसंवन्धमावेगोकनेत्रत्वं प्रयोजयति । अथ वा शापकालिकैकनेत्रकाकजातीयप्रयोज्यत्वेनाधुनिककाकानामेकनेत्रत्वं यथा हिनेत्रजातीयमनुष्यादिप्रयोज्यत्वेन मनुध्यादौनां हिनेवत्वं न"चैषीकमस्त्रसुदपास्यदथै नमक्षणा काणौचकार चरमो रघुराजपुत्र"इति कथ प्रयोग इति वाच्यम् । एषीकास्त्रप्रयुक्तगोलकोपघातस्यापि तथाविधचाक्षुषाभावप्रयोजकत्वात् विकारस्य स्वसंवन्धिगोलकप्रयोज्य चाक्षु षं प्रति प्रतिबन्धकत्वात् तादृशचाक्षु षाभावोऽपि चाक्ष षस्यैकदा गोलकहयप्रयोज्यत्वाभाव इव गोलकय प्रयोज्यचाचाक्ष षाभावं प्रयोजयति तथा चात्र टतीयार्थ ऐषौकास्वप्रयुक्तोपघातस्तत्प्रयोज्यत्वं गोलकहयप्रयोजाचाक्ष - षाभावे काकनिष्ठेऽबाधितमिति । अत एव काणमैषीकेणाहनदिति नोक्तमुक्ता च काणौचकारति अत एव
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तृतीयाविभक्तिविचारः । गोलकविकाराप्रयोजकत्वं प्रयत्नविशेषणमर्थवत् अन्यथाऽत्र काणत्वानुपपत्तेः शापस्तु न गालकविकारग्रयाजक: गोलकचक्ष :संयोगस्या नुत्पादो न विकार: विकारगणापठितत्वात् नाशस्तु गणितत्वाद्भवति विकार इति यदि चानुत्पादापि विकारस्तदा विकारप्रयाजकत्वात् शापाऽपि विकारस्तुतौयार्थ: प्रयोजात्वेन तथाविधचाक्ष षाभावन्वेिति सर्वे काकाः काणा इति प्रयोगोऽपोष्यत एवेति । एवं पादेन खञ्च इत्यत्र पादहयप्रयोजाप्लुतान्यगत्यभावववे सति प्लुतान्यगतियोग्यपादवान् खजपदार्थ : खञ्जस्यापि प्लुतगतिमत्त्वादप्रसङ्गवारणाय सत्यन्तमुपात्तं विकृतोभयपादवत्पतिप्रसङ्ग वारणाय विशेष्यदलं पादस्य प्लुतान्यगतियोग्यत्वं च विजातीयसंयोगवदवयवारण्यत्वं प्लुतान्य प्रयोजकमारम्मकसंयोगगतं वैजात्यमेवावश्यकत्वाद्यहिरहाज्जातमानबालस्यापि विसदृशपादाद्यवयवत्त्वमालक्ष्यते । एवं तृतीयार्थी तिकारः स चात्र क चिदामवातसंयोगः क्व चिदारम्भकसंयोगनाशकखण्डादिप्रहारः क चिटुधिरास्थिमांसाद्यवयवनाशप्रयोजको रोगविशेष ईदृश आहाराभावश्च क चिदारम्भकसंयोगनाशकवायुप्रयोजकः खल्याद्याहारः हतीयार्थः प्रयोजात्वेन तथाविधगत्यभावऽन्वति । एवं पादविकारप्रयुक्तपादहयप्रयोजाग्लुतान्यगत्यभाववान् प्लुतान्यगतियोग्यपादबानित्यन्वधबोध: । विकारास्तु तथाविधगतिप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मवत्तयाऽनुगमनीयाः क चित् शापापि विकारः अत एव सौरिः पादेन खञ्ज इति व्यवहारः
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
२४९ एवं पाणिना कुणिरित्यत्र कुणिपदार्थः कुकरत्वं तच्च करहयप्रयोज्यकार्यभाववत्वे सति तथाविधकार्ययोग्यपाणिमत्त्वं तथाविधकार्य तु धनुःप्रहरणादितान्त्रिकमुद्रादियोग्यत्वं च पाणः पादवबोध्यम् । हतीयार्थी विकारः स चाङ्गलौगलनादिः एवं प्राणिविकारप्रयोज्य करहयप्रयोज्यकार्याभाववान् तथाविधकार्ययोग्यपाणिमानित्यन्वयबोधः यदि च पाणिभ्यां कुणिरिति प्रयोगस्तदा करहयप्रयोज्यकार्याभाववत्त्वमेव कुणित्वं बोध्यमिति । एवं कार्याभावस्थाङ्गिविकारत्वोपगमे तान्यक्ष्णावधिराणि पन्नगकुलान्यष्टावि"ति प्रयोगस्तत्र बधिरत्वं श्रावण प्रत्यक्षाभावः पन्नगस्याक्षिगोलकं श्रवणेन्द्रियाधिष्ठानं तत्र गोल कावच्छिन्ने श्रोचे शब्दानुत्पादो गोलकस्य विकारस्तृतीयार्थः तस्य प्रयोज्यत्वेन श्रावणाभावेऽन्वयः एवं नेत्राभ्यामन्ध इति प्रयोगोऽपोष्ट एव चाक्षषाभावे अन्धवे नेत्रदयविकारस्य प्रयोज्यतयाऽन्वयः । एवं नासिकया नातेत्यत्र नासिकाया विकारः प्राणसन्निकर्षप्रयोजकनिर्गमप्रतिबन्धकः कफादिः क चिट् घ्राणनाशश्च तस्य प्रयोज्यत्वेन ब्राणजाभावेघाटत्वान्वयः । एवं जिव्हया रसवितेत्यत्र रसननिगमप्रतिबन्धको रोगादिः क चिद्रसननाशः क्व चित् खनाशश्च जिव्हाया विकारस च रासनाभावारसयिटत्वेऽन्वेति एवं त्वचाऽस्टशकइत्यत्र त्वचश्चर्मणो विकारः स्पर्शनेन्द्रियनिगमप्रतिबन्धको गजचर्मादिरोगः क चित्स्पर्शननाशश्च स च प्रयोज्यत्वेन स्मार्शनाभावेऽस्पृशकत्वेऽन्वेति । एवं श्रोत्रण वधिर इत्यत्र श्रीचं कर्णशष्कुलौ तस्याः खावच्छिन्ने न
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तृतीयाविभक्तिविचारः ।
भसि शब्दानुत्पाद: पूर्वोक्त एव स च रोगविशेषेणादृष्टविशेषविरहेण वा यथायोग्यं प्रयुज्यत इति । अवयवस्य नाशस्वरूपाऽपचय दूवोपचयोऽपि विकारः अत एव "स बाल आसोद्दपुषा चतुर्भुजो मुखेन पूर्वोन्दुमुखस्त्रिलोचन” इत्यत्र तृतीययोरुपचयोऽर्थः स च प्रयोज्यत्वेन भुजचतुष्टयसंबन्धेऽन्वेति वपुः पदं पूर्वकायपरमिति वदन्ति । तत्र जानुभ्यामूर्द्धज्ञः संज्ञर्वेति उदरेण पिचण्डिल इति च प्रयोगेऽभ्युपगमवादः तृतौयार्थोपचयस्यान्वयसम्भवात् यदि चोपचयोऽर्थो नाभ्युपेयते तदा चतुर्भुजशब्दस्य चतुसंख्यकभुजसमवेतोऽर्थस्तत्र तृतीयार्थोऽभेदो वपुर्विशेषितोऽन्वेति वर्णेन लोहित इतिवत् सुखविशेषितमाधेयत्वं तृतौयार्थो लोचनत्रयेऽन्वेति श्रवयवस्याप्यवयवित्तित्वं वृक्षे शाखेतिप्रतीतेः वपुषा सुखेनेत्युभयव तृतीया' प्रकृत्यादिभ्य" इतिवान्ति केन सिध्यति । उपलक्षणे तृतीयां ज्ञापयति । " इत्यंभूतलक्षणे" इति सूत्रम् । अस्यार्थः क चित्प्रकारं प्राप्तः इत्थंभूतः तस्य लक्षणमित्थंभूतलक्षणं तव तृतीयाविभक्तिर्भवतीति काशिका प्रकारो द्विविधः विशेषणमुपलक्षणं च खसमानकालिक बुद्धिप्रकारो विशेषणं स्वासमानकालिकबुद्धिप्रकार उपलक्षणं यथा गुरुया टीका कुरुणा क्षेत्रमित्यच कुरु गुरुः तथा चाव विद्यमानकालनिष्ठस्य ध्वंसस्य कादाचित्काभावस्य वा प्रतियोगित्वं संबन्ध तृतीयार्थः प्रतियोगित्व प्रकृत्यर्थे विशेषणतया संबन्धो विशेष्यतयाऽन्वेतीति एवमविद्यमानस्य गुरोष्टीका कुरो: क्षेत्रमित्यन्वयबोध इति केचित् । अत एव सूचे इत्थंभृतेत्यवाऽतीतार्थको निष्ठाप्रत्ययोती
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विभक्त्यर्थनिर्णये । तस्य लक्षणे संबन्धे तौया भवतीतिसूत्रार्थाभिप्रायेण प्रत्यक्षालोकातीतार्थान्यप्रत्ययेनासत्त्वबोधनादिति मिथैरेतन्मतोत्तम्भकतयोक्तः । अन्ये तु विद्यमानस्योपरि मान्यत: काकादेरुपलक्षणत्वमित्यन्यथाविशेषणोपलक्षणलक्षणं तथा हि यस्यां बुद्धौ यो यत्र प्रकार: स तत्र विशेषणं विशेषणोपस्थापकमविशेषणमुपलक्षणं यथा काकेनोपस्थापित: संस्थानविशेषः देवदत्तगृहे विशेषणीभूय भासते तत्प्रतीतावुपलक्षणं काक: एवं जटयोपस्थापितो विषयभोगाभावः तापसविशेषणम् एवं काकेन देवदत्तगृहा इत्यत्र काकत्तानजन्यज्ञानविषया देवदत्तगृहा इति जटाभिस्तापस इत्यत्र जटाज्ञानजन्यज्ञानविषयस्तापस इति चान्वयबोध इति वदन्ति तदत्र मते ज्ञानजन्यत्तानं टतौयार्थ इति तत्र प्रतियोगिना घटेनाभाव इत्यत्र - तीयोऽनुपपत्तिः प्रतियोगिनोऽभावविशेषणानुस्थापकत्वात् तदुक्तं प्रत्यक्षमणौ प्रतियोगिनाऽभावे धर्मान्तरानुपनयनाच्चेति" । शिवादित्यमिश्रास्तु साक्षात्संवई विशेषणं परम्परासंबद्धमुपलक्षणं तदुक्तम् ।
व्यावर्तनीयमधितिष्ठति यदि साक्षादेतहिशेषणमतो विपरीतमन्यत् । दण्डौ पुमानिति विशेषणमन दण्डः पुंसो न जातिरनुदण्डमसौ च तस्येति ।
अनुदण्डं दण्डमनुगता जातिनं पुंसो विशेषणं किं त्वसौ तस्य दण्डस्येत्यर्थः उपरिचमत्काकादिकं परम्परासंबद्धमुपलक्षणमित्याहुः । तत्र जटाभिस्तापसो दण्डेन पुरुष इत्यत्र जटादण्डयोः साचात्संबद्धयोरुपलक्षणत्वानुपपत्तिरत एव मणौ साक्षात्संबन्धेऽप्युपलक्षणत्वादि
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तृतीयाविभक्तिविचारः। त्यतम् । मणिकृदनुयायिनस्तु विशेषणमुपलक्षणमन्यादृशमेव तथा हि यचैकस्याव्यात्तेरनुयोगिता प्रतियोगिता चैकधर्मावच्छिन्ना तत्र व्याहत्तेरनुयोगितावच्छेदकत्वेन प्रतियोगितावच्छेदकौमूताभावप्रतियोगित्वेन प्रतीयमानत्वं विशेषणपदप्रतिनिमित्तं यथा दण्डी पुरुष इतिनिश्चयानन्तरमदण्डपुरुषव्यावृत्तो दण्डी पुरुष इति निश्चयो जायते तत्र पुरुषत्वेनैकेनावच्छिन्ना प्रतियोगिताऽनुयोगिता चैकस्याव्यात्तेः तदनुयोगिता दगडेनाप्यवच्छिद्यते तत्प्रतियोगितावच्छेदकीभूतदगडाभावप्रतियोगित्वं च दण्डे प्रतीयते दण्डी पुरुष दूत्यादौ दण्डः पुरुषविशेषणं यत्र तु प्रतियोगित्वानुयोगित्वयो.कधर्मावच्छिन्नत्वं तत्र पद्मत्वावच्छेदेन कुसुमान्यपवादिव्याटत्तेः प्रत्ययेऽपि कुसुमत्वं न विशेषणं पभस्येति । इदं तु विशेषणत्वमेकधर्मविशिष्टेोपरविशगस्य बोध्यं सामान्यतो विशेषणत्वं तु व्यावृत्त्यधिकरणतावच्छेदकतया व्यात्तिप्रतियोगितावच्छेदकोभूताभावप्रतियोगितया च प्रतीयमानत्वं यथो दण्डीत्यकस्या एव व्यायत्तेः प्रतियोगितावच्छेदकाभावप्रतियोगितयाऽधिकरणतावच्छेदकतया च दण्डो व्यावृत्तिबुद्दौ भासते सामान्यतो विशेषणत्वमपि दण्डस्य दगडी पुरुष इत्यत्र सम्भवति अत एव मणौ दण्डी पुरुष इति ज्ञानानन्तरं दगडवत्वदण्डव्यात्तिरवगम्यत इति प्रत्याय्य व्यावृत्त्यधिकरणता पुरुषस्य दण्डेनावच्छि द्यते न पुरुषत्वेनातिव्याप्तेरित्युक्त सामान्यतो विशेषणत्वं व्यतिरेकिधर्ममावस्य सम्भवति केवलान्वयिनि धर्मे व्यावृत्तर
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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प्रसिया विशेषणत्वसामान्याभाव इति । प्रतीयमानत्वगर्भं विशेषणत्वं व्यावृत्तेर्बुद्धौ न विषयः किं तु तदनुव्यवसायादौ काकवन्तो देवदत्तगृहा इत्यत्र देवदत्तख त्वशून्य गृहव्यावृत्तिः संस्थानविशेषवत्त्वावच्छेदेन प्रतीयते न तु काकवत्त्वं तदवच्छेदकत्वं तदसत्त्वकालेऽपि दर्शितव्यावृत्तः प्रतीतेश्च सत्त्वान्न्यूनवृत्तित्वादिति काको न विशेषणमपि तु व्यावृत्तिबुद्धिप्रकोरतया व्याटत्यवच्छेद कीपस्थापकतया वा व्यावर्त्त कतयोपलक्षणं तथा च व्यावृत्त्यधिकरणतानवच्छेदकत्वे सति व्यावर्तकत्वमुपलक्षणत्वमत एव मणौ प्रत्याय्य व्याहत्र्त्यधिकरणतावच्छेदकत्वे सति व्यावर्तकं विशेषणं तदन्यद्यावर्तकमुपलचणमित्युक्त व्याष्टत्त्यधिकरणताया अवच्छेदकत्वं खरूपसंबन्धविशेषः श्रत एव तदवच्छेदकत्वं संयोगादाविव तेन समं खरूपसंबन्धविशेष इति मिश्रैरुक्तं व्यावर्तकत्वं व्यात्तिबुद्धिप्रयोजक बुद्दिविषयत्वं व्याटत्त्यबोधकालेऽपि विशेषणत्वबुद्धिप्रसङ्गवारणार्थमुपातम् । अत एव मणौ व्याटत्युल्लेखानन्तरमेव विशेषणत्वबुद्धिरित्यक्त न च व्याटत्तेरबोधकाले तदवच्छेदकत्वाग्रहसम्भवेनैव विशेषणत्वबुद्धेर्न प्रसङ्ग इति वाच्यम् । शब्दादिना तदवच्छेदकत्वग्रह सम्भवात् । अत एवादण्डव्यावृत्त्यधिकरणतावच्छेदको दण्ड इति शब्दादवगमेऽपि तद्दत्यदण्डव्यष्टश्यप्रतीतेः सर्वसिद्धत्वादिन्द्रियासंनिकर्षादिना प्रत्यक्षादिसामग्रप्रभावादिति मिश्रैरुक्तं एवमौदृशविशेषणत्वाभावद्यावर्तकमुपलक्षणं वस्तु सत्युपलक्षणे प्रातिपदिकेनोपस्थापिते संबन्धमाचं तृतीयार्थः काकेन देवद
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२५४
तृतीयाविभक्तिविचारः ।
तगृहा इत्यत्र काकसंबन्धिनो देवदत्तगृहा इत्यन्वयबोधः प्रमेयत्वादेरव्यावर्तकत्वादुपलक्षणत्वमपि न सम्भवतीति प्रमेयत्वेन घट इति न प्रयोगः अत एव प्रकारो विविध इत्यव प्रकारपदं व्यावर्तकपरतया मिश्रव्र्याख्यातं यत्तु पशुना रुद्रं यजेतेत्यत्र पशुगत मेकत्वं विशेषणां ग्रहं संमात्यव ग्रहगत मेकत्वमुपलक्षणमिति छान्दसानां व्यवहारः स च विशिष्टान्वयनिबन्धन: पशुनेत्यादौ तृतीयार्थ कर्मत्वे पशोरेकत्वविशिष्टस्यान्वयः यथा चैकत्ववैशिष्ट्यं पशौ तथोपपादितं वचनार्थविवरणे ग्रहमित्यादावेकत्वविशिष्टस्य ग्रहस्य संमार्गकर्मत्वेनान्वय इति विशिष्टान्वये पशोरेकत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकः संसर्गो भामत इत्येकः पचः । एकत्वे पशौच प्रकारता पर्याप्तेति द्वितीयः । एकत्वावच्छिन्ना पशु प्रकारताऽथ वा पशुविशेष्यतया कर्मतादिविशे ष्यतया च साचात्परम्परासंबन्ध हयावच्छिन्न मेक मे वैकत्वप्रकारत्वं निरूप्यत इति तृतीयः । तथा चेदृशविशिष्टविषयतामापन्नो विशेषणमनापन्न उपलक्षणमिति । अत एव मणावुद्देश्यान्वयप्रतियोगो धर्मो विशेषणं तदन्यदुपलक्षणमिति सिद्धान्तपर्यवसानं काकवन्तो देवदत्तग्रहा दूत्यत्र उद्देश्याया देवदत्तस्वत्वशून्य गृहग्रावृत्त रन्वयितावच्छेदकत्वं काकस्य न सम्भवतीति काको न विशेषणं यदि चाकाकवनावृत्तिरुद्देश्या तदा विशेषणमेव । एवं ग्रहमित्यादावेकत्वविशिष्टग्रह कर्मत्वस्य संमार्गेऽन्वयो नोद्देश्यः किं तु प्रस्तुत सकलग्रह कर्मत्वस्येत्ये कत्वं न विशेषणम् । एवमुक्तविशेषणं कचित्प्रमेयत्वस्यापि प्रमेय
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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बूति प्रमेयं जानातीत्यत्र प्रमेयत्वविशिष्टकर्मत्वस्य ज्ञानेऽन्वयादन्यथा प्रमेय इति ज्ञानाभेदान्वयानुपपत्तेरत एव न हि प्रमेयत्वविशिष्टं प्रमेयपदशकयमित्यव प्रमेयत्वं न विशेषणं प्रमेयत्वस्या शक्यत्वापत्तरिति मिश्रमक्तम् । यदा दण्डविशिष्टपुरुवस्यान्वयो न विवक्षितस्तदा दण्डो न विशेषणं किं तूपलक्षणमत एव दण्डेन पुरुषमानयेत्यादिः प्रयोग इतीदृशोपलक्षणे वस्तुभूते प्रकृत्यर्थे सति संबन्धमात्रार्थिका तृतीया भवतीत्याहुः । ननु तृतीयायाः संबन्धमावार्थकत्वे प्रमेयत्वेन द्रवात्वेन वा पुरुषमानयेत्यादिकः कुतो न प्रयोग इति चेन्न सएव हि संबन्धस्तृतीयार्थी य उद्देश्यान्वयप्रतियोगी भ वति अन्यथा उपलक्षयतृतीयान्तप्रयोगस्य वैयर्थ्यापत्तेः प्रमेयत्वादेस्तु न तादृशः संबन्धः पुरुषादाविति तव प्रमेयत्वादिकं नोपलक्षणमिति काकेन देवदत्तगृहा इत्यव काकस्य स्वप्रयोज्य संस्थानविशेष उत्तत्वं संबन्धस्तृतौयार्थस्तस्य देवदत्तत्वशून्यगृह वावृत्ते रद्द - श्या या अन्वयितावच्छेदकत्वात् अत एव काकपदेनोपस्थाप्यः काक इव तत्संबन्धस्तु मतुपा बोधितः काककारित संस्थानविशेष इति मिश्रैरुक्तं जटाभिस्तापस इत्यंत्र जटानां स्वप्रयोजक केशा संयमप्रयोजकव्रतवत्वं संबन्धस्तृतीयार्थः व्रतस्य केशासंयम प्रयोजकत्वं तु केशसंयमस्य निषिद्धतया केशसंयमेन कर्तव्यजपादिकर्मणः कालातिपातशङ्कया यदि च संयतकेशोऽपि तापसस्तदा केशसंयमादिस्तस्य न कर्तव्यजपादिविरोधोति तदा स्वप्रयोजकोभूताभावप्रतियोगि केशसंयमाप्रयोजितावे
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२५६ तृतीयाविभक्तिविचारः। गण्यकव्रतं संबन्धस्तुतौयार्थः अवैगण्यमनिषिद्धत्वं कर्तव्यजपादिलोपविरहो वा केशसंयमप्रयुक्तजपादिलोपस्य विषयासक्त केशिनि सम्भवान्नाप्रसिद्धिः केशसंयमप्रयुक्ताजपादिलोपविरहस्य संयतासंयतकेशयात्रते समानत्वादिति दशितव्रतत्वमेव तापसव्यात्त कह श्याया अन्वयितावच्छेदकं तस्य जटायाः सत्त्वासत्वदशायामप्यविकलत्वात् । अत एव संस्थानविशे षवत्त्वादिनेति मूले व्रतविशेषवत्त्वादिरादिपदार्थ इति दर्पणे ठकुराः । व्रते विशेषो जटासंबन्धतावच्छेदको दशित एव गुरुणा टीकेत्यत्र विवरणवाक्यं टोकाशब्दार्थः गुरुप्रयोजिता तत्सजोतीया वाऽनुपर्वी संबन्धस्ततीयार्थः स च टीकान्तरव्यावृत्ते रुद्दे श्याया अन्वयितावच्छेदको भवत्येवेति कुरुणा क्षेत्रमित्यत्न कुरोः स्वकष्टक्षेत्रपरमाणुभिरारभ्यत्वं संबन्ध स्ततीयार्थः स च क्षेत्रान्तरव्याहत्तरुद्देश्याया अन्वयितावच्छेदको भवत्येवेति दण्डेन पुरुषमानय दूत्यत्र दण्डस्य स्वसंयोगप्रागभावनाशस्संबन्धस्तुतौयार्थ: स च दगठसत्त्वासत्त्वदशायामप्यविकल इति गृहीतदण्डपुरुषव्याटत्ते रुद्देश्याया अन्वयितावच्छेदको भवति न चाचोपलक्षणटतीयाया अत्यन्ताभावसंबन्धश्चाथस्तथा च पुरुषे दण्डात्यन्ताभावो दण्डसंबन्धश्च प्रतीयत इति वाच्य दर्शितव्यापकानन्तरं दण्डसहितपुरुषानयने दर्शितवाक्यस्याप्रमाण्यप्रसङ्गात्पुरुष दण्डदण्डात्यन्ताभीवासत्त्वात् जटाभिस्तापस इत्यत्र जटाया विद्यमानतया तदत्यन्ताभावस्य तापसे बोधयितुमशक्यत्वाच्च । एवं काशिकायामुदाहृतमपि भवान् कमण्ड
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
२५७ लुना छात्मद्राक्षीत् छानेणोपाध्यायं शिक्षया परिव्राजकमिति तत्वाध्ययनशीलः छानशब्दार्थः कमण्डलो: स्वप्रयोज्याचमनसजातीयमध्ययनपूर्वाङ्गाचमनं संबन्धस्ततीयार्थ:"पौत्वाऽपोऽध्येष्यमाणचे"ति स्मतेराचमनमध्ययनपूर्वाङ्गं भवति तथाविधाचमनमच्छाचव्यावृत्तेरन्वयितावच्छेदकं भवत्येव न हि संबन्धस्य तौयार्थतावच्छेदकरूपेणैवान्वयितावच्छेदकं किं तु यदेव लघुभूतमनतिप्रसक्तं तेन रूपेण अत एव काकप्रयोज्योत्तुणत्वत्वेनोत्तणत्वस्य तृतीयार्थत्वेऽप्युत्त णत्वत्वेनैवान्वयितावच्छेदकत्वं छात्रस्य । खाध्ययनप्रयोजकमध्यापनं संबन्धस्तृतीयार्थः अध्यापनं वाक्यविशेषः उपाध्यायोऽध्यापनयोग्यः योग्यत्वं तु अधमापनवाक्यतदर्थगोचरदृढसंस्कारवत्त्वे सति वतत्वं वक्तात्वोपादानादवगतशास्त्राथस्य मूकस्य व्युदासः एवमध्यापनमुपाध्यायान्यव्याहत्तेरन्वयितावच्छेदकं भवत्येव शिखायास्तत्संयोगस्य वा विहितो ध्वंसः संबन्धस्तुतीयार्थः विहितशिखाध्वंसः परिव्राजकाच्चतुर्थाश्रमिणोऽन्यस्य व्यायत्तेरन्वयितावच्छेदको भवति विहितत्वोपादानाद्यवने शिखाध्वंसस्य सत्त्वेऽपि नावच्छेदकत्वहानिः । यदि च सौगतपरिव्राजको लक्ष्यस्तदाविहितभिक्षाशीलः परिव्राजकशब्दार्थः विहितत्वं तु कालान्तरभाविफलसाधनताबोधकविधिवाक्य विषयत्वं तादृशविधिवाक्यं वेदः सौगतागमञ्च तथासति विहितशिखाध्वंसः मशिखस्य विहित भिक्षाशीलस्य ब्रह्मचर्यादेाहत्तरन्वयितावच्छेदको भवतीति प्राचीनमतानुसारो पन्थाः वस्तुतस्तु गुरुणा कुरुणा शिखयेत्यत्न दर्शित एवार्थ: का
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૨૬૮
तृतीयाविभक्तिविचारः । केन देवदत्तमहा इत्यत्र समासेन रहे देववृत्तवत्वस्य बोधने तच्छ्न्य गृहव्यातिप्रतीतेस्तत एव सम्भवात् ढंतीयान्तस्य वैयर्यमेव काकेन रहा देवदत्तस्येत्यत्र काकस्य गृहे अन्तःप्रवेशप्रागभावनाशः संबन्धस्तुतीयार्थः स च काके प्रविष्ट ऽन्यत्र गते चाविकल इति अन्तरप्रविष्टकाकस्य गृहस्य व्यावृत्तेरन्वयितावच्छेदको भवति सा व्यात्तिः समनियताभावानामैक्ये वरूपभेदेऽपि लिगतया देवदत्तखत्वशन्यगृहव्यात्तिं गमयति कमण्डलुना जटाभिरित्यत्र खसंयोगप्रागभावनाशः संबन्धस्ततीयार्थ: स च तयोः सत्त्वासत्त्वदशायामविकल इति । अधृतकमण्डलोशछात्रस्यातजटस्य तापसस्य व्याहत्तयथायोग्यमन्वयितावच्छेदको भवति अत एव इह न भवति कमण्डलुपाणिशछात्र इति लक्षणस्य समासान्तभूतत्वादिति काशिका ममासे टतौया निषेधिका संगच्छते लक्षणं संबन्धः स च नाचमनरूप: पाणौ कमण्डलोः सम्भवतीति न समासेन बोधयितुं शक्य इति तीयानिषेधानुपपत्तिः दर्शितसंबन्धस्तु कमण्डलोः पाणौ सम्भवतीति समासेन बोधित इति तृतीयानिषेधोपपत्तिरुतार्थानामप्रयोग इति न्यायादिति । छात्रणेत्यत्र छात्रस्य स्वाध्ययने छात्र प्रयोज्यनिवासप्रागभावनाशाधिकरणदेशाधिष्ठाटत्वमुपाध्याये संबन्धस्तृतौयार्थः स च छावनिवाससत्त्वासत्त्वदशाथामविकल इति अच्छावस्य -छात्वाकृतनिवासदेशाधिष्टातुरूपाध्यायस्य व्यावृत्तेरन्वयितावच्छेदको भवति एवमनया रौत्याऽन्यत्रापि सुधौभिरूह्यः संबन्ध इति । यत्तु वैशिष्टा वतीयार्थः यस्य वै
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
शिष्टा विद्यमानतया प्रतीयते तद्विशेषणं यस्याविद्यमानतया तत्त पलक्षणमिति तन्त्र अविद्यमानस्य वैशिटास्य तृतीयासहस्रेणापि बोधयितुमशक्यत्वात् योग्यताविरहात् श्यामेन घट दूत्यव वैशिष्टयस्य ममवायस्य रक्ततादशायामपि विद्यमानत्वात् श्यामस्योपलक्षणत्वानुपपत्ते: जटाभिस्तापस इत्यव तत्संबन्धस्य विद्यमानत्वादुपलक्षणत्वानुपपत्तेः यदपि संबन्धमा तृतीयाऽर्थः संबन्धो यस्य विद्यमानस्य प्रतीयते तद्विशेषणं यस्याविद्यमानस्थ तब मतुबादेर्वाधात्त तौयैवेति तदुपलक्षणमिति तदपि न सुन्दरं घटो विनाशीत्यवाविद्यमानस्य नाशस्येन्प्रत्ययेन संबन्धबोधनात् न चात्र प्रत्ययस्माधुत्वार्थः धात्वर्थो नाशः जानातीत्यादाविव प्रथमान्तार्थे साक्षादेवान्वयौति वाच्यं तथासति विनाशो न स्या स्यतीत्यत्रान्वयबोधानुपपत्तेः भावस्थितिकर्तत्वाभावस्य विनाशे बोधयितुमशक्यत्वात् किं चोत्पत्तिकालिको घटो गन्धवानित्यत्वाविद्यमानस्य गन्धस्य संवन्धो मतुपा बोध्यते तदनुपपत्तिः जटाभिस्तापस इत्यत्र विद्यमानाया जटायास्ततौयया संबन्धबोधने उपलक्षणत्वानुपपत्तिश्च श्यामेन घट इत्यव श्यामस्य स्वप्रागभावनाशः संबन्धः स चाजातश्यामघटव्यावृत्तं रन्वयितावच्छेदको भवति घटेनाभाव इत्यव घटस्य स्वप्रतियोगितानिरूपितानुयोगित्वं संबन्धस्तृतौयार्थः स च घटाप्रतियोगिको भावव्यावृत्ते रन्वयिताबछेदको भवति । न चात्र दर्शितसंबन्धेन घट एवान्वयितावच्छेदकोऽस्त्विति वाच्यं घटस्यातीतत्वेऽपि व्यावृत्तिबुदयादिति ।
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तृतीयाविभक्तिविचारः। कलक्कणितगर्भण कण्ठेनापूर्णितेक्षणः ।
पारावतः परिक्रम्य रिरंसुश्शुम्बति प्रियाम् ।। - इत्यत्र तृतीयार्थ आधेयत्वं तथाविधकण्ठे समवेते पारावते परिभ्रमणोत्तरप्रियाचुम्बनकट त्वान्वय इति आधेयत्वे टतीया प्रकृत्यादिभ्य इति वाति कसिद्धेति हैतुत्वार्थिकां तृतीयां ज्ञापयति "हेतो"इति सूत्रं हेतावर्थे तृतीया स्थादित्यर्थक हैताविति भावप्रधानो निर्देशः तथा च हेतुत्वं तृतीयार्थस्तञ्च विविध कारणत्वं ज्ञापकत्वं च कारणत्वं च साक्षात्परम्परासंबन्धावच्छिन्न हिविधं तत्व साक्षाद्यथा तन्तुभिस्तन्तनां मिलनेन वा पटः पाकेन सौरभं माधुर्य रतिमा वा क्षौरस्येति परम्परया यथा दण्डेन घटः बहिना धर्मः ओदनेन तृप्तिः यागेन स्वर्ग: अनुभवेन स्मरणं चेति अत्र प्रकृत्यर्थम्याधेयतया ततौयार्थे हेतुत्वे तस्य निरूपकतया कायें पटादावन्वयः तथा च तन्तुत्तिकारणतानिरूपको घट इत्याकारकोऽन्वयबोधः यदच निर्व्यापारसाधनं हेतुस्तृतीयार्थस्तस्योदाहरणं दण्डेन घट इति शाब्दिकमतं तल्लौकिकपदार्थानामप्यनभिज्ञानं सूचयति चक्रभ्रमिहारैव दगडो घटोत्पादक इति सकललोकावधारणविरोधादिति । ज्ञापकत्वं यथा धूमेन वह्निरित्यादि अत्रापि प्रकृत्यर्थस्याधेयतया तृतीयार्थे चापकत्वे तस्य निरूपकतया ज्ञाप्ये बनद्यादावन्वयः तथा च धूमत्तिज्ञा पकतानिरूपको वद्भिरित्यन्वयबोधः । मणिकृतस्तु ज्ञापकत्वं न ततौयार्थ: तथासति चक्षुषा रूममिति प्रयोगप्रसङ्गात् किं तु धमेन वद्भिरित्यत्न धमपदं धूमनाने वसिपदं वह्नित्ताने ज्ञाय
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२६१
विभक्त्यर्थनिर्णये। मानवह्नौ वा लाक्षणिक ततोयार्थो हेतुत्वं तस्य निरूपकतयो लक्ष्यैकदेशे जायमानविशेषणे ज्ञानेऽन्वयः तथा च धमत्तानत्तिहेतुतानिरूपकज्ञानविषयो वहिरित्यन्वयबोधः चेष्टाविशेषण पचतौत्यत्र विशेषशब्दस्य चेष्टाविशेषज्ञाने तिडो ज्ञायमानतो लक्षणा तथा च चेष्टाविशेषज्ञानत्तिहेतुतानिरूपकज्ञानविषयः पाककृतिरिन्यन्वयबोधः । विभत्यर्थयोः परस्परं नान्वय इत्यप्रामाणिकमेव प्रामाणिकं चेत्सुबर्थयोरेव तथात्वं एवमन्यवापि ज्ञाने लक्षणा यथा प्रत्यक्षोपजीवकत्वेन निरूप्यते इत्यादौ त्वप्रत्ययस्य प्रत्यक्षोपजीवकत्वज्ञाने लक्षणा लच्यमाधेयत्वेन ततौयोर्थ हेतुत्वे तच्च निरूपकतया निरूपणेऽन्वेति प्रत्यक्षोपजीवकत्वसङ्गतेनिं तज्जिज्ञासाया जिज्ञापयिषाया वा प्रयोजकतया निरूपणजनकम् एवं वेदेन प्रवर्तते इत्यत्र वेदपदस्य वेदज्ञाने लक्षणा वेदनानस्य वेदार्थे इष्टसाधनत्वगोचरज्ञानप्रयोजकतया प्रवत्तिजनकत्वमित्याहुः । एकदेशिनस्तु न जनकत्वं न वा जापकत्वं तृतीयार्थस्तथासति घटो न रासभेगतिवत् घटो न दण्डेनेति प्रयोगप्रसङ्गात् खरूपसंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य दण्डहेतुत्वाभावस्य घटेपि सत्त्वात् निरूपकतासंबन्धस्य हत्यनियामकतया प्रतियोगितानवच्छेदकत्वादिति जन्यत्वं ज्ञाप्यत्वं च टतीया) इत्याहुः तच्चिन्त्यं त्तिनियामकसंवन्धस्य प्रतियोगितानवच्छेदकत्वे युक्तहितीयाविवरण दर्शितत्वात् अन्यथा प्रकृते ऽपि घटो न पारिमाण्डल्यनेत्यवान्वयबोधानुपपत्त: पारिमाण्डल्यजन्यत्वस्या
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२६२ तृतीयाविभक्तिविचारः। प्रसिद्धतया तदभावबोधासम्भवात् वृत्तिनियामकस्य तथात्वे तु तृतीयार्थे हेतुत्वे आधेयतया जन्यत्वे निरूपकतया संवन्धेन प्रकृत्यर्थाभावस्य नञा वोधनसम्मवादन्वयवोधोपपत्तिः गगनं न पारिमाण्डल्येनेत्यादिवाक्यमयोग्यमेव योग्यं चेत्तदा नजा देधा ऽभावो बोध्यते अत: प्रकृत्यर्थाभावविशिष्टजन्य त्वस्याभावो गगने प्रतीयते गगनमन्धो न पश्यतीत्यत्र द्वेधा नजथबोधवत् वस्तुतस्तु हेताविति सूत्र हेतुपदेन हेतुत्वस्य प्रतिपादनाद् हेतुस्वं तृतीयाऽर्थः न हि हेतुपदस्य जाप्यं ज्ञापकं वा शक्यं येन तत्त्वं प्रतीयेत सूत्र लक्षणाकल्पने प्रयोजनविरहः कोशादिज्ञापकाभावेन रूढिविरहश्च परिपन्यो धूमेन वनिहरित्यादिप्रयोगो न दृत्तिग्रन्थादौ दृष्टचर इति काशिकायां धनेन कुलं कन्यया शोकः विद्यया यश इत्युदाहृतं तत्र कुलस्य सन्तानस्य हेतुत्वं धनस्य दारपरिग्रहादिप्रयोजकतया कन्यायोः शोकहेतुत्वं विश्लेषप्रयोजकदानप्रयोजकतया विद्याया यशोहेतुत्वमधापनादिप्रयोजकतया बोध्यमिति फलमपोह हेतुः फलं कार्य तथा च ततौयार्थ हेतुत्वे यथाऽऽधेयतया तथा निरूपकतथा ऽपि प्रकृत्यर्थस्यान्वयः कार्यस्य हेतुतानिरूपकत्वात् अथ वा तृतीयार्थे जन्यत्वे यथा निरूपकतया तथाऽधेियतयाऽपि प्रकृत्यर्थम्यान्वय: कार्यस्याधिकरणत्वात् फलं हेतुर्यथाऽध्ययनेन वसतीत्यनाध्ययननिरूपितहेतुताकोऽधायनजन्यतानिरूपको वा बासो वाक्यार्थः । “अलं महीपाल तव श्रमेणे" त्यत्वे फलोद्देश्यककृतिविषयः फलाजनकोऽलंपदार्थः निष्फलस्य कृतिविषयस्य श्रमजनकत्वं
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विभक्त्यर्थनिर्णये। निराबाधमिति श्रमजन्यतानिरूपकत्वमलंपदार्थेऽन्वेति अतः फलहेतुताथा नामार्थान्वयान्न कारकत्वमिति एवं दुःखनाधीतं दु.खेनार्जितं दुःखेन विद्या दुःखन धनं श्रमेण यदुपार्जितमित्यत्र फलहेतुत्वान्बयो नया रीत्या बोधाः निर्वाणेन सुगतमुपास्ते जाल्म इत्यत्व निर्वाणपदेस्य ल्युट्प्रत्ययस्य वा निर्वाणज्ञाने लक्षणा तस्य फलेच्छाचिकीर्षाप्रतिप्रयोजकतथा सुगतोपासनजनकत्वं प्रत्यक्षोपजीवकत्वज्ञानस्य निरूपण जनकत्ववदिति नात्र फलहेतुत्वमिति । फलवाचकस्य हेतुपदसामानाधिकरण्ये षष्ठौं ज्ञापयति । “षष्ठीहेतुप्रयोगे" इति सूत्र हेतुपदप्रयोगे षष्ठीविभक्तिर्भवतीत्यर्थकं टतीयाऽपवादः हेतुशब्दस्य हेतुतानिरूपको ज यताऽऽश्रयो वाऽर्थः षष्या हेतुत्वं जन्यत्वं वाऽर्थः हेतुशब्दप्रयोगे षष्ठौ यथाऽध्ययनस्य हेतोर्वसति अब हेतोस्तादात्म्यनाध्ययन तस्य षष्टार्थे तस्य वासेऽन्वयः तथा च हेतुतानिरूपकाभिन्नाध्ययननिरूपितहेतुताश्रयो हेतुतानिरूपकाध्ययननिष्ठजन्यतानिरूपको वा वासो वाक्यार्थः एवमन्नस्य हेतो तस्य हेतोर्वा वसतीत्यादावष्यन्वयो बोध्यः हेतुपदसामानाधिकरण्यं कर्मधारयोपि भवति सूत्र प्रयोगशब्दस्य सामानाधिकरण्यार्थकत्वात् तथा चाध्ययन हेतोवसतीत्यपि प्रमाणम् अवाध्ययनस्य तादात्म्येन हेतुपदार्थे हेतुतानिरूपके तस्य निरूप्यतया षष्टयर्थे हेतुत्वे विशेष्यविशेषणभाववैचिल्यणान्वयो ज्ञानवतां ज्ञानमित्यवेव निष्प्रत्यूहः हेतुशब्दसमानाधिकरणसर्वनाम्नस्तुतीयां प्रतिप्रसते । “सवनाम्नस्तृतीया चे"ति सूत्रम् । हेतुशब्दप्रयोगे सर्वनाम
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तृतीयाविभक्तिविचारः ।
स्वतौया भवति चकारात्षयपौत्यर्थकम् । तृतीयाषष्ठप्रोAgrahari: यो विभक्तिर्यथा केन हेतुना वसति कस्य हेतोर्वसति अत्र किम: जिज्ञासा प्रकारत्नोपल चितधर्मवानर्थ: जिज्ञासा तु अवगतधर्मावान्तरधर्म प्रकारकज्ञानेच्छा बोध्या येन हेतुना यस्य हेतोर्वा वसति तदस्यातिरमणीयमध्ययनं अत्र यच्छव्दस्य ममभिव्याहृतधर्मावान्तरधर्मवानर्थः समभिव्याहृतो धर्मः हेतुत्वं तदवान्तरो धर्मः अध्ययनं अत एव तच्छन्दस्याध्ययनसामानाधिकरण्यं येन वसतोत्यादौ समभिव्याहतो धातुरेव समभिव्याहारः सुबन्ततिङन्तपदे बोध्यः धात्वयें तृतीयार्थी हेतुत्वं विशेषणतया धर्म एवेति नानुपपत्तिः यदधीते तेन हेतुना तथ्य हेतोर्वा वसति श्रवाधीतेस्तेन हेतुना तस्य हेतोर्वा वसति वेत्यादौ तच्छब्दस्य यच्छन्दार्थाग्वितपदान्तरार्थतावच्छेदकत्वोपलचितधर्मवानर्थः पूर्वबुद्धिप्रकारत्वो पलक्षितधर्मवान्वाऽर्थः एवं हेतुशव्दार्थस्य सर्वनामार्थे तस्य तृतीयार्थे षष्टार्थे वा हेतुत्वे at arcasaः पूर्वोक्तरीत्या बोध्यः । निमित्तकारण'हेतुषु सर्वासां प्रायदर्शनमिति वार्त्तिकम् । निमित्तादिशब्दप्रयोगे सर्वनाम्नः सर्वा विभक्तयो भवन्तीत्यर्थ कं तेन किं निमित्तं केन निमित्तेन कस्मै निमित्ताय कस्य निमित्तस्य कस्मिन् निमित्त वा वसतीत्यत्र विभक्तीनां हेतुत्वमर्थोऽन्वयः पूर्ववत् एवं कारणादिशब्दप्रयोगे बोधा कारणाद्युपादानं, पर्यायग्रहणार्थं तेन किं प्रयोजनं केन अर्थान्तरे तृप्रयोजनेन वा वसतीत्यादि बोध्यम् । तयां ज्ञापयति । " प्रसितोत्सुकाभ्यां तृतीया च' इति
तस्य
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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सूत्रम् । प्रसितोत्सुकाभा योगे तृतीया भवति चकारात्सप्तम्यपौत्यर्थकम् । प्रसित उसको वा हरिणा प्रसित उत्सुको वा 'हरौ प्रसितः प्रसक्त आसक्तः लयवानिति यावत् लयो धारापन्नं ज्ञानं तादृगिच्छा वो उत्सुक उत्कण्ठाबान् उत्कण्ठा उत्कटेच्छा एवं तृतीयासप्रम्योर्विषयत्वमर्थस्तस्य प्रतियोगितया लये उत्कण्ठायां चान्वयस्तथा च हरिविषयताप्रतियोगिलयवान् हरिविषयताप्रतियोग्युत्कण्ठावानिति चान्वयबोध: एवं केशैः केशेषु वा प्रसितः केशैः केशेषु वा उत्सुकः इति काशिकोदाहरणे अनया रोत्याऽन्वयो बोधाः । पुनरर्थान्तरे तृतीयां ज्ञापयति । " नचचे च लुपि" इति सूत्रम् लुप्तदितान्तार्थे वर्तमानात् नक्षत्रविशेषार्थकशब्दातीयासप्तम्यौ भवत इत्यर्थ विशेषार्थका दखिन्यादिशब्दात् ततायो युक्तः कालोऽर्थः तद्वितस्य लोपेऽनुसन्धानेनाश्विन्यादिशब्दस्य निरूढलक्षणया वाऽश्विनौयुक्तः कालः प्रतीयते । एवं पुष्येण पुष्ये वा पायसमश्नीयात् पुध्ये पुष्ये वा चौरमस्य इत्यत्र पुष्यपदस्य पुष्ययुक्तः कालोऽर्थः तृतौयासप्तम्योरुत्पत्तिरर्थः पुष्ययुक्तकालव्यत्तिकत्वं पायसभोजने चौरे चान्वेति । एवं "मूलेनावाहयहेव श्रवणेन विसर्जयेदि "त्यत्रावाहनमधिष्ठानफलको व्यापारः, अधिष्ठानं संबन्धः स च संयोगादिस्तद्बुद्धिर्वा संबन्धाभावस्तदुद्धिर्वानधिष्ठानं तत्फलको व्यापारो विसर्जनं मूलयुक्तकालोत्पत्तिकत्वम् श्रावाहने श्रवणयुक्तका - लोत्पत्तिकत्वं विसर्जनेऽस्वेति श्रत्र साधुनिपुणेति सूत्रादनुवर्तमानतया सप्तभ्या अधिकरणार्थकत्वं नियुक्तिक
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तृतीयाविभक्तिविचारः। न च तथासति साधुनिपुणसूत्रप्रतिपादिताऽर्चा सप्तमीततीययोरर्थोऽस्विति वाच्यम् । तथासति केश: केशषु वा पुष्येण पुण्ये वेति दर्शितोदाहरणेऽर्चावाधात्सप्तम्याद्यर्थानन्वयप्रसङ्गात् तस्मादन्तराअन्तरेणयुक्तो इति सूत्रमिव प्रकृतसत्रद्यमपि विभक्तर्विधायकं न तु तदर्थप्रतिपादकमिति न बाधिकरणार्थकत्वं सप्तम्या: सम्भवति तथासति कृत्तिकादिकते दौरेऽपि पुष्येण पुष्य वा चौरमस्येति प्रयोगप्रसङ्गात् क्षौरस्य क्षुरजन्यकेशनाशस्य कत्तिकाकतस्य पुष्यपि प्रवृत्तरिति । सदृशशब्दादियोगे तृतीयां ज्ञापयति । "तुल्याथै रतुलोपमाभ्यां तृतीयाऽन्यतरस्याम्" इति सूर्य तुल्यार्थैः शब्दोगे तृतीया षष्ठी च . भवतीत्यर्थकं चन्द्रेण चन्द्रस्य वा तुल्यं मुखमित्यादौसादृश्याश्रयः तुल्यशब्दार्थ: सादृश्यान्वयिप्रतियोगित्वं
ततौयाषधोरथस्तत्व यदि सादृश्यतिरिक्तः पदाथस्त..दा तत्प्रतियोगित्वमपि तथेति चन्द्र प्रतियोगिताकसा
दृश्याश्रयो मुखमित्यन्वयवोधः यदि च वृत्तिमधर्मो भेदश्च इयं सादृश्यं तदा वृत्त्यन्वयिनिरूपकत्वखरूपं प्रतियोगित्वं प्रतियोगितानिरूपिताऽनुयोगिता च हयं - तीयाषष्योरथः तथा च चन्द्रप्रतियोगितानिरूपिताऽनुयोगिताकभेदाश्रयः चन्द्रनिरूपकटत्तिमद्धर्माश्रयश्च मुखमित्यन्वयबोधः । प्रतियोग्यनुयोगिभावे तृतीया प्रकृत्यादिवार्त्तिक सिद्धाऽन्यत्वापि दृश्यते घटेन होनं शुन्य रहितं वा भूतल मित्यादौ होनार्थपदाथै क देश भावे - तौयाऽर्थः प्रतियोग्यनुयोगिभावोऽन्वेति यत्न भेदाघटितसादृश्याश्रयस्तुल्यादिपदार्थः मुखेन तुल्यं मुखं तस्या दू
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विभक्त्यर्थनिर्णये । त्यादौ तत्रापि वृत्त्यन्वयिनिरूपकत्वार्थिका वृतीया मुखनिरूपकटत्तिमधर्माश्रयो मुखमित्यन्वयबोध: तुल्यपदस्य भेदांशपरीहारेगा सधर्ममात्रे लक्षणाया: प्रयोजनं मुखं निरुपममितिबोधः । स मानसः वैयञ्जनिकः शाब्दो वेत्यन्यदेतत् । सूत्रे अतुलोपमाज्यामिति तुलोपमाशब्दाम्यां योगे तीया न भवतीत्यर्थकं तेन चन्द्रगा तुलोपमा वेति न प्रयोगः ननु तुलां पदाऽरोहति दन्तवाससे"ति स्फुटोपमं भूतिभितेन शंभुने"ति च कथं तर्हि प्रयोग इति चेत् दन्तवाससेति करणतीया तुलायामारोहणं तुलाप्रकारकजानमेव तत्र दन्तवाससो ज्ञानं व्यापारी जन्यतयाऽन्वेति प्रतियोगिज्ञानं विना साहशयबुवेरसम्भवात् दन्तवाससो ज्ञानजन्यतुलाप्रकारकज्ञानं वाक्याय: शम्भुनेति हेतुतीया स्फुटशब्दार्थोऽभिव्यक्तस्तवाभिव्यक्तौ शम्भुहेतुकत्वमन्वेति तथा च शम्भुहेतुकाभिव्यक्तिमदभिन्नोपमाऽऽश्रयाभिन्नं नारदमित्यन्वयबोधः शम्भोः प्रतियोगिनो ज्ञानहारोपमाऽभिव्यक्ति हेतुत्वं सचेतुलेत्यादिना प्रतियोगित्वार्थकटतौयाया एव निषेधः तुल्यशब्दपर्यायाः सदृशमंनिभसमानादयः श: ब्दाः एषां योगे टतीयां तापयितुं सचेऽर्थग्रहणम । के चित्तु चन्द्रेण सहोपमीयते तुल्यते इत्यादौ सहार्थस्तदीयत्वादिः समानकालिकत्वादेरसम्मवात् अत एव"तदुत्तमाङ्गजैः समं चमर्येव तुलाभिलाषिण" इति श्रीहर्षः एवं चैत्रेण सह संयुज्यते समवैति वेत्यत्र निरूपकवं सहार्थः निर्वैरेण सह वैरायते निर्मत्सरेण सह स्पर्धत इत्यादौ विषयविषयिभावः सहार्थः सहयुक्त टतौयासा
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રદ્દત तृतीयाविभक्तिविचारः। धुत्वार्थिकत्याहुः । तन्न विचारमहं सहयक्तटतीयाया निरर्थकत्वे पुत्रेण सहागच्छतौत्यत्र पुत्रकत त्वानवगमप्रसङ्गात् न च दर्शिस्थले तृतीया निरर्थिकेति वाच्यं तवापि सार्थकत्वात् तथा हि चन्द्रेण सहेत्यत्व तृतीयार्थ श्राधेयत्वं सहार्थोऽभेदश्चैवेणेत्यत्रापि तथैव निर्वैरेगोत्यन तौयाऽर्थ एव विषयविषयिभावः सहार्थो ऽभेद एव सहपदं विना क्रियायां यत्कारकार्थिकविभक्तियत्पदासज्यते सह योगे तत्कारकार्थिका वा टतोया तत्पदाभवति सहार्थविशेषणक्रिया साकाङ्केति सहयुक्तसूत्रस्याथं इति निर्वैराय वैरायत इति सहशून्यप्रयोगे चतुर्थ्या विषयविषयिभावोऽथ इति सहयुक्तटतीयायोः स एवाथः एवं ग्रामेण सह गृहं गच्छतीत्यत्र सहपदं विना ग्रामपदाद् द्वितीयैवेत्यतः सहयुक्त कर्मत्वार्थिकात् तृतीयेति चन्द्रेणत्यनाधयत्वं कर्मत्व प्रधाने कर्मतिड्योगात् चैवेणो त्यत्र कतत्वं कर्टतियोगात् विषयत्व संप्रदानत्वमिति दर्शिस्थलेऽन्वयः स्वयमूहनीयः । मासेन यजते दर्शन पौर्णमासेन वेत्यादौ मासदस्य मासनाशोऽर्थः तस्य कालविधयाऽङ्गत्वेन प्रयोजकतया यागहेतुत्वमिति मासेनेति हेतुटतौया अथवा प्रकृत्यादिवार्तिकेनाधेयत्वार्थिकाटतीयेति । इति विभक्त्यर्थनिर्णय कारकटतीयाऽर्थनिर्णयः ।।
इति तृतीयाविवरणं समाप्तम् ।
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
अथ चतुर्थी। डेव्यांभ्यसिति त्रय: प्रत्ययाः । तत्र सुमनसे ददातोत्यादौ श्रूयमाणत्वा देकारस्य तत्त्वेन ज्यामित्यस्य भ्याम्त्वेन ब्यसो भ्यस्त्वेन वाचकत्वम् । ङकारोऽनुबन्धः क चिदप्यशू यमाणत्वान्न वाचकताकुक्षिप्रविष्ट इति अनुशासनसिद्धाश्चतुर्थ्या अर्था: अनुशासनं च "चतुर्थी संप्रदान" इति । तत्र संप्रदानं संप्रदानत्वं वाऽर्थ इति वक्ष्यते । अत्राप्यनभिहिते इत्यधिकारस्तेन दानीयो ब्राह्मण इत्यादौ न चतुर्थी । संप्रदानपदसंकेतग्राहक सूत्रम् । "कर्मणा यमभिप्रेति स संप्रदानमिति । कर्मणा करणभूतेन कर्ता यमर्थमभिप्रेति तत्कारकं संप्रदानसतं भवतीत्यर्थकम । कर्मणा धात्वर्थफलवता गवादिना स्वामित्वेनोपाध्यायादेरभिप्रायविषयौकरणात् उपाध्यायादे: संप्रदानत्वं निरपवादमित्युध्यायाय गां ददातीत्युपपद्यते । “क्रियाग्रहणमपि कर्तव्यमिति वार्तिकम । क्रियया ऽपि यमभिप्रेति स संप्रदानमित्यर्थक क्रियापद चात्र क्रियाप्रयोज्यफलपरं फलं च धात्वर्थभिन्नं बोध्यम् अत एव श्राद्धाय निगहते युद्धाय संनह्यते इत्युपपद्यते । अब निगहतर्गर्हामानमर्थ: प्रयोज्य फलं विषयत्वं संनद्यते: संनाह: सज्जीभाव एवार्थ: प्रयोज्यफलं युद्धे प्रवृत्तिः वि. रहाविषयत्वं श्राद्धे संनहनानन्तरप्रतियु वे इति श्राद्धयद्धयोः संप्रदानत्वमिति सूबे धात्वर्थफलवतः कर्मगणः मंबन्धितया संप्रदानत्वं वार्त्तिके धात्वर्थान्यफलसंबन्धितया संप्रदानत्वमिति सूत्रवाति कयो कतरवैययं वस्तुतस्तु सूत्रे कर्मपदं क्रियापरं क्रिया च
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चतुर्थीविभाक्तिविचारः । फलव्यापारोभयरूपा व्यापारमात्ररूपा च बोध्या । तत्र धात्वर्थफलसंबन्धिबया धात्वर्थान्यफलेन संबन्धन व्यापारसंबन्धितया चाभिप्रायविषयत्वं संप्रदानत्वमिति । अत एव पत्ये शेते प्रौढवधरित्यत्र पतिप्रीतिः शयनफलं प्रोत्या संबन्धेन शयनसंबन्धितथाऽभिप्रायविषयत्वं पत्युः संप्रदानत्वमिति तदृशं संप्रदानत्वं न चतुर्थ्यर्थ: व्यापारादौनामन्यलभ्यत्वात् किं त्वन्योदृशमेव तथा हि विप्राय गां ददातीत्यत्र ददातेः स्वत्वध्व सानुकूलो व्यापारोऽर्थः उत्सर्गेऽपि ददातिमुख्य एव अत एव गोमिथुनमादाय कन्यां ददाति पितेति दीनारमादाय मौक्तिक ददाति वणिगिति विक्रिये पि ददाति प्रयोग: व्यापारस्त्यागः स च न ममेत्याकार उपेक्षासाधारणेन रूपेण स्वत्वनाशं प्रति जनको न स्वत्वं प्रति प्रमाणाभावात् ।
सप्त वित्तागमा धा लाभो दायः क्रयो जयः । प्रयोगः कर्मयोगश्च सत्प्रनिग्रह एवच ॥ इत्यत्र “याजनाध्यापनप्रतिग्रहैाह्मणौ धनमर्जयेदि" त्यत्र च प्रतिग्रहस्यैव स्वत्वोपायत्वेनाभिधानात् प्रतिग्रहोऽपोदं ममेस्याकारोऽनुमितिस्वरूपः समिकुशाद्युपादानसाधारगोन रूपेण स्वत्वं प्रति जनकस्तत्पुरुषोयत्वं प्रति तत्पुरुषस्वीकारस्य विशेष्यतया हेतुत्वात् तथा च स्वत्वमा चतुर्थ्यर्थस्तत्र प्रकृत्यथस्य निरूपकतया स्वत्वस्य जनकतया स्वत्वध्वंसेऽन्वयाहिप्राय गां ददाति राजत्यत्र विप्रनिरूपितस्यत्वजनकगोनिष्ठस्वत्वध्वसजनकत्यागाश्रयो राजत्यन्वयबोधः व्यधिकरण स्वत्वं प्रति गोनिष्ठस्वत्वव सस्याजनक
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विभक्त्यर्थनिर्णये । त्वात् स्वत्वे गोत्तित्वमर्थाल्लम्यत तेन पुत्रस्य राज्यकामनया गवि पुत्राय गां ददातौति न प्रयोगः इति वदन्ति । तन्न विचारसहं स्वत्वध्वं सानुकूलव्यापारस्य ददात्यर्थत्वे उपेक्षायामपि ददाति प्रयोगापत्तेः प्रतिग्रहस्य समित्कशायुपादानसाधारगोन रूपेण स्वत्वजनकत्वेन्योद्देशेन त्यक्तेऽन्यस्योपादाने स्वत्वोत्पत्तिप्रसङ्गात् उपादानमात्रस्य स्वत्वजनकत्वे नाष्टिकहिरण्यादावप्यपादानमाचे स्वत्वोत्यत्तिप्रसङ्गात् तस्माद्दानमेव स्वत्वकारणम् । अत एवान्योद्देशन त्यतोऽन्यस्योपादाने न स्वत्वप्रसङ्गः वचने प्रतिग्रहस्य गगनं दानोपलक्षकमेव उपादानेन स्वत्वे जननीये समित्कुशादौनां तादात्म्यमिव दानमपि विशेषसहकारि तथा च तत्पुरुषोयस्वत्वप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासंसर्गेण त्यागस्तत्पुरुषस्वत्वं प्रति कारणं स्वत्वध्वंसो व्यापारः स्वत्वजनकस्त्यागो ददात्यर्थस्तन ब्राह्मणाय गां ददातीत्यत्र निरूपकत्वं स्वामित्वं वा चतुयर्थ: ब्राह्मणनिरूपितस्य ब्राह्मण निष्ठस्वामित्वनिरूपितस्य वा स्वत्वस्य स्वत्वध्वंसव्यापारेण जनकस्त्यागो वाक्यार्थ: अथ वा स्वत्वोद्देश्यकस्त्यागे ददात्यर्थः चतुर्थ्याः पूर्वोक्त एवार्थः अत एव संप्रदानास्वौकतस्याप्युत्मर्गे स्वत्वानुपहिते च ददातिप्रयोगोऽप्युपपद्यते यत्तु उत्सर्गेण समनन्तरमेव संप्रदानस्वत्वं जन्यते न चैवमस्वीकृतेऽपि संप्रदानस्वत्वापत्तिरिति वाच्यम्। दानेन स्वत्वजनने बैमत्यस्य प्रतिबन्धक वात् अस्वीकृते तत्सत्त्वात् अत एव तदुद्देशेनोत्सृष्टे तस्मिन्प्रतिगृह्मैव मृते तत्पुत्रादीनां स्वत्वोत्पत्तिरुपपद्यते तद्यक्तिमरणजन्यस्व
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चतुर्थीविभक्तिविचारः। त्वध्वंसहारेण तद्यक्तिमरणस्य वा तत्पुत्रस्वत्वं प्रति जनकत्वात् एवमपुत्रव्यक्तिमरणजन्यस्वत्वध्व सस्य तत्पनौस्वत्वं प्रति जनकत्वम् "अपत्वस्य धनं पत्न्यभिगामौ"ति विष्णुस्मरणात् । ऋतुमवेच्य मृते पितरि जातमपि स्त्रीस्वत्वं पुत्रोत्पत्त्या नाश्यते स्वजन्मजनितमाटस्वत्वनाश: मातृस्वत्वनाशहारेणु स्वजन्म वा स्वस्वत्वं प्रति कारणं पुत्रोत्पत्तिपूर्व मावा विक्रीते न पुत्रस्वत्त्वं जन्मजनितमातस्वत्वनाशविरहादित्यवश्यमुत्सगेंणाव्यवधानेन पुंसो व्यवहितस्थापि स्वत्वं जन्यत इति मतं तन्त्र एवमपि मृतं प्रोषितं बोद्दिश्य त्यते तत्पुत्रस्य स्वत्वानुत्यादप्रसङ्गात् उत्सर्गे व्यवस्थान्तरस्यावश्यमाश्रयणीयत्वात् । अन्यथा ब्राह्मणमात्रमुद्दिश्य त्यक्ते तुलापुरुषादौ ब्राह्मणसामान्यस्वत्व प्रसङ्गात् परस्व दातुविभज्य वितरणेऽनधिकारप्रसङगाच्च तस्मादुत्सर्गेण स्वत्वे जननीये प्रतिपादनं सहकारोति नाव्यवहितमेव स्वत्वोत्पत्तिरिति इत्थं च स्वत्वनिरूपकत्वं संप्रदानत्वं तत्र स्वत्वं ददात्यर्थान्तर्गतं निरूपकत्वं चतुर्थ्यर्थ इत्येवं संप्रदानमित्यन्वर्थसंज्ञा अत एव संप्रदानमित्यन्वर्थसंजाबलाहानस्य कमणेति विज्ञायत इति काशिकात्तिरिति प्राञ्चः । वस्तुतस्तु स्वत्वध्वंसजनकः स्वत्वोद्देश्यकस्त्यागो ददात्यर्थः स च त्यागो नेदं मम किं त्वस्य स्यादित्याकारस्ताद्वशत्यागरूपेच्छाविषयत्वं संप्रदानत्वमत एव सवेअभिप्रेतीत्यत्र दानस्य कर्मणेतिशेषपूरणं विषयत्वमुद्देश्यतावच्छेदकत्वं तदेव चतुर्थ्यी इच्छान्वयिब्राह्मणस्य स्यादित्यत्र षष्यर्थस्वत्वनिष्ठोद्देश्यताथा अवच्छेद
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विभक्त्यर्थनिर्णये। कत्वस्य ब्राह्मणे सत्त्वात् तत्रोद्देश्यतावच्छेदकतायाः खनिरूपितवत्वनिष्ठोद्देश्यताप्रतियोगिल्वेन संबन्धन त्यागरूपेच्छायामन्वय स्तन लाघवादवच्छेदकत्वमा चतुथ्यर्थस्तच्च दर्शितसंबन्धेन त्यागेन्वेति । एवं ब्राह्मणाय गां ददाति राजत्यत्न ब्राह्मण निष्ठावच्छेदकताकगोवत्तिस्वत्वनिष्ठोदेशयताकस्वत्वध्वंसजनकत्यागाश्रयो राजेत्यन्वयबोधः वात्ति केन तु धात्वर्थान्यफलसंबन्धितया अभिप्रेतत्वं संप्रदानत्वं ज्ञापितं तत्र रक्षायोदकं सिञ्चतीत्यत्र पुष्टीच्छाप्रयोज्योऽपि वृक्षे सेकः तत्र धात्वर्थे पुष्टिविषयत्वमन्वेति न विच्छायामित्यभिप्रायो न चतुWर्थो ऽभिप्रेतीति स्वरूपकीर्तनमा यदि च ज्ञानेच्छे व्यापारतया न धात्वर्थः किं तु तत्प्रयोज्यः प्रयत्नस्तदा वृक्षायेत्यत्र चतुयर्थपुष्टिरुद्द प्रयतया धात्वर्थे ट्रवद्रव्यप्रतियोगिकसंयोगानुकूलव्यापार प्रयत्नेऽन्वेति पुष्टिरुपचयः स . च वृहदवयवनिष्ठारम्भ कसंयोगसामानाधिकरण्यं तथा च वृक्षसंवन्धिपुष्टुाहेश्यक: जलत्तिट्रवद्रव्यप्रतियोगिकसंयोगानुकूल: प्रयत्नो वाक्यार्थः एवं यदग्नये च प्रजापतये च सायमग्निहोचं जुहोतीत्यत्र जुहोत्यर्थे वन्हिसंयोगानुकूलप्रक्षेपस्य समानकालिके त्यागेऽनुकूलप्रयत्ने वा चतुयर्थस्यान्वयः तथावच्छेदकत्वस्य चतुयर्थस्य यत्पदार्थ निष्ठस्वत्वोह श्यताहारा त्यागेऽन्वयः प्रीतेवा चतुयर्थ स्योह श्यतया प्रयत्ने प्रयत्नत्यागकतरान्वयः विप्राथान्नं निर्वपतौस्यत्र धात्वर्थेऽधिश्रितपानप्रक्षेपानुकूले प्रयत्ने विप्रविषितस्य चतुर्यथस्य भोजनस्योद्देश्यनयाऽन्वयः खण्डिकोपाध्यायः शिष्याय चपटां ददाती
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२७४ । चतुर्थीविभक्तिविचारः । त्वनाहन्यमानः करश्चपेटार्थः अभिषातफलकप्रयत्नी ददात्यर्थः तत्र प्रयत्ने चतुयर्थस्य व्यथायाः शिष्यविशेषिताया अन्वयः इत्थं दर्शितानां चतुर्थ्यर्थानां सन्दर्शितेन सं. सगेंण धात्वर्थ एवान्वय इति कारकत्वं निष्प्रत्यूहमिति शाब्दिकास्तु ददाते: स्वत्वध्वंसः स्वत्वं च फलविधयाऽर्थः त्यागो व्यापारविधया फलइयमेकेन कर्मणा साकासमिति गवादेः कर्मणस्तवान्वयः तेन पुवराज्यकामनया दोयमानायां गवि राज्यं ददातौति न प्रयोगः चतुी तु धात्वर्थफलाम्वयिप्रीत्यादिफलान्तरमभिधत्ते तेन ब्राम्हणाय गां ददातौल्यत्र गोरत्तेः ब्राह्मणप्रौतिजनकस्वत्वस्य स्वध्व सस्य चानुकूलस्त्यागो वाक्यार्थः प्रौतिमजनयत्यपि स्वत्वे यदि ददातोति प्रयोगस्तदा प्रौतीच्छा चतुर्थः सा स्वोद्देश्यपौतिजनकत्वेन संबन्धेन धात्वथफले स्वत्वेऽन्वेति प्रौतीच्छायां प्रकृत्यर्थस्य ब्राह्मणादेः प्रौतिनिष्ठविशेष्यतानिपितसमवेतत्वनिष्ठप्रकारतावच्छेदकतया प्रौतिनिष्ठोद्देश्यतावच्छेदकतया संबन्धेनान्वयः अत एव कर्मणा यमभिप्रेतीति सूत्रेण कर्मफलगोचराभिप्राय एव चतुर्थ्यर्थतया सूचितः चतुयर्थस्य प्रोत्यादर्जनकत्वेन तदिच्छाया वा स्वोदेश्य जनकत्वेन संबन्धेन क चिद्धात्वर्थफलऽन्वय: यथा ब्राह्मणाय गां ददातीत्यत्न यथा वा यदग्नये जुहोतीत्यत्र अग्निप्रीतेस्तदिच्छाया वा होमफले वह्निसंयोगे वृक्षायोदकं सिञ्चतीत्यत्र वृक्षपुष्टस्तदिच्छाया वा जलस्य संयोगे विप्रायान्नं निर्वपतीत्यत्र विप्रभोजनस्य तदिच्छाया वाऽन्नविवित्तौ खण्डिकोपाध्याय: शिष्याय चपटां ददातीत्यत्र
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
९७५
शिष्य व्यथायास्तदिच्छाया वाऽभिघाते नयतिना फलतथा संयोगाविवक्षायां कर्मानुकूलव्यापारेऽभिहिते - जां ग्रामाय नयतौत्यव ग्रामसंयोगस्य तदिच्छाया वा कर्माणि यत्र तु संयोगोऽपि फलतया विवक्षितस्तत्र परया कर्मसंज्ञया संप्रदानसंज्ञावाधात् श्रजां ग्रामं नयतीत्येव प्रमाणमेवं गमनजन्यसंयोगस्य गमिकर्तरि सत्वेऽपि परया कर्तृसंज्ञया संप्रदानसंज्ञावाधान्न कर्तरि चतुर्थीति क चिञ्चतुर्थ्यर्थः प्रधानक्रियायामन्वेति यथात्मने वै पुत्र: प्रियो भवतीत्यत्र चतुर्थ्यां यस्यात्ममीतेस्तदिच्छाया वा
प्रियभावे पत्ये शेते प्रौढवधूरित्यत्व पतिप्रौतस्तदिछाया वा शयने गमेः स्पन्दरूपव्यापारमानार्थकत्वे ग्रःमाय गच्छतीत्यव ग्रामसंयोगस्य तदिच्छायां वा जनकत्वेन स्वोद्देश्यजनकत्वेन वाऽन्वयः श्रतो गत्यर्थकर्मणि विभाषा चतुर्थीविधिः प्रत्याख्येयः शुहस्पन्दार्थ क गमे यगे संयोगस्य चतुर्ध्य तथा ग्रामाय गच्छतीतिप्रयोगस्याप्युपपन्नत्वात् यत्रापि धातोर्व्यापारमात्रमर्थः फलाविवचा वा तव संप्रदानतासम्भवे वा ग्रामाय चलति स्पन्दते वा तण्डुलायौदनाय वा पचतीतिप्रयोगोऽपौष्ट एव संयोगस्य विक्तित्यादेः फलस्य चतुर्ध्या प्रतिपादनादिति वदन्ति । तन्न विचारसहं तथा हि ददातियोंगे प्रौति
चतुर्थ: प्रत्यननकेऽपि दाने चतुर्थोपयोगात् नापि पोछा गौरवात् दर्शितसंबन्धेन तस्याप्यनन्वयात् न
प्रतिजनकत्वेच्छा चतुथ्यं यस्तस्याः पौतिविषयतानि रूपितजनकत्वविषयतानिरूपितविषयतया ददातिफले खत्वेऽन्वय इति वाच्यम् । अतिगौरवात् एत्नोमीतिज
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चतुर्थीविभक्तिविचारः। नके श्वशुराय दाने पत्न्यै ददातौतिप्रयोगापत्तेश्च एवं जुहोतियोगे कृत्तिकादेवताकहोमे वह्निप्रीतिजनके वकये जुहोतीतिप्रयोगापत्ते: विष्णुप्रीत्यर्थ क्रियमाणे दाने होमे च विष्णवे ददाति जुहोति वेति प्रयोगापत्तेश्च न च तवापि जुहोत्यर्थप्रयत्ने विष्णुप्रीतेरुद्देश्यत्वाज्जुहोतियोगे विष्णवे जुहोतीतिप्रयोगापत्तिरिति वाच्यम् । यतो यदेवताको होमस्तत्यौतिरेव जुहोत्यर्थप्रयत्नस्योद्देश्यति विष्णुप्रीतिस्तु होमदेवताप्रौतेः फलमिति विष्णुप्रीतीच्छाया दर्शितविषयतासंबधेन ददातिफले गोनिष्ठविप्रखत्वे जुहोतिफले हविनिमुवङ्गिसंयोगे सत्त्वात् दर्शितप्रयोगो दुर्बार इति न च संबन्धघटकविषयताधिकरणं जनकत्वं साक्षाज्जनकत्वं विवक्षितमिति न दर्शितप्रयोग इति वाच्यम् । तथासति गोनिष्ठविप्रस्वत्वमपि विप्रौयस्य प्रीतिपदार्थस्य सुखस्य न साक्षाज्जनकमिति बिप्राय गां ददातोति प्रयोगानापत्तेः गोनिष्ठस्वत्वस्य दुग्धादानादिहारा विप्रसुखजनकत्वात् । एवं वृक्षायोदकमित्यत्रापि पुष्टौच्छा न चतुर्थ्यर्थ: गौरवात् वृक्षपुष्टीच्छया क्रियमाणे कूपखनने जलोत्पादनेन वा वृक्षाय कूपं खनति जलमुत्पादयति वेतिप्रयोगापत्तश्च आत्मने वै पुवः प्रियो भवतीत्यनात्मप्रीतीच्छा न चतुर्थ्यर्थः पुबप्रियभावस्यात्मप्रीतीच्छाऽप्रयोज्यत्वात् नाप्यात्मप्रौतिभंवत्यर्थानन्वयात् तस्माद्यथात्मने वै पुत्वः प्रिय दूत्यत्र क्रियाशुन्यवाक्ये तादर्थ्य चतुर्थ्या उपकारकत्वमर्थः प्रिय पुत्रवति तथा दर्शितवाक्येऽपि पत्ये शेते इत्यत्र पतिप्रीतीच्छा न चतुयर्थ: गौरवात् पतिप्रीतीच्छया क्रि
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विभक्त्यर्थनिर्णये। थमाणे शयनानुकूलपल्यवस्थापने पत्ये पल्यत स्थापयतौति प्रयोगापत्तः तस्माद्यथा वृक्षपुष्टिः सेचनप्रयत्ने तथा पतिप्रोतिरपि शयनप्रयत्ने उद्देश्यित्वेनान्वेति अत: पुष्टिप्रौत्योरजनकयो: सेचनशयनयोन दर्शितप्रयोगानुपपत्तिः अजां ग्रामाय नयतीत्यत्र ग्रामसंयोगो न चतुयर्थः ग्रामसंयोगाजनके नयत्यर्थे दर्शितप्रयोगानुपपत्तेः नापि तदिच्छा ग्रामसंयोगेच्छया अजागहणे अजां ग्रामाय गृह्णातीति प्रयोगापत्तेर्गौरवाच्च गमेः शुद्धस्यन्दार्थकत्वे संयोगस्तदिच्छा वा चतुर्थ्यर्थ स्तत एव ग्रामाय गच्छतौति प्रयोगोपपतिरिति गत्यर्थकर्मणि चतुथीविधिः प्रत्याख्येय इत्यपि न युक्तं फलस्य संयोगस्य धातुलभ्यस्य चतुर्थ्या प्रतिपादनासंभवात् न च फलाविवक्षायां प्रतिपादनसम्भव इति वाच्यम् । तथा सति धारणसंयोगाविवक्षायां दण्डाय दधातीतिप्रयोगापत्तेः ग्रामाय चलति स्पन्दते चेत्यत्र चलतिस्पन्दयोः स्पन्दमोचार्थकतया संयोगरूपफलावाचकत्वात् चतुर्थ्या संयोगस्वरूपफलप्रतिपोदनसम्भव इति ग्रामस्य धात्वर्थान्यफलसंबन्धितयाऽभिप्रेततया सम्भवत्येव संप्रदानत्वं तण्डलायोदनाय वा पचतौत्यपप्रयोग एव यदि च प्रयोगस्तदा तण्डुलोपकारकत्वस्थोदनजनकत्वस्य चतुर्थ्या प्रतिपादनेनेयं तादाचतुर्थीति यदि च दण्डाय दधातोत्यादिबहुतरापप्रयोगोभ्युपगमात् धातोः फलाविवक्षायां कर्मणि संप्रदानचतुर्थीति मन्यते तदापि गत्यर्थकर्मणि चतुर्थीविधेन प्रत्यख्यानं यतः चतुर्थी हितोयया सह वैकल्पिको ग्रामादिप्रकत्यर्थविशेषितमा यत्वं सं
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चतुर्थीविभक्तिविचारः ।
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योगस्वरूपफलत्वान्वव्यभिधन्ते संप्रदानचतुर्थी तु फलमेवाभिधन्ते न तु फलान्वय्याधेयत्वमिति गत्यर्थकमोतिसूत्रव्याख्याने वच्यते नापि संयोगेच्छा चतुर्थ्यर्थस्तथा सति ग्रामसंयोगेच्छया यानारोहणे ग्रामाय गछतौतिप्रयोगापतेः किं च संयोगेच्छार्थकत्वेऽपि चतुर्थ्या न कर्मत्वार्थकत्वं येन प्रत्याख्यानं स्यादत एव गत्यर्थकर्मणीतिसूत्रे कर्मणीत्युक्तमित्यग्रे व्यक्तोभविष्यतीति । देवदत्ताय रोचते मोदक इत्यादी देवदत्तादेः संप्रदानवं ज्ञापयति । " रुच्यर्थानां प्रीयमाण" इति सूत्रम् । च्यर्थानां योगे प्रीयमाणो योऽर्थस्तत्कारकं संप्रदानसंज्ञकं भवतीत्यर्थकं विषयक कोऽभिलाषो रुचिः तदर्थाः रुच्यर्थाः अत एवान्यकर्ट कोऽभिलाषो रुचिरिति काशिका प्रीयमाणः रुचिकर्तविषयप्रीतिमान् भवति हि रोचते मोदक इत्यव रुचिकर्ता विषयो मोदकस्तत्प्रीतिमान् देवदत्त इति तस्य संप्रदानत्वं प्रौतिश्चात सुखत्वेन सुखजनकत्वे न वा अभिलाषस्तद्दान् तसमवायी तथा चायमेवाभिलाषो रुचिस्तत्समवायित्वं समवेतत्वं वा चतुर्थ्यर्थः देवदत्ताय रोचते मोदक इara देवदत्तसमवेताभिलाषविषयो मोदक इत्यन्वयबोध इति संप्रदायः । वस्तुतस्तु रुचिरुत्कटेच्छा उत्कटत्वं च द्वेषप्रतिबन्धकतावच्छेदको जातिविशेष इत्यन्यत्र विस्तरः । रुच्यर्थाः रोचत्यादयः तदर्थकर्तत्वं विषयस्येति रोचते इत्यादावाख्यातस्य विषयत्वमर्थ इति प्रथमाशब्दार्थः प्रीतिमान् प्रौतिः सुखं तथा च चतुथा र्थः सुखं तस्य सामानाधिकरण्योद्देश्यित्वाभ्यां संबन्धा
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
२७९ भ्यां सचावन्वय: सामानाधिकरण्यनिवेशात् देवदत्तस्यान्यदीयसुखच्छाविषय मोदके न तथापयोगः । एवं देवदत्ताय रोचते मोदक इत्यत्र देवदत्तसुखस्य समानाधिकरणोद्देश्विनौ योत्कटेच्छा तहिषयो मोदक डूत्यन्वयबोधः । अत एव सूत्रे पोयमाणशब्दोपादानम. यंवदन्यथा रुच्यर्थानां रुचिमानित्येव मुनि: सूत्रयेत्तावतैव समवायित्वस्य समेवतत्वस्य वा चतुर्थता सम्भवादिति पोयमाणगृहणं तु देवदत्ताय रोचते मोदकः पथि दूत्यत्र पथ: संपदानतानिषेधार्थमिति । कतिपयधातुयोगे जीप्स्यमानस्य संपदानता जापयति । "श्लाघन्हुस्थाशपां चौस्यमानः” दूति सूत्रं प्लाघि तिस्तिष्ठति: शपिश्चामौषां धातूनां योगे चौप्स्यमानी योऽर्थस्तत्कारकसंखं भवतीत्यर्थक ज्ञोप्स्यमानो ज्ञापयितुमभिपत इति काशिका जौप्यमानग्रहणं देवदत्ताय शलाघते पथि दूत्यव पथः संपदानतानिषेधार्थमिति अत्र श्लाघेसत्कर्शप्रकारकपतिपत्त्यनुकूलो व्यापारः शब्दो वाऽर्थ: हुतेरदर्शनानुकूलो व्यापारी,र्थस्तितेस्तङन्तस्य प्रकाशानुकूलो व्यापारः संमुखावस्थानादिरर्थः शपेरपकर्षपतिपत्त्यनुकूलो व्यापारः शब्दो वाऽर्थः नरपतये श्लाघते दूत्यत्रोत्कर्ष प्रकारकपतिपत्तिस्वरूपे फले विशेष्यत्वस्वरूपे फले विशेष्यत्वस्वरूपं विशेष्यतासंबन्धावच्छिन्नाधेयत्त्वस्वरूपं वा कर्मत्वं वा चतुयर्थोऽन्वेति जाराय निन्हते इत्यत्नादर्शने विषयतासंबन्धावच्छिन्नपतियोगिताके चाक्षुषपतियोगिके ज्ञानसामान्यपतियोगिके वा
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चतुर्थीविभक्तिविचारः। अभावे चाक्षषविषयत्वाभावे वा फले विशेषणतासंबन्धावच्छिन्नाधयत्वस्वरूपं कर्मत्वमन्वेति जम्भाश्ये कस्तिष्ठते इत्यत्र पकाशे ज्ञानस्वरूपे फले समवेतत्वस्वरूपं कर्मत्वमन्वेति शक्राय शपते इत्यवापकर्षपकारकपतिपती फले विशेष्यत्वं विशेष्यतासंबन्धावच्छिन्नाधयत्वं वा कर्मत्वमन्वेति इति कर्मसंज्ञापवादार्थ संपदानसंताबिधानमिति वदन्ति । वस्तुतस्तु सूबे चौप्यमानगहणात् जानेच्छा चतुर्थ्यर्थो ज्ञायते तत्र जानस्य धातुना लाभेसतीच्छामाचं चतुर्थप्रर्थ: अन्यथा “संप्रदाने चतुर्थी"ति सूत्रानन्तरं श्लाद्यगुस्थाशपां कर्मणीत्येव मुनिः सूनयेत् जौप्स्यमानशब्दवैययं च स्यात् किं च कर्मसंज्ञापवादाभ्युपगमे अपन्हुवानस्य जनाय यन्निजामधौरतामस्य कृतं स्मरेण यदी"त्यादौ कर्मपत्ययहितीयादेरनुपपत्तिपसङ्गः देवदत्ताय श्लाघत इत्यादौ देवदत्तादेः श्लाघतिकर्मत्वेऽपि निरवकाशया संप्रदानसंज्ञया कर्मसंज्ञाबाधात् जीप्स्यमानभेदस्य हितौयार्थस्यानन्वयात् वा प्रलापतियोगे न हितोयादिकर्मपत्ययः किं तुज्ञोप्स्यमानार्थिका चतुर्थी तबेच्छा चतुथा यअत एव देवदत्ताय श्लाघते देवदत्तं श्लाघमानस्तां श्लाघां तमेव ज्ञापयितुमिच्छतीत्यर्थ इति काशिका । तबेच्छायां उत्कर्षपकारकत्तानरूपफलस्योद्देश्यतया देवदत्तादेः प्रकृत्यर्थस्य समवेतत्वसंसर्गावच्छिन्नायास्तादृशज्ञानरूपफलनिष्ठोद्देश्यताबच्छेदकताया: प्रतियोगित्वेन संबन्धेन
तादृशजाननिष्ठविशष्यितानिष्ठोद्देश्यतावच्छेदकतानिरूपितावच्छेदकतायाः प्रतियोगित्वेन संबन्धेन चा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
२८१ निपितावच्छेदकतायाः प्रतियोगित्वेन संबन्धेन चान्वयः देवदत्तस्य देवदत्तविशेष्यताकोत्कर्षप्रकारकज्ञानं भववितीच्छायां ज्ञाननिष्ठोद्देश्यतानिरूपितसमवेतत्वसंसर्गावच्छिन्नदेवदत्तनिष्ठावच्छेदकताप्रतियोगित्वं तथाविधोद्देश्यतानिरूपितविशेष्यतानिष्ठावच्छेदकतानिरूपितदेवदत्तनिष्ठावच्छेदकताप्रतियोगित्वं चेति संबन्धइयं निराबाधमिति । अन्य विशेष्यकोल्कर्षप्रकारकदेवदतज्ञानस्य देवदत्तविशेष्यकोत्कर्षप्रकारकान्यदीयज्ञानस्य चेच्छायां न तथाप्रयोगः संबन्धहयेनेच्छायामन्वयाभावात् यत्र च श्लाघति: सकर्मकस्तेन पण्डिताय नरपतिः श्लाघत इति प्रयोगस्तत्र समवेतत्वसंसर्गावच्छिन्नतादृशज्ञानोद्देश्यतावच्छेदकताप्रतियोगित्वेन संवन्धेनैव चतुर्थ्यर्धेच्छोयां प्रकत्यर्थस्य तादृशज्ञानरूपफले प्रकृत्यर्थविशेषितस्य हितोयार्थस्य विशेष्यत्वस्य विशेष्यत्वसंबन्धावच्छिन्नाधयत्वस्य वाऽन्वय इति एवं देवदत्ताय निन्हुते इत्यादौ कुतिफले दर्शने चतुर्थ्यर्थस्येच्छाया इच्छायां तु विशेषणतासंबन्धाबच्छिन्नाधेयत्वसंसर्गावच्छिन्नाया अदर्शननिष्ठोद्देश्यतावच्छेदकतायाः प्रतियोगित्वेन संबधेन प्रकृत्यर्थस्यान्वयः अधीरतां जनाय निन्हुत इत्यबादर्शनप्रतियोगिनि दर्शने फलैकदेशे निन्हवे दर्शनमभावश्चेत्युभयार्थकत्वे फले दर्शने हितोयार्थस्य विशेष्यत्वस्य तत्संबन्धावच्छिन्नाथेयत्वस्य वाऽन्वयः वस्तुतः सतोऽसत्त्वेन प्रतिपादनं निन्हुतिरतो गगनं निरहुत इति न प्रयोगः तथा च सत्त्वप्रकारकप्रतिपत्त्यनुकूलो व्यापारो न्हुतेरर्थः अत एव जौप्यमानता चतुर्थीप्रकृत्यर्थस्य संपद्यते एव
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चतुर्थीविभक्तिविचारः ।
मसत्त्वप्रकारकप्रतिपत्तौ पूर्ववत् चतुर्थ्यर्थस्य द्वितीयार्थस्य चान्वयः अनिष्टवत्ताप्रतिपत्त्यनुकूलो व्यापारः शपेरर्थ - स्तत्रानिष्टवतः प्रतिपाद्यस्य प्रतिपत्तीच्छायां संप्रदानसंज्ञया कर्तसंज्ञावाधात् जौप्स्यमानभेदस्य द्वितीयार्थस्यानन्वयादा न द्वितीया यथा शक्राय शपते दुर्वासा इत्यत्र चतुर्थ्यर्थम्येच्छाया अनिष्टप्रतिपत्ताविच्छायां प्रकृत्यर्थस्य च पूर्ववदन्वयः यत्र च शापकर्तुः शापकमणि न ज्ञीप्सा तत्र द्वितीया यथा" मत्प्रसूतिमनाराध्य प्रजेति त्वां शशाप से" ति कर्मणस्य जौस्यमानताय चतुर्थी प्रयोगोऽपोष्ट एव यथा पिल्वे पुत्रं शपते गुरवे शिष्यं शपत इति यत्र च यशविज्ञानं शपरेर्धस्तत्र न चतुर्थी न वा द्वितीया शुद्धाशुद्धिकर्मावरोधो द्वितीयाबाधक : अनिष्टप्रतिप्रत्यर्थकस्यैव तोम्यमानता यामेव चतुर्थ्याः साधुत्वमिति किं तु हेतुत्वार्थिका तृतीया यथा पुत्रेण दारैर्वा शपतीति अत एव ।
२८२
आचम्य चाम्बु तृषितः करकोशपेयं भावानुरक्तललनासुरतैः शपेयम् । जोयेय येन कविना यमकैः परेण तमुदकं घटखर्परेण ॥
घटखर्पर: । शुद्धाशुदी सत्यासत्यप्रतिज्ञे बोध्ये तङन्तस्य तिष्ठतेः खप्रकाशानुकूलोऽव्यवहितावस्थानादिरर्थः प्रकाशः चाक्षुषं ज्ञानसामान्यं वेत्यन्यदेतत् । तत्र ज्ञीप्स्यमानस्य चतुर्थीप्रकृतिता यथा कृष्णाय तिष्ठते गोपीत्यादावत्र चतुर्थ्यर्थ इच्छायां समवेतत्वसंसर्गावच्छिन्नायां प्रकाशनिष्ठोद्देश्यता निरूपितावच्छेदकतायां
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
૨૮ प्रतियोगित्वेन संबन्धेनान्वय: इच्छाया उद्देश्यतया प्रकाशे तस्यानुकूलतया अव्यवहितावस्थानादौ तस्य तिङथै आश्रयत्वेऽन्वय इति यत्र तङन्तस्यापि तिष्ठते: स्थेयविनिवेदनमर्थः स्थयों मध्यस्थो निर्णायक इति यावत् । तत्र जीप्स्य मानेऽपि न चतुर्थों अत एवं " संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः" इति भारविरत्न समानदेशत्व संबन्धावच्छिन्नाधेयत्वं यत्पदाथै कर्तरि विद्यमानत्वं कर्तघटितपरम्परासंसर्गावच्छिन्नं सप्तम्यर्थो विनिवेदने व्यापारारोऽन्वेति तथा च संशयानन्तरितस्य कर्णाद्यधिकरणस्य निर्णायकविनिवेदनस्य कर्ता य इत्यन्वयबोध: कर्णादेनिर्णायकत्वं विनिवेद्यत्वं च मानान्तरवेद्यमिति । धारयतोंगे उत्तम
स्य संप्रदानतां ज्ञापयति । “धारेरुत्तमर्ण" इति सूत्र धारयतेोंगे उत्तमर्णी योऽर्थः तत्कारकं संप्रदानसंज्ञ भवतीत्यर्थकम् उत्तममृणं यस्य स उत्तमर्णः यदीयं धनं स स्वामी प्रयोक्ता उत्तमर्ण इति काशिका देवदत्ताय शतं धारयतौत्यव ऋणत्वनिरूपिताधमर्णत्वं धारयतेरर्थः उत्तमर्णत्वं स्वामित्वविशेष: चतुर्थ्यर्थः फलीभूतऋणत्वाश्रयताशतस्य कर्मत्वमेवं देवदत्तनिष्ठोत्तमगत्वनिरूपितशतवृत्तिगाप्रतियोगिकाधमर्णत्वाश्रयत्वं वाक्यार्थः - गत्वाधमत्वे स्वत्वस्वामित्ववदतिरिक्तपदार्थावेवानुगतप्रतीतिव्यवहारयोरविशेषात्स्वत्वाभाव एव ऋणत्वामति चेत् ऋगत्वाभाव एव स्वत्वमित्यपि किन्न स्यात् । यदि चोद्धारनाश्यपापविशेषस्य साधनं बिनियोग ऋणात्वं तदा पापासाधनविनियोग एव स्वत्वमिति स्यात्
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चतुर्थीविभक्तिविचारः ।
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विनियोगकाले स्वव्यवहारऋण व्यवहारेण तुल्ययोगक्षेम: शास्त्रमपि ऋत्वे स्वत्वे च तुल्यं शास्त्रस्याननुगतप्रवृत्तितिमित्तक ऋण पद्घटितत्वमिव तादृशस्वपदघटितत्वमपि तदेतदन्यत्र विस्तृतमिति वदन्ति । वस्तुतस्तु उद्धारनाश्यपापजनकग्रहणाहितव्यापारी धारयतेरर्थः फलीभूतगणाविषयतया शतादीनां कर्मत्वमुत्तमर्गः प्रयोक्ता प्रयोगः कलाजिष्टक्षा तज्जन कज्ञानजन्यसंस्कारः उपकारकता कीर्त्तिजनक: पुण्यविशेषो वा स च चतुर्थ्यर्थः तथाविधपापवानधमर्णः एवं देवदत्त - निष्ठकला जिघृचादेः प्रयोज्यं यत्तथाविधं शतकर्मकग्रम्हणं तत्प्रयोज्यव्यापारो भोजनादिस्तदाश्रयत्वं वाक्यार्थः ऋणामपि तथाविधग्रहण कर्मबोध्यम् ऋणां धारयतीत्यव ग्राह्य गृह्णातीत्यचेवान्वयो बोध्यः एवमर्थान्तरेऽपि धारयतेः प्रयोगे चतुर्थी दृश्यते यथा ।
૨૪
सेवन वेतनमृगामिह
मह्यं दोनाय धारयसि ।
अतिचण्डि चण्डखण्डिनि वदाम्यपणे ऽतिभौतितो भवतीम् ॥
इत्यव धारयतेरभीष्टफलदानानुकूलव्यापारोऽर्थः - गापदलच्यमवश्यदेयं वेतनपदलच्यं साध्यम् एवं सेव - नसाध्यावश्यदेयकर्मको योऽभीष्टप्रयोजकदानानुकूली व्यापारस्तदाश्रयस्त्वमित्यन्वयबोधः मामित्यत्र चतुर्थ्यर्थः पुण्यविशेषः स प्रयोज्यत्वेन व्यापारे ऽन्वेति एवं ग्राह्यं गृह्णातीतिवत् उत्तमर्णाय धारयति अधमर्णो धारयतीत्यादौ विशेषणविशेष्यभावव्यत्यासेनान्वयो बोध्यः सूत्रे
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
ર૮૯ उत्तमर्णग्रहणं देवदत्ताय शतं धारयति ग्रामे इत्यत्र ग्रामस्य संप्रदानतानिषेधार्थमिति स्पृहोगे चतुर्थी तापयति । "स्पृहेरौमितः" इति सूत्रं स्पृहोगे ईप्सितो योऽर्थस्तत्कारकं संप्रदानसंखं भवतीत्यर्थकम् । ईमित इत्यवाभिप्रेत उच्यत इति काशिका पुष्पेभ्य: स्पृहयति रसिक इत्यत्र स्पृहेरभिलाषोऽर्थः चतुर्थ्या विषयत्वमर्थ: एवं पुष्पविषयताकाभिलाषाश्रय इत्यन्वयबोधः । ६. स्त्रीषु प्रवौरजननी जननी तवैव
देवी स्वयं भगवती गिरिजाऽपि यस्यै । त्वहोर्वशौकृतविशाखमुखावलोकब्रीडाविदीर्णहृदया स्टहयांबभूव ॥ इत्यत्र रेणुकासदृशौ भवेयमित्यभिलाषस्तत्र रेणुकाविषयत्वस्यानपायान्न चतुर्थ्या अनुपपत्तिः यदि च विषयत्वमा न चतुर्थ्यथ: तथासति पुष्पत्वं स्टहयतीति प्रयोगापत्तेः किं तूहे श्यत्वं तच्च दर्शिताभिलाषे न रेणुकायाः किं तु तत्मादृश्यस्येति यस्यै भगवती स्टहयतीव्यत्व चतुर्थी नोपपद्यत इति विभाव्यते तदा खौक्रियतां नादाम्येनोद्देश्यप्रकारकोऽभिलाष: ब्राह्मणोऽहं स्यामिनौच्छाकारदर्शनात् ब्राह्मण दृष्टमा धनं ब्राह्मणोऽहमिति जानहयेन बिशिष्टज्ञानेन वा तथाविधेच्छाजननसम्भवात् तथा च रेणुका भवेयमित्यभिलाष एव स्पृहा तत्र रेणुकाया उद्देशयत्वं निराबाधमिति चतुर्थ्यां] नानुपपत्तिरिति संप्रदायः । वस्तुतस्तु पुष्पेभ्यः स्पृहयतीत्यत्र पुष्मादीनां सिद्धत्वादुद्देश्यत्वं न सम्भवतीति नीदेश्यत्वं चतुयर्थः किं तु सूचे मितशब्दोपादानात् ई
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૨૮૬
चतुर्थीविभक्तिविचारः ।
शाविषयः प्रतीयते ईशा आप्तीच्छा आप्तिः संबन्धस्तथा चातिश्चतुर्थ्यर्थः स च संबन्ध: पुष्पेभ्य इत्यच खत्वं संयोगश्च रेणुकायै इत्यत्र तादात्म्यसंबन्धस्तूद्देश्यितया स्पृहायामन्वेति तथा च पुष्पसंयोगस्पृहाश्रयः रेणुकातादात्म्यस्टहाश्रय इत्यन्वयबोधः कान्तस्य स्टहे इत्यव शेषषष्या विषयत्वमर्थः स्पृहायामन्वेति यथा घटज्ञान घटत्वस्य यथा वा घटेच्छा घटत्वस्येत्यादाविति । ननु स्पृह ईप्सायामित्यनेन स्टहेरिच्छार्थक वं तत्रेच्छामात्रार्थकत्वे फलावाचकत्वादकर्मकत्वं विषयतारूपफलवाचकत्वेऽपि विषये निरवकाशया संप्रदानसंज्ञया कसंज्ञाबाधात् ईप्सितभेदस्य कर्मप्रत्ययार्थस्यानन्वयाहा कर्मप्रत्ययानुपपत्तेः स्पृहणीयगुणैरित्यादिप्रयोगो अनुपपन्न इति चेत् दानोयो ब्राह्मण इत्यादिप्रयोगदर्शनात् संप्रदानेऽध्यनीयरः प्रवृत्तेः स्पृहणीय इत्यत्व कृत्यप्रत्ययस्य संप्रदानार्थकत्वं न तु कर्मार्थकत्वं एतेन " परस्परेगा स्पृहणीयशोभं न चेदिदं द्वन्द्रमयोजयिष्यत्" इत्यपि समाहितं हरदत्तस्तु यवेच्छामात्रार्थकत्वात् फलावाचक: स्टहिस्तव विषयत्वमुद्देश्यत्वं वा चतुर्थ्याभिधन्ते यत्र च विषयतास्वरूपफलवाचकस्तत्र कर्मप्रत्ययो निरपवाद एव अत एव "स्पृहयन्ति गुणान्मनीषिणः परिवादं तु परस्य दुर्जना " इति एवं स्पृहणीय इति कर्मण्येव कृत्यप्रत्ययः यत्र च विषयता शेषत्वेन विवक्षिता तव शेषषष्ट्येव यथा " कुमार्य इव कान्तस्य वस्यन्ति स्पृहयन्ति चेतीत्याह वस्तुतस्तु यत्र स्पृहेरुत्कटेच्छार्थस्तचैवाप्तिश्चतुर्थ्यर्थः यत्र चे
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
२८७ छासामान्यमर्थः तत्र चतुर्थ्या अप्रसक्तीन कर्मप्रत्ययानुपपत्ति: उत्कटेच्छार्थकतया रूच्यर्थकत्वेऽपि स्पृहेोगे ईमिते चतुर्थीविधानं प्रीयमाणे निषेधमपि सूचयति अतश्चैत्राय पुष्पेभ्यः स्टइयतीति न प्रयोग इति ईशितगृहणं तु प्रीयमाणे अधिकरणे च संप्रदानतानिषेधाथमतः पुष्पेभ्यो वने स्पृहयतीत्यन वनस्य न संप्रदानतेति । क्रुधाद्यर्थकानां योगे चतुर्थी ज्ञापयति । "क्रधगृहेासूयाऽर्थानां यं प्रति कोप इति सूत्रं क्रोधाद्यथकानां योगे यं प्रति कोपस्तत्कारकं संप्रदान संभवतीत्यर्थक यत्र येन वेत्यपहाय सूत्र यं प्रतीत्युक्त्या चतु
झं नानाविधोऽर्थो ज्ञाप्यते अत एव क्रोधस्तावत् कोपः एव द्रोहादयोऽपि कोपप्रभवा एव गुद्यन्ते तस्मात्मामान्येन विशेषणं यं प्रति कोप इति काशिका । कोपप्रभवानां द्रोहादौनां गहणाल्लोभादिप्रभवट्रोहाद्यर्थकधातुयोगे न चतुर्थोति जाप्यते क्रोधमानार्थका: फलावाचकत्वात् अकर्मकाः ऋधिकुप्यादयः क्रोधोऽमर्ष: देष इति यावत् । देवदत्ताय क्रुध्यति कुप्यति वेत्यादौ चतुर्थ्या दिष्टतालक्षणं विषयत्वमर्थः तथा च देवदत्तविषयताकहषाश्रयत्वं वाक्यार्थः । विषिस्तु हिष्टतालक्षणफलं हे षं चाभिधत्त इति न क्र धिपर्यायस्तद्योगे न चतुर्थी किन्तु द्वितीया अत एव शर्बु ठोत्येव प्रमाणं ट्रुहेद्दिष्टाचरणमर्थः देवदत्ताय गृह्यतीत्यत्र चतुर्थ्या देषान्वयिसमवेतत्वमर्थस्तथा च देवदत्तसमवेतद्वेषविषयाचाराश्रयत्वं वायार्थः ईयते: परक्रियागोचरो द्वेषोऽर्थः चतुर्थ्याः क्रियान्वयिसमवेतत्वमर्थः देवदत्ताय ईय॑ते इत्यत्र दे.
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રસ્ટ
चतुर्थीविभक्तिविचारः। वदत्तसमवेतक्रियागोचरहे षाश्रयत्वं वाक्यार्थः यत्र तु क्रिया फलविधयेयंतिनोच्यते तत्र क्रियाविषये कर्मणि द्वितीयैव प्रमाणं यथा भार्यामौयति मैनामन्यो द्राक्षौदिति भार्याविषयकमन्यकतकदर्शनं न स. हत इति तदर्थः असूयतेरसयाऽथ: सा च परगुणे दोपारोपः देवदत्तीयासयतीत्यत्र चतुथ्योः संबन्धित्वं ममवेतत्वं वाऽर्थः तथा च देवदत्तसंबन्धिगुणं दोषत्वेनारोपयतीत्यर्थः वादिने असूयतीत्यत्र वादिसमवेतज्ञानं भमत्वेन ख्यापयतीत्यर्थ इति संप्रदायः । वस्तुतस्तु अध्यत्यादेः क्रोधोऽर्थः स चामर्ष स्तच्चासहिष्णुत्वम् अत एव क्रोधोऽमर्षः इति काशिका कोपक्रोधामर्षरोषेत्याद्यमरोऽपि असहिष्णुत्वं च स्वानिष्टानुकूलपरक्रियागोचरो द्वेषः चतुर्थ्यास्तु क्रियान्वय्याधेयत्वमर्थ: देवदत्ताय ऋध्यति यजदत्त इत्यत्र स्वानिष्टानुकूलदेवदत्तत्तिक्रियागोचर. हषाश्रयो यज्ञदत्त इत्यन्वयबोधः । अनिष्टानुकूलायाशिष्यगताया पुत्वगतायाश्च क्रियाया इषसम्भवात् अनि ष्टानुकूलव्यापारो द्रुहरर्थः अत एव द्रोहोऽपकार इति काशिका चतुर्थ्यास्त्वनिष्टान्वय्याधेयत्वमर्थः अनिष्टं च दुःखं सुखाभावश्च देवदत्ताय द्रुद्यति यज्ञदत्त इत्यव देवदत्तत्तिदुःखानुकूलव्यापारानुकूलकृतिमान् यजदत्त इत्यन्वयबोधः सपत्यै द्धति स्त्रीत्यत्र सपत्नीत्तिसुखाभावानुकूलव्यापारानुकूलकृतिमती स्त्रीन्यन्वयबोधः उत्कर्षगोचरो हष ईय॑तेरर्थश्चतुर्थ्याः उत्कर्षान्वय्याधेयत्वमर्थः कर्णाययति फाल्गुन इत्यत्र कर्णर. त्युत्कर्षगोचरद्वेषाश्रयः फाल्गुन इत्यन्वयबोधः । यत्र तु ।
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विभक्त्यर्थनिर्णये । फलतया किया तोचरी हे षो व्यापारतयेयंतिना प्रल्याय्यते फलीभूतक्रियान्वयिनि भार्यादौ न कोपः खानिष्टानुकूलव्यापारविरहात् तत्र फलान्वयिनि हितोयैव प्रमाणं यथा भार्यामोय तौल्यवान्यकर्तकदर्शनं फल द्वेषो व्यापार ईय॑तेरर्थः दर्शने हितीयार्थो विषयत्वं तत्संबधावच्छिन्नाधेयत्वं वा भार्याकर्मकान्यकर्तकदर्शनगोचरवेषाश्रयत्वं वाक्यार्थः एतदर्थमेव यं प्रति कोप इत्युक्तमत एव यं प्रति कोप इति किं भार्या मौय॑ति मैनामन्यो द्राक्षौदिति काशिका एवं यत्र क्रियान्तरद्वेषोऽपौय॑तिना प्रत्याय्यते तत्रापि हितोयैय यथा शिष्यमौर्ण्यति मैनमन्योऽध्यापयेदिति अन्यकर्तकक्रियाद्वेषस्य धात्वर्थत्वे तु उतार्थानामप्रयोगात् अन्यम्मै द्रष्ट्रेऽध्यायकाय बेयतीति न प्रयोगः फलीभूतक्रियान्वयिनि कर्मणि स्वानिष्टानुकूल क्रियाविरहायोगात् न कोप विषयत्वमिति न तत्व चतुर्थोति एवं गुणे दोषारोपोऽसूया असूयतेरथ: चतुर्थ्या गुणान्वय्याधेयत्वमर्थः देवदत्तायासूयति यज्ञदत्त- इत्यत्र देवदत्तत्तिधैर्यादिगुणधर्मिकचौयत्वारोपकर्ता यज्ञदत्त इत्यन्वयबोधः एवं सपत्न्यै असूयतोत्यत्र सपत्नीत्तिपतिसेवनादिकं कामणत्वेनारोपयतीत्यर्थः वादिनेऽसूयतीत्यत्र वादित्तिप्रमाणवाक्यमप्रमाणत्वेनारोपयतीत्यर्थः गुणा दोषाश्च प्रातिखिकरूपेण प्रकरणादिवशादसूयतिनोपस्थाप्यन्त गुगास्तु निन्दाप्रयोजकान्ये पदार्थास्ते च वैशेषिकसिद्धो ट्रव्यगणक्रियासामान्यादयः प्रत्येतव्याः यच्च काव्यप्रकाश भ्रातस्तावदहं शठेन विधिना निद्रादरिद्रीकृत" इत्यत्र विधि प्रत्य
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चतुर्थीविभक्तिविचारः ।
सूया व्यज्यत इत्युक्तं तब विधेनैसर्गिक निद्रादरिद्रौकरयो गणे शाठ्य हेतुकत्वस्वरूप दोषत्वं स्वप्नसमागमविच्छेदेन विहस्तेन कामिना समारोपितमिति गुणे दोषारामरूपोऽसूया भावोऽभिव्यज्यत इति संप्रदायः । वस्तुतस्तु निविधौ विधित्वे वा शठतादात्म्यस्य शठत्व - तादात्म्यस्य वाऽऽरोपस्तादृशेन कामिना कृत इत्यनिन्दो दोषारोपरूपाऽसूया व्यज्यत इति दोषास्तु निन्दाप्रयोजका बोध्या: । एतेन दुःखाय नरकाय वा कुप्यतीति प्रयोगापत्तिः दुःखविषय कद्देषस्य सत्त्वात् बृहस्पतिरध्या• पयन् दैत्येभ्यो द्रुह्यतौति प्रयोगानापत्तिः अध्ययनस्य दैत्यसमवेतद्द षाविषयत्वात् कूपे पततेऽन्धायेर्ण्यतीति प्रयोगापत्तिरन्धक र्तक कूपपतनगोचरद्वेषस्य निवारके सस्वादिति परास्तम् । कुप्यादिधातूनां चतुर्थ्याश्च दशितार्थकतया अतिप्रसङ्गाप्रसङ्गयोरभावात् कुप्यादीनां दर्शि- तार्थकत्वे कर्मणि द्वितीया प्रसक्ता निरवकाशया संप्रदानसंज्ञया असाधुत्वज्ञापिकया बाध्यते सूत्रे यं प्रति कोप इत्यत्र कोपोपादानं न चतुर्थ्यर्थता सूचनाय तथा सति कुप्यादिप्रयोगानुपपत्तेः धात्वर्थे कोपे चतुर्थ्यर्थको पामन्वयात् किं तु स्वरूपकथनं भवतु वा प्रतीत्युपादानात् विषयत्वं कोपस्य चतुथ्यो अर्थ: देवदत्ताय कुध्यतीत्यत्र कोपार्थक धातुयोगे विषयित्वं चतुर्थ्यर्थः अनिष्टानुकूलव्यापारगोचरद्द षे कोपेऽन्वेति देवदत्तादेर्यज्ञदत्तानिष्टानुकूलव्यापारक त्वमर्थादवगम्यते स्वविषय कयज्ञदतौयई ष प्रयोजकत्वात् देवदत्ताय दुखतोत्यव चतुर्थ्या द्वेषमाचं कोपोऽर्थस्तव विषयितया प्रकृत्यर्थस्यान्वय: अ
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विभक्त्यर्थनिर्णये । निष्टानुकूलब्यापार द्रोहे कोपः प्रयोज्यतयान्वेति देवदत्तादेरनिष्टं पूर्ववदगम्यते देवदत्तायेष्यतीत्यत्र पूर्ववत् कोपश्चतुर्थ्यथ: उत्कर्षगोचरहे षे धात्वर्थे प्रयोज्यतयाऽन्वेति देवदत्तादेरुत्कर्षः पूर्ववदेवावगम्यते देवदत्तायामयतीत्यव पूर्ववत्कोपश्चतुर्यर्थ: गुणे दोषरोपस्वरूप धात्वर्थे पूर्वबदन्वेति देवदत्तादर्गुणः पूर्ववत् अवगम्यते अम्मिन् कल्ये नदर्शितातिप्रसङ्गाप्रसङ्गौ न वा धनिनिष्ठानिष्टामुकूलव्यापारकर्ट कत्वेऽपि चौरस्य धनिने दुयति चौर इति प्रयोगः धनिन: कोपाविषयत्वात् संप्रदानत्वाप्रसतोः यदि कोपमूलकमपि चौयं तदा तादृशप्रयोगोऽपोष्ट एव सोपसगयोः ऋधट्रहोर्योगे कोपविषयस्य न संप्रदानसंज्ञा निरवकाशया कर्मसंनया बाधात् कधहोरुपसृष्टयो: कर्मेत्यनुशासनेन कर्मसंज्ञाविधानात् हितोयैव प्रमाणं क्र रमभिक ध्यति अभिद्रुह्यति वेत्यत्र विषयत्वं कोपस्य यथायोग्यं द्वितीयाऽर्थ: देवदत्ताय क्रध्यति यति वैति वदन्वयबोध इति प्रागेवोत्तम् । राधीच्योर्योगे चतुर्थी ज्ञापयति । " राधीच्योर्यस्य विप्रश्नः" इति सूत्र राधेरौक्षेश्च योगे यस्य विप्रश्नस्तकारकं संप्रदानसंखं भवतीत्यर्थकं विप्रश्नो विविधः प्रश्नः विविधो विविधविषयक इत्यय: अत एव यस्य विप्रश्नो विविधः प्रश्नः स यस्य भवति यत्संवन्धिशुभाशुभं पृठ्यते इति काशिका राधेरौक्षेश्च दैवपर्यालोचनमर्थः देवं शुभाशुभं चतुर्थ्या: समवेतत्वमर्थः कृष्णाय राध्यति ईक्षते वा गर्ग इत्यत्र कृष्णसमवेतशुभाशुभपर्याचोचनाश्रयो गर्ग इत्यन्वयबांध: कषणस्य कीदृशं शुभमशभं वेति प्रश्नस्थ गोचरता तु
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चतुर्थीविभक्तिविचारः ।
कृष्णपदेन न प्रतिपाद्यते किं तु व्यञ्जनयाऽथ वा वि प्रश्नानन्तरितशुभाशुभपर्यालोचनं राधोच्योरथं इति धातुनैव विप्रश्नगोचरताप्रत्याय्यते इति संप्रदाय: । वस्तुतस्तु विप्रश्नः शुभाशुभप्रश्नः शुभाशुभतिज्ञासाप्रयोज्यकिमादिशब्दघटितवाक्यमिति यावत् तत्र विप्रश्नस्तत्प्रयोजिका जिज्ञासा वा चतुर्थ्यर्थः दैवपर्यालोचने राधौच्योरर्थे प्रयोज्यतयाऽन्वेति चतुर्थ्यर्थे जिज्ञासायां विषयितया प्रकृत्यर्थस्यान्वयः यत्संवन्धित्वेन शुभाशुभजिज्ञासा तस्यैव शुभाशुभविषयतानिरूपितविषयितया जिज्ञासायामन्वयः ईदृशविषयितयैव प्रकृत्यर्थस्थान्वयः तेन मैवपुत्रस्य किं शुभमशुभं वेति प्रश्न मैत्राय राष्यतीति न प्रयोगः | एवं कृष्णाय राध्यतौचते वा गर्ग इत्यव कृष्णविषय शुभाशुभ जिज्ञासा प्रयोज्य शुभाशुभपर्यालोचनाश्री गर्ग इत्यन्वयबोधः । धात्वर्थघटक शुभाशुभे कृष्णसमवेतत्वमर्थात्प्रतीयते धात्वर्थो तादृशजिज्ञासाप्रयोज्यत्वान्वयबलात् अत एव देवदत्ताय राध्यतीक्षते वा नैमित्तिकः पृष्टः सन् देवदत्तस्य दैवं पर्यालोचयतीत्यर्थ इति काशिका विप्रश्नवाक्यं न धात्वर्थे घटते न वा चतुर्थ्यर्थः किं तु शुभाशुभ जिज्ञासैव यत्र न प्रश्नवाक्यं खस्यैव शुभाशुभ जिज्ञासा तत्रापि वराय कन्यायै वा राध्यति नैमित्तिक इति प्रामाणिकः प्रयोग इति । प्रत्याङ्पूर्वस्य श्रुवो योगे चतुर्थी ज्ञापयति । " प्रत्याङ्भ्यां श्रुवः पूर्वस्य कर्ता" इति सूत्रं प्रतिपूर्वकस्याङपूर्वकस्य शृणोतेः पूर्वस्य कर्ता तदर्थप्रयोजक क्रियाकर्ताऽस्य धातोर्योगे संप्रदानसंज्ञो भवतीत्यर्थकं प्रतिशृणोतेरा
"
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
२९३ शृणोतेश्च याञ्चापूर्वकः स्वीकारो देयत्वेनाभ्युपगमोऽर्थः याञ्चान्वयिकर्ट त्वं चतुर्थ्यर्थः द्विजाय गां प्रतिशृणोत्याशृणोति वेत्यत्र गोकर्मत्वं याचनस्वीकारयोरुभयोरन्वेति तथा च हिजकर्ट कगीकर्मकयाचनपूर्वको गोकर्मकः देयत्वेनाभ्युपगमो वाक्यार्थः यत्तु ।। ... संविदागूः प्रतिज्ञानं नियमाश्रवसंश्रवाः । - अङ्गीकारोऽभ्युपगमप्रतिश्रवसमाधयः ॥ इति नामलिङ्गानुशासनमभ्युपगममात्रार्थकसंश्रवपयत्वेन प्रतिश्रवाशवी पपाठ तहिशेष्यस्वरूपैकदेशपयितां ज्ञापयतौति संप्रदायः । वस्तुतस्तु प्रतिशृणोतेराशृणोतेचाभ्युपगमोऽर्थः स च क्रियागोचरकर्तव्यत्वाध्यवसायः क्रिया च क चिहानरूपा क्वचिदन्यादृशी अत एव नामलिङ्गानुशासनसंमता संशवप्रतिज्ञानपर्यायता प्रतिश्रवाश्रवयोरुपपद्यते चतुर्थ्याः प्रयोजकतयोपलक्षितो व्यापारोऽर्थः स च क चित् याञ्चास्वरूपः यत्र प्रतिशणोतेर्दानगोचरकर्तव्यत्वाध्यवसायोऽर्थः क चिदन्यादृशः यत्र दर्शितधातोरन्यादृशोऽर्थः अत एव प्रतिपूर्व आपूर्वश्च शृणोतिरभ्युपगमे प्रतिज्ञाने वर्तते स चाभ्युपगमः परेण प्रयुक्तस्य सतो भवति तत्र प्रयोक्तो पूवस्याः क्रियायाः कर्ता संप्रदान संत्रो भवतीति काशिका एवं विप्राय गां प्रतिशृणोति आशृणोति वा राजत्यत्र प्रतिशृणोतेर्दानकर्तव्यत्वाध्यवसायोऽर्थः चतुर्थ्या याञ्चारूपो व्यापारोऽथ: दानं परस्वत्वानुकूल: स्वत्वध्वंस. याचा लिप्सा प्रतिग्रह इति यावत् प्रकृत्यर्थस्य याञ्चायां कट तयाऽन्वयः याञ्चायाः प्रयोज्यतया दाने तहोच
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चतुर्थीविभक्तिविचारः। रकर्तव्यत्वज्ञाने वान्वयः ढानं कर्तव्याचप्रकारकं जान खण्डशी धात्वर्थ: दानं विशेष्यितया कर्तव्यताज्ञानेन्वेिति प्रतिग्रह: स्वत्वमिच्छा चैति खण्डशश्चतुर्थ्यर्थ: स्वत्वमुद्दे श्यितयेच्छायामन्वेति कट त्वमाधेयत्वं संसर्ग इच्छान्वय घटको बोध्यः गोकर्मकत्वं दानेऽन्वेति तथा च विप्रसमवेत स्वत्वोह श्यताकेच्छाप्रयोज्यगोत्ति वत्वानुकूलस्वत्वध्वंसविशेष्यताक कर्तव्यत्वप्रकारकज्ञानाश्रयो राजेत्यन्वयबोधः प्रतिग्रहस्य याञ्चाया गोविषयकत्वमर्थादवगम्यते न घन्ययाञ्चाप्रयोज्यं गोदानं भवति कतव्यत्वप्रकारतानिरूपितविशेष्यता स्वत्वध्वंसे अर्थादवगम्यते तत एव कर्तव्यत्वं स्वत्वध्वं सेऽवसीयते प्रतिजानं तथोऽध्यवसाय एव अत एव देवदताय गां प्रतिशणोति प्रतिजानौत इत्यर्थ इति काशिका | अन्याहशक्रियागोचरकर्तव्यत्वाध्यवमाय: प्रतिशब: चतुर्थ्यास्त्वन्यादृशो व्यापारोऽर्थो यथा ब्रह्मचारिणे शतपथब्राह्मणं प्रतिशृणो युपाध्याय इत्यवानुपूर्वी विशेषप्रकारकज्ञानस्य प्रतिपादकतासंसर्गणार्थवत्त्वप्रकारकज्ञानस्य वाऽनुकूलो व्यापारीऽध्यापनं तहोचरकर्तव्यत्वाध्यवसाय: प्रतिशणातेरर्थश्चतुर्थ्या आनुपूर्वी विशेषेणार्थवत्त्वेन वा जिज्ञासाऽर्थ: शतपथब्राह्मणविशेषितं विशेष्यित्वं तत्संबन्धावच्छिनाधेयत्वं वा हितौयार्थः फलीभूते ज्ञानेऽन्वेति तानस्याध्यापनफलस्याभ्युपगमफलबानपायात् जिज्ञाः । साया प्रयोज्यतया अग्युपगमेऽन्वय स्तथा च शतपथवा
ह्मणविशेष्यताकस्यानुपूर्वी विशेष प्रकारकस्यार्थवत्त्वप्रकारकस्य वा तानस्यानुकूलो यो व्यापारः तहोचरो
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
यो ब्रह्मचारिसमवेत जिज्ञासाप्रयोज्यः कर्तव्यत्वाध्यववायस्तदाश्रयः उपाध्याय इत्यन्वयबोधः | अभ्युपगमे फले ज्ञाने ब्रह्मचारिंसमवेतत्वमर्थात्प्रतीयते यथाऽभ्युपगमफले स्वत्वे विप्रनिरूपितत्वमिति न चन्यदीयजिज्ञासाप्रयोज्योऽभ्युपगमोऽन्यदीयज्ञानफलकः यथा विप्रथाञ्चाप्रयोयोऽभुपगमः न चवियादिस्वत्व फलक इति । क्वचित्कर्तव्यत्वाध्यवसाय एव प्रतिशृणोतेरर्थः यत्र तद्दिषयो धातुना पदान्तरेण वा प्रत्याय्यते यथाऽनुमाननिरूपणं शिष्याय पुतिशृणोतीत्यच निरूपणं ल्युडन्त - वात्वर्थस्तत्र पुयोज्यतया शिष्यजिज्ञासाया अन्वय इति । शतमागांसि सोढा हे सूनोस्त इति यत्त्वया । प्रतीच्यं तत्प्रतौक्ष्यायै पितृष्वस्त्रे प्रतिश्रुतम् ॥ इत्यव त्वत्सूनुप्रयोज्यागः शतकर्मकभाविसहनकर्तृत्वमिति शब्दार्थो यच्छ व्दार्थाभिन्न प्रतिश्रवकर्मण्यभेदे - नाग्वेति प्रतिश्रवोऽत्र कतैव्यत्वाध्यवसाय स्तद्विशेषास्तत्कर्म सहन कर्तृत्व कर्तव्यत्वाध्यवसायः सहनमादाय पर्यवस्यति आगोऽनिष्टाचरणासहनं तज्जन्यफलोपभोगस्तद्दिषयकद्दोषाभावो वा द्वेषाभावे कर्तव्यत्वं क्षेमसाधारणं बोध्यं यथा मौमांसकानां कलञ्जभचगाभाव इति चतुर्थ्यास्तु पुत्रगतानिष्टस्याचरणे ह - षस्तथाविधाचरणाभ वे इच्छा वाऽर्थः पितृष्वसृविशेषितः कर्तव्यत्वाध्यवसाये प्रयोज्यतयाऽन्वे तौत्येवमग्यत्राप्यूड नौयमिति । अनुप्रतिपूर्वस्य गुणात योंगे चतुर्थी ज्ञापयति । अनुप्रतिगृणश्च " इति सूत्रम् । अनुपूर्वकस्य पूतिपूर्वकस्य च गृणातेयोंगे तदर्थ -
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२९६ चतुर्थीविभक्तिविचारः । पर्ववर्तिन्या क्रियायाः कर्तु भूतं कारकं संपदानसंगं भवतीत्यर्थकम् । अनुगृणातेः प्रतिगृणातश्च शंसनपूर्वक पोत्साहनमर्थः शंसनं कथनं पोत्साहनं हर्षानुकूलो व्यापारः हो। प्रतिगृणात्यनुगृणाति वा अध्वर्युरित्यत्र चतुाः शंसने हर्षे चान्विता वृत्तिरर्थस्तथा च होवृत्तिशंसनपूर्वकस्य होटत्तिहर्षानुकूलस्य व्यापारस्य कर्ताऽध्वयं रित्यन्वयबोध इति संपदाय: । वस्तुतस्तु शंसनपूर्वकतयोपलक्षितं प्रोत्साहनमनुगणातेरर्थ: शंसनपूर्वकत्वं तु शसनतानसापेक्षतानविषयत्वं तदुपलक्षितं स्वरूपस त्तत्संबन्धीत्यर्थ: यच्च काशिकायां होनुगणाति होता प्रथमं शसति तमन्यः प्रोत्साहयतीत्युक्तं तत्र शसने प्रथमत्वं न पूर्वत्तित्वं किं तु पूर्वज्ञानविषयत्वमत एवाग्रे काशिकायामनुगण इति प्रतिगण इति हि शसितुः प्रोत्साहने वर्तत इत्युक्तं शसितुरित्युक्तं न तु प्राकश सितुरिति प्रोत्साहनयुक्तमेव हर्षणामथ वा प्रोत्साहनानुकूलो व्यापारः उत्साहोऽध्यवमायस्तत्र प्रकर्षः कर्तव्यत्वगोचरत्वं तेन कर्तव्यताऽध्यवसायानुकूलो व्यापार इति निष्कर्षः । प्रतिशणोतेस्तथाऽध्यवसायो व्यापारतयाऽस्य फलतयाऽर्थ इति पूर्वसूत्रार्थस्यैव तत्सत्रार्थे प्रसङ्गसंगतिरप्यायाति चतुर्थ्याः श सनमर्थस्तस्य स्वज्ञानादिद्वारकप्रयोज्यतया हर्षणे विशषितया कर्तव्यत्वाध्यवसाये वाऽन्वयः शसने प्रकृत्यर्थस्याधेयत्वलक्षण कर्टतयान्वयः । एवं होनुगणाति प्रतिगणाति वाऽध्वयरित्यत्र होष्टत्तिश सनप्रयोज्यहर्षणाश्रयोऽध्वर्युरियन्वयबोधः अथ वा कर्तव्यत्वाध्यवसाये शसनस्य सामा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
नाधिकरण्येनाध्यन्वयः सामानाधिकरण्यमें ककालावच्छेदेनैकत्र वर्तमानत्वं तथा च होटटत्तिशंसनस्य समा नाधिकरण स्तविशेष्यताकश्च यः कर्तत्र्यत्वप्रकारकाध्य वसायस्तदनुकूलव्य पाराश्रयोऽध्वर्युरित्यन्वयबोधः । परम्परया शंसनफलकस्य हर्षणस्यापेक्षया साचात् शंस - नफलकस्य कर्तव्यत्वाध्यवसायस्य धात्वर्थत्वमुचितं न च हर्षणं न शंसनफलकमिति वाच्यं तथासति हर्षकख व्यर्थव्यापारतया प्रमत्तत्वापत्तेः । एवं होत्रेऽनुगृणाति होतारं शंसन्तं प्रोत्साहयतीत्यर्थं इति काशिका लड़दय| प्रयोगं दर्शयन्ती कालघटित सामानाधिकरण्येनान्वयं सूचयति एवं निन्दकायानुगृणाति खल इत्यादावन्यवापौयं रौतिर्बोध्येति । परिक्रयार्थकधातुयोगे चतुर्थी ज्ञापयति । "परिक्रयणे संप्रदानमन्यतरस्याम " इति सूत्रं परिक्रयणे साधकतमं संप्रदानसंज्ञं भवतीत्यर्थकमन्यतरस्यामित्यनेन करणसंज्ञकमपि तद्बोध्यते वेतनदानादिपूर्वको नियतकालावच्छेद्यखत्वानुकूलो व्यापार: परिक्रय इत्युच्यते तत्र करणत्वार्थिका तृतीया चतुर्थी च भवति शताय शतेन वा परिक्रीतो वृषभ इत्यत्र चतुर्थीतृतौययोः करणत्वं व्यापारोऽर्थः स च व्यापारो दानं जन्यतया परिक्रयफले खत्वेऽन्वेति तथा च शतदानजन्यस्य परिक्रय प्रयोज्य खत्वस्याश्रयाभिन्नो वृषभ इत्यन्वयबोधः । परिक्रयजन्यं च स्वत्वं तत्रैव वस्तुनि व्यवस्थितकालमवस्थाय नश्यति व्यवस्थितकालानन्तरं तु स्वत्वान्तरमुत्पद्यते ऽथ वा व्यवस्थावशादेकमेव स्वत्वं कालान्तरव्यापकं भवतीति संप्रदायः । स्वतन्त्रास्तु भू
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चतुर्थीविभक्तिविचारः। तिदानजन्य नियतकाल कस्वत्वजनकः परिग्रहः परिक्रय इत्युच्यते तत्र भृतौ तादात्म्येन शतस्यान्वयः संसगंतया लब्धकरणत्वस्यानुवादिका दृतीया चतुर्थी च ज्योतिष्ठोमेन यजेतेत्यत्न टतीयावदित्याहुः । वस्तुतस्तु भोगजनकनियतकालकस्वत्वफलको व्यापारः परिक्रयः स च व्यापार इच्छेव भृतिः शतादिका मासादिभोगव्यवस्थया गृहौता मासादिव्यापकं परकीयस्वत्वं जनयति भृतिदानजनितस्वत्वं भोगं जनयति न तु विक्रयदानादिकं परिलेटक्कतविक्रयदानादेरसिद्धेः भोगस्य विक्रयो दानं च परिक्रतुरपि सम्भवति । एवं शताय शतेन वा परिक्रीतो वृषभ इत्यत्न चतुर्थीटतौययोः करणत्वं व्यापारोऽर्थः स च व्यापारः परस्वत्वोपहितं दानं शतत्तिस्वत्वं प्रति ताहाल्येन शतस्य जनकत्वात् स्वत्वोपहिते दाने स्वत्वहारकं शतस्य जन्यत्वमिति शतव्यापारत्वमक्षतं यदि च भाविदानेन परिक्रयव्यवहारी न गौणस्तदा शतस्य स्वज्ञानहारकं दाने जन्यत्वमिति तद्यापारत्वं बोमिति शतस्य जन्यतया कर्मतया च व्यापारे दाने तस्य परिक्रयफले तथाविधस्वत्वे ऽन्वयस्तवैव स्वत्वे परिक्रयव्यापारस्येच्छाया उद्देश्यत्वेनाऽन्वयस्तस्य स्वत्वस्य कर्मक्तप्रत्ययार्थ आश्रयेऽन्वयः यदि च परिक्रयकर्मणो विद्यमानतायामपि परिक्रयव्यवहारस्तदा क्तप्रत्ययार्थी निरूपकं तवैव तस्य स्वत्वस्यान्वयस्तथा च शतजन्यतत्कर्मकदानजन्यस्येच्छोह श्यस्य भोगजनकनियतकालकस्वत्वस्याश्रयो निरूपको वा वृषभ इ. त्यन्वय बोधः । यत्न व्यवस्थितकालकं न स्वत्वं भृतिशे
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
२९९ षस्य प्रत्यर्पणेन परिक्रेयस्यापचारेण वा तत्र परिक्रयव्यवहारार्थ तथाविधस्वत्वोद्देश्यिकेच्छा परिक्रोणातेरभिधेयत्वेनोक्ता नियतकाल कस्वत्वं प्रति तु मृतिदानं कारणमत एव परिक्रायणं नियतकालं वेतनादिना स्खौकरणं नात्यन्तिकः कय एवेति काशिका न चात्र बेतनदानादिजन्यनियतकाल कस्वत्वानुकूल व्यापारः परिकोणातेरर्थः परिकय इति वाच्यं तथासति नियतकालमित्युपादानवैयापत्तेः वेतनदानादिजन्य स्वत्वस्यावश्यं नियतकालकत्वात् वेतनाय शताय वेतनेन शतेनवा परिकीत इत्यादावनन्वयप्रसङ्गाच्च भृतेस्तच्छेषस्य वा प्रत्यर्पणं व्यवस्थितकालनाशी वा वेतनदानजस्वत्वनाशं प्रति हेतुरित्यन्यव विस्तरः । यजतियोगे संप्रदानस्य कमत्वं बोधयति । "कर्मणः करगसंज्ञा वक्तव्या संप्रदानस्य कर्मसंन्जेति"वार्तिकं कर्मणि हितौयायाः संप्रदाने चतुर्थ्याश्चापवादः यजतियोगे करणसंज्ञा कर्मसंज्ञाविधानात् । एवं पशुना रुद्रं यजत इत्यत्न यजतेमन्त्रकरणाकः स्वत्व ध्वसफलकस्त्या गोऽर्थः । यच्च काशिकायां पशुना रुद्रं यजते पशुं रुद्राय ददोतीत्यर्थ इति स्वत्वफलकल्यागार्थकददातिना यजतिविवरणं तत्त्यागरूपैकदेशार्थाभिप्रायेण यथोपेक्षावारणोय ददात्यर्थे स्वत्वफलकत्वं तथा यजत्यर्थ मन्त्रकरणकत्वं विशेषणं प्रकृते ददातिर्यजतिपर्याय एव देवानां विनियोगाभावात् स्वत्वाप्रसक्तः देवस्वमित्यादौ देवप्रौत्युद्देश्यकत्यागकमैत्वं देवस्वत्वं प्रतीयत इत्यन्यत्र विस्तरः । तृतीयायाः कर्मत्वमाधयत्वं स्वत्वध्व सान्वय्यर्थः चतुर्थ्याः प्रीतिर
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चतुर्थीविभक्तिविचारः। यस्तस्या उद्देश्यितया त्यागेऽन्वयः प्रीतौ प्रकृत्यर्थस्य समवतत्वेन तदबच्छिन्नावच्छेदकतानिरूपकतया वाऽन्वयः तथा च शिवसमवेतप्रीत्युद्देशियक: पशुनिष्ठस्वत्वध्वंसफलको मन्त्रकरणकस्त्यागो वाक्यार्थः यदि च शिवसमवेता प्रीतिरप्रसिद्धा तदा शिवस्य समवेतत्वसंसर्गावच्छिन्नस्त्रनिष्ठावच्छेदकतानिरूपक ज्ञानविषयत्वसंबन्धेन प्रोतावन्वय: शिवप्रीतिरिष्टसाधनमिति ज्ञानस्य प्रौतिनिष्ठविषयतायाः शिवनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितत्वादिति एवं शिवनिष्ठावच्छेदकतानिरूपकज्ञानविषयप्रौत्युहेश्यकस्तथाविधस्त्यागी वाक्यार्थ इति । गत्यर्थकर्मणि वैकल्पिकों चतुर्थो ज्ञापयति “ गत्यर्थकर्मणि हितौयाचतुर्थी चेष्ठायामनध्वनि ” इति सूत्र गत्यर्थधातुयोगे तदर्थकर्मणि चेष्टायां तदर्थे सति अध्ववर्जिते द्वितीयाचतुथ्यौँ भवत इत्यर्थकम् अोदनं पचतीत्यत्र कर्मणि चतुर्थीवारणाय गत्यर्थग्रहणं अश्वेन गच्छतीत्यत्र करणे चतुर्थीवारणाय कर्मणीत्युक्तं मनसा हरि बजतीत्यत्र कर्मणि चतुर्थीवारणय चेष्टायामित्युक्तं चैष्टाऽत्र परिस्पन्दरूपा बोध्या तेन ग्रामाथ रथो गच्छतीत्यत्न न चतुर्थ्यनुपपत्तिः अत एव काशिकायां चेष्टाक्रियाणां परिस्पन्दनक्रियाणां कर्मणीत्युक्तम् । अध्वानं गच्छतीत्यव कर्मण्यध्वनि चतुर्थीवारणायानध्वनीत्युक्तम् । आस्थितप्रतिषेधश्चायं विजेयः प्रास्थितः संप्राप्त आक्रान्त उच्यत इति काशिका अत आक्रान्ते अध्वनि चतुर्थी निषिध्यते यदा तु पन्थानमाक्रान्तुमिच्छति तदा चतुर्थी भवत्येव यथा ऽयसत्पथात्पथेऽध्वने वा गच्छनौति । एवं
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३०१ ग्रामं ग्रामाय वा गच्छतीत्यत्र द्वितीयाचतुर्योराधेयत्वलक्षणं कर्मत्वमर्थस्तच्च गत्यर्थफलसंयोगेऽन्वेति । तथा च गामत्तिसंयोगानुकूलः स्पन्दो वाक्यार्थः अत एव संप्रदानचतुर्थ्या गत्यर्थकर्मणि चतुर्थीविधेर्न प्रत्याख्यानमिति प्रगेवोक्तम् । इति संप्रदानसंज्ञकर्मसंतककारकार्यकचतुर्थीविवरणम् ।
अन्यादृशार्थिकां चतुर्थी ज्ञापयति । "क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिन” इति सूत्रम् । क्रिया क्रियार्था उपपदं यस्य स क्रियार्थोपपदस्तस्य स्थानिनोऽप्रयुज्यमानस्य तुमुन: कर्मणि चतुर्थी विभक्तिभवतीत्यर्थक"तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायामि"ति सवेण क्रियायाः क्रियार्थत्वे तुमुनो विधानात् तद्पपदत्वं व्यक्त क्रियायाः क्रियार्थत्वं फलविधया क्रियाप्रयोजकत्वं यथान्नं भोक्तुं बजतीत्यवान्नभोजनफलस्य गमनप्रयोजकत्वं तुमुनः फलजानहारकप्रयोज्यत्वमर्थस्तथा चान्नकर्मकभोजनप्रयोज्यं गमनमिति वाक्यार्थस्तुमुन ईदृशार्थकत्वे गमने भोजनासंपत्तावपि न दर्शितप्रयोगस्याप्रामाण्यम् एवं भोक्तमिति तुमुन्नन्तस्याप्रयोगे भोजनकर्मान्नवाचकशब्दात् चतुर्थी भवति तथा चान्नायौदनाय वा ब्रजतीयत्र चतुर्थ्या भोजनं ज्ञानहारकमिच्छाहारकं वा प्रयोज्यत्वं चाथ: प्रकृत्यर्थस्यान्नस्य कर्मतासंसर्गेण भोजने तस्य निरूपकतया प्रयोज्यत्वे तस्य स्वरूपेण गमनेऽन्वय इत्यन्नभोजनप्रयोज्यगमने वाक्यार्थ इति । एवं फलान्याहतुं वनं यातीत्यत्र फलेभ्यो वनं यातीतिप्रयोगस्तत्र फलाहरणप्रयोज्यं वनकर्मकगमनं
આ પુસ્તક શ્રી જૈન મુની nema
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चतुर्थीविभक्तिविचारः ।
वाक्यार्थः । नृसिंहं प्रौणयितुं नमस्कुर्म इत्यत्र नमस्कुर्मो नृसिंहायेति प्रयोगस्तच नृसिंहप्रोगनप्रयोज्यो नमस्कारो वाक्यार्थः पटमुत्यादयितुं यतते इत्यत्र पटाय यतत इति प्रयोगस्तत्व पटोत्पादप्रयोज्यो यत्नो वाक्यार्थः न चाव विषयत्वं चतुर्थ्यर्थः पटविषयताको यत्वो वाक्यार्थ इति वाच्यं चतुर्थ्या विषयत्वार्थकत्वे अनुशासनविरहात् विषयत्वसामान्यस्य तदर्थत्वे पटत्वाय यतत इति प्रयोगापत्तेः साध्यत्वस्य तथात्वे पटार्थतन्तुसाधने पटाय यतत इति प्रयोगानुपपत्तेः उद्देश्यत्वस्य तथात्वे स्वकामो गङ्गास्नानाय यतत इतिप्रयोगानुपपत्तेः न चात्र तादर्थ्याविधानात् चतुर्थ्या जनकत्वमर्थ पटजनको यत्नो वाक्यार्थ इति वाच्यं तथासति तन्तुसाधने पटानुत्पादे पटाय यतत इतिप्रयोगस्याप्रामाण्यापत्तेः कियार्थी पपदस्येत्युक्त्या प्रविश पिण्डोमित्यव न चतुर्थी - भक्षेरव स्थानित्वात् कर्मगौत्युक्त्या फलेभ्यो गच्छति शकटेनेत्यत्व करणे न चतुर्थी फलेभ्यो गच्छतीत्यत्राहमित्यध्याहृतं तवा हरणान्वयिकर्मत्वं चतुर्थ्यर्थः फलकर्मकाहरणार्थकं गमनं वाक्यार्थ इत्यपि वदन्ति । भावकृदन्तात् प्रातिपदिकात् चतुर्थी ज्ञापयति । "तुमर्थाच्च भाववचनादि"ति सूत्रं तुमर्थाः क्रियार्थकिय:र्थका ये भाववचना भावप्रत्यया घञादयस्तदन्तात्यातिपदिकात् चतुर्थो भवतीत्यर्थकं पाकाय गच्छतौत्यत्र चतुर्थ्यास्तुमर्थोऽर्थस्तुमर्थस्तु पक्तुं गच्छतीत्यत्र समानकर्तृकत्व मुद्देश्यत्वं च तथा च समानकर्तृकं पा कोई श्यकं गमनं वाक्यार्थ इति वदन्ति । शाब्दिकास्तु
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३०३
भाववचनाश्चेति सूत्रेण घञादौनां भावप्रत्ययानां कियार्थत्वं प्रत्याय्यते तच्च पूर्ववत् फलस्य ज्ञानेनेच्छया वा द्वारा प्रयोजकत्वं तथा व घञः प्रयोज्यत्वमर्थस्तच्च गमनेऽन्वेति तत्र पाकादिशब्दात् द्वितीयादिप्रसक्तिविरहेण प्रथमप्राप्ततया प्रथमा प्राप्ता तदपवादाय साधुत्त्वार्था चतुर्थ्यनुशिष्यते पाकाय गच्छतोत्यत्र पाकप्रयोज्यं गमनं वाकप्रार्थ एतेन भावघञन्तात्तादर्थ्य चतुयैव पाकाय व्रजतौतिप्रयोगोपपत्त्या तुमर्थादिति भाववचनाश्चेति चानुशासनद्दयं व्यर्थमिति निरस्तम् । कियाया: कियान्तरार्थत्वे विशेषतस्तुमुनो विधानेन घञोऽप्रवृत्तेर्भाववचनाश्चेत्यस्यात एवं क्रियाया: कियान्तरार्थत्वस्य तादर्घ्यत्वविरहेण तादयं चतुर्थ्यप्रसत्या प्रथमापवादकचतुर्थी विधायकस्य तुमर्थादित्यस्य च सार्थक्यसंभवादित्याहु: । वस्तुतस्तु भाववचनाश्चेति सूचं तुमुर्थादितिसूत्रेण चतुर्थीविधानार्थमेव चतुर्थी विना कियार्थभाववचन प्रयोगस्य क्वाप्यदर्शनात् तथा च क्रियायाः क्रियान्तरार्थत्वस्वरूपस्तुमर्थञ्चतुर्थ्या अर्थस्तव कियाइयस्य धातुलभ्यतया प्रयोज्यत्वमात्रं तुमुन इवास्वा अप्यर्थः भाववचनाचेति सूत्रं तुमर्थादित्यव भाववचनादिग्रहणं चेच्छादिस्वरूपे तुमर्थे चतुर्थीप्रसक्तिवारणार्थमेव पाकायेत्यच सुब्विभक्तेः प्रातिपदिकप्रकृतिकतथा षञादिविरहे चतुर्थ्यनुपपत्तेरिति भावः एवं घञादिप्रयोज्यत्वं च फलज्ञानादिद्दारकं पूर्ववद्दोध्यम् । एवं पाकाय व्रजति भोजनाय प्रविशति मुक्तये ऽधीत इत्यन पाकप्रयोज्यं गमनं भोजनप्रयोज्यः प्रवेशो मुक्तिप्रयोज्य
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३०४
चतुर्थीविभक्तिविचारः। मध्ययनं च वाक्यार्थः भावे विहिता घञ्ल्यतिन्प्रभृतिप्रत्ययास्त दन्तेभ्यश्चतुर्थीविधायकं भाववचनादितिगहणं पाचको बजतीत्यत्व कियार्थण्वुलप्रयोगे चतर्थों निषेधति चतुर्थ्याः कियार्थत्वसूचनार्थं तुमर्यादिति गहगां चतास्तथार्थ कत्वार्थकमेव घजादौनां तथार्थ कस्वतापकं भाववचनाश्चेति सूत्रं न घनादौनां भाववचनानां कियार्थत्वसंकेतगाहकं कियार्थोपपदस्येति सूत्रेण चताः कियो त्वसंकेतकल्पनाया आवश्यकत्वे तत एवानोपपत्तौ घादिभाववचनानां तथासङ्केतकल्पनाया व्यर्थ त्वादिति अङ्गा कोशेन वाऽनुवाकोऽधीत दूत्यत्र अधिकरणस्य टतीयात्यन्तसंयोगस्येव क्रियामानान्वयितया चतुयक्रियार्थ त्वस्य करणस्य कारकत्वमिति । मन्यतियोगे कर्मसाकाङ्क्षपदात् चतुर्थो ज्ञापयति । " मन्यकर्मण्यनादरे विभाषाऽप्राणिषु” इति सूत्रम् । मन्यतिकन्वियिनि प्राणिवर्जिते तहाचकपदात् द्वितीया चतथौ च भवत्यनादरे गम्यमान इत्यर्थक श्यन्विकरणस्य मन्यतेनिर्देशात्तनादेमनेयंदासः तेन न त्वां टणं मन्महे इत्यत्र न चतुथौं अनादरग्रहणात् ।।
अश्मानं दृषदं मन्ये मन्ये काष्ठमुलखलम् ।
अन्धायास्तं सुतं मन्ये यस्य माता न पश्यति ॥ इत्यत्र न चतौं एवं न त्वां टणं तुणाय वा मन्ये इत्यत्र नञः सादृश्यमप्राशस्त्यरूपोऽपकर्षों वाऽर्थ: तणपदोत्तरा द्वितीया चतुर्थों च प्रतियोगित्वार्था ऽथ वा नानुयाजेष्वित्यत्र सप्तमौवत् साधुत्वार्था तथा च तृणप्रतियोगिकेन सादृश्येनाप्रकर्षेण वा त्वां जा नामी
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
३०५ तिशाब्दो न्वयबोधः ततोऽनाहुतस्त्वमिति वैयञ्जनिको बोध: यत्र तु नानादरो व्यञ्चनया प्रतीयते तत्र वृषलं न विजं मन्ये इत्यादौ न चतुर्थी साधुः । दृश्यते च वैयञ्जनिकबोधसापेक्षा पदानां साधुता यथा “बदवद जित: स शत्रुन हतो जल्पस्तवतवास्मों"त्यादौ हर्षभयादौ धोत्ये दिवचनं साधु नेतरथा न चाल हर्षादिः शाब्दप्रतौतिविषयः तहाचकपदाभावात् भवतु बा ढणसहशतदपकृष्टादी लक्षणा लक्ष्यार्थस्य तादाम्येन त्वत्पदाथै इन्वयः नञ्पदमनातवाचि वणवदना हृतं त्वां मन्ये दूत्यन्वयबोधः । यदि च ।।
मन्यते: कर्मणो यस्मादनुक्तस्यापकष्टता। नबोध्या स्याद् द्वितीयावच्चतुर्थों प्राणिवर्जितात् ॥ इतिशाब्दिक स्मृतेन भय मनुक्तस्य कर्मण इति तु न स्वं कीरो मम मत इत्यत्र चतुर्थीवारणायात्र कर्मणः तप्रत्ययेनाभिहितत्त्वादिति संप्रदाय: । परे तु अयुक्तीवापकृष्टतेति पठित्वा वृषलं न विजं मन्ये इत्यादौ युक्तापकर्षवाचिनोऽनेन व्युदासः नअपदोपादानात् गादपकृष्टं त्वां मन्ये इत्यन्वयबोध इति वदन्ति । अन्ये तु न त्वां वृणाय मन्य" इत्यादौ टणपदस्य ढणसदृशोऽर्थः तस्य त्वत्पदार्थे भेदान्वयोपपादिका कर्मानुबादिका हितौयावच्चतुध्यनुशिष्यते कर्मविशेषणे न तु मुख्य कामणि सूबेनादर इत्यनेन कर्मणी त्यनेन चानादरनिमित्तसा. दृश्य प्रतियोगिनः कर्मविशेषणस्य वाचकात्पदात् चतुर्थी विधीयते नञोऽनादरोऽर्थः अनादरी नामेष्टानिष्टसाधनत्वेन प्रतिसंधानं तद्भेदश्च भेदो हि त्वत्कर्मकमननत्वा
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चतुर्थीविभक्तिविचारः। वच्छेदेनान्वेति ततस्त्वत्पदार्थस्य हिताहितान्य तरसाधनत्वमर्थतः प्रतीयत इत्याहुः । अत्र चतुर्थ्याः साहभ्यमर्थ: नञ्पदं तात्पर्यग्राहकं व चिन्नजपदं विनाऽपि प्रयोगः यथा"टणाय मत्वा रघुनन्दनस्तद्रक्षः प्रधानं प्रधनान्निरास्थत् इति ट्टः । यथा वा । “टणाभ्यां मन्यते कामक्रोधौ यः पञ्च कारयन्” इति श्रीहर्ष इति वदन्ति । युज्यते चैतत् ।
सहशत्वं गादौनामनुक्ते मन्यकर्मणि । द्वितीयावच्चतुर्थ्याऽपि बोध्यते बाधितं यदि ॥ इत्यापिशलिस्मरणात् बाधितमिति अयुक्त सादृश्यवोधकं तेन मुखं पनं मन्ये इत्यत्र युक्तसादृश्ये न चतुर्थी एवं न त्वां गाय मन्ये इत्यादौ नञा सहिते शून्ये वा प्रयोगे चतुर्थ्याः सादृश्यमर्थस्तच्च मन्यकर्मणि त्वत्यदान्वेति तथा च वृणसदृशत्वत्कर्मताकमननाश्रयो ऽहमित्यन्वयबोधः ततोऽनाहतस्त्वमिति बोधः स शाब्द आनुमानिको मानसो वेत्यन्य देतत् प्राथमिकन्वयवोधेऽनादरी न मारते अत एव काशिकायामनादरे गम्यमाने इत्युक्तं न त्वनादरेर्थे ऽनादरबोधकनादिपदसचे वेत्युक्तम् । मन्य कर्मणि सादृश्यान्वयबोधने चतुर्थ्या हितीयासमानवचनत्वं तन्त्रमतस्तणाभ्यामिति दर्शितप्रयोग उपपद्यते नापपद्यते च तणाभ्यां न त्वां तृणाय न युवां वा मन्ये इति प्रयोगः । सूबे प्राणिवित्यत्र नौका कान्नशृगालवर्जेवि तिवक्तव्यमिति वार्तिकेन प्राणिन: परिभाषितास्तेन न त्वां नावं काकमन्नं शृगालं बा मन्ये इत्यत्र न चतुर्थी प्राणित्वेऽपि न त्वां शुने को- .
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विभक्त्यर्थनिर्णये । टाय वा मन्ये इत्यादौ चतुर्थी चोपपद्यते । अत्र परम्परा मनन कर्मणः चतुर्थ्यर्थसादृश्यस्य नामार्थान्वयेऽपि जलं न पचतीत्यत्र नजान्वयिहितीयार्थकमत्वस्येव धातुसमभिव्याहारोव स्खविशेषगाकशाब्दबोधविषयत्वात् प्रागुक्त कारकलक्षणवत्त्वात् कारकत्वमिति ।
इति विभक्त्यर्थनिर्णये कारकचतुर्थीविवरणम् । नामार्थान्वयिन: चतुर्थ्यर्थाः अकारकतया संजायन्ते तत्र विधाने "तादथ्य उपसंख्यानमिति वात्तिकं चतु
यास्तादर्थ्यमर्थ ज्ञापयति तादयं च नानाविधं मोऽर्थो यस्येति तस्यार्थो यस्येति च विग्रहेण प्रतीयत नत्र सोऽर्थ इत्यनेन जनकत्वं तस्यार्थ इत्येनोपकारकत्वमपकारकत्वं च यथा यूपाय दारु कुण्डलाय हिरण्यमित्यादौ चतुर्थ्या जनकत्वमर्थः यूपस्य खण्डदारुणो नाशहारामहादारजन्यत्वात् भुग्नसंयोगवतः कुण्डलपदार्थस्य हिरण्यजन्यत्वं सविशेषणे होति न्यायेन भुग्नसंयोगमादाय पर्यवस्थति यूपजनक दारु कुण्डल जनक हिरण्यमित्यन्वयवोधः । एवं पटाय तन्तवो घटाय दण्डो रन्धनाय स्थालीत्यादावपि जनकत्वं चतुयर्थः । उपकारकत्वं विविध सुपचायकत्वं सुखजनकत्वं चाद्यं यथा अश्वाय यवघास: काननाय दृष्टिरित्यादावुपचायकत्वं चतुथ्यर्थः । हितोयं यथा ब्राह्मणाय दधि कामिने युवतिरित्यादौ सुखजनकत्वं चतुर्थ्यर्थः । अपकारकत्वं चतुर्विधमपचायकत्वमनुत्पादकत्वं नाशकत्वं दुःखजनकत्वं चैति तत्वाद्यं यथा दन्ति ने नवबन्धः जलाशयेभ्यः उष्णोपगम इत्यादावपचायकत्वं चतुयर्थः। द्वितीयं यथा
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चतुर्थीविभक्तिविचारः । दाहाय मणि: नरकाय दीपदानमित्यादावनुत्पादकत्वं चतुध्यर्थः । ततीयं. यथा तापायोशौर विषाय सुधा मोहाय तत्त्वज्ञानमित्यादौ नाशकत्वं चतुर्ध्यर्थः । चतुर्थ यथा मशकेभ्यो धूमी हरिणेभ्यो वागुरा इत्यादौ दु.खजनकत्वं चतुर्थ्यर्थः । क्लिपि सम्पद्यमाने च चतुर्थों व तान्या" । इति वार्तिकं लिपियोगे सम्पद्यमानेऽर्थ चतुर्थो भवतीत्यर्थक संपद्यमान इति भावे शानच् भक्तिजानाय कल्पते इत्यत्र चतुर्थ्याः सम्पत्तिरर्थ: सा चान धिक्य स्वरूपा प्रयोज्यतया भक्तिविषय के कल्प्यते तदर्थकत्वाध्यवसायस्वरूपान्वेति । भक्त्यनन्तरं जानाधिक्यदशनेन भक्तो नार्थकत्वाध्यवसायो भवतीति । यदि च कल्पनं कृतकसत्वं सम्पत्तिरधिकसत्वं तदा ज्ञानविशेषितस्याधिकसत्त्वस्य चतुभ्यर्थस्य प्रयोजकतया भक्तित्तिकतकमत्वेऽन्वयः । अत एव सत्त्वरूपैकदेशार्थकतया सम्पदेरसतः सत्त्वार्थकजनेश्च क्लिपिपर्यायता तथा च भति नाय सम्पद्यत इत्यत्व भक्तिसम्पत्तौ भक्ति नाय जायत इत्यत्र भक्त्युत्पत्तौ ज्ञानाधिक सत्त्वस्य तथाऽन्वय: अत एब क्लिपौत्यर्थनिर्देशः मूत्राय कल्पले सम्पद्यते जायते वा यवागूरिति काशिका । कल्पनादौ धात्वर्थे चतुर्थ्ययस्य न कारकत्वं मूवेभ्यो यवागरित्यत्र सूत्राधिकसत्त्वप्रयोजकत्वं यवाग्वां धातुं विनाऽपि प्रतीयत इति क्लिपौतिवार्तिकं तु वहुब चनं विनाऽपि तथाऽर्थः प्रतीयत इति ज्ञापनार्थमेव । वस्तुतस्तु क्लिपौतिवार्तिकं व्यर्थमेव तादथ्यचतुर्येव दर्शितप्रयोगोपपत्तेः मूत्वाय यवागरियत्र विषयखभावादेव मृबाधिक्यप्रयोजकत्वं यवाग्वां
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३०९ प्रतीयते यतो मूत्रायौदन मिति न प्रयोगः । “उत्या. तन ज्ञाप्यमान" इति वार्तिकम् उत्पातवाचिपदेन योगे जाप्यमानार्थं चतुर्थी भवतीत्यर्थक ज्ञाप्यमान इति भावे लट उत्पातास्तु मयूरचित्रकादौ विद्युदै कतादयो दर्शिता: वाताय कपिला विद्युदित्यत्र ज्ञापनं ज्ञानजननं चतुयथस्तच्च प्रयोजकतया कपिलविद्युत्यन्वेति ।
वाताय कपिला विद्युदातपायातिलोहिनौ । __ पौता बर्षाय विज्ञेया दुर्भिक्षाय सिता भवेत् ।। - अत्र पोताऽधिकपौता बोध्या अन्यथा नोत्पातत्वमिति । उत्पातत्वं तु नाव शब्दविषयः नबोऽनुगतमेकमत उत्पातत्तिज्ञापकत्वं चतुयर्थ इति नाशनो. यमत उत्पातो वातायेत्यपि न प्रयोगः उत्पातपरिभापाविषयतावच्छेदको यो यो धर्मस्ततविशिष्टप्रतिपादकशब्दयोग चतुर्थो ज्ञापनार्थि केत्येव वार्ति कार्थः । एवं रतोपरागो युद्धाय महोल्कासंप्लवो राष्ट्रभङ्गायेत्यादावपि जापनार्थिका चतुर्थी बोध्येति । "हितयोगे च" इति बार्तिकं हितशब्दयोगे चतुर्थीभवतीत्यर्थक कालान्तरभावि इष्टस्य सुखदुःखाभावादः साधनं हितशब्दार्थ: यधिष्ठिराय हित: कृष्ण इत्यत्र चतुर्थ्याः सम्बन्धोऽर्थः स
च संबन्धः सुखादावाधेयत्वं साधने स्वाधेयसुखादि'निरूप्यत्वमेवं युधिष्ठिरवृत्तिसुखादिनिरूप्यं कालान्तरभाविसुखा दिसाधनं कृष्ण इत्यन्वयबोधः यधिष्ठिरवृत्तिमुखादिनिरूपितत्वस्य सुखादिसाधने वगमे यधिष्ठिरवृत्तिमुखादिसाधनत्वमर्थत एवावसीयते। एकमामयाविने हितं भेषज्यमित्यत्र दुःखाभावसाधनं
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३१०
चतुर्थीविभक्तिविचारः ।
हितशब्दार्थः स्वष्टत्तिदुःखाभावनिरूप्यत्वं साधनान्वव्यामयाविन: संबन्धश्चतुर्थ्यर्थः पूर्ववदन्वयबोधः आमयाविवृत्तिदुःखाभावसाधनत्वस्य हितेऽवगमञ्च "चतुर्थी चाशिष्यायण्यमद्रभद्रकुशल सुखार्थहिते" रिति सुत्रेणाशंसाविषग्रहितयोगे षट्या सह वैकल्पिक्याश्चतुर्थ्या विधानेऽपि आशंसाविरहेऽपि चतुर्थीविधायकतया हितयोगे चेतिवार्त्तिकस्य न वैयर्थमिति । नमः शब्दादियोगे चतुर्थी' ज्ञापयति । " नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड्योगाच्च" इति सूत्रं नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषडित्येतैः शब्दैर्योगे चतुर्थी भवतीत्यर्थकं पुष्पं शिवाब नमः इत्यव दानकर्म नमः पदार्थः चतुर्थ्याः संप्रदानत्व. मर्थ संप्रदानत्वं तु प्रीतिरेव प्रीतिस्तु जनकतया दानेइम्बेति शिवप्रीतिजनकदानकर्म पुष्पमित्यन्वयबोधः । ब्राह्मणाय गौर्नम इति वाक्यं प्रमाणमपि विहितवाक्यत्वाभावेन न प्रयुज्यते ।
नामगोत्रे समुच्चार्य सम्यक् श्रावितो ददत् । संकीर्त्य देशकालादि तुभ्यं संप्रददे इति ॥ इत्यवचनेन संप्रदद इत्यन्तस्यैव वाक्यस्य दानवाकयवेन विधानात् । ननु ब्राह्मणादिसंप्रदानके दाने नमइत्यन्तवाक्यस्य विहितत्वाभावेनाप्रयोगेऽपि प्रौत्यादिना दाने मित्राय गौर्नम इत्यादिवाक्यप्रयोगः स्यादिति चेन्न । मन्त्रकरणकत्यागकर्मणो नमःपदार्थत्वात् प्रीत्यादिना दाने मन्त्रकरणकत्वाभावात् वैधे हि कर्मणि मन्त्राणां करणत्वं तच्च त्यागा दिवैध कर्मजन्यं परमापूर्व प्रधानापूर्व वा प्रत्यङ्गापूर्वहारा जनकत्वमत एव जुहुयाद्दारु
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३११
यो बेरित्यादौ मन्त्राणां करात्वार्थिका तृतीया तथा च नमः पदार्थकदेशे मन्त्रकरणकत्यागे उद्देश्यकत्वं संप्रदानत्वं प्रौतिरिति यावत् चतुथीर्थो जनकतयाऽन्वेति शिवप्रौतिजनक मन्त्र करक त्यागकर्म पुष्पमित्ययन्वयबो - धः । भवति च शिवाय नम इति वाक्यं मन्त्रः चतुर्थ - न्तपदघटितनमोऽन्तवाक्यस्य मन्त्रत्व परिभाषणात् ईदृशवाक्यरूपमन्त्रस्य देवताद्देश्य त्याग एव दर्शितकरणत्वं न तु ब्राह्मणाद्युद्देश्यत्याग इति ब्राह्मणाय गौर्नम इति वाक्यमप्रमाणमेव यत्र तु ब्राह्मणस्य दैवतत्वविवक्षा तत्र दानाङ्गब्राह्मणपूजनादौ पुष्पं ब्राह्मणाय नम इति वाक्यं प्रमाणमेव प्रयुज्यते मन्त्रवाक्ये शिवादीनां देवतात्वं पुनरर्थगम्यं न तु श्रौतं श्रौतं तु ऐन्द्रं दधौत्यादी तहितेन हि चतुर्थ्यन्तकरणकत्याग कर्माभिधीयते तद्दधनि तादात्म्येनाग्वेति तदेकदेशे चतुर्थ्यन्तपदे प्रकृत्यर्थस्य श्वरूपपरेन्द्रपदार्थेन्द्र शब्दस्य तादात्म्येनान्वयः यदि पुनरिन्द्रश्चेतनो देवता तदेन्द्रपदार्थ इन्द्रः प्रतिपाद्य पतितिपादकभाव संसर्गेण चतुर्थन्तेऽन्वेति भवतु वेन्द्रप्रतिपादकमिन्द्रपदमेवेन्द्रपदार्थतादात्म्यमेव चतुर्थप्रन्ते पदे भासते अत एव शक्राय स्वाहेत्यादिप्रक्षेपवाक्यमश्रौतं यदग्नये च प्रजापतये जुहोतीत्यादावग्निष्टत्त्य द्देश्यताको हामश्च श्रौतस्तत्र चतुर्थीन्ताग्निपदकरणकत्वं न्यायावगम्यमत एवं तहितापेक्षया चतुर्थी दुर्बला साचाद्देवताश्रुत्यभावात् । यदाहुः ।
तहितेन चत्वा मन्त्रलिङ्गेन वा पुनः । देवतात्वश्व तिस्तव दुर्बलं तु परम्परम् ॥
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चतुर्थीविभक्तिविचारः। इति यथा तथा प्रकते शिवाय नम इति मन्त्रवाक्येऽपि अत्रापि शिववृत्त्युद्देश्यताकत्यागकर्म श्रुतमिति चतुर्थान्तशिवपदकरणकत्वं त्यागे न्यायावगम्यमिति नम:पदार्थैकदेशे त्यागेऽन्वितमुद्दे श्यत्वं चतुर्थी प्रतिपादयति। उद्देश्यत्वं तन्निष्ठा प्रीतिरेव तेन शिवप्रौतिजनकत्यागकम वाक्यार्थः परमात्मनि शिवे प्रौतेस्तज्जनकत्वस्य च बाधितत्वे त प्रौत्य शियकेच्छेव चतार्थस्तवालम्बनत्वेन शिवस्यान्वयः शिवः प्रीयतामिति बाधितविषयेच्छासम्भवात् तादृशेच्छा तु प्रयोज्यतया त्यागान्बेति फलेच्छाया उपायेच्छाप्रयोजकत्वादिति पदवाक्यरत्नाकर गरुचरणाः । वस्तुतस्तु पुष्पं शिबाय नमः इत्यादी मन्त्र करणकत्यागो नम:पदार्थः त्यागस्तु स्वत्वनाशप्रकारिके. च्छा तस्यास्त स्वत्वनाशप्रकारतानिरूपितविशेष्यतास्वरूपेण विषयत्वेन पुष्णेऽन्वय: चतुर्माः संबन्धोऽर्थः मंबवस्तु प्रौतौछाप्रयोज्यत्वं तच्च स्वरूपेण स्वत्वनाशेऽन्वेति परम्परासंबन्धघटकतदेकदेशे पौतीच्छायां प्रकृत्यर्थ स्य জীনিসন্ধানীনিধিনমিময়না নিয়মस्वयः यथा जलस्य कर्परगन्धः स्फटिकस्य जवालौहित्यमित्यादौ षष्यर्थस्य परम्परासंबन्धस्य घटके तदेकदेशे संयोगे प्रकृत्यर्थ स्य जलादेरन्वयः परम्परासंबन्धस्य विभक्त्यर्थ त्वे तदेकदेशे प्रकृत्यर्थान्वयस्य सर्वसंमतत्वात् । भवतु वो प्रीतीच्छा प्रयोज्यत्वं च खण्डशश्चतुथार्थो
वयस्तु पूर्ववदेव तथा च प्रोतिप्रकारतानिरूपितशिधविशेष्यताकप्रौतीच्छाप्रयोज्यमन्त्र करगाकस्वत्वनाशप्रकारकेच्छायाः स्वत्वनाशप्रकारतानिरूपितविशेष्यता
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
वत् पुष्पमित्यन्वयबोधः । विषयताया इच्छादिसमानकालिकत्वात् त्यक्ते पुष्पादौ न नमःपदप्रयोगः । नमः - खाहादिपदानां प्रयोक्त पुरुषौय त्यागार्थ का त्वादन्यदीयत्यागेऽन्यस्य न नमः स्वाहादिपदप्रयोगः प्रोतौच्छाप्रयोज्यत्वं खत्वनाशान्वय्येवोपपद्यते यतः प्रौतोच्छाप्रयोज्यस्वत्वनाश एव देवतानां स्वत्वं संबन्ध: शिवस्य पुष्पमित्यादौ व्यर्थतया प्रतौयते तत्र हि प्रीतीच्छाप्रयोज्यत्वस्य त्यागविशेषणत्वे विशिष्टत्यागस्य प्रयोज्यतया स्वत्वनाशघटकत्वे परम्परासंबन्धगौरवं स्यात् तस्य खत्वनाशविशेषणतया परम्परासंबन्धघटकत्वे दर्शित संबन्धस्य लाघवमेव न वा प्रीतीच्छायास्तत्प्रयोज्यत्वस्य वा चतुर्थ्यर्थस्य नमः पदार्थं त्यागेऽन्वयो युज्यते तथा सति मौतेरुद्देश्यतया त्यागेऽन्वयेनेव तादृशप्रयोगसम्भवात् शिवादेः प्रौतिबाधेऽपि बाधितोद्देश्यता के च्छासम्भवात् । अग्नये जुहोतीत्यादौ संप्रदानत्वस्य प्रीतेर्नमः पदार्थान्वयोपगमे धातुं विना स्वविशेषण कशाब्दविषयत्वात्कारकत्वहानिप्रसङ्गात् शिवाय नम इति मन्त्रवाक्ये शिवादोनां देवतात्वं मन्त्रलिङ्गेनावगम्यते यथा चातार मिन्द्रमवितारमिन्द्रमितिमन्त्रेण प्रकाश्यमानस्येन्द्रस्य देवतात्वं तच्च त्यागार्थकनमः स्वाहादिपदसमभिव्याहृतचतुर्थ्यन्तपदप्रतिपाद्यत्वमथ वा नमः स्वाहादिपदप्रतिपाद्यस्य त्याग प्रकार स्वत्वनाशस्य प्रयोजिकायाः प्रीतीच्छाया विषयत्वं प्रागुक्तविशेष्यत्वस्वरूपं बोध्यमिति यत्व पदे । नहत्थोपस्थापितेऽर्थं पदान्तरार्थस्यान्वयेन वाक्यार्थतया देवतात्वं प्रतीयते तत्र श्रौतं तदुच्यते यथा ऐन्द्रं दधि
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चतुर्थीविभक्तिविचारः । भवत्यमावास्थायामित्यादौ तद्धितेनाणप्रत्ययेन प्रोतीच्छाप्रयोज्यस्य मन्त्रकरण कत्यागप्रकारस्य स्वत्वनाशस्थाश्रयो ऽभिधीयते तत्र प्रागतविशेष्यितया प्रौतौच्छायामिन्द्रपदार्थस्येन्द्रस्यान्वयस्तथा च विशेष्यितया तादुशप्रौतीच्छायामन्वये तादृशप्रौतीच्छाया अपि प्रागुतविशेष्यतयेन्द्रन्वय इतौन्द्रस्य देवतात्वं वाक्यार्थतया प्रतीयते एवं यथा श्रुतिवीहारा इत्यनेन त्यागवाक्यस्य श्रुतपदघटितत्वनियमनेन शक्राय स्वाहेत्यादिको न प्रयोगः । यदग्नये च प्रजापतये च जुहोतोत्यादौ चतुर्थ्यथंग्रौतेदेश्यितया होमान्वये होमजन्यस्वत्वनाशप्रयोजकप्रीतीच्छाविषयत्वं वन्ही न्याय गम्यं यत्प्रोत्युद्देश्यकत्यागजन्यः स्वत्वनाशः स स्वत्वनाशप्रयोजकप्रीतीच्छाविषय इत्येव न्याय: बाक्यार्थविधयाऽप्यत्व प्रौतीछाविषयत्वं न प्रतीयत इति न श्रौतं देवतात्वमितिअचेतनदेवतापक्षे गुरुचरणदर्शिता रोतिरनुसन्धेया । तस्मै पुरभिदे नम इत्यत्र नमःपदस्य नमस्कारोऽर्थः स चोत्कर्षप्रतिपत्त्यनुकूलो व्यापारः तलोत्कर्षप्रकारकप्रतिपत्त्यन्वयिविशेष्यित्वं समवेतत्वं च इयं संबन्धश्चतुर्थ्य /स्तथा च शिवसमवेतशिवविशेष्यताकोत्कर्षप्रकारकप्रतिपत्त्यनुकूलो व्यापारो वाक्याथैः व्यापारस्तु नमःपदप्रयोक्तुरेव बोध्यः यदि चाभिवाद्यस्य नोत्कर्षप्रतीतिस्तदोत्कर्षप्रतिपत्तीच्छव नमस्कारो बोध्यः । अतः शिवसमवेतप्रतिपत्तेनित्यतथा व्यापारस्य तदनुकूलत्वविरहेऽपि न क्षतिः शिवस्य जन्यप्रतिपत्तिविरहेऽपि तद्देश्यकच्छासम्भवात् उत्कर्षप्रतिपत्तेकद्देश्यतयेच्छायामन्वयात् । दू
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विभक्त्यर्थनिर्णये । छाऽपि व्यापारवत्प्रयोक्त रेव बोध्या स्वस्ति प्रजाभ्य इत्यत्व संबन्धश्चतुर्थ्य र्थः स चाधेयत्वमेव स्वस्तिपदार्थः कुशलं तच्चानिष्टसाधनाभावस्तथा च प्रजात्तिरनिष्टसाधनाभाव इत्यन्वयबोधश्चतुर्थी चाशिघ्यायुष्यमद्रभद्रीतिसूत्रे कुशलग्रहगोन तत्पर्यायस्य स्वस्ते हो नाशंसायां चतुर्थीसम्भवेऽप्याशंसाविरहेऽपि चतुर्थीविधानार्थ प्रकृते नमास्वस्तीतिसूत्रे स्वस्तिग्रहणम् अग्नये कृत्तिकाभ्यो वा हविः स्वाहेत्यत्र वहिसंयोगजनकप्रक्षेपोत्तराङ्गकविहितत्यागः स्वाहापदार्थः विहितत्वविशेषणात् वह्निप्रक्षेपफलकयादृच्छिकत्यागो न स्वाहापदार्थ: त्यागस्तु स्त्रत्वनाशप्रकारिकेच्छैव चतुर्थ्यर्थः संबन्धः प्रीतीच्छाप्रयोज्यत्वं तस्य स्वत्वनाशेऽन्वयः प्रीतीच्छायां तु प्रीतिप्रकारतानिरूपितविशेष्यताकत्वेन प्रकृत्यर्थस्यान्वयः त्यागस्य स्वत्वनाशप्रकारतानिरूपितविशेष्यतया हविष्यस्वयः पुष्पं शिवाय नमः इत्यवान्वयबोधः । अनग्निकर्तकब्राहाणपाण्याद्यधिकरणकप्रक्षेपोत्तराङ्गके त्यागे अग्नीकरणहोमे स्वोहाप्रयोगो गौण इति । दूदमन्न पितृभ्यः स्वधेत्यत्र पित्रुद्दे शयकत्यागः स्वधापदार्थः पिटत्वं तु चैवर्णिकसपिण्डितत्वं पारशवस्य पिता न चैवर्णिकेन सपिण्डितः किन्तु दैवतमात्रमिति न तव स्वधाशब्दप्रयोगः चैवर्णिकेन सपिण्डितस्य पारशवेन क्रियमाणे पुनरोब्दिकादौ न स्वधाशब्दप्रयोगः तस्य स्वधाशब्दप्रयोगनिषेधात् प्रत्यवायसहेन पोरशवेन प्रयुक्तः स्वधाशन्दः शाब्दबुद्धि जनयत्येव बाधकाभावात् भवतु वा स्वधाकरणकत्यागः स्वधाशब्दार्थः शुद्रकट क
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चतुर्थीविभक्तिविचारः। स्त्यांगो न खधाकरणक इति न तत्र खधाप्रयोग इति संप्रदायः । वस्तुतस्तु विहितस्त्यागः स्वधाशब्दार्थ: चतुयर्थः पूर्वोक्त एव संबन्धस्तस्य स्वत्वनाश त्यागस्थान्ने पूववदन्त्रयः पुष्पं शिवाय नमः हविरग्नये स्वाहेत्यवेवान्वयबोधः नमःस्वाहाम्वधाशब्दानां विहितस्त्याग एवार्थः त्यागस्तु प्रयोक्तरेव तत्र प्रजादौ नमः पदस्स होमें स्वाहा पदस्य श्राद्धे स्वधापदस्य प्रयोगे विशेषविधानात् शूद्रस्य न स्वाहास्वधाप्रयोगो निषेधात् प्रत्यवायसहस्य स्वाहास्वधोप्रयोगेऽपि स त्यागी न तथाविहित इति न स्वाहादिशब्दार्थ इति न शाब्दबोधः अत एव शूद्रेण क्रियमाणे श्राद्धादौ नमःपदप्रयोगः यत्र स्वधाप्रयोगनिषेधस्तत्व चैवर्णि केनापि क्रियमाणे रद्धिश्राडादौ नमःस्वाहापदयोरेकतरप्रयोगः विशेषविधानादेवानाग्निकतुकेऽग्नौकरणे स्वाहापदप्रयोगः । अलं जगते इत्यत्रालमितिपर्याप्त्यर्थकानां ग्रहणं पर्याप्तिरपि स्वाम्यं नि. ग्राहकत्वं च अत एवालमितिपर्याप्त्यर्थग्रहणमिति काशिका | चतुर्थ्या निरूपितत्वमर्थः पर्याप्तावन्वेति तथा च जगन्निरूपितस्वाम्यवान् जगन्निरूपितनिग्राहकत्ववान् वैत्यन्वयबोध: जगते प्रभुभंगवानित्यत्व प्रभुत्वमपि स्वाम्यं निग्राहकत्वं च पूर्ववदन्वय: जगते समर्थः शक्तो वा भगवानित्यत्र सामयं शक्तत्वं च निग्राहकत्वमेव पूर्ववदन्वयः मल्लाय प्रभुः समर्थः शक्ती वा मल्ल इत्यत्र प्रभुत्वादिकं निग्राहकत्वमेव पूर्ववदन्वयः घटायालं समर्थ: शक्तो वा कुलाल इत्यत्र स्वरूपयोग्यत्वमुपहितत्वं वा सामादिकं पूर्ववदन्वयः । प्रवादिशब्दयोगे षष्यपि
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३१७ साधुः “स एषां ग्रामणी"रितिनिर्देशात् अत एव प्रभुबभूषु वनलयस्य य इति माघोऽप्युपपद्यते । वषडिन्द्राय वषडग्नये इत्यत्रापि विहितस्त्यागो वषट्पदार्थः चतुर्थ्याः प्रीतीच्छाप्रयोज्यत्वमर्थः नमःस्वाहायोगवदन्वयः विशेषविधानात् वषट्पदप्रयोगः नमःस्वाहादिशब्दानां प
याणां ग्रहणेन पर्यायस्य हन्तादिशब्दस्य योगेऽपि चतुर्थी ज्ञाप्यते यथा दूदमन्नं सनकादिमनुष्येभ्यो हन्त इत्यत्र विहितस्त्यागो हन्तशब्दार्थः चतुर्थ्याः प्रौतीच्छाप्रयोज्यत्वमर्थः नमःस्वाहादियोगवदन्वयः विशेषविधानादन्तशब्दप्रयोगः बषडाहणं फट्वौषडादिशब्दानामप्युपलक्षके तेन नेत्रत्रयाय वौषट् अस्त्राय फट् इस्यत्र चतुर्युपपद्यते एतदर्थमेव सूत्रे चकारः । काशिकाकृतस्तु चकारः पुनरस्यैव समुच्चयार्थः तेनाशीविवक्षायामपि षष्ठौं बाधित्वा चतुर्येव भवति स्वस्ति गोभ्यो भूयात् स्वस्ति ब्राह्मणेभ्यो भूयादित्याहुः । हृदयाय नम इत्यादी नमःस्वाहावषट्वौषट्फटशब्दाः कुशलार्थकाः चतुर्थ्याआधयत्वं संबन्धः चतुर्थ्यर्थः कुशले न्वेति । हुंशन्दोऽपि वषट्शध्दस्य तदुपलक्षकतयाऽऽशौविवक्षया वा चतुर्थीति । ननु देवान् नमस्यतीत्यत्र नमोयोगे चतुर्थों स्यात् "नमोवरिवश्चित्रङ: क्यजि"ति सूत्रेण नमःशब्दात् करणे क्यविधानेन नमस्यतौतिसिद्धेः नमस्यतेनमस्करीतेश्च नमस्कारानुकूल प्रयत्नार्थकतया फलसमानाधिकरणव्यापारवाचित्वादकर्मकतया तद्योगे हितीयाऽनुपपत्तिश्च यदि च नमस्यतिनमस्करीतौ धातू नमस्कार रूढौ व्याकरणव्युत्पादनमुणादिवहालोपलालनं तदा फलस्यो
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३१८ . चतुर्थीविभाक्तिविचारः। त्कर्षप्रकारकप्रतिपत्तेय॑धिकरणव्यापारवाचित्वात् सकर्मकतया द्वितीयोपपत्तावपि नमोयोगे चतुर्थीविधानेन द्वितीयाचतुोविकल्पः स्यादिति चेन्न उपपद विभक्त: कारक विभक्तिर्बलीयसौति न्यायात् देवान् नमस्यति नमकरोति वेत्यत्र द्वितीयाया एव साधुत्वादिति । स्वयंभुवे नमस्कृत्येत्यत्र नमोयोगे न चतुर्थी किं तु क्रिथार्थोपपदेतिसवेण क्रियार्थक्रियायां तथा च स्वयंभुवं प्रीणयितुं नमस्कृत्येत्यर्थ इत्युक्तप्रायम् ।
__ इत्यकारकचतुर्थ्यर्थनिर्णयः। इति विभक्त्यर्थनिर्णये चतुर्थीविवरणं समाप्तम् ।
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
अथ पञ्चमी। सिम्यांभ्यस इति त्वयः प्रत्ययास्तत्र सरसः समुपैति सुमनसः समधीत इत्यादौ श्रूयमाणत्वादसस्तत्वेन भ्यामित्यस्य भ्यांत्वेन भ्यसो व्यस्त्वेन वाचकत्वं डकार दूकारश्चानुबन्धः क चिदप्यश्रयमाणत्वान्न तौ वाचकताकुक्षिप्रविष्टाविति अनुशासनसिद्धाः पञ्चम्या अर्थाः । अनुशासनं च "अपादाने पञ्चमौ” इति । तत्वापादानमैपादानत्वं वार्थ इति वक्ष्यते । अत्राप्यनमिहिते - त्यधिकारस्तेन चौरभौत इत्यत्र समासेन व्याघ्र इति बिभेतीत्यत्र निपातनापादानाभिधाने न पञ्चमी । अपादान पदसङ्केतग्राहकं सूचं "ध्रुवमपायेऽ पादानम्" इति । ध्रुवं यदपाययुक्तमपाये साध्ये यदवधिभूतं तल्कारकमपादानसंखं भवतीत्यर्थकम् । अपायो विश्लेषः संबधापगम इति यावत् । विश्लेषस्य साध्यत्वं क्रियाजन्यत्वं तेन स्वतःसिद्धविश्लेषवतो ध्रुवस्य नापादानत्वमतो मेरोरयमायातीति न प्रयोगः तरीः पचं पततीत्यत्र विश्लेषस्य संयोगनाशस्य प्रयोजको विभागोपायस्तद्वत्त्वमपायित्वं क्रियानधिकरणत्वं ध्रुवत्वं तत्र विभागो भेदश्च पञ्चम्यर्थः लाघवाक्रियावदन्यो विभागबान्न पच्चम्यर्थो गौरवान् विभागस्य जनकतया भेदस्य प्रतियोगितावच्छेदकतया क्रियायामन्वयः वृक्षस्य पतनक्रियावदन्यत्वादिभागवत्वाच्चापादानत्वं क्रियावदन्यत्वं तु तक्रियावदन्यत्वं बौध्यं तेन कुड्यात्मततोऽश्वात्मततोत्यत्राश्वस्य पतनक्रियावत्वेऽपि नरक कपतनक्रियापादानत्वस्य न हानिस्तदुक्तं हरिणा ।
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। अपाये यदुदासीनं चलं वा यदि वा चिलं । ध्रुवमेवातदावेशात्तदपादानमुच्यते॥ .. पततो ध्रुव एवाश्वो यस्मादश्वात्यतत्यसौ । तस्याप्यश्वस्य पतने कुड्यादि ध्रुवमुच्यते ॥ उभावप्यध्रुवो मेषौ यद्यप्युभयकर्मजे । विभागे प्रविभक्त तु क्रिये तत्र विवक्षिते ॥ मेषान्तरक्रियापक्षमवधित्वं पृथक् पृथक् । मेषयोः स्वक्रियाऽपेक्षं कट त्वं च पृथक् पृथक् ॥ इति तत्र अपाये विभागे सतौति शेषः । उदासीनं कर्म कादिभिन्न कारकं चलं धावदश्वादि अवलं तरूपर्वताहि अतदावेशाक्रियायन्यत्वात् । ननु परस्परस्मान्मेषावपसरत इत्यादावुभयकर्मजन्यविभागवत्तया विभागजनकक्रियावदन्यत्वं न कस्यापि मेषस्य तत्कथं मेषयोरपादानत्वमित्याशङ्कते । उभावपीत्यादि । नन्वपादानसंज्ञायां क्रिया क्रियात्वेन विभागजनकत्वेन वा न प्रवेशनीया किं तु ताटूप्येणेति नानुपपत्तिरिति समाधत्ते । प्रविभक्त वित्यादि । तुस्तथापिपर्यायः प्रविभक्त भिन्ने क्रिये विवक्षिते तद्रूपेणेतिशेषः । ननु कट संज्ञाsवरुदयोमषयोः कथमपादानसंज्ञा "आकडारादेका संजे"ति संज्ञाप्रतिनियमनादित्याशय भिन्नभिन्न क्रियानिरूपितसंज्ञाहयसमावेशो न विरुद्ध इति समाधत्ते । मेषान्तरीत्यादि। अवधित्वं विभागजनकतक्रियावदन्यत्वे सति तक्रियाजन्यविभागवत्वं यद्यतिरिक्त शक्तिस्वरूपमवधित्वं तदाऽप्येतदभिव्यङ्ग्य मेव तत् कट त्वं क्रियाशयत्वमत्रापि क्रिया तद्रूपेणैव निविशत इति भावः स
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३२१ वमिदं बालोपलालनं न तु पञ्चम्यर्थविवेचनं क्रियादेरन्यलभ्यत्वात्तत्तक्रियादेरननुगमेन पञ्चम्यर्थप्रवेशानुपपत्तेः तस्माऽदो विभागश्च पञ्चम्यर्थस्तत्र प्रकृत्यर्थस्याधेयतया अन्वयः विमागस्य जनकतया भेदस्य प्रतियोगितावच्छेदकतया पतनादिक्रियायामन्वयः । तरोः पवं पततीत्यत्र तरुसमवेतविभागजनकस्य तत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकस्य पतनस्याश्रयः पत्रमित्यन्वयबोधः । शाब्दिकैकदेशिनस्तु विभाग एव पञ्चम्यर्थो न तु भेदः न चैवं पत्त्रात्यवं पततीतिप्रयोगप्रसङ्ग इति वाच्यं परया कतसंजयाऽपादानसंज्ञाबाधात् पञ्चम्यनुपपत्तेः संत्ताया एव विभक्तिनिष्पादकत्वादिति वदन्ति | तन्न एवं मति वृक्षात्पणं पतति न पत्त्रादित्यत्र निषेधप्रतीत्यनुपपत्तेः पतने पत्रसमवेतविभागजनकत्वाभावस्य नञा बोधनासम्भवादयोग्यत्वात् गुणान्न पततौल्यादाविब प्रकृत्यर्थसमवेतत्वाभावस्य पञ्चम्यर्थं विमागे बोधनस्याप्यसम्भवात् विभागस्य पत्रसमवेततया अयोग्यत्वात् भेदस्य पञ्चम्यर्थतावादे तु पननिष्ठभेद प्रतियोगितावच्छेदकत्वाभावस्य पतने नञा बोधनसम्भवान्निषेधप्रतीत्युपपत्तिः नन्वेवमपि पत्रसमवेतविभागजनकत्वस्य पत्रान्तरनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य च यो: पतने सत्त्वान्निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिः पत्रात्यवं पततीतिप्रयोगप्रसङ्गश्च न च तत्तत्पननिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य समुदायो नञा निषिध्यत इति निषेधप्रतीत्युपपत्तिस्तथाविधसमुदाय एव पञ्चम्याः साधुत्वान्न दर्शितप्रयोगश्चेत्यादिपूर्वोक्तप्रायं सांप्रतमिति वाच्यं युगसहस्रेणापि ग्रहौतु
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ફરર
पञ्चमीविभक्तिविचारः। मशक्यत्वात् न च खटत्तिविभागजनकत्ववत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वोभयसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगितोकः पत्रसामान्यभाव एव पतने ना बोध्यते पञ्चमौ तु प्रतियोगितावच्छेदकसंसर्गानुवादिकत्यपि पूर्वोक्तप्रायं युज्यत इति वाच्यं वृत्त्यनियामकसंबन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकतयाऽनभ्युपगमात् अभ्युपगमे तु विभागप्रतियोगित्वविशिष्ठजनकत्वस्वरूप साक्षात्संसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य पत्रसामान्यभावस्य पत्वापादानकपतनेऽपि सत्वेन पत्रात्पतपि पतक पत्नान्नायं पततौतिप्रयोगप्रसङ्गात् न च परम्परामुद्रया तादृशसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताक एव पत्रसामान्याभावः पञ्चम्यन्तपत्नपदपत्यादिधातुसमभित्र्याहृतना बोध्यते परम्परा हि विभागनिरूपकत्वजनकत्वानि भेदानुयोगित्वप्रतियोगित्वावच्छेदकत्वानि च परस्परविशृङ्खलितान्येव संसर्गस्तत्र प्रथमपरम्परास्थले पत्रत्वावच्छिन्नप्रतियोगितानिहपिता विभागसंसर्गता तया निरूपितो निरूपकत्वे तया निरूपिता जनकत्वे च संसर्गता तन्निरूपितानुयोगिता नज भावे भासते द्वितीय परम्परायामप्यनया रौत्या संसर्गता बोध्या विभागप्रतियोगित्वविशिष्टजनकताखरूपसाक्षात्संसर्गे तु विशिष्टधर्मावच्छिन्नजनकतावृत्तिरेकैव संसर्गता प्रतियोगित्वानुयोगित्वाभ्यां निरूप्यत इति परम्पराविशिष्टसंसर्गयोः संसर्गताविवेक इति न दर्शितप्रयोगप्रसङ्ग इति वाच्यं परम्परासंसर्गतासु प्रथमा प्रतियोगितया ,चरमा पुनरनयोगितया प्रथमैवानयोगितया चरमैव प्रतियोगितया निरूप्यत इत्यत्र
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३२३
विभक्त्यर्थनिर्णये । विनिगमकाभावात् दृश्यते च प्राचां निबन्धेषु प्रतियोगिविश्रान्ताः रचनाः न चोभयथा ऽपि परम्परातो विशिष्टम्य संसर्गताविवेक उपपद्यत इति वाच्यं विलोमानुलोमपरम्परासंसर्गावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावयोरविशेषप्रसङ्गादिति परम्परायाः संसर्गत्वस्य नितरां प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य चानुपपत्त्या पत्रं न पत्त्रात्यततीत्यत्र निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिरिति चेत् । अत्र गुरुचरणा पुष्पवन्तौ नेत्यत्र विभक्त्युपस्थाप्य हित्वविशिष्टयोः सूर्याचन्द्रमसोनअन्वये सूर्यचन्द्रोभयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावो बुध्यता यत्र तु निष्पुष्यवन्तमित्यव्ययौभावस्तत्र हित्वोपस्थापकाभावात् हित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावबोधनासम्भवात् न्यनत्तिभ्यां सूर्यत्वचन्द्रत्वाभ्यामवच्छिन्नव्यासक्तप्रतियोगिताकः सूर्याचन्द्रमसोरत्यन्ताभावः प्रतीयते यथा तथा न पत्रादित्यादौ विभागजनकत्वभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्त प्रतियोगिताकोऽप्यभाव इति यदि च पुष्पवन्तपदादेः सूर्यचन्द्रोभयमर्थ: । तदा पञ्चम्या अपि विभागनिरूपकजनकत्यभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वोभयमर्थः तथा चोभयत्वावच्छिन्ना प्रतियोगिता जनकतात्वनिष्ठयाऽवच्छेदकत्वनिष्ठया चावच्छेदकतया निरूप्यते अथ वोभयत्वनिष्ठाऽबच्छेदकता सामानाधिकरण्येन जनकतात्वावच्छेदक त्वाभ्यामवच्छिद्यते तत्र जनकतात्वनिष्ठावच्छेदकता निरूपकत्वत्त्या सा च विभागल्या अवच्छेदकत्वत्वनिष्ठा तु प्रतियोगितात्त्या सा च भेदनिष्ठयावच्छेदकतया निरूप्यते स्रोतोहयमुखभूतं तु विभागभेदयोरवच्छेदकत्व
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રૂર
पञ्चमीविभक्तिविचारः। इयमेकमेव पचत्वावच्छिन्नयाऽवच्छेदकतया निरूप्यतइति अमुमेवाभावं पत्रपतनकर्तपत्रे विभागजनकत्वतनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वं पतने नास्तौतिवाक्येन प्रामाणिका व्यवहरन्ति । एतादृशाभावबोधः पत्रत्वा
द्यवच्छिन्नैकप्रकारतानिरूपितविभागभेदोभयविशेष्यताक: सम्भवति प्रकारतादयनिरूपित कविशेष्यताकस्य संशयादेरिब विशेष्यताद्वयनिरूपितैकप्रकारताकबोधस्यान्युपेयत्वात् अत एव संशयाव्यवहितोत्तरं प्रत्यक्षमिति वाक्ये न मानान्तरेण वा यस्मात्संशयादव्यवहितं तस्मादुत्तरं प्रत्यक्षमिति प्रत्याय्यते संशयत्वावच्छिन्नयैकप्रकारतयाऽव्यवधानोत्तरत्वविषयतयोस्ताभ्यां च प्रत्यक्षविशेष्यताया निरूपणेन फलत एकतमसंशयाव्यवहितपूर्वस्य चिरातीतसंशयान्तरोत्तरप्रत्यक्षस्यानवगाहनात् । एवमेव धूमत्वादिसामान्यधर्ममन्तर्भाव्य बनद्यादेः कारणत्वमपि सुग्रहं तत्तङ्कमाव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन तत्तई माधिकरणे विद्यमानस्याभावस्य प्रतियोगितासामान्यामावो वह्नौ धमकारणता स चैक एवाभाव: न तु धूमव्यक्तिघटित कूटात्मक: युगसहस्रणापि दुहत्वात्सम्भवति चैकयैव धूमत्वावच्छिन्नावच्छेदकतया निरूपितमव्यवहितपूर्वक्षणावच्छिन्नत्वे अधिकरणत्वे चावच्छेदकताइयं ताभ्यां निरूपितं विद्यमानत्वे तेन चाभावेऽवच्छेदकत्वमेकैकमेव परस्परनिरूपितमभावनिष्ठावच्छेदकत्वेन निरूपिता प्रतियोगितात्वावच्छिन्ना प्रतियोगितेति तन्निरूपकोऽनुगतः सामान्याभावः तदुद्धिं प्रति धूमत्वावच्छिन्नेकप्रकारतानिरू
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विभक्त्यर्थनिर्णये । पिताव्यवहितपूर्वक्षणावच्छिन्नत्वाधिकरणात्तिविशेष्यताइयनिरूपितविद्यमानत्वादिनिष्ठ कविषयताको व्यभिचारग्रह एव विरोधी न तु धमान्तराव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन धूमान्तराधिकरण विद्यमानं वन्यभावमबगाहमान इत्यन्यत्र विस्तरोऽनुसन्धेय इति पदवाक्यरत्नाकरे प्राहु: । वस्तुतस्तु विभागो भेदश्च पञ्चम्यर्थः विभागस्य जनकत्वेन भेदस्य स्वसमानाधिकरणविभागजनकत्वविशिष्टेन प्रतियोगिताबच्छेदकत्वेन संबन्धेन पतनादिक्रियायामन्वयः तरोः पर्व पतति न पत्रादित्यत्र पत्रवृत्तिभेदस्य दर्शितेन विशिष्ट प्रतियोगितावच्छेदकत्वेन संबन्धनावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावो नञा पतने बोध्यते ऽतो भेदस्य पत्रान्तरनिष्ठस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वसंबन्धेन पतने सत्त्वेऽपि न निषेधप्रतौत्यनुपपत्तिः दर्शितविशिष्टप्रतियोगितावच्छेदकत्वसंबन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकताया युक्तिसहत्वात् यो हि वृत्त्यनियामकः संबन्ध: प्रतियोगिविशिष्ट बुद्धिं नाजयति स न प्रतियोगितावच्छेदकः यो हि विशिष्टवुद्धिमर्जयति म प्रतियोगितावच्छेदक एव तदैशिष्टंध प्रति तत्संबन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावस्य विरोधित्वादित्यादियुक्तर्दितीयाविवरणे दर्शितत्वात् यदि च वृत्त्यनियामक: संबन्धो न प्रतियोगितावच्छेदक इति मन्त्र पाठमण्यादिवत् प्रतियोगितावच्छेदकत्वबुद्धि विरुणदि तदा भेदस्य दर्शितविशिष्ट प्रतियोगितावच्छेदकत्वविशिष्टा विशेषणव संबन्धः पतनादिक्रियायामन्वय घटको न पत्रादित्यत्र नअर्थाभीवस्य प्रतियोगितावच्छेदकश्चाभ्य
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
पेयते यदव परम्परासंबन्धस्य न संसर्गत्वं न वा प्रतियोगितावच्छेदकसंसर्गत्वमिति बाधकमुक्त तदप्यकिंचिकरं सुरभि जलं लोहितः स्फटिक इत्यत्र समवायिसंयोगस्य संसर्गतायाः कर्पूरगन्धो न तडागजले किंतु कुम्भोदके मञ्जिष्ठा रागो न मैत्रवस्त्रे किं तु चैलपटे इत्यत्र प्रतियोगितावच्छेदकतायाः सर्वानुभवसिद्धत्वात्प्रकृतेऽपि विभागभेदयोः पञ्चम्यर्थयोः जनकत्वप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभ्यां परम्पराभ्यां पतनादिक्रियायामन्वयात् न पत्रादित्यादौ परम्परायाः प्रतियोगितावच्छेदकसंसर्गतया निषेधप्रतोत्युपपत्तिः नच्विनिर्मुक्तवाक्ये येन संबन्धेन यस्य यत्रान्वयः तत्र न समभिव्याहारे तत्संबन्धावच्छिन्न प्रतियोगिता कस्तस्याभावस्तवान्वेतीतिव्युत्पत्त ेः न च सुरभि जलमित्यादिप्रत्यचादिबुद्दौ परस्परायाः संसर्गत्वेऽपि शाब्दे क्वापि संसर्गत्वाभावात् प्रकृतेऽपि न संसर्गत्वं न वा प्रतियोगितावच्छेदकसंसर्गत्वमिति वाच्यं पचतीत्यादौ विक्तित्यादिफलकस्य जनकतया प्रयोजकतया वा फूत्कारादिव्यापारे तस्य प्रयोजकतया तिङर्थे प्रयत्नऽन्वयदर्शनात् एवं चैत्रेण न पच्यत इत्यादी तृतीयार्थप्रयत्नस्य प्रयोज्यतया संबन्धेनावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावः पाकेऽन्वेतीति सर्वानुभवान्न हि जनकता जन्यता प्रयोजकता प्रयोज्यता वा साक्षात्संबन्ध: न च जनकत्वसतिरिक्तपदार्थस्तस्य साक्षात्संबन्धत्वमिति वाच्यं जनकत्वस्य तथात्वे तु जन्यत्वस्यापि तथात्वावश्यकत्वात् प्रति ज्ञनकं जन्यं च जन्यत्व जनकत्व - योरतिरिक्तयोरनन्तकल्पनाऽपेक्षया कार्याधिकरणष्टत्त्य
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३२७ भावप्रतियोगितावच्छेदकस्य क्लप्तस्य तथात्वौचित्यात् जन्यत्वस्या तिरिक्तत्वपक्षेऽपि प्रयोजकत्वस्य साक्षात्संबन्धत्वाभावात् प्रयोजकतया प्रयोज्यतया बाऽन्वये परम्परायास्तथात्वावश्यकत्वमिति न च फलस्य व्यापार तस्य प्रयत्ने जनकतयाऽन्वयो न तु प्रयोजकतयेति वाच्यम् । अधिश्रयणाद्यवतारणान्तानां व्यापाराणां विक्लित्यादिजनकत्वविरहात् मध्यमव्यापाराणां जनकत्वेऽपि प्रथमव्यापारेषु प्रयोजकतयैव विक्लित्यादेरन्वयसम्भवात् पचतीत्यत्रापि व्यापारस्य तथैवान्वयात् न चात्र साध्यित्वाख्यविषयित्वसंबन्धेनान्वय इति वाच्यं प्रथमव्यापारस्य चरमव्यापारानुकूलप्रयत्ने तथाऽन्वयासम्भवात् । एवं चैत्रेण पच्यत इत्यत्र तृतीयाऽर्थप्रयत्नस्यापि न साध्यत्वाख्यविषयत्वेन व्यापारोन्वयः प्रथमव्यापारसाध्यकप्रयत्नस्य मध्यमचरमव्यापारेषु साध्यत्वविरहादिति प्रयोज्यतयैवान्वय इति चैत्रेण न पच्यत इत्यत्र प्रयोज्यतासंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकः प्रयत्नाभावो व्यापार प्रतीयत इति परम्पराया: संसर्गत्वं प्रतियोगितावच्छेदकर्मसर्गत्वं च सर्वसंमतमिति । यदि च भेदोऽपि पत्यादिधातोरेवार्थ: सर्वत्र पञ्चमौघटितशाब्दसामाग्रयां भेदोपस्थितेनिवेशनापेक्षया पत्यादिधातुघटित कतिपयशब्दसामग्रयां तन्निवेशनस्यैवौचित्यात् न च पत्यादिधात्वथस्य भेदस्य धात्वर्थे विशेषणतया अन्वयित्वात् फलतया तदन्वयिनोऽपादानस्य कर्मत्वाद् द्वितीयाऽऽपत्तिरिति वाच्यम् । अपायवतो ध्रुवस्य निरवकाशयाऽपादानसंचया कमसंजाबोधात्संयोगभेदोभयफलवत एव पत्यादिकर्मत्वा
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। दित्यस्य हितीयाविवरणे दर्शितत्वाच्च धात्वर्षभेदेऽपादानस्यान्वये पञ्चम्यर्थस्य क्रियाजन्यविभागादिरूपापायस्यान्वयसामग्री प्रयोजिकाऽतः केवलं भेदान्वयापत्त्या मेरोरयमायातीति न प्रयोग इति विभाव्यते तदा भेदो न पत्यादिधातोर्न वा पञ्चम्या अर्थः किं तु विभागादिरूपे पञ्चम्यर्थे व्यापारवद् भेदावच्छिन्नसमवायावच्छिन्नाधयतया प्रकत्यर्थस्यान्वयस्तत एव पत्त्रात्पवं पततोति न प्रयोगः वृक्षात्पवं पतति न तु पत्रादित्यपि दर्शिताधेयत्वसंबन्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकः पत्नाभावो विभागे प्रतीयत इति निषेधप्रतीत्युपपत्तिः दर्शिताधेयत्वस्य वृत्त्यनियामकत्वेऽपि प्रतियोगितावच्छेदकसंबन्धत्वं सर्वसंमतमेव अन्यथा गुणान्न पततात्यत्र निषेधप्रतीतेः कथमप्यनुपपत्तः दर्शिताधेयत्वसंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताको गु. णाभावो विभागे प्रतीयत इति निषेधप्रतीतिरित्यमेव सम्भवतीति समवायादभावाहा न पततीत्यत्र दर्शिताधेयत्वं समवायादेव्यधिकरणः संबन्धस्तत्संबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकः समवायादेरभावो विभागे प्रतीयत इति निषेधप्रतीत्युपपत्ति: । ननु यत: पतनादिकं प्रसिद्ध तस्यैव निषेधो नञा प्रत्याय्यते अत एव नविनिर्मुक्तशब्दप्रयोगे यहैशिष्टं यत्र प्रतीयते नञि समभिव्याहृते तन्निषेधस्तत्व प्रतीयत इति व्युत्पत्ति: । इत्थं गुणाद्यपादानकपतनाप्रसिद्ध्या गुणात्समवायादभावाहा पततौतिप्रयोगविरहात् गुणात्समवायादभावाहा न पततीतिवाक्यमयोग्यमेव तत्कथं दर्शिताधेयत्वसंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताको गुणादेरभावो विभागे प्रतीयते येन त्य
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३२९ नियामकसंबन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकसंबन्धत्वं स्यादिति चेत् तहि न पत्रात्पततीव्यत्र दर्शिताधेयत्वेन संबन्धेन पत्र विशिष्टस्य विभागस्य जनकं यत्पतनं तत्कटत्वस्य पतङ्गादिनिष्ठस्य प्रसिद्धस्याभावो नजा पत्रे बोध्यत इति निषेधप्रतीत्युपपत्तिः क्षात्यतनं पत्रस्य न तु पत्रादित्यत्र तथापनविशिष्टस्य विभागस्य जनकतासंबन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताको भावो ना पतने बोध्यते यदि च जनकत्वस्य वृत्त्यनियामकतया न प्रतियोगितावच्छेदकसंबन्धत्वं तदा पूर्ववत्यतनस्य पत्रादित्यत्रानुषण तथापत्र विशिष्टस्य विभागस्य जनकं यत्पतनं पतङ्गादिकट कं प्रसिद्धं तदन्यत्वं नञा वृक्षापादानकपतने बोध्यत इति निषेधप्रतीत्युपपत्तिरथ वा पत्नापादानकपतने खगादिक के प्रसिद्ध पत्रस्येतिषष्यन्तार्थस्य पत्त्रकर्ट त्वस्याभावो नजा बोध्यत इति निषेधप्रतौत्युपपत्तिः एवं यन्मूर्तापादानकं पतनमप्रसिद्धं तहाचकपदात् नसमभिव्याहारऽपि न पञ्चमी अत एव गुणान्न पततौतिवत् भूतलात्पातालाहा न पततौति न प्रयोगः समवाये व्यापारवङ्गेदस्येव मूत्तित्वस्थापि वैशिष्टय विशेषणं तेन व्यापारवझेदावच्छिन्नमृतवर्तित्वावच्छिन्नसमवायावच्छिन्नाधेयत्वसंबन्धेन प्रकृत्यर्थस्य पञ्चम्यर्थे विभागेऽन्वयोऽभ्युपतव्यः अतो - क्षादिव गगनाज्जौवाहा पततीति न प्रयोगः अन्यथा व्यापारवद्भिन्नगगनादिनिष्ठविभागजनकत्वस्य पतने सत्वाद् दर्शितप्रयोगस्य दुरिताऽपत्तेः गुणान्न पतती त्यवेव गगनाज्जीवादा न पततीत्यत्रापि निषेधगति
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। रवसे येतीयमभिनवा रीतिरिहानुसंधया । नन्वेवमविवृक्षापते स्पन्दते वेत्यादिः प्रयोगो दर एव पञ्चम्यर्थ विभागस्य धात्वर्थे कम्पादौ जनकतया अन्वयसम्भवात् । न च फलव्यापारीभयवाचकधातुजन्योपस्थितिः पञ्च म्यर्थविभागान्वयबोधे हेतुरिति वैपतिस्पन्दत्योापारमाववाचकतया फलावाचकत्वात्तज्जन्योपस्थितेविभागान्वयबोधाहेतुत्वान्न दर्शितप्रयोग इति वा. च्यं तथा सत्यासनाचलित इति प्रयोगानुपपत्ते : चलतेरपि फलावाचकत्वान्न च चलते: संनिहित देशसंयोगफलक व्यापारवाचित्वात् फलवाचकत्वमेव तथा त्वेऽपि धात्वर्थान्तर्भतकर्मकत्वान्न सकर्मकत्वं फलवाचकस्यापि धातोर्योगे पञ्चमीप्रयोगो भवत्येव यथा पल्यात् पौठे समुपविशतीत्यादौ तथाऽऽसनाच्चलित इत्यत्रापि पञ्चमीप्रयोगो निष्प्रत्यूह एवेति वाच्यम् । तथापि तरोस्त्यजतीति प्रयोगापत्तेस्त्यजेः फलव्यापारोभयवाचकतया तज्जन्योपस्थितेः पञ्चम्यर्थविभागान्वयबोधहेतुत्वे बाधक भावादिति चेत् अत्र केचित् फलव्यापारोभयविषयकज्ञानोद्देश्यताकसङ्केतीयज्ञाननिष्ठविषयतायां विभागविषयकत्वानवच्छिन्न त्वस्य फल विषयकत्वावच्छिन्नत्वव्यापारविषयकत्वावच्छिन्नत्वयोश्च निवेशस्तथा सति तादृश ज्ञाननिष्ठतादृशविषयताकसङ्केतत्तानजन्यसंस्कारसहकृतधातुजन्योपस्थितिः पञ्चम्यर्थविभागान्वथबोधे हेतुरिति त्यजिजन्योपस्थितिर्न तथा त्यजे: सङ्कतीयज्ञाननिष्ठविषयताया विभागविषयकत्वावच्छिन्नत्वात् सङ्केतस्य विभागस्पन्दोभयविषयकज्ञानोदे
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३३१ श्यकत्वादिति त्यज्यर्थे पञ्चम्यर्थस्य नान्वय इति वदन्ति तच्चित्यं त्यजेः संयोगस्पन्दोभयवाचकतान्नमदशायां तादृशशाब्दप्रसक्त्या तादृशप्रयोगापत्त: न च सडेतनाने नमान्यत्वं विशेषणमतो न तादृशशाब्दप्रसक्तिरिति वाच्यं तथापि यत्न पचिनाऽवतारण व्यापारोऽभिहितस्तत्व चुल्याः पचतौति प्रयोगापत्तेः किं च विभागार्थकविभजतियोगे वृक्षादिभजत इत्यवेव तरोस्त्यजतौल्यवधिस्वार्थकपञ्चमीप्रयोगापत्तिरिति । शाब्दिकास्तु त्यजतिफल विभागबत्तया वृक्षस्य कर्मत्वोत्परया कर्मसंजयाऽपादानसंताबाधात् तरोत्यजतोति न प्रयोग दूत्याहुस्तदपि न सुन्दरं गोभ्यः पयांसि दोग्धोत्यबेवावधित्वविवक्षया तथाप्रयोगापत्त: न च विभागः स्पन्दनं व्यापार एतत्त्रितयार्थकस्यापि दुहविभागाविवक्षायामपादानोर्थकपञ्चम्यन्तस्य गोव्य इत्यस्य प्रयोग इति वाच्यं तथासति त्यजेरपि विभागाविवक्षायां स्पन्दमात्र प्रतिपादने तरोरत्यजतीतिप्रयोगापत्तेः । तस्मादिदमत्र तत्त्वम् । विभागानुयोगित्वखरूपमवधित्वं तव विभागस्य धातुना अलाभे पञ्चम्या विभागोऽर्थः पञ्चम्यर्थविभागान्वये संयोगव्यापारोभयवाचकधातुजन्या व्यापारोपस्थितिस्तन्वं विभागस्य धातुलभ्यत्वे तु पञ्चम्या अनुयोगित्वमर्थः पञ्चम्यर्थानुयोगित्वान्वये तु प्रधानीभूतधात्वर्थव्यापारे साक्षाविशेषणताऽनापन्न विभागोपस्थितिर्धातुजन्या तन्वं वृक्षाविभजत इत्यत्व विभागस्य प्रधानन्यापारे साक्षाविशेषणत्वानापन्तस्यैव धातुजन्योपस्थिति: गोभ्यः पयांसि दोग्धोत्यत्र स्म
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पञ्चमीविभक्तिविचारः । न्दनविशेषणतयोपस्थितस्यापि विभागस्य प्रधानव्यापार सानाविशेषणत्वात् दुहिजन्या विभागोपस्थितिस्तन्व मित्थं च त्यजेः संयोगावाचकतया तदर्थ न पञ्चम्यर्थविभागस्यान्वय इति प्रधानव्यापार साक्षाविशेषणतैव विभागस्य त्यजिनोपस्थापनान्न तत्र पञ्चम्यानुयोगित्वस्यान्वय इति तरोस्त्यजतौति न प्रयोगः प्रधानव्यापार साक्षाविशेषणीभूतविभागवाचकधातुजन्योपस्थितिः पञ्चम्यानुयोगित्वान्वये तन्त्र मिति तु फलितार्थ: अतस्तरोः त्यज्यत इति कर्माख्यात प्रयोगोऽपि निरस्तः कमाख्याते विभागस्य व्यापाराविशेषणतया भानेऽपि त्यजैविशेषणीभूतविभागवाचकत्वात् प्राचां मते धातोः फलावच्छिन्नव्यापारार्थकतया नव्यानां फलव्यापारो. भयवाचकतया विभागस्य गमनादिव्यावर्तकत्वरूपं वि- :शेषणत्वं त्यज्यर्थव्यापारे सर्वथैवोपयमिति । नन्वेवं विभागव्यापारोभयवाचकस्यापसरत्यायोगे सदसोऽपसरतीतिप्रयोगो न स्यात् धातोविशेषणीभूतविभागवाचकतया तदर्थे विभागे पञ्चम्यानुयोगित्वान्वयाप्रसतरिति चेन्न । धातोरपसरत्यादेविभागावाचकत्वात् किं तु अपपूर्वकस्य सरत्यादेः पूर्वदेशान्यदेशसं योगफलकस्पन्दवाचकत्वमिति धात्वर्थान्तर्भूत कर्मकत्वादकर्मकत्वमिति तदर्थ स्पन्दे पञ्चम्यर्थविभागान्वयसम्भवात् भवति सदसोऽपसरतोत्यादिकः प्रयोगः संयोगफलकधातुयोगे पञ्चमौ यथा वृक्षात्पतति गच्छति वा पत्रमित्यादौ पतेरधोदिगवच्छिन्नसंयोगफलको गमेस्तु संयोगफलको व्यापारोऽर्थः उपत्यकाव्यो गिरिमधिरोहत्या
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विभक्त्यर्थनिर्णये । रोहति वेत्यादावधिपूर्वकस्यापूर्वकस्य च रोहतेस दिगवच्छिन्नसंयोगफल को व्यापारोऽर्थः जलादुगच्छति उन्मज्जति वा पद्ममित्यादावुत्पूर्वकस्य गच्छतेमज्जतेश्च ऊ
वंदेशसंयोगफलको व्यापारोऽर्थः । पल्पङ्गादपविशति पौठे इत्यादावुपविशते: फिरभूमंयोगस्य स्फिङ्मृतसंयोगस्य वाानुकूलो व्यापारोऽर्थ: यदि जलेषपविष्टो योगी न निमज्जतीतिप्रयोगस्तदा स्फिमृतसंयोगः फलतया बोध्यः ऊर्ध्व देशादिकर्मणो धात्वर्थान्तर्भावात् धात्वर्थान्तर्भत कर्मकत्वादुङ्गच्छत्यादौनामकर्मकत्वमिति पञ्चमौना दर्शितेषु प्रयोगेषु विभागोऽर्थः म च जनकतया व्यापारेन्वेति ग्रामादजां वनं नयति विपणेः पण्यभारं गृहं वहतोत्यादौ नयतेः प्रेरकदेशावधिक प्रेर्यदेशत्तिपरत्वनिरूपितापरत्वसमानाधिकरणः मयोगः कर्मव्यापारश्चार्थ: आपूर्वकस्य नयतेरथें तादृशापरत्वसमानाधिकरण एव संयोगो निविशतेर्वहतेश्च संयोग श्राधेयकर्म आधारकर्मस्वरूपो व्यापारश्चार्थ: वणिग्गृहात् कनकं स्वगृहं हरति तस्कर इत्यत्र हरतेः संयोगः कर्म व्यापारश्चार्थः वृक्षाच्छाखां भूमिं कर्षतीत्यत्र कृषः कर्षकदेशावधिककर्षणीयदेशत्तिपरत्वनिरूपितापरत्वासमानाधिकरण: संयोगः कर्मव्यापारश्चार्थस्तादृशापरत्व समानाधिकरणः संयोग आपर्वकस्य कृषरर्थे निविशते पञ्चमौनां विभागोऽर्थः स च जनकतया संयोगजनके अजाकर्मणि भारकर्मणि कनककमणि शाखा कर्मण्यन्वेति न तु कर्ट व्यापारे ग्रामवर्तिनाऽपि ताडनादिना अजाद वन नयनादिति नगराहनं गमयत्व
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। रातोनित्यादावपि पञ्चम्यर्थो विभागो जनकतया अरातिकर्मण्येवान्वेति स्थाल्या अोदनमुद्धरतीत्यादावुद्धरतध्वंदेशसंयोगानुकूल कर्मानुकूलो व्यापारोऽर्थः ऊध्वदेशस्य कर्मणो धातुनाऽभिधानात् नास्य हिकर्मकत्त्वमिति पञ्चम्या विभागोऽर्थः स चोर्ध्व देशसंयोगजनके ओदनकर्मण्यन्वेति मन्दुराभ्यो हयावथे युनतीत्यत्र पार्थिवद्रव्यसंयोगानुकूल कर्मानुकूलवयापारो युजेरर्थ: पार्थिवस्य कर्मणो धातुना ऽभिधानात् नास्य हिकर्मकत्वमिति अत्रापि पञ्चम्यर्थो विभागो जनकतया पार्थिवसंयोगजनके हयकर्मण्यन्वेति विभागार्थकधातुयोगे पञ्चमौ यथा रक्षात् विभजते पर्व वायुरस्थो विभजते मांसं कौणप इत्यत्र विभजतेः पर्थिवद्रव्यविभागानुकूलकर्मानुकूलव्यापारोऽर्थः विभागफलवतः पार्थिवस्य कमणो धातुनाऽभिधानान्नास्य हिकर्मकत्वमिति पार्थिवविशेषणात् जले जलाहा विभजत इति न प्रयोगः पार्थिवविभागानुकूल कर्मस्वरूपफलवत्त्वात् पत्रमांसयोः कमंत्वमिति अत्र पञ्चम्यर्थोऽनुयोगित्वस्वरूपमवधित्वं निरूपकतयाऽनुयोगितानिरूपकत्वस्वरूपमवधिमत्त्वं वा खरूपेण संबन्धेन पार्थिवविभागऽन्वेति वृक्षात्पुष्पं चि. नोतीत्यत्र प्रतियोग्युत्पत्तिहितीयक्षणोत्पन्नसंयोगप्रतिइन्द्री विभागः कर्मवद्यापारश्चिनोतरर्थः गोभ्यः पयांसि दोग्धोत्यत्र दुहेरुत एवार्थ: अत्रापि पञ्चम्यर्थोऽवधित्वमवधिमत्त्वं वा विभागेऽन्वेति । न च चिनोते हेच विभागाविवक्षायामत्र विभागार्थिका पञ्चमौतिवाच्यम् । संयोगार्थकधातुयोग एव पञ्चच्या विभागार्थकत्वादन्य
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
थाऽतिप्रसङ्गादित्युक्तत्वादिति । यदि वाऽपसरत्यादेर्देशान्तरसंयोगफलको व्यापारो नार्थः तथासति विलादर्धमायाते सर्पे विलात्सर्पोऽपहृत इति प्रयोगप्रसङ्गात् तमात्सववयवावच्छिन्न पूर्वदेश विभागफलक कर्मफलको व्यापारोऽपपूर्वकस्य निःपूर्वकस्य च गमनार्थकधातोदर्थः त्रिभागफलवतः पूर्वदेशस्य धातुना अभिधानात् कर्मफलवतो व्यापारवत्तया कर्तत्वाच्च नापसरत्यादेः सकर्मकत्वमिति विभाव्यते तदा सदसोऽपसरतीत्यादौ पञ्चम्या अवधित्वमवधिमत्त्वं वा अर्थो विभागेऽन्वेति । यदि च सर्वावयवावच्छिन्न पूर्व देशान्य संयोगफलको व्यापारोऽपसरत्या देरर्थस्तदा सदसोऽपसरति निःसरत्यपगच्छति निर्गच्छत्यपैति निरेति बेत्यादौ पञ्चम्या विभागोऽर्थो जनकतया व्यापारेऽन्वेति । क्व चिदन्यादृशोऽप्यपायः यथा वैपणिकान् मौक्तिकं क्रीणाति नृपाज्ञां प्रतिगृह्णातीत्यादौ स्वस्वामिभाव संबन्धविगमोऽपायः पञ्चअर्थः क्रये प्रतिग्रहे प्रयोजकतयाऽन्वेति क्रयस्तु स्वत्वेच्छाप्रयोज्यं दानं प्रतिग्रहः स्वत्वोद्देश्य के च्छेतितृतीयाविवरणोक्तं स्मर्तव्यं पञ्चम्याः स्वत्वनाशोभयं खण्डशो वाऽर्थस्तव प्रकृत्यर्थस्य निरूपितत्वेन संबन्धेन स्वत्वे तस्य प्रतियोगितानिरूपिताऽनुयोगितया नाशेऽन्वयस्त थाविधनाशस्य जनकतया क्रयवग्रापारे दाने प्रतिग्रहवापारे स्वत्वेच्छायां चान्वयः नरकात्पापाद्दा पितृनुहरतीरथ चोर्ध्व लोकप्राप्तिफलकादृष्टफलकः श्रादादिवापार उद्धरतेरर्थः अदृष्टफलवता पितृकर्मणाऽस्य सकर्मकरवं प्राप्तिफलवत ऊर्ध्व लोकस्य धातुनाऽभिधानान्न
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पञ्चमीविभक्तिविचारः । तेन कर्मणा सकर्मकत्वमिति न हिकर्मकत्वमिति पञ्चम्यर्थोऽत्र नाशः प्रकृत्यर्थविशेषित अवं लोकप्राप्तिजनके पिटगते अदृष्टे जनकतयाऽन्वेति । शताद् वियुज्यन्ते शुड्यन्ति वा दशमिता इत्यत्न धातोरपक्षाबुद्धिविषयत्वाभावोऽर्थ: शतपदस्य शतत्वं संख्याऽर्थः पञ्चम्या अनुत्पादोऽर्थः प्रयोजकतया धात्वर्थ न्वेति तथा च शतत्वसंख्यानुत्पादप्रयोजकस्यापेक्षाबुद्धिविषयत्वामावस्याश्रया दशमिता इत्यन्वयबोधः नरकात्यापाहा मुच्यत इत्यत्र देवादिकस्य मुच्यतेदु:खात्यन्तविमोक्षानुकूलस्तत्त्वज्ञानादिवापाराऽर्थः फलसमानाधिकरणबद्यापारार्थकतयाऽस्य न सकर्मकत्वमिति पञ्चम्या अनुत्पादो नाशश्च प्रयोजकतत्त्वज्ञानादौ वयापारेऽन्वेति नरकानुत्पादस्य पापनाशस्य वा प्रयाजका मोक्षानुकूलस्तत्त्वज्ञानादिवापागे वाक्यार्थ इति सर्वपापैः स मुच्यत इत्यत्र मुञ्चतेः संबन्धाभावप्रयोजका नाशादिवत्रापारोऽर्थः तीयार्थः प्रतियोगिताकत्वं कर्ट त्वं नाशे न्वेति व्युत्पत्तिवैचिल्येण पापम्य संबन्धेऽप्यन्वयः संबन्धाभावस्वरूपफलवत्तया तच्छब्दार्थस्य कर्मत्वमिति तथा च पापप्रतियोगिताकनाशप्रयोज्यस्य पापसंबन्धाभावस्याश्रयः स दू• त्यन्वयबोधः । बन्धनान्निगडाहा मुच्यत इत्यत्र मुच्यतेव
वनाख्यसंयोगनाशकविभागोऽर्थः पञ्चन्या अवधित्वमर्थो विभागेऽन्वेति विभागस्य धातुना प्राधान्येनोपस्थापनात् प्रधानबवापारे साक्षाविशेषणतयोपस्थित्यविषयत्वात् संबन्धनाशशब्दस्य करणल्युटा रज्जुनिगडादिपरतया धातुनाऽनभिधानान्न ततः पञ्चम्यनुपपत्तिरिति । ननु प
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
चम्या नानाविधापायार्थिक तामपेच्यैक विधातिरिक्तावधित्वार्थकत्वमेवोचितं लाघवात् दर्शितेषु सकलस्थलेषु एकविधस्यावधित्वस्य धात्वर्थेऽन्वयोपगमादभीष्टसिद्धेरिति चेन् मैवं नानाविधापायस्य प्रतीयमानस्यापलापापत्तेः अयमच्यात्तार इत्यादाववधित्वस्यैकविधतया नामार्थान्वयेन कारकत्वहान्यापत्तेश्च किं च पञ्चम्या एकविधावधित्वार्थकत्वं न सम्भवति तथा हि वृचात्पचतीत्यत्र पाके वृक्षावधित्वान्वयवारणाय तदन्वयबोधं प्रति गमनार्थक धातुजन्योपस्थितेः कारणत्वमुपेयं तथा च वृचाद् विभजत इत्यवानन्वयापत्तेः न च यद्यदातुयोगे पञ्चमौ दृश्यते तत्तद्दातुज्यन्योपस्थितिः पञ्चम्यर्थावधित्वान्वयबोधे हेतुरिति वाच्यम् । अननुगमात् वृचात् क्रीणातौतिप्रयोगापत्तेश्चेत्यलं विस्तरेण । " प्रश्नाख्यानयोश्च पञ्चमी वक्तव्ये" तिवार्तिकेन सिद्धा कुतो भवानिति प्रश्ने प्रतिछाननगरादित्युत्तरे चागत इति पदाध्याहारेण पञ्चमी विभागार्थिका बोध्येति । "जुगुप्नाविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानमिति” वार्तिकं जुगुप्सादिविषये ऽपादानत्वं ज्ञापयति । पापाज्जुगुप्सते विरमति वेत्यव गुपेगं - ही नाम द्वेषविशेषः विरमतेर्निवृत्तिर्यत्नोऽर्थः धर्मात्माद्यतीत्यत्र प्रमादेरनुदुद्वसंस्कारोऽर्थः सर्वत्र पञ्चम्या विषयत्वमर्थस्तथाच पापविषयक गऽऽश्रयत्वं पापविषयकनिष्टत्त्याश्रयत्वं धर्मविषयका नुडुद्धसंरकाराश्रयत्वं वाक्यार्थ इति संप्रदायः । केचित्तु गुपेर्गही प्रयुक्तः प्रवृत्त्यभावोऽर्थः विरमतेः करणानन्तरमकरणमर्थः प्रमाद्यतेः कर्तव्यतास्मरणाभावप्रयुक्तः प्रष्टत्त्यभावोऽर्थः पञ्चम्यर्थो विषयत्वं ग
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
करणयोरभाव प्रतियोगिषु चान्वेति पाप विषय कगहप्रयुक्तः पापविषयक प्रष्टत्त्यभावः पापविषयक करणादनन्तरस्तदभावः धर्मविषयक कर्तव्यतास्मरणाभावप्रयुक्तो धर्मविषयक प्रवृत्त्यभावो वाक्यार्थ इत्याङः । वस्तुतस्तु बुध्यादिविगमखरूपापायवतो जुगुप्साद्यपादानत्वज्ञापनार्थं ध्रुवसूचैकवाक्यतया वार्तिकारम्भः न तु पञ्चम्या विषयत्वार्थकत्वज्ञापनार्थं तथासति अपादाने पञ्चमौतिसूवैकवाक्यतया तदारम्भः स्यादिति तथा च कर्तव्यत्वमकारकज्ञानविशेष्यत्वाभावः पञ्चम्या अर्थ: स च प्रयो. जकतया जुगुशायामन्वेति पञ्चम्यर्थे तादृशाभावे प्रशत्यर्थस्याधेयतयाऽन्वयः जुगुप्सा तु द्वेषविशेष: यद्दा अपक
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प्रतिपत्त्यनुकूलव्यापार अत एव जुगुप्सतिः सकर्मकस्तन कर्मणोऽपादानत्वविवक्षायां पञ्चमौतरथा तु पापकर्माणि जुगुप्सत इति द्वितीयैव प्रमाणम् एवं पापाजुगुप्सत इव पापपदस्य पापकर्मपरतायां दुरितजनकत्वमपकर्षः दुरितपरतायां तु दुःखजनकत्वं तथा च पापतेः कर्तव्यत्वप्रकारक बुद्धिविशेष्यत्वाभावस्य प्रयो जकोऽपकर्ष प्रतिपत्त्यनुकूलो व्यापारी वाक्यार्थः पापस्यापर्षप्रतिपत्तिविशेष्यत्वमर्थात्प्रतीयते न हन्यनिष्ठस्य कर्तव्यता बुद्धिविशेष्यत्वाभावस्य प्रयोजकोऽन्यनिष्ठापकर्षप्रतिपादकः सम्भवति देवदत्ताज्जुजुप्सत इत्यत्र पञ्चम्या गुणाभावोऽर्थः गुणो धैर्यादिः अपकर्षश्चात्र क्रोधलोभादिः पूर्ववदन्वयः एतेन जुगुप्सारुपद्वेषविषयस्य क्रियाफलेन विषयत्वेनामिततया संप्रदानत्वमेव यथा श्राहाय निगर्हत इति तथा चात्रापादानत्वाभावात् पञ्च
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३३९
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म्यप्रसक्तेः पापाज्जगुप्सत इति प्रयोगो न स्यादित्यपि समाहितं क्रियाफलेनापकर्षप्रतिपत्त्या अनभिप्रेतत्वात्संप्रदानत्वाप्रसक्तरिति । पापाहिरमति निवर्तते वेश्यत्र धातोर्निवृत्तिर्यन एवार्थः पञ्चम्याः काम्यत्वाभावार्थ: पापवृत्तेः काम्यत्वाभावस्य प्रयोजिका निवृत्तिर्वाक्यार्थः पापे निवृत्तिविषयत्वं पूर्ववदतोयते करणानन्तरमकरणं तु न विरमत्यादेरर्थस्तथासति रामः परखोगमनादिरतो नित्तो वेति प्रयोगानुपपत्तेः । धर्मात्प्रमाद्यतीत्यत्र प्रमाद्यतेर्निश्चयाभावोऽर्थः पञ्चम्याः प्रवृत्ति1. विषयत्वाभावोऽर्थः धर्मवृत्तेः प्रवृत्तिविषत्वाभावस्य प्रयोजको निश्चयस्त्वत्कर्त्त व्यत्वप्रकारकः निश्चयविशेष्यत्वं धर्मे पूर्ववदर्थात्प्रतीयते तीर्थात्प्रमाद्यतीत्यत्र तौपदस्य तौर्यगमने धातोर्वा गमननिश्चयाभावे लचणा रणं तु न प्रमाद्यर्थे निविशते तथा सत्यनवगतान्धपुत्रो 'दशरथोऽन्धपुत्ररक्षणात्मामाद्यदित्यत्रा पूर्वान्धपुत्ररक्षणविशेष्यकार णाप्रसिद्ध्याऽनन्वयापत्ते रिति । बिभेत्यादियोगे पञ्चमीं ज्ञापयति । "भौवार्थानां भयहेतुरि "तिसूत्रं भयार्थानां त्राणार्थानां च धातूनां योगे भयहेतुर्यस्तत्कारकमपादानसंज्ञं स्यादित्यर्थकं व्याघ्रादिभेति वायते बेत्यादौ पञ्चम्या भयहेतुत्वमर्थो भयेऽन्वेति । गौडास्तु परतोऽनिष्टसम्भावनास्वरूपं भयं तदर्थका विभेत्यादयः अनिष्टानुत्पच्यनुकूलव्यापारस्वरूपं वाणं तदर्थकाः त्रायत्यादयः एतेषां धातूनां योगेऽनिष्टप्रयोजकमपादानसंज्ञ भवतीति स्वार्थः इत्थं च पञ्चभ्याः प्रयोजकत्वमर्थो धात्वर्थघटकेऽनिष्टेऽन्वेति यदि च यस्य पुंसो व्याघ्रा
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३४०
पञ्चमीविभक्तिविचारः। धीनमनिष्टमप्रसिद्ध व्याघाधीनत्वेन मरणमसौ सम्भावयति तत्पुरुषपरो व्याघ्रादयं बिभेतीतिप्रयोगस्तदा पञ्चम्यर्थः प्रयोज्यत्वप्रकारकत्वं धात्वर्थेऽनिष्टसम्भावनायामग्वेति दर्शितस्थले तस्य पुंसो व्याघप्रयोज्यत्त्वप्रकारिकाया अनिष्टसम्भावनायाः सत्त्वात् नानुपपत्तिः एवं च शबनमेण मित्राविभेतीतिप्रयोग उपपद्यते इत्थं च भयार्थकधातुयोगे भय हेतुत्वेन सम्भावितमित्येकः बाणार्थकधातुयोगेऽनिष्टप्रयोजकमपादानमित्यपरः सूत्रार्थः । अनिष्टं च दुःखमेव सर्वत्रानुगतं बोध्यमिति यत्प्रयोज्यं दु.खं न कस्यापि प्रसिद्ध तादृश स्याहि कण्टकायद्यपादानत्वमिष्यते तदा दुःखोपधायकव्यापारविरहस्यानुकूलो व्यापारस्त्राणां तत्र दुःखवतः कर्मत्वं तथाविधव्यापारविरहाधिकरण स्थापादानत्वं तथा च तादृशाहिकण्टकाद्यपादानकं म्वकर्मकवाणमेव प्रसिद्धमिति यत्राचेतनस्य घटादेः कर्मत्वं तन्नाशोपधायकव्यापारविरहानुकूलव्यापारस्वरूपं चाणं तत्र नाशवतः कर्मत्वमिति । एवं तत्सत् वायत इत्यादौ पञ्चम्या आधयत्वमर्थ इति वदन्ति तच्चिन्त्यं नरकाद्विभेतीत्यादौ नरकजन्यानिष्टान्तरम्याभावादनन्वयापत्त: प्रयोज्यत्वप्रकारकत्वस्य पञ्चम्यर्थस्यानिष्टसम्भावनायामन्वयोगमेऽपि प्रयोज्यत्वस्यानिष्टान्वयानुपगमे व्याघ्रप्रयोज्यो एकनाश: हकप्रयोज्यो बालनाशः बालश्च मम पुत्रः सम्भाव्यत इति ज्ञानदशायां बाल पुत्रोऽयं व्याघ्राहिमेतीतिप्रयोगापत्त: अनिष्टान्वये तु दोषस्य स्वयमेव दर्शितत्वात् न च प्र- : योज्यत्वप्रकारत्वस्य स्वनिरूपितानिष्टनिष्ठविशेष्यता
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३४१ प्रतियोगित्वेन संम्बन्धेन सम्भावनायामन्वयोपगमान्नोक्तदोष इति वाच्यं तथासति सम्भावनामावस्य बिभेत्यर्थत्वापत्त: व्याघ्रप्रयोज्यं चैत्रस्य दुःखं सम्भाव्यत इति ज्ञानदशायां मैत्री व्याघ्राविभेतीतिप्रयोगापत्ते: तत्तत्पुरूषीयदुःखविषयकतत्तत्पुरुषीय सम्भावनाया धात्वर्थत्वे ऽननुगमाद् दुहत्वापत्तः समानाधिकरणदुःखविषयकसम्भावनायास्तथात्वे तु यत्र दुःखत्वेन शरीरनाशादिः सम्भावितस्तत्र बिभेतीतिप्रयोगानापत्त: नरकात् चायत इत्यादावपि नरकप्रयोज्यानिष्टान्तरस्थाभावादनन्वयप्रसङ्ग इति । भयत्वं षत्वावान्तरजातिः सैव बिभेते: प्रतिनिमित्तं फलावाचकत्वादेवासौ यतिबद कर्मकः तत्र दुःखगोचरे भये स्वमिगन्भावित्वप्रतिसन्धानमेव कारणमत्र हे षस्तत्सामग्री वा सहकारितयाऽपेच्यतातो रागान्धानामास्तिकानां नरकात् यियतणां यागश्रमान्मुक्षूणां कुतोऽपि क्लेशाहा न भयमित्यादयः प्रयोगा उपपद्यन्ते उपायविषये भये भयापादानस्यानिष्टसाधनत्वमासन्नत्वं च जायमानं जनक चौरेभ्यो हि भवत्यासन्नतया प्रतिसंहितेभ्य एव भयमासत्तिप्रकर्षाच भयप्रकर्ष आसत्तिरपि कालिको दैशिको यथाऽनुभवमूहनीया एवं च विषयविषयिभावलक्षण हेतुतैव पञ्चम्यर्थश्चौरभो बिभेतीयन चौरगोचरभयं वाक्यार्थः बाणमपि भयाभावानुकूलो व्यापारस्तन भयाभावस्वरूपफलवान् बातव्यः कर्म भयाभावस्तु कारणविघटनहारा वाटव्यापारप्रयोज्यः व्याघ्राज्ञां वायत इत्यत्र गोरताविषयकभय प्रतियोगिकामावस्य
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३४२
पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
प्रयोजको व्यापारस्तत्कर्तत्वं वाक्यार्थः नन्वेवं "स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य वायते महतो भयादि" त्यत्र भयात् बातुं दातुमित्यव चानन्वयापत्तिः भयस्य द्वेषतया वाणस्य तदभावानुकूलव्यापारतया दोषविषयक षाप्रसक्त्या भयहेतुकवाणाप्रसिद्धेः भयस्यानिष्टसम्भावनास्वरूपत्वे तु त्राणस्यानिष्टानुत्पादक व्यापारस्वरूपतया निष्टसम्भावनाहेतुकानिष्टान्तरस्य सम्भवान्नान्वयानुपपत्तिरिति चेन्मैवं तथा हि भयस्य दोषविशेषस्वरूपस्य दुःखविशेषसाधनत्वमनुभवसिद्धमिति भाविभयगोचरभयसम्भवात् भयगोचरभयानुत्पादनस्वरूपत्वाणस्य नाप्रसिद्धिरिति अत एव द्वितीयाहि भयमिति श्रुत्वा स्वस्यापि भयमिति परिसंख्यायते हे षस्य विषयस्वाभाव्येन विषयतया होषं प्रति द्वेषसमवायिभेदस्य हेतुत्वात्वविषय कभयाप्रसिद्धेः भयस्यानिष्टसम्भावनास्वरूपत्वे तु स्वहेतुकानिष्टसम्भावनायाः सम्भवान्न परिसंख्यान सम्भव इति गुरुचरणाः । वस्तुतस्तु अनिष्टोत्पत्तिसम्भावनाजन्यदःखं भयमनिष्टं च दुःखप्रयोजकतावच्छेदकधर्मविशिष्टं मरणादि तबयद्धर्मावच्छिन्नस्य येन संबन्धेन मरणादिसाधनत्वमवगतं स्वस्मिन् तधर्मावच्छिन्नस्य तत्संबन्धज्ञानं मरणाद्यनिष्टोत्पत्तिसम्भावनाया जनकं सा तु दुःखं जनयति तथा मरणादिसाधनतयाऽवगतस्य व्याघ्रस्य स्वस्मिन्सन्निधिसंबन्धज्ञानं मरणाद्युत्पत्ति सम्भावयति स म्भावना तु दु:खं जनयति श्रनिष्टसाधनताज्ञानादिसहकृत संबन्धज्ञान प्रयोज्यत्वखरूपं भयहेतुकत्वमीयोग्यता विशेष लाभार्थमेव सूत्रे भयपदमौदृश
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विभक्त्यर्थनिर्णये । प्रयोज्यताविशेषस्य हेतुतासामान्य विलक्षणस्य धार व र्थभय एवान्वयात् न कारकत्वहानिरिति । व्याघाद बिभेतीत्यत्र पञ्चम्यर्थे दर्शितप्रयोज्यत्वे निरूपकतया प्रकृत्यर्थस्यान्वयः तथाविधप्रयोज्यत्वस्यानिष्टसम्भावनाजन्यदुःखे भयेऽन्वयः तथा च व्याघप्रयोज्यं भयं वाक्यार्थः व्याघादेः स्वविशेष्यकानिष्टसाधनाताजानादिमहकृत खसंबन्धज्ञानद्वारा निष्टोत्पत्तिसम्भावनाजन्यदुःखप्रयोजकत्वं सन्निधिखरूपस्य संबन्धस्यातिशयस्वरूपप्रकर्षण ज्ञानं सम्भावनाकोटेरनिष्टोत्पत्ते सत्कटत्वं प्रयोजयति । अथ वा ऽनिष्टोत्पत्ते रवधारणमेव जनयतीत्युभयथा दुःखसुत्कटं प्रयोजयतीति सन्निधिप्रकबैण भयप्रकर्षः इत्थं च द्वितीयाद्धि भयमिति श्रुतिः भये द्वितीय हेतुकत्वपरिसंख्यां बोधयतीतरथा द्वितीयादित्यस्य व्यर्थतापत्तेः परिसंख्या तु प्रकृते द्वितीयाऽन्य हेतुकत्वस्य स्वहेतुकत्वपर्यवसन्नख व्यवच्छेदः भयस्य स्वहेतुकत्वं न सम्भवति स्वमंनिधिज्ञानस्यानिष्टोत्पत्तिसम्भावनां प्रत्य प्रयोजकत्वात् अन्यथा सोऽहमात्मना संबद्ध इत्या कारके सकलदुःखोच्छेदप्रयोजके जाने विद्यमाने भयापत्त: एवं नरकादिभेतीत्यादौ नरकपदस्य कुम्भीपाकादिसंबन्धनानं शरीरतापाद्यनिष्टोत्पत्ति सम्भावयति सम्भावना तु दुःखं जनयतीति नानुपपत्तिः नरकपदस्य सुखासम्भिन्नदुःखपरता न युज्यते तथासति दुःखादव्यथायो वा बिभेतीतिप्रयोगापत्त: भया तव्यमित्यादौ भयपदस्य भयजनके व्याघचौरादो लक्षणेति नानुपपत्तिः यदि च दुःखाद्विभेतीतिप्रयोगोऽभ्युपेयते
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। तदा दुःखस्य भोगस्वरूपानिष्टसाधनस्य संबन्धज्ञानं भोगस्वरूपानिष्टस्योत्पत्ति सम्भावयति सम्भावना तु दु.ख मितिानानुपपत्तिः एवं भयाट् बिभेतीत्यादावपौयमेवगतिर्बोध्या एतेन व्याघाझ्याविभेतीत्यत्रापादानस्य भयस्य विषयित्वं धात्वर्थे भयेऽन्वेति व्याघविषयित्वमपादानभयेऽन्वेति भयं तु हे षविशेष इति तु न युज्यते यतो हि व्याघ्रविषयकवेषविषयको द्वेषो न सम्भवति तथा हि व्याघविषयकद्दषस्यानिष्टसाधनत्वज्ञानं विना तहिषयकई षानुत्पादात्तच्च ज्ञानं तदैव सम्भवति यदि व्याघस्य बलवदनिष्टाननुबन्धौष्टसाधनत्वं स्यात् तत्त्वबाधितमिति न तज्ज्ञानं संभवति न चानिष्टसाधनत्ववमाटू देषविषयक षसंभवात् नानुपपत्तिरिति वाच्यं तथा सति व्याघाझयाद् बिभेषि वेत्यत्नानान्तस्य वक्तुः सम्बोध्यस्य वा शब्दानुदयप्रसङ्गादित्यपि परास्तं भयादिपदार्थस्य दर्शितत्वात् व्याघ्रप्रयोजाभयप्रयोजास्य भोगस्वरूपानिष्टोत्पत्तिसंभावनाजन्यदुःखस्वरूपस्य भयस्य कर्तरि संबोध्ये अन्यत्र च संभवात् एवं चौरेभ्यो बिभत्युहिजतेवेत्यत्व चोरप्रयोजामनिष्टं धनहरणादि तदुत्पत्तिसंभावनया दुःखमिति उद्दे गोऽपि भयमेव यत्र दर्शितभयप्रयोजात्वस्य तत्त्वेन न विवक्षा किं तु शेषत्वेन तत्र षप्टेयव प्रमाणमत एव'कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे"इति"कुमार्य दूव कान्तस्य त्रस्यन्ति स्पृहयन्ति च" इति च प्रयोग उपपद्यते । एवं व्याघानां त्वायते रक्षति चेत्यत्व भयस्वरूपदुःखप्रतियोगिकाभावप्रयोजको व्यापारो धात्वर्थस्तत्र भयाभावस्वरूपफलवत्तया गवादेः
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विभक्त्यर्थनिर्णये। कर्मलं पञ्चम्यास्तथाविधप्रयोज्यत्वमर्थः फलैकदेशे भये व्युत्पत्तिवैचित्येणान्वेति अथ वा भयमभावश्च खण्डशः फलतया धात्वर्थस्तत्व पञ्चम्यकस्य भये तस्य प्रतियोगितया अभावे तस्य प्रयोजकतया व्यापारऽन्वय इति । यस्या अहिकण्टकादिश्यतः कापि म भयप्रयोजकत्वं तस्यास्तद्यक्तित्वेन न वाणापादानत्वमपि तहानेस्वायत दूत्यप्रयोगात्मपत्वादिनाऽपादानत्वमिष्यत एव यद्धर्मावच्छिन्नस्य संबन्धज्ञानमनिष्टोत्पत्ति सम्भावयति तद्धर्मवतस्तथात्वोपगमादिति । भयात् बायत इत्यत्र भयप्रयोज्यस्य भयस्याभावप्रयोजकव्यापारः प्रतीयते भवप्रयोज्यं यथा भयं तथा प्रदर्शितमेव भयं तु दु:खं प्रत्यक्षसिद्धमेव भयमति दुःखमितिभयेनातिदुःखितोऽस्मीति चानुभवात् बिभेत्याद्यर्थे भयं दुःखमेव चेतनकर्ट कवनियमात् यत्र चेतनकर्मकं रक्षणं तत्र दुःखस्वरूपभयाभावप्रयोजको व्यापार एव धात्वर्थः यत्वाचेतनकर्मकं रक्षणं तत्र वन्हेः पटं रक्षति काम्यो दधि रक्षतोत्यादी नाशानुत्पादप्रयोजको व्यापारो रक्षतेरथस्तष नाशान्वयिप्रयोज्यत्वसामान्यं पञ्चम्यर्थ इति । घातपाल्कुसुमं रक्षत्यवति वैत्यत्रापकारानुत्पादप्रयोजको व्यापारी धात्वर्थः प्रकृते पुष्पापकार: शोष एव पञ्चम्यर्थः प्रयोज्यत्वसामान्यम. पकारोन्वेति नाशाद्यन्वयिनः पञ्चम्यर्थस्य प्रयोज्यत्वसामान्यस्य फलहारण व्यापारेन्वयोपगमात् तथा नामाथीनन्वयान्न कारकत्वहानिरिति । पराजयोगे पञ्चमी ज्ञापयति । “पराजरसोढ" इति सूचं पराजोगे असोढः सोढुमणक्यो योऽर्थस्वत्कारकममादानसंखं स्या
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
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दित्यर्थकं रणात्पराजयते इत्यादिप्रयोगः । अत्र गौडाः । पराजेर्युनिष्टत्तिरर्थः पञ्चम्या द्वेषोऽर्थः तत्र प्रकृत्यर्थस्य विषयित्वेनान्वयः द्वेषस्तु जन्यतया युद्धनिवृत्तावन्वेति त'था च रणगोचरद्वेषजन्य युद्धनिवृत्तिर्वाक्यार्थ इति वदन्ति तदसत् । युद्धनिवृतेर्धात्वर्थत्वेऽध्ययनात्पराजयत इत्यादावनन्वयापतेर्न च निवृत्तिमात्रं धात्वर्थस्तव व्युत्पत्तिवैचित्र्येण पञ्चमीप्रकृत्यर्थस्य विषयित्वेनाग्वय इति वाच्यं तथापि विषात्पराजयत इति प्रयोगापत्तेस्तस्मादिदमarai पराजयतेर्भङ्गफलकव्यापारोऽर्थः स च भङ्गः क'गतचेत्तदा फलसमानाधिकरणव्यापारार्थकतया ना'स्य सकर्मकत्वमिति तत्र यद्दिषयकद्वेषप्रयोज्यः पराजयव्यापारस्तद्दाचकपदात्पञ्चमो भवति पूर्वसूचे भयहेतुशब्देनानिष्टसाधनताज्ञानादिद्दारक प्रयोज्यत्वं पञ्च• स्यर्थतया ज्ञापितं प्रकृतेऽसोटशब्देन देोषहारकप्रयोज्यस्वं तथा तब पञ्चम्या द्वेषोऽर्थः प्रयोज्यतया व्यापारेऽन्वेति । अथ वा स्वविषय कद्देषहारक प्रयोज्यत्वं पञ्चम्यर्थः स्वरूपेण व्यापारेऽन्वेति अध्ययनात्पराजयत इत्यच वादिवाक्यार्थदोषप्रतिपादकोत्तरवाक्यप्रयोक्तृत्वं भङ्गः फलं शास्त्रार्थानभिज्ञानं व्यापारो धात्वर्थस्तव विषयितया प्रकृत्यर्थविशेषितः पञ्चम्यर्थो द्वेषः प्रयोज्यतयाऽथ वा निरूपितत्वेन प्रकृत्यर्थविशेषितं स्वविषयकद्द षहारकप्रयोज्यत्वं स्वरूपेणान्वेति श्रनध्ययनविषयक षसाध्यद्द'बस्याध्ययने प्रवृत्त्यमुत्पादद्वारा अध्ययनाभावप्रयोजकत्वमध्यय नाभावप्रयोज्यं शास्त्रार्थानभिज्ञानमिति तथा चाध्ययनविषयक प्रयोज्यं दर्शितभङ्गफलकशास्त्रा
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विभत्त्यर्थनिर्णये।
३४७ र्थानभिज्ञानं वाक्यार्थः । एवं रणापराजयत इत्यत्र पलायननिलयनादिर्भगः फलं शौर्याभाको व्यापारो धात्वर्थः शौर्य तु परकर्मकप्रहरणकर्ट तवं प्रकृते बोध्यं रणस्तु परस्परप्रहरणं रणगोचरहे षस्य रणे प्रवृत्त्यनु'त्यादहारा रणाभावप्रयोजकत्वं रणाभावप्रयोज्यो दर्शि तथौर्यस्याभाव इति । एवं विवादात्पराजयत इत्यत्र परोन्दावितदोषानुद्धरणं भगः फलं प्रतिज्ञातार्थोपपादकपरस्परवाक्य तगोचरहे षस्तु साक्षादेव दर्शितव्यापारप्रयोजक इति । अविद्यमानो द्वेष्योऽसोढः विद्यमानस्तु सोढ एवात: शत्रोः पराजयत इति न प्रयोग: श"बीविद्यमानतया सोढत्वात् अत एवासोढ इति कि शबू 'पराजयत इति काशिका सङ्गच्छते अन्यथा इष्यत्वखरूपासोढलस्यानपायादसङ्गत्यापत्तेः बृत्यं च पराजर्भङ्गफलकव्यापारार्थकत्वमेव निवृत्त्याद्यर्थकत्वे तु काशिकोदाहरणासङ्गतिरपि द्रष्टव्या । वारयत्यादियोगे पञ्चमी जापयति ।" वारणार्थानामौभितः” इति सूत्र वारणार्थानां धातूनां योगे ईप्सितो योऽर्थस्तत्कारकमपादानसंगं भवतीत्यर्थ के यवेभ्यो गां वारयति कूपादन्छ वारयतीति प्रयोगः । अत्र गौडाः । वारणं क्रियाप्रतिषधप्रतियोगिनी क्रिया भक्षणगमनादिरूपा तात्पर्यवशात्क चित्कस्याश्चित्पतिषेधो वारयत्यादिना बोध्यते प्रति
धस्तु कर्तृत्वोभावानुकूलो व्यापारः कर्तत्वाभावस्वरूपफलवत्तया गवाधादेः कर्मता पञ्चग्यास्तु देशादिगतत्वेनेच्छाविषयत्वमर्थः मतत्वं तु आधेयत्वं तथा चाधे"यत्वप्रकारिकेच्छाविषयत्वं पञ्चम्यर्थो भक्षणगमनादि फ
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३४८
पञ्चमीविभक्तिविचारः। ले गलाध:संयोगोत्तरदेशसंयोगादावन्वेति प्रकृत्यर्थस्य निरूपकतया आधेयरवोन्वय: इच्छा तु भक्षणादि कर्तबौध्या एवं च यथाधेयत्वप्रकारिकेच्छाविषयगलाध:संयोगफल कभक्षणकट त्वाभावस्य गोवृत्तेरनुकूलव्यापारः कूपधेियत्वप्रकारिकेच्छाविषयोत्तरसंयोगफलकगमनकट त्वाभावस्यान्धवृत्तेरनुकूलव्यापारश्च वाक्यार्थ: यद्यप्यन्धादेः कूपाधेयत्वप्रकारिका नेच्छा तथाप्यभिमुखदेशाधेयत्वप्रकारिकेच्छा विद्यत एवाभिमुखत्वेन कूपादिस्तल भासत एवेनि नानुपपत्तिः न च पञ्चम्या आधेयस्वमर्थो मक्षगादिफले गलाध:संयोगादावन्वियात् किं पञ्चम्यर्थे इच्छान्त वेणेति वाच्यं यत्रान्नपिहितविषभोजनप्रतिषेधव्यापारस्तत्व विषाहारयतीति न प्रयोगः किं तु स विषान्नाहारयतीतिप्रयोगस्तत्र पूर्वप्रयोगवारणेच्छायाः तदन्तर्भावात् थस्य यवादेन केनापि भक्षणं तत्परायवाज्ञां वारयतौतिप्रयोगस्यानुपत्तेश्च इछायास्तदन्तर्भावे तु तद्यवाधेयत्वप्रकारिकेच्छाविषयफलकभक्षणकट वाभावानुकूखव्यापारबोधस्य सम्भवात् भवति तथाविधप्रयोगः एवं च दर्शितस्थले भक्षणादौ तद्यवाधेयत्वस्य गोकर्ट कत्वस्य चोभयाभावः प्रतीयते तदर्थं व्युत्पत्त्यन्तरकल्पनं च न युक्तं गौरवात् । न च सर्वचैव उभयाभावबोधान्न व्युत्पत्त्यन्तरकल्पन मिति वाच्यम् । तथासतिः गगमाङ्गां वारयतीतिप्रयोगापत्तेः गगनाधेयत्वगोकट कस्वोभयाभावस्य भक्षणे सत्त्वात् तस्मादिच्छायास्तथात्वमेवोचितमेतदर्थमेव सूत्रे पौमितपदमित्याहुस्तच्चिन्त्यं तथासति क्षेत्राइन्यां वार
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विभक्त्यर्थनिर्णये । यति नृपादातपं छोण वारयतीत्यादावचेतनस्य वन्यादगमनकर्तुरिच्छाविरहात् नेवाद्याधेर स्वप्रकारिकेच्छाविषयत्वस्य गमनफले संयोगादौ विरहादनन्वथापत्तेरिति । गुरुचरणास्तु वारयत्यादिधातुर्धातुप्रति-. निमित्तत्वोपलक्षितपतनत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताकमभावं फल विधयाऽभिधत्ते तत्प्रयोजकमपि मा पतेतिवाक्यादिव्यापारः प्रधानतया तज्जनिता तु पदार्थोपस्थितिरुपलक्षणधर्ममोषण पतनाभावत्वादिना फलमवगाहते तवाभावस्वरूपफलाधिकरणतया विवक्षिते कर्मसंज्ञा बलौयसीति ततो द्वितीयाफलभूताभावप्रतियोगिक्रियाकारकाणि पुनरपादानसंज्ञकानौति तत्वत्या पञ्चमी तानि कारकाण्यभिधत्ते कूपादन्धं वारय तीत्यत्र कूपाधिकरणाकपतनप्रतियोगिकस्यान्वत्तेः यवेभ्यो गां धारयतीत्यत्र यवकर्मकभक्षणप्रतियोगिकस्य गोरत्त: परखेभ्यः पाणिं वारयतीत्यत्र परखकर्मकोपादानप्रतियोगिकस्य पाणित्तेः परेभ्यः शरीरं वारयतौल्यत्र शरीरकरणकबाधप्रतियोगिकस्य शरोरत्त: पुष्पेभ्य: आतपं वारयतीत्यत्र पुष्पकर्मकशोषणप्रतियोगिकस्सातपरत्त: श्वपचेभ्यो दातारं वारयतीत्यत्र वपचसंप्रदानकदानप्र. तियोगिकस्य दात्तिरभावस्यानुकूलो व्यापारो वा क्याथ इति प्राहुः । के चित्तु कूपादन्धं वारयतीत्यादौधात्वर्थतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मावच्छिन्नक्रियागोचर. नित्त्यनुकूलो व्यापारो वारयतेरर्थस्तव निवृत्त्यन्वितं समवेतत्वं द्वितीयाऽर्थः पञ्चम्यास्तु प्रकारित्वमर्थ: कूपे मी पतेयमित्याकारकनिहत्तः कूपप्रकारकत्वात् तथा च
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
कूपप्रकारिकाया अन्धसमवेताया: पतननिवृत्तेरनुकूलो व्यापारी वाक्यार्थ इति वदन्ति तन्त्र पुष्येभ्यः श्रातपं वारयतीत्यादावनन्वयापत्ते रातपादेरचेतनस्य निवृत्त्यर्सभवात् कूपादन्धं वारयति न पुनरन्धो निवृत्त इति प्रयोगानुपपत्तेश्च किं च प्रकारित्वमपि न पञ्चम्यर्थः संभवति तथासति क्षेत्रे खले वा यवेभ्यो गां वारयती'त्यव देवादिपदात्पञ्चम्यापन्तः क्षेत्रे यत्रं मा भक्षयमिति निवृत्ती क्षेत्रादेः प्रकारित्वादिति । वस्तुतस्तु तथोपलचितधर्मावच्छिन्नक्रियागोचरप्रष्टत्त्यभावप्रयोजकज्ञाना
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-नुकूलव्यापारी वारयतेरर्थस्तथाविधज्ञानस्वरूपफलवत्तया गवान्वादेः कर्मत्वं तथाविधं ज्ञानं तु प्रवृत्तिविषयक्रियानिष्ठस्यानिष्टसाधनत्वस्य कृत्यसाध्यत्वस्य वाडवगाहिबोध्यं तदनुकूलो दण्डोद्यमनादिर्वारयितुर्व्यापारताडनाद्यनिष्टफलको गवादेर्यवभचणप्रवृत्तिं विघटयति यवभक्षणं तु वारयितुरनिष्टसाधनमिति परम्परया 'ताडनाद्यनिष्टसाधनमिति बन्धनादिर्वारयितुर्व्यापारी यवभक्षणे कृत्यसाध्यताबुद्धिं गवादेर्जनयतीति न यभक्षणे प्रवृत्तिः अग्रे कूप इति कूपे मा पतेति वाक्यं तु कूपपतननिष्ठानिष्टसाधनत्वस्य स्मारकमिति नान्धस्य कूपपतनप्रवृत्तिरिति एवं यवेभ्यो गां वारयतीत्यत्र पञ्चम्याः कर्मत्वमर्थः प्रवृत्तिविषयक्रियायामन्वेति तथा च यवकर्मकभक्षणविषयक प्रवृत्त्यभावप्रयोजकज्ञानस्य गोष्टत्त रनुकूलव्यापारो वाक्यार्थः यत्र च गवादेर्य भक्षणादावुत्कटो रागस्ताडनादौ न तथा 'हषो वा तत्र दण्डिना वारिता अपि गावो यवभक्षी
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विभक्तार्यनिर्णये ।
३५१
प्रवर्त्तन्ते न निवर्तन्ते वेति प्रयोगः दण्डिकट कव्यामारप्रयोज्यस्य यवभक्षण प्रवृत्त्यभावप्रयोजकज्ञानस्याश्रया इति वारिता इत्यन्तस्यार्थः वारयतेर्दर्शितार्थकत्व एवोभयविधप्रयोगः संगच्छते अत एव प्रवृत्तिविघाती वारणमिति काशिका सूचौयमोचितपदं पञ्चम्याः कमित्वमर्थं सूचयति यस्य यवादेर्न केनापि भक्षणं तत्परयवेभ्यो वारयतीति न प्रयोगः यदि प्रयोगस्तदा यवकर्मश्वस्य स्वावच्छिन्नया भक्षणप्रकारितया प्रवृत्तावन्वय इति नानुपपत्तिः एवमेव कूपाद वारयति कारुणिक इति कारुणिकेन वारितोऽप्यन्धो न निवर्तत इति प्रयोगेऽप्यन्वयः इयांस्त विशेषः यदव कृपकर्मकगमनस्य प्रवृत्तावन्वय इति पुष्पेभ्य आतपं वारयतीत्यादावचेतने कर्मणि वारयतेः क्रियाऽभावप्रयोजक व्यापारोऽर्थः क्रियाऽभावस्वरूपफलवतः कर्मत्वात्तद्वाचकपदात् हितौया पञ्चम्याः कर्मत्वमर्थः फलैकदेशकियायामन्वः -ति तथा च पुष्पकर्मकगमनाभावस्य शोषणाभावस्य वाऽऽतपत रनुकूलो व्यापारी वाक्यार्थः न चैवं क्रियाभावप्रयोजक व्यापार एव सर्वत्र वारयतेरर्थोऽस्त्विति वाच्यं वारिता अपि गावो यवं भुञ्जते इति वारितोऽप्यन्धः कूपं गत इति प्रयोगस्यानुपपत्तेः भक्षणादिक्रियाभावस्वरूपफलाश्रयस्य वारा कर्मणो भक्षणादिक्रियाकर्तृत्वानुपपत्तेरिति । ननु वारयतेर्नानाविधार्थकत्वाभ्युपगमे यो गां वारयतीत्यादौ चेतने कर्मा क्रियाभावे च्छा प्रयोज्यव्यापार एवार्थोऽस्तु किं प्रवृत्त्यभावप्रयोजकज्ञाननिवेशनेन तावतैव वार्यमाणा गावो भुञ्जत इत्या.
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पञ्चमीविभक्तिविचारः । दिप्रयोगोपपत्त: फलीभूतायाः क्रियाभावेच्छाया विक षयस्य गवादेर्वारण कर्मत्वेऽपि भक्षणकट त्वाविरोधादिति चेत् स्यादेवं यदि यवभक्षणाभावेच्छया विधीयमाने क्षेत्रस्य कण्टकाद्यावरणेऽपि वारयतौतिप्रयोगः यदि च वारयते नार्थकत्वेऽनुगतप्रतिनिमित्ताभावे प्रयोगातिपुसङ्गः क्रियाभावप्रयोजकव्यापारार्थकत्वे तु यवकर्मकत्यागाभोवप्रयोजकव्यापारी ऽपि यवेभ्यो गां वारयतौतिप्रयोगप्रसङ्ग इति विभाव्यते तदा संबन्धाभावप्रयोजककार्यानुकूलो व्यापारो वारयतेरयस्तथाविधकार्यस्य फलतया तहतो गवादेः कर्मत्वं यदीयसंवन्धस्याभावस्तवाचकपदात्पञ्चमौसूचे ऽपी. प्सितशब्देनाप्तौच्छाविषयप्रतिपादनं बालोपलालनं कतु रोप्सितेतिसूत्रवदाप्तिमत एवापादानवविवक्षगात् श्राप्तिस्तु प्राप्तिः सा च संबन्ध एव तदभावप्रयोजकं क चिदनिष्टसाधनताज्ञानस्वरूपं कार्य या गवादेयवभक्षणत्वावच्छेदेन दण्डताडनाद्यनिष्टसाधन- . तात्तानं कण्ठावच्छेदेन यवसंबन्धस्य यवसंयोगस्याभावं प्रयोजयति यस्य यवादेन केनापि भक्षणं तत्संयोगाभावमपि सामान्यतो यवमक्षगत्वावच्छेदेनानिष्टसाधनताज्ञानमेव प्रयोजयति अन्यथा तद्यक्तिभक्षणस्यानपस्थित्या तङ्गतानिष्टसाधनताज्ञानासम्भवात् कुतोऽपि यवाहारणामम्भवात् एवं कपगमनत्वावच्छेदेन शरौरोपघातकपतनानिष्टसाधनतातानस्य चरणावच्छेदेन कपसंयोगस्याभावं प्रयोजयति क चिदचेतने क“मणि जानातिरिक्त कार्य यथाऽऽतपादेः छत्राद्यावर
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विमत्यर्थनिर्णये । ३५३ णसंयोगः पसंयोगाभावं पुष्पसंयोगाभावं वा प्रयोजयति । एवं वन्यादेरादिसंयोगः क्षेत्रसंयोगाभावं प्रयोजयति एवं पञ्चम्या आधेयत्वं निरूपकत्वं वाऽर्थ स्तच्च धात्वर्थे कदेशे संवन्धेऽन्वेति तथा च यवेभ्यो गां वारयति दण्डोल्यन यवनिरूपितसंयोगाभावप्रयोजककार्यस्य गोहत्तेरनुकूलो यो व्यापारस्तदनुकूलकृतिमान् दण्डोत्यन्वयः एवं कूपादन्धं वारयति पुष्पानपाहातपं वारयति क्षेत्रादुन्यां वारयतीत्यादावप्यन्वयो बोध्यः । एवं चाण्डालात्कनकं वारयति दातेत्यत्र चाण्डालसंप्रदानककनकदाननिष्ठोनिष्टसाधनताज्ञानविषयत्वखरूपकायस्य कनकनिष्ठस्य प्रयोजक तथाविधागमस्मरणं दातुः तथाविधविषयत्वं तु कनके चाण्डालखत्वाभावं प्रयोजयति इत्थं च वारयतेन नानार्थता न वा वार्यमाणा गावो थर्व भु बत इत्यादिप्रयोगानामनुपपत्तिः संबन्धस्तु प्रयोज्यो बोध्यः तेन घटसमवेतत्वाभावप्रयोजकस्याग्निसंयोगविशेषसामानाधिकरण्यस्य श्यामरूपनिष्ठस्यानुकूले पाचकव्यापारे सत्यपि घटात् श्यामं रूपं वारयति पाचक इति न प्रयोगः । यत्न तु वारणान्तर्भूतस्य- संबन्धाभावस्यैव वारयत्यादिना विवक्षणं तत्र संबन्धस्याभावे विशेषणतया फलत्वात् तहतः कर्मत्वमिति तत्र परत्वाद द्वितीयैव प्रमाणं यथा कूपं वारयति पान्यः मांस, वारयति मुनिरिति अत्र कूपत्तिसंबन्धाभावप्रयोजककृतिमान् पान्य इत्यादिरन्वयबोधः यत्र चाभावप्रयोजकव्यापारस्यैव वारणान्तर्भतस्य विवक्षणं तत्र संबवस्य वारणानन्तभूतत्वात् तहतो नापादानत्वमिति
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। तत्र न पञ्चमी वारणार्थकधात्वर्थान्तभूतसंबन्धवत एवापादानवविधानात् प्रतियोग्यविशेषितस्य फलीभूतस्याभावस्य प्रतियोग्येव कर्म न त्वधिकरणं यथा घट रहयतीत्यादौ घटादिः प्रतियोगी तथाऽनापौति प्रतियोगिन्येव हितीया यथा कूपगमनं कूपसंयोगं वा वारयति पान्य इत्यादौ अत्र द्वितीयाया: प्रतियोगित्वमधस्तच फलेभावेऽन्वेति तथा च कूपगमन प्रतियोगिताकस्य कूपसं योगप्रतियोगिताकस्य वाऽभावस्य प्रयोजको व्यापारस्तदनुकूल कृतिमान् पान्थ इत्यन्वयबोधः । एवं मांसभोजनं मांसकण्ठसंयोगं वा वारयति मुनिरित्यादावयन्वयो बोध्य: । यत्राआवेऽधिकर गास्य संबन्धो विवक्षितस्तत्र शेषे षष्ठय व प्रमाणं यथाऽन्धस्य कूपगमनं कूपसंयोगं वा वारयति दयालुः मांसभोजनं पुत्वस्य वारयति मुनि: पापकर्म स्वस्य वारयति विहानिति अबान्वयबोधः पूर्ववदेव विशेषस्तु प्रतियोग्यन्विते प्रयोजकव्यापारविशेष भावे षष्यर्थसंबन्धमानमिति । एवं वारयत्यादेर्दर्शितार्थकतायामेव दर्शितनिखिल प्रयोगोपपत्तिः स्यागामावप्रयोजकव्यापारी वारयतिप्रयोगानुत्पत्तिश्चति । वारयतिपर्याया वर्जयतिनिवर्तयतिप्रभूतयो बोध्यास्तेन यवेभयो गां वर्जयतीत्यादिः प्रयोग अत एव यवेभमा गां वारयति निवर्तयतीति काशिका। यत्तु सूत्रौयप्सितशब्देनानौमित स्यापि ग्रहणं तेनाग्नेर्माण वकं वारयतीतिप्रयोग इति शाब्दिकैरुक्तं तत्सूत्रार्थानभिज्ञानविजम्भितम् ईभितशब्देन संबन्धवतोऽपादानस्वाभिधानादित्युक्त्वात् दर्शित कार्यस्वरूपफलवतः
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विभक्त्यर्यनिर्णये ।
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कर्मra संवन्धप्रयोजक क्रियादिमभवं तन्त्रमतः सान्त्रिध्याभावस्वरूपस्य संबन्धाभावप्रयोजकस्य फलस्य प्रयोज्यस्य सवेऽपि वह्निकूपादेर्न कर्मत्वमिति माणवकादग्निं कूपमन्वाद्दा वारयतीति न प्रयोगः संबन्धप्रयो
कक्रियादेवान्धे विद्यमानस्याग्नौ कूपे च विरहादिति माणवका देस्तथात्वात्कर्मत्वमेवेति । निलोयत्यादियोगे पञ्चम ज्ञापयति । अन्तर्धी येनादर्शनमिच्छति इति सूत्रम् । अन्तर्द्धिनिमित्तं येनादर्शनमात्मनस्तत्कारकमपादानसंज्ञकं भवतीत्यर्थकं मातुर्निलीयते बाल इति प्रयोगः । अत्र स्वकर्मकदर्शनाभावप्रयोजको व्यापारो निलोय तेरर्थः पञ्चम्यास्तु वृत्तिमन्वप्रकार केच्छाविषयत्वमर्थः स्वकर्मकादर्शनेऽन्वेति । प्रकृत्यर्थस्य निरूपकतया वृत्तिमत्त्वेऽन्वयस्तथा च मातृनिरूपितवृत्तिमत्त्वप्रकारकेच्छाविषयस्य स्वकर्मकदर्शनाभावस्यानुकूलो व्यापारी वाक्यार्थः इष्यते हि बालेन माता मां मा द्राक्षीदिति मातृष्टत्तित्वेन स्वकर्मकदर्शनाभावः अस एव मातुर्निलौयते बाल: माता पुनरेनं पश्यत्येवेत्यादयः प्रयोगाः सूत्रेऽप्येतदर्थमिच्छतिग्रहणमिति शाब्दिकसंमतः पन्थाः । वस्तुतस्तु दशनाभावप्रयोजकव्यापारो नान्तर्धिस्तथासति सूत्रेऽन्तर्धावित्यस्य वैयर्थ्यापत्तेः किं च स्वकर्मकादर्शनेच्छया येन शत्रुचचुर्नाशितं तब सोऽयं 'शत्रोर्निलीयत इति प्रयोगप्रसङ्गः तस्माच्चक्षुः संयोगप्रति - बन्धकदेशसंयोगोऽन्तर्धिशब्दार्थः स एव निलोयतेरर्थः प्रतिबन्धकस्तु व्यवहित देशसंयोगः अत एव व्यवधानमउन्तर्डिरिति काशिका। यदि च तमसि निलोयत इति
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३५६ पञ्चमीविभक्तिविचारः। प्रयोगस्तदा चाक्षुषजनकसंयोगप्रतिबन्धकदेशसंयोगस्तथा पञ्चम्यास्तु दर्शनाभावेच्छार्थस्तत्र प्रकृत्यर्थस्य कर्टतया दर्शनेऽन्वयः दर्शनाभोवेच्छायाः प्रयोज्यतयाऽन्तविन्वय: मातुनिलौयते बाल इत्यत्र मारकर्तृकदर्शनाभावेच्छाप्रयोज्यतथाविधसंयोगानुकूल कृतिमान् बाल इत्यन्वयबोध: । व्यवधानाद्यपनयेन मातुर्दशनेऽपि सति तथाप्रयोगाथं सूत्रे इच्छतीत्युक्तम् अत एवैच्छतिग्रहणं किम् अदर्शनेयां सत्यां सत्यपि दर्शने यथा स्यादिति काशिका । वस्तुतस्तु चाक्षुषाभावेच्छाप्रयोज्यव्यवहितादिदेशसंयोगोऽन्तधि: पञ्चम्याः कतत्वमर्थः चाक्षुषेऽन्वेति चाक्षषाभावस्तु चाक्षुषविषयत्वाभावः खत्तिरन्तौ निविशते खान्यत्तिचाक्षुषविषयत्वाभावेच्छायां न पञ्चमी अत एवान्त विति किं चौरान्न दिदृक्षत इति काशिका । अत्र चौरत्तिचाक्षुषविषयवाभावेच्छाप्रयोज्यव्यापारस्य सत्त्वेऽपि नान्तईिरिति तथा च यत्र स्वकर्मकचौरकर्त्तकदर्शनाभावेच्छया चौरकर्मकस्वकट कदर्शनाभावेच्छा तत्र चोरेभ्योऽयं निलीयत इति न प्रयोग इति एवं मातुरन्त ईत्ते निलीयते वा दाल इत्यत्र माटकट कचाक्षुषविषयत्वाभावस्य स्वरतेरह शियनी येच्छा तत्प्रयोज्यस्य व्यवहितादिदेशसंयोगस्वरूपव्यापारस्याश्रयो बाल इत्यन्वयबोधः इत्यं च निलौनमपि बालं माता पश्यतीति प्रयोगोपपत्तिः दर्शि-' तान्तईराश्रयस्य निलोनशब्दार्थतया तत्र दर्शनकमत्वस्याविरोधात् अत एव उपाध्यायादन्तर्धत्ते उपाध्यायानिलीयते मा मासपाध्यायो द्राक्षौदिति निलीयते इति
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विभत्त्यर्थनिर्णये। काशिका | अत्यन्तं पञ्चम्यर्थसहितस्य धात्वर्थस्य प्रयोज्यान्तस्य विवरगां निलीयत इति व्यवहितादिदेशसंयोगस्य धात्वर्थस्य प्रधानस्य विवरणमिति । अधीङादियोग पञ्चमौं ज्ञापयति । आख्यातोपयोगे इति सूत्रम् । प्राख्याता वक्ता आख्याफले उपयोगे सति अपादानसंजः स्यादित्यर्थकम् । आख्यानफलं तु शिष्यस्योच्चारणमर्थज्ञानं वा श्रोतुस्तु पुण्यमधर्मध्वंसो वा उपाध्यायादधीत इत्यवाध्ययनं विविधमपि पूर्वोक्तं पञ्चम्या आख्यानं वाक्यमर्थस्तञ्चाध्ययनफले उच्चारणे अर्थप्रतिपादकतानाने वा प्रयोज्यतयान्वेति उच्चारणफलकं थावणमर्थप्रति. पादकताज्ञानफलकं श्रावणं चेति विविधमध्ययनमधौडोऽर्थः उच्चारणं तु वत्पिादकतयोपलक्षितो विटतादिः प्रयत्न इति आख्याने तु प्रकृत्यर्थस्य कर्ट तयाऽन्वयः एवमुपाध्यायकर्ट कवाक्यप्रयोज्यस्योच्चारणस्थार्थ प्रतिपादकतातानस्य वाऽनुकूलं यच्छावणं तदाश्रयत्वं वाक्यार्थः । गरलाइडवानलाहा दाहवदान्यतां शिक्षत इत्यादौ यदि न हेतुटतीयाप्रयोगः तदाऽख्यानज्ञापनं तच्च क्रियाकर्तव्यताज्ञानानुकूलन्यापारः पञ्चम्यर्थः प्रयोज्यतया शिक्षणादिफले प्रत्तावन्वेति शिक्षतेस्तु प्रवृत्तिफलक परकर्ट कक्रियाया दर्शनं जानसामान्य
बाऽर्थः वडवानलादेस्तु दाहकर्ट त्वमेव दाहकर्तव्यताज्ञानप्रयोजकमिति नानुपपत्तिरिति पञ्चम्यर्थे तथाविधव्यापार प्रत्यर्थस्याधयतयाऽन्वयः एवं पाचकात्माकं शिक्षते नटान्नाञ्च शिक्षते इत्यादी इत्थं च पक्तव्यमिति पाकाङ्गस्य चुल्लीप्रज्वालनादिकर्मण:
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। प्रदर्शनस्वरूप: पाचकव्यापार: पाककर्तव्यताजानं जनयति तथाविधतानं तु पाकप्रत्तिप्रयोजकमिति दूत्थं नटनीयमिति नाट्याङ्गस्याङ्गुलिचेष्टादिकर्मगा: प्रदर्शनस्वरूपो नटव्यापारो नाय कर्तव्य ताजानं तच्च प्रवृत्तिं जनयतीत्येवमन्यत्राप्य द्यमिति तथा च पाचकवृत्तिः कर्तव्यताज्ञापनस्वरूपो यो व्यापारस्तत्प्रयोज्याया: पाकसाध्यिकाया प्रत्तेरनुकूलं यत्परक कपाकस्थ दर्शन ज्ञानसामान्यं वा तदाश्रयत्वं वाक्यार्थ: । एवं नटवत्तितथाविधव्यापारप्रयोज्यायाः नायसाध्यिकाया: प्रत्तेरनुकूलं यदन्यकर्तकनाट्यदर्शनं तदाश्रयत्वं वाक्यार्थ इति एवं पण्डितात्पुराणं शूगोतीत्यादौ लक्षणपञ्च कोपेतमार्षवाक्यं पुराणं पञ्चम्या आख्यानवाक्यमर्थः प्रयोज्यतया धात्वर्थे श्रोषणेऽन्वेति तथा च पण्डितकर्ट कबाक्य प्रयोज्यं यत्पुराणकमैकश्रवणं तदाश्रयत्वं वाक्यार्थ: अनोपयोगः पुण्यजनकत्वमधर्मध्वंसजनकत्वं वा श्रवणे स्वरूपसदपेक्षितं तस्य तु बोधः पञ्चमौसाधुन्वार्थ मानान्तरेणौवेति यत्र नेहश उपयोगस्तव न पञ्चमी यथा नटस्य शृणोतोत्यादौ अत एव उपयोग इति किं नटस्य शृणोतीति काशिको । पिकाबने शृगवतीत्यादौ हेतौ पञ्चमौति नानुपत्ति: अत एव हेतु पञ्चम्या गतार्थता सम्भवति पुण्यजनकत्वाशुपयोगप्रतीतिप्रयोजनकतया सार्थकात्वात् एतेन पण्डितात्युराणं शृणोति उपाध्यायाइदमधीते इत्यादावुच्चारणाधौनत्वं पञ्चम्यर्थः प्रकृत्यर्थस्य कर्ट तयोच्चारणेऽन्वयः । उच्चारणाधीनत्वं श्रवणे उच्चारणेऽर्थपरत्वज्ञा
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- विभक्त्यर्थनिर्णये। ने वाऽध्ययनेऽतीत्यपि निरस्तं नटम्य शृणोतीत्यव पञ्चम्यापत्त: नटोच्चारणाधीनत्वस्य श्रवणे सप्वात् एवमुपाध्यायावेद शृणोतीत्यत्त श्रवणस्योच्चारणजनकत्त्वमपि शिष्योपयोग: पुण्य जनकत्वमेव शि. ध्यान्योपयोग इति । जन्यादिधातुयोगे पञ्चमी जापयति । जनि कतु : प्रकृतिरिति मूत्रम् । जनिक रूत्य त्याश्रयस्य प्रकृतिः समवायि कारणमपादानसंत भ. वतीत्यर्थकम् । अत्र शृङ्गाच्छरो जायत इतिप्रयोगः भव गौडाः । प्रकृतित्वं न विकारित्वं प्रकृतिविकृतिभाववि. रहेऽपि रघोरजो जायतेत्यादौ पञ्चमी न च सुतवपुषः पित्रोः शरीरविकृतित्वमपि तदीयशुक्रशोणितविकृतित्वमेव शुक्रशोणितादेः शरीरत्वेऽपि मलमूत्रादेरिव शरीरावयवत्वाभावात् तदव यवारभ्यत्वस्यैव तहिकारतारूपत्वात् । न चान हेतौ पञ्चमी न त्वपादान इति वाव्यम् । ऋणागुणातिरिक्त हेतौ पञ्चम्यनुशासनविरहात् अन्यथा हेतु पञ्चम्यैवोपपत्तौ जनिकर्तुरितिसूत्रस्य वैय•पत्ते: तस्मात्कारणत्वमेव प्रकृतित्वं दण्डात् घटो जायत इत्यादिप्रयोगा इष्यन्त एव अत एवेश्वरस्य कार्याप्रकृतित्वेऽपि यतो ट्रव्यं गुणा: कर्मेत्यादौ पञ्चमी न चात्र क्रियायोगाभावात् कथमपादानपञ्चमीति वाच्यम् । अगत्या जायत इत्यादिक्रियाध्याहारण पञ्चम्या उपपादनौयत्वादिति निरूप्यत्वं पञ्चम्यर्थः श ङ्गादिविशषितं धात्वर्थ जन्यादावन्बेतीत्याहुः । तन्न सुन्दर पुबस्य पिटविकृतित्वात् न हि मलमूत्रादिस हशशुक्रशोणितादि पित्रोरारम्भकत्वात् अत एव षाट कौशिक
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। शरौरं त्रीणि पिटतस्त्वमांसरुधिराणि मारतः पस्थिस्नायुमज्जानः इति । यदपि पटणागुणातिरितो हेतौ न पञ्चम्यनुशासनविरहादिति तदपि दाहो दहनान्न तु जलादित्यादेनिजशिरोमणिवचनस्य विरुद्धं दर्शयिथ्यमाण पञ्चम्यनुशासनतया अकिंचित्करमेव । अत एव यतो द्रव्यं गुणा: कर्म तथा जातिः पराऽपरेत्यत्र जायत इत्यध्याहारेण पञ्चम्युपपादनमध्ययुक्त जायत दू. त्यध्याहारेण जातिरित्यादावसम्भवात् हेतुपञ्चम्यैवोपपत्तः अत एवोत्पादकत्वं ज्ञापकत्वं चैति विविधमत्र हेतुत्वं यथायोग्यमिति प्रकाशे महामहोपाध्यायचरणाः । तन्मात् प्रकृतित्वं समवायिहेतुत्वं तथा च पञ्चम्याः समवायावच्छिन्नत्वमर्थः । तत्र प्रकृत्यर्थस्य समवाये निरूपकतयाऽन्वयः समवायावच्छिन्नत्वस्य जन्यादिधात्वर्थ जन्यत्वेऽन्वयः । एवं तन्तुभाः पटः कपालेभो घटः शृङ्गाच्छरो वा जायत इत्यादी तन्तुनिरूपितसमवायावच्छिनजन्यत्वाश्रयः पट इत्यादिरन्वयबोध: । यदि च विकारित्वमेव प्रकत्तित्वं तच्च विद्यमान नाशप्रतियोगित्वमन्यथा रूपस्य घट. प्रकृतिरितिव्यवहारापत्तेः । न च तथाऽपि महापटः खण्डपटस्य प्रकृतिरिति व्यवहारापत्तिरिति वाच्यम् । समवाय हेतोष्टजातीयत्वस्य तथात्वात् । न हि महापटः समवायि हेतुरिति एवं तन्तुभा: पट इति नापादानपञ्चमी कि तु त्पिण्डात् घटा जायत इत्यादी नष्टपिण्डजातीयम्दो घटारम्भकत्वात् । येन' रुपण प्रक तित्वं तेन रूपेण साजात्यं बोध्यमतो दव्यत्वादिना तन्वादेष्टमहापटादिसाजा
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. . विभक्त्यर्थनिर्णये । त्येऽपि न प्रक तित्वं ट्रव्यत्वादेः प्रक,तिताऽनवच्छेदकत्वात् । पुनस्य शुक्रशोणितनाशजन्यत्वापि पितरौ न प्रकृतिः पित्रादिगतचैत्रत्वादिजातेरवयबिमात्तितया शुक्रोद्यत्तित्वात् । एवं दनः दुग्धं शरस्य शृङ्ग भस्मनः काष्ठं प्रकृतिरित्यादौ दुग्धपरमाणूनां दुग्धत्वेन नष्टदुग्वसाजात्यं शृङ्गावयवस्थ शृङ्गत्वेन नष्टशृङ्गसाजात्यं काष्ठपरमाणू ना काष्ठत्वेन नष्टकाष्ट साजात्यं दुग्धत्वादिजातेरवयवावयविवृत्तिवात् भवत्युपपत्तिरिति विभाव्यते तदा पक्षम्या: स्वप्रकृत्यर्थतावच्छेदकत्वोपलक्षितजातिमत्प्रतियोगिको नाशोऽर्थस्तत्र प्रकृत्यर्थस्याधे यतयाऽन्वयः तथानिधनाशस्तु प्रयोज्यतया जन्यादिधात्वर्थ उत्पत्तावन्वेति एवं दुग्धाधि भवति काष्ठासम्म भवति शृङ्गाच्छरो जायते गोमयाट् वृश्चिक उत्पद्यते पाषाणाद् भेको भवतीत्यादौ दुग्धत्तिदुग्धनाशप्रयोज्योत्यल्याश्रयो दधीत्यादिरन्वयबोधः । अत एव हेतुपञ्चम्या नास्य सूत्रस्य गतार्थत्वं नाशप्रयोज्यत्वस्वरूपविलक्षणार्थप्रतिपत्तिफलकत्वात् एतेन यदत्र ब्रह्मणः प्रजा: प्रजायत इत्याादाहरणं हेतुपञ्चम्याः सूर्य प्रत्याख्यातमिति निरस्तमुदाहरणस्य दर्शितत्वात् ब्रह्मण इत्यादिरनोदाहरणप्रयोगः सूत्रार्थानभिज्ञानविज़म्भित एवेति। . अङ्गादङ्गात्संभवसि हृदयादभिजायसे।
आत्मा वै पुत्रनामाऽसि त्वं जौवं शरदः शतमिति॥ श्रुतौ तु नापादानपञ्चमी । किं तु हेतुपञ्चमौति नानुपपत्तिरिति । प्रभवतियोगे पञ्चमी ज्ञापयति । भुवः प्रभव इति सूत्रम् । भवनं भूः भुवः कर्तुः प्रभवो
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
योऽर्थस्तत्कारकमपादानसंज्ञ' भवतीत्यर्थकम् । प्रभवः प्रकाशनाधिकरगां भवनं प्रथमः प्रकाश: हिमवतो गङ्गा प्रभक्तौत्यत्र पञ्चम्या अधिकरणत्वमाधेयत्वं वाऽर्थः प्रभवत्यर्थे प्रथमप्रकाशे ऽन्वेति हिमवदृत्तिप्रथमप्रकाशवती गगेत्यन्वयबोध इति वदन्ति । सबन्धाधीनत्वं पञ्चम्यर्थः धात्वर्थे प्रथमप्रकाशेऽन्वतोत्यन्ये । दर्शनयोग्यत्वाभावावच्छेदकदेशाव्यवहितदेशावच्छेदेन दर्शनयोग्यत्वं प्रकाशः प्रभवत्यर्थः द्वितीयदेशान्वयितादात्म्यं पम्यर्थस्तथा च हिमवदभिन्नो यो दर्शनयोग्यत्वाभाबावच्छेदकदेशाव्यवहित देश प्तदवच्छिन्न दर्शनयोग्यताबतौ गङ गेति वाक्यार्थ इति गुरुचरणाः । वस्तुतस्तु प्रथमप्रकाशः प्रभवत्यर्थो न सम्भवति प्रकाशे दर्शनखरूपे ज्ञानसामान्यखरूपे वा प्रथमत्वस्यासम्भवात् । तथा ' हि तत्प्रागभावाधिकरणसमयवर्तित्वं तत्प्रथमत्वं तच्च प्रकृते न सम्भवति हिमवदन्यदेशे प्रकाशस्यापि प्रकाशान्तरप्राग्भावाधिकरणसमयवर्तित्वात् न चात्र सजातौयाधिकरणसमयध्वंसानधिकरणसमय वर्तित्वं
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प्रथ
मत्वं तच्च प्रथमप्रकाश एव द्वितीयादिप्रकाशस्य प्रथमप्रकाशाधिकरणसमयध्वं साधिकरणसमय वर्तित्वान्न तत्वमिति वाच्यं दर्शनस्वरूपाणां ज्ञानस्वरूपाणां वा प्रकाशानामनादौ संसारे दर्शनाधिकरणसमय ध्वंसाधिकरणसमयवर्त्तित्वात्प्रथमत्वाप्रसिद्धेः । न च गङगाविषयकत्वेन प्रकाशस्य सोजात्यं विवक्षणीयमतो नाप्रसिद्धिरिति वाच्यं हिमवद्गङ गासंबन्धात्प्राग्वर्तिनां जनानां गङ्गोपनीतभानादिसम्भवादप्रसिद्दितादव
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विभक्त्यर्थनिर्णये। स्थ्यात् प्रकाशस्थाननुगमापत्तेश्च । तस्मात्प्रथमावय वावच्छेदेन लौकिकं चाक्षषं प्रत्यक्ष वा प्रकाश: प्रथमत्वमव यवानां तु स्वारघ्यारम्भकावयवाधिकरणसमयध्वंसानधिकरणसमयवतित्वमिदमेव मूलत्वं हैमवतश्च गङ गावयवस्य स्वोत्पादकसमयवर्ति तया तथात्वं देशान्तरौयस्य तु हैमवताधिकरणासमयध्वंसाधिकरणसमयवर्तितया न तथात्वमिति । एवं वृक्षमूलस्यापि मध्यशाखाद्यपेक्षया प्रथमत्वमिति एवं हिमवतो गङ्गा प्रभवतीत्यत्र दर्शितः प्रभवत्यर्थः विषयत्वस्वरूपं कर्तुत्वं तिङर्थः पञ्चम्याः प्रकाशान्वयिकर्तघटितसंबन्धावच्छिन्नमाधयत्वमर्थस्तथा च हिमवत्तेः प्रथमावयवावच्छिन्नस्य चाक्षुषस्य वा विषयो गङ्गेत्त्यन्वयबोध: दर्शिते प्रभवस्यर्थे प्रथमत्वमवयव एव विवक्षितमतो हिमवतो गङ्गा प्रभवति काश्मौरभ्यो वितस्ता प्रभवति प्रथमत उपलभ्यत इत्यर्थ इति काशिका अत्र प्रथमत्वस्य धात्वर्थविशेषगात्वे प्रथममिति स्यान्न तु तस्यन्तप्रयोगस्त सेरवच्छिन्नत्वमर्थः पृष्टतो गरुडध्वज इति दशनात् अवच्छिन्नत्वं तु प्रकृते स्वरूपसबन्धविशेषः वि. षयित्वं वेत्त्यन्य देतत् । अथ वा पञ्चम्या हेतुत्वमर्थः अत एव प्रभवत्य स्मादिति प्रभव इति काशिका । है. तुत्वं च दैशिकं बोध्यं प्रथमावयवाधीनस्य दर्शितप्रकाशम्य प्रयोजकता प्रथमावयवसत्ताप्रयोजकस्य हिमवत इति अत एव क्षेत्राच्छालिः क्षात्पुध्यं वा प्रभवतीति न प्रयोग: शालिपुष्पयोर्मलरन्तयोः प्रथमाव यवयोः क्षेत्रवृक्षाभ्यामन्यत्रापि परणानयने सति संयोगसम्भवात्
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पञ्चमीविभक्तिविचारः । क्षेत्रक्षयोः मूलन्तसत्ताप्रयोजकत्वविरहात् प्रयोजकत्वं तु प्रकृते नियामकत्वं व्यापकत्वमिति यावत् । एवं “वल्मीकाग्रात्प्रभवति धनुःखण्डमाखण्डलस्ये"त्यनापि शक्रधनुःखण्डस्य प्रथमावयवसत्तानियामकं वल्मोकाग्रं शक्रधनुःखण्डस्य दर्शितप्रकाशे हेतुः मेघाहिदाप्रभवतितरामित्यादौ विद्यदादिप्रथमावयवसत्तानियामको मेघादिदर्शितप्रकाशे हेतुरिति अत्र प्रभवतिपर्यायस्याविभवत्यायोगे न पञ्चमी किन्तु सप्तमी यथा वल्मों काग्रे शक्रधनु:खण्डमाविर्भवतीति केचित् । वस्तुतस्तु सूचे भुव इत्युपादानाद्दर्शितप्रकाशार्थकस्य भूधातोर्योग पञ्चमौति ज्ञायते । अन्यथा प्रभुवो भव इत्येव मुनिः सूत्रयेत् प्रभव इत्यत्र प्रशब्दोपादानं भुवो दर्शितप्रकाशार्थकत्वज्ञापनार्थमिति वल्मीकादाविर्भवति प्रादुर्भवति वा शक्रधनुरित्यादिप्रयोगोऽपोष्ट एवेति । अत्र भौचाऽर्थानामित्यादिसप्तसूत्री प्रत्याख्याता फणिभाष्यकृनिस्तत्र चौरेभ्यो बिभेति भयान्निवर्तते त्रायते रक्षणेन निवर्तयति। पराजयते ग्लान्या निवर्तते । वारयति प्रवृत्तिं प्रतिबनन् निवर्तयति । निलौयत निलयनेन निवर्तते । अधोते उपाध्यायान्निःसरन्तं शब्दं गृह्णाति । ब्रह्मणः प्रपञ्चो जायते ततो निर्गच्छति । प्रभवति भूत्वानि:सरति इति धावूनां स्वेच्छयाऽर्थकल्पनेन शाब्दिकानां प्रत्याख्यानोपपादनं शास्त्रमर्यादालङ्घनफलकं स्वातन्यमेव । करणे पञ्चमौं ज्ञापयति । करणे च स्तोकाल्पकृच्छकतिपयस्यासत्त्ववचनस्य इति सर्व स्तोकाल्पकच्छकतिपयइत्येतेभ्यः शब्देभ्योऽसत्त्ववचनेभ्यःकर
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३६५ णेऽर्थे पञ्चमी विभक्तिर्भवतीत्यर्थक कच्छशब्दस्य दुः-- खमर्थः कतिपयशदस्य संख्यात्वाबान्तरजातिमती संख्याऽर्थ: । असत्त्ववचनत्वं द्रव्यवाचिपदासामाना-- धिकरण्यं बोध्यं चकारात्तृतीयाऽपि भवति स्तोकेन स्तोकाहा अल्पेन अल्पाहा कृच्छ्रण कच्छाहा कतिपयेन कतिपयादा मुक्तो मुच्यते वा इत्यादी ढतीयापञ्चम्योः करणव्यापारोऽर्थः । स च प्रयोज्यतया धात्वन्वेति व्यापार प्रकृत्यर्थस्य प्रयोज्यतयाऽन्वयस्तथा च स्तोक. प्रयोज्यव्यापारजन्यमोचनकर्मेत्यादिरन्वयबोधः बहुतरदाने देषादल्पसंख्याया द्वेषानुत्पादद्वारा स्वाश्रयज्ञाने प्रयोजकत्वमिति दानं व्यापार: कच्छ्रस्य स्वविषयको देषो व्यापारो बोध्यः । द्रव्यपदसामानाधिकरण्येन पञ्चमी यथा स्तोकेन विषेण हत इति । ल्यप् लोप कर्मण्युपसंख्यानमिति वार्तिकं ल्यबन्तधातुलोपे सति कर्मवाचकपदात्पञ्चमी विधत्ते यथा प्रासादात्प्रेक्षते इति अत्र लोपः ल्यबन्तस्यारुह्येत्यादेः स्मारकः पञ्चम्या कर्मत्वमथः । अथ वा पञ्चम्याः कर्मताविशिष्टारोहणस्य सामानाधिकरण्यावच्छिन्नमुत्तरकालिकत्वमर्थः प्रेक्षणादावन्वेति तथा च प्रासादकर्मकारोहगास्य समानाधिकरणमुत्तरकालिकं यत्प्रेक्षणं तत्कर्तृत्वं वाक्यार्थः कर्मणी- . त्युपलक्षणं कारकान्तरवाचकपदादपि पञ्चमी जेया। यथाऽसनात्प्रेक्षत इति अनाधिकरणवाचकात्यञ्चमी उपविश्येति ल्यबन्तस्य लोप: स्मारकः पञ्चम्या अधिकरणत्वमर्थः अथ वाऽऽधे यताविशिष्टोपवेशनस्य तथाविधमुत्तरकालिकत्वं पञ्चम्यर्थः एवं यत्कारकार्थकवि
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। भक्तिसमभिव्याहृतस्य ल्पबन्तस्य लोपस्तत्कारकार्थिका तत्र पञ्चमी घनान्निःसृत्य विद्योतते इत्यत्रापादानार्थकपञ्चमौसमभिव्याहृतस्य ल्यबन्तस्य लोपे अपादानाथिकैव पञ्चमौ यथा वलाहकाविद्योतते विद्यदित्यत्र पवम्या अपादानत्यमर्थ: लोपो निःसृत्येति ल्पबन्तस्य स्मारकोऽथ वा घनापादानकनिःमरणस्य तथाविधमुत्तरकालिकत्वं पञ्चम्यर्थः विद्योतनेऽन्वेति पूर्ववदन्वयबोध इति नात्वापि यादृच्छिक: नि:मृत्येत्यन्याहारः किं त्वानुशासनिकति । यदि चासनात्प्रेक्षत इत्यत्राप्यध्यास्याधिष्ठाय वेत्यादेय॑वन्तस्य लोपे कर्मण्येव पञ्चमौ न तु कारकान्तर इति कर्मणोति नोपलक्षणमिति विभाव्यते तदा वलाहकाविद्योतते तडिदित्यत्रापि विभिद्य विदौर्य वेत्यादिपबन्तस्य लोपे कर्मण्येव पञ्चमी न तु निःसृत्येत्यध्याहार इति । - इति विभक्त्यर्थनिर्णये कारकपञ्चम्यर्थनिर्णयः ।
नामार्थान्वयिनः पञ्चम्यर्था अकारकतया संज्ञायन्ते । तत्र यतश्चाध्वकालनिर्माणं ततः पञ्चमी तानादध्वन: प्रथमासप्तम्यौ कालात्मप्तमौ वक्तव्येति वातिकं यतो यदवधिक अध्वकालयोनिर्माणं निर्गतं मानं परिमाणं तहाचकात्पञ्चमी भवति तथाविधपचमीयुक्तादध्वावयववाचकपदात्पथमासप्तम्यौ तथाकालावयववाचकात्सप्तमौमात्रं भवतीत्यर्थकं कालस्य परिमाणं स्वावयवकालसंख्या बोध्या पञ्चग्यान्वयं नामार्थयोरध्वकालविशेषयोपियति यथा ग्रामोद्योनने योजनं वा वनमित्यादौ अव पञ्चम्या अवधित्व
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३६७ मर्थः तच्च योजनशब्दार्थ स्य योजनपरिमाणविशिष्टस्यैकदेशे योजनपरिमाणे व्युत्पत्तिवैचिल्यादन्वेति अवधिमत्त्वं तु घटितत्व बोध्यं ग्रामावधिघटितत्वं तु ग्रामाधिकरण देशपरिमाण घटितत्वं योजनपरिमाणे तहटितत्वं तदारभ्यत्वमथ वा सन्तानसापेक्ष ज्ञानविषयत्वं संयुक्तदेशसंयोगः समानावयवावच्छिन्नः सप्तम्या: प्रथमायाश्चार्थ: । एवं ग्रामावधिकयोजनपरिमागावदेशसंयक्तदेश संयोगवहनमित्यन्वयबोध: समानावयवावच्छिन्नत्वनिवेशादग्रपृष्ठादिभिन्न भिन्नावच्छेदेन योजनवनयोः संयोग तथा न प्रयोगः । एवं कार्तिक्या मासे श्राग्रहायणी इत्यत्र पञ्चम्या अवधित्वमेवार्थः । तच्च विंशद्दिनवर्तिनी मासशब्दार्थस्यैकदेशे विंशहिनेऽन्वेति । सप्तम्यास्तु विंशहिननाशोत्पत्तिकालिकोत्पत्तिकत्वमर्थः तथा च कार्तिक्यबधिकं विंशद्दिनवर्तमानीयविंशद्दिननाशोत्पत्तिकालोत्पतिमती अाग्रहायणौत्यन्वयबोधः । * एवं कुरुक्षेत्राच्चत्वारि योजनानि चतुर्ष योजनेषु वा पृथदकमित्यत्र चतुर्योजनपरिमाण विशष विशिष्टः चतुर्योजनशब्दयोः पथमान्तयोः सप्तम्यन्तयोश्चार्थ : तादृशपरिमाणविशेष पञ्चम्यर्थावधित्वस्यान्वयः । एवं कार्तिक्यास्विमासे त्रिषु मासेषु वा माघौत्यत्र माप्तत्रयवर्ती विमासशब्दार्थ : तत्र पञ्च यर्थावधित्वस्यान्वय: पूर्ववदितरान्वय इति । गुरुचरणास्तु योजनादिशब्दा मुख्यया वृत्त्या परत्वविशेषमभिदधति गौण्या तु नदभिव्यञ्जकसंयुक्तप्तं योगघटकान् परत्वप्रतियोगिकापरत्वाधिकरणदेशान्मासादिपदमपि तावदादित्यपरिस्स
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३६८ पञ्चमीविभक्तिविचारः। "न्दान्तरितजन्मनोवस्तुनोः सामयिकमपरत्वविशेषमभिदधत्तसंसर्गगुणेन तदन्तरालकालावयवानभिधत्ते स्वीक्रियते च संख्याया व परत्वादरपि समवान्याख्येन येन केनापि संसर्गण गुणाकर्मणोरपि व्यवहारावैशिष्टय तथा च गामाद्योजनं योजने वा वनमित्यादौ पञ्चम्या अबधिमत्त्वं प्रथमायाः सप्तम्या वा अधिकरणत्वमर्थ इति ग्रामावधिकयोजनात्मकपरत्वाधिकरणां वनमित्यन्वयबोध: कार्तिक्या आग्रहायणी मासे इत्यादौ तु कातिश्यादिपदं तदुत्पन्नस्थिरद्रव्ये लाक्षणिक तथा च कार्तिक्युत्पन्नस्थिरट्रव्यावधिकमासस्वरूपपरत्वाधिकरणाग्रहायण्युत्पन्नस्थिरद्रव्यमित्यन्वयबोध इति पाहुः । अन्यादिशब्दयोगे नानाविधाथि कां पञ्चमौं ज्ञापयति । अन्यारादितरतेदिक्शब्दाञ्चूत्तरपदाजाहियुक्ते इति सूत्रम् । अन्यः श्रारात् इतर: तेतिस्वरूपतः शब्दाः दिक शब्दा दिग्भेदार्थ कशब्दाः पूर्वादयः न तु दिकसामान्यार्थ का दिगादयः अञ्चूत्तरपदा: शब्दाः दिकभेदार्थकाः प्रागादयः 'न तु सध्पङ देवव्यङादयः । आच्छ त्यय आहिप्रत्ययश्च एतैः शब्दोगे पञ्चमौ भवतीत्यर्थकम् । अन्येतरयोरुभयोरुपादानं पर्यायग्रहणार्थ तेन परभिन्नादिशब्दयोगेऽपि पञ्चमी साधुः । अन्यशब्दस्य भेदविशिष्टोऽर्थ: भेदविशिष्टार्थ कपातिपदिकशब्दः पर्यायः तादृशः शब्दो रूढ इतरपरादिः कुत्तहितान्तादिभिभिन्नभेदवदादिः शक्रादन्यो नहुष इत्यत्र पञ्चम्याः स्वपक्रत्यतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मावच्छिन्नपुतियोगित्वमथ स्तच्च व्युत्प
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
तिवेचित्येणान्यपदार्थ कदेशे भेदे स्वनिरूपितानुयोगि त्वेन संबन्धेनान्वेति प्रत्यर्थस्याधेयतया तथाविधपतियोगित्वेऽन्वयः तथा च शक्रदृत्तिशकत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदवदभिन्नो नहुष इत्यन्वबोधः । न च प्रतियोगित्वमाचं पञ्चम्यर्थोऽस्तु किमवच्छिन्नान्तनिवेशेनेति वाच्यं तथासति घटादन्यो घट इति प्रयोगप्रसङ्गात् । घटनिष्ठप्रतियोगिताकस्य नौलषटभेदस्य पौतघटे सत्त्वात् । ननु प्रकृत्यर्थस्य प्रकृत्यर्थतावच्छेदकावच्छिन्नत्वेनाधेयत्वेन चोभाग्यां संबन्धाभ्यां पञ्चम्यर्थे प्रतियोगित्वेऽन्वयोपगमान्नोक्तदोष इति चेत्सत्यं तथासति पञ्चमो सोधुत्वार्थिकैव प्रकृत्यर्थस्यान्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन संबन्धेनान्यत्वेऽन्वय इत्येव ज्यायः अत एवान्वयितावच्छेदकावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वमिह व्युत्पत्तिवललभ्यं न हि भवति नौलो घटो घटादन्य इत्यनुमानदौधितावुक्तम् । समानविभक्तिकनामार्थयोरेव भेदान्वयो न व्युत्पत्तिसिद्धः श्रत एव विभक्तेर्निरर्थकतावादिनां मते राज्ञः पुरुष इत्यादी खखामिभाव संबन्धेन राजपदार्थस्य पुरुषपदार्थेऽन्वय इति यदि च विरुदविभक्तिक नामार्थयोरपि न भेदान्वयोऽभ्युपेयते । तदा प्रतियोगित्वमात्रं पञ्चम्यर्थस्तस्य प्रकृत्यर्थता - वच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगित्वोय निरूपितानुयोगितयाभेदेऽन्वयोऽथ वा दर्शितोभयसंबन्धेन प्रकृत्यर्थस्य प्रतियोगिल्वे तस्य खनिरूपितानुयोगितया भेदेऽन्वयः अन्वयबोधस्तु पूर्ववदेव एवं शक्रादितरः परो भिन्न भेदवान्वेत्यादावन्वयो बोध्यः । इयांस्तु विशेषः । भिन्न इत्यव भेदा
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३७०.
पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
श्रयः भेदवानित्यच भेदसंबन्धी प्रतीयते । नअपदं न भेदविशिष्टार्थकमिति तद्योगे न पञ्चमी किं च प्रथमोपात्ता प्रथमैव न चैवं गुणाइदो द्रव्यस्येत्यादौ भेदशब्दस्य विशिष्टार्थवत्त्वाभावात् भेदमावार्थकतथा पञ्चम्यनुपपत्तिरिति वाच्यं गुणाद्वैधर्म्यमित्यत्रेव गुणाद इत्यादावपि विभक्तपञ्चमीसम्भवादित्यस्य वक्ष्यमाणत्वात् । भवतु वाऽन्यशब्दस्य भेदार्थकः शब्दः पर्यायस्तथापि सूत्रे निपातातिरिक्तपर्यायस्य ग्रहणात् नञ्पदयोगे न पञ्चमौति । यन्तु अन्यपदस्य पृथक्त्वगुणविशिष्टोऽर्थ : - थकत्वार्थक शब्द एव पर्याय: भिदिधातोरपि पृथक्त्वमेवार्थः नञ्पदं तु न पृथक्त्वार्थकमिति तद्योगे प
मौ न भवतीति अत एव पृथक्वगुण सिडिरिति तशुच्छम् । अन्यादिशब्दस्य पृथक त्वार्थकत्वासम्भवात् । दादन्यो गुण इत्यादिप्रयोगानुपपत्तेः । भिदेरपि पृथक्त्वमर्थः । द्रव्यात्कर्मादिभ्यश्च भिद्यते गुण इत्यादिप्र योगात् गुणे गुणानङ्गीकारात् पृथक्त्वान्वयासम्भवात् भेदस्यान्वयसम्भवात् भेदार्थकत्वावश्यकत्वात् भेदत्वस्याखण्डोपाधितया शक्यतावच्छेदक गौरवविरहात् प्रकृते लक्षणानुपपत्तेः पृथक्त्वसिद्दिस्तु मल्लान्मल्लोऽपयाति मेषान्मेषोपसरतीत्यादौ पृथक्त्वस्यापि पञ्चम्यर्थतया तब प्रकृत्यर्थस्याधितयाऽन्वयस्तथाविधस्य पृथक्त्वस्य क्रियायां सामानाधिकरण्येनान्वयः । न चात्र भेदः पञ्चम्यर्थस्तस्य प्रतियोगितावच्छेदकतया क्रियायामन्त्रय इति वाच्यम् । परस्परस्मान्मल्लौ मेषौ वा अपसरत इत्यादावपादानकर्त्रीरुभयोः क्रियावत्त्वाद्वेदान्वयासम्भवा
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"विभत्त्यर्थनिर्णये।
३७१ न् । न च तक्रिया भेदप्रतियोगितावच्छेदिकति बाऽयं तत्तक्रियादेभंदप्रतियोगितावच्छेदकत्वेऽपि धातुना ताद्रूप्ये णानुपस्थापनोत् तत्रान्वयासम्भवात् भेदप्रतियोगितावच्छेदकमपसरणमिति सामान्यतो बोधस्य स्वस्मादपसरत इत्यादावपि सम्भावितत्वादित्यादियुक्तर्गगाग्रन्थादौ युक्त्यन्तरस्य पृथकत्वसाधकस्यानुसन्धानेन पृ. थक्त्वं साधनौयमिति । प्रकृते तु पृथक्त्वानुपपत्तिः सूत्रे शब्दस्य पृथक्त्वार्थकत्वकल्पने युज्यते नैव यतो हि सिद्धमय शब्दोऽभिधते नहि शब्देनार्थसिद्धिरन्यथा खपुष्यादिशब्दादतिरिक्तवस्तुसिड्यापत्तेरिति नजोऽभावत्व प्रतिनिमितं न तु भेदत्व मनुयोगिवाचकपदे प्रथमान्ते सति प्रथमान्तार्थस्य तादात्म्यावच्छिन्नप्रतियोगितया नञर्थेऽभावे अ. म्बयोपगमाहटो न पट इत्यादौ घटादिषु घटादिभेदस्यार्थतः प्रतीतिसम्भवादिति। नयोगे पञ्चम्य प्रसक्तः घटो न घटादित्यादिको न प्रयोग इत्यपि वदन्ति । घटः पटात्पृथगित्यादौ तु पञ्चमौ सूत्वान्तरणति वक्ष्यते टतेयोगे यथा कृष्णाहते व्रजो विरस इत्यादौ अत्र पचम्या: प्रतियोगित्वमर्थः तत्र प्रकत्यर्थस्य पूर्ववदन्वयः टते शब्दार्थोऽत्यन्ताभावस्तत्र प्रतियोगित्वस्य पूर्ववदन्वयः विरसस्तु प्रोत्यजनक तथा च कृष्णत्तिकपणत्वावच्छिनप्रतियोगिताकात्यन्ताभाववान् वजः प्रोत्यजनकाभिन्न इत्यन्वयबोधः । ऋतेशब्दार्थो भेदोऽपि यथा कृष्णाढते जनो गोवर्धनासह इत्यादी व चिदत्यन्ताभाववान् भेदवांश्च ऋतेशब्दार्थ: यथा रामादृते न लक्ष्मण इत्यत्रात्यन्ताभाववान् रोमाइते भक्तिः प्रोतिर्वा न लक्ष्मणस्थे
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રૂ૭૨
पञ्चमीविभक्तिविचारः। त्यत्र भेदवान् प्रतीयते । आराद्योगे यथा यामादारात्तटाकः तटकादाराहनमित्यादौ आराच्छब्दो दूरसमीपयोर्वतते सामोप्यञ्च सामान्यतः संयुक्तसंयोगित्वं विशेषतः स्वल्येतरसंयोगघटितपरम्परासंबन्धवत्त्वमितरापेवं तदन्यत्सामान्यत: समीपान्यत्वं दूरत्वं बहुतरसंयोगघटितपरम्परावत्वं परम्पराघटकप्रथमसंयोगान्धविप्रतियोगित्वं तु पञ्चम्यर्थ: सामीप्यदूरत्वघटकचरमसंयोगयोस्तटाकवनादावन्वयः तथा च ग्रामप्रतियोगिताकसंयोगवद्देशसंयोगवांस्तटाकः तटाकप्रतियोगिताकसंयोगवद्देश संयुक्तबहतरदेशसंयोगपरम्पराघटकसंयोगवहनमित्यन्वयबोधः । वनादारादित्यत्र वनावधिकं परत्वमपरत्वं चार्थ इति गुरुचरणाः । दिकशब्दयोगे यथा ग्रामात्पूर्वो दक्षिणः पश्चिम उत्तरो वा राम इत्यादावनोदयाचलसंनिहित: पूर्वपदार्थः बडवानलसंनिहितो दक्षिणपदार्थ: अस्ताचलसंनिहित: पश्चिमपदार्थः कैलाससंनिहित उत्तरपदार्थः पदार्थैकदेशतत्तत्सांनिध्यान्वय्यवधित्वं पञ्चम्यर्थस्तच्च तत्तत्सांनिध्यखरूपपरम्पराघटकसंयोगान्वयिपरम्परान्तरघटकसंयोगसंख्यान्यूनसंख्यावत्वं तत्र प्रकृत्यर्थस्य स्वसंयोगघटितत्वसंबन्धेन परम्परान्तरे ऽन्वयः तथा च ग्रामसंयोगवटितोदयाचलपरम्पराघटकसंयोगन्यूनसंख्याकसंयोगघटितोदयाचलपरम्पराघटकसंयोगवान् राम इत्यन्वयबोधः । एवं बडवानलादिसान्निध्यमादायान्वयबोध ऊहनीयः । वस्तुतस्तु तत्सानिध्यं तु तत्संयोगघटितपरम्परान्तरघटकतत्संयोगघटित परम्पराघटकसंयोगवत्वं भवति हि
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विभक्त्यर्थनिर्णये। गमविश्रान्तोदयाचलसंयोगवटितपम्पराया घटिकोदयसंयोगघटितारामविश्रान्ता परम्परेति ग्रामापेक्षयोदयस्यान्तिक आराम इति । एवं परम्पराबयिसंयोगघटितत्वं पञ्चम्यर्थः प्रकृत्यर्थस्य संयोग आधेयतयाऽन्वयः ए. वमन्वयबोध जहनीयः घटकत्वं तु तविषयताव्यापकबिषयतावत्त्व घटितत्वं तु तहिषयताव्याप्यविषयताबत्त्वं बोध्यमिति । परे तु उदयाचलाद्यवधिकापरत्वविशिष्टः पूर्वादिपदार्थः पञ्चम्याः परत्वमर्थः तत्व प्रकृत्यर्थस्याधेयतया परत्वेऽन्वयस्तथा च ग्रामत्तिपरत्वनिरूपक मुदयाचलावधिकं यदपरत्वं तदाश्रयस्तटाकः इत्यन्वयबोधो ग्रामत्यूर्वस्तटाक इत्यादौ जायते एवमेव प्रागादिशब्दयोगेऽप्यन्वयबोध इति वदन्ति । पूर्वादिशब्दस्य दिगन्याथें वर्तमानतायां पञ्चमी यथा माधवात्पूर्वो मधुः कष्णात्पूर्वी हलायुध दुल्यादौ अब कालिकसंबन्धेन प्रागभाववान् पूर्वपदार्थः प्रागभावान्वयिप्रतियोगित्वं पञ्चम्यर्थस्तव प्रक त्यर्थस्याधेयतयाऽन्वयस्तथा च माधवत्तिप्रतियोगिताकपागभाववान्मधुरित्यादिरन्वयबोधः प्रागभावकालोत्पत्तिमत्त्वं न पूर्वपदार्थतावच्छेदक प्रागभावापेक्षया गुरुत्वादिति । अन्ये तु कालिकपरत्ववान् पूर्वपदार्थः परत्वान्वय्यपरत्वनिरूपकत्वे पञ्चम्यर्थस्तच प्रक,त्यर्थस्याधेयतयाऽपरत्वेऽन्नयस्तथा च क षणत्तिपरत्वनिरूपकापरत्ववान् हलायुध इत्यन्वयबोध इत्याहुः । यदि च शब्दात्पूर्व गगनं जन्यत्तानात्पूर्वो जीवः कायमानात्पूर्वो भगवानित्यादिः प्रयोगस्तदा प्रांगभावाधिकरणकालवतित्वं पूर्वत्वमथ वाऽधिकरणसमयध्व सानधि
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। करणत्वविशिष्टस्याधिकरगाभेदस्य विशिष्टे समये वर्तमानत्वं तथा च हितौयादिक्षणामात्रवर्तिन्यतिप्रसङ्गवारणाय विशिष्ठस्येत्यन्तं भेदस्य विशेषणं आद्यक्षणष्टत्तिनि स्वस्मिपर्वत्ववोरणायाधिकरणाभेदस्य वैशिष्टय समयविशेषणं कालिकसंबन्धन वस्तुमा वानधिकरणे जीवादी वर्तमानस्य ज्ञानसुखादेघटादिपूर्वत्ववारणाय समय इति पदे तेन कालि कसंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वं तथाविधानधिकर. शानिरूपितं पूर्वत्वं तच्च जीवादी कालिकेन वर्तमाने ज्ञानसुखादौ नातिप्रसक्तमिति अधिकरणत्वं ध्वसाधिकरणत्वं च कालिकेनैव बोध्यं तेन कपालादिस्वरूपाधिकरणावसाधिकरण कपालिकादिभिन्ने तन्तुसमुदाये वर्तमानस्य पटस्य न घटादिपूर्वत्वमिति विशेषणान्तर· प्रयोजनमप्यनया रौत्या बोध्यं तथाविधध्वंसानधिकर
णत्ववैशिष्ट्यमधिकरणभेदस्य विशेषणताघटित सामानाधिकरण्येन बोध्यमत: खोत्तरवर्तिनि नातिप्रसङ्गः । एवं पञ्चम्या निरूपितत्वमथः तच्च भेदप्रतियोगिन्यधिकरणे ध्वंसप्रतियोगिन्यधिकरणसमये चान्वेति तथा च शब्दनिरूपिताधिकरगासमयध्वंसान धिकरणे शब्दनिरूपिताधिकरणभिन्ने समये वर्तमानं गगनमित्यादिरन्वयबोधः । एवमेव माधवात्पूर्वो मधुः कृष्णात्पूर्वो हलायुध इत्यादाबप्यन्वयो बोध्यः । अञ्चत्तरपदयोगे यथा नगरात्याक अवाक प्रत्यगुदग् वा क्रीडापर्वत इत्यादी अवाप्युदयाचलादिसं निहित: प्रागादिशब्दार्थ: पूर्वोक्ततत्तत्सान्निध्यान्वयिपूर्वोक्तमवधिमत्त्वं पञ्चम्यर्थः ग्रामा त्यूर्व श्राराम इत्यादाविवान्वयो बोध्यः। एवं माधवात्याक
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विभक्त्यर्थनिर्णये। ३७५ मधुः कृष्णात्प्राक् हलायुध इत्यादानप्यन्बयो बोध्यः । प्रागादिशब्दानां दिकशब्दत्वेऽपि ग्रामस्य दक्षिगत - . त्यादा विवातसर्थ प्रत्य ययोगे प्रसक्तायाः षष्या निषेधायपृथक् ग्रहणं तेन नगराया चीन आराम इत्यादावतमधस्य खप्रत्ययस्य योगे षष्ठी न भवतीति । आच्योगे आहियोगे च यथा नगराइक्षिणा दक्षिणाहि वा पर्वतः नगरादुत्तरा उत्तराहि वा कासार इत्यादौ । अब दक्षिणोत्तरशब्दयोरर्थः पूर्वोत एवं पञ्च प्याः पूर्वोक्तमवधिमत्त्वमर्थः तच्च पूर्वोक्ततत्तत्सान्निध्येऽन्वेति भाजाहिप्रत्यययोरधिकरणार्थकयोराधेयत्वमर्थस्तथा च नगरावधिकवडवानलसंनिहितदेशत्तिः पर्वत इत्यादिरन्वयबोधः । अनयोः प्रत्यययोरतसर्थतया प्रसक्तषष्ठीनिषेधार्थमेवीपादानमिति । अवयववाचिपूर्वादिशब्दयोग षष्ठय व प्रमाणं तस्य परमामंडितमितिनिर्देशात्तेन पूर्व कायस्य शरीरस्य दक्षिणाहि तिलः इत्यादौ कायशरीरादिपदान्न पञ्चमौ पूर्वपदस्य पूर्व कायस्वरूपवाचकत्वात् । दक्षिणपदस्य दक्षिणभागस्वरूपशरीरावयववाचकत्वादिति । अपादाने पञ्चमौतिसूत्रविवेचने कार्तिक्या: प्रभृतौतिभाष्यप्रयोगात् प्रभृतिशब्दयोगे पञ्चमी तदेतद्भाष्यं विगवता कैय्यटेन तत प्रारभ्येत्यर्थ इत्युक्त तेनारम्येति ल्पबन्तयोगापि पञ्चमी साधुरिति जायते । कार्तिक्या: प्रभृति आरभ्य वा सेव्यते गङगेत्यादौ प्रतिशब्दस्याधिकरण कालध्वंसाधिकरणसमयोऽर्थ: आरभ्येतिशब्दस्याध्ययमेवार्थ : पञ्चम्यास्तु अधिकरणान्वयिनिरूपकत्वमर्थ : प्रभृत्यर्थः सेवने व्यापकतया आधे
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३७६
पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
यतया वाऽन्वेति तथा च कार्तिक्यधिकरण समयध्व साधिकरणं यः समयस्तद्यापकस्य तद्दृत्तेर्वा सेवनस्य कर्म गङ्गेत्यन्त्रयबोधः एवमेव भवात्प्रभृति भवादारभ्य वा सेव्यो हरिरित्यादावन्वयो बोध्यः ।
ततः प्रभृति संक्रान्तावुपरागादिपर्वसु । त्रिपिण्डमाहरेच्छ्राइमे कोद्दिष्टं मृतानि ॥
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इत्यादौ यदि प्रभृत्यर्थस्य निपातार्थ तया संक्रान्त्यादिकाले भेदान्वयो न युज्यते तदा संक्रान्त्यादिष्टत्तिश्राहप्रभृत्यर्थ स्थाधेय तयैवान्वय इति । अपपरिवहिरञ्चवः पञ्चम्या इति सूत्रेण समासविधानात् ज्ञापकात् बहि:शब्दयोगेऽपि पञ्चमौ साधुरिति ज्ञायते । नगराइहिराराम इत्यादावयवसंयुक्तोऽन्यावयवसंयुक्तो बहिः पदार्थ : पञ्चभ्या अवयवान्वयि समवायित्वमन्यत्वान्वयि प्रतियोगित्वं चार्थ : वहि: पदार्थ स्याधेयतया रामादावन्वयः । तथा च नगरसमवाव्यवयवसंयुक्तो यो नगरप्रतियोगिताकभेदवत्संबन्ध्यवयव संयुक्त तद्वृत्तिराराम इत्यन्वयबोधः काश्या बहिर्मिथिलेतिप्रयोगवारणायावयवसंयुक्तत्वमन्यावयवसंयुक्त विशेषणम् । अत एवानधिकरणं हि पदार्थ इत्यपि प्रत्यक्तं घटस्य घटानधिकरगतया "घटे जलं घटाहिरि "तिप्रयोगप्रसङ्गाच्च ज्ञापकसिद्धं न सर्वत्रेति करस्य करभो बहिरित्यादौ पठौ अत्र पृष्ठावयवमुक्तोऽवयवो बहिरर्थः तत्र षष्ट्यर्थसंबन्धस्यान्वय इति पञ्चमीविधायक योगार्थ केषु चिच्छव्देषु कर्मप्रवचनीयसंज्ञां विधत्ते । अपपरी वर्जने इति सूत्रम् । अपपरिशब्दौ वर्जनेऽथे कर्मप्रवचनीयसंज्ञौ भवत इत्य
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विभक्त्यर्यनिर्णये ।
र्थक वर्जनाद्यर्थ विरहे न कर्मप्रवचनीयता यथा ओदनं परिषिञ्चतीत्यादौ । चङ् मर्यादावचने इति सूत्रम् । चङ् इत्येष शब्दो मर्यादावचने खार्थ मर्यादाप्रतिपादने सति कर्मप्रवचनीयसंज्ञो भवतीत्यर्थक म र्यादायामेतावन्मात्रोक्त्यैव समाहितसिहौ वचनग्रहग्राम भित्रिधावपि कर्मप्रवचनीयतां ज्ञापयति तथा हि काशिका वचनग्रहणादभिविधिरपि गृद्यत इति । मर्या दावचन इति ईषदर्थं क्रियायोगे उक्तसंज्ञा निषेधार्थ मिति । कर्मप्रवचनीययोगे पञ्चम ज्ञापयति । पञ्चम्यपापरिभिरिति सूत्रम् । अपाङ्परित्येतैः कर्मप्रवचनीयैर्योगे पञ्चमौ भवतीत्यर्थकम् अपचिगर्तेभ्यः परिचिगतेभ्यो वा दृष्टो देव इत्यादावपपरिशब्दयोवर्जनमत्यन्ताभावोऽर्थः पञ्चम्या आधेयत्वमर्थोऽत्यन्ताभावेऽन्येति स प्रतियोगितया अपरपदार्थे दृष्ट्यादावन्वेति तथा च चिंगतत्त्वत्यन्ताभावप्रतियोगिदृष्टिकर्ता देव इत्यन्वयबोधः एवमेत्रापहरेः परिहरेव संसार इत्यादावप्यन्वयो बोध्य इति संप्रदायः । अत्र समानकालिकत्व संबन्धेनाध्यच्त्यन्ताभावस्य समभित्र्याहृतार्थं दृष्ट्यादावन्वयस्तेन कालान्तरावच्छेदेन त्रिगर्त्तवृत्तेरत्यन्ताभावस्य प्रतियोगिन्यपि त्रिगर्तवर्षणे तथा न प्रयोगः । वस्तुतस्तु समभिव्याहृतार्थस्यान्वयितावच्छेदकावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वेन संबन्धेनात्यन्ताभावेऽन्वयः तथाविधात्यन्ताभावस्य समानकालिकतया समाभिव्याहृतार्थेऽन्वयस्तथा च त्रिगर्तवृत्तेष्टात्यन्ताभावस्य समानकालिकौ या दृष्टिस्तत्कर्ता देव हू- यन्वयबोधस्तेन त्रिगर्तष्टत्तेर्वृष्टिगगनाद्युभयाभावस्य प्रति
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३७८
पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
योगिनि समानकालिकेऽपि बिगर्तवर्षणे तथा न प्रयोगः । आङो मर्यादाऽर्थः सा च व्यवधानसं सर्गयोरभावौ तवाव्यवधानं व चित्कालिकं क्व चिद्देशिकं व चित्पाठक कचिदन्यथाऽपि संसर्गस्य तादाव्यसंयोग सादिभ्यसभानकालिकत्वादेरभावोऽपि यथायथं तात्पर्यवशादुपतिठते आमुक्तेः संसार इत्यत्र संसारे मुक्तिनिरूपितं कालिकमव्यवधानं मुक्तिसमानकालिकत्वाभावश्च श्रसमुद्रान्मद इत्यच मृदां समुद्रनिरूपितं दैशिकमव्यवधानं तादात्म्यस्य सादेश्यस्य वा अभावश्च आकडारादेका संज्ञा इत्य एकसंज्ञाकशब्दविधीनां कडारसूवनिरूपितं पाठिकमव्यवधानं तत्पठितत्वाभावश्वावगम्यत इति । अभिविधौ वर्तमानस्याङी व्यापकत्वमितरसंबन्धश्चार्थसच व्यापकताघटक इतरनिरूपितश्चैक एव संसर्ग: प्रतौयते श्रपरमाणोः पृथिवीत्वसामानाधिकरण्येन तादात्म्य संसर्गावच्छिन्ना पच्यमानपरमाणुव्यापकता तदितरतादात्म्यं च भासते समुद्राद्यश इत्यादी यशसि समुद्राभिव्यापकत्वं समुद्रेतरसंबन्धो भासत इतीयं रौतिरन्यत्रापि ज्ञेयेति पदवाक्यरत्नाकरे गुरुचरणाः । के चित्तु यावच्छन्दतुल्यार्थकस्याङो मर्यादा अभिविधिवार्थः मर्यादा तु सौमा कालरूपा देशरूपा च कालपायथा तस्यामारभ्य तां देवीमादशम्याः प्रपूजयेदि - यादो कालनिष्ठं सौमत्वं तु समभिव्याहृत कालप्रागभावानधिकरणखप्रागभावाधिकरण व सजातीययावत्का• लटत्तिसमभिव्याहृतक्रियाऽनधिकरणत्वं दर्शितस्थले पूनारूपक्रियायाः शुक्कदशमौनिष्ठ सौमत्व निरूपकत्वमा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३७९
शब्देन प्रत्याय्यते तावतैवार्थतः शुक्कदशग्या मर्यादात्वं लभ्यते तन्निष्ठसौमत्वनिरूपकत्वं च तदृत्तित्वे सति कृष्णानव मोप्रागभावानधिकरणतत् प्रागभावाधिकरणतिथिकूटव्यापकत्वं तावता षोडशतिथ्यधिकरणाकषोडश पूजा रूपस्यैककर्मणो विधेयतया लाभः व्याप्यकाल समुदाये सजातीयत्वविशेषणात्पूजाया उक्तविशेषगाइयाक्रान्तदण्डादिसमुदायाव्यापकत्वेऽपि न बाधः अन्वयितावच्छेदकघटकरूपेण साजात्यस्य विवक्षणादतस्थले च तिथेरित्यध्याहारेण दशमोपदार्थतावच्छेदकस्य तिथित्वघटितत्वेन वाऽऽङ्शब्दार्थान्वयितावच्छेदकतया तिथित्वलाभात् तेन रूपेण दण्डादेर्दशमौसजातौयत्वाभावात् तिथिः सखण्ड काल विशेषरूपः । ननु चन्द्रमण्डलकलाऽवस्थाप्य शुक्रियाप्रचयरूपा पूजायास्तावत्क्रियावृत्तित्वासम्भवात् तत्र च प्रागभाव एवाङोऽर्थः प्रतियोगित्वमनुगोगित्वं वा तत्व प्रकृत्यर्थस्य दशम्या - न्वयः तावता च दश मौप्रतियोगिक प्रागभावलाभस्तस्य स्वप्रतियोग्यदृत्तित्वविशिष्टव्यापकतासंबन्धेन पूजारूपसमभिव्याहृत क्रियायामन्वयः व्यापकत्वं च खाधिकर गातिथिनिष्ठाभावप्रतियोगिताऽनवच्छेदकपूजा विशेषत्व
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स्वाधिकरणकृष्ण नवमौ प्रतियोगिक प्रागभावा च्छिन्नाभेदविशिष्टकालिक विशेषत । संबन्धन बोध्यं तेन कृष्ण नवमोप्रतियोगिक प्रागभाववत्प्रतियोगिकभेदस्याप्रसिद्धावपि न चतिः तद्दशमोप्रागभावाधिकरणकालस्य स्वाधिकरण कृष्णनवमरैप्रागभावावच्छिन्नभेदवच्त्व संबन्धेन तत्प्रागभावाधिकरणत्वाचतेः । न चैवं व्यवहितकृष्णनव
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
३८०
मी प्रतियोगिकप्रागभावावच्छिन्नभेद घटितसंबन्धेन प्रकृत कृष्णणन व मो पूर्वतिथीनामपि तत्तद्दशमौ प्रागभावबवात् तदधिकरणतिथिव्यापकत्वं पूजाविशेषेऽपि न सम्भवतीति वाच्यं खावच्छिन्नकृष्ण नवमीप्रागभावाधिकरणत्वसंबन्धेन खावच्छिन्नभेदस्य संबन्धघटकत्वोपगमान्तेन संबन्धेन प्रकृतनवमीपूर्वतिथीनां तत्तद्दशमीप्रागभावानधिकरणत्वात्पूजा विशेषस्य व्यापकत्वाचतेरिति देशरूपा च यथा काशीत आकौशिक्या व्रजतोत्यव कौशिक्यागमनसौमत्वं प्रतीयते तच्च काशीपूर्वकौशिकौपश्चिम देशव्यापकगमनानधिकरणत्वं अङ्शब्देन कौशिकानधिकरणकत्वे सति काशीपूर्वकौशिको पश्चिमदेशव्यापकत्वं गमने प्रत्याय्यते तवाङ शब्दार्थः पश्चिमदेशस्तदन्वय्यवधिमत्त्वं पञ्चम्यर्थस्तव प्रकृत्यर्थस्य कौशि aar अन्वयस्तावता कौशिकावधिकपश्चिम देशलाभः तस्य खावधीभूतकौशिकावृत्तित्वविशिष्टव्यापकतासंबन्धेन गमनेऽन्वयः व्यापकत्वं च काशीपूर्वाभिन्नखनिष्ठाभावप्रतियोगिता नवच्छेद कगमन विशेषत्ववत्त्वमिति । अभिविधिरपि कालरूपो देशरूपश्च कालरूपो यथा कार्त्ति कमारभ्याचैत्राच्छौतं भवति इत्यादौ देशरूपो यथा काशौत आपाटलिपुत्रात् दृष्टो देव इत्यादौ प्रथमे कातिक पूर्व कालोत्तरचैव त्तर काल पूर्वकालव्यापकत्वं चेवोत्तरकालावृत्तित्वसहितं शोतभवने द्वितौये काशीपश्चिम देशपूषपाटलिपुत्र पूर्व देश पश्चिम देशव्यापकत्वं पाटaya पूर्व देशावृत्तित्वसहितं दृष्टावाङ्शब्देन प्रत्याय्यते शेषः पर्वदिशाऽवसेय इत्याहुः । तञ्चिन्त्यं मर्यादायां
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विभत्त्यर्थनिर्णये। व्यापकताभाने मानाभावात् आकडारादेका संज्ञेत्यत्व व्यापकताभानस्थासम्भवाच्च तथाह्येष संजाविधिन कडारसूत्रपूर्वसूबव्यापक: । इको गुणधी न धातुलोप आर्धधातुके इत्यादिपर्व सूत्र तहिरहान्नाप्यव्यवहितपूर्वसूवव्यापकः वाऽऽहिताग्न्यादिषु इत्यव्यवहितपूर्वसूचे तहिरहात् एवं प्रभासत आगङ्गासागरात् मृद इत्यादी प्रभासपूर्वभूतगङ्गासागरपश्चिमदेशानां सरित्कासारदेवखातानां मृदन्यत्वात् मृदां तादृशदेशाव्यापकत्वात्तझाबायोगाच्च एबमापरमेश्वरादात्मनां कर्मबन्ध इत्यादौ पूर्वोत्तरादिदेशकालान्यतरस्वरूपसौनोऽप्ययोगादिति । एवमभिविधावपि व्यापकत्वस्य सौम्नश्चानुपपत्तिहहनीया तस्मान्मर्यादाथामाङः संबन्धाभावः संबन्धिसंबन्धश्वार्थः आकडारादेका संज्ञा इत्यत्न कडारसूत्रमंबन्धस्याभावः संबन्धस्तु प्रतिपाद्यत्वं कडारसंवन्धिनस्तत्पूर्वस्य सूत्रस्य संबन्धः प्रतिपाद्यत्वमेकसंजाविधी प्रतीयते तत्र पञ्चम्या निरूपितत्वमर्थस्तथा च कडारसूत्रनिरूपितप्रतिपाद्यत्वाभाववान् कडारपूर्वसूत्रप्रतिपाद्य एक संज्ञाविधिरित्यन्वयबोधः । अभावप्रतियोगी संबन्धिनिरूपितश्चैक एव संबन्धो बोध्यः तेन समुद्रतोदात्म्याभावसमुद्रसमकालिकत्वसंबन्धयोश्च गगने सत्त्वेऽपि त्रासमुद्रागगनमिति न प्रयोगः यदि च कडारसवोत्तरसूप्येकसंज्ञाविधिविरहो ऽभिसंहितस्तदा प्रागभावानधिकरणसूत्रप्रतिपाद्यत्वाभाव एव प्रकृते मर्यादा तत्र प्रागभावानधिकरणसंबन्धाभाव आङोऽर्थः पञ्चम्याः प्रतियोगित्वमर्थः प्रागभावान्वेति कडारसत्रमतियोगिताक
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
प्रागभावानधिकरणं कडारमूत्रं तदुत्तरसूबकदम्बकं च श्रनुपूर्वीविशेषविशिष्टवर्णकला पखरूपस्य वृद्धिरादैजित्यादेर इत्यन्तस्याष्टाध्यायीग्रन्थस्य वाहिताग्न्यादिषु इति सूत्रान्तभागः कडारसूत्रानुपूर्वी विशिष्टवर्णप्रागभावस्याधिकरणमनधिकरणं चानभिहिते इत्यादिसूत्रभाग इति तत्र तथाविधस्याधिकरणस्य स्वाभिन्नसूत्रनिरूपितप्रतिपाद्यत्वं संबन्धः तथाविधानधिकरणस्य तु खाभिन्नसूत्रनिरूपित प्रतिपाद्यत्व संबन्धाभावश्चैकसंज्ञाविधौ प्रतौयते । कडारत्र पूर्वत्वमाप्र यो गोत्तरस्वविशिष्टं बोध्यं यत्व चाङ्प्रयोगे द्वितीयोऽवधिनं दृश्यते तवाङ्प्रयोगाधिकरणमानुपूर्वी वा कालो वा देशी वअवधिस्तवानुपूर्वी प्रकृते वाकडारादेका संज्ञेति सूत्रानुपूर्वी तथाविधावधिस्तथाविधानुपूर्व्युत्तरत्वविशिष्टस्य दर्शित सूत्रप्रागभावाधिकरणास्य दर्शितसंबन्धः प्रतीयतें अत एव काशिकायामाकडारादिति सूवत्र्याख्याने कडारा: कर्मधारये इति वच्यति य एतस्मात्स्वादवधेयदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तत्रैकसंज्ञाभवतीति वेदितव्यमित्युक्तं तथाविधकालो यथा आमरणादितमभिसन्धत्ते धौर इत्यादौ अव हिताभिसन्धानस्य मरणकालाधेयत्वाभाव आङ प्रयोगोत्तर मरणप्रागभावाधिकरणका लाधेयत्वं च प्रतीयते अत्रापि न व्यापकत्वस्य भानं मरणप्रागभावाधिकर सुषुप्त्यादिकालेऽभिसन्धा नविरहात् । श्वव संबन्धाधेयत्वं कालिक संबन्धावच्छिन्नं बोध्यमतो नानुपपत्तिस्तथाविधदेशो यथा श्रसमुद्राचितिरित्यादी अब तादात्म्याभावः संयुक्तदे
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विभक्त्यर्थनिर्णये। शतादात्म्यं चाडोऽर्थस्तत्र संयुक्तदेशे आप्रयोगाधिकरया पार्थिवावधिक पूर्वत्वं दक्षिणत्वं पश्चिमत्वमुत्तरत्वे समुदितं प्रत्येकं वा तात्पर्यवशादवगम्यते अतः समुद्रवर्तिनां न दर्शितप्रयोगस्तथा च समुद्रभिन्ना तादृशपार्थिवावधिक पूर्वेण समुद्रसंयुक्तवेलादिदेशेनाभिन्ना क्षितिरित्यन्वयबोध: । क चित्सजातीयोऽप्यवधिः यथा मिथ्याज्ञानमा परमात्मन इत्यादौ अत्र समवेतत्वाभावो भोक्तममवेतत्वं चाडोऽर्थः भोक्ता तु साजात्यसंबन्धवानिति नानुपपत्तिः भोक्तापकतासंबन्धन समवायेऽन्वयस्तथाविधसमवायावच्छिन्नाधेयत्वमवधि विना मिथ्याज्ञानानुपपन्नमिति स्थावरजीवन्मुक्ता दिर्भोक्ताऽवधिस्तस्याबधित्वं परमात्मन दूव बोध्य तथा च स्थावरजीवन्मुतासमवेतत्वविशिष्टं तथाविधभोक्तसमवेतत्वमथ वा स्थावरजीवन्मुक्तभिन्नभूता एव भोक्ततया भासन्ते तथा च परमात्मासमवेतं म्थावरजीवन्मुक्त भिन्नभोक्तव्यापकसमवायावच्छिन्नाधेयत्ववन्मिथ्याज्ञानमित्यन्वयबोध: । क चिन्न हितोयो ऽवधिर्यथा आमुक्तेः संसार दूयादौ अत्र मुक्तिकालात्तित्वं मुक्तिप्रागभावका लवत्तित्वं च पूर्वावधिरहिते संसारे प्रतीयते क चिद् हितोयावधियोगः यथा तत बारम्य तां देवीमादशम्या: प्रपजयेदित्यादी अन पूर्वकालाटत्तित्वमुत्तरकालत्तित्वम् आरभ्य शब्दस्यार्थः तत्र पूर्वत्वघटकप्रागभावान्वयिप्रतियोगित्वमुत्तरत्वषटकाधिकरणान्वयिनिरूपकत्वं च पञ्चम्या अर्थः । आङस्तु समानकालिकत्वाभावः प्रागभावकालिकत्वं चार्थः कालान्वयिनि
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
रूपकत्वं प्रागभावान्वयिप्रतियोगित्वं च पञ्चम्यर्थस्तथा च कृष्णनत्र मौप्रतियोगिता कप्रागभावका लावृत्तिः कृष्णनवमीनिपिताधिकरणकाल ध्वंशाधिकरणकालस्वरूपोत्तरकालवृत्तिः दशमीप्रतियोगिताकप्रागभावकालिकौ देवौकर्मिकपूजा वाक्यार्थः कृष्णनवम्यादिसकलतिथिवृत्तित्वं तु पूजाया प्रतितिथिपूजाङ्घविशेषोपदेशादवगम्यते नवम्यादितिथिस्तु तत्तञ्चन्द्रकालानुक्रियाप्रचयाधिकरणकालस्वरूपा तथाविधक्रियाऽपचयमा वावस्थायजन्य पदार्थस्वरूपा वेत्यन्यदेतत् देशस्वरूपीभयावधियोगो यथा काशिकायाम् आपाटलिपुत्रादृष्टो देव मथुराया इत्यादौ चव देशिक संसर्गावच्छिन्नाधेयत्वस्याभावस्तथाविवं पश्चिम देशाधेयत्वं च प्रथमस्याङऽर्थः पञ्चम्यास्तु श्राधेयत्वान्वयिनिरूपितत्वं पश्चिमत्वाaaraधिमत्त्वं चार्थः । एवं द्वितीयस्याङस्तथाविधावेयत्वाभावस्तथाविधं पूर्वदेशाधेयत्वं पञ्चम्यास्तु निरूपित
मिचार्थस्तथा च पाटलिपुत्रावृतेः पाटलिपु वावधिक पश्चिमवृत्तेः मथरानिरूपिताधेयत्वाभाववत्या मथुरावधिक पूर्वदेशष्टत्तेष्ट ष्टेः कर्ता देव इत्यन्वयबोधः श्रीकृष्ण नवमौ पूर्वतिथि आशुक्कदशमि देवौं पूजयेदिति आपाटलिपुत्रमामथ दृष्टी देव इति चाव्ययौभावसमासे त्वाङो निपाततया तदर्थे भेदान्वये बाधकाभावादर्शित एवान्वयबोधः । इयांस्तु विशेषः । समासे वि भक्ते लृप्ततया पञ्चम्यर्थयोर्निरूपितत्वप्रतियोगित्वाद्योः संसर्गीतया भानमिति । आङो ऽभिविधिरप्यर्थः स च तत्संबन्धतदितरसंबन्धावापरमाणोः पृथिवीत्यादौ पृ
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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थिवीत्व सामानाधिकरण्येन परमाणोस्तदन्यस्य च तादायं प्रतीयत इति केचित् परे तु तद्यापकत्वं तदितरसंबन्धश्चाभिविधिः व्यापकताघटक इतरनिरूपितश्चैक एव बोध्यस्तेन संबन्धान्तरेगा व्यापकत्वे नातिप्रसङ्घः आपरमाणोः पृथिवीत्यादौ पृथिवीत्वसामानाधिकरण्येन पच्यमानपरमाणुव्यापकत्वं परमाणुभिन्नतादाम्यं च प्रतीयत इत्याहुः । तदुभयमपि चिन्त्यम् । आागुणाज्जातिरितिप्रयोगप्रसङ्गात् । अभ्ये तु कार्तिकमारम्याचैवाच्छीतमित्यत्राङ उत्तरकालोऽर्थस्तस्य खपूर्वका - लब्यापकत्वेन स्वाष्टत्तित्वेन चापरपदार्थेऽन्वयः पञ्चम्या उत्तरत्वाम्वयिनिरूपकत्वमर्थः भारभ्यशब्दस्य पूर्वकालोत्तरकालोऽर्थः पूर्वत्वान्वयिप्रतियोगित्वं द्वितीयाऽर्थस्तावता कार्तिकपूर्वकालोत्तरकाललाभः स चायं काल: संसर्गीभूतव्यापकताघटकख पूर्वकालस्य विशेषणं न तु काप्यन्वेति पूर्ववदेव कार्तिक पूर्व कालोत्तरस्व पूर्वकालनिष्ठाभावप्रतियोगिताऽनवच्छेदकधर्मवत्त्वं व्यापकत्वं संसर्गः आरभ्यान्तवाक्यं दर्शितव्यापकता संसर्गकान्बयतात्पर्यग्राहकं तथा च चेचोत्तरकालावृत्तिकार्तिक पूर्वकालोत्तरीभूत चैत्रोत्तरकाल पूर्वकालव्यापकं च शौतमित्यन्वयबोधः । एवं काशीत आपाटलिपुत्रादृष्टो देव इत्यादौ पूर्वदेश आङोऽर्थः पूर्वत्वान्वय्यवधिमत्त्वं पञ्चम्यर्थस्तावता पाटलिपुत्रपूर्वदेशी लभ्यते तस्य तु काशीपश्चिमदेशावधिकपूर्वी भूल व पश्चिम देशव्यापकत्वेन खावृत्तित्वेन चापरशब्दार्थेऽन्वयस्तथा च पाटलिपुत्त्रपूर्वदेशावृत्तित्वं काशौपश्चिमदेशावधिक पूर्वभृतपाटलिपुत्रपू
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। विधिकपश्चिमदेशव्यापकत्वं च पृष्ठौ प्रतीयते पारभ्यान्तवाक्य पूर्ववत्तात्पर्यग्राहकमेवेति बदन्ति । तदपि चिन्त्यम् । आशैशवादधौतमायौवनादित्यादी योवनोत्तरकालपूर्वीभूतशेशवपूर्वकालोत्तरकालव्यापकत्वस्याध्ययने विरहात् तादृशानध्यायरोगादिकालेऽध्ययनबिरहादिति तस्मात्संबन्धिसंवन्धाभावः संबन्धइतरसंबन्धश्चाभिविधिराडोऽर्थः संबन्ध्यन्वयिनिरूपितवमितरान्वयिप्रतियोगित्वं च पञ्चम्यर्थ आपरमाणोः पृथिवीत्यादौ परमाणुतादात्म्यवतो जलादिपरमाणोस्तादाम्याभाव: पार्थिव परमाणुतादाम्यं पार्थिवपरमाभिन्नघणुकादितादात्म्यं च पृथिव्यां प्रतीयते याहशसंबन्धस्याभावो भासते तादृश एव संबन्ध इतरसंबन्धश्च भासते अतः समुद्रसंयुक्तशैवालतादात्म्याभावसमुद्रसमकालिकन्वसमुद्रेतरशदवत्तादात्यानां गगने सत्त्वेऽपि प्रासमुद्रागगनमिति न प्रयोगः न वा गगनममवेतशब्दतादात्म्याभावगगनतादात्म्यगगनेतरटथिव्यादिसमकालिकत्वानां गगने सत्यापि आगगनागगनमितिप्रयोगः । आचैत्राच्छोतं भवतीत्यत्र उत्तरकालाधयत्वस्याभाव आधयत्वमितराधेयत्वं चाङोऽर्थः उत्तरत्वं ध्वंसाधिकरणत्वं बोध्यं पञ्चम्याः प्रतियोगित्वं निरूपितत्वं चार्थ: प्रतियोगित्वध्वंसेतरत्वयोर्निरूपितत्वमाधयत्वेऽन्वेति प्राधेयत्वं तु कालिकविशेषणतावच्छिन्नं बोध्यं तथा च चैत्रप्रतियोगिताकोत्तरकालाहत्तिचैत्रवृत्तिचैवेतरकालत्ति शीतं तसवनं वा वाक्यार्थः । शाप्रयागादन्तर्वेदिरित्यादी पूर्वदेशतादात्म्याभावस्ता
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विभत्त्यर्थनिर्णये । दात्म्यमितरदेशतादालयं चाडोऽर्थः पञ्चम्याः पूर्वत्वान्वय्यवधिमत्त्वं तादात्म्यान्वयिनिरूपितत्वमितरत्वान्वयिप्रतियोगित्वं चार्थस्तथा च प्रयागपूर्वदेशभिन्ना प्रयागप्रतियोगिताकेतरपश्चिमादिदेशाभिन्ना चान्तर्वेदिरित्यन्वयबोधः । श्राकोटादाकैटभारेरभीष्टलाभप्रयुक्तकतकृखतेत्यादौ कैटभार्यवधिकोत्कृष्ट परमात्मारशिवमाधेयत्वमितरात्मवृत्तित्वं हितीयस्याडोऽर्थः प्रथमस्य तु कोटावधिकापकृष्टनारकिकात्मात्तिदर्शितोभयं चार्थः पञ्चम्या उत्कर्षापकर्षान्वव्यवधिमच्वं निरूपितत्वं प्रतिबोगित्वं च पूर्ववदर्थस्तथा च कैटभायंवधिकोकष्टपरमात्मात्तिः कैटभारित्ति: कैटभारिभिन्नत्तिः कोटावधिकापकृष्टनारकिकात्मावृत्ति: कौटवत्तिः कोटप्रतियोगिताकेतरात्मबत्तिश्च कृतकृत्यतेत्यन्वयबोध: हितीयोऽवधिस्तु पूर्ववदिहापि बोध्यः । एवमाशोटमाकैटभवैरितुल्यः खाभीष्टलाभारकृतकल्यभाव इत्याद्यव्ययीभावसमासेऽपि दर्शित एवान्वयबोधः पञ्चम्यर्थस्य तु संसर्गत्वं विशेषः । एवं कौटतदितराधेयत्वयोः कैटभारितदितराधेयत्वयोश्चाविशेषण प्रतीत्या कीटकैटभारिष्टत्तिकतकृत्यभावस्य नारकिकेतरीभूतपरमातोसरसकलात्मव्यापकत्वमर्थतः प्रतीयते । एवं मर्यादायामपि कृष्णनवमीप्रभृतितिथिवृत्तित्वस्य दशमोपूर्वकालत्तित्वत्वेन लाभात्पूजायां नवमीप्रभृतिषोडशतिथिव्यापकत्वमर्थतः, प्रतीयते बाधकविरहात् । पञ्चमौंविधानाथं प्रतेरविशेष कर्मप्रवचनौयतां ज्ञापयति । प्रतिः प्रतिनिधिप्रतिदानयोरिति सूर्य प्रतिनिधी
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पश्चमीविभक्तिविचारः ।
प्रतिदाने चायें प्रतिः कर्मप्रवचनीयसंत्तः स्यादित्यर्थकम् । कर्मप्रवचनीययोगे पञ्चम ज्ञापयति । प्रतिनिधिप्रतिदाने च यमादिति सूत्रं यस्मात्प्रतिनिधिः यतश्च प्रतिदानं तव कर्मप्रवचनीयप्रतियोगे पञ्चमी विभक्तिभवतीत्यर्थकम् । प्रतिनिधौ यथा अभिमन्युरर्जुनाव्यति प्रद्युम्नः कृष्णात्प्रतीत्यादौ अब प्रतिनिधौ वर्तमानस्य प्रतेर्भेदस्तत्कार्यकारित्वं चार्थः पञ्चम्या भेदान्वयिप्रतियोगित्वं कार्यान्वयिनिरूपितत्वं चार्थस्तथा चार्जुनप्रतियोगिताकभेदवानर्जुन निरूपित कार्यकृद्भिमन्युरिखादिरम्यबोधः । प्रतिदाने यथा माषानमै तिलेभ्यः प्रतियच्छतीत्यादौ पत्र प्रतिदाने वर्तमानस्य प्रतेः नटयात्वध्वंसजनकत्वमर्थः पञ्चम्यास्तु ऋगात्वान्वय्यादानजन्यत्वमर्थः ऋणत्वं तु स्वत्वभिव पदार्थान्तरं पापविशेषो वेत्यन्यदेतत् तथा चैतत्संप्रदानकं तिलादानजन्यर्गत्वध्वंसजनकं माषकर्मकदानं यत्तत्कर्तृत्वं वाक्यार्थ इति संप्रदायः । वस्तुतस्तु सदृश एवं प्रतिनिधिशब्दार्थः अत एव चन्द्रस्य प्रतिनिधिसुखमितिप्रयोगस्तथा च प्रतेरपि सदृश एवार्थः सादृश्यान्वथिप्रतियोगित्वं पञ्चम्यर्थः । यत्तु मुख्यस्य सदृशः प्रतिनिधिरिति काशिकायामुक्तं तत्र मुख्यतोक्त्या कार्यसदृशकार्यकार्य प्रतिनिधिरिति ज्ञाप्यते तव पञ्चम्याः प्रथमकार्यान्विजिन्यत्वमर्थः कार्यं तु कार्यतावच्छेदकत्वोपलचिततत्तद्दर्मविशिष्ट' बोध्यं यद्धर्मे विशिष्टे पञ्चम्यर्थान्वयस्तद्दर्मविशिष्ट एव सादृश्यान्वयः । अभिमन्युरज्जु नाव्यतीत्यादावनजन्ययुद्धसदृशयुद्धकर्ता अभिमन्युरित्यादिरन्वयबो
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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धः । यदि निपातार्थस्याभेदान्वयो न मन्यते तदा प्रतेः कार्यसदृशकार्यकारित्वमेवार्थ इति । एबश्वो रथात्प्रतौत्यादौ रथजन्यगमनसदृशगमन कतव इत्यन्वयबोधः । प्रतिदानं द्वितीयदानं सदृशदानमिति यावत् माषानमै तिलेभ्यः प्रतियच्छतीत्यादौ पञ्चम्यर्थ हेतुत्वस्य माषदानेऽन्वयः माषाणां श्यामत्वादिना तिलसादृश्यात् । यत्तु काशिकायां प्रतिदानं दत्तस्य प्रतियातनमित्युक्तम् तत्र प्रतियातनं प्रतियत्नफलकं प्रतिप्रयोजनकं प्रत्युपकारमिति याव तृ तथा चैतत्संप्रदानक तिल हेतुक प्राषकर्मकप्रत्युपकारकदानकर्तृत्वं वाक्यार्थः । यत्तु ऋणापाकारणं प्रतिदानमिति तच्च सूवत्तिविरुद्धं तथा हि सूत्रे प्रतिदानग्रहणं न हि ऋणप्रयोग उद्दारो वा दानमिति वृचौ दत्तस्य प्रतियातनमित्युक्तं न हि ऋणं दत्तं भवतौति । एवं वलयौ मित्राय कुण्डलाभ्यां प्रतियच्छतीत्यादौ नलोऽश्वत्हृदयम्टतुपर्णायाच हृदयात्प्रतियच्छतीत्यादौ च दर्शितरीत्याऽन्वयो बोध्यः । सूत्रे वृत्तौ च यमादिति पञ्चमी हेतुत्वार्थिकै वान्यथाऽनुपपत्तेरिति । ऋणे हेतौ पञ्चमीं ज्ञापयति । अकर्तयणे पञ्चमौ इति सूत्रं कर्तृवर्जिते ऋणे हेतौ पञ्चमी विभक्तिर्भवतीत्यर्थकम् । शताद् बद्धः सहस्राइड इत्यादी पञ्चम्या हेतुत्वमर्थः ऋणात्मकशतहेतुकबन्धन कर्मेत्यन्वयबोधः तरि ऋणे हेतौ न पञ्चमौ किं तु तृतीयैव यथा शतेन बन्धित इत्यादौ श्रत्र प्रयोजकत्वाद्वणं कर्तृभूतमिति । गुणे हेतौ वैकल्पिक पञ्चमीं ज्ञापयति ।
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
विभाषा गुणेऽस्त्रियामिति सूत्रं गुणं हेतौ विभाषा पञ्चमो भवति न तु स्रोलिङ्गे इत्यर्थकम् । जाद्यान्नाडेन वा बद्ध इत्यादी पञ्चमौतृतीययोर्हेतुत्वमर्थो ज्याद्यहेतुकबन्धनकर्मेत्यन्वयबोधः । चत्र जाड्यं मोहो मिथ्याज्ञानमिति यावत् तस्य गुणत्वं स्फुटमेव गुण इत्युपादानात् धनेन कुलमित्यादौ न पञ्चमी गुणेऽपि स्त्रियां न पञ्चमी यथा बुद्ध्या मुक्त इत्यादौ यत्र सूत्रे विभाषोपदेशादृणे कर्तरि हेतौ पञ्चम्येव तृतीयाऽपवादश्च प्रतीयत इति । अत्र विभाषेति योगविभागादगो गुणेऽपि स्त्रियां च क्व चितौ पञ्चमौ यथा धूमादग्निमान् नास्ति घटो ऽनुपलब्धेरित्यादाविति शाब्दिकाः । तच्च न शोभनं तावताऽपि घटो दण्डाद्दाहो दहनादिपञ्चम्यनुपपत्तेः धूमादित्यादौ ज्ञापकत्व स्वरूपहेतुत्वस्य सूवादलाभात् ज्ञापकत्वे पञ्चम्यनुपपत्तेश्च । तमाग प्रधानेऽकर्तरीति यावत् ऋणस्य पूर्वसूत्रेणोपादानात् ऋणान्यस्मिन्नकर्तरि हेतौ विभाषा पञ्चमी' भवतौतिवार्थं इति अन एव प्रतिनिधिप्रतिदाने च यस्मादिति हेतुपञ्चमोनिर्देशोऽपि संगच्छते । एवं घटी दण्डादित्यादी पञ्चम्या जनकत्वमर्थः तच्च निरूपकतया घटादावपरपदार्थेऽन्वेति प्रकृत्यर्थस्याधेयतथा पञ्चम्यर्थजनकत्वेऽन्वयस्तथा च दण्डवृत्तिजनकतानिरूपको घट इत्यन्यबोध इति प्राञ्चः । एकदेशिनस्तु निरूपकत्वादिसंबन्धस्य वृत्त्यनियामकस्य प्रतियोगिताऽनवच्छेदकत्वात् दाहो दहनात् न तु जलादित्यादौ जनकत्वाभातत्सम्भवात् निरूपकत्वान्यसंबन्धावच्छिन्नप्रति
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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योगिताकस्य जनकत्वाभावस्य दाहे ऽपि सत्त्वात् दाहो न दहनादित्यादिप्रयोगापतेः जनकत्वं न पञ्चम्यर्थ: किं तु जन्यत्वं तस्य स्वरूपसंबन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकोऽभावो नञा प्रत्याय्यते जन्यत्वे प्रकृत्यर्थस्य निरूपि तत्वेनान्वयस्तथा च जलनिरूपितजन्यत्वाभाववान् दा
इत्यन्वयबोध इति वदन्ति तदव वृत्त्यनियामकसंअन्धस्य प्रतियोगिताऽवच्छेदकत्वे युक्तेर्द्वितीयाविवरणे दर्शितत्वात् न किञ्चिदेतत् प्रतियोगिवैशिष्टयबुधजनकस्य नृत्यनियामकस्य प्रतियोगिताऽनवच्छेदकत्वात् गगनादिसंयोगस्य वृत्त्यनियामकस्य प्रतियोगिव शिष्टाबु•डाजनकत्वादेव तथात्वमन्यथा घटो न पारिमाण्डल्यादिव्यत्व जन्यत्वाभावस्यापि नञा बोधयितुमशक्यत्वात् जन्यत्वस्यापि पञ्चभ्यथ त्वानुपपत्तेस्तस्माज्जनकत्व ज न्यत्व वा पञ्चम्यर्थ उभयथाऽपि वृत्त्यनियामक संबन्धस्य प्रतियोगिताऽवच्छेदकत्वमिति घटो न पारिमाण्डल्यादित्यव प्रकृत्यर्थस्य पञ्चम्यर्थे जनकत्वे आधेयतासंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताको जन्यत्व निरूपकता संबन्धानच्छिन्नप्रतियोगिताको भावो नञा प्रत्याय्यते गगर्न न पारिमाण्डल्यादित्यव गगनमन्धो न पश्यतौत्यदेव द्विधा न नञर्थस्य भानमिति तृतीयाविवरणे प्रागेवोक्तमिति यदि च वृत्त्यनियामकस्य प्रतियोगिताSवच्छेदकत्वे ब्रह्मशापो न पारिमाण्डल्या दित्यादिवाकामयोग्यं चाभ्युपेयते तदा भवतु जन्यत्वं पञ्चम्यर्थं इति ज्ञापकत्वमपि पञ्चम्यर्थ" स्तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वा-त्" "लुव्योगाप्रख्यानात्" इत्यादिनिर्देशात्पर्वतो वह्नि
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३९२
पञ्चमीविभक्तिविचारः। मान् धूमादित्यत्र पञ्चम्यर्थो जोपवीत्व निरूपक तया बनधादिपदार्थ न्वेति प्रकृत्यर्थस्याधेयतया ज्ञापकत्वेऽन्वयस्तथा च धूमटत्तिज्ञापकतानिरूपकवन्हिमान् पर्वत इत्यन्वयबोध: । मणिकुतस्तु प्रतितासमभिव्याहृतपञ्चम्यन्तधूमादिपदस्य ज्ञाने लक्षणा हेत्ववयवसमभिव्याहृतप्रतिज्ञाघटकमाध्यवाचिवन्द्यादिपदस्थापि ज्ञाने ज्ञायमान वन्ही वा लक्षणा पञ्चम्या जनकत्व जन्यत्व वा क्लप्तमेवार्थ: तच्च ज्ञाने लक्ष्ये लक्ष्यतावच्छेदकघटके वान्विति तथा च घमज्ञान हेतु कवगितामविषयः पर्वत इति धमज्ञानहेतुकत्तानविषयवह्निमान् पर्वत इति वाऽन्वयबोध इति वदन्ति । यत्तु प्रतिज्ञाघटकसाध्यवाचिपदस्य जाने लक्षणाऽभ्युपगमे प्रतिज्ञाया विप्रतिपत्तिसमानशब्दार्थकत्व प्रदर्शनपरस्यारत्तौ सैव प्रतिजेति वाक्यस्य विरोध: विप्रतिपत्तिवाक्ये साध्यवाचिपदस्य जाने लक्षणाविरहात् पर्वतो वह्निमानित्युक्त कुत इति जिज्ञासायां धूमादित्युत्तरवाक्येऽपि धूमपदस्य धमज्ञानेन लक्षणाप्रयोजनविरहात् कोशादित्तापितरूढिविरहाच्च तस्माज्ज्ञापकत्व पञ्चम्यर्थ स्तत एव प्रतिज्ञाहत्वोरकवाक्यतासम्भव: तवापि जलं स्पर्शवपात् न गन्धानापि शब्दादित्यादौ निरूपकत्वादिवृत्त्यनियामक संबन्धस्य प्रतियोगिताऽनवच्छेदकतया ज्ञापकत्वाभावस्य ना बोधयितुमशक्यत्वात् नञर्थान्वयानुरोधात् ज्ञाप्यत्व जानताप्यत्व वा पञ्चम्यर्थ इति नव्यैरुक्तं तच्च न शोभनं तथा हि विप्रतिपत्तिसमानार्थकत्वं प्रतिज्ञाथा हेत्ववयवासंवलिताया अक्षतमेव केवलप्रतिज्ञायाः
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
३९.३
साध्यवाचिपदस्य ज्ञाने लक्षणाविरहात् यदपि रूढिप्रयोजनान्यतराभावो लक्षणाबाधकइत्युक्त तत्र दर्शितनिर्देशाद्रढेरेव जागरुकत्वमन्यथा ज्ञापकत्वे पञ्चम्या अपि लक्षणाविरहप्रसङ्गात् । ननु साध्यहेतुपदयोर्ज्ञाने लक्षाणाऽभ्युपगमेऽपि जलं स्पर्शवत् रूपान्न गन्धादित्यादौ निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिस्तथा हि नञा न तावज्जले गन्धज्ञाप्यस्पर्शस्यात्यन्ताभावस्तद्ददन्योन्याभावो वा बोधयितुं
शक्यते जलपक्षकभ्भ्रमात्मकगन्धपरामर्थानुमेय स्पर्शस्य सत्त्वात् अत एव स्पर्शज्ञाने गन्धज्ञानजन्यत्वाभावोऽपि न बोधयितुं शक्ा इति न वा गन्धप्रमाऽनुमेय स्पर्शस्यात्यन्ताभावादिस्तथा पृथिबोपचकगन्धप्रमाऽनुमितिविधेयताऽवच्छेदक स्पर्शत्वावच्छिन्नस्य नले सत्त्वात् न च स्पर्शवावच्छिन्नस्य जले सत्त्वेऽपि गन्धप्रमाऽनुमेय स्पर्शव्यक्तेः पृथिवोटत्तेरत्यन्ताभावोऽविकल एवेति निषेधप्रतीत्युपपत्तिरिति वाच्यं तथाऽपि जलं द्रव्यत्ववत् स्पर्शान्न गस्वादित्यव गन्धप्रमाऽनुमेयद्रव्यत्वव्यक्तेर्जले सत्वान्निषेधप्रतीत्यनुपपत्तेः अत एव द्रव्यत्वज्ञाने गन्धप्रमाहेतुकवाभावो न तथा पृथिवोपचकद्रव्यत्वानुमितौ गन्धप्रमाहेतुकत्वस्य सत्वात् । न च कस्याश्चिद्रव्यत्वानुमितेर्ग. न्धमाहेतुकत्वेऽपि सर्वस्या न तथात्वमिति निषेधप्रतीत्युपपत्तिरिति वाच्यं तथासति पृथिवी द्रव्यत्ववती स्पर्शान्न गत्वादित्यादिप्रयोगप्रसङ्गात् स्पर्शलिङ्गकद्रव्यत्वानुमितेर्गन्धप्रमाहेतुकत्वाभावात् निषेधप्रतीत्या पत्तेरत एव द्रव्यत्वे गन्धज्ञानज्ञाप्यत्वाभावोऽपि न प्रतीयते बाधादिति चेत् । अत्र गुरुचरणाः गुरुमत प्रतिज्ञादिहेत्वन्तभागात्
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। इती पक्षसंबन्धोऽपि प्रतीयते पर एवोदाहरणान्त एव न्याय तथा च प्रकृते जलसंबन्धाभाव एव नजा प्रव्याय्यत इति मतान्तरे तु विशेष्यताहयासंवलितमेव प्रकारतानिरूपितविशष्यत्वं तत्प्रतियोगित्वेन लिङ्गविशिष्टं चमसामान्यभिन्नं ज्ञानं यत् तस्यैव लिङ्गपदलच्यत्वात् तादृशज्ञानस्य पञ्चम्यर्थहेतुतायां तस्याः प्रकृतपक्षकप्रकृतसाध्य कानुमितित्वावच्छिन्ननिरूपकतयासंसर्गेण साध्यपदलक्ष्यार्थे साध्यज्ञानेऽन्वय इति व्युत्पत्या जलं ट्रव्यत्ववत् स्पर्शान्न गन्यांदित्यन दर्शितविषयताकनमसामान्य भिन्नस्पर्शज्ञाननिष्ठ हेतुताया जलपक्षकद्रव्यत्वसाध्यकानुमितित्वावच्छिन्ननिरूपकतासंसर्ग: ट्रव्यत्वज्ञाने भासते तत्संर्गावच्छिन्न प्रतियोगिताको दथितविषयताकझमसामान्यभिन्नगन्धज्ञाननिष्ठ हेतुत्वस्याभावोऽपि प्रतीयत इति विशेष्यताइयासंवलननिवेशाजलं द्रव्यत्वात्स्पर्शात्पृथिवी द्रव्यत्ववती गन्धादित्यादिन्यायजसमूहालम्बनपरामर्शजन्यत्वस्य जलपक्षकद्रब्यत्वानुमितौ सवापि न प्रकृतवाक्यार्थबाधः समूहालम्बनविषयताया विशेष्यताइयसंवलनादिति प्राहुः । वस्तुतस्तु साध्यवाचिवन्द्यादिपदस्य ज्ञान विधेयवन्द्यादौ लक्षणाज्ञानविधेयवन्हेस्तु खनिष्ठविधेयतानिरूपितोहीश्यतया खविधेयकक्षानीययाऽपि संबन्धेन पक्षे पर्वतादावन्वयः अत एव पर्वते एकत्र हयमिति रोत्या वन्हिगुणयोः सोध्यतायां पर्वतो वन्हिमान् गुणवान् धमाद द्रव्यत्वादितिन्यायजस्य वह्निव्याप्यधूमवान् गुणवप्राध्य द्रवात्त्ववान् पर्वत इत्याकारकस्य एकल इयमिति
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विनिर्णये ।
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रौत्या धूमद्रव्यत्वोभयप्रकारकैक विशेष्यता कस्य परामर्शस्य जन्यत्वेऽपि पर्वतौ वह्निमान् गुणवान इत्याकारकानुमितेः पर्वतो वह्निमान् धूमान्न द्रव्यत्वादित्यादौ न निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिः वन्हिविधेयता के ज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति द्रव्यत्वप्रमाया अजनकत्वात् वह्निविधेयता विशेषणत्ज्ञाने द्रव्यत्वप्रमाहतुकत्वाभावप्रतीतिसम्भवात् । एवं जलं द्रव्यत्ववस्पर्शान् गन्धादित्यादौ स्पर्शप्रमाया द्रव्यत्व विधेयताकज्ञानं प्रति जनकत्वात् द्रव्यत्वविधेयक ज्ञानोद्देश्यताया जले सत्त्वात् स्पर्शप्रमाजन्यज्ञानविधेयस्य द्रव्यत्वदर्शितोह श्यतया जलेऽन्वयः सम्भवति गन्धप्रमाया टूव्यत्वविधेयताकज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति जनकत्वेऽपि गन्धप्रमाजन्येज्ञानोद्देश्यताया जले विरहात् पचनिछोद्देश्यताकज्ञानं प्रति पक्षसंबन्धविषकलिङ्गविषयकज्ञानस्य हेतुत्वात् गन्धप्रमाया जलसंबन्धाविषयकत्वात् गन्धप्रमाजन्यज्ञाने जलोद्देश्यताकत्वविरहाद् दर्शितोद्देश्यता संसर्गेण गन्धप्रमाजन्यज्ञान विधेयत्वापन्नस्य द्रव्यत्वस्य जले वैशिष्ट्यविरहान्नान्वयः दर्शितोद्देश्यतासंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिता कस्य गन्धप्रमाजन्यज्ञानविधेयद्रव्यत्वाभावस्य नञा बोधनसम्भवान्निषेधप्रतीत्युपपत्तिः । नतु दर्शिते पर्वतो वह्निमान् गुण
माद् द्रव्यत्वादित्यादौ वह्निविधेयताक ज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति द्रव्यत्वप्रमाया अजनकत्वेऽपि वहिगोभयसमूहालम्बनजनकत्वस्याचतत्वात् द्रव्यत्वान्न हिमानित्यादौ कथं वह्निज्ञाने द्रव्यत्वप्रमाहेतुक
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पञ्चमीविभक्तिविचारः। स्वाभावस्य नञा बोधनसम्भव इति चेन्मैवं यतो म. माजन्यत्वविशिष्टविषयितासंसर्गेण लिङ्गविशिष्टज्ञानस्य लिङ्गपदलक्ष्यस्यार्थतो लिङ्गविषयकज्ञानत्वावच्छिन्नस्य ज्ञानविधेयताविशेषेण ज्ञानेऽन्वय इति द्रव्यत्वप्रमानिठहेतुताया निरूपितवहिविधेयताकज्ञानत्वावच्छिन्नजन्यत्त्वस्य व्यधिकरणसंबन्धतया तत्संबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावो वहिगुणोभयानुमितो वहिवि. धेयकत्वावच्छेदेन ना बोध्यते बाधकाभावात् । वस्तुतस्तु पञ्चम्या जन्यत्वमर्थोऽस्तु लिङ्गप्रमाया लिङ्गविषयकज्ञानत्वावच्छिन्ननिरूपितत्वेन संबन्धे नान्वयस्तादृशजन्यत्वस्य स्वरूपेण लक्ष्ये साध्यजानेस्वयो व्य त्यत्तिवैचित्र्येण विधयितासंबन्धावच्छिन्नजन्यतावच्छेदकतया साध्येऽन्वेतौति ज्ञानविधे यसाध्यस्य लक्ष्यत्वे तु तादृशजन्यत्वस्य स्वरूपेण ज्ञानेऽवच्छेदकतया साध्ये तदिधेयतायां वाऽन्वय इति द्रव्यत्वप्रमाजन्य त्वावच्छेदकतासंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽत्यन्ताभावो ना साध्ये तविध यतायां वा बोध्यत इति दर्शितोद्देश्यतासंबन्धः साध्यज्ञानस्य ज्ञानविधे यसाध्यस्य च तुल्य इति तदन्वय जहनीय इति दर्शितसंसर्गेण लिङ्गप्रमानिष्ठहेतुतायाः साध्यविध यताविशेषणज्ञानेन्वयोपगमे तु ध - मादग्निमानित्यादिपक्षवाचकपदासमभिव्याहृतवाक्येऽपि नान्वयबोधानुपपत्तिः न वा गन्धाच्छब्दाहा न स्नेहवानित्यादिपक्षासमभिव्याहृतवाक्ये निषेधप्रतीत्यनुपपत्तिः । अथ वा साध्वपदस्य साध्यज्ञाने लक्षणा तत्र लिप्रमानिष्ठहेतुताया दर्शितसंसर्गेणैवान्वयः साध्यज्ञानस्य
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विभक्त्यर्थनिर्णये। साध्यतावच्छेदकावच्छिन्नविधेयतानिरूपितोहेश्यतया तादृशोद्देश्यताखरूपसंबन्धवतो मत्वर्थस्य तादात्म्येन वा पक्षतावच्छेदकविशिष्टे पक्षेऽन्वयः पर्वतो वनिहमान् धूमादितिहेत्त्वन्तवाक्ये धूमप्रमाहेतुताकवन्हिज्ञानीयवन्हित्त्वावच्छिन्नविधेयतानिरूपितोद्देश्यतावदभिन्नः पवंत इत्यन्वयबोधः । जलं ट्रव्यत्त्ववत् न गन्धादित्यत्व गनधप्रमाहेतुकं यहटो द्रव्यत्ववानित्यादिद्रव्यत्वज्ञानं तदीयद्रव्यत्वनिष्ठविधेयतानिरूपितोह श्यतायां जले विरहात् तादृशोद्दे श्यत्वस्यात्यन्ताभावस्तबदन्योन्याभावो वा जले ना बोध्यत इति निषेधप्रतीत्युपपत्ति: न च द्रव्यत्वव्याप्यगन्धवान् घटः द्रव्यत्त्वव्याप्यस्पर्शवज्जलमिति समूहालम्बनगन्धप्रमात्मकपरामर्शजन्यानुमित्युद्देश्यताया जले सत्त्वात् कथं तादृशोद्देश्यत्ववदन्योन्याभावस्य प्रतीतिरिति वाच्यं मुख्यविशेष्यताहयाप्रतियोगित्वेन लिङ्गप्रमाया विशेषणीयत्वात्तथा च मुख्यविशेष्यताहयाप्रतियोगिनी घटो द्रव्यत्वव्याष्यगन्धवानित्याकारिकैकमावविशेष्यिका या गन्धप्रमा तज्जन्यानुमित्युद्देश्यताया जले विरहानिषेधप्रतीत्युपपत्तेः मुख्यविशेष्यताइयप्रतियोगिदर्शितसमूहालम्बनस्वरूपगन्धप्रमाजन्यानुमित्युद्द श्यताया जले सत्त्वेऽप्यकिञ्चित्करत्वादिति प्राचीनपथपरिष्कारः सत्यनियामकसंवन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वे ब्रह्मशापं मन्वानानां नबानां मते पर्वतो वन्हिमान् धूमान्न तु द्रव्यत्वादिल्यादौ वह्निज्ञाने द्रव्यत्वप्रमाहेतुत्वस्याभावो नञा न बोधयितुं शक्यते दर्शितसंसर्गस्य वृत्त्य नियामकतया तद
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
बच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाप्रसिद्धः स्वरूपादिसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिता काभावस्य द्रव्यत्वप्रमाजन्ये गुणादिज्ञानेऽपि सत्त्वादिति पञ्चम्या ज्ञानज्ञाप्यत्वमर्थस्तदेकदेशे ज्ञाने प्रातिपदिकार्थो विषयित्वेनाग्वेति कर्तृकृदर्थंकदेशे कृतौ धात्वर्थवदाकाङ्गावैचित्यात् विषयित्वं भ्रमसामान्यभिन्नत्वविशिष्टमन्वयघटकं बोध्यं तथा च द्रव्यत्वप्रमाजन्यज्ञानविषयत्वस्य गुणादौ प्रसिद्धस्य खरूपसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताको भावो वह्नौ नञा बोध्यत इति निषेधप्रतीत्युपपत्तिः नलं द्रव्यत्ववत् स्पर्शान्न तु गन्धादित्यादौ गन्धप्रमाजन्यज्ञानविषयत्वस्याभावो द्रव्यत्वे जलावच्छेदेन नञा प्रत्याय्यते इति निषेधप्रतीतेन्ननुपपत्तिः धूमादग्निमानित्यादौ पक्षपदासमभिव्याहृतवाक्येऽपि नान्वयबोधानुपपत्तिः धूमप्रमाजन्यज्ञानविषय बन्हिमा नित्याकारकान्वयबोधस्य निष्प्रत्यूहत्वादिति । नव्यमते पुनरिदं चिन्त्यं तथा हि ज्ञानज्ञाप्यत्वस्य पञ्चम्यर्थताऽभ्युपगमे गन्धाद् द्रव्यत्त्ववानित्यादौ नान्वयबोधः स्याज्जलावच्छेदेन द्रव्यत्वे गन्धप्रमाजन्यज्ञानविषत्वाभावस्य सत्त्वात् न च पृथिव्यवच्छेदेन द्रव्यत्वे गन्धप्रमाज्ञाप्यत्वस्य सत्त्वादन्वयबोधोपपत्तिरिति वाच्यं तथासति जलावच्छेदेन तदभावस्य सवात् गन्धान्न द्रव्यत्ववदिति वाक्यप्रयोगप्रसङ्गात द्रव्यत्वं गन्धान्नगन्धाच्चेति प्रयोगप्रसङ्गाच्च न च जलं द्रव्यत्ववत् गन्धादित्यव गन्धप्रमाचाप्यद्रव्यत्वस्यात्यन्ताभावस्तद्ददन्योन्याभावो वा नञा जले प्रत्याय्यत इति वाच्यं घटो द्रवात्ववान् गन्धाज्जलं द्रवग्रत्ववत् न ग
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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न्वादित्यच गन्धप्रमाज्ञाप्यत्वविशिष्टस्य द्रव्यत्वस्य घट इव जलेऽपि सत्त्वात् निषेधप्रतीत्यनुपपत्तेः यदि च गनवप्रमाज्ञाप्यद्रवात्वस्य खज्ञानीयस्वनिष्ठ विधेयतानिरूपितोद्देश्यतया घटादावन्वयः तादृशोद्देश्यतासंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽत्यन्ताभावस्तादृशोदेश्यत्वावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकता कस्तद्ददन्योन्याभावो वा जले नया प्रत्याय्यत इत्यभ्युपेयते तदा हनियामक संबन्धस्य तादृशोद्देश्यत्वस्यात्यन्ताभाबीयप्रतियोगिताया अवच्छेदकत्वं भेदप्रतियोगिताऽवच्छेदकतायाश्चावच्छेदकत्वं स्वयमेवाभ्य ुपेतमिति साध्यपदस्य साध्यज्ञाने लक्षणाया युक्तत्वात् साध्यज्ञानस्य तादृशोद्देश्यत्वसंसर्गेण पचेऽभ्वयस्य समुचितत्वादित्यस्योक्तत्वादिति प्राचीनमतमेत्र श्रेयः पञ्चम्या ज्ञानज्ञाध्यत्वे लक्षणाकल्पनं वृथैवेति । पृथगादिशब्दयोगे प
म ज्ञापयति पृथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम् इति सूत्रम् पृथग्विनानानाइत्येतैः शब्दैर्योगे तृतीयाविभक्तिर्भवति अन्यतरस्यां पञ्चमौत्यर्थकम् अन्यतरस्यामित्यनेन द्वितीयाऽपि समुच्चीयते पृथग्विनानानाशव्दानां वर्जनमत्यन्ताभावस्तद्दानन्योन्याभावस्तहांश्चार्थः न च पृथगादिशब्दानां पर्य्यायत्वे सूत्रे विनाऽर्थैरित्येव प्रयु ज्येतेतिवाच्य' हिरुग् देवदत्तस्येत्यच विनापर्यायस्य हिरुक्शब्दस्य योगे तृतीयाऽऽदिपसङ्गात्तद्दारणाय पृथगादिशब्दग्रहणात् हिरुक्शब्दस्यापि वर्जनमर्थः हिरुङनाना च वर्जने इत्यमरसिंहात् । वन्हिना वन्हहिं वा विना जलमित्यचात्यन्ताभावो विनाऽर्थः सविशेषण
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पञ्चमीविभक्तिविचारः । तया जलादावन्वेति तौयापञ्चमौहितीयानां पतियोगित्वमर्थस्तत्र पकत्यर्थस्य स्वत्तिप्रकृत्यर्थतावच्छेद काद्यन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नत्वेन संसर्गेणान्वयस्तथा च वहित्वावच्छिन्नवहिपतियोगिताकात्यन्ताभाववज्जलमित्यन्वयबोधः प्रकृत्यर्थतावच्छेदकाद: संसर्गमध्ये निवेशात् पर्वतीयवन्हे विरहेपि वहि विनो महानसमिति न पुयोगः न वा पर्वतीयं बहि विना महानसमिति पयो गानुपपत्तिः क चिहिनाऽर्थात्यन्ताभावस्य वाप्यवाापकभावेन संबन्धेनान्वयः यथा वहिना बन्हेवहि वा विना न धूम इत्यादी क चित्पुयोज्यपयोजकभावसंवन्धेनान्वयः यथा दगडाद् दण्डेन दण्डं वा विना न घट इत्यादौ पृथगादियोगे यथा वहिना वनहेहि वा पृथक् वहिना वह हिं वा नाना जलमित्यादौ पृथक्शब्दस्य स्वरूपेण विवक्षणात् पृथक्त्त्वगुणविशिष्टवाचिपृथक्शब्दयोगेऽप्येतो विभक्तयः घटेन घटात् घटं वा पृथक् पट इत्यादौ अत्र दृतीयादीनोमवधिमत्त्वमर्थः पृथक्पदार्थतावच्छेद के पृथक्त्वेऽन्येति अवधिमत्त्वं स्वरूपसंबन्धविशेषोऽतिरिक्तपदार्थो वेत्यन्यदेतत् विनाऽर्थोऽत्यन्ताभाववान् यथा रूपेण रूपात् रूपं वा विना स्पर्श इत्यादौ अनात्यन्ताभाववत आधेयतया स्पर्शइन्वयः विनार्थोऽन्योभावो यथा अन्जु नेनार्जुनादजुनं वा विना पाण्डवाः सैन्धवेन वारिता इत्यादी अनान्योन्याभावो विशेषण तया पाण्डवेष्वन्धति विनार्थोऽन्योन्याभाववान् यथा पाण्डवैः पाण्ड वभ्यः पागडवान्वा विना पोतिर्दुर्योधनस्येत्यादी अवान्यो
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।.
न्याभावत आधेयतया प्रौतावन्त्रयः । दूरान्तिकार्थकशब्दयोगे पञ्चमीं ज्ञापयति । "दूरान्तिकार्थैः षट्यन्यतरस्यामि” ति मूत्रम् । दूरान्तिकार्थकैः शब्दैर्योगे षष्ठ भवत्यन्यतरस्यां पञ्चमो भवतीत्यर्थकं ग्रामस्य ग्रामाद्दा दूरं विप्रकृष्टं वा इत्यव दूरादिशब्दस्य दैशिकपरत्वविशिष्ट : तादृशपरत्वव्यञ्जक बहुत र संयोग घटितपरम्पराश्रयो वाऽर्थः षष्ठीपञ्चम्योरवधित्वमर्थः परत्वे बहुतरसंयोगे वाऽन्वेति तथा च ग्रामावधिकपरत्ववानित्यन्वबोधः । ग्रामस्य ग्रामादाऽन्तिकं सविधं वा इत्यत्रान्तिकशब्दस्य देशिका परत्वविशिष्टस्तादृशापरत्वव्यञ्जकखल्पतरसंयोग घटित परम्पराश्रयो वाऽर्थः ग्रामावधिकापरत्ववानित्यादिरन्वयबोधः । दूरान्तिकशब्देभ्यो वैक•ल्पिक पञ्चम ज्ञापयति । " दूरान्तिकार्थेभ्यो द्वितीया चे" ति सूत्रं दूरान्तिकार्थक शब्देभ्यो द्वितीया भवति चिकारा तृतीया पञ्चमौ च समुच्चीयत इत्यर्थकं ग्रामस्य ग्रामादा श्रन्तिकमन्ति के नान्तिकाद्दा संविधं सविधेन सविधादा इत्यादौ दर्शित: एवान्वयबोधः दूरान्तिकशब्देभ्यः सप्तम्यपि भवति तवानुशासनं दर्शयिष्यते तेन ग्रामस्य ग्रामादा दूरे विप्रकृष्टे वा सविधे अन्ति के वा इति प्रयोगः श्रव दूरान्तिकार्थक शब्द प्रकृतिकानां द्वितीयतृतीयापञ्चमौसप्तमीनां प्रातिपदिकामाचे विधानमिति शाब्दिकाः । " दूरेगा तं परिहरन्ति सदैव रोगा" इत्यव ट्ररादावसथान्मृतमित्यत्र च तृतीयापञ्चम्योरधिकरणार्थकत्वं दृश्यते तस्मादिदमवगम्यते यत्र दूरादिपदार्थानामितरस्मिन् विशेषणतयाऽन्वयस्त
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આ પુસ્તક શ્રી જૈન મુની
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
प्रातिपदिकार्थमात्रे द्वितीयादयो विभक्तय इति । अवाप्य मच्त्ववचनस्येत्यनुवर्तते तेन शब्दान्तर समानाधिकरणादूरादिशब्दाद्दिशेषण विभक्तिर्भवति यथा दरः पन्था दूराय पथे स्पृहयति । वैधर्म्यार्थियोगे पञ्चम ज्ञापयति । “पञ्चमी विभक्ते" इति सूत्रम् । निर्धारणाश्रये विभक्ते सति यतो विभागस्ततः पञ्चमो भवतीत्यर्थं कं षष्ठी सप्तम्योरपवादः विभागो वैधर्म्यं तच्च सजातीयावधिकोत्कर्षापकर्षस्वरूपं निर्धारणं तु सामान्यधर्मावलौढयत्किञ्चिद्व्यक्तिवैधर्म्यं विभागस्त्वन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नवैश्वर्यमिति विशेषः पाटलिपुत्रेभ्य आन्यतरा माथुरा दूत्यचान्यतरत्वमधिक संख्यकधनववं पञ्चम्यास्त भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वमर्थस्तच्चापरशब्दार्थतावच्छेद के ऽन्वयितावच्छेदकेऽन्वेति भेदे च प्रकृत्यर्थस्य धनावच्छिन्नाधिकरणतानिरूपिता धेयतयाऽन्यस्तथा च धनवत्पाटलिपुत्रवृत्तिभेद प्रतियोगितावच्छ्रे काढ्यतरत्वदभिन्ना माथुरा इत्यन्त्रयबोधः यादृशधर्मेऽन्वयिता'वच्छेदके भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्यान्त्रयस्तत्सजाती
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यधर्मावच्छिन्नाधिकरणतानिरूपिताधेयतया प्रकृत्यर्थस्य भेदेऽन्वयो विवक्षितः माजात्यं चान्वयितावच्छेदकघटकतावच्छेदकरूपेण बोध्यं प्रकृते तु तादृशं रूपं धनवत्वमेव अतो वृक्षेभ्यो दरिद्रेभ्यो वा आठ्यतरा माथुरा इति न प्रयोगः । यत्तु "वैश्येभ्यः क्षत्रियाः शूराः शूद्रेभ्यो धनिनो विश" इत्यादौ शौर्य संख्यानिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदक जातिमत्संख्यावत्रं धनसंख्या निष्ठ भेदप्रतियोगितावच्छेदजातिमत्संख्यावत्वं च पञ्चम्यर्थः शूरपदा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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र्थतावच्छेदके शौर्ये धनिशब्दार्थतावच्छेदके घने यथायोग्य मन्वेति पञ्चम्यर्थैकदेशे शौर्ये धने प्रकृत्यर्थस्यान्वयस्तथा च वैश्यशौर्य संख्यानिष्ठ भेदप्रतियोगितावच्छेदकजातिमत् संख्यावच्छौर्यवदभिन्नाः क्षत्रिया इत्यादिरन्वयबोध इति तन्न शोभनं शौर्यधनादः पञ्चम्यर्थे ऽनुप्रवेशे पञ्चम्यर्थस्याननुगमापत्तेः यचैकैकमेव धनमुत्कृष्टशपकृष्टं तत्रास्मादमौ धनिक इत्यादिप्रयोगानुपपत्तेश धनिकत्त्वमतिशयितधनवत्त्वमतिशयो बहुमूल्यता च उभयथाऽप्यतिशयितधनवत्त्वं धनिनिष्ठभेदप्रतियोगितावछेदकमिति दर्शितपक्षे न काऽप्यनुपपत्तिरिति । असावस्माद्दौर्घ इत्यव दीर्घत्वं परिमाणविशेषः तस्य खपरिमाण व दिपदार्थनिष्ठ भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वमचतमेव एवमस्मान्व इत्यत्र हस्वत्व परिमाणविशेषस्तस्यापि दीर्घावधिकत्वं दर्शितप्रायमिति । अयमस्मात्तारो मन्द्रो वेत्यत्र सजातीयमाक्षात्कारस्य प्रतिबन्धकतावच्छेदकजातिमत्त्वं तारत्वं प्रतिबध्यतावच्छेदकजातिमत्त्वं मन्द्रत्वमित्यन्यत्र विस्तरस्तारत्वं मन्द्रनिष्ठस्य मन्द्रत्वं तारनिष्ठस्य प्रतियागितावच्छेदकमिति नानुपपत्तिः श्वपाकाद्यवनो नौच इत्यव नौचत्वं वेदनिषिध्यतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मविशिष्टकसंकट त्वं तादृशधर्मविशिष्टम्य गोहनना देरतिशयितनरकप्रयोजकस्य कर्तृत्वं यवननिष्ठं तादृशधर्मविशिष्टश्वपचादिनरकप्रयोजक कर्मकर्तृ श्वपाकटत्त्यन्योन्याभा वप्रतियोगितावच्छेदकमिति नीचपर्याय इतर शब्दोऽधमशब्दश्चेति । तस्मादयमधिक इत्यवाधिकत्वमधिकसंख्यात्वं न्यून संख्यक तद्दृत्तिभेद प्रतियोगितावच्छेदकमि
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पञ्चमीविभक्तिविचारः ।
ति संख्याया आधिक्यं खान्यसंख्या व्याप्यत्वं न्यूनत्वं तु स्वान्यसंख्या व्यापकत्वं दशत्वव्याप्यं शतत्वं न तु द्वशत्वं तद्याप्यं दशमाचे व्यभिचारादिति शतत्वमधिकं शतत्वव्यापकं दशत्वमिति तन्न्यूनमिति अधिकसंख्या क चिदवयवगता यथा गुञ्जाया अधिको यवः क्व चिन्मूल्यगता यथा रजतादधिकं हिरण्यं क्व चित्पुण्यगता यथा पितुरधिको युधिष्ठिरः कचिद्दिद्यागता यथा वैशम्पायनादधिको व्यासः क चिह्नणगता यथा तेनसोऽधिके चितिपाथसौ एवमन्यत्राप्यूहनीयम् । तस्मात्स्थूलः art area दीर्घत्ववत्त्ववदन्वयो बोध्यः एवमन्यत्रापि विभक्तपञ्चम्यर्थान्वयो बोध्यः । केचित्तु तस्मादयं दीर्घ इत्यादौ पञ्चम्यर्थस्यावधिमत्त्वस्यापादानरूपस्य दीर्घादिनामार्थेऽन्वयाव्युत्पत्तेः भवतीतिक्रियाध्याहार इति वदमि । तदसत् कारकेऽपादानत्वस्वरूपस्य दर्शितत्वात् विभक्तपञ्चम्याः तदर्थकत्वविरहात् भवतोत्यध्याहारेऽपि भवत्यर्थयोरुत्पत्तिमत्तयोर्निरवधित्वेनानन्वयापतेश्च । किं दावधित्वमपि नैकं यतः विभागनिरूपोऽवधिनं परत्वष्टथक्वा दिनिरूपक इत्यास्तां विस्तरः । काशिकावृत्तौ निर्धारणाश्रये यस्मिन् विभक्तमस्ति ततः पञ्चमो भवतौति व्याख्यातं तदनुरोधेन प्रकृतेऽपि तथा व्याख्यातं निर्धारणं तु विशेषेण वक्ष्यते । यदि च नागरिकेषु पा'टलिपुत्रेभ्य श्राव्यतरा माथुरा इति नरेषु चत्रिया वैश्येयः शूरा इति च प्रयोगस्तदा वृत्तौ निर्धारणाश्रय इत्युपादानं युक्तमेवेति ।
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इत्यकारक पञ्चग्यर्थनिर्णयः ।
इति विभक्त्यर्थनिर्णये पञ्चमौविवरणं समाप्तम् ।
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विभक्तार्थनिर्णये । ॥ अथ षष्ठी ॥
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ङस्योस्यामिति वयः प्रत्ययाप्तत्र ङकारोऽनुबन्धः क्व चिदप्यश्रूयमाणत्वान्न वाचकताकुचिप्रविष्ट इति सुमनसः सौकुमार्यं सुमनसोः सौरभ्यं सुमनसां मार्दवमित्यादौ श्रूयमाणत्वादसस्तश्वेन ओस ओस्त्वेन आम आन्त्वेन वाचकत्वमनुशासन सिहः षट्यर्थः । अनुशासनं च " षष्ठो शेषे" इति उक्तेभ्यः कर्मादिभ्यः प्रातिपदिकार्थादिभ्यश्च भिन्नः शेषः । काशिकाकृतस्तु यच्चाप्रधानं तच्छेषशब्देनोच्यते तदुभयत्र पर्यायेण वा षष्ठौ भवतीत्याहुः । तत्र शेषस्तावह्निन्नत्वेन अप्रधानमपि तवेन न षष्ठोवाच्यं किं तु शेषत्वेन शेषत्वं सम्बन्धत्वं सप्रतियोगिकत्वे सति सानुयोगिकत्वं प्रतियोगित्वानुयोगित्वनिरूपकतावच्छेदकधर्मवैशिष्ट्यमिति यावत् एकशतं षष्टार्था इति महाभाष्यपरिगणितमपि न प्रवत्तिनिमित्तानामनेकविधत्वं ज्ञापयति किं तु शेव्यक्तीनां सम्भवति शक्त्यैको अनन्तशक्तिकल्पनाया - न्याय्यत्वात् दर्शितधर्मवान् शेषः संयोगसमवायखत्वकर्तृत्वादिकारकविषयत्वादिभेदादनेकविधः हिमानां गिरिः गजस्यालानं वलिकाया स्तम्भ इत्यादौ षष्ठार्थः संयोगस्तत्र प्रकृत्यर्थस्य प्रतियोगितयाऽन्वयः पुरुषस्य दण्डः कर्णस्यावतंसः हृदयस्य हार इत्यादौ षष्ठार्थसंयोगे प्रकृत्यर्थस्यानुयोगिताऽन्वयः । हिमप्रतियोगिक संयोगवान् गिरिरित्यादिरन्त्रयबोधः । पुरुषानुयोगिक संयोगवान् दण्ड इत्यादिरन्वयदोधः । वृक्षस्य शाखेत्यादौ समवायः षष्टार्थस्तव प्रकृत्यर्थस्य प्रतियोगितयाऽन्वयः ।
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४०६
षष्ठीविभक्तिविचारः ।
वक्षप्रतियोगि कसमवायवती शाखेत्यन्त्रयबोधः । पटस्य नीलिमेत्यादौ समवेतत्वं षष्टार्थस्तव प्रकृत्यर्थं स्य निरूपितत्वेनान्वयः पटनिरूपितसमवेतत्ववान्नौलिमेत्यन्वयबोधः । राज्ञः पुरुष इत्यादौ स्वत्वं षष्टार्थस्तव निरूपितत्वेनान्वयः राजनिरूपितवत्ववान् पुरुष इत्यन्ययबोधः । पुरुषाणां राजा चित्राणां गवामयं नक्षत्राणां शशीत्यादौ स्वामित्वं षष्ठार्थस्तव निरूपितत्वेन प्रशत्यस्यान्वयः पुरुषनिरूपितस्वामित्ववावाजेत्यादिरन्वयबोधः सतां गतमित्यादौ कर्तृत्वं षष्ठार्थस्तवाधेयतथा प्रकृत्यर्थस्यान्वयः । श्रोदनस्य पक्तेत्यत्र कर्मत्वं षप्रर्थस्तव निरूपितत्वेन प्रकृत्यर्थस्थान्वयः फलानां तृप्तः पयमामभिषेक इत्यादौ करणत्वं व्यापारः षष्ठार्थस्तव प्रयोज्यतया प्रकृत्यर्थस्यान्वयः ब्राह्मणस्य दानमित्यादौ संप्रदानत्वं स्वत्वोद्देश्यताया अवच्छेदकत्वस्वरूपं षडार्थस्तवाधेयतया प्रकृत्यर्यस्थान्वयः कान्तस्य वस्यतात्यादौ दर्शितभयहेतुत्वस्वरूपमपादानत्वं षष्ठयर्थस्तवाधेयतया निरूपकतया वा प्रकृत्यर्थस्यान्वयः । पाकस्य गृहमित्यादावधिकरणत्वं पीठस्योपवेशनमित्याद बा'वेयत्वस्वरूपमधिकरणत्वं षष्टार्थस्तत्र निरूपकतया प्रकृत्यर्थस्थान्वयः शास्त्रस्य ज्ञातेत्यादौ विषयत्वं षष्टार्थः वमस्य रजतमित्यादौ विषयत्वं षष्टार्थस्तव निरुपकतया प्रकृत्यर्थस्यान्त्रयः अस्य पिता अस्य पुत्र इत्यादो जनकत्वं जन्यत्वं षष्टार्थस्तत्व प्रकृत्यर्थस्य निरूपकतयाऽन्वयः यदि च पितृत्वादिकं जनकत्वादिघटितं तदा निउत्वं षष्टार्थस्तच प्रकृत्यर्थस्य प्रतियोगितयाऽन्वयः । ए
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विभक्त्यर्थनिर्णये । वमन्याडशो पि शेषो बोध्यः । करणेऽर्थे षष्ठौं ज्ञापयति । "जोऽविदर्थस्य करणे" इति सूत्रम् । जानातेर विदर्थस्य करण कारके षष्ठी विभतिभवतीत्यर्थकम् । अविदत्तानभिन्नमथ वाऽज्ञानं मोहो मिथ्य ज्ञानमिति यावत् ज्ञानभिन्न प्रवृत्तिरूपोऽर्थो बोध्यः । तथा हि काशिका प्रवत्तिवचनो जानातिरविदर्थो भवति अथ वा मिथ्याज्ञानवचन इति मर्पिषो जानीत इत्यत्र षष्टयाः स्वजन्यं स्वविषयक प्रत्यक्षं व्यापारः करण त्वमर्थः प्रयोज्यतया प्रवृत्तिरूप धात्वर्थे वेति । मिथ्याज्ञानरूपे धात्वर्थे तु षष्टया लयो व्यापारीऽर्थः लयस्तु तथाविधं धागाऽपन्नं प्रत्यक्षं तज्जन्यदृढसंस्कारजन्यं स्मरणं वा तथा च सपिःप्रत्यक्षप्रयोज्यप्रवत्त्याश्रयवं वाक्यार्थः । अथ वा सर्पिल य प्रयोज्यं सर्पिस्तादात्म्यावगाहिसकलवस्तुविषयकं यन्मिथ्याजानं तदाश्रयत्वं वाक्यार्थ: । यो यहिषयकल यं वान्म तन्मयं जगत्पश्यतोति । एवं मधुनो जानौत इत्यादावयनया रौत्यान्वयो बोध्यः । अधौगादिकर्मणि षठौं ज्ञापयति । "अधौगर्गदयेशां कर्मणि" इति मूत्रम् । अधिपूर्वकस्यग्धातोः स्मरणमर्थस्तदर्थी ये धातवस्तेषां दयधातोरौशधातोश्च कर्मणि षष्ठी विभतिर्भवतीत्यर्थकं मातुरध्येति स्मरति चिन्तयति वेत्यादौ षष्ट्या आधेयत्वखरूपं कर्मत्वमर्थः फले विषयवेवति । माटवत्तिविषयताप्रतियोगिस्मरणाश्रयत्वं वाक्यार्थ: । दय दानगतिरक्षणेषु इति दयते स्त्रयोऽर्थाः तेषां कर्मणि षष्ठी तत्र दाने यथा सर्पिषो मधुनो वा दयते दूत्यत्र सर्पिष्कर्मक मधुकर्मकं वा यहानं तदाश्रय
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षष्ठीविभक्तिविचारः । त्वं वाक्यार्थः । गतौ यथा तीर्थस्य दयते इत्यत्र तीर्थकमंकगमनाश्रयत्वं वाक्यार्थः । रक्षणे यथा दौनस्य दयते इत्यत्र दौनकर्मकरक्षणाश्रयत्वं वाक्यार्थः । ईश ऐश्वर्य इतौशधातोरैश्वर्यमर्थस्तच्च स्वत्वफलनिरूपकं स्वामित्वमैश्वर्यकर्मणि षष्ठो यथा सर्पिष ईष्ट इत्यत्र सर्पिवत्तिस्वत्वनिरूपकत्वाश्रयच वाक्यार्थः । एवं ग्रामस्य देशस्य नगरस्य पौरस्य वा ईष्टे दूल्य दाबप्यनया रौत्यान्त्रयो बोध्यः । कुञः कर्मणि षष्ठौं ज्ञापयति । "कञः प्रतियत्ने” इति सूत्रम् । कुञः कर्मणि षष्ठो विभक्तिर्भवति प्रतियत्ने गम्यमाने इत्यर्थकं सतो गुणान्तराधानम्पतियत्न- - इति काशिका | एधोदकस्योपस्कुरुते पाचक इत्यत्र षष्ठयाः कर्मत्वमर्थों धात्वर्थ उपकरणेऽन्वेति उपकरणं संन्निधापनं तथा चैधोदककर्मसंनिधापनप्रयत्नाश्रयः पाचक अत्यन्वयबोध: । तदनन्तरं सत: पाकस्य क्षिप्रसम्पत्तिरूपगुणाधाय कमेधोदकसन्निधापनमिति वैयचनिको बांध इति वृत्तिखरसादवगम्यते । वस्तुतस्त प्रतियत्नो द्वितीययत्नः स चोपकारस्वरूप उपपूर्वकस्य करोतेरथस्तत्कर्मणि षष्ठौ विभक्तिर्भवतीति सूवार्थः । अत एव उपातियत्नेति सूवेगा विहितस्य सुट आगमत्वानिरर्थकस्य धात्वथ प्रतियनद्योतकत्वमुक्तम् । उपकारश्च विविधः उप समाप करगां स्थापनं सन्निधापनमिति यावत् । इत्येक एतस्यैव प्रतियत्नस्य द्योतकः सुडागमः । हितोयस्त दुःखनाशसुखान्यतरानुकूलव्यापारम्वरूप एतस्मिप्रतियत्ने विवक्षिते न सुडागमः आद्यो यथा एधोदकस्योपस्कुरुते पाचकः इत्यत्रान्वयबोध: पूर्ववदेव । हिवी
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
४०९ यो यथा दोनम्योपकुरुते कारुणिक इत्यादी षष्ठ्या आधयत्वस्वरूपं कर्मत्वं दुःखनाशादौ फलेन्वेति तथा च दोनत्तिदुःखनाशानुकूलप्रयत्नाश्रयः कारुणिक इत्यग्वयबोधः क्व चिव्यतिक्रियाऽपि प्रतियत्नः प्रतिक्रिया च क्रियाविघातक क्रिया सा च प्रतिपूर्वकस्य करोतेरथः । तत्कर्मण्यपि षष्ठी यथा “गुरुविप्रतपस्विटुगतानां प्रतिकुर्वीत भिषकस्खभेषजैः" इत्यादौ प्रतिक्रिया क्रियाऽभिघातकक्रिया धात्वर्थस्तत्र गुर्वादिकमन्वस्य षष्ठयन्तार्थस्यान्वय इति क्रियाविशेषणस्य कर्मत्वादुपक्रियाविशेषणेऽपि षष्ठौ यथा स हि तत्त्वतो ज्ञातः स्वात्मसाक्षात्कारस्योपकरीतोत्यादौ अत्र स्वात्मसाक्षात्काराभिन्नोपकारप्रयत्नाश्रयः स इत्यन्वयदोधः । रुजार्थानां कर्मणि षष्ठौं ज्ञापयति । " रुजार्थानां भाववचनानामज्वरे: " इति सूत्रं भाववचनानां भावकट काणां रुजार्थानां ज्वरिवर्जितानां कर्मणि षष्ठी विभक्तिर्भवतीत्यर्थक चौरस्य रुजति रोग इत्यादौ रुजेदखामुकूलव्यापारोऽर्थः तिङ: प्रयोजकत्वमर्थः षष्ठया आधयत्वस्वरूपं कर्मत्वमर्थः पित्तादिविकारो रोग: तथा च चौरत्तिदुःखानुकूलधातुविकारस्वरूपव्यापारप्रयोजकः पित्तादिविकार इत्यन्वबोधः । एवं चौरस्यामयस्थामय इत्यादावस्यन्वयो बोध्यः रुजार्थानामित्युपादानात् “एति जीविनमोनन्दो नरं वर्षशतादपि इत्यादौ कर्मणि न षष्ठी भाववचनानामित्युपादानात् नदीकूलानि रुजतोत्यादौ कर्मणि न षष्ठी अत्र रुजे शानुकूलो व्यापारोऽर्थः अज्वरेरित्युपादानात् चौरं ज्वरयति रोग इत्यादी
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षष्ठीविभक्तिविचारः। । कर्मणि न षष्ठी "अज्वरिसंताप्योरिति वक्तव्यमिति वार्तिकात् चौरं सन्तापयति सन्ताप इत्यादौ कर्मणि न षष्ठी अत्न धातोःखानुकूल औष्ण्यानुभवार्थ: सन्तापशब्दस्योद्भूतस्पर्शवत्तेजःसंयोगोऽयं इति । एवं भोत रुजति बहुभोजनं कामुकस्य क्षयिष्यत्यनवरतरतमित्यादिको भावकतकरुजयप्रयोगोऽपोष्ट एवेति । नाथतेः कर्मणि षष्ठौं ज्ञापयति "आशिषि नाथ" इति सूत्रम् । आशीरर्थे वर्तमानस्य नाथतेः कर्मणि षष्ठी विभक्तिर्भवतीत्यर्थकम् । प्राशीराशंसा लिप्सति यावत् सर्पिषो नाथते इत्यादौ षष्ठया आधेयत्वस्वरूपं कर्मत्वमर्थः तच्च धात्वर्थेच्छाफले विषयत्व उद्धेश्वल्वे वाऽन्वेति तथा व सर्पित्तिविषयताकेच्छाश्रयत्वं वाक्यार्थः । आशिषोत्युपादानात् माणवकसुपनाथतीत्यादौ कर्मणि न षष्ठी अत्र नाथतरुपतापोऽर्थः नाथ नाथ याजापतापैश्वर्याशो:वित्यभिधानात् । हिंसार्थकानां कतिपयधातूनां कमंणि षष्ठौं ज्ञापयति । "नासिनिप्रहण नाटकाथपिषां हिंसायाम्” इति सूत्रम् । जासिनिग्रहणानाटकाथपिष इत्येतेषां धातूनां हिंसार्थकानां कमणि षष्ठी भवतीत्यर्थकं प्राणात्यन्तवियोगफल कव्यापारी हिंसा तदर्थका एते.धातवस्तथा हि उत्पूर्वकस्य प्रणिपूर्वकस्य निपूर्वकस्य प्रपूर्वकस्य च हन्तेरुत्यूर्वकस्य नाटे: काथतेः पिषश्च हिंसाऽर्थः । चौरस्योज्जासयति निप्रहन्ति प्रगिहन्ति निहन्ति प्रहन्ति उन्नाटयति उत्क्राथयति पिनष्टि वेत्यादी षष्ठया श्राधेयत्वस्वरूपं कर्मत्वमर्थस्तच्च हिंसाफले प्राकात्यन्त वियोगेऽन्वेति तथा च चौरत्तिमाणात्यन्तवि
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
४११ योगफलकव्यापाराश्रयत्वं वाक्यार्थः हिंसायामित्युपादानात् । धाना: पिनष्टौत्यत्व कर्मणि न षष्ठी चारमकसंयोगनाशफलिकाऽऽरम्भसंयोगफलिका च पार्थिबक्रिया विजातीया पिनष्टरथस्तवाां फलमादाय माष पिनष्टौतिप्रयोगः द्वितीयं फलमादाय धाना: पिनष्टीतिप्रयोगः । व्यवहृपणोः कर्मणि षष्ठौं ज्ञापयति । “व्यवहृपणोः समर्थयोः" इति सूत्रम् । व्यवहृपण वत्येतयोर्धात्वोः समर्थयोः समानार्थयोः कर्मणि षष्ठी भवतौत्यर्थक यूते क्रयविक्रयव्यवहारे चानयोर्धात्वोः तुल्यार्थता शतस्य व्यवहरते पणते वा इत्यादौ चूत क्रयो विक्रयश्च व्यवहरते पणतेश्वार्थ: त्यागलाभान्यतरफलकाक्षपातनादिव्यापारो द्यूतं त्यागे स्वत्वनाशप्रकारतानिरूपितविशेष्यत्वस्य तत्संबन्धावच्छिन्नाधेयत्वस्य वा कर्मत्वस्यान्वय: लाभः स्वस्वेच्छा तत्र स्वत्वप्रकारतानिरूपितविशेष्यत्वस्य तत्संबन्धावच्छिन्नाधेयत्वस्य वा कर्मत्वस्यान्वयस्तथा च शतकर्मताकत्यागस्य शतकर्मताकम्य लाभस्य वा फलकं यदक्षपातनादिक तदनुकूलकतिर्वाञ्यार्थ: क्रयो विक्रयश्च प्रागेव निकक्तस्तत्र कर्मत्वान्वयो ऽपि दर्शित एवेति शत कर्मताकक्रयकर्तत्वं शतकमताकविक्रयकट त्वं च वाक्यार्थः समर्थयोरित्युपादानात् । शलाकां व्यवहरतीत्यादी कर्मणि न षष्ठी व्यवहरतगणनाऽर्थकत्वात् । तथा च शलाकाकर्मताकपरिगणनकर्ट त्वं वाक्यार्थः । एवं ब्राह्मणं पणायतीत्यादावपि कर्मणि न षष्ठी पणते स्तुत्यर्थकत्वात् अत एवावायप्रत्ययः "स्तुत्यर्थ स्य प
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४१२
षष्ठीविभक्तिविचारः। णतेरायप्रत्यय दृष्यत इति वातिकात् तथा च वाह्याकर्मताकस्तुतिकट त्वं वाक्यार्थ इति । अधिकरण काले षष्ठौं जापयति । "कृत्वोऽर्थप्रयोगे कालेऽधिकरणे" इति सूत्रं कृत्वोऽर्थानां प्रत्ययानां प्रयोगे सति कालरूपऽधिकरणर्थे षष्ठी विभक्तिर्भवतीत्यर्थक काले इत्यस्य कालवाचिशब्दादित्यर्थस्तथा च कालविशेषवाचिशब्दादधिकरणेऽर्थे षष्ठी भवतीतिसूत्रार्थः । पञ्चकत्वोऽङ्गो भुके. इत्यादी क्रियाभ्यात्तिगणने विहितस्य कृत्वसुचप्रत्ययस्याभ्यात्तिमात्रमर्थोऽनन्यलभ्यत्वात् क्रियाया धातुना गणनस्य संख्यार्थकशब्देन लाभात् अध्यात्तिः पौनःपुन्यमुत्पत्तिरिति यावत् । अत एव काशिकायामेककर्ट काणां तुल्य जातीयानां क्रियाणां जन्म संख्यानं क्रियाभ्यात्तिगणनमिति व्याख्यातं तत्रोत्पत्तौ तद्धितार्थे पञ्चशब्दार्थस्य पञ्चत्वसंख्याविशिष्टस्य हिशब्दार्थस्य हित्वविशिष्टस्य प्रतियोगितयाऽन्वयः पञ्चान्वितोत्पत्तेः
धात्वर्थताऽवच्छेदकैकधर्मावच्छिन्नसमानाधिकरणभूते धात्वर्थं प्रतियोगितयाऽन्वयः तत एव क्रियाजन्मसंख्यानलाभः धात्वर्थताऽवच्छेदकैकधर्मावच्छिन्नत्वनिवेशात् चैवस्य विभॊजने हिर्गमने सति चैत्रः पञ्चकृत्वो भङ्कगच्छति वेति न प्रयोगः सामानाधिकरण्यनिवेशात् चैवस्य निर्भोजने मैत्रस्य हि जने सति चैत्रो मैत्री वा पञ्चकृत्वो भुत इति न प्रयोग इति प्रकृत्यर्थविशेषितेन कृत्वोर्थप्रत्ययार्थेन विशेषिते धात्वर्थे प्रकृत्यर्थकालविशेषविशेषितस्य षध्यर्थस्याधयत्वस्यान्वयः तथा च पचप्रतियोगितानिरूपकोत्पत्तिप्रतियोग्यहर्टत्तिभोजनक
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
४१३ त्वं वाक्यार्थः । व्युत्पत्तिवैचित्र्येण समानाधिकरणे एकधर्मावच्छिन्ने धाल्वर्थे कृत्वोऽर्थप्रत्ययार्थस्योत्पत्तेरन्वयः कृत्वोऽर्थप्रत्ययार्थविशिष्ट धात्वर्थ षष्यर्थयाधयट स्यापि व्युत्पत्तिवैचिच्यणान्वयः । अत एव कृवोऽर्थप्रयोगोपादानं संगच्छते तदुपादानफलं तु कृत्वोऽर्थप्रत्ययप्रयोगशून्ये अन्हि भुङ्क्ते शेते वेत्यादौ कालेऽधिकरण न षष्ठी । शाब्दिकास्तु जोऽविदर्थस्येतिसूत्रेण करणेऽधौगत्यादिना व्यवहृपणोरित्यन्तेन सूत्रषटकेन कर्मणि कृत्वोऽटेतिसूत्रेणाधिकरण कारके यत्षष्ठीविधानं तच्छेषत्वेन विवक्षिते बोध्यं “षष्ठी शेष” इत्यतः शेष इत्यस्यानुत्ते
र्जागरूकत्वात् न चैवं“षष्ठी शेषे” इत्यनेन षष्यां सिद्धायां दर्शिताष्टसूत्रीप्रणयनं व्यर्थमिति वाच्यम् । सर्पिषो ज्ञानमित्यादौ समासनिषेधफल कतया तत्मार्थक्यात् । न च दर्शिताष्टसूया न समास नित्तिफलकलं किं तु समासे षष्ठौलुगनिवृत्तिफलकत्वं तत एव सार्थक्य संभवादिति वाच्यम् । अलुक्समासे प्रमाणाभावात् समासनिषेधफलकत्वस्यानुशासनिकस्यौचित्यात् तथा च वार्तिक "प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यत" इति । हरिरप्याह ।
कारकैव्य॑पदिष्टे च श्रूयमाणक्रिये पुन:। प्रोक्ता प्रतिपदं षष्ठी समासस्य निवृत्तये ॥ इति प्रतिपदमित्यत्र प्रतियोगे इत्थंभावाख्याने वितीया संबन्धमभिधत्ते तथा च पदसंबन्धिनी षष्ठी कारकव्यपदेशवतौ श्रूयमोण क्रिये सूत्रे प्रोता समासनिवृत्त्यर्थेत्यन्वयबोधः । पदसंवन्धस्तु कारकविशेषसंवन्धेन धातुविशेषसंबन्धी बोध्यः । इत्यं च सर्पिषो ज्ञानं मा
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षष्ठीविभक्तिविचारः। तुः स्मरणमित्यादिकः प्रयोगः शेषत्वविवक्षायामसमस्त एव साधुः । हरिस्मरणमित्यादिसमासस्तु शेषत्वाविवक्षायां कृद्योगषष्ट्या बोध्यस्तव कारकपूर्वकत्वात् । गतिकारकेत्यादिना विहितः कदुत्तरपदप्रकृतिखरो मध्योदात्तो भवति शेषषष्ठ्या समासोपगमे त्वन्तोदात्तस्तत्पुरुषस्वरः स्यादिति स्वरार्थेयमष्टसूत्रीति निर्गलिताथः । किं च मातुः स्मृतमित्यादौ समासांभावोऽष्टसल्या ज्ञाप्यते कृद्योगप्रयुक्तकर्मषष्ट्या निष्ठायां निषेधात् कमविषया षष्ठी निष्ठायां प्रतिषिध्यत इत्युक्तोः शेषषधा समासस्तु दर्शिताष्टसूत्रीज्ञाप्यनिषेधस्य विषय एवेति वदन्ति । अवेदं चिन्त्यं हरिस्मरणमित्यादौ कदुत्तरपदप्रक्वतिस्वरी मध्योदात्तो नान्तोदात्तः शेषषष्ठीतत्युरुषस्वर इति नायं शेषषष्ठीतत्पुरुष इति तु तदैव संगच्छते यदि च सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनमित्यादिवेदे कारकस्य शेषत्वविवक्षायां पुष्टिवई नशब्दस्य शेषषष्ठीतत्पुरुषसमासोपगमेऽन्तोदात्तस्वर उपलभ्येत नायं हष्टचर इति न किञ्चिदेतत् मातः स्मृतमित्यादावपि न शेषषष्ठया निषेधः न लोकेतिनिषेधस्य "नपुंसके भावे उपसंख्यानमितिवार्तिकेन प्रतिप्रसवात् । न च कर्मषष्ठ्या निष्ठायां निषेध इति वाच्यं निष्ठायां निषेधस्याप्रामाणिकत्वात् प्रामाणिकत्वे तु क्तवतुमात्रविषयत्वात् । अत एव ग्रामस्य गतमोदनस्य भुक्तमित्यादिको भावाधिकरणकान्ते कर्मविषयषष्ठीप्रयोगः प्रामाणिकानां संगच्छते। किं च दर्शिताष्टसल्याः शेषषष्ठीसमासनिषेधफलकत्वाभ्युपगमे सुरेशिता जनेशिता
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विभत्यर्थनिर्णये।
४१५ नदीशितेत्यादिक: षष्ठीसमासो न स्यात् कर्मषधाः - णि न लोकत्यनेन निषेधात् दर्शिताष्टसल्या शेषषष्ठीसमासनिषेधस्थ ज्ञापनादिति तस्माकरणे कर्मणि अधिकरणे तत्वेन विवक्षितेऽष्टसूया षष्ठी विधीयते न चैवं कारकविभक्तो पकं विना स्वार्थकविभक्त्यन्तरबाधकत्वनियमात् दर्शितोदाहरणेषु टतौयाद्वितीयासप्तमौना बाधप्रसङ्ग इति वाच्यम् । ईदृनियमे मानाभावात् पुध्येभ्यः पुष्यं वा स्टहरर्थभेदेन चतुर्थोहितोययोरुपपत्तिरिति वाच्य प्रकृतेऽप्यर्थभेदसंभवात् । अतिशयितस्य हि विधाविदर्थस्य करणेऽतिशयितस्याध्यानस्य दयंत्यर्थविनयस्यैश्वर्यस्य प्रतियत्नादेश्च तत्तत्सूत्रप्रदर्शितधात्वर्थस्य कर्मणि षष्ठीविधानात् । अनतिशयितस्य तु करणे कर्मणि सामान्यतस्ततीयाहितीययो विधानात्कृत्वोऽर्थप्रयोगेऽधिकरणे कालिकसंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वस्य विवक्षायां षष्ठी विधानादाधेयत्वमात्रविवक्षायां सामान्यतः सप्तमौविधानाद्दर्शिततत्तद्धातुप्रयोगे टतीयाहितीयासप्तमीनामपि नानुपपत्तिः । न चैवं दर्शितयोर्वार्तिकहरिकारिकयोर्वि रोधात् नैषा रोतियुतेति वाच्यं सूत्रविरोधापेक्षया तयोविरोधस्याकिंचित्करत्वात् यदि च तयोरपि विरोधो न युक्तः तदा तयोः कारकषष्ठयाः समासनिषेधपरत्वमम्युपेयम् अत एव हरिकारिकायां कारकैव्यपदिष्ट इत्यादिसार्थकं हरिस्मरणमित्यादिकः शेषषष्ठयाः समासः अत एव जनेशितेत्यादिप्रयोगोपपत्तिः न चैवं स्वरविपर्ययापत्तिरिति वाच्यम् । दत्तोत्तरत्वात् कारकस्य कारकत्वशेषत्वोभयविवक्षायां
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षष्ठीविभक्तिविचारः । षष्ठीसमासयोः स्वरवैचिल्यस्यादृष्टचरत्वादित्यलं विस्तरेण । दिवः कर्मणि षष्ठौं ज्ञापयति । “दिवस्तदर्थस्थ" इति सूत्रम् । व्यवहृपगिसमानार्थकस्य दोव्यतेः कर्मणि षष्ठी विभक्तिर्भवतीत्यर्थकम् । शतस्य दोव्यतीत्यादौ षड्याः कर्मत्वमर्थस्तथा च शतकमताकातक
त्वं पूर्ववत् वाक्यार्थः । यदि च क्रय विक्रयावपि दिवोऽर्थाविति तदा शतकर्मताकक्रयादिकट त्वं वाक्यार्थः । यद्यपि पूर्वसूचे दिवः कथने पृथक्सनप्रणयनं न भवतौति लोघवं संभवति तथाप्यग्रिमसनुवृत्त्यर्थ पृथक्सूत्रारम्भ इति । सोपसर्गस्य दिवः कर्मणि वैकल्पिकों षष्ठों ज्ञापयति । "विभाषोपसर्गे” इति सुत्रम् । उपसमें सति दिवस्तदर्थस्य कर्मणि विभाषा षष्ठी विभक्तिभंवतीत्यर्थकं शतस्य शतं वा प्रतिदीव्यतीत्यादौ षष्ठीहितोययोः कर्मत्वमर्थः । वाक्यार्थस्तु दर्शित एवेति उपसर्गे विभाषोपदेशात् निरुपसर्गस्य दिवोऽर्थस्य दातादेरतिशयितस्यापि कर्मणि न द्वितीया किन्तु षष्ठय वेति प्रतीयते द्यूतादिभिन्नार्थकस्य दिवः सोपसगस्यापि कर्मणि वितीयैव न तु षष्ठौ यथा शलाका प्रतिदोव्यतोत्यादौ । निरुपसर्गस्य दिवः कर्मणि क्व चित्षप्ठ्यपवादं जापयति । हितीया ब्राह्मणे इति मर्व ब्राह्मणविषये प्रयोगे दिवस्तदर्थस्य कर्मणि द्वितीया विभक्तिर्भवती त्यर्थकं ब्राह्मणः संहितेतरवेदभागो विप्रश्च आद्य गामस्य तदहः सभायां दीव्ये युरिति अत्न निरुपसर्गस्य दिवस्तदर्थस्य कर्मणि द्वितीयाप्रयोगो व्राह्मणभागान्तर्भत एव अथ ब्राह्मणभागस्य सम्यगुच्चारणे न देवने गोः क
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विभक्त्यर्थनिर्णये। मत्वं प्रतीयते हितीये विप्रस्य गां दीव्यति विप्रो गां दोव्यतीत्यत्र हितौयया षष्ठ्यपवाद इति । तिङन्तविशेषस्य कर्मणि षौं ज्ञापयति । "प्रेष्यब्रुवोहविषो देवतासंप्रदाने” इति सूत्रम् । इष्यतेर्दैवादि कस्य लोगमध्यमपुरुषैकवचनं प्रेष्य इति तत्साहचर्याङ्गविरपि तथाभूत एव गृह्यते इति प्रष्यब्रूहिइत्येतयोः तिङन्तयोः कर्मणि हविषः षष्ठी भवति देवतायां संप्रदाने सतौत्यर्थकं हविषो हविर्वाचक शब्दादित्यर्थः । अग्नये छागस्य हविषो वपाया मेदसो वा प्रथ्य अग्नये छागस्य हविषो वपाया मेदसो वाऽनुहोत्यादौ प्रपूर्वकस्येष्यतरमुपूर्वकस्य ब्रुवेश्च दानमर्थः षष्यास्तु कर्मत्वमर्थस्तथा चाग्निसंप्रदानताकच्छागकर्मताकाशंसाविषयदानकर्तत्ववांस्त्वमित्यादिरन्वय बोध: प्रेष्यबोरित्युपादानात् अग्नये छागं हविर्वपां मेदो वा जुहुधीत्यादौ धात्वन्तरकर्मणि न षष्ठी । हविष इत्युपादानादग्नये गोमयानि प्रेष्येत्यादौ कर्मणि न षष्ठी । देवतासंप्रदान इत्युपादानात् माण काय पुरोडाशं प्रेध्येत्यादौ कर्मणि न षष्ठौ । “हविषः प्रस्थित स्थ प्रतिषेधो वक्तव्य"इति वार्तिकम् प्रस्थितशब्दसमानाधिकरणहवि:शब्दात्षष्ठौं निषेधति । यथा इन्द्राग्निभ्यां छागं हविर्वपां भेदः प्रस्थितं प्रेष्येत्यादौ प्रस्थितं प्रकर्षण स्थितं प्रकर्षस्तु प्रोक्षणाभिमन्त्रणयथोक्त स्थानकत्वं बोध्यमिति । संप्रदान% षष्ठौं ज्ञापयति । चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि इति सूत्र छन्दसि चतुर्थ्यर्थे संप्रदानत्वादौ षष्ठौ विभक्तिभवति बहुलमित्युपादानात् चतुर्थी व चि
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षष्ठीविभक्तिविचारः। - क्रिया संबध्यते तहत् क तपूर्व्यादिषु स्थिता ।
का कर्ट मंचकेन क्रिया भावना तहता योगः तहदेकदेशभावनायामन्वयः अविग्रहा प्रधानकारकान्वयिनीति तदर्थ इति वदन्ति । तच्चिन-यं क तशब्दार्थस्य करणकर्मणास्तहितार्थभावनायामन्त्रये कटमिति हितीयान्तार्थस्यानन्ययापत्ते: एकाविरुद्धायां कर्मान्तरान्ययस्यानाकाशितत्वात् । कि च भावनायामेव कारकान्वय इति न सम्भवति ओदनस्य पाकः इत्यादौ षष्ठार्थकर्मणोऽनन्वयप्रसङ्गात्। भावक तां भावनाबोधकत्वविरहात् । तथात्वाभ्युगमे तु कर्मकर्तृभावनाभ्यां कर्मकौराक्षेपऽन भिहिताधिकारौययोः कर्मकर्तषष्योरनुपपत्तिप्रसङ्गात् । न चौदनस्य पाकः चैत्राय पाक इत्यादी शेषषष्ठीव कृद्योगषष्ठौ कर्मक कृत्सु चोपयत इति वाच्यम् । “उमय प्राप्तौ कर्मणी"ति सूत्रस्य निर्विषयकस्वायत्तेः न च करणादिकृत् तहिषय इति वाच्यम् । करणादिकतोऽपि भावनाबोधकत्वस्य विरहात् कर्ट कमणोरन्वयाप्रसक्त्या निर्विषयत्वतादवस्थात् करणादिभावनाया अतिरिक्ताया अप्यभ्युपगमे तत्वापि कर्तकमंगोरन्वयासंभवात् निर्विषकत्वतादवस्थ्यात् यदि च गुणानां चेतिन्यायेन भावनायां कारकत्वेनान्विते धात्वथें न कारकान्वय इत्येवाभ्युपेयते न तु घनाद्यन्तेन प्रधानवदुपस्थापिते तस्मिन्निति तदा भवतु भावकूदतार्थ षष्यर्थकारकान्वयः तावता न न: कापि क्षतिरति । ननु कृतपूर्वोकटमित्यादौ कृतशब्दार्थस्य करणाकर्मणस्तहितार्थभावनायामनन्वये सामार्थ्याट्ट वृत्त्यनु
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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पपत्तिरन्वये तु तेनैव कर्माकाङ्क्षा विच्छित्तेः कटादेः कर्मतया तत्राग्गया संभवः सूत्रे कृतीतिव्यर्थं षट्यप्रसक्तः कर्मणोऽभिधानात् । अत्रापि कटमिति द्वितीयाऽनुपपत्तिश्वेति चेत् । अत्र शाब्दिकाः । कृतमिति भावक्तान्तमविवचितकर्मकं पूर्वशब्देन समासमासाद्य कर्तृत चितस्य प्रकृतिर्भवतीति कृतपूर्वीशब्दमिदः प्राक्कालिक - करणकर्त्ततिशाब्दबोध मर्जयति तत्र भावक्तान्तकार्ये कटकर्मत्वस्यान्वय इति वदन्ति । अत्र गुरुचरणाः । भावतान्ते कर्मान्वयो न युज्यते । अविवचितकर्मणा एव भावप्रत्ययाद् अन्यथा गतं गम्यते वेत्यादौ भावप्रत्ययान्ते ग्राममिति द्वितीयान्तार्थस्य ग्रामकर्मकत्वस्यान्वयप्रसङ्गात् । कर्मणो विवक्षायां भावप्रत्ययस्य विवचायां कर्मान्वयस्याव्युत्पन्नत्वात् किं च कृतपूर्वीत्यa कृञयें कर्मान्वयोपगमे कृतौत्यनेन कथं कर्मषष्ठीबारणं निष्ठापर्युदामानुसरणे तु किं कृतोत्युपादानेन तस्मात्कृतपूर्वोत्यत्र कृतादिपदार्थपरित्यागेन तडितस्य प्राककालिकभावनावानर्थः । यदि च पक्वपूर्वी वेदानित्यादेः पर्यायत्वमाशङ्क्यते तदा पाकादिभावनावानेव तद्धितार्थः । तहितार्थैकदेशे पाकादौ षठ्यर्थकर्मत्वान्वयवारणाय सूत्रे कृतौत्युपादानम् । ननु विग्रहे समासे च विवचितस्यापि निष्ठार्थस्य कर्तृत हितोत्पत्तौ सत्यां निष्ठाया अविवचाया निरर्थकत्वं युज्यते न तु धातोरतो धात्वर्थे तदुपहितत हितार्थ भावनायां वा कर्मान्वयः सम्भवति तावतैव कृतीत्युपादानसार्थक्यं किं तहितानां पाकादिनानाभाव नावदर्थं कतया नानार्थताऽभ्युपगमेनेति
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કરશે
षष्ठीविभक्तिविचारः। चैत । मैवं यतो निष्ठाया निरर्थकत्त्वाम्य पगमें ऽपि धातोः कदन्तत्वमक्षतमिति षष्ठीप्रसक्तर्दर्वारतया सूत्रे कृतीत्युपादानमनर्थकमिति कृतीत्यपादानसामर्थ्यादेव तान्तं निरर्थकमवसीयत इति तहितेनिप्रत्ययस्य नानाथकत्वमनन्यगतिकतयाऽभ्य पेयते तान्तन्तु प्रकारणादिवत् तत्तद्भावनावन्तमुपस्थापयति पक्कपूर्वोत्यत्र पाकानुकूलभावनावान् कृतपूर्वोत्यत्र करणभावनावान् प्रतौयते तत्व तद्धिताथैकदेशे पाके भावनाया वौदनकर्मत्वस्य करणे भावनायां वा कटकर्मत्वस्य विवक्षायामोदनपदात्कटपदात्षष्ठौं वारयति सूबे कृतौति द्वितीया तु सामान्यतो विहिता भवत्येवेति पक्कपूर्वी प्रोदनं कतपूर्वी कटमित्यादौ कर्मणि न षष्ठी किं तु द्वितीयवेति पदवाक्यरत्नाकर प्राहुः । शाब्दिकनव्यास्तु कृतं पूर्वमनेनेति विग्रहे विवक्षितकर्मतया भावे क्त प्रत्यये कते कर्मसापेक्षवाभावात्ममासतद्धिती भवत एव तथा च कतपूर्वीत्ययम्पूर्व कृतवानित्यनेन समानार्थकः संपद्यते तद्धिते सति वृत्तिभेदात् कर्मविवक्षायां गुणभूतयाऽपि क्रियया कारकाणां संबन्धस्य कटं कुतबा नित्यादौ दर्शनादवापि कटकर्मत्वान्वयः तत्र कर्मणि षष्ठीवारणाय सूत्रे कृतीत्युपात्तं न च तस्य कृत्त्वात् कृदुपादानेऽपि षष्ठीप्रसतिर्दारैवेति वाच्यम् सूचे कृत्यदस्य प्रत्ययान्तराप्रकृतिभूतस्यैवोपादानात् कृतपूर्वशब्दस्य तद्वितप्रतितया तान्तकृतशब्दस्य तद्धितप्रकृतित्वात् । तण्डलस्य पाचकतम इत्यादी षष्ठ्या असाधुत्वमिष्टमेव अत एव तण्डुलं पाचकतम इत्यादिप्रयोग साधु कालापा
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
છરરૂ मन्यन्त इत्याहुः । तच्चिन्त्य विग्रहवाक्ये विवक्षितकर्मकस्य रत्तिवावये सकर्मतयाऽदृष्टचरत्वादन्यथा शोभनं पचनमवेतिविग्रहाविवक्षितकर्मतया भावे ल्यट्प्रत्यये वचनशब्दस्य समासतद्धितयोः कर्मविवक्षायांतण्डुलं शोभनपचनवद्गृहमिति प्रयोगापत्तिः । यदपि प्रत्ययान्तराप्रकृतित्वं कृतो विशेषणं तदपि न सुन्दरं तण्डुलं पाकतरः तण्डुलं पाकवद्गृहमितिप्रयोगापत्तेच वस्तुतस्तु भावप्रत्ययमात्रस्याकर्म केभ्यो न विधानमोदनस्य भुक्तं तगडुलस्य पाक इत्यादी षष्ठ्यर्थकर्मत्वस्यानन्वयप्रसङ्गात् । कि तु भावे लकारस्यैव भावे चाकर्मकेभ्य इत्यनुशासनेन तद्विधावकार्मकेभ्य इत्यपादानात् । न चैवमोदनं भुक्तं तण्डुलं पाक इत्यादिकः कर्महितीयासमभिव्याहृतः प्रयोगः स्यादिति वाच्यं कृतिषण्या हितीथाऽपवादात् । एतदर्थमेव मूचे कृतील्युपादानमन्यथा सामान्यतः कर्मणि द्वितीयाषष्ठ्योरुभयो विधाने वैकल्पिकताऽऽपत्तेः । नन्वेवं कृतपूर्वोकटमित्यादौ निष्ठावरूपक द्योगस्यावैकल्यात् । कर्मणि षछीप्रसङ्गो द्वितीयाऽपवादप्रसङ्गश्च न च "न लोके तिसूत्रेण निष्ठायोगे षष्ठौनिषेधान्नैवमिति वाच्यं “नसके भावे उपसंख्यानमिति वार्तिकेन भावे क्तस्ययोगे षष्ठीप्रतिप्रसवादिति चेन्मैवं सूबे क तीत्यत्र क त्पदस्य विशेषपरत्वात् । तथा हि कत्यकृतिकत्वेन विहितस्य प्रत्ययस्य प्रक तिभूतो यः कत् तद्योग एव कट कर्मणे षष्ठीविधान “सपूर्वाच्चे तिसूत्रेणेनिप्रत्ययविधाने पूर्वशब्दस्य सपूर्वकत्वं तान्तशब्दपूर्वकत्वमेवान्यथा कुड्यपूर्वीत्यादि
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૪૨૬
षष्ठीविभक्तिविचारः ।
भयषष्ठप्रयोगे कर्तरि षष्ठो न माधुरिति ज्ञाप्यते तेन नलस्य पाको भौमस्य पाक इत्यादिप्रयोगाणां नानुं पपत्तिः गोपस्य दोह इत्यादिप्रयोगोऽपोष्ट एव अककारयोः स्त्रीप्रत्यययोः प्रयोगे" न शेषे विभाषेति वक्तव्यमिति वार्तिकं खोप्रत्ययेऽप्रत्ययान्ते अकारप्रत्ययान्ते च न कर्तर्यपि षष्ठौनिषेधः शेषे उक्तोभयप्रत्ययान्तभिन्ने स्त्रीप्रत्यये कर्तरि विभाषा षष्ठोभवतीत्यर्थकं तेन बुल्प्रत्ययान्ते स्वोप्रत्ययान्ते कर्तृकर्मणोरुभयोः षष्ठो यथा रुद्रस्य भेदिका जगत: । रुद्रकर्ट कं जगत्कर्मकं भेदनं वाक्यार्थः भावे खुल्विधानात् भेदनमर्थ: । - कारप्रत्ययान्ते स्वौ प्रत्यान्ते तदुभयोः षष्ठौ यथा रुद्रस्य बिभित्मा जगत इत्यादौ मद्रकर्ट का जगत्कर्मकभेदनेच्छा वाक्यार्थः । अप्रत्यादित्यनेन भावेऽकारविधानात् भेदनेच्छार्थः । एवं भदिका देवदत्तस्य काष्ठानां चिकौर्षा यज्ञदत्तस्य कटस्येत्यादौ दर्शितरीत्या वाक्यार्थो बोध्यः । शेषे कर्तरि विभाषा षष्ठी यथा विचित्रा सूत्रस्य कृतिः पाणिनेः पाणिनिना वेत्यादौ अव सूत्रपदोत्तरषष्याः कर्मत्वमर्थः पाणिनिपदोत्तरषष्ठौटतीययोः क
त्वमर्थः कृतावस्वेति । काशिकावृत्तौ सुट्तिथोरितिमवव्याख्यानं सौयुटो लिङवागमौ तेन भिन्नविषयत्वात् सुटा बाधो न भवतीत्युक्तं तत्र बाधशब्दः पुमानेव यदि बाधाशब्दः खीप्रत्ययान्तस्तदा सौयुटइति शेषे षष्ठौ लिङागमिनोऽन्वयानुरोधात् । षष्ठ्यर्थ संबन्धस्यानुषङ्गेण बाधायामन्वयस्तव सुट् हेतुकत्वाभावः प्रतीयते । सुटेतिहेतौ न तु करणे तृतीया ! कर्तराकाङ्क्षाया
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विभत्र्यनिर्णये।
ર૭. अनिवृत्तेरिति । के चिदविशेषेण विभाषामिच्छन्ति । अविशेषेण स्त्रीप्रत्ययाककारप्रत्यययोविवक्षां विनेत्यर्थः विभाषामित्यत्र कतरिषष्ट्या इत्यादि यथा शब्दानामनुशासनमाचार्येणाचार्यस्य वेत्यादौ शब्दपदोत्तरषष्ठ्याः कर्मत्वमाचार्यपदोत्तरतीषष्ठ्यो: कट त्वमथोऽनुशासनेऽन्वेति । गुणकर्मणि वेष्यते इतौष्टया नेता ऽश्वस्य सुद्युम्नस्य सुद्युम्नं वेत्यादी सुद्युम्नादौ गुणकर्मभिा वैकल्पिकौं षष्ठयौं शाब्दिका उदाहरन्ति । तवेयमिष्टिन युज्यते गवां दोह इत्यादौ गुण कर्मणि गवादी हितौयाया अप्रयोगात् । यदि यज्यते तदा नयत्यादिगणगुणकर्मण्येवेति निष्ठायोगे निषेधस्यापवादार्थ षष्ठौं जापयति । " तस्य वर्तमाने " इति सूत्रं । वर्तमानकालार्थकस्य तस्य योगे षष्ठी भवतीत्ययक"मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यश्चे"ति सूत्रेण वर्तमानधात्वर्थकर्मणि तस्य विधानात् वर्तमानार्थत्वमुक्तं राज्ञा मतो बुद्धः पूजितो वेत्यादौ मतिरिच्छा बुद्धिर्ज्ञानं तप्रत्ययस्य विषयो धात्वर्थफलस्य विषय वस्याश्रयो वाऽथैः पूजा प्रौणनं प्रीत्यनुकूलो व्यापार इति तास्य समवाय्यर्थः षष्ठया मत्याद्य न्वयिकट त्वमर्थस्तथा च राजकर्ट काया मतेबद्देर्वा विषयो विषयत्वाश्रयो वा राजकत कव्यापारप्रयोज्यप्रीतिसमवायौ च वाक्यार्थः । “नमकभावे उपसंख्यानमि"ति वार्तिक नपुंसके भाव त इति सूत्रेण विहितस्य तस्य योगे कत कर्मगोः षष्ठी भवतीत्यर्थक तेन कृष्णस्य शयितं छात्रस्य हसितं चैत्रस्य गमनमित्यादौ षया: तकत्वमर्थः शयनादौ भावे कार्थेऽन्वेति । शास्त्रस्ययाधी
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ઠેર
___षष्ठीविभक्तिविचारः। तं शब्दानित्यताया मतमौदनस्य मुक्त ग्रामस्य गतमित्यादौ षष्ठया: कर्मत्वमर्थः तार्थे ध्ययनादौ भान्वेति । कर्मविषयषष्ठया निष्ठायां निषेधोऽप्रामाणिक एवेत्युक्तम् । पुनरपवादार्थ षष्ठौं ज्ञापयति । " अधिकरणवाचिनश्च” इति सूत्रम् । अधिकरणार्थकस्य तस्य योगे कतकर्मग्री: षष्ठी भवतीत्यर्थकम् । “तोधिकरणे चे"तिसत्रैण विधानात् तस्याधिकरणवाचित्वमुक्तम् । इदमेषामाशितं शयितं वेत्यादौ षष्ठ्याः कतत्वमर्थः शयनादौ धात्वर्थ न्वेति तस्याधिकरणमर्थस्तथा चेदंकर्तृताकशयनाधिकरणभिन्न मिदमित्यादिरन्वयबोधः । दूदमेषामोदनस्य भुक्तं ग्रामस्य गतं वेत्यादौ दंपदोतरषष्ठ्याः कर्तवमोदनग्रामपदोत्तरयोः षष्ठयोः क. मत्वमर्थस्तथा चैटंकर्तताकोदनकर्मताकभोजनाधिकरणाभिन्नमित्यादिरन्वयबोधः । “कत कर्मणोः कृती"ति प्राप्तषष्ठयाः केषु चित्कुत्सु निषेधेनासाधुतां ज्ञापयति। "न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनामि"ति सूत्रम् । उकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनइत्येतेषां योगे कर्त कर्मणोः षष्ठी न भवतीत्यर्थकम् । ल इत्यनेन शतशानचौ कानच वसुः किकिनौ च गृद्यन्ते। शतृ। श्रोदनं पचमानः । कानच् । मोदनं पेचानः । कसुः । पोदनं पचिवान् । किकिनौ । पपिः सोमं ददिर्गाः । "आगमहनजन: किकिनी लिट्चे”त्यनुशासनेन तच्छोलादिष्वर्थेषु पादन्ताहृदन्ताहमिहन्तिजनिभ्यश्च लिट्कार्यकारिणौ किकिनौ प्रत्ययौ विधीयते लिट्कार्य विर्भावादि आत् । पपिददिः । त्। बनिबज । गमि । जग्मिर्यवा । इन । जधि
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विभक्त्यर्यनिर्णये ।
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नम् । जनि । जज्ञिर्बीजम् । एतद्दिधानं छन्दसि बोध्यम् । " भाषायां तु धाञ कृटगमिजनिनमिभ्य" नृत्यनुशासनेन लोके पृथग्विधानात् । दधिर्दगडं : चक्रिः कटं सखिरन्तिकं जग्मिः ग्राममेवं जतिर्नेमि: पॉपरित्यादेः पानशीलादिरर्थस्तथा च सोमकर्मकपानशौल इत्यादिरन्वयबोधः सोमं पपिरित्यादौ बोध्यः । उ । चिकीर्षुः कट बुभुक्षुरोदनम् । अलङ्करिष्णुः कन्याम् । उक । दैत्यान् घातुकः । वाराणासीं गामुकः । उप्रत्ययस्य उकप्रत्ययस्य च तच्छीलादिरर्थः । " उकप्रतिषेधे कमेभीषायामप्रतिषेध" इति लचम्याः कामुक इत्यादी लोके षष्ठो । अव्यये । कटं कृत्वा चोदनं भोक्तुं । "अव्ययप्रतिषेधे तोसुनक सुनोरप्रतिषेध” इति पुरावत्सानामपाकर्तोरास्ते इत्यादी तोसुन्प्रत्यये षष्ठो वत्मानपाकर्तुमास्त इति वाक्यार्थः । पुरा क्रूरम्य विसृषी विरप्सिन्नित्यादौ कसुन्प्रत्यये षष्ठी क्रूरान् विसर्पितुं विरशाशील इलर्थः । विरशा विरोधः । अथ वा विरप्शिन् विराध्येत्यर्थ: । तोसुन्कसुनौ छान्दसौ तुमर्थो बोध्यौ । निष्ठायां विष्णुना हता दैत्याः श्रोदनं भुक्तवान् ग्रामं गत इयादौ । खलयें ईषत्करः प्रपची हरिणा । हरिककेषकर कर्म प्रपञ्चो वाक्यार्थः । अर्थग्रहणात् युच्प्र
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as ईत्यानः सोमो भवतेत्यादौ भवत्कर्ट के षत्यानकर्म वाक्यार्थः । नितिप्रत्याहारः । स च "लटः शट" इति सूत्रे तशब्दमारभ्य "तृन्नि” तिमूचे नशब्दं यावत् बोध्यस्तेन शानन्चानश्शत्दृणामपि ग्रहणम् । शानन् । सोमं पवमानः । चानशू । आत्मानं मण्ड्यमानः । शट । बेद
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पष्ठीविभक्तिविचारः। मधौयन् । तुन् । कर्ता लोकान् । “हिषः शतुर्वा वचनम्" इति सुरस्य मुरं बा विषन् इत्यादौ वैकल्पिकी षष्ठौ । शाननः कर्तार्थः सोमकर्मकपवनकर्ता वाक्यार्थः । चानशादीनां ताच्छोल्यादिकमर्थो वाक्यार्थः खयमूह्यः सुधियेति । कदन्तरापि कृद्योगषष्ठ्या असाधुतां ज्ञापयति । "अकेनोर्भविष्यदाधमर्ययो" रिति सत्वम् । अकस्य भविष्यति काले गम्यमाने दूनस्तु भविष्यदाधमयेयोर्योगे षष्ठी न भवतीत्यर्थकम् । सज्जनान्पालकोऽवतरति । श्रोदनं भोजको ब्रजति इत्यादौ क्रियार्थक्रियायां गवुलो विधानात् पालनादिक्रियाया भविष्यत्वमदिवगम्यते "भविष्यति गम्यादय" इत्यधिकारी विधानात् तुमन्ण्वलोभविष्यत्कालार्थकत्वमित्यन्यदेतच्चिन्त्यम् । गम्यादिशब्दानां निपातनात् भविष्यगमनकर्ट वाचकत्वं गम्यादौ प्रकृतिप्रत्ययव्युत्पादनं रूढगवादिशब्द वाचायसामर्थ्यमेव गम्यादाविन्प्रत्ययस्यैव वा भविष्यकालार्थकत्वं न तु ण्वुल इति। क्रियार्थक्रियायां गवुलो भविष्यदधिकारे विधानस्य निष्प्रयोजनत्वात् न यतीताया वर्तमानाया वा क्रियायाः क्रियार्थकवं सम्भवतीति । एवं सज्जनं पालकोऽवतरिष्यति भविष्यति वेत्यादौ कतरि ण्वुल्विधानऽपि पालनेऽर्थाद्भविष्यत्त्वावगमे कर्मणि न षष्ठी। व्रजं गमौ गामो वा इत्यादौ भविष्यत्त्वावगमादिनो योगे कर्मणि न षष्ठी । शतं दायी दायो वेत्यत्राधमांवगमादिनादियोगे कर्मणि न षष्ठी । सर्वोऽयं निषेधः कारकषष्ट्या न तु शेषे षष्या अत एव ब्राह्मणस्य कुर्वन् उत्तमर्गस्य दायीत्यादौ षष्ठी। इखा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
४३१ कूणां दुरापार्थं त्वदधौना हि सिद्धय” इत्यच"अपि वागधिपस्य दुर्वचं वचनं तद्विदधीत विस्मयम्" इत्यत्र च खलर्थयोगे कर्तरि न षष्ठी किं तु शेषे । स च दुरोप सिद्धौ वा दुर्वचे विस्मये वाऽन्वेति । विश्वस्य गोप्ता भुवनस्य कर्तेत्यादौ दृचो योगे कर्मणि षष्ठी साधुरेव । “गवुल्तचाविति सूत्रेण सामान्यत: कर्तरि खुलतचोविधानात् । तचः तन्प्रत्याहारान्तर्भावविरहात् न चैवं “न लोक"तिसूत्रे तनो ग्रहणं व्यथं सर्वत्र तचैव षष्ठापपत्तेरिति वाच्यम् । तचशततनां स्वरे भेदात् छन्दसि शततुनोः प्रयोगे षष्ठीनिषेधार्थत्वात् । शाब्दिकास्तु कर्तकर्मणोः कृती"ति षष्ठीविधिरनित्य एव । “तदहमिति निर्देशात् । अत एव धायैरामोदमुत्तममि"ति भट्टिकाव्यं संगच्छते। अतएव निषेधोऽप्यनित्यः इक्ष्वाकूणामित्यादिदर्शितप्रयोगादित्याहुः । तन्मन्दम् "तदहमि"तिनिर्देश तदित्यव्ययस्य लुप्तषष्ठयन्तत्वात्तथैव साहचर्यात् “तत्र तस्येवे"ति पूर्वसत्रण मप्तम्यन्तषष्ठयन्ताभ्यामिवार्थे वतेविहितत्वात् । काशिकात्तौ तु तदितिहितीयासमर्थादहतीत्येतस्मिन्नर्थ वतिप्रत्ययो भवतीतिव्याख्यातं तत्राहतीतितिङन्तानुरोधेन हितौयासमर्थादित्युक्तम् । वस्तुतस्तस्यतिषष्ठीसमर्थादहमित्यर्थे वतिः प्रत्ययो भवतौतिव्याख्यानमुचितमिति धायैरामोदमित्यादौ प्रकरणादिना भविष्यत्त्वावगमात् । णप्रत्ययस्थाकारेण योगेन षष्ठौ न चाकारयोगे कुत: षष्ठीनिषेध इति वाच्यम् अकेनोरिति सूत्रे ऽकारस्यापि ग्रहणात् । अकश्च अश्च अकाः अकाश्च दून् च अकेनौ तयोरित्याकारग्रहणात् ।
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જરૂર
पष्ठीविभक्तिविचार। अका इति"सर्वो हन्दी विभाषैकवसवती"त्येकवचनम् एतदर्थमेव भविष्यदाधमर्ययोर्गम्यमानयोरिति व्याख्यातं गम्यमानत्वं तु प्रकृतिप्रत्ययाभ्यामन्येन जाप्यमानत्वं शतं दायौत्यादावपि णिनिप्रत्ययस्य कर्तवार्थः । पाधमयं तु मानान्तरगम्यमेव इक्ष्वाकूणामित्यादौ षया पपत्तिर्दर्शितैवेत्यलं विस्तरेण । कृत्यप्रत्यययोगे वै. कल्पिकौं षष्ठौं ज्ञापयति । "कृत्यानां कर्तरिवे"ति सवं कृत्यानां प्रत्ययानां योगे कर्तरि वा षष्ठी भवतीत्यर्थकम् । मया मम वा सेव्यो हरि इत्यादौ तृतीयाषष्ठयोः कतत्वमर्था: सेबने धात्वर्थेऽन्वेति यथा च मत्कत - कसेवनकर्म हरिर्वाक्यार्थः । एवं भवता भवतो वा क- . ट: कर्तव्य इत्यादावपि वाक्यार्थी बोध्यः । कर्तरीत्युपादानात् कर्मणि न षष्ठया विकल्पः यथा गेयो माणवक: सानामित्यादौ । अव भव्यगेये"ति सूत्रेण कर्तरि भव्यगेयादिशब्दानां निपातनात् । अनभिहिते कर्मणि कृ"द्योगे षष्ठौ । पचैलिमा माषा इत्यादौ कर्मकर्तरि केलिमरादो कर्मक/रुभयोरभिधानात् । कृद्योगे न ष'ष्ठीति ।"उभयप्राप्ती कृत्ये षष्ठयाः प्रतिषेधोवक्तव्य"इति 'गुणकर्मणि षष्ठया निषेधः । यथा नेतव्याः बजे गावः कृष्णेन कृष्णस्य वेत्यादौ । अत्र बजादौ गुणकर्मणिन षष्ठीति।
इति विभक्त्यर्थनिर्णये कारकषष्ठायनिर्णयः ।
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विभक्तार्थनिर्णये । नामार्थान्वयिनः षष्ठार्थी अकारकतया संज्ञायन्ते तव शेषः “षष्ठो शेष” इति सूत्रविवेचने प्रागेव दर्शितः । शेषत्वेन प्रतियोगित्वादिकं न षष्ठार्थः किं तु प्रतियोगत्वत्वादिनेति ज्ञापयितुं " तुल्यार्थैर तुलोपमाभ्यां तृतीयाऽन्यतरस्यामि ति सूत्रं तदेतत् तृतीयविवरणे व्याख्यातम् । चतुर्थ्या सह वैकल्पिकों षष्ठों ज्ञापयति । "वतुर्थी चाथिष्यायुष्य मद्रभद्रकुशल मुखार्थहितैः" इति सूत्रम् । आशिषि गम्यमानायां श्रायुष्यमद्रभद्रकुशल सुखाथहितइत्येतैः शब्दैर्योगे चतुर्थी विभक्तिर्भवति चकारात्ष
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भवतीत्यर्थकम् । मद्रभद्रशब्दयोः पर्याययोर्ग्रहणात् दर्शितशब्दानां पर्यायशब्देन योगेऽपि चतुर्थी भवति । आयुष्यं चिरजीवितं वा कृष्णाय कृष्णस्य वा भूयात् gora चतुर्थीषट्योः संबन्धोऽर्थ आयुष्येऽन्वेति । आयुष्यं दीर्घजीवितं तथा च कृष्णसंबन्धि दीर्घजीवितमाशंसाविषयभवनकर्तृ इत्यन्वयबोधः । मद्रं भद्रं वा ब्राह्मगाय ब्राह्मणस्य वा भूयाद् इत्यत्र मंद्रममङ्गलनिवृत्तिः कुशलमारोग्यं सुखमानन्दो वा शिष्याय शिष्यस्य वा भूयात् । सुखं स्वतः काम्यो गुणविशेषः । अर्थः प्रयोजनं वा शिष्याय शिष्यस्य वा भूयात् । प्रटत्युद्देश्यं प्रयोअनं हितं पथ्यं वा शिष्याय शिष्यस्व वा भूयात् । हितं कालान्तरभाविन इष्टस्य साधनं तादृशमिष्टसाधनं वा बोध्यमिति दर्शितरीत्या सर्वचान्वयो बोध्य इति । आशित्युषादानात् मार्कण्डेयस्यायुष्य मस्तीत्यादौ न चतुर्थीति | "यर्थे चतुर्थी वक्तव्येति" वार्तिक षध्यर्थे शेषे चतुर्थीमपि विधत्ते छन्दसि । यथा या नखानि कृ
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षष्ठीविभक्तिविचारः। न्तते तस्यै कुनखं जायते यथा वा अहल्यायै जार इत्यादौ अत्र चतुर्थ्याः संबन्धोऽर्थ: कुनखादावन्वेति । लोके तु । तस्याः कुनखम् अहल्याया जार इत्यादी षध व साधुरिति । अतसर्थप्रत्यययोगे षष्ठों विधत्ते . "षध्यतसर्थ- .. प्रत्ययेने"ति सूत्र दक्षिणोत्तराभ्यामतसुजित्यनेनातसुज विधीयते पत एवातसजा ये प्रत्ययास्तैोगे षष्ठौ भवतीत्यर्थकम् । ग्रामस्य दक्षिणत उत्तरतो वा नदोत्यत्र षष्ठ्याः पूर्वोत्तमवधिमत्त्वमर्थों दक्षिणादावन्वेति । सप्तम्यन्तादिभ्यो विधानादतसर्थप्रत्ययानामाधेयत्वमर्थो नद्यादावन्वेति । तथा च ग्रामावधिकदक्षिणदेशविख्यटत्तिनंदोत्यादिरन्वयबोधः । विन्ध्याइक्षिणत इत्यादौ विध्यमारभ्येतिल्यबन्तलोप पञ्चमी बोध्या पुर अध इत्यत्रासिप्रत्ययः । पुरस्तात् अधस्तादित्यनास्तातिप्रत्ययः । नगरस्य पुरः पुरस्ताहा पारामः पर्वतस्याधी अधस्ताहा काननम् उपरि उपरिष्टादितिनिपातयोर्योगे पर्वतस्योपर्यपरिष्टाहा मेघः । पञ्चादितिनिपातयोगेऽपि चपस्य पश्चादुपविशामः । ततः पश्चात्स्य त" इति भाष्यप्रयोगात् पश्चाच्छब्दयोगे पञ्चयपि दर्शितरीत्या सर्वत्रावयो बोध्यः । एनबन्तयोगे द्वितीयां ज्ञापयति । “एनपा द्वितीया" इति सूत्रम् । एन प्रत्यययोगे द्वितीया विभक्तिर्भवतीत्यर्थक षष्ठ्यपौष्यते"इतीष्ट्या षष्ठ्यप्येनपा योगे भवति । ग्राम ग्रामस्य वा दक्षिणेन नदी ग्रामं ग्रामस्य वीत्तरेगा नदौत्यादौ द्वितीयाषष्ठयोरवधिमक्त्वमर्थः । एनप्प्रत्ययस्थाधेयत्त्वमर्थः पूर्ववदन्जय: "तत्रागारं धमपतिगृहादुतरणास्मदीयं दूराल्लभ्यं सुरपतिधनुचा
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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कथा तोरणेन" इत्यादावुत्तरेणेति नैगदन्तं किंतु - तौयान्तं तोरणेनेत्यस्य विशेषणमित्याजः । वस्तुतस्तु दक्षिणेन याहीत्यादाविव " प्रकृत्यादि" वार्तिकेनाधेयत्वार्थिका प्रकृतेः प्युत्तरेणेति तृतौयेत्यतो धनपतिगृह - दिति पञ्चम्या नानुपपत्तिरिति ।
इति विभक्त्यर्थनिर्णयेऽकारक षष्ठ्यर्थ निर्णयः I इति विभक्त्यर्थनिर्णय षष्ठीविवरणं समाप्तम् ।
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सप्तमीविभक्तिविचारः । अथ सप्तमौ ।
ज्योस्सुप इति त्वयः प्रत्ययाः । अत्र ङकारः पकारश्चानुबन्धः क्व चिदप्यश्रूयमाणत्वान्न वाचकताकुचिप्रविष्ट इति । सरसि सरसोः सरःसु वा सञ्चरतीत्यादौ श्रूयमाणत्वादिकारस्येवेन ओसस्तश्वेन सो: सुत्वेन वाचकत्वम् । अनुशासन सिहश्च सप्तम्या अर्थः । अनुशासनं च" सप्तम्यधिकरणे चेति चकारात् दूरान्तिका - र्थकशब्देभ्योऽपि सप्तमौ भवति यथा दूरे विप्रकृष्टे सविधे अन्तिके इत्यादौ तत्राधिकरणमधिकरणत्वमाधेयत्वं वा सप्तम्या अर्थ इति वक्ष्यते । श्रधिकरणपद सङ्केतग्राहकं पूर्वमुक्तम् । “आधारोऽधिकरण" मिति सूचं क कर्मधारा क्रियाया आधारो अधिकरणसंज्ञः स्यादित्यर्थकम् | अनभिहितेऽधिकरणे सप्तमो भवति प चनी स्थालीत्यादौ न सप्तमी । अधिकरणादेः सप्तम्यर्थस्य कर्तृकमन्यतरद्दारकस्यैव क्रियायामन्वयात् कारकत्वं न तु कारकान्तरधारकाधिकरणस्य क्रियायामवयोऽभ्युपेयते । यदाहुः ।
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कर्तृक संव्यवहितत्मसाक्षाद्दारय क्रियाम् । उपकुर्वक्कियासिद्धी शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥ इति उपकुर्वक्किया सहकारि निरधिकरणयोः ककर्मणोः क्रियासिद्ध्यनुपार्जकत्वादधिकरणस्य क्रियासिद्दिसहकारित्वं न च गगनमस्ति गगनं जानानिरधिकरणस्य कर्तः कर्मणश्च क्रियासिद्ध्यं पयोगित्वान्नेदं युक्तमिति वाच्यम् । कालाधिकरणस्य गगनादेः सत्तादिक्रियाकर्तृत्व कर्ममयोगित्वाद् इदानों
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विभक्त्यर्थनिर्णये। मगनम स्तौदानौं गगनं जानातीतिप्रत्ययात् । न चैवं काशीस्थी राजा मथुरायां ब्राह्मणेभ्यो ददाति गिरौ वृक्षात्यामधो गच्छतोत्यादौ संप्रदानापादानाधिकरणयोः क्रियाविषयक प्रतीतिविषयत्वात् क्रियायां कुतो नान्वय इति वाच्यम् । निर्वयंविकार्ययोरेव कर्मणोः कट त्वविवक्षायां कर्मवज्ञावस्येव कट कर्माधिकरणयोरेव क्रियायामन्वयस्थाचार्यैरव्यपंगमात् तखात्कट - कर्मान्यतरहाराधिकरण क्रियान्वयित्वात् कारकमिति । एवं कटे प्रास्ते चैत्र: गेहे पति मैत्र इत्यादी कर्टघटितपरम्परासंसर्गावच्छिन्नमाधेयत्वं सप्तम्यर्थस्तच्च प्रकृत्यर्थविशेषितं व्यापारीन्वेति स्थाल्यामोदनं पचति चैनः तरौ फलं गच्छति शकुनिः इत्यादौ कर्मघटितपरम्परासंसर्गावच्छिन्नधेियत्वं सप्तम्यर्थस्तच्च प्रकृत्यर्थविशेषितं फलेऽन्वेति । ननु दर्शिततत्तत्संसर्गावच्छिन्ननानाविधाधेयत्वस्य सप्तम्यर्थत्वे गौरवाद् अधिकरणमेव सप्तम्यर्थो लाघवात् प्रधिकरणस्य खनिरुपितेन तत्तसंसर्गावच्छिन्नाधेयत्वेन संबन्धेन फलव्यापारयोरन्वयान्युपगमान्नानुपपत्तिरिति शाब्दिकमतमेव सम्यगिति चेन्मैवम् । अधिकरणताविशिष्टस्याधिकरणस्य तथात्वे गौरवादाधेयत्वस्य तथात्वे लाघवादिस्यादेहितीयाविवरणे दर्शितत्वात् न चाधिकरणतात्वस्याखगडोपाधितया शक्यतावच्छेदकलाघवादधिकरणत्वस्य तथात्वमस्त्विति वाच्यम् । परम्परान्वयिनोऽधिकरणत्वस्यापेक्षया साक्षादन्वयिन श्राधेयत्वस्यैव तथोत्वौचित्यात् । न च नानासंसर्गावच्छिन्नवस्याधेयत्वे प्रवेशागौरवमिति वा
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सप्तमीविभक्तिविचारः। च्यम् । अधिकरणत्वादावपि तुल्यत्वात् यदि चाधिकरणत्वादेर्नानासंसर्गावच्छिन्नाधेयत्वेन संबन्धेनान्वय इति मन्यते तदाऽऽधेयत्वमेव सप्तम्यर्थस्तस्य कर्ट घटितपरम्परावच्छिन्नाधेयत्वीय स्वरूपेण संबन्धेनान्वय इति नानुपपत्तिः वृत्त्य नियामकसंबन्धस्य प्रतियोगिताऽनवकेदकत्वमतेऽधिकरणत्वादेः सप्तम्यर्थत्वं न युज्यते गेहे न पचति पत्ता वेत्यादौ निषेधप्रतीत्यनुपपत्तरित्यादिकं हितीयोविवरणे दर्शितम । फलव्यापारयोः खाश्रयसंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वस्य सप्तम्यर्थस्यान्वयोऽभ्युपेयते खाश्रयसंबन्धस्तु व चित्संयोगः यथा कट पास्ते चैव इत्यादौ क संयोगः स्वाल्यामोदनं पचतीत्यादौ कर्मसंयोगः क चित्ममवायः यथा घटे रूपमस्तोत्यादौ कटं समवायः असुमिन् गां विक्रीणीत इत्यादौ कर्मगो गो: स्वामित्वं तथा घटे नौलरूपं करोतीत्यादौ कर्मसमवायः क चित्कालिकषिशेषणता यथा पौर्णमास्यां चन्द्र ग्रसते राहुरित्यादौ कट कर्मणोः कालिकविशेषणता यथा क चिद् विषयता इच्छा मोक्षेऽस्तीत्यादौ कर्ट विषयता घटे चाक्षुषं जनयति सूते वा चक्षुष्मानित्यादौ कर्मविषयता क चिदन्यादृशोऽपि स्वाश्रयसंबन्धः प्रयोगानुसाराबोध्य: । अपादानादेः फलव्यापारयोरनधिकरणत्वात्तदधिकरणनिरूपितस्य दर्शितसं. बन्धावच्छिन्नाधेयत्वस्याप्रसिद्ध रपादानाद्यधिकरणस्य म कारकत्वमित्यतः क कर्मणोरेवाधिकरणयोः कारकत्वमाचार्या मन्यन्ते । गुरुचरणास्तु कटे आस्ते चैत्र इत्यादी संयोगावच्छिन्नमाधेयत्वं कट निष्ठ स्थाल्या
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विभक्त्यर्थनिर्णये । मोदनं पचतीत्यादी संयोगावच्छिन्नमाधेयत्वं कर्मनिठं सप्तम्यर्थः कर्ट कर्मनिष्ठयोराधे यत्वयोः सामानाधिकरण्येन संबन्धेन व्यापारफलयोरन्वम दूत्यपादानादिनिष्ठाधेयत्वस्य सामानाधिकरणयेन धात्वर्थेऽन्वयासम्भवान्नापादानाद्यधिकरणस्य कारकत्वमिति एवमाधेयत्वं क चिदाख्यातोपस्थापित कालावच्छिन्नं सप्तम्या प्रत्याय्यते यतो गेहान्निगत्य प्राङ्गणे पचमाने चैवे गेहे चैत्रः पचतौति न प्रयोगः व चिदन्यकालावच्छिन्नमप्याधेयत्वं तथा यथा भाविनौं चैत्राधिकरण तामभिमन्धाय चैवो ग्रामे गच्छतौति प्रयुज्यते। भातपे तिछतौत्यादौ घातपपदमातपसंयुक्तदेशपरमतो नानुपपत्तिः सविषयकार्थधातुयांग विशेष्यतानिरूपित प्रकारत्वस्वरूपं वैज्ञानिकमाधेयत्वं सप्तम्यर्थः यथा शुक्ती रजतत्वं जानातीत्यादौ शक्तिनिष्ठविशेष्यतानिरूपितप्रकारत्वं रजतत्वाद्यात्मककर्मघटितपरम्परया ज्ञानादावन्तौति पदवाक्यरत्नाकरे प्राहुः । सप्तमौ विधाने "तस्येविषयस्य कर्मण्युपसख्यानमिति वार्तिकं तान्तप्रकतिन प्रत्यययोगे कर्मणि सप्तमी विधत्ते । कर्मणि मप्तमी विधानं नित्यमित्येके । वैकल्पिकमित्यन्ये । पधौती वेदेषु वेदान्बेत्यादौ “दृष्टादिभ्यश्चे"ति सूत्रेण विहितस्य तद्विनिप्रत्ययस्य कर्ताऽर्थः सप्तमौद्वितीययोः कमत्वमर्थस्तथा च वेदकर्मताकाध्ययनकर्तेत्यन्वयबोधः । एवमिष्टी सुरेषु सुरान्वेत्यादौ संप्रदानत्वस्वरूपं कर्मत्वं सप्तमौहितीययोरर्थस्तथा च सुरसंप्रदानताकयजनकर्तत्यन्वयबोधः । परिगणितो याज्ञिक याज्ञिकं वे
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सप्तमीविभक्तिविचारः । त्यादौ याचिककर्मताकपरिगमनकर्ता वाक्यार्थ: । पानाती छन्दसि छन्दो वेत्वादाबप्य नया रीत्याऽम्बयो बोध्या । भाम्नानं कथनम् । इष्टादिगण: काशिकारत्तौ द्रष्टव्य इति।
इति विभत्तवर्धनिर्णये कारकसप्तम्यर्थनिर्णयः । नामार्थान्बयिनः दर्शितान्ये क्रियान्वयिनश्च सप्तम्यर्था अकारकतया संजायन्ते तत्र सातम्यधिकरणे चे"ति सूबे चकारः दूरान्तिकार्यकशब्देश्य इव कर्ट कर्माघटितेनापि संबन्धेनाधिकरणेऽवच्छिन्नाधेयत्वे वा सप्तमी विधत्ते अत एव भूतले घट इत्यादौ न सप्तम्यनुपपत्तिः।। यत्तु भूतले घट इत्यादावस्तीतिक्रियाध्या हारेण सप्तस्युपपत्तिरिति शाब्दिकैरुक्तं तदसत् गिरौ वृक्षामि गच्छति विग इत्यादावध्याहारस्य कर्तुभशक्यत्वात् पञ्चम्यन्तार्थस्य तिजथें कट त्वेऽन्वयस्थाव्युत्पन्नत्वात् । श्रत एव"वैदर्भी केलिशैले मरकत शिखरादुत्थितैरंशुदभैरि"त्यादौ न सप्तम्यनुपपत्ति: न चोत्थानक रधिकरणं शैल इति शाम । मत उत्थानाधिकरणमूई देश एव न हि शैल: शिखरादूी भवतीति संबन्धमाबावच्छिन्नमाधेयत्वं सप्तम्यर्थः मोऽधिकरणपदोपादानात्तव स्वाश्रयसंबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं क्रियान्वयिकारकतयोपियत इति तु परमार्थः । एवं भूतले घट दू- ' खादौ संयोगावच्छिन्नमाधेयत्वं सप्तम्यौँ घटादावम्वति तथा च भूतलतिवट इत्यादिरवियबोध: । घटे रूपमित्यादौ समबायावच्छिन्नं स्फटिके जवालौहित्यमित्यादौ परम्परासंबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं सप्तग्यर्थः ।
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- बिभक्त्यर्थनिर्णये । धनं दुरधिकारिणि इत्यादी स्वामित्वावच्छिन्द्राधेयत्वं सप्तम्यर्थः । गोषु प्रभुः मगधेषु राजत्यादौ स्वत्वसंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वं सप्तम्यर्थः । स्फटिके लौहित्ये जपाकुसुममुपाधिरित्यादौ स्वेतरविशेष्यता कस्वधर्मप्रकारताकज्ञानजनक उपाधिशब्दार्थस्तव लौहित्याधेयत्वं प्रकारतायां स्फटिकाधेयत्वं विशेष्यतायामन्वेति स्फटिकलौहित्येयमुपाधिरित्यत्र स्वप्रकारताकत्तानविशेष्यतासंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वात्मकस्फटिकपदलक्ष्यस्तादात्म्येन लौहित्येऽन्वेति तादृशलौहित्याधेयत्वस्योपाधिशब्दाथै कदेशे प्रकारत्वे पूर्वबदन्वयो व्युत्पत्तिवैचिल्यादिति । धूमे साध्ये वन्ही हेतावादॆन्धनसुपाधिरित्यत्र साध्यव्यापक उपाधिशब्दार्थस्तादात्म्य नाट्रेन्धनान्वेति तादृशार्दैन्धने व्याप्यत्वसंबन्धावच्छिन्नं धूमाधयत्वमन्वेति । अत एव व्याप्यत्वव्यभिचारित्वसंबन्धौ वृत्त्यनियामकाविति तान्त्रिकाः । साध्यशब्दार्थस्तु सिसाधयिषोद्देश्यसि विविधयताऽ वच्छेदकधर्मवान्बोध्य इति । प्रभाते गोष्ठे मध्यान्हे कच्छे गौरित्यादौ कालिकसंबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं सप्तम्यर्थः । यदि च कालिकाधे यत्वं गोष्ठादिदेशाविशेषणतया भासते तदाऽवच्छेदकतात्वेन व्यपदिश्यते अत एवापच्छेदकत्वार्थिका सप्तमीति मन्यन्ते तान्त्रिकाः । न हि स्वरूपसंबन्धविशेषोऽतिरिक्तं वाऽवच्छेदकत्वं सप्तम्यर्थः सम्भवति अनुशासनविरहात् । एवं गोष्ठादिदेशाधेयत्वं यदि प्रभातादिकाल विशेषणतया प्रतीयते तदा तदपि दैशिकावच्छेदकतात्वेन व्य पदिश्यते । न च देशाधेयत्वेन प्रभातादिकालविशेषणं सम्भवति अव्यावर्तकत्वादिति
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सप्तमीविभक्तिविचारः ।
वाच्यम् । होपान्तरप्रभातव्यावर्तकै तही पटत्तित्वस्येव गोडादिवृत्तित्वस्यापि व्यावर्तकत्वसम्भवात् यत्र तु देशककालिकाधेयत्वयोः कालदेशयोर्न विशेषणत्वमव्यावर्तकत्वात् तत्र नावच्छेद्यावच्छेदकभाव उपेयते यथा . इदानीं गुणे सत्तेत्यादौ चत्र गुणाधेयत्वं न प्रत्यक्षकाले प्रत्यक्ष कालप्तित्वं वा गुणे विशेषणमव्यावर्त्तकत्वात् किं तु प्रत्यक्षकालाधेयत्वं गुणाधेयत्वं च खातन्त्र्येण सत्तायामेव प्रतीयतेऽन्यथानुपपत्तेरिति । एवं वृक्षे शाखायां कपिसंयोग इत्यादौ शाखाधेयत्वं वृक्षविशेषग्रामिति शाखाऽवच्छेदकत्वेन व्यपदिश्यत इति । " यमिनग्नौ पचेदन्नं तत्र होमो विधीयते" इत्यादौ प्रयोजनकव्यापारस्वरूपः संबन्धो वृत्तिनियामकस्तत्संबन्धावच्छि नामाधेयत्वं सप्तव्यर्थो वन्हिविशेषितः पाकेऽन्वेति पत एव व्यापारस्तत्प्रयोज्यत्वं वा सप्तम्यर्थ इति तान्त्रिकवाको दर्शिताधेयत्वमेव व्यापारादिशब्देन व्यपदिश्यत इति । क्व चिद्यापकता संबन्धोऽपि वृत्तिनियामकः यथा कारणतायामनन्यथोसिडिर्नियतपूर्ववर्तित्वं वेत्यादौ अत्र व्यापकतासंबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं सप्तम्यर्थो अन्यथासिद्दिविरहे नियतपूर्ववर्तित्वे चान्येति व्यापकवार्थिका सप्तमीति तान्त्रिकवाक्ये व्यापकत्वशब्देन व्यापकत्व संबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वं प्रत्याय्यते अतो व्यापकवस्य न सप्तम्यर्थत्वमनुशासनविरहादिति प्रत्युक्तम् । साधुशब्दस्य सङ्केत संबन्धोऽपि वृत्तिनियामकः यथा कर्तरि कृत् भू सत्तायामित्यादावनुशासने "विनायके विधुराजद्वैमातुरगाधिपा" इत्यादी कोशे अत्र सङ्केतसंबन्धा
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
४४३ वच्छिन्नाधेयत्वं सप्तम्यर्थः कृच्छब्दार्थे तिङन्यप्रत्यये भूधातौ विघुराजादिशब्दे चान्वेति । ननु भूसत्तायामित्यन भूशन्दे कथं सप्तम्यर्थस्यान्वयबोधः स्वरुपपरशब्दस्य सुप्र. कृतेरेव साधुत्वात् न च स्वरूपपरस्यापि धातुशब्दस्याधातुरितिपर्यदासात्प्रातिपदिकसंज्ञाविरहात्सप्रकृतित्वविरहेऽपि साधुत्वान्नानुपपत्तिरिति शाब्दिकमतं युक्तमिति वाच्यं तथा सति भुवो वुगि"त्यत्र "भाषायां सदवसश्रुव" इत्यत्र च निर्देशे धातुशब्दस्य सुपप्रकृतित्वविरहप्रसङ्गात् । न च श्रीनोपस्थिते भूशब्दे सप्तम्यर्थस्यान्वयबोध इति वाच्यम् । वृत्त्या शन्देनोपस्थापित एवार्थे तथाभूतस्यार्थस्यान्वयबुद्धेव्युत्पत्तिसिद्धत्वाद् वृत्त्यनुपस्थापितेऽर्थेऽन्वयबोधस्थाप्रामाणिकत्वाद् अन्यथा श्रोत्रीपस्थिते मृदङ्गशन्दे गुणपदोपस्थापितगुणस्थ तादात्म्येनान्वयबोधसामग्री सत्त्वात् मृदङ्गशब्दो गुण इत्यन्वयबोधप्रसङ्गादिति चेत् । अत्र गुण चरणाः । यदर्थशयाँ धातुत्वं निपातत्वं वा शब्दानां तदर्थ संबन्धस्वरूपलक्षणायामपि तेषां शब्दानां धातुत्वं निपातत्वं वाऽक्षतमेवेति यथा वाशब्दस्य गत्यात्यर्थकत्वे धातुत्वं विकल्याद्यर्थकत्वे निपातत्वं तत्तदर्थसंवन्धस्वरूपलक्षणायां धातुत्वं निपातत्वं चेति भूशब्दस्य स्ववाच्यवाचकत्वस्वरूपलक्षणायां धोतुत्वं निराबाधमिति भूशब्दस्य न सुप्पकृतित्वमिति भूधात्वर्थे स्ववाच्यवाचकत्वेन लक्ष्ये भूशब्दे सप्तम्यर्थस्थान्वय इति न काऽप्यनुपपत्तिरिति प्राहुः । के चित्तु अनुकरण शब्दा: साधब इति सामान्यत एव भूसत्तायामित्यनेन जायते अत एव गविवाह मतिनानौते प्र
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सप्तमीविभक्तिविचारः । त्यक्षविल्यादौत्यादिष्वनुकरण निरर्थक शब्दान्तर्गतस्यैचीऽवादेश: हेलयो हेलय इति वदन्तोऽसुराः पराबभूवरिति श्रुतापनशानुकरणालयशब्दान्तर्गतस्याकारस्य पूर्वरूपत्वं सङ्गच्छते अन्यथाऽवादिविधीनां साधुशब्दमात्रविषयतया गोआलोक लञ्जिबईइत्यादी भाषायामिव 4सक्तिन स्वादिति अनुकरणसाधुभूते भूशब्दे श्रोवोपपस्थिते सप्तम्यर्थस्यान्वयः अत एवथोत्रोपस्थिते पचतीतिशब्दे पाक करोतीति विवरणवाक्यार्थस्य पाककर्तत्वस्य प्रतिपादकतया मंसमेंणान्वयः विरगावाक्य तिङः साधुत्वार्थ प्रयोगः । अथ वा विवरणवाक्यं पाककर्मत्वमिक करणाश्रयत्वमधिकं प्रतिपादयदपि पाककट त्वमर्थतः प्रतिपादय तौति याककट वन्य प्रतिपादकतया विवियमाणे पचतीतिवाक्यन्वयः न हि विवरणविनियमाणवाक्ययोरन्यूनानतिरिक्ता कतानियमः । एवं चान्वाचयसमाहार इतरेतरसमुच्चय इत्यादावप्यन्वयो बोध्य इत्याहुः । तन्न सुन्दरम् । अनुकरणशब्दस्य विभक्तिविनाकृतस्य थोत्वोपस्थितस्यान्वयोपगमें शब्दो गोइत्यादावष्यन्वयबोधप्रसङ्गात् । अनुकरणशब्दस्यान्वयोपगमेऽप्यनुकार्यशब्दस्यान्वयानुपपत्तेश्चानुकायस्य साधुतायाः केनाप्यतापनात् पचतील्यादौ तु पचे: पचतिपदे तिङः प्रतिपाद्यत्त्व लक्षणा पचतिप्रतिपाद्यत्वविवरणवाक्याथै पाककर्ट त्वेऽन्वेति तिर्थस्य प्रथमान्तार्थ' व तिङन्तार्थोऽप्यन्वयोपगमात् अत एव पचतिभवतीत्यादावन्वयोपपत्तिरिति चान्बाचय इत्यादौ चशब्दस्य निपाततया तदर्थवाचकवलक्षणायामपि निपाततया भू सत्तायामि
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
त्यादाविवान्वयोपपत्तिः सम्भवतीति गुरुचरणादर्शितरौतिः । वस्तुतस्तु शब्देनार्थ इवार्थेनापि शब्द: स्मार्यते शब्दार्थयोरुभयोः सङ्केतसंबन्धेन संबन्धित्वाद् अत एवार्थं ज्ञात्वा अर्थेन तहाचकशब्दं कृत्वा वाक्यं प्रयुञ्जते प्रयोक्तारः तथा च यथा किं पचतिभवतीतिप्रश्न वधूपदर्शितकलायादौ कलायादिदर्शनेन कलायादिवाचक कलायादिपदं द्वितीयान्तं स्मृतवतः प्रष्टुः कलायं भवतोपचतोय्यन्वयबोधो भवति तथा भूशब्द स्वरूपार्थेन स्वरूपपरो भूशब्दः प्रथमातः स्मार्यते तेन तु भूशब्दस्वरूपोऽर्थः स्मार्यते तत्र भूशब्दे सङ्केतसंबन्धावच्छिन्नस्य स - ताssधेयत्वस्यान्यय इति न काऽप्यनुपपत्तिरिति यदि च वध पदर्शितक लायादौ कलायं पचतीति मानसोपनीतभानमेव तदा सत्ताऽऽधेयत्वस्य भूशब्दे मानसोपनीतभानमेवेति इयमेव रोतिः चान्वाचय इत्यादी - चति पाकं करोतीत्यादिविवरणे च बोध्येति । एवं वाचकत्वार्थी सप्तमीति तान्त्रिकवाक्ये वाचकत्वशब्देन सङ्केतसंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वमेव व्यपदिश्यते अतो वाचकत्वस्य सप्तम्यर्थत्वे अनुशासनविरहेऽपि न चतिः । ढ़ाने बलिः काव्ये कालिदासस्तपसि धूर्जटिरयमित्यादौ बलिप्रभृतिपदानां वल्यादिसदृशे लक्षणा कर्तृतानिपकसंबन्धावच्छिन्नं दानाद्याधेयत्वम् इदंपदार्थे पुंस्यन्वेति विशिष्टान्वयबलाद्दानवैशिष्ट्यमपि पुंसि प्रतीयते तथा चवल्यादिसादृश्यं दानादिकं प्रतीयते अथ वा सप्तम्यन्तदानादिशब्दसमभिव्याहारबलाद्दानादिम्वरूपतादाम्येन वल्यादिपदार्थानामिदंपदार्थे पुंस्यन्वयः यथा
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सप्तमीविभक्तिविचारः । ला आसते । भोजनकर्तृत्वस्वरूपकारकत्वस्याहता ऋ-" द्धानां तरण कर्तृत्वस्याहता सदाह्मणानां च प्रप्तिबैव । सप्तम्या: समान कालिकत्वमर्थ श्रासने धात्वर्थे न्वेति । तब भुञ्जान ऋविशिष्टसमानकालिकत्वं विशेषणभोजनसमान कालिकत्वमप्यादाय पर्यवस्यति विशिष्टान्वय बलात् तथा च भुञ्जाम ऋद्धसमान कालिकासनक
प्रो दरिट्रा इत्यादिरन्वयबोधः । ब्राह्मणेषु पुज्यमानेषु सट्रास्तिरक्रियन्ते इत्यादावर्हाणां कर्मत्वे सप्तमी बोध्या अनहींणामकारकत्वे यथा दरिद्र ष्वासोनेषु ब्राह्मणास्तरन्ति तरणं तु सत्यनुकूल वैदिक कर्म तविपर्यये यथा ऋड्वेष्वासोनेषु दरिद्रा भुञ्जते ब्राह्मणेप्रवासीनेषु वृषलास्तरन्नीत्यादौ दर्शितरीत्याऽऽसनभोज नयोरासनतरण यो: समान कालिकत्वं प्रतीयते । अत्र “यस्य च भावेने तिसूत्रेणैव क्रियवो: समानकालिकत्वं जाप्यते अतो व्यर्थमेवेदं वार्तिकमिति । यदि च कटवेष भुञ्जानेषु दरिद्रा अासत इत्यादौ ऋभुञ्जाजसमानदेशत्वं समाने प्रतीयमानं विशिष्टान्वयबलाद्.भोजनसमानदेशत्वमपि आसने प्रत्याययति तदा क्रिययोः समानदेश व प्रतौति फलकतया नास्य वार्तिकस्य वैयर्थ्यमिति । "निमित्तात्कर्मयोगे सप्तमी वक्तव्य"ति वातिक कर्मयोगे सति निमिल्लवाचकपदात्सप्तमी भवतीत्यर्थकं निमित्त सप्तमौं विदधाति । कर्म धात्वर्थफलवत् तस्य योगः क चित्समवायः क चित्संयोगः हौपिन: कर्मणा: चर्मणि समवायः । कुञ्जरस्य कर्मणाः दन्तयोः संयोग इति शाब्दिकाः । यस्य प्राप्तिः क्रियाफलं त
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विभक्त्यर्थनिर्णये। निमित्तं तत्र सप्तमौ भवतीति यथा।
चर्मणि हौपिनं हन्ति दन्त योर्हन्ति कुञ्जरम् ।
केशेषु चमरौं हन्ति सौम्नि पुष्कलको हतः ॥ . - इत्यादौ सप्तम्याः प्राप्तिः स्वस्वामिभावादिसंबन्धोऽर्थः स तु धात्वर्थे हननादावनुकूलतयाऽन्वेति तथा च चर्मप्राप्तिफल के हौपिहननमित्यादिर्वाक्यार्यः। सौमाऽण्ड' कोशः । पुष्कल को गन्धम्मगः । ' मौमाऽघाटस्थितक्षेचेष्वण्ड कोशेषु च खियाम् ।।
- अथ पुष्कल को गन्धमगे क्षपणकोलयोः ।। ___इति मेदिनौकारः । मौमा घाटम्तज्तानार्थं पुष्क
लकः शङ्कनिहतो निखात इत्यर्थ इति हरदत्तः । निमित्तं फलं तत्र हेतुटतौयावत् तादर्थ्य चतुर्थीव त्मप्तमी भवतीति शोब्दिकाः । तत्तु चिन्त्यम् । न हि चर्म हौपिहननफलं हननात्यागेव द्वौपिचर्मणः सिद्धत्त्वात् । अध्ययनेन वसति यूपाय दारु चेत्यादौ वासात्मागश्ययनस्य दारुतः प्राक यूपस्य च सिद्धत्वात् भवति वासस्याध्ययनफलकत्वं दारुगो यूपार्थकत्वं चेति यदि च हौपिनं हन्तुन चर्मप्राप्तिः किं तु बलादाहरन्यस्य तत्रापि दशितप्रयोगोऽभ्यु पयते तदा सप्तम्याः प्राप्तीच्छवार्थस्तस्याः प्रयोज्यतया धात्वर्थे हननेऽन्चयः । अत एव । . . हन्तः कर्मण्युपष्टब्धात् प्राप्तुमर्थे तु सप्तमौं ।
चतुर्थीबाधिकामाहुः शिलिभागुरिवाग्भटाः ॥ इति हरिरप्या ह । उपष्टम्भः संयोगविशेष: स च कुञ्चरे हननकर्मणि दन्तयोरति दृढः हौपिनि हननकमग यवयवे प्रारम्भ कसंयोग स्वरूपः गोत्वादिवत् हौपि
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सप्तमीविभक्तिविचारः
त्वादिजातेरवयवावयविवृत्तित्वादवयवस्यापि हौपित्वं "क्रियार्थोपपदस्येति सूत्रेण प्रसक्तायाः चतुर्ष्याः हन्तिकर्मोपष्टदेवाधिका सप्तमी न तु सर्वत्र तथासति "क्रियार्थोपपदस्ये" ति सूत्रवैयर्थ्यापत्तेः । दार्शनिकास्तु कर्म क्रिया तस्या योगे संबन्धे निमित्त वाचकात्सप्तमौ भवतौति वार्तिकार्थः निमित्तं तु यत्प्राप्तीच्छा प्रयोज्या यत्प्रयोजिका क्रिया तदुभयं तत्राद्ये चर्मणि होपिनमित्यादौ सप्तमी अन्तेऽविद्यारजनोचये यदुदेतो त्या दो सप्तमौ तथा च चर्मणोत्यत्र सप्तम्याः प्राप्तीच्चैवार्थः अविद्यारजनौ च्छाये इत्यादौ तादर्थ्यमनुकूलत्वं सप्तम्या अर्थ: अनुकूलत्वे चतुर्थी तृतीया सप्तमी भवतीति न परस्परं तासां बाध्यबाधकभाव इति एवं सहकारित्वं जनकत्वं च निमित्तत्वं तत्रादद्यं यथा उपरागे स्नानं विवाहे श्राद्धमित्यादौ अत्र सप्तम्याः स्वजन्येष्टविशेष जनकत्वमर्थः स्नानादावन्वेति । एवं गृहस्थादावारे भग्ने इन्द्रबाहुर्बद्धव्यः पायसं ब्राह्मणो भोजयितव्य इत्यादावपि स्वजन्येष्टजनकत्वं सप्तम्यर्थ इन्द्रबाहु - न्धनादावन्वेति । द्वितीयं यथा गोवधे प्रायश्चित्तमित्यादी व हरितनाशकत्वं प्रायश्चित्तशब्दार्थः सप्तम्या नन्यत्वमर्थः प्रायश्चित्तैकदेशे दुरितेऽन्येति । एवमन्यवापि निमित्तत्वं बोध्यमित्याहुः । क्रियान्तर समभिव्याहारे सति कालार्थककदन्तात्सप्तमीं ज्ञापयति । " यस्य च भावन भावलक्षणमिति सूत्रम् । भावः क्रिया यस्य च भावेन क्रियाऽन्तरं लक्ष्यते ततो भाववतः सप्तमी भवतीत्यर्थकम् । अव भाववान् कालार्थक कदन्तार्थो
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_ विभक्त्यर्थनिर्णये । - बोध्यः । कालार्थकेत्युपादानात् पुरुषेषु पाचकेषु व्रजतोति न प्रयोगः । कृदुपादानात् पुरुषेषु दृष्टचरेषु गच्छतौति न प्रयोगः । एवं गोषु दुद्यमानासु गत दूत्यादौ सप्तम्याः कालतित्वमर्थ: काले प्रकृत्यर्थस्य स्वसंबन्धिभावस्याधिकरणतया तत्प्रागभावाधिकरणतया तन्नाशाधिकरणतया वा यथायोग्यमन्वय: विद्यमानदोहनकर्मणां दुद्यमानशब्दार्थानां गोषु तादात्म्येनान्वयः तथाभूतानां गवा सप्तम्यर्थैकदेशे काले स्त्रकमकदोहनाधिकरणतया ऽन्वयः तथाभूतस्य सप्तम्यर्थस्य कालत्ति वस्यागमनादौ क्रियान्तरोन्वयः तथा च विद्यमानदोहनकर्माभिन्नानां गवां स्वकर्मकदोहनाधिकरणं यः कालस्तद्वत्त्यतीतं यदागमनं तत्कर्तेत्यन्वयबोध: कर्मपारतन्व्येण भासमानाया दोहनक्रियया आगमनेऽपि कालघटितपरम्परयान्वयः विशिष्टान्वयसामग्रीबलात् क्रियायां परम्परया विशेषणत्वमेवोपलक्षकत्वमिति । एवं गोषु धोक्ष्यमाणासु दुग्धासु वागत इत्यादौ सप्तम्यर्थे कदेशे काले गवादेः स्वकर्मकदीहनस्य प्रागभावाधिकरणतया नाशाधिकरणतया वाउन्धयः पूर्ववदन्वयबोधः । प्रकृते दोहनादौनां विद्यमानत्वभावित्वातीतत्वानि क्रियाऽन्तरकालवर्तमानत्वतथाविधका लवृत्तिप्रागभावप्रतियोगिकालवर्तिवतथाविधकालत्तिनाशप्रतियोगिकालवर्तित्वानि बोध्यानि न तु प्रयोगाधिकरण कालघटितानि वर्तमानत्वादोनि तथासति भागत इत्यत्र निष्ठार्थातीतत्वादेरनम्बयप्र. सङ्गात् । एवं “नष्टेषु धार्तराष्ट्रषु दौणिः सुप्तान न
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सप्तमीविभक्तिबिचारः । घाने"त्यादौ सप्तम्यर्थै कदेशे काले स्वकटकनाशाधिकरणतया प्रकत्यर्थस्य धार्तराष्ट्रादेरन्वय: निष्ठार्थातीतवं विद्यमान नाशप्रतियोगिकालत्तित्वस्वरूपं नाशेइन्वेति तथा च विद्यमान नाशप्रतियोगिकालत्तिनाशप्रतियोग्यभिन्नानां धार्तराष्ट्रागणां स्वकर्ट कनाशाधिकरणं यः कालस्तत्कालत्तिसुप्तकर्मक यदतीतं हननं तत्कर्ता द्रौणिरित्यन्वयबोध: कालार्थककदन्तार्थविशिष्टप्रकृत्यान्वितः प्रदर्शितसप्तम्यर्थों भावे एवान्वेति न तु नामार्थेऽतो गोषु दुद्यमानासु घट इत्यादौ नान्वयबोधः । यत्त गोषु दुद्यमानास्वागत इत्यादी गोपदोत्तरमातम्या: कर्मत्वमर्थो दोहनादौ धात्व न्वेति कदन्तोत्तरसप्तम्या: कालवृत्तित्वमर्थः शानजादिकृतां भावविहितत्वावर्तमानत्वमर्थस्तथा च गोकर्मकवर्तमानदोहन कालत्यागमनवानित्यन्वयबोध इति तन्न सुन्दरम् । गवादौ दुद्यमानाभेदान्वयबोधस्यापला. . पप्रसङ्गात् भावशानजादिकृदन्तस्य नपुंसकत्वनिय-' मात् गोषु दुद्यमाने समागत इत्यादिप्रयोगप्रसगात् गोषु दुद्यमानास्वागत इत्यादिप्रयोगस्यासाधुत्त्वप्रमगात्सप्तम्याः कर्मत्वार्थकत्वमपि न युज्यते ऽनुशासनविरहात् गेषु यान्तीषु गच्छतोत्यादी . कत्तुं कृदन्तेऽपि सप्तमीप्रयोगादिति । एवं "भुक्तावत्सु च विप्रेषु पिण्डान्दर्भेषु निर्वपदि"त्यादौ ससम्यर्थेक देशे कालेऽतीतभोजन कर्तुः स्वकर्ट कभंजननाशाधिकरण तयाऽन्वयः भोजनस्य तु स्वनाशसमान कालिकतया निर्वापेऽन्वयः विशिष्टान्वयबलादिति । क चि
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विभक्त्यर्थनिर्णये। , ४५३ समानकालिकतथा क्रिययोरन्वये क चित्खनाशकालिकतया क्रिययोरन्वये प्रयोज्य प्रयोजकमावेनाप्यन्वयः यथा “पठत्सु तेषु प्रतिभूपतीनलं विनि ट्ररोमाऽजनि शृरावती नलमि"त्यादौ प्रतिभूपतिपाठनल श्रवगायोः समानकालिकत याऽन्वयेऽपि प्रयोज्यप्रयोजकभावेनाप्यन्वयः .. यथा वा“गोविन्दे मथुरां याते व्य थन्ते गोपयोषित" दूत्योदौ गोविन्दगमनस्य स्वनाशकालिकतया गोपीव्यथायामन्वयेऽपि प्रयोज्यप्रयोजकभावेनाप्यन्वयः । एवं सूत्रे भावलक्षणमित्यत्र भावः स्वभाव: स्वरूपमिति यावत् तथा च स्वरूपस्य लक्षणं विशिष्टतया तापनमित्यपि सचार्थ: अत एव गुणान्यत्वे सति जातेः सत्त्वाहेत्यादी . न सप्तम्यनुपपत्तिः गुणान्यत्वसामानाधिकरण्येन विशेषणेन जाते: सत्ताया वा विशिष्टतया ज्ञापनमिति सप्तमी साधुरेव । अत्र शत्रन्तासधात्वर्थस्य वर्तमानकालत्तिसत्ताविशिष्टस्य तादात्म्येन गुणान्यत्वादावन्वयाद गणान्यत्वादिशब्दानन्तरसप्तम्या . अधिकरणवृत्तित्त्वमेवार्थस्तच्च जाती सत्तादौ वाऽन्वेति वर्तमानकालवत्तिसत्ताविशिष्टस्य तादात्म्यान्वयबलादेव गुणान्यत्वादिकालवर्तित्वस्यार्थत एव लाभात् न कालत्तित्वं सप्तम्यर्थ इत्यधिकरण वृत्तित्वम्वरूपसप्तम्यर्थलाभार्थमेव सतौतिशवन्तोपादानं न तु तदर्थस्य हेतुतावच्छेद केऽनुप्रवेश: सामानाधिकरण्येन गुणान्यत्वविशिष्ट जातित्वादेव तथात्वादिति दर्शितप्रयोगेऽपि सप्तम्युपपत्तिरिति । यत्तु शरदि पुष्यन्ति सप्तच्छदा इत्यादावुत्पत्तिरूपस्य जापनार्थमथ वा पुष्योत्पत्तिमत्त्व विशिष्टसप्तच्छदवा
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सप्तमीविभक्तिविचारः ।
वच्छेदेन शरदादिवृत्तित्वस्यान्वयार्थं कालभावयोरिति कुमारसूत्रेण काले सप्तम्या विध्यन्तरमन्यथा शरदि पुष्यन्ति पलाशा इत्यादिप्रयोगप्रसङ्गः शरदृष्टत्तित्वस्य पलाशे पुष्पे वा सत्त्वादिति काला पैरुक्तम् । तदसत् । पुष्यत्यर्थे पुष्पोत्पत्तौ शरदृत्तित्वस्यान्ययोपगमादेव दशिंतप्रयोगवारणसम्भवात् कारकान्य सप्तम्यर्थस्य क्रियायां साक्षादन्वयोपगमात् शुक्तौ रजतत्वं जानातीत्याही विशेष्यता संसर्गावच्छिन्नस्य शक्त्या धेयत्वादेरिव ज्ञानादौ तथा च न काऽप्यनुपपत्तिरिति काले सप्तमीविध्यन्तरं निष्प्रामाणिकमेव शरदि पुष्यन्ति सप्तच्छदा इत्यव पुष्यतेः पुष्पोत्पत्तिरर्थस्तिङः पुष्पघटितपर'म्परामं सर्गावच्छिन्नाश्रयत्वमर्थः सप्तम्या: कालिकसंव-. janataयत्वमर्थः तथा च शरदृत्तेः पुष्पोत्पत्तेरेवाश्रयाः सप्तच्छदा इत्यन्वयबोधः । एवं शरदि पुष्यन्ति पद्मिन्य इत्यादावप्यनया सत्याऽन्वयो बोध्य इति न च पुष्यतेः पुष्पमर्थस्तिङ श्राश्रयत्वमत एव सप्तम्या उत्यत्तिरर्थ इति वाच्यम् । तथा सति माल्य गुणो वा पुण्यतौतिप्रयोगापत्तेः न च पुष्यतेः पुष्पन्तिड उत्पत्तिरर्थ उत्पत्तेः परम्परता प्रथमान्तार्थे सप्तम्यर्थस्याधेयत्वस्योत्पत्तावन्वय इति वाच्यम् । सुबर्थतिङर्थयोः परस्पराऽन्त्रयस्य सर्वत्वानभ्युपेतत्वात् तिङर्थस्य प्रथमान्तार्थे साचादेवान्वयस्य व्युत्पन्नत्वाद् अन्यथा ज्ञानं सुखं द्वेषो वा पचतीतिप्रयोगप्रङ गात् तिङर्थकृतेः सामानाधिकरण्येन ज्ञानादेरन्वयसम्भवादिति पूर्वोक्तरोतिः श्रेयसीति । षध्या सह वैकल्पिक सप्तमीं ज्ञापयति । " षष्ठी
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विभक्त्यर्थनिर्णये। चानारे" इति सूत्रम् । अनादरे अधिक भावलक्षकभाववत: षष्ठी भवति चकारात्मप्तमी भवतीत्यर्थकम् । रुदतो रुदति वा प्रावाजी दिल्यादौ षष्ठीसप्तम्योः पूर्वोक्त कालत्तित्वमनादरोऽधिकश्वार्थ: सोऽपि समानकालिकतया क्रियान्तरेवेति अनादरोऽवहेला सा च समोहिनासिद्धि स्वरूपा रुदत: समीहितं तत्पुरुषम्य गार्हस्थ्यं प्रव्रज्याविरहो वा तदसिद्धिः प्रव्रजने सति भवत्येव तथा च रुदत्काल त्तिरुदत्समौहितस्य गार्हस्थ्यादेशप्तिद्धिकालिको याऽतीतकालयत्तिप्रव्रज्या तत्कट त्वं वाक्यार्थः । अनादरस्य नोत्तरकालिकतयाऽन्वयः समौहितस्य प्रवज्याविरहस्याभावः प्रव्रज्या तत्स्वरूपं क्रियाऽन्तरं न तदु तरकालिकं भवतीत्यनुपपत्तिप्रसङ्गात् । यत्त क्रोशन्तमनादृत्य प्रावाजौदिति काशिकावृत्तावुक्तं तत्त मुखं व्यादाय स्वपितौयादाविव ल्यपः समान कालिक- । कत्वार्थकत्वाभिप्रायेण । एवं पश्यतो वा सुवर्ण हरतीत्यादौ हरणाभाव एव द्रष्टुः समोहितः । एवं यतमानानां यतमानेषु वा जयद्रथमवधीत्फाल्गुन इत्यादौ यतमानानां जयद्रथस्य रक्षगां वधाभावो वा समाहितः । यदहे ग्यकेच्छाप्रयोज्या क्रिया क्रियान्तरं लक्षयति तस्वेच्छोद्देश्यस्यासिद्धिः समोहितासिद्धिोध्या तेन सुचानम्य भुचाने वा स्वणं हरतीति न प्रयोगः यतः स्वगहरणाभावोद्देश्य के छाप्रयोज्या न भोजन क्रियेति तथाभूतेच्छाप्रयोज्या दर्शनक्रियेति पश्यति पश्यतो वा हरतीति प्रयोगे रोदनादिक्रियायाः करुणोत्पादनहारा प्रव्रज्याविरहानुगुणत्वावगमात् प्रव्रज्यादिविरहोहे
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सप्तमीविभक्तिविचारः
श्यकेच्छाप्रयोज्यत्वं रोदनक्रियाया इति । अथ वा तथाभूतेच्छोद्देश्यस्य विरोधिनी क्रियाडनादरस्तत्र क्रिया धातूणचैव तथाभूतेच्छोद्देश्यविरोध एव षष्ठमप्तम्योरर्थः । विरोधस्तु एककालावच्छेदेनैकवावर्तमानत्व तथा च इच्छोद्देश्यो यः प्रव्रज्याविरहादि: तरुिद्दमaौतकालवृत्ति प्रव्रज्यादिकं वाक्यार्थ इति । कतिपयशब्दयोगे षष्ठीसमानार्थिकां सप्तम ज्ञापपति ।" स्वामौश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रभूतैश्च" इति सूत्रम् ।
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खामिन्ईश्वर अधिपतिदायादसाचिन्प्रतिभूप्रसूतइत्येतेप्रशब्देर्योगेषु षठोसप्तम्यौ विभक्तौ भवत इत्यर्थकम् । गवां गोषु वा स्वामौ इत्यादौ षष्ठौ सप्तम्योः स्वामित्वानवयिनिरूपितत्वमर्थः गवां गोषु वा ईश्वर इत्यादावपि तयोरैश्वर्यान्वयितदेवार्थं ऐश्ययं स्वामित्वमेव । अथ वा ऐश्ययं सामर्थ्यं स्वत्वोत्पादकत्वं तत्र स्वत्वानवय्याधेयत्वं तयोरर्थः गवां गोषु वाऽधिपतिरित्या - दावधिपतिशब्दः स्वामिपर्यायस्तत्व स्वामिशब्दयोगव-. द्रोतिः । गवां गोषु वा दायाद इत्यादी दायादशब्दस्य धनग्राहकोऽर्थस्तव धनान्वयितादाम्यं तयोरर्थ इति । गवां गोषु वा साक्षीत्यादौ वृत्त निश्चयप्रमावान् साचिशब्दार्थस्तव वृत्तान्वयिसंबन्धस्तयोरर्थं इति । गवां गोषु वा प्रतिभूरित्यादावन्यकर्ट कावधिकालिकधनदानाभावप्रयोग्यधनदानकर्ता प्रतिभूशब्दार्थस्तव हितोयधनान्वयितादात्म्यं तयोरर्थं इति । वादिनो वा दिनि वा प्रतिभूरित्यादाववधिका लिक दर्शनकर्ता प्रतिभूशब्दार्थः तत्र दर्शनान्वयिविषयत्वं तयोरर्थ इति
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
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गवां गोषु वा प्रसूतइत्यादी प्रसवकर्मप्रसूतशब्दार्थस्तव प्रसवान्वयिविज्ञानानुगुणत्वं तयोरर्थं इति श्रत एव गवां गोषु वा प्रसूतइत्यत्र गा एवानुभवितुं जात इत्यर्थ इति शाब्दिकाः । वस्तुतस्तु प्रसवान्वयिधर्मोपार्जकत्वं तयोरर्थस्तथा च गोधर्मोपार्जक प्रसव कर्मेत्यन्वयबोधः गोधर्मी नायादिः अत एव तदन्वये शुद्दिमति प्रसूतः मित्र" इत्यादौ तदन्वयधर्मः शुद्धिमत्वं प्रसूते दिपे युक्तमिति । क्रियाप्रयोजकत्वार्थिकां षट्या सह सप्तम ज्ञापयति । "आयुक्त कुशलाभ्यां चासेवायामि" ति सूत्रम् आयुक्त इति कुशल इत्येताभ्यां शब्दाभ्यां योगे
start मिक्तौ भवत सेवायां गव्यमानायामित्यर्थकम् । आसेवा तात्पर्यम् आयुक्तः कृष्णा पूजनस्य - ष्णपूजने वा इत्यादी व्याष्टत आयुक्तशब्दार्थस्तव व्यापारान्वयिप्रयोजकत्वं षष्ठीसप्तम्योरर्थस्तथा च कृष्णपूजन प्रयोजक व्यापाराश्रय इत्यन्वयबोधः । कुशलः कृष्णा पूननस्य कृष्ण पूजने वा इत्यादी कुशलशब्दार्थों दचः स च पुनः पुनः कर्ता वापि पुनः पुनः करणान्व विप्रयोजकraha तयोरर्थ इति तथा च कृष्णपूजनप्रयोजकपुन:पुनःकरणाश्रय इत्यन्वयबोधः एवमेव आयुक्तः पटकरणस्य पटकरणे वा कुशल: पटकरणस्य पटकरणे वा इति काशिकीदाहरणेऽप्यन्वयो बोध्यः । यत्र क्रियान्तात्पर्यं नास्ति तव न षष्ठो यथा आयुक्तो गौः शकटे इत्यादी पत्र न षष्ठौ साधुः श्रायुक्त इत्यस्य द्वेषद्युक्तो ऽर्यस्तथा च यत्र व्यापृतादिरायुक्तादिशब्दार्थस्तव क्रियान्तरतात्पये सति षष्ठौ साधुरिति । निर्धारणा
५.द
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सप्तमीविभक्तिविचारः
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र्थिकां वया सह सप्तम ज्ञापयति । "यतश्च निर्धारण" इति सूत्रं यतो निर्धारणं ततः षष्ठोसप्तम्यौ विभक्तौ भवत इत्यर्थक निर्धारणं तु एकदेशस्य पृथग्भाव: अत एव समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणं निर्धारणमिति काशिकायामुक्तं गवां गोषु वा कृष्णा सम्पन्न चौरतमा नराणां नरेषु वा क्षत्रियः शूरतम इत्यादौ षष्ठीसप्तम्योर्निर्धारणमर्थ इति । अत्र केचित् । नराणां नरेषु वा चत्रियः शरतम इत्यादी विशेषान्यत्वं व्याटतत्वं तादात्म्यं चेति वयः षष्ठोसप्तम्योरर्थाः । विशेषस्तु समभिव्याहृतचचियादिर्विशिष्य ग्रायः व्याटत्तत्वं च भेदप्रतियोगित्वं तथा च चत्रियस्य नरविशेषतया चवियान्यत्वस्वरूपं विशेषान्यत्वं नरेऽन्वेति तथान्वितस्य नरस्य क्षत्रियान्यनरत्वावच्छिन्नाधिकरयात निरूपिताधेयतया भेदे प्रतियोगित्व विशेषणौभूतेऽन्वयस्तथावितस्य भेदप्रतियोगित्वस्य शूरतमेऽन्वयः शूरतमस्य तादात्म्येन चत्रियेऽन्वयः प्रकृत्यर्थन र विशेषितस्य तादात्म्यस्य चवियन्वयः तथा च चत्रियान्यनरत्वावच्छिन्नवृत्ति कभेदप्रतियोगित्ववत्रतमाभिन्नो नराभिन्नः क्षत्रिय इत्यन्वयबोधः । विशेषान्यत्वोपादानात् नराणां नरेषु वा चत्रियो द्विजातिरिति न प्रयोगः चत्रियान्यरवृत्तिभदप्रतियोगित्वस्य दिजाती विरहात् द्विजातिभेदस्य चत्रियान्यचाण्डालादिवृत्तित्वेऽपि चत्रियान्यनरत्वावच्छिन्नष्टत्तिकत्वविरहात् भेदप्रतियोगित्वस्यानुपादाने दर्शिता या योग्यत्वप्रसङ्गः चवियान्यनरतादात्म्यस्य शूरतमे चत्रिये च बाधात् न च विशेषान्यत्वभेद
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विभक्त्यर्थनिर्णये । प्रतियोगित्वयोरुभयोरपि नोपादानं व्यर्थत्वात् तादाम्यस्यैवोपादानमिति वाच्यम् । तथा सति नराणां चत्रियः प्राणौतिप्रयोगप्रसङ्गान्नरतादात्म्यस्य प्राणिनि चत्रियेऽपि सत्त्वात् तादात्म्यस्यानुपादाने घटानां चचियः शूरतम इत्यादिप्रयोगप्रसङगः चत्रियान्यघटटतिभेदस्य चत्रिये सत्त्वात् न च संख्यान्यसुबर्थस्य प्रकृत्यर्थविशेष्यत्वनियमात् चत्रियान्यत्वादिखरूपस्य षट्याद्यर्थस्य प्रकृत्यर्थप्रकारत्वायोग इति वाच्यम् | संबोध्यखादेः प्रथमार्थस्य प्रकृत्यर्थे प्रकारत्वोपगमेन दर्शितनियमे व्यभिचाराद्दर्शितनियमस्य प्रायिकत्वात् । न च नराणां चत्रियो द्रव्यमिति प्रयोगः स्यात् चत्रियान्यनरत्वावच्छेदेन हित्वा दद्यवच्छिन्न प्रतियोगिताक द्रव्यभदस्य सत्त्वादिति वाच्यम् । द्रव्यत्वादिविशिष्टे धर्मिणि द्रव्यस्वाद्यवच्छिन्नस्येव भेदप्रतियोगित्वस्य बोधने निर्धार
विभक्तेः समर्थत्वात् यद्यपि भेदः प्रतियोगित्वं च इयमेव निर्धारणविभक्तेरर्थो यज्यते तावतैवाभिमतनिर्वाहात् प्रतियोगितया चत्रियान्वितस्य विशेषणतया नरेऽन्वयात्तथान्वितस्य नरस्य पुनर्भेदे प्रतियो गिताऽन्वयात्तथान्वितस्य भेदस्य निरूपकतथा प्रतियोगित्वे तथावितस्य प्रतियोगित्वस्य शरतमेऽन्वयसंभवात् तथापि चचियादेर्नामार्थस्य स्वार्थक नामोत्तरविभक्तार्थं एव प्रकारतया भेदान्त्रयस्य व्युत्पन्नत्वात् नरादिनामान्तरोत्तरविभक्त्यर्थं तथा तदन्वयस्याव्यत्पन्नत्वात् न च नरस्य चत्रियः शरतम इत्यादिनिर्धारविभक्त्येकवच नप्रयोगः स्यादिति वाच्यम् । पाणि
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सप्तमीविभक्तिविचारः। पादस्य पाणिः पवित्र इत्यादीकवचनवदन्यचापि निधर्धारण विभक्त्येकवचनप्रयोगे क्षतिविरहात् अत एव "वन्दः सामासिकस्य चे"ति गौतावाक्यमपि सङ्गच्छते। ननु पाथःप्टथिव्योर्जलं स्नेहवदित्यादौ जलभिन्नयोः पाथ:पृथिव्योरप्रसिद्ध्या पाथाथिव्य भयत्तिभेदप्रतियोगित्वस्य स्नेहबति बाधेन च जलान्यपाथ:पृथिव्य - भयत्वावच्छिन्नत्तिभेदप्रयोगिनः स्नेहवतो बोधासंभवः न च हिपदहन्द्रोत्तरनिर्धारणविभक्त रन्धतरत्तिभेदप्रतियोगित्वमेवार्थस्तन्निविष्टे चान्यतरस्मिन्नेवैकपदोपात्तत्वेन जलान्यत्वादेः षष्ट्यर्थान्तरस्यान्वयस्तथा च जलान्यो यः पाथ:पृथिव्योरन्यतरस्तन्निष्ठभेदप्रतियोगित्वं स्नेहवति वर्तत एवेति वाच्यम् । तावताऽपि पाथःपृथिव्युभयतादात्म्यस्य जले बाधेनोकावाक्यस्यायोग्यवतादवस्थ्यात् पाथःपृथिव्योस्तेज उषामित्याद्यप्रयोगेण निर्धारणविभक्तः तादात्म्यवाचिताधौव्यात् घटतभिन्नयोघंटः कम्बुग्रीवादिमानित्यादी घविभिन्नान्यतराप्रसिद्ध्या तादृशेतरभेदभ्य बोधयितुमशक्यत्वादिति चेन्न इन्दोत्तरनिर्धारण षष्याः पर्याप्तसंख्याश्रयेऽपि शक्तत्वेन तस्मिन्नेवैकपदोपात्तत्वेन षष्ट्यर्थस्य जलान्यत्वरूपनिर्धायभेदस्यान्वयेन सर्वसामञ्जस्यात्याथःपृथिव्योर्जलं नेहवदित्यादी जलभिन्नो यः पाथः पृथिबीपर्याप्तसंख्याश्रय स्तत्त्वावच्छिन्नत्तिकभेदस्य प्रतियोगिस्नेहाभिन्नं पाथःपृथिवीपर्याप्तसंख्याश्रयो जलमित्यन्वये बाधकाभावात् यत्र तूद्देश्यविधेययोन तादात्म्येनास्वयबोधसामग्री किं तु संबन्धान्तरेण तत्र निर्धारण
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विभव्यर्थनिर्णये। विभक्तोरत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमर्थः यथा नराणां क्षत्रिये शौर्यमित्यादौ अन्न क्षत्रियान्यनरत्वावच्छिन्नत्तिकास्यन्ताभावस्य प्रतियोगित्वं शौये प्रतीयते न तु तादृशभेदस्य तथासति नराणां क्षत्रिये रूपमित्यादिप्रयोगापत्तेः नराणां मध्ये क्षत्रियः शूरतम इत्यादौ निभारणावाचिनी मध्य इत्यव्ययस्य निर्धारण विभक्त्या सह सम्भेदे हे चैवेत्याढाविव नान्यतरबैयर्थ्यमिति वदन्ति । तच्चिन्त्यम् । क्षत्रियान्यत्वादेनिर्धारणेऽनुप्रवेशे निर्धारणविभक्त नार्थताऽऽपत्तः यत्र चापूर्वी वाक्यार्थ स्तत्व मित्नातनयानां माधवः पण्डित इत्यादौ माधवान्यत्वस्यापूर्वतया तत्र निर्धारण विभक्तिवाच्यत्वस्याग्रहेणान्वयवोधानुपपत्तिप्रसङ्गात् द्रोण कलव्यकालयवनाद्यवृत्तः शरतमभेदस्य क्षत्रियान्यनरत्वावच्छिन्नत्तिकत्वबाधाद्दर्शितवाक्यस्थायोग्यत्वप्रसङ्गाच्च किं च पर्याप्तसंख्थाश्रये विभक्निवाच्यत्वाभ्युपगमेऽपि तव विशेषान्यत्वान्त्रयो न युक्तस्तथासति धवखदिरयोर्धवखदिरी छद्यावित्यादिप्रयोगापत्तः पर्याप्त संख्याश्रये धवान्यत्वखदिरान्यत्वयोरन्वयसम्भवात् । न च इन्दुस्थले निर्धारगाविभक्तोरिव निर्धार्यपदोत्तरविभक्तरपि पर्याप्तसंख्याशयोऽथस्तचैव निर्धारणाग्वय इति वाच्यम् । तथासति पागडवानां युधिष्ठिरभीमाज्जनाः कौन्तेया इत्यादौ निर्धाययुधिष्ठिरादौ निर्धारणानन्वय प्रसङ्गात् भिन्नभिन्नसुबर्थयोः परस्परान्वयस्याव्युत्पन्नत्वाच्च । यत्त, नरा-. शां क्षत्रियः शूरतम इत्यादौ राहो: शिर इत्यवाभेद एव षयर्थः स च क्षत्रियादावन्वेति तदन्विततदन्वयि
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सप्तमीविभक्तिविश्वारः ।
तावच्छेदकच वियत्वाद्यवच्छेदेन श्रूरतमस्य तादात्म्येनान्वयस्तथा च नराभिन्नतत्रियत्वावच्छेदेन शूरतमस्याभेदो वाक्यार्थस्तेन नराणां क्षत्रियोऽर्जुन इत्यादिको न प्रयोगः । न वा नराणां कौशः पशुरित्यादिकश्च प्रयोगः कौशे मानुषाभेदस्य विरहादिति तत्तुच्छ' नराणां चचियः प्राणौ चवियाणां नरः शूर इत्यादिप्रयोगापतेः । यदपि नराणां चत्रियः शूर इत्यादौ भेदोऽभेदश्च नि'र्धारणविभक्तेरर्थः प्रकृत्यर्थे' विशेषणीभूय भेदो भेदे विशेवणीभूय प्रतियोगी चवियादिरन्वेति व्युत्पत्ति वैचित्य भेदे पुनः प्रतियोगितया विशेषणान्तरस्य वरादेरन्वयः शूराद्यन्वितभेदस्तु चत्रियादिभेदान्वित प्रकृत्यर्थतावच्छेदकावच्छ्रेटेन विधेयतयाऽन्वेति प्रकृत्यर्थविशेषितोऽभदः क्षत्रियादावन्वेति प्रकृत्यर्थाभेदान्विते चलिये शूरस्य तादात्म्येनान्वयस्तथा च चवियान्यों नरः 'रभिन्न: नराभिन्नः चत्रियः झुर इति मुख्यविशेष्यितावशाली समूहालम्बनाकारो द्विविधो वाऽभ्ययबोध इति । तदसत् । नामार्थ मुख्य विशेष्यकान्वयबोधे नामार्थस्य प्रथमान्तार्थ तानियमपरित्यागः पत्त संख्यान्यसुदर्थविशेषण कप्रातिपदिकार्थं विशेष्य का न्वयबोधस्या व्युत्पन्नत्वात् एकपदोपस्थाप्यस्य भेदस्योद्देश्यतावच्छेदकविधेयभावेन कथमप्यस्वये व्युत्पत्तिविरहाच्च इत्थं च निर्धारणमन्यादृशं बोध्यं तथा हि भेदप्रतियोगिताऽवच्छेदकधर्मवत्वं प्रक, त्यर्थतावच्छेदकत्बोपलक्षितधर्मसामानाधिकरण्यं च इयमेव षडोसप्तम्योरर्थः दर्शित सामानाधिकरण्यं तु प्रतियोगितावच्छेदकेऽन्वेति एकपदोपा
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विसक्त्यर्थनिर्णये ।
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तयोरपि तिर्थक, निवर्तमानत्वयोरिव लिडर्थे बलवद1. निष्टाननुबन्धित्वेष्टसाधनत्वयोरिव परस्परान्वय स्थ व्युत्पत्तिसिद्धत्वात् एवं नराणां नरेषु वा चत्रियः शूरतम इत्यादौ भेदप्रतियोगितावच्छेदकधर्मः प्रक त्यर्थतावच्छेदकसामानाधिकरण्यं च षष्ठो सप्तम्योरर्थः तत्र दर्शित सामानाधिकरण्यं भेदप्रतियोगितावच्छेदकधर्मेऽन्वेति तथान्वितः स धर्मः चत्रियादावपरपदार्थेऽन्वेति भेदे प्रकृत्यर्थतावच्छेदकनरत्यादौ च विभक्त्यर्थेक देशे प्रकृत्यर्थस्याधेयतयाऽऽन्वयः चत्रियादौ विशेषण पदार्थस्य 1 शूरतमादेः तादात्म्येनान्वयः शौर्यादिधर्मस्वरूस्य वि
शेषणस्य संबन्धान्तरेणा तथा च नरवृत्तिनरत्वसमानाविकरणो नरवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदको यस्तद्दान् क्षत्रियः शूरतम इत्यन्वयबोधः । नराणां नरेषु वा चaिये शौर्य चत्रियस्यायुधजोवनमित्यादौ दर्शि तनिधरणान्वितस्य चत्रियस्याधेयत्वं शौर्ये संबन्ध चायुधजीवने चेति पत्र भेटप्रतियोगितावच्छेदकोऽन्वयितावच्छेदको भूतयद्धर्माविचक्रेदेन भासते भेदप्रतियोगितावछेदकत्वेन स एव धर्मो भासते यथा सत्तावन्ति सणि निखिलजा तिव्यापकजातिमन्ति सकलजातिव्यापकजातिमन्ति सत्तावन्ति बेत्यादौ सकल जातिव्यापकजातित्वेन सन्चैव भासते तथा प्रकृते चवियत्वादि रन्वयितावच्छेदक एव भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वेन भासत इति व्युत्पत्तिरत एव चत्रियस्य चत्रियनिष्ठ भेदप्रतियोगितावच्छेदको भूत क्षत्रिय वैश्योभयत्ववत्वेऽपि चवियाणां चत्रियः शूर इत्यादिको न प्रयोगः न वा
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सप्तमीविभक्तिविचारः द्रव्यस्य तथाभूततादृशोभयत्ववत्त्वेऽपि नराणां द्रव्य शौयवदित्याहिकप्रयोगः प्रतियोगितावच्छेदकत्वं प्रतियोगितावच्छेदकधर्मसमनियतत्वं बोध्यम् अत: पार्थिचपात्राणां कम्बुगौवादिमज्जलाहरणमित्यादिप्रयोगस्य : नानुपपत्तिः कम्बगोवादिमत्त्वादेरवयितावच्छेदकस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वविरहेऽपि प्रतियोगितावच्छेदकोभूतघटत्वादिसमनियतत्वात् तथा चान्वयितावच्छेदकसमनियतो धर्म एव भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वेन प्रकृते भासत इति व्य त्पत्तिरेतदर्थमेव भेद प्रतियोगित्वमपहाय भेदप्रतियोगितावच्छेदको निर्धारणेऽनुप्रवेशितः यदि च प्रतियोगित्वमतिरिक्तपदार्थस्तवापि विशेषप्रतियोगितातोऽतिरिक्तं सामान्य धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिस्वमिति मन्यते तदापि अन्वयितावच्छेदकसमनियतधर्मावच्छिन्नप्रतियोगित्वलाभार्थं प्रतियोगितावच्छेदकस्यानुप्रवेशस्तथा च भेदप्रतियोगित्वमेव निर्धारणवि- । भक्तरर्थः भेदप्रतियोगितात्वेनान्वयितावच्छेदकसमनियतधर्मावच्छिन्ना प्रतियोगिताब्यक्तिरेव भासत इति व्य - त्पत्तिः भेदप्रतियोगित्वे तदवच्छेदके वा प्रक त्यर्थतावच्छेदकसामानाधिकरण्यस्यान्वयोपगमात् ब्राह्मणानां क्षत्रियः शूर इत्यादिको न प्रयोगः ब्राह्मणत्वसमानाधिकरणस्य ब्राह्मणत्तिभेदप्रतियोगित्वस्य क्षत्रिय विरहात् । न च दर्शितप्रयोगवारणार्थ निर्धारणविभक्तोस्तादात्म्यमर्थोऽस्तु तादाम्यस्य क्षत्रियादावन्वय इति न काऽप्यनुपपत्तिरिति वाच्यम् । तथासति नराभेदविशिष्ट क्षत्रिये शू रस्य तादात्म्येन विधेयत्वोपगमेन
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विभक्त्यर्थनिर्णये। राभेदेस्य क्षत्रियविशेषणत्वे वैयर्थ्य प्रसङ्गात् । एवं निर्धार्यतावच्छेदकधर्मसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकधर्मवान् निर्धार्यतावच्छेदकव्याप्यनानाधर्मसमानाधिकरणश्च यो धर्मस्तहान् तादाल्येन स च धर्मः संबन्धान्तरेण निर्धायन्वेतीतिव्युत्पत्तिः धर्मवदि त्यन्तोपादानात् नराणां क्षत्रियो हिजातिः प्राणी वेत्यादिको न प्रयोगः दिजातित्वादेः क्षवियत्यत्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वविरहात्ममानाधिकरण इ. त्यन्तोपादानात् नराणं नरेषु वा क्षत्रियोऽर्जुन इत्यादिको न प्रयोगः अर्जुनत्वस्य क्षत्रियत्वव्याप्यनानाधर्मसामानाधिकरण्य विरहात् नानाधर्मोऽपि परस्परविरुद्धो ग्राद्यस्तेनार्जनत्वस्य क्षत्रियत्वव्याप्यगुणकर्मादिनानाधर्मसमानाधिकरणात्वेऽपि न दर्शितप्रयोगः न च नि
र्धार्यतावच्छेदकावच्छेदेन विधेयान्वयोपगमादेव न दशितप्रयोगः अर्जुनत्वादेविधेयस्य निर्धर्मितावच्छेदकक्षत्रियत्वावच्छेदेनान्वया सम्भवादिति समानाधिकरणान्तोपादानं व्यथमेवेति वाच्यम् । तथासति नराणां नरेषु वा क्षत्रियः सरतम इत्यादिप्रयोगानुपपत्तिप्रसङ्गात् शुरतमादेविधेयस्य क्षत्रियत्वावच्छेदेनान्वयासम्भवात् रणभौतक्षत्रियादौ शुरतमतादात्म्यविरहेणायोग्यत्वात् तादृशधर्मसामानाधिकरण्यं तु विधेये तत्वावच्छेदके वा तवेव तन्वं यत्र परस्परविरुद्ध नानाधर्मसमानाधिकरण मुद्देश्यतावच्छेदकं भवति तेन पाण्डवानां धनञ्जयोऽहं गाण्डौवी वेत्यादौ धनञ्जयत्वव्याप्यपरस्परविरुद्धनानाधर्मस्याप्रसिद्ध्या अहंत्वस्य गा
पूट
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सप्तमीविभक्तिविचारः। गडीवित्वस्य तादृशधर्मसामानाधिकरण्याप्रसिद्याऽपि नान्वयानुपपत्तिः न चैवं क्षत्रियाणां धनञ्जयो गाण्डौवीत्यादिप्रयोगः स्यादिति वाच्यम् इष्टत्वात् यदि च द्रव्याणां क्षत्रियः शर इत्यादिक: प्रयोगो नेष्यते तदा निर्धायंताऽवच्छेदके निर्धारण विभक्तिप्रकृत्यर्थतावच्छेदकस्य साक्षाद्याप्यत्वं तत्र तन्त्रमिति मन्तव्यं न हि क्षत्रियत्वादिकं द्रव्यत्वसाक्षाद्याप्यं द्रव्यत्वव्याप्यपृथिवौत्वादिव्याप्यत्वात् भवति च नरत्वसाक्षाद्याप्यमिति दर्शितप्रयोग इष्यते न च नरत्वव्याप्यत्वात् क्षत्रियत्वस्य न नरत्वसाक्षाद्याप्यत्वमिति कथं दर्शितप्रयोग इति वाच्यं क्षत्रियत्वस्य हिजातित्वाव्याप्यत्वात् संस्कारविशेषरूपस्य हिजातित्वस्याकृतसंस्कारक मृतक्षत्रिये विरहात् न च विजातीनां क्षत्रियः शूर इत्यादिकः प्रयोगो न स्यादिति वाच्यम् । इष्टत्वात् अत एव क्षत्रियादिपदसमभिव्याहार विजातीनामिति निर्धारण विभक्तिन किन्तु नराणामित्येव यदि च हिजातित्वव्याप्यत्वेऽपि नरत्वव्याप्य जात्यव्याप्यत्वात् जातिघटितं नरत्वसाक्षायाप्यत्वं क्षत्रियत्वे नानुपपन्नमिति नराणामित्यादिदर्शितप्रयोगी नानुपपन्नस्तदा द्विजातीनामित्यादिदर्शितनयोगोऽपोष्ट एवात्र व्याप्यता न तन्त्रमिति वक्ष्यते । ननु पाथःएथिव्योः पृथिवी गन्धवतीत्यादावन्वयानुपपत्तिः पृथिवीकृत्तिभेद प्रतियोगित्वस्य पृथिवीत्वसमनियतधर्मावच्छिन्नस्य पृथिव्यामसत्त्वात् जलनिष्ठभेदप्रतियोगित्वस्य तादृशस्य पृथिव्यां सत्त्वेऽपि तादृश प्रतियोगित्वे जलत्व सामानाधिकरण्यविरहात् यद्धर्मावच्छिन्ननिष्ठभेदप्रति
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
'४६७ योगित्वं निर्धारणं तत्र तद्धर्मसामानाधिकरण्यान्वयस्यैव व्युत्पत्तिसिद्धत्वात् अन्यथा जलानां पृथिवी गन्धवतीत्यादिप्रयोगः स्यादिति चेन्न भेदप्रतियोगित्वे प्रकात्यर्थतावच्छेदकसामानाधिकरणयान्वयस्य विवक्षितत्वात् छन्द स्थले प्रकृत्यर्थतावच्छेदकस्य नानात्वादन्वयोपपत्तेः तथा हि प्रकृते जलत्वं पृथिवौत्वं च इयं प्रकस्यर्थतावच्छेदकं तत्र जलत्वावच्छिन्नस्याधयतया भेदे पृथिवीत्वसामानाधिकरण्यस्य भेदप्रतियोगिल्वेऽन्वयो निरा- । बाध इति । जलानां पृथिवीत्यादौ तु जलत्वस्यैकस्य प्रकृत्यर्थताछेदकत्वात् जलनिष्ठभेदस्य प्रतियोगिल्वे पृथिवीत्वसमनियतधर्मावच्छिन्ने जलत्वसामानाधिकरण्यविरहात् नान्वयोपपत्तिरिति । ननु जलष्टथिव्योः ष्टथिवी गन्धवतीत्यत्र पृथिवीत्वे जलत्वव्याप्यत्वविरहात् पृथिवीत्वस्य व्याप्यतायाः सत्त्वेऽपि तत्माक्षायाप्यत्वविरहात् तदन्यत्वे सति तद्याप्यत्वविशिष्टस्य तद्याप्यत्वस्थ तत्माचाघाप्यत्वस्य तदन्यत्वविरहेगा विशिटाभावसम्भबादिति कथं पृथिवौत्वस्य जलनिष्ठभेदप्रतियोगित्वान्वयितावच्छेदकत्वमिति चेन्न यतस्तद्न्यस्य तद्याप्यस्याव्याप्यत्वे - सति तदन्यतयाप्यरत साक्षाघाप्यत्वं तत्र विशेष्यदले तदन्यत्वं प्रकृते न प्रवेशनीयं तथा च पृथिवीत्वसाक्षायात्वं पृथिवीत्वे निराबाधमिति नान्वयितावच्छेदकत्वहानिरिति । नन्वेवं निर्धारणविभक्तिमत्वर्थतावच्छेद कसाक्षायाप्यत्वस्य निर्धारणान्वयितावच्छेदकत्वे तन्त्रत्वेऽभ्युपगमे तत एव ब्राह्मणानां क्षत्वियः शूरः जलानां पृथिवी गन्धव
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सप्तमीविभक्तिविचारः। वतीत्यादिप्रयोगवारणं क्षत्रियत्वादावन्वयितावच्छेदके ब्राह्मणत्वादिप्रकृत्यर्थतावच्छेदकव्याप्यत्वविरहाद्दूत्थं च निर्धारणे प्रकृत्यर्थतावच्छेदकमामानाधिकरण्यप्रवेशो व्यर्थ इति चेन्न यतो यत्र प्रकृत्यर्थतावच्छेदकान्वयितावच्छेदकयोः साजात्यं तवैव साक्षाद्याप्यत्वं तन्त्रं न तु तयो(जात्ये साजात्यं तु जातित्वादिना बो- , ध्यमिति द्रव्याणां क्षत्रिय इत्यादिको न प्रयोगः वैजात्ये तु न साक्षायाप्तता तन्वं यथा गवां गोषु वा कृष्णा संपन्नक्षीरतमेत्यादी अब प्रकृत्यर्थतावच्छेदकस्य गोत्वस्यान्वयितावच्छेद के कृष्णगुणे साजात्यविरहात् न साक्षाग्रप्यताविरहेणान्वयविरह इति । एवं च हूंसानां कृष्णः सुचेष्टः नराणां चतुष्पादो मदोत्कट इत्यादिप्रयोगवारणार्थं प्रकृत्यर्थतावच्छेदकसामानाधिकरण्यस्य निर्धारणे प्रवेशः अन्यथा हंसादित्तिभेदप्रतियोगित्वस्य कृष्णगुणादिमति सत्त्वादर्शितप्रयोगस्य दुवीरताऽऽपत्तेः तदिदं निर्धारणं जात्या गुणेन क्रिययाऽन्येनापि धर्मेण भवति तत्र जात्या नराणां नरेषु बा क्षत्रिय इत्यादिकं गुणेन गवां गोषु कृष्णेत्यादिक क्रियया गवां गोषु वा वत्सं धावन्ती दुग्धवतीत्यादिकं अत्र वत्मकर्मकधावनक्रियावत्त्वमन्वयितावच्छेदक गोनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकमिति अन्येन प्राणिनां प्राणिषु वा चतुष्पादः पशुरित्यादिकमुदाहरणं बोध्यं जातिकियागुणभिन्नमत्र चतुःसंख्यकपादसमवेतत्वमन्वयितावच्छेदक प्रागिनिष्ठभेदस्य प्रतियोगितावच्छेदकमिति । अत एव काशिकायां जातिगुणक्रियाभि
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विभक्त्यर्थविर्णये।
४६९ रिति पृथक्करणस्थ करणाभिधानं खरूपकथनं न च परिसंख्यानमिति । यत्न प्रकृत्यर्थतावच्छेदकनिर्धार्यताकच्छेदकयो: वैजात्यं तत्र परस्परव्यभिचारितैवान्वयितावच्छ दकत्वे तन्त्रमतो द्रव्याणां कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमेत्यादिको न प्रयोगः प्रयोगस्तु कृष्णानां गौः सम्पनक्षौरतमा विजातीनां क्षत्रियः शूरतम इत्यदिक उपपद्यते । हरौणां हरिषु वा शत्रुः सुरश्रेष्ठ इत्यादौ ह. रिपदार्थतावच्छेदक सूर्यत्व विष्णुत्वेन्द्रत्वादिक नानाविधमेव प्रकृत्यर्थतावच्छेदक तत्र शकान्या कृत्योंनिष्ठभेदस्य प्रतियोगित्वेऽन्वयितावच्छेदकोभूतशकत्वावच्छिन्ने शकरवसामाधिकरण्यान्वयसम्भवात् इन्दुस्थले इवैकशेषेऽपि नानुपपत्तिरिति । इन्दः सामासिकस्य चेत्यत्र समासत्वस्थानुगतधर्मतया जातित्वात् जातिगतैकत्वविवक्षायामेकवचनमिति नानुपपत्तिः "जात्याख्यायामि ति सूचे अनुगतधर्मस्यैव जातित्वेनोपादानमत एव"शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनमि"ति सङ्गच्छते यतः शरीरत्वं न वैशेषिकसमता जातिन वैकमात्रशरीर धर्मसाधनमेत्यनुगतधर्मस्वरूपजातिगतैकत्वविवक्षाया- . मेकवचनोपपत्तिः । “नक्षत्राणां शश्यहमि"त्यादौ नक्षत्रपदस्य शशियुक्तनक्षत्रसमुदाये लक्षणायां निर्धारणे अन्यथा शेषे वस्वामिभावे षष्ठौ । एवं "वित्तेशो यक्षरक्षसामि"त्यत्र यदि धनेशो यक्षस्तदा जलपृथिवौ गन्धवती ज्यादाविव निर्धारणेऽन्यथा शेषे स्वस्वामिभावे षष्ठीति एवमन्यत्रापि बोध्यम् । एवं नराणां मध्येइत्यव्ययस्य भेदप्रतियोगित्वं समभिव्याहृतशब्दार्थतावच्छे दकसा
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सप्तमीविभक्तिविचारः। माधिकरणपं चार्थः षष्या भेदान्वयौ. समभिव्यावृतशब्दार्थतावच्छे दकान्वयौ च संबन्धोऽर्थः संबन्धस्तु प्रकृते प्राधेयत्वमेव भेदप्रतियोगित्वमन्वयितावच्छे दकसमनियतधर्मावच्छिन्नं पूर्ववोध्यम् इत्थं मध्येशब्दयोगे षष्ठी न निर्धारणार्थिका किं तु शेषार्थिका अत एव "लोकेशलोकेशयलोकमध्ये तिर्यञ्चमप्यञ्च स्रषानभित्तरसततोपत्तसमतमजमि"त्यादौ समास उपपद्यते अन्यथा निर्धारणपश्यन्तेन सह समासस्य निषेधात्तदनुपपत्तिप्रसङ्गः एवं नरमध्ये क्षत्रियः शूर इत्यादिप्रयोगानुपपत्तिप्रसङ्ग इति । अार्थिकां सप्तमौं दर्शयति । “साधुनिपुण" इत्येताभ्यां योगे अर्कयामर्थे सप्तमी विभक्तिर्भवति प्रतेयोगे न भवतीत्यर्थक मातरि साधुनिपुणो वेत्यादौ समर्थः साधुशब्दार्थः सामर्थ्य जनकतावच्छेदकधर्मवत्त्वं तदेव स्वरूपयोग्यत्वमिति सावहितकृतौ निपुणशब्दार्थः सावहितकतृत्वमप्रमत्तकर्तृत्वं तदपि कर्त्तव्यतागोचरपुनःपुनःस्मरणाधीनकृतिमत्त्वं तत्र सप्तम्यर्थोऽर्चा सामध्यैकदेशे जनकत्वे निरूपकतया निपुणपदार्थंकदेशे तादृशस्मरणांधौनक तौ विषयितयाऽन्वेति । अर्चा . तु प्रीत्यनुकूलो व्यापारस्तन प्रौती प्रक त्यर्थस्य समवेतत्वेनान्वयः प्रीतिः सुखं सुखसाधनं वा तथा च माटसमवेतप्रीत्यनुकूलव्यापारनिरूपितजनकतावच्छेदकधमवान् मासमवेतप्रीत्यनुकूलव्यापारविषयिणो कतव्यतागोचरपुनःपुनःस्मरणाधीना या कृतिस्तहानिति बा शाब्दबोध: अर्चायां गम्यमानायामिति काशिकायामुक्तम् । अत्र सूचे अर्चा सप्तम्यर्थत्वेनैव वि
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विभक्त्यर्यनिर्णये ।
४७१
वचिता न तु मानान्तरगम्यत्वेन तथासति " साध्वसा'धुप्रयोगे सप्तमो वक्तव्ये" ति वार्तिके साधुशब्दोपादनस्य वैयर्थ्यापत्तेः मातरि साधुरित्यव मातृप्रियकारित्वावगमे मात्रचया अवश्यं गम्यमानत्वात्सप्तम्या अर्चार्थकत्वे तु वार्तिके साधुशब्दोपादानस्य न वैयथ्यमिति प्रागुक्तम् अचया अविवक्षणे सप्तमो न साधुः यथा साधुः भृत्यो राज्ञ इत्यादौ यत्र तत्त्वकथने सप्तमी न भवति । श्रव भृत्यस्य साधुत्वमाज्ञप्तार्थकत्वं अर्चाfears सप्तमी प्रतियोगे न भवति यथा मातरं प्रति साधुरित्यादौ अत्र कर्मप्रवचनीयद्योत्यं समवेतत्वं हितोयार्थः प्रियकारी साधुशब्दार्थः पूर्ववदन्वयः । "अप्रत्यादेरिति वक्तव्यमिति वार्तिकं येषां कर्मप्रवचनीयानां योगे सप्तमो विहिता तदन्यकर्मप्रवचनीययोगे सप्तमी न भवतीत्यर्थकं तेन मातर प्रति परि अनु अभि वा सरित्यादौ न सप्तमो भवतीति । पञ्चम्या सह वैकल्पिक सप्तमीं दर्शयति । "सप्तमीपञ्चम्यौ कारकमध्ये" इति सूत्रं कारयोर्मध्ये यौ कालाध्वानौ ताभ्यां सप्तatural fवभक्तौ भवत इत्यर्थकम् । अद्य भुक्का द्वाहे sure भोक्ता इत्यादी सप्तमीपञ्चम्योः परत्वनिपिता परत्वाधिकरणकालवर्तित्वमर्थस्तत्र परत्वे समdard प्रक त्यर्थस्यान्वयः क्तार्थोऽनन्तरत्वं वेति तथा चाद्यवृत्तिभोजनानन्तरग्रहवृत्तिपरत्वनिरूपिताप
-
ट
रत्वाधिकरणकालवृत्तिभोजनकर्तेति शाब्दबोधः । अत्र भोजन ताम्रुपकारकशक्त्योर्मध्ये कालः इहस्थोंऽयं धनुष्कः क्रोशे क्रोशाद्वा लच्यं विध्यति इत्यादी दें
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सप्तमीविभक्तिविचारः ।
शिकापरत्वनिरूपितपरत्वाधिकरणदेशवर्तित्वं सप्तमी
पञ्चम्योरर्थः तच्च कर्मद्वारा धात्वर्थफलेऽन्वेति विष्यतेरवयवविभागानुकूलो व्यापारोऽर्थः छिदेस्तु चारम्भकसंयोगान कावयव विभागानुकूलो वग्रापारोऽर्थ इति न छिदिपर्यायता तथा च क्रोशत्त्यपरत्वनिरूपितपरत्वाधिकरण देशटत्तिर्यो लक्ष्यवृत्तिरवयवविभागस्तदनुकूलaatureकर्त्ता इहस्थधानुष्कोऽयमित्यन्वयबोधः । अत्र कर्ट कर्मशक्त्योर्मध्ये अध्वा । वस्तुतस्तु कारकयोर्मध्येऽर्थे सप्तमपौ विभक्तौ भवत इत्येव स्वार्थ: । तत्र मध्यत्वं कालिक मपरत्व समानाधिकरणपरत्वं दैशिकम परत्वमेव तत्रापरत्वे प्रक त्यर्थयोः कालदेशयोः समवेतत्वेनान्वयः अवधितथा कारकस्य कारकाधिकरणस्य चान्वयः कालिकमध्यत्वघटकपरत्वस्य निरूपकतया दैशिकपरत्वस्य स्वनिरूपितपरत्वसमवायेन कारकाकिरणे परम्परया वा कारकेऽन्वयः तच्च कारक योग्यतावशात् कर्तृ कर्मादिक' बोध्यम् । अद्य हविष्यं भोता हे ग्रहादा निरामिषं भोक्ता श्रत्र हविष्यंकर्मकभोजनकर्ता तदधिकरणेनाद्य कालेन वाऽवधिमद् हाहत्ति यदपरत्वं तत्समानाधिकरणपरत्वस्य निरूपको निरूपककालवृत्तिर्वा निरामिषकर्मकभोजनकर्ताद्याधिकराहविष्य कर्मकभोजनकर्तेत्यन्वयबोधः । इह* स्थोऽयं कोशे को शादा लक्ष्यं विध्यतीत्यादौ वेधकेन तदधिकरादेशेन वाऽवधिमद्यत्परत्वं तन्निरूपककी1 शत्रुत्यपरत्वस्य निरूपक' तदधिकरणं तादृशदेशवृत्ति वाच्यं तत्कर्मकवेधकर्ता इव्हस्थोऽयमित्यन्वयबोधः ।
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विभक्त्यर्थनिर्णये।
४७३ इहायशब्दार्थयोर्देशकालयोरधिकरणयोरवधित्वार्थ इहाद्यशब्दयोरुपादानम् अवधिमत्त्वस्य अवधिमत्परत्वनिरूपकत्त्वस्याधिकरणकालत्तित्वम्य चोल्लेखः संसर्गमर्यादया बोध्यः । अथ वा मध्यशब्दोऽन्तरालवाचौ तथा चान्तरालत्वेऽथे सप्तमीपञ्चम्यौ भवत इति सूत्रार्थस्तव कालिकमन्तरालत्वं परस्परनिरूपितकालिकपरत्वापरत्वाधिकरणयोरनधिकरणत्वमत्यन्ताभाववत्वमिति या वत् । दैशिकं तु दैशिकपरत्वस्यावधिसमवायिनोरनधिकरणत्वमत्यन्ताभाववत्त्वमिति यावत् तथा च कालिकपरत्वापरत्वयोरधिकरणकारकयोरधिकरणकालत्तिकारकशक्त्योस्तत्तत्कारकभावस्वरूपयोः। एवं दैशिकपरत्वस्याधिसमवायिनो: कारकयोरवधिसमवाधिदेशत्तिकारकशक्त्योर्वा सुप्तिडादितो लाभात् कालाध्ववाचकपदोत्तरयोः सप्तमीपञ्चम्योरत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमर्थस्तत्र कालनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं कारके चेदन्वेति स्वनिरूपितक्रियावत्त्वसंबन्धावच्छिन्नं कारकशक्ती चेदन्वेति कालिकविशेषणतासंबन्धावच्छिन्नमेव देशनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तु कारकीयदैशिकसंसर्गावच्छिन्नं कारके कारकशक्तौ तु स्वनिरूपककारकघटितपम्परासंबन्धावच्छिन्नमन्वेति इत्थं च संबन्धान्तरावच्छिन्न प्रतियोगित्वमादाय न प्रयोगातिप्रसङ्गः प्रतियोगित्वमन्वयितावच्छेदकधर्मावच्छिन्नमेव भासते व्युत्पत्तिवैचिल्यात् अतो हित्वावच्छिन्नाभावप्रतियोगित्वमादाय न प्रयोगातिप्रसङ्गः । अत्यन्ताभावे प्र. लत्यर्थस्य खावच्छेदकधर्मव्यापकाधिकरणतानिरूपिता
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सप्तमीविभक्तिविचारः ।
धेयतयाऽन्वयः । एवमद्य भोक्ता चाहे ग्रहाचा भोक्तेत्यादी हव्यापक रत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगिभोकभिन्नोऽद्य भोक्ता अथ वा तथाविधात्यन्ताभावप्रतियोगि भोक्तृत्ववदभिन्नोऽद्य भोक्ता इत्यन्वयबोधः । एवं इहस्थोऽयं क्रोशे को - शाहा लच्यं विध्यतीत्यादौ कोशव्या पकटच्यत्यन्ताभावप्रतियोगि यलच्या भिन्नमधिकरणं लच्य निरूपितमाधेयत्वं वा तद्दत्तिस्तद्वान्वा योऽवयवविभाग तदनुकूलव्यापारकर्ताऽयमित्यन्वयबोधः । इत्थं च प्रतिदिनं भुजाने हा वाहाद्दा भोक्तेति न प्रयोगः न वा एकप्र हारेण पादकोशार्श्वे च लच्यं विध्यति पुरुषे कोशाद्दा लक्ष्यं विध्यतीति प्रयोगः । अत्यन्ताभावे व्यापकवृत्तित्वे प्रकृत्यर्थस्यान्ययोपगमात् स्नानादिकालावच्छेदेन हाहनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिभोक्तृत्वस्य प्रतिदिनं भुञ्जाने सत्त्वान्न दर्शितप्रयोगः । कर्तृशक्तिमध्य एव कालः | गिरेः कोशे कोशादा वनं गच्छति विहग इत्यादी कमपादनयोर्मध्ये देशः पाटलिपुत्रेश्वरः विंशती योजनेषु विंशतेर्योजनेभ्यो वा काशीस्थाय ददातीत्यादौ कर्तृ संप्रदानयोर्मध्ये देशः । शिखरादुपत्यकायां कोशे कोशाचा पतति शिलेत्यादावपादानाधिकरणायोर्मध्ये देशः करणकारकान्तरयोर्मध्ये देशोऽपि न भवति । एवमन्यत्रापि कारकयोर्मध्ये देशः कालश्च बोध्य इति । शाब्दिकास्तु " तदस्मिन्नधिकमिति" यस्मादधिकमि"तिसूत्रनिर्देशादधिकशब्दयोगे सप्तमीपञ्चम्यौ विशिष्येते अतो लोके लोकाद्दाऽधिको हरिरित्यादौ सप्तमी पञ्चमी च साधुरित्याङ्गः । तच्चिन्त्यं लोकेऽधिको हरिरित्यादौ निर्धारणे सप्तभ्युपपत्तेः लोकादधिको हरिरित्यादौ " प
४७४.
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४७५
विभक्त्यर्थनिर्णये ।
मौविभक्त" इतिसूत्रेण पञ्चभ्युपपत्तेरित्यस्य प्रागुक्तत्वादिति । “अधिरोश्वरे" इति सूत्रम् । ईश्वरेऽर्थे द्योत्येऽधिः कर्मप्रवचनीयसंज्ञः स्यादित्यर्थकम् अधौत्यव्ययशब्दस्य कर्मप्रवचनीयसंज्ञां विश्वन्ते । कर्मप्रवचनीय युक्तो पञ्चम ज्ञापयति " यस्मादधिकं यस्य चेखरवचनं तव सप्तमो" इति सूत्रं यदवधिकस्याधिक स्वरूपार्थस्य द्योतकः यन्निरूपितस्येश्वरार्थस्य द्योतकः कर्मप्रवचनीयस्तच कर्मप्रवचनीययुक्ते सप्तमो भवतौत्यर्थकम् । उपथब्दस्याधिका द्योतकत्वेऽपि कर्मप्रवचनीयसंज्ञा विधायक "उपोऽधिके चे” ति सूत्रं द्वितीयाविवरणे प्रदर्शितम् । उपसुरेषु हरिरित्यादावुपशब्दद्योत्यं सप्तम्या अधिकयमर्थस्तव प्रकृत्यर्थस्याधिमत्व संबन्धेनान्वयस्तथाविधस्याधिकारस्य हरावन्धयस्तथा च सुरावधिकाधिक्यवान् हरिरित्यस्वयबोधः । श्रधिक्यं तु प्रकृते निरवधिदयावत्त्वमथ वा बहुत्वव्याप्यसंख्या विशेषवद्द्गावच्वं बोध्यम् । उपाचायेंषु द्रोण इत्यादावपि काशिकीदाहरणेऽनया रोयाउन्वयो बोध्यः उपनिष्के कार्षापणमित्यादावपि मूल्यगतावयवगता वा बहुत्वव्याप्यसंख्येवाधिकामिति प
मौविवरणे प्रोक्तमिति । यस्य चेश्वर इत्येतावन्मात्रेण स्वामिद्योतकाधियोगे सप्तमौसिद्धौ यस्य चेश्वरवचनमित्यभिधानं स्वस्वामिनोरुभयोद्यतकस्याधिशब्दस्य योगे सप्तम ज्ञापयति श्रत एव यस्य चेश्वरवचनमिति स्वस्वामिनो योरपि पर्यायेण सप्तमौ भवतीति काशिका | अधिभुवि राम इत्यादावधिशब्दद्योत्यं ससय्याः स्वामित्वमर्थस्तव भुवो निरूपकतयाऽन्वयः तथाविधस्वामित्वस्य रामेऽन्वयः तथा च भूनिरूपि
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सप्तमीविभक्तिविचारः ।
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धेयतयाऽन्वयः । एवमद्य भोक्ता वाहे ग्रहाचा भोक्तेत्यादौ ग्रहव्यापक त्यत्यन्ताभावप्रतियोगिभोक्कभिन्नोऽद्य भोक्ता । अथ वा तथाविधात्यन्ताभावप्रतियोगि भोक्तृत्ववदभिन्नोऽद्य भोक्ता इत्यन्वयबोधः । एवं इहस्थोऽयं क्रोशे को - शाद्दा लक्ष्यं विध्यतौत्यादौ कोशव्यापक नृत्यत्यन्ताभावप्रतियोगि यलच्या भिन्नमधिकरणं लक्ष्य निरूपितमाधेयत्वं वा तद्दृत्तिस्तद्दान्वा योऽवयवविभाग तदनुकूलव्यापारकर्ताऽयमित्यन्वयबोधः । इत्थं च प्रतिदिनं सुजाने हा हाहादा भोक्तेति न प्रयोगः न वा एक प्रहारेण पादकोशार्धे च लच्यं विध्यति पुरुषे कोशाद्दा लक्ष्यं विध्यतीति प्रयोगः । अत्यन्ताभावे व्यापकवृत्तित्वे प्रकृत्यर्थस्यान्त्रयोपगमात् स्नानादिकालावच्छेदेन हाहनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिभोक्तत्वस्य प्रतिदिनं भुञ्जाने सत्त्वान्न दर्शितप्रयोगः । कर्तशक्तिमध्य एव कालः । गिरेः कोशे कोशाद्दा वनं गच्छति विहग इत्यादी कमपादनामध्ये देशः पाटलिपुत्रेश्वरः विंशती योजनेषु विंशतेर्योजनेभ्यो वा काशीस्थाय ददातीत्यादौ कर्तृ संप्रदानयोर्मध्यदेशः । शिखरादपत्यकायां कोशे कोशाद्दा पतति शिलेत्यादावपादानाधिकरणायोर्मध्ये देशः करणकारकान्तरयोर्मध्ये देशोऽपि न भवति । एवमन्यत्रापि कारकयोर्मध्ये देशः कालश्च बोध्य इति । शाब्दिकास्तु " तदस्मिन्नधिक मि" ति " यस्मादधिकमि"तिसूत्रनिर्देशादधिकशब्दयोगे सप्तमोपन्चम्यौ विशिष्येते अतो लोके लोकाचाऽधिको हरिरित्यादौ सप्तमौ पञ्चमी च साधुरित्याङ्गः । तच्चिन्त्यं लोकेऽधिको हरिरित्यादौ निर्धारणे सप्तम्युपपत्ते: लोकादधिको हरिरित्यादी "प
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विभक्त्यर्थनिर्णये ।
४७५.
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चमीविभक्ते" इतिसूत्रेण पञ्चम्युपपत्तेरित्यस्य प्रागुक्तत्वादिति । "अधिरोवरे" इति सूत्रम् । ईश्वरेऽर्थे द्योत्येऽधिः कर्मप्रवचनीयसंज्ञः स्यादित्यर्थकम् अधौत्यव्ययशब्दस्य कर्मप्रवचनीयसंज्ञां विधत्ते । कर्मप्रवचनीययतो पञ्चम ज्ञापयति " यस्मादधिकं यस्य चेखरवचनं तव सप्तमौ ” इति सूत्रं यदवधिकस्याधिक स्वरूपार्थस्य द्योतकः यन्निरूपितस्येश्वरार्थस्य द्योतकः कर्मप्रवचनीयस्तच कर्मप्रवचनीययुक्ते सप्तमी भवतीत्यर्थकम् । उपशब्दस्याधिका द्योतकत्वेऽपि कर्मप्रवचनीयसंज्ञा विधायक "उपोऽधिके चे” ति सूत्रं द्वितीया विवरणे प्रदर्शितम् । उपसुरेषु हरिरित्यादावुपशब्दद्योत्यं सप्तम्या चाधिकयमर्थस्तव प्रकृत्यर्थस्यावधिमश्व संबन्धेनान्वय स्तथाविधस्याधिकारस्य हरावन्त्रयस्तथा च सुरावधिकाधिकयवान् हरिरित्यस्वयबोधः । श्रधिक्यं तु प्रकृते निरवधिदयावत्त्वमथ वा बहुत्वव्याप्यसंख्या विशेषवद्यावत्त्वं बोध्यम् । उपा चार्येषु द्रोण इत्यादावपि काशिकीदाहरणेऽनया रोयाSaयो बोध्यः उपनिष्के कार्षापणमित्यादावपि मूल्यगतावयवगता वा बहुत्वव्याप्य संख्यैवाधिकमिति प
मौविवरणे प्रोक्तमिति । यस्य चेश्वर इत्येतावन्मात्रेण स्वामिद्योतकाधियोगे सप्तमौसिद्धौ यस्य चेश्वरवचनमित्यभिधानं स्वस्वामिनोरुभयोर्योतकस्याधिशब्दस्य योगे सप्तम ज्ञापयतिः श्रत एव यस्य चेश्वरवचनमिति स्वस्वामिनोई योरपि पर्यायेण सप्तमी भवतीति काशिका | अधिभुवि राम इत्यादावधिशब्दद्योत्यं ससभ्याः स्वामित्वमर्थस्तव भुवो निरूपकतयाऽन्वयः तथाविधस्वामित्वस्य रामेऽन्वयः तथा च भूनिरुपि
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सप्तमीविभक्तिविचारः। तस्वामित्ववान् राम इत्यन्वयबोधः । अधिरामे भूरित्यादावधिशब्दद्योत्यं सप्तम्याः स्वत्वमर्थस्तव निरूपकत या प्रकृत्यर्थ स्यान्वयस्तथा च रामनिरूपितस्वत्ववती भूरित्यन्वयबोधः । अधिब्रह्मदत्ते पञ्चाला: अधिपञ्चालेषु ब्रह्मदत्त इत्यादी काशिकोदाहरणेऽप्यनया रोत्याऽन्वयो बोध्यः । ब्रह्मदत्तः पञ्चालराजः । "विभाषा कृषि" इति सूत्वम् अधिः करोती कर्मप्रवच- . नीयसंतो वा स्यादित्यर्थकम् । अत्र प्रवराद्योतकस्यधियोगे सप्तमौ न भवति यथा यदव मामधिकरिष्यती. त्यादौ अव धातोकिनियोगोऽर्थः सप्तम्या आदेशवल: कर्मघटितसंबन्धावच्छिन्नमाधेयत्वमर्थः इदंपदार्थः कमविशेषस्तथा चेदंकर्मविशेषत्तिमत्कर्मकयदभिन्नभाविनियोगकर्ट त्वं वाक्यार्थ: करोतियोगधेः कर्मप्रवनीयसंज्ञा विधानं दर्शित करोतिप्रयोगे गतिसंज्ञाप्रयुक्तस्य "तिङि चोदात्तवती"तिसूत्रेण प्रसक्तस्य निघातस्य निषेधार्थमिति । कर्मप्रवचनीययोगे द्वितीयापञ्चमीसप्तमीविधानं शेषषष्ठीबाधकं सर्वा द्य पपदविभक्तयः शेषषष्ठापवादिका इत्युक्तरिति शाब्दिकाः । तच्चिन्त्यम् अपवादे प्रमाणाभावात्सूबभाष्यवार्तिककृतिग्रन्थादावपवादकत्वस्यानभिधानात् मम प्रतिभातीत्यादौ शेषे षष्ठमा दर्शनाच्च कर्मप्रवचनीयस्थ स्वरूपसतो वा प्रतेोगे हितीयाविधानाद् अत एव बुभुक्षितं न प्रतिभाति किञ्चिदित्यादौ द्वितीयोपपद्यते । एवं च तस्य ते परिपन्थिन इत्यादावपि शेषे षष्ठा पपद्यते अन्यथा परिपन्थि घटकपरिशब्दयोगेऽपि कर्मप्रवचनौययोगे द्वितीयादर्शनात्"परिपन्थं च तिष्ठती"तिनिर्देशादुपपदविभक्तः शेषषष्ठाप
पं.श्री चंद्रसागरजी गणिवर।
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विभत्त्यर्थविर्णये। - वादकत्वे दर्शितषठ्या प्रसाधुत्त्वप्रसङ्गात्ाननूपपदविभक्तः शेषषष्ट्यपवादकत्वविरहे पूर्व प्रदर्शितं सर्पिषो बिन्दुना योगो न स्वपिनेत्यभियुक्तवाक्यमनर्थकं स्यात् अपिना योगेऽपि शेषे षष्ठयाः साधुत्वादुपपदविभक्त रपवादकत्वविरहादिति चेन्न । सपिरपि स्यादित्यादिप्रयोगे हितौयाया असाधुत्त्वज्ञापनेन दर्शितस्याभियुक्तवाक्यस्य सार्थकत्वात् येषां कर्मप्रवचनीयस्य द्योत्यानां वाच्यानां वा हीनत्वाधिक्यवर्जनमर्यादादीनां न शेषत्वं तत्राोग्यत्वादेव कर्मप्रवचनौययोगे न षष्ठी यथाऽनुहरिं सुरा उपसुरेषु हरिरपत्रिगतम्यो दृष्टो देव श्राकडारादे का संज्ञे त्यादौ यत्र तु योग्यता तत्व षष्ठी भवत्येव अत एवोपर्यपरि बुद्धौनां चरन्तीश्वरबुद्धय इत्यादौ शेषे षष्ठी सङ्गच्छत इति । इति विभक्त्यर्थनिर्णये कारकसप्तम्यर्थनिर्णयः ।
इति सप्तमीविवरणं समाप्तम् । समाप्तश्चायं विभक्त्यर्थनिर्णयः ।
अन्वीक्षानलिनीप्रमोदनरविस्त्रय्यादि विद्याऽऽपगापाथोधिः प्रथितोऽर्थिकल्पावटपौ वागौशनामा सुधौः। गौरीतुल्यगुणा विदेहविषये देवी जयन्ती च यं प्रासूत प्रहतैनसं गिरिधरं तस्ये घमासीत्कृतिः ॥१॥ तकेंथ जैमिनिगिरि स्फुटशब्दविद्याऽभ्यासे विसृत्वरचियः शुचिशान्तरूपाः । धौरा मां मम कृतिं करुणारसैन । पूणे मनस्यविरतं परिचिन्तयन्तु ॥२॥
इंति । शुभम
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