Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sase-Sasa-Sasasases-50-5se:sse-Sasa जैनधर्मसिंधु. Com అలాఅలాఅలాఅతాజతిఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఆఅఆఅఆఅఆఅఆఅఆ यथामती संशोधन करके ज्याचार्य श्रीनरपतिचं सूरीश्वर, जीकी आज्ञानुसार रायबहापुर बाबु साहब बुधसिंघजीकी १३ सहायतासे संग्रह और प्रकाश कर्ता. - यति मनसुखलाल नेमिचंद्रजीने मुंबई नगरमें निर्णयसागर प्रेसमें छापकर प्रसिद्ध किया. అఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅఅతి वीर संवत् २४३४ विक्रम संवत १९६४. सने १९०८. सर्व हक्क साधीन. అఆఅఆఅఆఅఆఆఅతాతా రాణ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलनेका पत्ता. मुंबई. य विज्ञान चंद्रजी . वि. पायधोणी श्री शांतिनाथजी जैनमंदिर जैनपत्र फीस. वि. कष्टमहाउस रोम. मुंबई. सेठ. कस्तुरचंद नानचंद वि. त्रांबाकांटा. अहमदनगर. सेठ. वाडी बालहाथी जाई. नवी कापममारके, बालापुर. श्री जिन मंगली श्रोफीस. नवादेरासर. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायबहादुर बुधसिंहजी दुधेरिया. जैनधर्मसिंधुके आश्रयदाता. Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्पण पत्रिका. रायबहादूर बाबु साहब श्रीयुत बुधसिंघजी उधेरिया. जो किचनी मुर्शिदावादांतर्गत अजिमगंजमें रहते हैं. इनोके आश्रयसे यह पुस्तक प्रकाशित हुवा. इस लिए उक्त महोदयका संक्षिप्त जीवन वृत्तांत प्रकाशित करनेकी आवश्यकता देखतें हैं. बाबुसाहबके पूर्व पुरुष हरजीमलजी उधेरिया पहिले मारवामशे मुर्शिदावादमे व्यापारके लिए श्राय बसे थे. हरजीमलके पुत्र सवासिंघजी और तिनके कुलदीपक सुपुत्र हरखचंदजी जो की अपने आश्रयदाता महोदयके पिता थे उन महोदयने व्यापार और जागिरदारीके व्योपार में कितनाक न्यायोपार्जित अव्य उपार्जन किया. बाबु साहेब हरखचंदजी सने १७६२ में स्वर्गस्थ दुवे. जब उनको सर्वलोग परिपूर्ण श्रीमंत कहते थे और वो अबी नामंदारी धारण करतेथे. वे महोदय अपने पीगमी रायबहार श्रीयुत बुधसिंघजी और श्रीयुत विसनसिंघजी उधेरिया दो सुपुत्रं रख गए थे. यह दोनो सुपुत्रे अपने पिताके मरण समय लघु (बाट्यास्थामे) थे. उन समय अपने पिताकी लदमी और बमानारी व्यापार उन दोनोके हाथमे श्राया. यह दोनों महोदयें ज्यौं ज्यौं बढते गए त्यौं त्यौं ऐक्य और सलाह संपसें रहते थके वितीयाके मंजवत् अपना अच्युदयमें और बलबुद्धी पराक्रममें बढ़ते गएराय बहार बुधसिंघजी विनयवान् धैर्यवान् विवेकी और मिलनसार व उद्योगी हुवे....... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायबहाउर बाबु विसनसिंघजी बचपन सेंहि व्यापारी लाइ नकी अद्भुत शक्ती धारक जिनोमें बुद्धी कला कुशलता, दृढता परिपूर्ण थी. सर्वजनोसे हाजिर जवाबी और विशेषकर बहुत परिणाम दर्शी थे. उनोने धीरधारका धंधा बढाया और कलकत्ता, सिराजगंज, माश्मेनसींग, जंगीपोर, अजीमगंजमें बेड्डे खोली. ___ यह बेङ्कोंमें बेङ्करोंके अथाग परिश्रमसे अथाग विश्वास श्रानेसें फतेहमंदरीतीसे कार्यवाही चलने लगी. रहते रहते जमीनदारों व जागीरदारोंकों धनधीरनेका कार्य सिरु किया जिस्के परिणामसे दोनों महोदयें बमे जागीरदार होगए. मुर्शीदाबाद, माश्मेनसींग, बीरजुम, नदीया, पमीकोट, पूरपीया, दिनाजपुर, राजसाई, मालदा, नागलपुर, कुमका विगरह ग्रामोंकी जमीनके मालेक हुवे. दोनों बंधु मात्र व्य संपादान करनेमेंहि प्रवर्ते थे एसा नही परं उनके साथ उनोंका पुण्यकर्ममेंनी प्रयत्न चालु था... . दीन दुःखी और हजारों गरब व लाचारोंके लिए अन्नक्षेत्र स्थापन कीये. जिस्की कार्कीदी अनीली जलाऊल जलकती हे. . (जैनमंदिरे, उपाश्रयें, धर्मस्थाने में बहुत धन व्यय कीया जिनकी विगत) प्रथमतः अपनी जन्मजूमी मुर्शीदाबादमें श्रीचिंतामणजी, नेमिश्वरजी, श्रीशामलाजी, अष्टापदजी, दादाजीके मंदीरोंका जीर्णोधार कराया. . नेमीश्वरजीके मंदिरमें दो रत्नकी प्रतिमा है और सिचऋजीका गट्टा हैं सोनी उक्त महोदयने स्थापित किये है. . अजीमगंजसे उ मील अंतरसे कासम बजारमे श्रीनेमिनाथजीका मंदिरकाली जीर्णोद्धार कराया जिस्मे रत्नकी प्रतिमाजी विशेष दर्शनके लायक है. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायबहारजीकी सखावत इकिले बंगालेमेंहीं नहीं है परं यत्र यत्र उनोकों आवश्यकीय लगा उहां धर्म धन खर्चनेमेंनी पानी पानी जरी नही. सुरत पासके कतार गामके जीर्णोधारके वास्तेनी बहुत प्रशंसा पात्र मदद किई. छत्रीयकुंम और सुविधिनाथ नगवंतके चवन, जन्म, ज्ञान, कल्याणकवाले काकंदीनगरीके तीर्थमे शीखरबंधी मंदीर बनाये. महावीर स्वामीकी निर्वाणजूमी पावापुरीमें और जहां वीस तीर्थकर मोद पधारेथे एसे श्रीसमेत शिखरजी तीर्थमें जानेके स्टेसन गरेमीमेली मंदिरजी बनाया. जंगीपुरमेंनी नया मंदीर बनाया जाता है. और मारवाम, राजपुताना, अजीमगंज, शीखरजी, पावापुरी, काकंदी, राणीगाम, बाबुराज, उपरांत मुंबश्मेनी जैन यात्रालुयोंको आश्रयदायी धर्मशालायें उक्त महोदयकी ऊलाऊल अचल कीर्ति स्थन रूप सुशोनित है. . तीर्थाधिराज श्रीशजय तीर्थकी तलहटीमें सदावत दीया जाता है और सिझाचलजी, तलाजा, वला, प्रमुख कीतनेहि स्थानोंपर उक्त महोदयके नामकी जैनपाठशालायें स्थापित होके ज्ञानवृद्धीका उद्योगनी सिरु किया गया है. तउपरांत उक्त महोदयने श्रीसिघाचलजी, पावापुरी, समेत शिखरजी, अयोध्याजी विगेरह स्थानोपर तीर्थयात्रा लेजानेका श्रीसंघजी निकालके संघवी तिलकनी करायेथे. । उक्त महोदय एसे पुण्य प्रतापी है की जिनकी संपूर्ण प्रशंसा लिखनेमें कलमकी ताकत नही है. . . उक्त महोदयने १९०४ में बमोदे वाली तीसरी जैन श्वेतांबर कौनफरन्सके प्रमुख होके समस्त जैनोमे एक अग्रेसरपद लियाथा. . उक्त महोदयके धार्मिक और सार्वजनीक हितकार्यकी उदार Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.-.-.वृत्तिकी प्रतिष्टा विजलीकी माफक प्रकाशक होती रही जिनका प्रत्यक्ष दृष्टांत यहहे की सने १७०७ ता. २ जानेवारीके रोज बंगालाके सरकारने अत्यंत प्रसन्न चित्त होके रायबहारका मानवंता खिताब समर्पित कीया और मुर्शीदाबाद लालबागकी कचेरीमें ओनररी मेजीष्ट्रेटका मानवंता होदा इनायत किया और अपनी वकतावर मर्दुम श्रीमती महाराणीकी मायमंम जुबीलीक यादगारीके प्रसंगमे ता. २० मी जुन स. १एए के रोज बादशाही मानका “ खरीता” दीया गया था. तैसेंहिं ता. १ ली जानेवारी स. १९०३ के रोज अपने नामदार शेहेनशाह सातवे एमवरने हिंऽस्थानकी बादशाही स्वीकारी जिस्की यादगारीमें देहली दरबारके नव्य समारंजके समय रायबहापुरकी उदारता और अपने लोकोपयोगी सार्वजनीक हितकार्यकी पीगनमे उसरी वार " खरीत्ता” दिया गया था. यह राजमान होइकोनी अबी तोरसें दीपातेहें. इस दरम्यान सने १७७७ में दोनो नाश्योने सलाह संपसे अपना अपना व्यापार जिन्नभिन्न चलाना सिरु किया हे परं जमीन जागीरोंका हिस्सा ज्योंका त्यों रक्खा हे. यद्यपि व्यापारादि कार्य जिन्नथे तथापि पारस्परीय सलाह संपसें अजिन्नता समानहि प्रवर्तनथा. सने १७एच मे रायबहाकुर बाबु विसनचंदजी अपनी पीने १४ वर्षकी उमरके राजा विजयसिंघजी नामक कुमारको गेमके यह फानी मुनियाको गेम गएथे. श्रीयुत बाबु बिसनचंदजीके गएबाद अपने बोटे नतीजे और उनकी बझी दोलत समालनेका और जोखमदारीका कार्य उक्त महोदयके सिरपर आय पमाथा. कायदेकी रीतसेंजी मुशीदाबाद जिले जङकी कोर्टसेजीउक्त Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ महोदयही राजा विजयसिंघजी और उनकी दोलतके रक्षक निमाये गए थे. उक्त महोदयने अपनी बहादुरी और चालाकी से उस काममें अपनी फर्ज बहुत हि अी तरहसे बजायके उनकी शादी में अधिकता करी और राजा विजयसिंघजीकों इग्लिश, बंगाली, जैनधर्म प्रमुखकी केलवणी देके आगे बढाये. बाबु विजयसिंघजी कों सने १५०० मे ता. २२ मी संबरके रोज लायक उमरवान होनेसे उनकी मिलकतका कबजा सूपरत कर दीया. मी जैसी आशाथी वेसेहि बाबु विजयसिंघजी एक युवक बुद्धीमान् पराक्रमी पुरुष हुए. बाबु विजयसिंघजी का स्वभाव उनके पिताके माफक सद्गुणी व परोपकारी और धर्मकार्यमेजी बहुत सतत प्रयत्नशील हुवा. उपरोक्त दोनो महोदयोंने पुण्यानुबंधी प्राग्नार पुण्यके उदयसे जो जो श्रावश्यकीय कार्य किये है जिनका पूरेपुरा वर्णन करनेमें हमारी कलमको पूरे तोरके शब्दकोश देखनेका व सर देखना पकता है. हमारे लोंके गलके श्रीमंत श्रावक गणमे देशणोंकवाले रायबहार चांदमलजी ढढा, रींयावाले राय सेठजी चांदमलजी, अजमेरवाले रायबाहादुर सेठजी शोभागमलजी ढढा, जयपुवाले राजमान्य सेठजी लक्ष्मीचंदजी व गुलाबचंदजी ढढा, एम.ए. रायबहादुर गणपतसिंघजी दुगम, रायबहादुर महाराज बहादुर सिंघजी गम, रायबहादुर नरपतसिंघजी डुगम, राय लक्ष्मीपति सिंघजी त्रसिंघजी युगम, रायबहादुर शताबचंदजी नाहार विगरह विरह पुण्यवंताने यद्यपि अनेकानेक धार्मिक व्यवहारीक कार्यों करके जैन धर्मकों अनेकवार दीपाया हे विशेषकर बाबु लक्ष्मीपति सिंघजी जी अनेकानेक स्थानोंपर जिन मंदिर बन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाये और रायबहाउर श्रीधनपतसिंघजीने तो श्रीसिखाचखजीकी तलहट्टीपर तीर्थनायककी स्थापना समय अंजनशलाका करवायके लोंकेगळपर आय पमता अपूर्जेरोंका आदेप दूर कराय दियाया जिनसें इन महोदयोंका इस अवसरपर उपकार मानना पुरस्त धारते है. उपर लिखें महाशयोने यद्यपि लौंके गलकों शोलाया परं रायबहाउर श्रीमंत महोदय श्रीबुधसिंघजी उधेरियाने तो अनेक तीर्थस्थानोपर अपने पुण्यकर्मोपार्जितं न्याय लक्ष्मीकों सफल करनेमें अत्यंतहि अगवानी करी है. इतनाहिं नहिं परं लोंके गन्नवाले ढूंढक हें एसा जो आरोप था उनकों परास्त कर जैन धर्मको अत्यंत दीप्यमान करश्रीसंघमें ( तीसरी कोन्फरन्समें ) अग्रणीय पद धारण कीया इत्यादि इत्यादि कौटिक गुणगण संपन्न प्राग्भार पुण्यवंत सेठजी रायबहार श्रीबुधसिंघजी उधेरियाकेहि हस्तकमलमे यह अनेकानेक जनमनानंद प्रद यह ग्रंथ समर्पण कर महोदयके अचल कीर्ति स्थंभेक साथ इनकोली अचल कीर्तिवंत करते हैं जिनके वांचन मनन श्रवण कर अनेकानेक नव्य सत्वोंकों अनंतानंद अक्ष्य ज्ञानपदकी प्राप्ति हो यह हमारी अनीष्टार्थ सिद्धी है. तथास्तु. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेदस्य विषयानुक्रमणिका. mrror or or mr mr .... नवकारमंत्र. पंचिंदिश्र. खमासमण. सुगुरुकों सुखशातापृच्छा. रियावहियं..... तस्स उत्तरि..... স্বল্প खोगस्स. .... करेमि नंते. .... सामाश्यवयजुत्तो. जगचिंतामणि. जंकिंचि. .... नमुथ्थुणं. .... जावंति चेश्याइ. जावंत केवी साहु. जवसग्गहरं. जय वियराय. अरिहंत चेश्याणं. कस्लाणकंदं .... स्नातस्या .... संसारदावानल. पुरकर वरदीवड्ढे. सिखाएं बुखाणं.. वेयावच गराणं.. warry D - 02/2 Prorm MMMMN Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानादि वंदनसवि इच्छामि हामि अतिचार व गाथा सुगुरु वांदा. देवसि श्रालोएम. सातलाख. .... अढार पाप स्थान वंदिता सूत्र .... श्रायरिय जवझाय नमोस्तु वर्द्धमानाय. विशाल लोचन सुदेवया वित्त देवया .... वरकनक. लघुशांति. चक्कसाय. जरहे सर. मन्द जिलाणं. तीर्थवंदना. सकलाईत्. जियसंता. .... कमलदल जुवनदेवया ज्ञानादि गुणयुतानां. अड्डाइजेसु. 0.00 .... .... 0.00 .... .... .... 0000 .... www. : .... .... .... .... 2 .... .... .... .... 9880 .... .... .... .... .... .... .... .... .... 2000 .... .... १३ १४ १४ १४ १५ १६ १.७ १७ १८ २३ २४ २४ १२५ २५ २५ २६ २६ २६ २६ २७ २७ २ ३० ३१ ३२ ३४ ३८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ .... ४५ पए .... ५१ ..... ७३ .... ७३ .... ७४ .... ७५ .... ७६ E मोहोटी शांति. संतिकर. .... . अतिचार. .... नवकारसहि पच्चरकाण..... पोरसी साढ पोरसी. एकसणा बीयासपा. .... आयंबिल पच्चरकाण. .... तिबिहार उपवास. चनविहार उपवास. पाणहार पच्चरकाण. चजविहार पच्चरकाण. तिविहार पच्चरकाणमुबिहार पच्चस्काण. देसावगासी पच्चरकाण. .... पोसह पच्चरकाण. पोसहपारणगाथा. संथारा पोरसी. सीमंधर चैत्यवंदन. .... सिहाचलचैत्य. विमल केवल. सिहाचलचैत्य. शत्रुजयसिचत्र. परमात्मा चैत्यवंदन- .... .... सीमंधर स्तवन.सुणोचंदाजी सिघाचलस्तवन. यात्रानवाणुं. सिघाचल स्तवन. शेजूंजो दीगेरे..... शंखेश्वरपासजी पुजीयें. .... जीववारुं बुं मोरा वालमा......... श्रेणिकराय हुंरे अनाथी निग्रंथ. .............. .... ७७ .... ७ न . D ט D ט M ט . . . . ט ७३ ט W .... ४ .... ७५ .... ७६ .... ७ ..... 0 D Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४ .... एश .... एए ..... १०२ .... १०६ सामायिक खेवानो विधि-....-- सामायिक पारवानो विधि. पच्चरकाण पारवानो विधि. पमिलेहण विधि. देवसि प्रतिक्रमण विधि..... राइ प्रतिक्रमण विधि. .... परकी प्रतिक्रमणविधि- .... चउम्मासी प्रतिक्रमण विधि. संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि. पोसह ग्रहण विधि. .... | पोसह पारण विधि. .... पोसह मंडला विधि. .... जय तिहुण चैत्यवंदन..... जय महाजस. खरतर प्रातःसामायक विधि.. खरतर देवसी प्रतिक्रमण विधि. खरतर राइ प्रतिक्रमण विधि. खरतर परकी प्रतिक्रमण विधि. अचल गच्च प्रतिक्रमण विधि. अचलगच्च गमणागमण. अचलगच्छ व्यक्षेत्र कालजाव. .... अचलगच्छ खघुअतिचार. अचलगच्च जयजय महाप्रन्नु चैत्यवं. अचलगच्छ गुरुवंदणा. .... अचलगच्च सफाय. ..... अचलगच्च सामायक पारणगाथा. अचलगच्च राश्प्रतिक्रमण विधि..... .... १०६ .... १०७ .... ११० .... ११२ .... ११३ .... ११ए .... ११ए DP/2/2/2/2/ - BBB wwwww or or mr m .... १२४ .... १२७ .... १२७ .... १३१ .... १३३ .... १४० .... १४ .... १४४ .... १४६ .... १४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... .... १५० .... १५१ लोकागच्छ सामायक विधि. .... खोंकागच्छ सामायक पारण विधि.... सोंकेगच्छ प्रतिक्रमण विधि. लोकेगच्च लघुश्रतिचार. .... खोंकागच्च राश्प्रतिक्रमण विधि. .... लोकेगच्छ पाक्षिकप्रतिक्रमण विधि. लोकेगच्छ चोमासी प्रतिक्रमणविधि. लोंकेगच्च संवत्सरी प्रतिक्रमणविधि. लोकेगच्च तपचिंतवणी काउस्सग्ग. लोकेगच्च नंदिका पाठ. सागरगच्च प्रतिक्रमणविधि. ... श्रानंदसूरियगच्छ प्रतिक्रमण विधि. वडगच्छ प्रतिक्रमणविधि. राजसूरीयगच्छ प्रतिक्रमणविधि. .... लहुमी पोसाल गच्च प्रतिक्रमणविधि. कमलकलसा गच्च प्रतिक्रमणविधि. कवलेगच्च प्रतिक्रमण विधि. विजयगच्छ प्रतिक्रमणविधि. .... पायचंद्रगच्च प्रतिक्रमणविधि. .... विमलकेवल. सिघाचल. चैत्यवं. .... सुरकीन्नरनागनरिंदनतं. २४ जिन चैत्यवं. आजदेव अरिहंत. पंचतीर्थी चैत्यवं..... विध धर्म. बीज चैत्यवंदन. .... त्रिगडे बेग वीरजिन. पंचमी चैत्यवंदन. .... महाशुदी बाठम. अष्टमी चैत्यवंदन. शासननायकवीरजी. एकादशी चैत्यवं.विशस्थानक चैत्यवं. पहिले पद अरिहंत..... १५२ .... १५३ .... १६० .... १६१ १६२ १६२ .... १६३ .... १६६ .... १६७ .... १६७ १६७ .... १६७ १६७ .... १६७ .... १६७ .... १६न .... १६७ .... १६ए .... १६ए .... १७० .... १७१ .... १७१ .... १७२ ..... १७३ .... १७४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... १७४ ~ ~ ~ ~ ~ १७ए विशस्थानक चैत्यवं. चोवीस पनर. रोहिणी चैत्यवं. रोहिणीतपश्रारा..... तीर्थवंदनचैत्यवं सीमंधर प्रमुखनमुं. तीर्थकरराशी चैत्यवं शांतिनमी । अरिहंतनमो लगवनमो.चैत्यवं. .... जिनवर्ण चैत्यवं. प्रद्मप्रनने वासुपूज्य. जिननवगणना चैत्यवं प्रथम तीर्थंकर. जिनगणधर चैत्यवं. गणधरचोराशी. परमष्टीगुण चैत्यवं. बारगुण अरिहंतदेव. सीमंधरस्तुति. श्रीसीमंधरजिनवर..... सीमंधरस्तुति. श्रीसीमंधर देवसुहंकर. बीजीतिश्रीस्तुति. दिन सकलमनोहर. पंचमीस्तुति. श्रावणसुदिनपंचमीए. अष्टमीस्तुति. मंगलबाळकरीजस..... एकादशीस्तुति. एकादशीअतिरूअडी. शांतिजिनस्तुति शांतिजिनेसरसमरियें. श्रादिजिनस्तुति आदिजिनवरराया. सिद्धचक्रस्तुति. जिनशासनवंच्छित. पर्युषणस्तुति. सत्तरदि. - .... पुण्यपोषण. .... ... सिघाचलस्तुति श्रीसिघाचलतीर्थसार. पार्श्वजिनस्तुति. संखसरपासजी.. सिघाचलस्तुति पुंडरिगिरी महिमा. सिधचक्रस्तुति नितप्रतिकुंप्रणमुं. .... पार्श्वस्तुति. कीधपमप. पर्युषणस्तुति. वलिवलिढुंध्यावं. .... तीर्थमालाचैत्यवं. सद्भक्त्या देवलोके. ११ .... १०२ .. १०३ १४ .... १८५ १०५ .... १७६ १७ .... १नए Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवपद ओलीकरण विधि. ईत्पद खमासमण सिपद खमांसमण. आचार्यपद खमासमण. उपाध्यायपद. खमासमण. साधुपद खमासमण. दर्शनपद खमासमण. ज्ञानपद खमासमण. चारित्रपद खमासम. तपपद खमासमण. तपग्रहण विधि. उजमणा विधि.. विसस्थानक तप विधि. विसस्थानक गुणणा काउस्सग. मोक्षकरंडक तपविधि. स्वर्ग करंरुक. सौभाग्य सुंदर. चौसठिया. अष्टान्दिका. बन्नु जन. अष्टमी. अष्टापदपाहुडी. अशोकवृक्ष. चांद्रायण सूर्यायनतप. वर्द्धमानतप. कनकतप. .... .... .... "" "" "" "" "" "" "" "" .... "" .... ... .... .... .... .... .... .... .... २११ २१४ २१४ . २१५ २१५ २१ .... .... .... **** १३ ୧୯୫ १ए५ १६ १८ २०० २०१ २०५ २०७ २२० २२० २.२० १२० १२० २२० २२१ २२१ २२१ २२१ २२२ २२२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ....१२२ .... १२२ .... १२३ or ....२२४ ....२४ ....१२५ ....२२५ ....१३१ or .... १३१ ....१३२ .... १३२ निगोदायुतप..... .--..-- कमलली. मेरुकट्याणक. , बरतप. पदकमीतप. .... सिघवधुकंगजरणतप. आगम केवलीतप. अंगविशुद्धीतप. परतपालीतप त्रिपर्यंतघनतप. वर्गतप. श्रेणितप. .... घनतप. निर्वाणदीपकतप. बत्रीसकट्याणकतप. कर्मचक्रवाखतप. शिवकुमारबेखातप. कर्मसुडनतप .... अखंडदशमीतप. अमृताष्टमीतप. सत्तरीसयजिनतप. अखःखिततप. पंचमेरूतप. .... बडासमवसरणतप. मोक्षदंडतप. .... दवयंतीतप. .... ऊणोदरीतप..... ::::00mmm WEE .... २३२ ....२३३ ....१३४ .... " .... " .... २३५ .... " .... २३६ .... " ...... " Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... २३७ . . . .... ศ .... " ... २४० . " ศ निवागतप. .... .... केवलज्ञानतप. .. .... जिनदीदातप.... जिनचवन जन्मकट्याणक तप. गौतमपडघातप. लघुपंचमीतप. पंचमीतप. .... पुमरीकतप. .... गुणरत्नसंवत्सरतप. आयंबिलवर्षमानतप. अश्यनिधितप. चांजायणतप.. श्रावकदिनचर्या. मंगलाष्टक. .... अथ वितीय वर्ग. अष्ट प्रकार पूजा विधि. एकविसप्रकारी पुजाकिविधि. पूजाकाफल..... अथत्रितीयवर्ग. अथचतुर्थवर्ग. अथपंचमवर्ग. अथषष्टमवर्ग. वार्षिकचर्या. .... आजन्मकृत्य. ' सीमंधरजिन स्तवन. युगमंधर जिन स्तवन. बीजनुं स्तवन. ศ .... २४१ .... २४२ .... २४५ .... २४ए ...: २५१ .... २५४ .... २५५ .... २५७ .... २६५ .... २६० .... २७३ .... १७७ .... २७० २१ .... २२ .... २०३ ศ ศ ศ ส ศ Purr DDDDDDD Dom DD or ศ ศ ศ ศ ศ . . . . .... .... ...--- ... Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी लघु स्तवन. ज्ञानपंचमीनुं स्तवन. अष्टमीनुं स्तवन. एकादशी स्तवन. श्राराधनानुं स्तवन. सिद्धचक्रजी नुं स्तवन समरीसारदमाय. नवपदजी नुं स्तवन, नवपदध्यान. मङ्गल मुरतपाशकी. श्राजमहोबवरंगरलीरी...... मङ्गलराजे गिरनार. गावोमङ्गलवार. की जे मंगलाचार. श्रजकीरेण सोहाई पोढोपोढोजी शषनप्यारे. राखोनाथवडा इ. श्रावोगांवो वधाईमोरी साथनीयां. जोबधाई राजाना निकेदरबार. .... ...G .... 8000 .... .... मंगलरेगावत सकलसुरनार. आजकी रेसोहानि प्रभुकोनामा मोलहे बलिहारी मरूदे विनन्दकी. जगदीवातुमेराप्र श्रजप्रभुतेरे चरणलाग... नेमजिनंदसुंश्रांखमली दृगनजररी देखन देमुखचंद. मेरी लागी लगन. रातगई बात होननयो. ...B .... .... .... .... 1006 0000 0306 .... 1000 .... .... .... 1000 .... .... **** .... 2000 0880 3400 .... .... .... ..... .... ... 1000 **** .... .... **** ** .... .... ... 0800 .... .... .... .... .... .... .... : २०४ २८५ २३ २७ ३०१ ३११ .... ३१२ ३१३ "" "" ३१४ 55 ३१५ " " "" ३१६ ३१ 151 ३१७ + 25 ܕ ३१८ 5 "" 12 "" 154 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mr आदीजिनंद..... नवरीया मोरी कोन उतारे बेडापार. नरलावेकटोराकेसरका..... .... मारोमुनेंकबमिलस्यैमनमेलु .... इन्त्राणीप्रनुकेवेगीज्यो कजरा-... नयनापीहरवागयेनयनाबदल.. सखीरीह्मारोनेमगयोगिरनार. मतोदासीतुमारी विनादामकी. वस्तुगतवस्तुनोलकण. .... वसोजीमेरेनेननमेमहाराज. दिनकेनाथदयालसवनकी. प्रन्नुजीमोसेकवनबहानेबोलो. नविकनरसेवोशांतिजिनन्द. मेरेजाईजुईगुलावरी. .... कुणवनवीरसमोसा. .... आदिनाथ जिनप्पाराहो. समऊपरीमोहेसमऊपरी. चितमेधरोप्यारो. .... दोनुं दसतोमे अंगीया रचावो. .... मेरोमनलागीरह्योमहावीरचरणमे..... प्रनुमेरी विनतडीनरधारो. नाथजयेवैरागीहमारे .... तारियेमोहेशीतलस्वामी क्योंकरत्नक्तिकरूपतेरी संसारनांमजिस्का. .... मेअरजकरूंसुनोमाहाराज. सुमतीजिनंदाप्रनुआजजुहारो.......... .... ३२४ .... " .... ३२० .... ३२० .... ३२ए . .... ३२ए Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० , .... . . . mm m MAN Mmm M mmmm mr ३३३ .... ३३४ ३३४ नेमिजिनतुमरो दरसनलागेप्यारोरे. . सूरतएसीसावरी. ... सुमतीजिनमुजरोहमारोप्रनुलीजेजी हजुरतुमसैकहुमें दिलकीवेजार. .... साहिवतेरीवंदगीमैंनुलतानही. .... दीलेनादानकुसमझायाचायके. .... श्रावोनेमरहजावोसदन. कधीप्रनुपदमेमनलायातोहोता. .... शांतीवदनकजदेखनैनमधुकरमनलीनोरे. दिवानातेरेदरसकायारमैहुँ. ध्यानमें जिनकेसदालयलीनहोनाचाहीये. आदीनाथजीदेखदरस, .... जीनंदकीमेवारीबीप्यारी. .... एहालअपनाकहुमैकांसे. पंचतीर्थ जिनस्तुति. आदिनाथनुंस्तवन. .... संजवनायजिनस्तवन . .... अभिनन्दनजिनस्तवन. सुमतिनाथजिनस्तवन. .... पदमप्रनुजिनस्तवन. सुपार्श्वनाथनुंस्तवन. चंप्रनुजीनुंस्तवन. सुविधिनाथस्तवन. शीतलनाथस्तवन .... श्रेयांसजिनस्तवन. वासुपुज्यस्वामीनुंस्तवन. विमलनाथस्तवन. m mr mr mr mm my IN MY M N ON MY Y m mr mr mr m ३३५ ३३३ .३३६ ३३७ Mmmmm .... ३४१ ..... , .... ३४२ .... ३४२ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · वैरागी पदअनन्तनाथ जिनुंस्तवन. धर्मनाथनुंस्तवन. शांतिनाथ जिनस्तवन. कुंथुनाथ जिनस्तवन. अरनाथ जिनुंस्तवन. मल्लीनाथ जिनंस्तवनमुनीसुव्रत जिनुंस्तवन. नमीनाथ जिनस्तवन. नेमनाथजी नुंस्तवन. पार्श्वनाथजी नुंस्तवन. महावीरस्वामी नुंस्तवन. मुंबाला महावीरस्तवन. तोबिना औरनजाचुंजिनंदराय. साचुंबे जिनंदनामावरनेन राचुं. धनयुवती परमनललचाणुं. कलस्वरूपी घटघटव्यापी. दीलधरमनकर जिनवरपूजन करवाजईये आज.. प्रजुतारहवे मारूंाहींसुंथ सेरे. श्री चराचरविश्ववरा. निहारयार सारतुं विचार दारहे. देखा नही कनुसार जगतमे. दरीसन बिना खियातरसरही. जबलग विषय घटान घटी. जयजय नवपदा आपसंपदा प्रजुदी जे दरस बडी बेरजइ. प्रभुमेरो ज्ञानकी ज्योती . .... .... ...e .... .... .... .... १३ 6900 .... .... .... .... .... .... .... .... 200 .... .... .... .... : .... .... .... .... 8.00 9330 .... .... .... ... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... ३४३ ३४३ ३४४ ३४५ "" ३४६ ३४६ ३४७ ३४८ 11 25 ३४ ३५० ३५१ "" ३५२ ३५१ "" ३५३ ३५३ ३५४ ३५४ ३५५ ३५५ ३५६ ३५६ "" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ गोडी गाइयें मनरंग. सकल कर्म लक्ष्य करके मुगत पुरगए गए रे. कहाकीनो नर व पाके. .... जोकहो ज्ञानी. जिनरायाना दरिसन पायारे. तुभ्यं नमस्ते स्वामी शांति जिनंदाजी. वीरप्रनुतेरी दोस्तिमे. तुमतोजले विराजोजी. .... नाथकेसे जंबुको मेरु कंपायो. .... .... बहु सारी. सामरिया जैसे बने तेसें तारो. श्रांगीनी यांनी रचना सामरो सुख दाई. सामकहियो विनती मोरी. पावापुर जिनगीतं श्रखीया मेरी. जिनराज नांम तेरा. .... .... .... .... तो उधार्यो मोहे चहिये. गुण अनंत अपार प्रभु तेरे. माई मेरो मन तेरो नंद हरे. इंद्राणी सब मक मक जन्म मोलव. घननननन घनननन घंट सुघोषा. कहुं कहांलों वारुं नणदलवीर. होजी झाली जाने मनेथारी चाहघणी बे. कषन जिणंद श्रानंद कंद कंदा. प्रभु नेमकुमारजी आप विराजो गीरनार मे. किविध किये कर्म चकचूर. 0000 .... जनक सुताहुं नाम धरावुं सीता सझाय. नरज्जव नयर सोहामणुं वणजारारे..... 0.00 2000 8080 .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... ३६७ .... ३६८ ३६ ३७० .... ३५६ ३५७ ३५७ ३५८ ३५८ ३५ ३५ ३६० ३६० ३६१ ३६२ ३६२ ३६३ ३६३ ३६४ ३६४ ३६५ ३६५ ३६५ ३६६ ३६६ ३६६ ३६६ .... Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ मुसोदागर वे दिलंकी बात हमेरी. बधु सदा मगन. आप स्वावमा सहजानंदी सांजल सयासाची सुणावुं. प्राणी रात्रिभोजन वारो. जोबनियानी मोजां फोजां. निंदा मकरशो कोइ पारकीरे. सुकंतारे शीख शोहामणी. ना सीखामानी. धोबी मानी सद्याय जरत चीनी सद्याय. वैराग्य सद्याय. बाहुबलजीनी सद्यायढंढरूषिजीनी सद्याय. ईमंताजीनी सद्याय. करकंडू प्रत्येक बुधजीनी सधाय...... मनोरमा सतीनी सद्याय. मा. .... .... .... .... .... .... क्रोधनी सधाय. माननी सद्याय. मायानी सद्याय. श्राचारंगसूत्रनी सद्याय. कलियुगनी सद्याय. शियल स्वाध्याय. निप्रडीनी सद्याय. आत्मबोध सद्याय. पांचमा आरानो सद्याय. मल वर्जन स्वाध्याय.. .... .... .... .... 9300 ..... .... .... .... 8800 .... 0800 ... .... .... 0.00 .... .... .... .... .... **** .... .... .... .... 0.60 .... 1000 .... .... .... .... .... .... .... .... .... ३७१ ३७१ ३७२ ३७४ ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३८० ३०३ ३८४ ३८४ ३८५ ३८५ ३८६ ३८७ ३८८ ३८ ३८ ३८ ३० ३१ ३२ ३३ . ३०४ ३ ३७ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काया उपर सद्याय. .... ..... तेरकाठीयानी सद्याय. .... मोहोटीहोस नकरवाआश्रयी सद्याय. मधुबिंडुकादृष्टांत सद्याय. वैराग्य सद्याय. .... स्त्रीवर्जन शिखामण सद्याय. परस्त्री वर्जन सद्याय. .... . जीवने समता विशे शिखामण. दान शख तप नाव स्वाध्याय. सामायिक लाल सद्याय. जींक विचार सद्याय. ..... वैराग्योपदेशक सद्याय..... नाव स्वाध्याय. विशस्थानकना तपनो सद्याय. शियल विषे शिखामणनो सद्याय..... प्रनाते वाणलांगावानो सद्याय. .... काउ काज न श्रावेरे. .... .... चैतन्य शिक्षालास आपविचारजोरे. - किसको सबदिन सरखे न होय. .... निजानी सद्याय बैटीमोहनरीदकी. कायामायाकारमी. .... सारबोलनी सद्याय. .... सामायिकनाबत्रीशदोष सद्याय. अश्मंताजीनी सद्याय. .... समकेतनी चोपश्. .... श्रआत्मशिक्षा सद्याय. .... M 0 0 0 0 0 0 0 0 0 DD DDDDDD D Dm wwwwwwwww x x x PM or mr 02 DDDD Mr or wur or D DP/ B. Mor mr 0 0 0 0 ..... ४१ए ..... ४२० .... ४२१ .... .... ४२३ .... ४२६ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया सद्याय. शीलविशे सद्याय... .... कर्मनी सद्याय. मुमति विलाप सद्याय. .... मेघरथ राजानी सद्याय. पंदर तिथिनी पंदर सद्याय. प्रतिपदानी सद्याय. .... वितीयानी सद्याय. तृतियानी सद्याय. चतुर्थीनी सद्याय. पंचमीनी सद्याय. षष्ठीनी सद्याय. सप्तमीनी सद्याय. अष्टमीनी सद्याय. नवमीनी सद्याय. दशमीनी सद्याय. एकादशीनी सद्याय. बादशीनी सद्याय. त्रयोदशीनी सद्याय. चतुर्दशीनी सद्याय. पूर्णिमानी सद्याय. उपदेशी पद.. जाग जाग रेन गई.. .... मे परदेसी पुरका. .... मन खोली तेरो कुन पतियारो. .... रेमन क्युंजिन नाम विसार्यो.-....जगमे नहीं तेरा कोई..... ..... .... ४२७ .... .... ४२० .... ४२ए .... ४३० ....४३३ .... ४३४ .... ४३५ .... ४३६ .... ४३६ .... ४३७ .... ४३० .... ४३ए .... १४१ .... ४२ ..... ४५३ .... .... ४५० ४५१ ४५१ ४५१ ४५२ ४५३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुठी जगतकी माया. मान कहा अब मेरा. मुस्योजमत कहारे. जागरे बटाउ. बिसत वारन लागे. जुवी जगमाया नर के . मेरे घट ज्ञान जान नयो.. यापुदगलका क्या विश्वासा. गौतमाष्टक बंद . तिजय पहुत. नमिऊनामक स्मरणं.. .... .... .... .... .... नक्तामर स्मरणं. कल्याण मंदिर स्तोत्रम्. वृद्ध गोतम स्वामीनो रास. महावीर जिन बंद. नवकारनो बंद. शोलस तिनो बंद. नवकार लघु बंद. जिनपंजर स्तोत्र. ग्रहशान्तिस्तोत्रम्. मंत्राधिराज स्तोत्रम्. लघु जिनसहस्रनाम. पार्श्वजिन स्तुति. शंखेश्वर जिनस्तव. पार्श्वजिन स्तोत्रम् . परमात्मा स्तोत्रम्. नमस्कार स्तोत्रम् . 0000 .... १० .... 3008 040 .... .... 0006 .... .... .... 2100 .... .... .... .... .... .... .... 90.0 .... ४५३ ४५३ ४५४ ४५४ ४९४ ४५५ ४५५ ४५६ ४५७ ४५८ ४ .... 6300 0.00 .... DOGS ४६१. ४६७ ४७३ ४८१ ४८३ ४०६ BOR ४८‍ ४ए १ ४२ ४५ पुण् ყდ ५०० ५०२ ०३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ५०४ .... ए०ए .... ५१४ .... ५१७ .... ५१ए ५२३ .... ५२४ . . . . १ए. शषिमंगल स्तोत्रम्. .... गौमीपार्श्वजिन वृक्ष स्तवन बाणीब्रह्मा. जीडनंजन पार्श्वनाथ बंद.. .... सरस्वती अष्टक. क्रोध मान माया लोजनो बंद. मणिनजिनो बंद. .... मणिनजिनी आरती..... ज्वर ( ताव ) बंद. ..... यंत्र महिमा वर्णन बंद. . मंगलच्यार. .... नीडलंजन पार्श्वनाथनो बंद. गौतम गुरु प्रनात बंद. पार्श्वनाथ बंद. गोमी पार्श्वनाथनो बंद. चोत्रीस अतिसयनो बंद. शिखामणनो बंद. .... अंतरिक पार्श्वनाथ बंद.. शांतिजिन विनतिरूप बंद. पार्श्वनाथनो बंद. .... शनीश्वरनो बंद. .... गौतम प्रजाति स्तबनं. .... दोधक बावनी. साधुसाध्वी योग्य आवश्यक कियाके सूत्रे. .... करमि नंते. .... . .... . .... . .... उत्पामि ठामि. .... . .... . देवसिक अतिचार. ....रात्रिक अतिचार. . .... ...... . .... ६२ .... ५३० .... ५३१ .... ५३२ .... ५३२ ५३३ ५३५ ए३७ .... ५३ए एन ५४४ .... ५० ..... ५५३ .... ५५३ ५५३ .... ५५४ .... ५५५ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रमण सूत्र पगामसशायर पाक्षिक अतिचार. .... पाक्षिक सूत्र..... .... पाक्षिक खामणा. .... प्रातः पमिलेहणकी विधि. संध्या पमिलेहण विधि. पोरसी विधि. पञ्चखाण पारणेकि विधि. गोचरीबालोयण विधि. स्थंडिलशुद्धिका विधि. संथारापोरसिकी विधि. पाक्षिक प्रतिक्रमण गकनी थुई. बमासि काउसग करनेकि विधि. अंतिम देव वंदनकि विधि. सोल संस्कार नाम. .... संस्कार करानेयोग्य गुरु. गांधान संस्कार विधि. शांतिदेवीमंत्र. शांतिदेवीस्तोत्र. ग्रंथियोजनमंत्र. ग्रंथिवियोजनमंत्र. .... जैनवेदमंत्रोत्पत्ति. पुंसवनसंस्कारविधि. जन्मसंस्कारविधि. .... जलमंत्र. .... .... रक्षामंत्र. .... चंजसूर्यदर्शनसंस्कारविधि. .... ५५५ .... ५६१ .... ५६६ .... एन् .... एन्ए .... एए. .... एए? .... एए? .... एएच .... एएए .... एए६ .... एए६ .... एएस .... एएस .... ६०१ .... ६०१ .... ६०२ .... ६०४ .... ६०५ .... ६०६ .... ६०० .... ६०० .... ६१० .... ६१३ .... ६१५ .... ६१५ w Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यमंत्र. .... .... चंघमंत्र. .... . क्षीराशनसंस्कार विधि. .... षष्ठीसंस्कार विधि. मातृकापूजन. सूचिकर्मसंस्कार विधि. .... नामकरणसंस्कारविधि..... अन्नप्राशनसंस्कारविधि..... कर्णवेधसंस्कारविधि. .... दौरकरणसंस्कारविधि. .... उपनयनसंस्कारविधि. .... चारोंवर्णकी जिन्नता. .... जिनोपवीतस्वरूप. उपनयनार्थ. .... उपनयभारंल. मेखलामंत्र. .... कोपीनमंत्र. .... उपनयनधारणमंत्र. व्रतबंधनविधि. ( नमस्कारमहिमा ).... व्रतादेशविधि. ब्राह्मणव्रतादेश. क्षत्रियव्रतादेश. वैश्यव्रतादेश. चातुर्वर्ण्यव्रतादेश. व्रतविसर्गविधि. गोदानविधि..... दानग्रहणमंत्र. .... ६१६ ..... ६१७ .... ६१ए .... ६२० .... ६२१ .... ६४ .... ६२६ .... ६२ए .... ६३२ .... ३३४ .... ६३६ .... ६४१ .... ६४१ ६५२ ६४५ .... ६५७ ... ६४ए .... ६धए . . . .... ६५१ .... ६५५ ६५५ ... ६५० .... ६६० .... .... ६६१ ६६६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ६७३ ६७६ .... ६०१ .... ६३ .... ६०५ .... ६६ .... ६६ .... ६१ :... ६ए शूधको उत्तरीय. .... -- .. बटु करण विधि. विद्यारंज संस्कार विधि..... विवाहसंस्कार विधि....... ब्राह्मविवाहप्रकार. . .... प्राजापत्यविवाहप्रकार..... आर्ष विवाहप्रकार. दैवतविवाहप्रकार. कन्यादानविधि. कुलकरस्थापना. हस्तबंधनमंत्र. वेदिप्रतिष्ठा. ..... तोरणप्रतिष्ठा.. अग्निस्थापनमंत्र. हवनमंत्र. ..... मधुपर्कादिविधि. .... प्रथमलाजाकर्म (प्रथम प्रदक्षिणा )। वितीयलाजाकर्म (वितीय प्रदक्षिणा) तृतीयलाजाकर्म (तृतीय प्रदक्षिणा) चतुर्थलाजाकर्म (चतुर्थ प्रदक्षिणा) करमोचन. .... वरबधूविसर्जन. कुलकरविसर्जन. व्रतारोपसंस्कारबिधि. गुरुलक्षण. .... गुरू बत्रीसगुण. श्रावक इक्कीसगुण. .... ..... ६एए .... ६एए .... 900 .... १०१ .... १०२ .... ७०४ ... ७०५ ..... ७०६ .... ७० .... ७०ए .... ७१० .... ७११ .... ७२२ .... ७१३ .....७१४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्तारोहण. देववंदन. .... दिस्तोत्र ( स्तवन ) सम्यक्तदरुक. नियमप्रदान...... देवतत्व स्वरूप. मिथ्यात्व स्वरूप. देवलक्षण. गुरुलक्षण. अगुरुलक्षण... धर्मलक्षण. .... RIGGO .... .... धर्मलक्षण. देश विरती सामायिकारोपण. पादशव्रतारोपण विधि. प्रतिमावद्दनविधि. उपधानविधि. .... .... .... पुरकरबरदी उपधान. सिद्धाणंबुद्धा उपधान...... मालारोपण विधि. 1000 .... श्रावक दिनचर्या. कपोक्त जिन पूजन विधि. अंत्यसंस्कार विधि. २३ नवकारजपधान. इरियाव ही उपधान. शक्रस्तव ( नमुनुणं ) उपधान. चैत्यस्तव (अरिहंताणं ) उपधान. लोगस्स उपधान. .... .... .... .... .... .... .... .... .... M ..... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... ७३१ .७३३ ७३७ .... ७३८ ७४० ७४१ ७४१ ୨୪ . ७४५ ७५.५ ... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... ..... ७१५ ७१ ७२२ ७२६ .... २. उ ७६० १६२ ७६४ ७६६ ७६६ ७६ ७६ १७१ 900 900 ८०५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्याराधनाविधि. कामणा विधि. व्युत्सर्गविधि. अनशन विधि. अग्निसंस्कारविधि. कालज्ञानस्वरूपं. समाप्तिमंगल. .... 9600 " .... .... "" .... ... २४ 800. .... .... .... .... "" 8806 "" .... "" .... 9000 जाहिर खबर हमारा तर्फसें "जैन विवेक प्रकाश" मासिक पुस्तक प्रत्येक मास प्रसिद्ध होता है. जिसमे बालबोध लिपी, हिंदी जाषामें धार्मिक, व्यावहारीक, नैतीक, सामाजिक विविध विषयें प्रत्येक मास प्रगट होते हें वार्षिक लवाजम टपालसह एक रुपया तीन आना. ( १ ) पंच प्रतिक्रण सूत्र. किमत एकरुप्या. २ ) जैन संस्कार विधि. किमत एकरुपया. किमत बारे (३) चंपक चंद्रावती, गुजराती. (४) जैन गर्भावली. (५) बाल मित्रस्तवनावली नागपहिला. ( ६ ) .... ना. किमत तीन ना. दो आना. जाग दुसरा. चार खाना. चार आना. एक आना. " - ७ ) जाग तिसरा (८) प्राप्तव्य मार्थिक. गुजराती वार्ता. (ए) प्रश्नोत्तररत्नमाला, व, मूर्खशतक. हिंदी टीका. एक खाना. (१०) मूर्ती पूजा मंडन हिंदी जाषा. ( ११ ) विदेशी खांडकी सृष्टता. मिलने का पत्ता. मुंबई पायधोणी श्री किमत एक ना. 8800 .... ८०६ ८१५ १६ ८२० २१ ८२१ ८२४ एक आना. 55 शांतिनाथजी मंदिर. यतिज्ञानचंद्र. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जैनधर्मसिंधु. ॥ ॥श्रीश्रावकस्य पंचप्रतिक्रमणादि सूत्राणि ॥ - ॥१॥ प्रथमनवकार पंचमंगलरूप ॥ __॥ नमो अरिहंताणं॥२॥नमो सिधाणं ॥२॥ नमो आयरियाणं ॥३॥ नमो नवनायाणं ॥४॥ नमो लोए सबसाहूणं ॥५॥ एसो पंच नमु कारो ॥ ६॥ सवपावप्पणासणो ॥ ॥ मंग खाणं च सबसि ॥ ७ ॥ पढमं दव मंगलं ॥ए॥इति ॥१॥ ॥॥ अथ पंचिंदिअ ॥ ॥पंचिंदिअ संवरणो॥तह नवविह बंनचेर गुत्ति धरो॥ चनविद कसाय मुक्को ॥ श्अ अ हारस गुणेहिं संजुत्तो॥१॥पंच महन्वय जुत्तो॥ पंचविदायार पालणसमबो॥पंच समि ति गुत्तो॥ बत्तीस गुणो गुरु मज ॥॥ इति ॥२॥ ॥३॥ अथ खमासमण ॥ ॥श्बामि खमासमणो वंदिनाजावणिजाए. निसीहिआए । मबएण वंदामि ॥ इति ॥३॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. ॥४॥ अथ सुगुरुने शाता सुखपृबा ॥ ॥श्वकारि सुहरा सुददेवसी ॥ सुख तप शरीर निराबाध ॥ सुख संजम यात्रा निर्वहो गेजी ॥ स्वामी शाता जी ॥ नात पाणीनो लान देजो जी॥इति ॥४॥ ॥५॥ अथ शरियावदियं॥ .. ॥श्बाकारेण संदिसह जगवन् ॥ शरियाव दियंपमिकमामि ॥श्वं श्बामि पडिक्कमिजं॥१॥ इरियावदियाए विरादणाए ॥२॥ गमणाग मणे ॥३॥ पाणकमणे बीयकमणे दरियकमणे॥ उसा उत्तिंग पणग दग मट्टी मकमा संताणा संकमणे ॥४॥जे मे जीवा विरादिया ॥५॥ एगिदिया बेदिया तेइंदिया चरिंदिया पंचिं दिया ॥ ६ ॥ अनिदया वत्तिया लेसिया संघा श्या संघटिया परियाविया ॥ किलामिया उद्द विया गणागणं संकामिया जीविया ववरो विया ॥ तस्स मिबामि उक्कम ॥७॥इति ॥५॥ ॥६॥ अथ तस्स उत्तरी॥ ॥ तस्स उत्तरीकरणेणं ॥पायबित्तकरणेणं॥ विसोदीकरणेणं ॥ विसनीकरणेणं ॥ पावाणं Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. कम्माणं ॥ निग्घायणघाए ॥ गमि कानस्सग्गं ॥७॥इति ॥६॥ ॥ ॥ अथ अन्नब उससिएणं ॥ ॥ अन्नब जससिएणं नीससिएणं खासिए णं बीएणं जंनाइएणं उडुएणं वायनिसग्गेणं नमलिए पित्तमुबाए ॥१॥ सुहुमेहिं अंगसंचा लेहि।सुहुमेहिं खेलसंचालहिं । सुहुमेहिं दिकि संचालेदि ॥२॥ एवमाइएहिं आगारेदि ॥अ जग्गो अविरादिजे ॥ हुऊ मे कानस्सग्गो॥३॥ जाव अरिहंताणं नगवंताणं नमुक्कारेण न पा रेमि॥४॥ तावकायं गणेणं मोणेणं काणेणं अप्पाणं वोसिरामि ॥ ५॥इति ॥७॥ ___॥G॥ अथ लोगस्स ॥ ॥खोगस्स नजोअगरे ॥धम्म तिबयरेजि णे॥ अरिदंते कित्तश्स्सं ॥ चवीसंपि केवली ॥१॥ उसन्न मजिअं च वंदे॥ संनव मनिणं दणं च सुमइंच ॥ पनमप्पदं सुपासं ॥ जिणं च चंदप्पदं वंदे॥२॥ सुविहिं च पुप्फदंतं ॥सी अल सिङस वासुपुजं च ॥ विमल मणंतं च जिणं ॥धम्म संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंथु अरं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. च मल्लिं वंदे मुणिसुव्वयं नमि जिणं च ॥ वंदा मि रिम्नेमि ॥ पासं तह वक्ष्माणं च ॥॥ एवं मए अनिथुआ ॥ विदय रयमला पदीण जर मरणा ॥ चनवीसंपि जिणवरा ॥ तिबयरामे प सीयंतु॥५॥ कित्तिय वंदिय महिया ॥ जेए लोगस्सनत्तमासिधा॥ आरुग्ग बोदिलानं ॥ समादिवर मुत्तमं दिंतु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा ।। आश्चेसु अहियं पयासयरा ॥ सागर वर गंन्नीरा ॥ सिधा सिईि मम दिसंतु॥६॥ सबलोए॥इति ॥७॥ ॥॥अथ सामायिकनुं पच्चरकाण ॥ ॥करेमि नंते सामाश्यं सावऊं जोगं पच्च कामि ॥ जाव नियमं पङ्गुवासामि॥ऽविदंति विदेणं मणेणं वायाए काएणं ॥ न करेमि, न कारवेमि तस्स नंते पमिकमामि निंदामि गरि हामि, अप्पाणं वोसिरामि ॥ इति ॥ए॥ ॥१०॥ अथ सामायिक पारवानुं ॥ ॥सामाश्यवयजत्तो॥जाव मणे होशनिय म संजुत्तो॥ बिन्न असुहं कम्मं ॥ सामाश्य जत्तिा वारा ॥१॥ सामाश्अंमि न कए ॥स Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. मणो श्व साव दवइ जम्हा ॥ एएण कारणे णं ॥ बहुसो सामाश्रं कुजा ॥२॥ सामायि क विधिं लीधुं विधिं पारिजं ॥ विधि करतां जे कोइ अविधि हुर्ड होय ते सवि हुं मन वचन कायाये करी॥ मिडामि उक्कडं ॥ इति ॥२॥ ॥१॥अथ जगचिंतामणि चैत्यवंदन ॥ ॥श्बाकारेण संदिसद नगवन् ॥ चैत्यवंद न करुं ॥ ॥जगचिंतामणि जगनाद ॥जग गुरु जगरकण ॥ जगबंधव जगसबवाद।जग नाव विप्ररकण ॥ अहावय संविध॥ रुव कम्महविणासण ॥चनवीसंपि जिणवर ॥जयं तु अप्पडिहयसासण ॥ ॥ कम्मनूमिहिं क म्मनूमिहिं॥पढम संघयणि ॥ जक्कोसय सत्त रिसय ॥ जिणवराण विहरंत लग्न ॥ नव को डिहिं केवलिण॥कोडि सहस्स नव साहु गम्म ॥ संपइ जिणवरवीसमुणि ॥ बिहुँ कोडिदिं वरनाणासमणद कोडि सदस अ॥थुणि जि अनिच्च विदाणिाशाजयन सामी जयन साम॥ रिसद सत्तुंजि ॥जजिंत पहु नेमिजिण ॥ जयन वीर सच्चरि मंमण ॥ जरुअबहिं मुणिसुबय॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ जैनधर्मसिंधु. मुदरिपास द रिप्रखंण ॥ अवर विदेदिं तिचयरा ॥ चिहुं दिसि विदिसि जिंकेवि ॥ ती प्रणाय संपश्य ॥ वंड जि सधेवि ॥ ३ ॥ सत्ताणवर सदस्सा || लंका बप्पन्न अवको डि ॥ बत्तीस बासिच्चाई | तिलोए चेइए वंदे ॥ ४ ॥ पनरस कोमि सयाई ॥ कोमी बायाल लरक प्रवन्ना ॥ बत्तीस सहस सिखाई ॥ सासयबिंबाई पणमामि ॥ ५ ॥ इति ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ अथ जंकिंचि ॥ ॥ जं किंचि नाम तिचं ॥ सग्गे पायालि मा से खोए || जाई जिए बिंबाई || ताई सवा इं वंदामि ॥ १ ॥ इति ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ अथ नमुचुणं वा शक्रस्तव ॥ ॥ नमुनृणं अरिहंताणं, भगवंताणं ॥ १॥ आइगराणं, तिच्चयराणं, सयं संबुदाणं ॥ २ ॥ पुरिसोत्तमाणं, पुरिससीदाणं पुरिसवरपुंगरी आणं, पुरिसवरगंधदवीणं ॥ ३ ॥ लोगोत्तमा णं, लोगनादाणं, लोग दियाणं, लोगपई वाणं, लोगपको अगराणं ॥ ४ ॥ जयदया णं, चकुदयाणं ॥ मग्गदयाणं, सरणदयाणं, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. बोदियाणं ॥ ५ ॥ धम्मदयाणं, धम्मदेसिया णं ॥ धम्मनायगाणं, धम्मसारदीणं, धम्मवर चारंतचक्कवट्टीणं ॥ ६ ॥ अप्पमिदयवर नाणदंसणधराणं, विट्ठ बनमाणं ॥ ७ ॥ जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं, बुझाणं बोदयाणं, मुत्ताणं मोगाणं ॥ ८ ॥ . सवन्नणं सवदरिसिणं, सिव मयल मरु मांत मरक य मधाबाद मपुारा वित्ति | सिद्धि गइ नाम धेयं ॥ ठाणं संपत्ताणं, नमो जिणाणं जिअ न याणं || || जे अई जे सिद्धा ॥ जे विस्संति सागर काले | संपइ वट्टमाणा ॥ स तिवि वंदामि ॥ १० ॥ इति ॥ १३ ॥ ॥ १४॥ अथ जावंति चेइआई ॥ ॥ जावंति चेइच्याई ॥ उट्टे देय तिरि अलोए ॥ सव्वाई ताई वंदे ॥ इदसंतो तब संताई ॥ १ ॥ इति ॥ १४ ॥ - थ जावंत केवि साहू ॥ ॥ जावंत केवि साढू ॥ जरदेवय मादा विदे दे ॥ सधेसिंतेसिं पण ॥ तिविदेण तिदं ड विरयाणं ॥ १ ॥ इति ॥ ॥१५॥ G Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ט जैनधर्मसिंधु. ॥ १६ ॥ अथ परमेष्ठिनमस्कार ॥ ॥ नमोऽर्हसि धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॥ इति ॥ १६ ॥ ॥१७॥ चप्रथ उपसर्गदरस्तवन ॥ ॥ नवसग्गहरं पासं ॥ पासं वंदामि कम्म घणमुक्कं ॥ विसदर विसनिन्नासं ॥ मंगलक लावासं ॥ १ ॥ विसदरफुलिंगमंतं ॥ कंठे धारेइ जो सया मणु ॥ तस्स गहरोगमा री जरा जंति नवसामं ॥ २ ॥ चिन दूरे मंतो ॥ तुन पण मोवि बहुफलो होइ || नर ति रिएवि जीवा ॥ पावंती न डुक दोहग्गं ॥ ३॥ तुद सम्मत्तेल दे ॥ चिंतामणि कप्पपायवप्न दिए ॥ पावंति विग्धेां ॥ जीवा यरामरं ठाणं ॥ ४ ॥ इ संयु महायस ॥ जत्तिनरनिनिरे दिए || ता देव दिऊ बोहिं नवे नवे पास जिणचंद ॥ ५ ॥ इति ॥ १७ ॥ ॥ १८ ॥ अथ जयवीराय ॥ जय वीराय जगगुरु ॥ दोन मम तुह पनावर्ज जयवं ॥ नवनिवे मग्गा ॥ णु सारि आइ फलसिद्धि || १ || लोगविरुधच्चान ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. गुरुजणपू परबकरणं च ॥ सुदगुरुजोगो तबयण ॥ सेवणा आनव मखंडा॥२॥वारि ज जशवि नाण ॥ बंधणं वीराय तुह समए ॥ तहवि मम हुऊ सेवा॥नवे नवे तुम्ह चलणाणं ॥३॥ उत्करकर्ज कम्मरक॥स मादि मरणं च बोदिलानो अ॥ संपजान मद एअं॥ तुद नाद पणाम करणेणं ॥४॥ सर्व मंगलमांगल्यं ॥ सर्वकल्याणकारणम् ॥प्रधानं सर्वधर्माणां ॥ जैनं जयति शासनम् ॥॥१॥ ॥ १५ ॥ अथ अरिहंत चेश्ाणं ॥ ॥अरिहंत चेश्ाणं ॥ करेमि कानस्सग्गं ॥१॥वंदण वत्तिाए, पूअण वत्तिाए। सकार वत्तिाए, सम्माण वत्तिाए ॥ बोदि लान वत्तिाए ॥निरुवसग्ग वत्तिाए ॥२॥ सहाए मेहाए धीईए ॥धारणाए अणुप्पेदाए। वढमाणीए गमि कानस्सग्गं॥३॥ अन्नब इति ॥२०॥ अथ कल्लाणकंदं स्तुति ॥ ॥ कल्लाणकंदं पढमं जिणंदं ॥ संतिं तो नेमिजिणं मुणिंदं॥पासं पयासं सुगणिकगणं ॥नत्ती वंदे सिरि वक्ष्माणं ॥१॥ अपार सं Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. सारसमुद्दपारं ॥ पत्ता सिवं दितु सुश्क्कसारं ॥ सचे जिणंदा सुरविंदवंदा ॥ कल्लाणवल्लीणवि सालकंदा ॥२॥ नवाणमग्गे वर जाणकप्प। पणासिया सेस कुवाश्दप्पं ॥ मयं जिणाणं स रणं बुदाणं ॥ नमामि निच्चं तिजग प्पदाणं॥३॥ कुंदिगोरकीरतुसारवन्ना ॥ सरोजदबा कमले निसन्ना ॥ वाएसिरी पुबयवग्गदहा ॥ सुदाय साअह्म सया पसबा ॥४॥ ॥१॥ अथ स्नातस्यानी स्तुति ॥ ॥ स्नातस्याप्रतिमस्य मेरुशिखरे, शच्यावि नोः शैशवे ॥ रूपालोकन विस्मयाहृतरस,त्रांत्या चमच्चकुषा ॥ जन्मृष्टं नयनप्रनाधवलितं, दीरो दकाशंकया ॥ वकं यस्य पुनः पुनः सजयति, श्रीवईमानो जिनः॥१॥ हंसांसाहत पद्मरे णुकपिशदीरार्णवांनोभृतैः ॥ कुंनैरप्सरसां प योधरनरप्रस्पर्धिनिः कांचनैः ॥ येषांमंदररत्न शैलशिखरे जन्मानिषेकः कृतः ॥ सर्वैः सर्वसु रासुरेश्वरगणैस्तेषां नतोऽहं क्रमान् ॥२॥अ छक्रप्रसूतं गणधररचितं बादशांगं विशालं, चित्रं बह्वर्थयुक्तं मुनिगणषनर्धारितं बुद्धि Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ११ मन्निः ॥ मोदाग्रबारनूतं व्रतचरणफलं के यन्नावप्रदीप, लत्त्या नित्यं प्रपद्ये श्रुतमदम खिलं सर्वलोकैकसारम् ॥ ३ ॥ निष्पंकव्योम नीलद्युतिमलसदृशं बालचंताभदंष्ट्र, मत्तं घं टारवण प्रसृतमदजलं पूरयंतं समंतात् ॥ आ रूढो दिव्यनागं विचरति गगने कामदः काम रूपी, यदः सर्वानुनूतिर्दिशतु मम सदा सर्व कार्येषु सिधिम् ॥ ४॥ इति श्रीमहावीरजि नचतुर्दशीस्तुतिः॥२१॥ ॥ अथ संसारदावानी स्तुति ॥ ॥संसारदावानलदाहनीरं ॥ संमोदधूली ढरणे समीरम् ॥ मायारसादारणसारसीरं ॥ नमामि वीरं गिरिसारधीरम् ॥१॥नावावनाम सुरदानवमानवेन ॥ चूलाविलोलकमलावलि मालितानि ॥ संपूरितानिनतलोकसमीदि तानि ॥ कामं नमामि जिनराजपदानि तानि ॥॥ बोधागाधं सुपदपदवीनीरपूराभिरामं ॥ जीवाहिंसाविरललदरीसंगमागाहदेहम् ॥ चू खावेलं गुरुगममणीसंकुलं दूरपारं॥ सारं वी रागमजलनिधि सादरं साधु सेवे ॥३॥आमू Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ जैनधर्मसिंधु. लालोलधूलीबहुलपरिमलालीढलोलालिमाला॥ ऊंकारारावसारामलदलकमलागारनूमिनिवासे॥ गयासंन्नारसारे वरकमलकरे तारदारानिरा मे॥वाणीसंदोहदेदे नवविरहवरं देहि मे देवि सारम् ॥ ४॥इति ॥२२॥ ॥३॥ अथ पुरकरवरदी॥ ॥पुरकरवरदीवढे ॥ धायसंमे अ जंबुदी वे अ॥नरदे रवय विदेदे ॥धम्माइगरे नमं सामि ॥ १ ॥ तमतिमिरपमलविसण, स्स ॥ सुरगणनरिंदमहिअस्स ॥ सीमाधर स्स वंदे ॥ पप्फोडिअमोहजालस्स ॥२॥ जाई जरामरणसोगपणासणस्स ॥ कल्लाण पुरस्कलविसालसुदावहस्स ॥ को देवदाणवन रिंदगणचिअस्स ॥ धम्मस्स सार मुवलग्न करे पमायं ॥ ३ ॥ सिन्नोपय णमो जिणम ए, नंदी सया संजमे ॥ देवं नाग सुवन्न कि नर गण, स्सनुअनावच्चिए ॥ लोगो जब पक्ष में जगमिणं, तेलुकमच्चासुरं ॥ धम्मो वहां सासवर्ड, विजय, धम्मुत्तरं वढन ॥४॥सुअस्स नगवड केरमि कानस्सग्गं वंदणवत्तिाए । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ॥२४॥ अथ सिहाणं बुाणं ॥ ॥सिहाणं, बुहाणं पारगयाणं परंपरगया णं ॥ लोअग्ग मुवगयाणं, नमो सया सबसि हाणं ॥१॥ जो देवाणवि देवो, जं देवा पंजली नमंसंति ॥ तं देव देव मदिरं, सिरसा वंदे म हावीरं ॥३॥इकोवि नमुक्कारो, जिणवरवस हस्स वक्ष्माणस्स ॥ संसारसागरा तारे नरंव नारिंवा ॥३॥ जडित सेल सिदरे, दिका नाणं निसीदिया जस्स ॥ तं धम्मचक्क वहि,अ रिहनेमि नमसामि॥४॥ चत्तारि अह दसदो य, वंदिया जिवरा चनव्वीसं ॥ परमह निक अहा, सिधा सिम् िमम दिसंतु॥५॥इतिश्४ ॥२॥ अथ वेयावच्चं गराणं ॥ ॥वेयावच्चगराणं संतिगराणं ॥ सम्मदिति समादि गराणं ॥ इति ॥ २५॥ करेमि कान स्सग्गं ॥ अन्नब॥ ॥२६॥अथ नगवानादि वंदन ॥ ॥नगवान् दं॥ आचार्य हं॥ उपाध्याय हं॥ सर्वसाधु दं॥ इति ॥२६॥.. .. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनधर्मसिंधु. ॥२॥ अथ देवसिथ पडिक्कमणे गलं ॥ ॥श्वाकारेण संदिसह जगवन् ॥ देवसिप पमिकमणे गजं ॥ श्वं सबस्सवि देवसिअ छ चिंतिम ॥उन्नासिअ उचिहिअ ॥ तस्स मि बामि उक्कडं ॥इति ॥२७॥ ॥श्॥ अथ श्वामि गमि॥ ॥ श्वामि गमि कानस्सग्गं ॥ जो मे देव सिउ अश्वारो कठ॥ का वा माणसि उस्सुत्तो जम्मग्गो अकप्पो ॥ अकरणिजो छ घाउँ ॥ विचिंत्ति अणायारो॥ अणिजिअ वो॥असावगपानग्गो॥नाणेतह दंसणे चरित्ता चरित्ते ॥सुए समाइए ॥तिन्हं गुत्तीणं॥चनन्दं कसायणं ॥ पंचन्दमणुव्वयाणं ॥ तिन्हं गुण बयाणं ॥ चनन्दं सिकावयाणं ॥बारसवि हस्स सावगधम्मस्स ॥ जं खंडिअं जं विरा दिअं॥ तस्स मिलामि उक्कडं ॥इति ॥२॥ ॥श्॥अथ अतिचारनी आठ गाथा॥ ॥ नाणंमि दंसणंमि अ, चरणमि तवंमित दय विरियंमि ॥ आयरणं आयारो, श्अ एसो पंचदा नणि ॥१॥ काले विणए बहुमाणे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. १५ नवदाणे तदय निन्दवणे ॥ वंजण अब तडुन ए, विदो नाणमायारो ॥ २ ॥ निस्संकि निक्कंखिच्प्र, निव्वितिगिता मूढ दिवी ॥ नववृद किरणें, वबल पावणे अट्ठ ॥ ३ ॥ पणिदाणजोगजुत्तो पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तहिं ॥ एस चारित्तायारो, अव विदो दोइ ना यो ॥ ४ ॥ बारसविदंमि वि तवे, सनिंतरबा दिरे कुसल दिवे || गिलाइ अणाजीवी, ना यो सो तवायारो ॥ ५ ॥ प्रणसमूणोअरि या, वित्ती संखेवणं रसच्चार्ज || कायकिलेसो संली, ण याय बघो तवो दोई ॥ ६ ॥ पाय चित्तं विण, वेयावचं तदेव सद्या ॥ काणं न स्सग्गो विय, नंतर तवो दोई || || अण गूढ़ि बल विरि, पडिक्कमइ जो जुहुत्त मा उत्तो ॥ जुंजइ जहायामं, नायवो वीरिप्राया रो ॥ ८ ॥ इति ॥ २९ ॥ ॥३०॥ अथ सुगुरुवांदणां ॥ ॥ इवामि खमासमणो वंदिनं, जावणि जाए निसी दिखाए ॥ प्रणुजाद मे मि जग्ग दं निसी हि ॥ अहो कायं काय संफासं, खम Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. हिजो ने किलामो॥ अप्पकिलंताणं बह सुने ण ने, दिवसो वश्कतो जत्ताने ॥ जवणि च ने, खामे मि खमासमणो॥देवसिआए वश्क मं आवसिआए, पमिकमामि खमासमणाणं ॥ देवसिआए, आसायणाए ॥ तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिबाए, मणउक्कमाए वयउक्कडए॥ कायकमाए कोहाए, माणाए, मायाए, लोना ए, सवकालिआए ॥ सव मिबोवयाराए, सबध म्माश्कमणाए ॥ आसायणाए जो मे अश्या रो कर्ज, तस्स खमासमणो पमिकमामि ॥ निं दामि गरिदामि अप्पाणं वोसिरामि॥१॥बी जीवारने वांदणे आवसिाए ए पद न कदेवू अने रात्रिय रावश्कतो, तथा चनमासीयें चनमासी वश्कतो, परकीयें परको वश्कंतो सं वबरीयें संवबरो वश्कतो॥ एवी रीतें पाठ क देवो ॥ इति ॥ ३० ॥ ॥३१॥ अथ देवणिअं अलोकं ॥ ॥श्नाकारेणसंदिसहजगवन्देवसिअं आ लो श्वं ॥ आलोएमि जोमे॥इति ॥ ३१॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ॥३२॥ अथ सातलाख ॥ ॥ सात लाख पृथ्वीकाय ॥ सात लाख अप्पकाय ॥ सात लाख तेजकाय ॥ सात लाख वानकाय ॥ दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय ॥ चन्द लाख साधारण वनस्पतिकाय ॥ बे लाख इंद्रिय || लाख तेंद्रिय ॥ बे लाख चौरिं प्रिय ॥ चार लाख देवता ॥ चार लाख नारकी ॥ चार लाख तिर्यच पंचेंद्रिय || चौद लाख मनुष्य ॥ एवं कारे चौराशीलाख जीवायोनिमांदि, माहारे जीवें जे कोइजीव ढण्यो दोय, हणाव्यो दोय, द ता प्रत्यें अनुमोद्यो होय, ते सधे हुं मनेवचने कायायें करी तस्स मिचामि एकमं ॥ इति ॥ ३२ ॥ १७ ॥३३॥ अथ अढार पापस्थानक ॥ ॥ पढेले प्राणातिपात, बीजे मृषावाद त्री जें प्रदत्तादान, चौथे मैथुन, पांचमे परिग्रद बठे क्रोध, सातमे मान, आठमे माया, नवमे लोन, दशमे राग, इग्यारमे द्वेष, बारमे कल द, तेरमे अभ्याख्यान, चौदमें पैशुन्य, पन्नरमे रति रति, शोलमे परपरिवाद, सत्तरमे माया मृषावाद, प्रढारमे मिथ्यात्वशल्य, ए प्रदार पा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. पस्थानमांदे, म्हारे जीवें जे कोइ पाप सेव्युं दोय, सेंवराव्युं होय, सेवता प्रत्यें अनुमोद्यं होय, ते सधे हुं मनें, वचनें, कायायें करी तस्स मिचामि क्कमं ॥ इति ॥ ३३ ॥ १८ ॥३४॥ अथ सवस्सवि ॥ ॥ सवस्सवि देवसि चिंति, नासी चिठि ॥ इवाकारेण संदिसद जगवन् इ० ॥ तस्स मिचामि एक्कडं ॥ इति ॥ ३४ ॥ ||३|| य श्रावकवंदितासूत्र ॥ ॥ वंदितु सब सिदे, धम्माय रिए सव साहू || इच्छामि पक्किमिजं, सावगधम्माइ रस्स ॥ १ ॥ जो मे वयाइच्यारो, नाणे तद दंसणे चरित्तेच् ॥ सुमो बायरो वा, तं निं दे तं च गरिदामि ॥ २ ॥ डुविदेपरिग्गदम्मि, सा वजे बहुविदेच् यारंजे ॥ कारावणे करणे, प डिक्कमे देसि सवं ॥ ३ ॥ जं बधमिंदिएहिं, चनहिं कसाएहिं प्रप्पसबेदिं ॥ रागेण व दोसे एव, तं निंदे तं च गरिदामि ॥ ४ ॥ प्रागमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे णानोगे ॥ अनि जंगे निजंगे, पडिक्कमे० ॥ ५ ॥ संका कंख वि Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. ए गिबा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु॥ सम्मत्त स्स आरे, पमिकमेण ॥ ६॥ बकायसमारंने, पयणे अ पयावणेय जे दोसा ॥ अत्तहाय पर छा, उन्नयहा चेव तं निंदे ॥ ७॥ पंचएहमणुव याणं, गुणवयाणं च तिलह मश्यारे॥ सिका णं च चनएद, पडिक्कमे ॥७॥ पढमे अणुव्वयं मि, थूलग पाणाश्वाय विरई ॥ आयरिअ मप्पसबे, व पमायप्पसंगणं॥ए॥ वहबंध विजेए, अनारे नत्त पाण वुलेए॥पढम व यस्स आरे, पडिक्कमे ॥१०॥बीए अणुव्व यंमि, परिथूलगअलिवयणविरई ॥ आ यरिअमप्पसबे, श्ब पमायप्पसंगणं ॥११॥ सहसा रदस्स दारे, मोसुवएसे अ कूडलेदे अ॥बीय वयस्स आरे, पडिक्कमे० ॥१२॥ तइए अणुवयंमि, थूलग परदवहरणविरई॥ आयरिअ मप्पस्सने, श्ब पमायप्पसंगणं॥ ॥१३॥ तेनादडप्पउंगे, तप्पडिरूवे विरु६ ग मणे अ॥ कूमतूल कूममाणे, पडिक्कमेणार॥ चनबे अणुवयंमि, निचं परदारगमण विरई, ॥ आयरित्र मप्पस्सने, श्च पमायप्पसंगेणं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. ॥१५॥ अपरिग्गहिया इत्तर, अणंग वीवाद तिव अणुरागे ॥ चनब वयस्स श्रे , पडिक्क मे ॥ १६॥श्त्तो अणुव्वए पंचमंमि आयरि अ मप्पसबंमि ॥ परिमाण परिजेए,श्व पमाय प्पसंगेणं ॥ १७॥ धण धन्न खित्त वतू, रुप्प सु वन्ने अकुवित्र परिमाणे ॥उपए चनप्पयंमि,प डिक्कमे ॥ १७ ॥ गमणस्सन परिमाणे, दिसा सु नढे अदेअतिरिअं च ॥बुढिसश्अंतरक्षा, पढमंमि गुणवए निंदे॥१०॥ मऊंमिअ मंसं मिश्र, पुप्फे अफले अगंधमल्लेअ॥जवनोगे परिनोगे, बीयंमि गुणवए निंदे॥२०॥ सच्चि ते पमिबहे, अप्पोल उप्पोलिअंच आदारे॥ तबोसंहि नरकणया, पमिकमे० ॥२१॥ गाली वणसाडी, नाडी फोमी सुवजए कम्मं ॥ वाणिजं चेवय दंत, लक रस केस विसविस यं ॥२२॥ एवं खु जंतपिल्क्षण, कम्मं निलंब णं च दवदाणं ॥ सरदद तलाय सोसं, असई पोसं च वजिजा ॥ २३॥ सबग्गि मुसल जंत ग, तणकठे मंत मूल नेसजे ॥ दिन्ने दवाविए वा, पमिकमे ॥२४॥न्दाणूवट्टण वन्नग, वि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिजेद. लेवणे सद्दरूव रस गंधे ॥ वासणानर णे, पमिक्कमे ॥२५॥ कंदप्पे कुक्कइए, मोहरि अदिगरण नोग अरित्ते ॥ दंमंमि अणहाए, तअंमि गुणवए निंदे ॥१६॥ तिविदे उप्पणि दाणे, अणवघाणे तहा सविहूणे ॥ सामाश्य वितद कए, पढमे सिकावए निंदे ॥१७॥ आणवणे पेसवणे, सद्दे रूवे अ पुग्गलकेवे ॥ देसावगासिअंमि, बीए सिकावए निंदे॥श्न॥ संथारुच्चारविही, पमाय तद चेव नोयणा नोए॥पोसह विदि विवरीए, तइए सिकाव ए निंदे॥शए ॥ सच्चित्ते निरिकवणे, पिदिणे ववएस मबरे चेव ॥ कालाकमदाणे, चनने सिकावए निंदे ॥ ३० ॥ सुदिए सुअ उदिए सुत्र, जामे असंजएसु अणुकंपा ॥ रागेणव दोसेणव, तं निंदे तंच गरिदामि ॥३१॥ साहू सु संविनागो, न क तव चरणकरणजुत्तेसु॥ संते फासु अ दाणे, तं निंदे तं च गरिदामि ॥३२॥ इह लोए परखोए, जीवित्र मरणे अ आसंसपउंगे॥ पंचविदो अश्रो , मा मऊ हुऊ मरणंते ॥ ३३ ॥ कारण काश्णस्स, पमि Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. कमे वाइअस्स वायाए ॥ मणसा माणसिअ स्स, सबस्स वयाश्वारस्स ॥ ३४ ॥ वंदणवय सिकागा, रवेसु सन्ना कसाय दंडेसु ॥ गुत्ती सुअ समिईसुअ, जो अश्ारो अ तं निंदे ॥३५॥ सम्मदिही जीवो, जइ विहु पावं समा यरे किंचि ॥अप्पोसि दो बंधो, जेण न निंद धसं कुण॥३६॥ तं पिढ्सपमिकमणं, सप्प रिआवं सउत्तरगुणं च॥ खिप्पं जवसामेश्वादि व सुसिरिस्क विजों॥३७॥ जदा विसं कुछ गयं, मंत मूल विसरया॥ विजा दणंति मंते हिं, तो तं हव निविसं ॥३०॥ एवं अहविदं कम्मं, राग दोस समझिअं॥आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं दण सुसाव ॥ ३० ॥ कय पावोवि मणुस्सो, आलोश्त्र निदिअ गुरुस गासे ॥ दोश् अरेग लहुर्ज, उदरिअ जरुव नारवदो ॥४०॥ वस्सएण एएण, सावर्ड जवि बहुर होइ ॥ उकाण मंत किरिअं, काही अचिरेण कालेण ॥४१॥ आलोअणा बहुविदा, नयसंजरि पमिकमणकाले ॥ मूल गुण उत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिदामि॥४॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिजेद. तस्स धम्मस केवलि पन्नत्तस्स ॥ अनुमिमि आरा, हणाए विरमि विराहणाए॥तिविदेण पमिकंतो, वंदामि जिणे चनवीसं ॥४३॥ जावं तिचेश्या०॥४४॥ जावंत केवि साद ॥४५॥चिरसंचिय पाव पणासणी, नवसय सदस्स मदणीए ॥ चनवीस जिण विणिग्गय कदाइं, वोलंतु मे दिअहा ॥ ४६॥ मम मंगल मरिहंता सिहा साढू सुअंच धम्मो सम्म दिछी देवा, दिंतु समांहिं च बोहिं च ॥४॥प मिसिहाणं करणे, किच्चाण मकरणे पमिक्कम णं ॥ असद्दहणे अतहा, विवरीय परूवणाए अ॥४॥ खामेमि सब जीवे, सवे जीवा खमं तु मे॥ मित्ती मे सव्वनूएसु, वेरं मजं न केण ॥४ए ॥ एव महं आलोश्य, निंदिअ गरदि अ उगंब्अिं सम्मं ॥तिविदेण पमिकतो, वंदा मि जिणे चनवीसं ॥५०॥ ॥इति ॥ ३५ ॥ ॥३६ ॥ अथ अनुहि ॥ ॥श्बाकरेण संदिसद जगवन, अनुछि उमि, अजिंतर देवसिअंखामेनं ॥श्वं खामेमि देवसिअं, जं किंचि अपत्तिअं, परपत्तिअं॥न Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनधर्मसिंधु. · ते पाणे विए वे प्रवच्चे, आलावे संलावे न वास ॥ समासणे अंतरासाए, जवरिनासा ए जं किंचि ॥ मऊ विषय परी दिणं, सुहुमं वा बायरं वा ॥ तुनेजाणद, प्रदं न याणामि ॥ तस्स मिचामि डुक्करं ॥ इति ॥ ३६ ॥ ॥ अथ प्रायरि नवद्याए ॥ ॥ यरि नवद्याए, सीसे सादम्मिए कुलगणे ॥ जे मे केइ कसाया, सवे तिविदे खामि ॥ १ ॥ सवस्स समण संघस्स, जगव अंजलि करि सीसे ॥ सवं खमावइत्ता, खमामि सव्वरस हयंपि ॥ २ ॥ सवस्स जीव रासिस्स, नावर्ज धम्मो निदिच्या नित्र्यचित्तो ॥ सवं खमावइत्ता, खमामि सवरसप्रयंपि ॥३॥ ॥ ३८ ॥ अथ नमोस्तु वईमानाय ॥ ॥ इच्छामो सहिं, नमो खमासमणाणं ॥ नमोर्दत् ॥ नमोस्तु वईमानाय, स्पर्धमानाय कर्म्मणा ॥ तयावाप्तमोक्षाय, परोक्षाय कुती थिनाम् ॥ १ ॥ येषां विकचारविंदराज्या, ज्यायः क्रमकमलावलिं दधत्या ॥ सदृशैरिति संगतं प्रशस्यं कथितं संतु शिवाय ते जिनेंद्रशः ס Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ॥ २ ॥ कषायतापार्दितजंतुनिर्ति, करोति यो जैनमुखांबुदोजतः ॥ सशुक्रमासोनवष्टि सन्निनो, ददातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् ॥३॥ ॥३॥ अथ विशाललोचन ॥ ॥विशाललोचनदलं, प्रोद्यहंताशुकेशरम् ॥ प्रातर्वीर जिनेंस्य, मुखपद्मं पुनातु वः॥१॥ येषामनिषेककर्म कृत्वा, मत्ता हर्षनरात् सुखं सुरेंजाः ॥ तृणमपि गणयंति नैव नाकं, प्रातः संतु शिवाय ते जिनेशः॥२॥ कलंकनिर्मुक्त ममुक्तपूर्णतं, कुतर्कराहुयसनं सदोदयम् ॥ अ पूर्वचं जिनचं नाषितं, दिनागमे नौमि बुधै नमस्कृतम् ॥३॥इति ॥ ३॥ ॥४०॥ अथ सूत्रदेवोत्रदेव स्तुतिः॥ ॥सुअदेवयाए करेमि कानस्सग्गं० ॥ सुअ देवया नगवई, नाणा वरणीअ कम्म संघायं॥ तेसिं खवेन सययं, जेसिं सुअसायरे जत्ती॥२॥ ॥४१॥ अथ खित्तदेवयाए करेमि० ॥ ॥जीसे खित्ते साहू, दंसण नाणेहिं चरण सहिएटिं॥ साहंति मुस्कमग्गं, सा देवी हरज उरिआई॥१॥ ॥शति॥४१॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनधर्मसिंधुः ॥४२॥ अथ कमखदखस्तुति ॥ ॥कमलदलविपुलनयना, कमलमुखी क मलगर्नसमगौरी ॥ कमले स्थिता जगवती, ददातु श्रुतदेवता सिद्धिम् ॥॥॥इति ॥४२॥ ॥४३॥ अथ जुवणदेवयादिस्तुति ॥ ॥जुवण देवयाए करेमि कानस्सग्गं० ॥ यस्याः देत्रं समाश्रित्य, साधुनिः साध्यते कि याः ॥ सा देवदेवता नित्यं, नूयान्नः सुखदा यिनी ॥१॥इति ॥४३॥ ॥४४॥ अथ ज्ञानादिगुणयुतानां ॥ ॥ज्ञानादिगुणयुतानां, नित्यं स्वाध्याय संय मरतानां ॥ विदधातु जुवनदेवी, शिवं सदा स र्वसाधूनाम् ॥ १॥ इति ॥४४॥ ॥४५॥ अथ अढाइजेसु मुनिवंदन ॥ ॥ अढाइजेसु दीव मुसद्देसु, पन्नरसु कम्म नूमीसु॥ जावंत केविसाहू, रयहरण गुड पडि गह धारा ॥ पंचमहवयधारा, अहारस सहस्स सीलंगधारा ॥ अकयायारचरित्ता, ते सवे सि रसा मणसा मबएण वंदामि ॥१॥ति॥४५॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ५७ ॥४६॥ अथ वरकनक ॥ ॥ वरकनकशंखविद्रुम, मरकतघनसन्निनंवि गतमोहम् ॥ सप्ततिशतं जिनानां, सर्वामरपू जितं वंदे ॥१॥इति ॥४६॥ ॥४॥ अथ लघुशांतिस्तवः॥ ॥ शांतिं शांतिंनिशांतं, शांतं शांता शिवं नमस्कृत्य ॥ स्तोतुः शांतिनिमित्तं, मंत्रपदै शांतये स्तौमि ॥ ३ ॥ मिति निश्चितवचसे, नमो नमो नगवतेऽर्हते पूजाम् ॥ शांतिजिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ॥२॥ सकलातिशेषकमहा, संपत्तिसमन्विताय शस्या य ॥ त्रैलोक्यपूजिताय च नमो नमः शांतिदे वाय ॥ ३ ॥ सर्वामरसुसमूद, स्वामिक सं पूजिताय नजिताय ॥ जुवनजनपालनोयत, तमाय सततं नमस्तस्मै ॥४॥ सर्वरितौ घनाशनकराय सर्वाशिवप्रशमनाय ॥ दुष्ट ग्रहनूतपिशा, च शाकिनीनां प्रमथनाय ॥ ॥ ५॥ यस्येति नाम मंत्र, प्रधानवाक्योपयो गकृततोषा ॥ विजया कुरुते जनहित, मिति च नुता नमत तं शांतिम् ॥ ६॥ नवतु नमस्ते न Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. गवति, विजये सुजये परापरैरजिते ॥ अपरा जिते जगत्यां, जयतीति जयावदे नवति ॥७॥ सर्वस्यापि च संघस्य, नकल्याणमंगलप्रददे ॥ साधूनां च सदा शिव, सुतुष्टिपुष्टिप्रदे जीयाः ॥ ७॥ नव्यानां कृतसिई, निर्टत्ति निर्वाणजननि सत्त्वानाम् ॥ अनयप्रदाननिर ते, नमोस्तु स्वस्तिप्रदे तुभ्यम् ॥ ए॥नक्तानां जंतूनां शुनावदे नित्यमुद्यते देवि ॥ सम्यग् दृष्टीनां धृति, रतिमतिबुद्धिप्रदानाय ॥ १० ॥ जिनशासननिरतानां, शांतिनतानां च जग ति जनतानाम् ॥ श्रीसंपत्कीर्तियशो, वर्धन जय देवि विजयस्व ॥११॥ सलिलानल विष विषधर, उष्टग्रहराजरोगरणनयतः ॥ राद सरिपुगणमारी, चौरतिश्वापदादिन्यः॥ १२ ॥ अथ रद रद मुशिवं, करु करु शांतिं च करु कुरु सदेति ॥ तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं, कुरु कुरु स्व स्ति च कुरु कुरु त्वं ॥१३॥ नगवति गुणवति शिवशां, ति तुष्टि पुष्टि स्वस्तीद कुरु कुरु जना नाम् ॥ मिति नमो नमो हाँ, ही झः॥ यः दः ही फुट फुट् स्वाहा ॥ १४॥ एवं यन्ना Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेंद. मादर, पुरस्सरं संस्तुता जया देवि ॥ कुरुते शांतिं नमतां, नमो नमः शांतये तस्मै ॥१५॥ शति पूर्वसूरिदर्शित, मंत्रपदविदर्जितः स्तवः शांतेः ॥ सलिलादिनयविनाशी, शांत्यादिक रश्च नक्तिमताम् ॥१६॥ यश्चैनं पठति सदा शृणोति नावयति वा यथायोग्यम् ॥ स हि शां तिपदं यायात, सूरिश्रीमानदेवश्च ॥ १७ ॥ पसर्गाः दयं यांति, बिद्यते विघ्नवल्लयः॥ मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ १७ ॥स र्वमंगलमांगल्याम, सर्वकल्यालकारणम् ॥प्रधा नं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥१५॥ ॥ इति श्री लघुशांतिस्तवः ॥४७॥ ॥४॥ अथ श्री चनक्कसाय॥ ॥चनकसाय पडिमल्लूबुरणु, उजय मयण बाणु मुसुमूरण ॥ सरस पिअंगु वन्नुगयगामि ज, जयन पासु नुवणत्तयसामिन ॥१॥ जसु तणु कांति कडप्पसिणिन, सोहर फणि मणि किरणालिन॥ नं नव जलदर तमिल्लय लंबि ज, सो जिणु पासु पयबन वंदिन ॥२॥ इति चनक्कसाय ॥४॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनधर्मसिंधु. ॥४॥ अथ श्री लरहेसरनी सद्याय ॥ __॥नरहेसर बाहुबली, अन्नयकुमारो अ ढं ढण कुमारो॥ सिरिज अणियानत्तो, अश्मुत्तो नागदत्तो अ॥१॥मेअऊ थूलिनद्दो, वयर रिसी नंदिसेण सीदगिरि ॥ कयवन्नो अ सुको सल, घुमरि केसि करकंमू॥२॥ दल्ल विदल्ल सुदंसण, साल मदासाल सालिनदो अ॥न हो दसन्ननदो, पसन्नचंदो अजसनहो ॥३॥ जंबुपटु वंकचूलो, गयसुकुमालो अवंतिसुकु मालो॥धनोश्खाइपुत्तो, चिलाइपुत्तो आ बाहु मुणी॥४॥ अजागिरि अररिक, अजासु हबी नदायगो मणगो ॥ कालयसूरि संबो, प अन्नो मूखदेवो अ॥५॥ पनवो विन्दुकुमारो अद्दकुमारो दढप्पहारी॥सिऊंस कुरगर अ सिजंनव मेहकुमारो अ॥६॥ एमाइ मदा स त्ता, दिंतु सुहं गुणगणेहिं संजुत्ता ॥ जेसिं नाम ग्गदणे पावपबंधा विलयंजंति ॥ ७॥ सुलसा चंदनबाला, मणोरमा मयणरेदा दमयंती ॥न मयासुंदरी सीया, नंदा नद्दा सुलद्दा य ॥ ॥ राश्मई रिसिदत्ता, पनमाव अंजणा सिरी दे Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद . ३१ वी ॥ जिह सुजिह मिगावइ, पजावई चिह्नणा देवी ॥ ॥ बंजी सुंदरी रुप्पिणि, रेवई कुंती सिवा जयंती य ॥ देवइ दोवइ धारिणी, कलाव ई पुप्फचूला य ॥ १० ॥ पनमावई य गोरी, गं धारी लकमणा सुसीमा य ॥ जंबूवइ सच्चना मा, रुप्पिणि कन्द महिसी ॥ ११ ॥ जका य जखदिन्ना, नूच्या तह चेवनूय दिन्ना य ॥ सेणा वेणा रेणा, जयणी इच्चाइ महासइजे, जयंति आर्जु ॥ प्रवि वजइ जासिं, जस पडदो तिहु सयले ॥ १३ ॥ ॥ इति सता सतीयोनी धूलिनदस्स ॥ १२ ॥ कलंकसीलकलि सद्याय ॥ ४० ॥ ॥ ५० ॥ अथ श्री मन्दजिणाणं सद्याय ॥ ॥ मन्दजिणाणं आणं, मित्रं परिदरद धर सम्मत्तं ॥ बदि वस्सयंमि, नकुत्तो होइ पइ दिवसं ॥ १ ॥ पसु पोसढ़वयं, दाणं सीलं तवो अ जावो ॥ सजाय नमुक्कारो, परोवया रो अजय ॥ २ ॥ जिणपूर जिनथूणि णं, गुरुथु साहम्मियाणा वचनं ॥ ववदार स्य सुधी, रहजुत्ता तिचजुत्ता य ॥ ३ ॥ नव Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनधर्मसिंधु. सम विवेक संवर, नासासमिई जीव करुणा य॥धम्मिअ जण संसग्गो, करणदमो चरिण परिणामो॥४॥ संघोवरि बहु मानो, पुत्रय लिहणं पन्नावणा ति ॥ सट्ठाण किञ्च मेअंनि चं सुगुरूवएसेणं ॥५॥इति ॥ ५० ॥ ॥५१॥ अथ श्री तीर्थवंदना ॥ ॥सकल तीर्थ वंड करजोड्य, जिनवरना मे मंगल कोड्य ॥ पहेले स्वर्गे लाख बत्रीश, जिनवर चैत्य नमुं निशदीस ॥ १॥ बीजे ला ख अहाविश कह्यां, त्रीजे बार लाख सर्दह्यां॥ चोथे स्वर्गे अम लख धार, पांचमे वं लाख ज चार,॥२॥ स्वर्गे सहस पचास, सातमे चालिश सहल प्रासाद ॥ आपमे स्वर्ग बद जार, नव दसमे वंडं शत चार ॥३॥ अग्यार बारमे त्रणशे सार, नवग्रैवेयके व्रणशे अढा र ॥ पांच अणुत्तर सर्वे मली, लाख चोराशी अधिकां वली ॥ ४ ॥ सहस सत्ताणुं त्रेविश सा र, जिनवर नुवन तणो अधिकार ॥ लांबां शो जोजन विस्तार, पचास जंचां बोहोंतेर धार ॥ ॥५॥ एकशो एंशी बिंब परिमाण, सनासदि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. त एक चैत्ये जाण ॥ शो कोम वावन कोमस नाल, लाख चोराणुं सहस चौंाल ॥६॥सा तशें नपर साठ विशाल, सवि बिंब प्रणमु त्रण काल ॥ सात कोमि ने बोहोतेर लाख ॥ जुवनपतिमां देवल नांख ॥७॥ एकशो एं शी बिंब प्रमाण, एक एक चैत्ये संख्या जाण ॥ तेरशे कोम नेव्याशी कोम, साठ लाख वंदूं कर जोमि ॥७॥ बत्रीशे ने उंगणसाठ, ति बलोकमां चैत्यनो पाठ॥त्रण लाख एकाएं हजार, त्रणशे वीश ते बिंब जुहार ॥ ए॥ व्यंतर जोतिषिमा वली जेद शाश्वता जिनवर वंडं तेह ॥ रुषन चंजानन वारिखण, वर्द्धमान नामे गुणश्रेण ॥ १०॥ समेतशिखर वंदूं जि न वीश, अष्टापद वंडं चोवीश ॥ विमलाचल ने गढ गिरनार, आबु ऊपर जिनवर जुहारा ॥ ११ ॥ शंखेश्वर केशरियो सार, तारंगे श्री अजित जुहार॥अंतरीक वरकाणो पास, जीरा वलो ने थंनण पास॥१२॥गाम नगर पुर पा टण जेद, जिनवर चैत्य नमुं गुणगेद ॥ विदर मान वंडं जिन वीश, सि६ अनंत नमुं निशि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. दीस ॥१३॥ अढीवीपमा जे अणगार, अ ढार सहस सिलांगना धार ॥ पंच महाव्रत सु मिती सार, पाले पलावे पंचाचार ॥१४॥ बाह्य अग्निंतर तप जमाल, ते मुनि वंडं गु णमणि माल॥नित नित ऊठी कीर्ति करूं,जीव कहे नवसायर तरूं ॥१५॥ इति ॥१॥ ॥५॥ अथ श्री सकलाईत् ॥ ॥सकलाईत्प्रतिष्टान, मधिष्ठानं शिवश्रियः ॥ भूर्जुवः स्वस्त्रयीशान, माईत्यं प्रणिदध्म हे॥१॥नामाकृतिव्यनावैः, पुनतस्त्रिजगड नं ॥ देने काले च सर्वस्मि, न्नईतः समुपास्महे ॥२॥आदिमं पृथिवीनाथ, मादिमं निःपरि ग्रदम् ॥ आदिमं तीर्थनाथं च, शषनस्वामिनं स्तुमः॥ ३॥ अर्हतमजितं विश्व, कमलाकर नास्करम् ॥ अम्लानकेवलादर्श, संक्रांतजगतं स्तुवे ॥४॥ विश्वनव्यजनाराम, कुल्यातुल्या जयंत ताः॥देशनासमय वाचः, श्रीसनवज गत्पतेः॥५॥ अनेकांतमतांनोधि, समुल्लास नचंमाः॥ दद्यादमंदमानंदं, नगवाननिनंद नः॥६॥ घुसत्किरीटशाणायो, त्तेजितांझिन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. खावलिः ॥ भगवान् सुमतिस्वामी, तनोत्वनिम तानि वः ॥ ७ ॥ पद्मप्रनप्रनोर्देद, जासः पु तु वः श्रियम् ॥ अंतरंगारिमथने, कोपाटो पादिवारुणाः ॥ ८ ॥ श्रीसुपार्श्वजिनेंाय, महें प्रमदितांश्ये ॥ नमश्चतुर्वर्णसंघगगनानो गनास्वते ॥ ए ॥ चंद्रप्रनप्रनोश्चंद्र, मरीचि निचयोज्ज्वला ॥ मूर्त्तिर्मूर्त्तसितध्यान, निर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥ १० ॥ करामलकवश्विं, कल यन् केवल श्रिया ॥ अचिंत्यमादात्म्यनिधिःसुवि धिर्बोधयेऽस्तु वः ॥ ११ ॥ सत्त्वानां परमानंद, कंदोदनवांबुदः ॥ स्याद्वादामृत निस्यंदी, शीत लः पातु वो जिनः ॥ १२ ॥ नवरोगार्त्तजंतुना, मगदंकारदर्शनः ॥ निःश्रेयसश्रीरमणः, ने यांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ १३ ॥ विश्वोपकारकी नूत, तीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः ॥ सुरासुरनरैः पूज्यो, वासुपूज्यः पुनातु वः ॥ १४ ॥ विमलस्वामिनो वाचः, कतक दोदसोदराः ॥ जयंति त्रिजगच्चे तो, जलनैर्मल्य देतवः ॥ १५ ॥ स्वयंनूरमण स्पा, करुणारसवारिणा ॥ अनंत जिदनंतां वः, प्रयच्चतु सुखश्रियां ॥ १६ ॥ कल्प डुमसधर्माण, ३५ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. मिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् ॥ चतुर्श धर्मदेष्टारं, ध मनाथमुपास्महे ॥ १७ ॥ सुधासोदरवाग्ज्यो स्ना, निर्मलीकृतदिङ्मुखः ॥ मृगलमा तमः शान्त्य, शांतिनाथ जिनोऽस्तु वः॥ १७ ॥ श्री कुंथुनाथो नगवान, सनाथोतिशयहिनिः॥सु रासुरननाथाना, मेकनाथोऽस्तु वः श्रिये॥१॥ अरनाथस्तु भगवां, श्चतुर्थारननोरविः॥ चतु र्थपुरुषार्थश्री, विलासं वितनोतु वः ॥२०॥ सुरासुरनराधीश, मयूरनववारिदम् ॥ कर्मजून्मू लनेदस्ति, मलं मझिमनिष्टमः ॥ २१॥ जग न्मदामोदनिज, प्रत्यूषसमयोपमम् ॥ मुनिसुव्र तनाथस्य, देशनावचनं स्तुमः ॥२२॥ लुतो नमतां मूर्ध्नि, निर्मलीकारकारिणम् ॥ वारिप्ल वाश्व नमः, पांतु पादनखांशवः ॥२३॥ यज्वंश समुः कर्मकदहुताशनः ॥ अरिष्टनेमिन गवान्, नूयामोऽरिष्टनाशनः॥॥ कमळे धर णीं च, स्वोचितं कर्म कुर्वति ॥ प्रस्तुल्यम नोटत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः॥५॥ श्री मते वीरनाथाय, सनाथायानुतश्रिया ॥ महानं दसरोराज, मरालायाईते नमः॥ २६ ॥ कृता Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. पराधेपि जने, कृपामंथरतारयोः ॥ ईषद्याष्पार्द योर्नs, श्रीवीरजिननेत्रयोः ॥॥ जयति वि जितान्यतेजाः, सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् ॥ विमलस्त्रासविरदित, स्त्रिजुवनचुमामणिनगवा न् ॥ ॥ वीरः सर्वसुरासुरमदितो वीरें बुधाः संश्रिताः, वीरेणानिहतः स्वकर्मनि चयो वीराय नित्यं नमः ॥ वीरातीर्थमिदं प्र वृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्रीधृति कीर्तिकांतिनिचयः श्रीवीरनई दिश॥ ए॥ अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमानां, वरनुवन गतानांदिव्यवैमानिकानाम् ॥श्व मनुजकृतानां देवराजार्चितानां, जिनवरजुवनानां नावतोदं नमामि ॥ ३० ॥ सर्वेषां वेधसामाद्य, मादि परमेष्ठितम्॥ देवाधिदेवं सर्वज्ञ, श्रीवीरं प्रणिद ध्महे ॥ ३१॥ देवोऽनेकन्नवार्जितोर्जितमदा पापप्रदीपानलो, देवःसिध्विधूविशाल हृदया ऽलंकारदारोपमः॥ देवोष्टादशदोषसिंधुरघटानि र्नेदपंचाननो, नव्यानां विदधातु वांगितफलं श्रीवीतरागो जिनः ॥ ३२ ॥ ख्यातोऽष्टापदप र्वतो गजपदः सम्मेतशैलानिधः, श्रीमान् रैव Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैनधर्मसिंधु तकः प्रसिध महिमा शत्रुंजयो मंगपः ॥ वैजारः कनकाचलोऽर्बुदिगिरिः श्री चित्रकूटादय, स्तत्र श्रीशषनादयो जिनवराः कुर्वंतु वो मंगलम् ॥ ३३॥ ॥ ५३ ॥ अथ श्री अजितशांतिस्तवन ॥ ॥ जि सिवनयं संतिं च पसंत सव्वगयपावं ॥ जयगुरु संति गुणकरे, दोविजि वरे पणिवयामि ॥२॥ गादा ॥ ववगय मंगुल जावे, तेहिं विडल तव निम्मल सदावे ॥ निरुवम महप्पजावे, योसामि सुदिन सनावे ॥ २ ॥ गादा ॥ सबडुकप्पसंतीणं, सब पावप्पसं तिणं ॥ सया जियसंतीणं, नमो जिप्रसं तिणं ॥ ३॥ सिलोगो ॥ जिय जिए सुदप्पव तणं, तव पुरिसुत्तम नाम कित्तणं ॥ तदय धिइ मइ प्पवत्तणं, तवय जणुत्तम संतिकित्तणं ॥४॥ माग दिया ॥ किरिया विदि संचिच्य कम्म किलेस विमुरकयरं, अजि निचिच् च गु ऐदिं महामुणि सिद्धियं ॥ प्रजिअस्सय सं ति मदामुणिणोवि संतिच्ारं संयय मम नि बुइ कारणयंचनमं सायं ॥ ५ ॥ प्रालिंगणयं ।। पुरिसा जइ एकवारणं, जइ विमग्गह सु • " Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ३ए ककारणं ॥ अजिअं संतिं च नाव, अन्न यकरे सरणं पवजादा ॥६॥ मागदिआ॥ अ र रशतिमिर विरदिअ मुवरय जरमरणं, सुर असुर गरुड नुअगवश् पयय पणिवश्रं ॥ अजिअ महमविप्र सुनय नय निनण मन्नय करं, सरण मुवसरिअ नुवि दिविजमदिरं सयय मुवणमे ॥॥ संगययं ॥ तंच जिणुत्तम मुत्तम नित्तम सत्तधरं, अजव मद्दव खंतिविमु त्ति समादि निहिं । संतिअरं पणमामि दमुत्तम तिबयरं,संति मुणी मम संतिसमादिवरं दिसक ॥७॥सोवाणयं॥सावबिपुछपबिवं च वरदवि मबय पसब विबिन्न संथिअं, थिर सरिब वढं मयगल लीलायमान वर गंध दबि पहाण प बियं संथवारिदंदबिदब बाहुं धंतकणगरुअ ग निरुवदय पिंजरं, पवर लकणो वचित्र सो मचारु रूवं, सुश् सुहमणानिराम परम रमणि ज वरदेव इंदि निनाय महुरयरय सुदगिरं ॥णा वेद ॥ अजिअं जिआरिगणं, जिस वनयं नवो दरि॥पणमामि अहं पयर्ड, पावं पसमेन मे जयवं ॥१०॥ रासालु ॥ कुरु Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैनधर्मसिंधु जणवयदबिणानर, नरीसरो पढम त महाच कवहिनोए महप्पनावो, जोबावत्तरि पुरवर सद स्स वर णगर निगम जणवय वंश,बत्तीसा राय वर सहस्साणुजाय मग्गो॥ चन्दस वर रयण नव महानिदि चकसहि सहस्स पवर अवश्ण सुंदरवश्, चुलसी दय गय रद सय सहस्स सामी, बन्नव गाम कोडि सामी आसिजो ना रहंमि नयवं ॥११॥ वेट्ट॥तं संतिं संतिअरं संतिम्मं सव नया ॥ संतिं थुणामि जिणं, संतिं विदेनमे ॥ १२॥ रासानंदिअयं ॥ इख्खाग वि देदनरीसर, नरवसहा मुणिवसदा ॥ नव सारय ससि सकलाणण, विगय तमा विहारया॥ अ जियनत्तम तेष गुणेहिं महामुणि,अमिअबला विमलकुला॥पणमामि ते नवनय मूरण, जग सरणा मम सरणं॥१३॥ चित्तलेदा ॥ देव दा णविंद चंद सूरवंद हह तुह जिह परम, लह रूव धंत रुप्प पट्ट सेअ सुन धवल ॥ दं तपंति संति सत्ति कत्ति मुत्ति जुत्ति गुत्ति पवर, दित्त तेज विदधेअ सवलोअ नाविअप्पन्नाव णे अ पईसमे समाहिं ॥१४॥ नाराय॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ प्रथमपरिछेद. विमल ससिकलाइरेअ सोम, वितिमिर सूर क लारे तेअं ॥ तिअसव गणारेअ रूवं, धरणीधर प्पवराशेअ सारं ॥१५॥ कुसुम लया ॥ सत्ते असया अजिअं, सारीरे अबले अजिअं ॥ तव संजमे अ अजिअं, एस थु णामि जिणमजिअं ॥१६॥ नुअंगपरिरिंगि अं॥ सोमगुणेहिं पावश्न तं नवसरय ससी, ते अ गुणेहिं पावई न तं नवसरयरवी॥रूवगुणे हिंपावश् नतं तिहसगणव, सारगुणेहिं पावन तं धरणिधरवई, ॥१७॥ खिजिअयं॥ तिबवर पवत्तयं तमरयरहिअं धीरजण थु अचिअं चुअ कलिकलुसं॥संतिसुहप्पवत्तयं तिगरण पय, संतिमहं महामुणिं सरण मुवण मे ॥ १७ ॥ ललिअयं ॥ विणणय सिरिरय अंजलि, रिसिगण संथुधे थिमिअं॥ विबुहा दिव धणवश्नरवइ, थुअमदिअच्चिअं बहु सो ॥ अश्रुग्गय सरय दिवायर, समदिन, सप्पनंतवसा ॥ गयणंगण वियरण समुश्त्र चारण वंदिअं सिरसा ॥ १५॥ किसलयमा ला॥ असुर गरुख परिवंदिअं, किन्नरोरगन Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ जैनधर्मसिंधु. मंसियं ॥ देवकोमिसयसंथुअं, समणसंघपरि वंदियं ॥२०॥सुमुदं ॥ अन्नयं अणहं अरयं अरुयं अजिअं अजिअं पय पणमे ॥२१॥ विअविलसिअं ॥ आगयावर विमाण, दिव कणग रद तुरय पदकर सरहिं हुलिअं॥ ससंनमो रयण कुनिअ, बुखि चल कुंभ लं गय तिरीड सोदंत मनलिमाला ॥ २२॥ वे ज सुरसंघा सासुर संघा वेर विनत्ता न त्ति सुजुत्ता, आयर नूसिअ संनमपिंमिश्र सुहु सुविह्मिअ सबबलोघा ॥ उत्तम कंचण रयण प रूवित्र, नासुर नूसण नासुरिअंगा ॥गाय स मोणय नत्तिवसा गय, पंजलिपेसियसीस पणा मा॥२३॥ रयणमाला ॥ वंदिळण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेवय पुणो पयादिणं॥ पणमिक णय जिणं सुरासुरा, पमुश्ा सनवणाईतो ग या॥७॥खित्तयं॥तं महामणि महंपिपंजलि. राग दोस नय मोद वजिअं ॥ देवदाणव नरिं द वंदिरं, संतिमुत्तम मदातवं नमे ॥२५॥ खित्तयं ॥ अंबररंतरविप्रारणियादिं, ललिभ हंस वहुगामिणियादिं ॥ पीण सोणत्यण सा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. लिणियादिं, सकल कमलदल लोणिया दिं ॥ २६ ॥ दीवयं ॥ पीए निरंतर थणजरविण मिय गायलयादिं, मणि कंचण पसिढिलमेद ल सोदि सोणितमादिं ॥ वरखिंखिणि नेजर सतिलय वलय विनूस पियादिं, रइकर चर मणोदर सुंदर दंसािदिं ॥ २७ ॥ चित्तक रा ॥ देवसुंदरी हिं पाय वंदियादिं, वंदिय ज स्स ते सुविक्कमाकमा अप्पणी निलाएदि मंग गोडुप्पगारएहिं केदिं केदिं वि वंगतिल य पत्तलेद नाम दिं चिल्लएहिं संगयं गयाहिं नत्ति सन्निवि वंदणागयादिं हुंति ते वंदिया पुणो पुणो ॥ २८ ॥ नाराय ॥ तमदं जिणचंदं, अजिखं जिप्रमोदं ॥ धुप्रसव किलेसं पयर्ज पण मामि ॥ २९ ॥ नंदिप्रयं ॥ च्प्रवंदिप्रस्सा रिसीगण देवगणेहिं, तो देव वहूदिं पय पण मिस्सा | जस्स जगुत्तमसासण्यस्सा, नत्ति वसागयपिंडियादि ॥ देव वरवरसाव हुआ हिं, सुरवर रइगुण पंडियाहिं ॥ ३० ॥ नासुर यं ॥ वंस सह तंति तालमेलए तिजकरा निराम सद्द मीसएक अ, सुइसमाण सुस ४३ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. जगीष पाय जालघंटिआदिं॥ वलय मेहला कलावनेनरानिराम सद्द मीसए कए अ देवन हादिं ॥ दावन्नाव विनमप्पगारएहिं न चिजण अंग दारएहिं वंदिआय जस्स ते सुवि कमाक्वमा ॥ तयंतिलोत्र सव सत्त संतिकारयं पसंत सब पाव दोस मेस हं नमामि संतिमुत्त मं जिणं ॥३१॥ नाराय॥ बत्त चामर पमाग जूअ जव मंडिआ, छयवर मगर तुरय सि रिवब सुलंगणा ॥ दीवसमुद्द मंदिर दिसाग यसोदिया, सबिअवसदसीदणासिरिवसुलंग णा॥३२॥ ललिअयं ॥ सदावलहा समप्पश्छा, अदोस उहा गुणेदिं जिहा॥ पसायसिहा तवे ण पुहा, सिरी इछा रिसीहिं जुहा ॥३३॥ वा णवासिआ॥ ते तवेण धुप्रसवपावया, सब लोअदिअ मूल पावया॥संथुआ अजिअसंति पायया, हुंतु मे सिव सुदाणदायया ॥३४ ॥ अपरांतिका ॥ एवं तव बल विनलं, थुअं मए अजिअ संति जिणजुअलं ॥ ववगय कम्म रयमलं, गयं गयं सासयं विमलं ॥३५॥ गादा॥ तं बहुगुणप्पसायं, मुक सुदेण परमे Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद . ४५ विसायं ॥ नासेज मेविसायं, कुणन प रिसाविच्य पसायं ॥ ३६ ॥ गादा ॥ तं मोए उच्च नंदि, पावेन च नंदिसेामनिनंदिं ॥ परिसा विय सुदनंदि, मम य दिसन संजमे नंदिं ॥ ३७॥ गादा ॥ परिका चानमासे, संवचरिए प्रव स्स नोि ॥ सोवो सवेहिं, नवसग्ग नि वारण एसो ॥ ३८ ॥ जो पढइ जो निसु इ, उन कालं पि प्रजिअ संतिथुयं ॥ न हुहुंति तस्स रोगा, पुप्पन्ना विनासंति ॥ ३९ ॥ जइइ बढ् परम पयं, अदवा कित्ती सुविचड़ा जुवणे || तातेलुक्कु- धरणे, जिणवयणे प्रायरं कुण॥४०॥ ॥ इति श्री अजितशांतिस्तवनं ॥ ५३ ॥ ॥ ५४ ॥ अथ श्री मोहोटी शांति ॥ ॥ जो जो जव्याः शृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्व मेतत्, ये यात्रायां त्रिभुवनगुरोरार्दतां नक्तिना जः ॥ तेषां शांतिर्भवतु भवतामर्ददादिप्रभावा दारोग्यश्रीधृतिमतिकरीक्लेश विध्वंसदेतुः ॥ १ ॥ मोनो नव्यलोका इददि जस्तैरावतविदेदसं जवानां, समस्ततीर्थकृतां जन्मन्यासनप्रकं पानं तरमवधिना विज्ञाय सौधर्माधिपतिः सुघोषा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनधर्मसिंधु. घंटाचालनानंतरंसकलसुरासुरैः सहसमागत्य सविनयमईनहारकं गृहीत्वा गत्वा कनकाजिशं गे विदितजन्मानिषेकः शांतिमुद्घोषयति ततोदं कृतानुकारमिति कृत्वा महाजनो येन गतः सपंथाः इति नव्यजनैः सहसमागत्य स्नानपीछे स्नात्रं विधायशांतिमुद्घोषयामितत्पूजायात्राना त्रादिमहोत्सवानंतरमिति कृत्वा कर्ण दत्वा निश म्यतां निशम्यतां स्वाहा ॥ॐ पुण्याहं पुण्याई प्रीयंतां प्रीयंतां नगवतोर्हतः सर्वज्ञाः सर्वदर्शि नस्त्रिलोकनाथास्त्रिलोकमहितास्त्रिलोकपूज्यास्त्रि लोकेश्वरास्त्रिलोकोद्योतकराः॥ॐ श्रीषन, अजित,३ संनव, अभिनंदन,५ सुमति, ६ पद्मप्रन, सुपार्श्व, चंप्रन,ए सुविधि,१० शीतल,११ श्रेयांस,१२ वासुपूज्य, १३ विमल, २४ अनंत,२५ धर्म,१६ शांति,२७ कुंथु,१७ अर,रए मल्लि,२० मुनिसुव्रत,२१ नमि,२२ नेमिपार्थ,२३वईमानांताः२४ जिनाः शांता शां तिकरा नवंतु स्वाहा ॥ॐ मुनयोमुनिप्रवरा रिपु विजयउर्निद कांतारेषुर्गमार्गेषुरदंतु वो नित्यं स्वाहा॥ही श्री धृति, मति, कीर्ति, कांतिं, Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ४७ बुद्धि, लक्ष्मी, मेधा, विद्या साधन, प्रवेश निवश नेषु ॥ सुग्टहीतनामानो जयंतु ते जिनेंद्राः ॥ ॐ रोहिणी, प्रकृति, वज्ञांशृंखला, वज्जांकुशी, अ प्रतिचक्रा पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गोरी, गांधारी, सर्वास्त्रा, महाज्वाला, मानवी, वैरुट्या, अच्छूप्ता, मानसी, महामानसी, एता षोमश विद्यादेव्यो रकंतु वो नित्यं स्वाहा ॥ ॐ आ चार्योपाध्यायप्रभृति चातुर्वर्ण्यस्य ॥ श्रीश्रमणसं घस्य ॥ शांतिर्भवतु ॐ तुष्टिर्भवतु पुष्टिर्भवतु ॥ ॐ ग्रहाचं सूर्यागारकबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्च रराहु केतुसहिताः सलोकपालाः सोमयमवरुण कुबेर वासवादित्यस्कंद विनायकोपेताः येचा न्येपि ग्रामनगरदेवदेवतादयस्तेसर्वे प्रीयंतांप्री यंताम् ॥ क्षीणकोशकोष्ठागारानर पतयश्च जवंतु स्वाहा ॥ ॐ पुत्र, मित्र, चाट, कलत्र, सुहृद् स्वजन, संबंधि, बंधुवर्ग, सदिताः नित्यं चामोदप्रमोदकारिणो भवंतु प्रस्मिँश्च भूमंडलायतन निवासीनां साधु साध्वी श्रावक श्राविकाणां रोगोपसर्ग व्याधि दुःख पुर्निददौ मनस्योपशमनाय शांतिर्भवतु ॥ ॐ तुष्टि पु Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ जैनधर्मसिंधु ष्टि शहि, रधि, मांगल्योत्सवाः ॥ सदा प्राउ —तानि पापानि शम्यंतु उरितानि ॥ शत्रवः पराङ्मुखा नवंतु स्वाहा ॥ श्रीमते शांतिना थाय,नमः शांतिविधायिने ॥ त्रैलोक्यस्यामरा धीश, मुकुटान्यर्चिताये ॥१॥शांतिः शांति करः श्रीमान्, शांतिं दिशतु मे गुरुः ॥ शांतिरेव सदा तेषां, येषां शांतिर्यदे गृहे ॥२॥ नन्मृष्ट रिष्ट उष्ट, ग्रहगति सुस्वप्न उनिमित्तादि ॥ संपादितदित संप, नामग्रहणं जयति शांतेः ॥३॥ श्रीसंघजगजनपद, राजाधिपराजसन्नि वेशानाम्॥गोष्ठिकपुरमुख्यानां, व्याहरणैाद रेबांतिम्॥४॥श्रीश्रमणसंघस्य शांतिनवतु ॥ श्रीपौरजनस्य शांतिर्नवतु श्रीजनपदानां शां तिर्नवतु ॥ श्रीराजाधिपानां शांतिर्नवतु॥श्री राजसन्निवेशानां शांतिर्नवतु ॥ श्रीगोष्ठिकानां शांतिर्नवतु ॥ श्रीपौरमुख्यानां शांतिनवतु ॥ श्रीब्रह्मलोकस्य शांतिर्नवतु ॥ ॐ स्वाहा , स्वादा ही श्रीं श्रीपार्श्वनाथाय स्वाहा ॥ एषा शांतिप्रतिष्ठा यात्रास्नात्राद्यवसानेषु ॥ शांतिक सशं गृहीत्वा,कुंकुम चंदन कर्पूरागरु धूप वास Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए प्रथमपरिवेद. कुसुमांजलिसमेतः ॥ स्नात्रचतुष्किकाया श्री संघसमेतः शुचिशुचिवपुः पुष्पवस्त्रचंदनान रणालंकृतः, पुष्पमाला कंठे कृत्वा द्घोषयित्वा ॥ शांतिपानीयं मस्तके दातव्य मिति॥नृत्यंति नित्यं मणिपुष्पवर्ष,सृजति गायं ति च मंगलानि स्तोत्राणि गोत्राणि पति मंत्रान्, कल्याणनाजो दि जिनानिषेके ॥१॥ शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता नवंतु भू तगणाः॥दोषाः प्रयांतु नाशं, सर्वत्र सुखीनव तु लोकाः॥२॥ अहं तिबयरमाया शिवादेवी तुम्हनयर निवासिनी ॥ अम्दशिवं तुम्द शिवं अशिवोपशमंशिवं नवतु स्वाहा ॥३॥ उपस गर्गाः दयं यांति, विद्यते विघ्नवल्लयः ॥ मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥४॥ सर्व मंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् ॥ प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ॥ ५॥इति श्री बृदबाति स्तवः संपूर्णः॥५४॥ ॥॥अथ श्री संतिकरस्तवनं॥ ॥संतिकरं संतिजिणं, जगसरणं जयसिरी ३ दायारं॥समरामि नत्त पालग, निावाणी ग Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ այ जैनधर्मसिंधु. रुडक्कय सेवं ॥ १ ॥ ॐ सनमो विप्पोसदि पत्ता णं संति सामिपायाणं, जाँ स्वादा मंतेणं, सवा सिव रिप्रहरणांणं ॥ २ ॥ ॐ संति नमुक्कारो, खेलोसदि माइ लहि पत्ताणं ॥ सौ हूँ। नमोस वो सहि, पत्ताणं च देइ सिरीं ॥ ३ ॥ वाणी तिहु सामिणि, सिरि देवी जस्करायगणिपिडगा ॥ गढ़ दिसिपाल सुरिंदा, सयावि रकंतु जिन ते ॥ ४ ॥ रकंतु मम रोहिणी, पन्नतीवसिंख ला सया ॥ वऊंकुसि चक्केसरि, नरदत्ता कालि महाकाली ॥ ५ ॥ गोरी तद गंधारी मदजाला माणवी वरुट्टा ॥ तुत्ता मासिया, मदा माण सियाज देवी ॥ ६ ॥ जरका गोमुह मद जका, तिमुदजकेस तुंबरू कुसुमो ॥ मायंगो वि जयाजिय, बंनो मर्ज सुरकुमारो ॥ g ॥ बम्मुद पयाल किन्नर, गरुलो गंधव तदय ज किंदो ॥ कुबेर वरुणो निउडी, गोमेदो पासमा यंगो ॥ ८ ॥ देवी चक्केसरि, जिच्या पुरिया री कालि महाकाली ॥ अच्चु संता जाला, सु तारयासोय सिरिवा ॥ ए ॥ चंडा विजयकुसि प, न्नइति निवाणि अच्च्या धरणी ॥ वइरुट्ट बुत्त Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. गंधा, रिअंब पनमावईसिश ॥१॥ श्अ तिन रकण रया, अन्नेवि सुरासुरी चनदावि ॥ वंतर जोश्णी पमुहा, कुणंतु रकंसया अम्दं॥११॥ए वं सुद्दिछि सुरण, सदिर्ज संघस्स संति जिण चंदो ॥ मऊवि करेन रकं, मुणिसुंदर सूरिथुत्र महिमा ॥१२॥श्अ संतिनाद सम्म, दिहिर कं सर ति कालं जो ॥ सवोवद्दवरदिर्ज, सल हर सुहसंपयं परमं ॥१३॥ तवगबगयणदि णयर, जुगवर सिरिसोमसंदरगरुणं ॥ सपसा य वगणहर, विद्यासिनिणश्सीसो ॥२४॥ इति श्रीसंतिकरस्तवनम् ॥५५॥ ॥५६॥ अथ पादिकादि अतिचार ॥ ॥नाणंमि दंसणंमि अ, चरणमि तवंमि त हय विरियंमि ॥ आयरणं आयारो, इय एसो पंचदा नणि ॥१॥ छानाचार दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार ॥ ए पंचविध आचारमांदे अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवसमांदि सूक्ष्म, बादर, जाणतां अजाणतां हुउँ होय, ते सवि हुँ मने, वचने, कायाये क रीतस्स मिजामिक्कम ॥ १ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. ___ तत्र झानाचारें आठ अतिचार ॥ कालेवि णए बहुमाणे, उवहाणे तदय निन्दवणे॥ वंज ण अब तउनए अविदोनाण मायारो॥१॥ झान काल वेलाये नण्यो गुण्यो नहिं अकाले जण्यो, विनयदीन, बहुमानहीन, योगनपधान हीन, अनेरा कन्हें नणी अनेरो गुरु कह्यो, देव गुरु वांदणे, पडिक्कमणे, सद्याय करतां नणतां, गुणतां, कूमो अदर कानेमात्रायें अधिको उंगे नण्यो, सूत्र कूड़े का, अर्थ कूडो कह्यो, तउन्न य कूडां कह्यां, नणीने विसाखां, साधु तणे धर्म काजें काजो अमन हरयां दांडो अणपमिलेदे, वसति अणशोधे, अणपवेसे, असफाइ, अणो काश्माहे श्री दशवैकालिकप्रमुख सिद्धांत नयो गुण्यो, श्रावकतणे धर्मे थिविरावलि, प डिक्कमणां, उपदेशमाला प्रमुख सिद्धांत नण्यो गुण्यो, काल वेला काजो अणनस्से पढियो झानोपगरण, पाटी, पोथी, उवणी, कवली, नोकरवाली, सापमा सापमी, दस्तरी, वही, उलिया प्रमुख प्रत्ये पग लाग्यो, थूक लाग्यु, थूके करी अदर मांज्यो, उशीसें Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ५३ धस्यो, कने बतां आदार निदार कीधो, झान व्य नदतां नपेदा कीधी, प्रज्ञापराधे विणसतो विणाश्यो, विणसतो नवेख्यो, ती शक्तियें सार संचालन कीधी, ज्ञानवंतप्रत्ये द्वेष, मत्स र, चिंतव्यो, अवज्ञा आशातना कीधी, कोई प्रत्ये लणता गणतां अंतराय कीधो, आपणा जाणपणातणो गर्व चिंतव्यो, मतिझान, श्रुत झान, अवधिझान, मनः पर्यवज्ञान, केवल ज्ञान ए पंच झान तणी असदहणा कीधीकोइ तोतलो बोबडो दस्यो, वितो, अन्यथा प्ररूपणा कीधी॥ज्ञानाचार व्रत विषा अ नेरो जे कोइ अतिचार पद दिवस ॥१॥ दर्शनाचारे आठ अतिचार ॥ निस्संकिय निकंखिय,निवितिगिला अमूढदिछीअ॥ नववू ह थिरीकरणे, वचल प्पन्नावणे अह॥१॥ देव गुरू धर्म तणे विषे निःशंकपणुंन कीधुं तथा ए कांत निश्चय न कीधो. धर्म संबंधीया फल तणे विषे निःसंदेह बुद्धिधरी नही. साधु साधवीना मल मलिन गात्र देखी पुगंग निपजावी. कुचा स्त्रिीया देखी चारित्रीयाऊपर अनाव हु. मि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. थ्यात्वी तणी पूजा प्रनावना देखी मूढदृष्टिपणुं कीधं, तथा संघमां गणवंत तणीअनपबंडणा कीधी, अस्थिरीकरण, अवात्सल्य, अप्रीति,अ नक्ति निपजावी, अबहुमान कीधुं तथा देवा व्य, गुरुव्य, ज्ञानज्व्य, साधारणव्य,नदि त उपेदित प्रज्ञापराधे विणाश्यो, विणसतो उ वेख्यो. बती शक्तिये सार संजाल न कीधी तथा साधर्मिक साथें कलह कर्मबंध कीधो. अ धोती, अष्टपम मुखकोश, पांखें देव पूजा कीधी बिंबप्रत्यें वासकूपी, धूपधाणुं कलशतणो ठ बको लाग्यो. बिंब हाथथकी पाड्यु. जसास निःसास लाग्यो, देहरे, उपासरे, मलश्लेष्मा दिक लोडं. देहरामांदे दास्य, खेल, केलि, कुतूहल, आहार निहार कीधां, पान, सोपारी, निवेदीयां खाधां. उवणदारी दाथथकी पा डी, पमिलेहबुं विसास्युं, जिननुवने चोराशी आशातना, गुरु गुरुणी प्रत्ये तेत्रीश आशात ना कीधी होय, गुरुवचन तहत्ति करी पमिव ज्ज्युनही ॥ दर्शनाचारव्रत विषश्यो अनेरो जे को अतिचार पद दिवस ॥२॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. चारित्राचारें आठ अतिचार ॥ पणिहाण जोगजुत्तो, पंचहिं समिईहिं तिहिं गुत्तिहिं ॥ एस चरित्तायारो, अविहो होइ नायबो॥१॥ ईर्या समिति ते अणजोए हिंड्या, नाषासमि ति ते सावद्य वचन बोल्या, एषणा समिति ते तृण, मंगल, अन्न, पाणी, असूझतुं लीधु, आदाननंडमत्तनिकेवणा समिति ते अश न शयन, उपकरण मातरं प्रमुख अणपूंजी जीवाकुलनूमिकाये मूक्युं लीधुं, परिष्ठापनि कासमिति ते मल, मूत्र, श्लेष्मादिक अणपूंजि जीवाकुल नूमिकायें परग्व्युं मनोगुप्ति, मन मां आर्त रौऽध्यान ध्यायां, वचनगुप्ति, साव द्य वचन बोल्युं, कायगुप्ति ते शरीर अणपमि लेह्य दलाव्युं, अणपूंजे बेटा, ए अष्टप्रवचन माता ते, सदैव साधुतणे धर्मे अने श्रावकतणे धर्म, सामायिक पोसह लीधे. रूमीपरे पाल्या नहीं, खंडणा विराधना दुइ॥ चारित्राचार व्रत विष अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवस मांही सूदम बादर जाणतां अजाणतां हुजे होय, ते सवि हुँ मने,वचने,कायाये करी तस्समिछामि Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैनधर्मसिंधु. विशेषतः श्राकतणे धर्मे श्रीसम्यकत्व मू ल बारव्रत, सम्यक्त्व तणा पांच अतिचार ॥ शंका कंखविगिना ॥शंका श्रीअरिहंत तणा बल, अतिशय, ज्ञानलक्ष्मी, गांनीर्यादिक गुण, शाश्वती प्रतिमा, चारित्रीयानां चारित्र, श्रीजि नवचन तणो संदेह कीधो॥ आकांदा! ब्रह्मा, विष्णु, मदेश्वर, देवपाल, गोगो, आसपाल, पादरदेवता, गोत्रदेवता, ग्रहपूजा, विनायक, द नुमंत, सुग्रीव, वाली, नाद, इत्येवमादिक देश, नगर, गाम, गोत्र, नगरी जूजूा देव, देहरां ना प्रनाव देखी रोग आतंककष्टावे इहलो कपरलोकार्थे पूज्या मान्या, सि६ विनायक जी रानलाने मान्यु, श्ब्युं, बौछ, सांख्यादिक संन्या सी, नरडा, जगत, लिंगिया, जोगीया, जोगी, दरवेश, अनेरा दर्शनीयातणो कष्ट, मंत्र, चम त्कार देखी परमार्थ जाण्याविना नूलाव्या, मो दिया. कुशास्त्र शीख्यां, सोनल्यां. श्रा, संव बरी, होली, बलेव, मादिपूनम, अजापमवा, प्रेतबीज, गौरीत्रीज, विनायकचोथ, नागपांच मी, झूलणाह, शीलसातमी, ध्रुवाहमी, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ प्रथमपरिवेद. नौली नोमी, अहवा दशमी, व्रतअग्यारशी, वववारशी. धनतेरशी, अनंतचनदशी, अमा वाल्या. आदित्यवार, उत्तरायण नैवेद्य कीधां. नवादक, याग, नोग, नतारणां कीधां, कराव्यां अनुमोद्या. पिपले पाणी घाल्यां, घलाव्यां; घ स्वादिर दत्र; खल, कूवे, तलावे, नदीये, उदे वाविये. समुझे, कुंमे, पुण्यदेतुस्नान कीधां, करा व्यां अनुमाद्यां. दान दीधां, ग्रहण, शनिश्चर मादमासें नवरात्रि, नाहायां. अजाणना थाप्यां अनराइवत व्रतोलां कीधां; कराव्यां ॥ विति गिठा धर्म संबंधीयां फलतणे विषे संदेह की घो जिन अरिहंत धर्मना आगर, विश्वोपकार सागर, मोदमार्गना दातार, इस्या गुणनणी न मान्या, न पूज्या, महासती, माहात्मानी इह लोक परलोक संबंधी यानोग वांख्ति, पूजा की धी, रोग. आतंक कष्ट आवे खीण वचन नोग मान्या, माहात्मानां नात, पाणी, मल शोना तणी निंदा कीधी, कुचारित्रिया देखी, चारित्रि या नपर कुनाव हु, मिथ्यात्वी तणी पूजा प्र भावना देखी प्रशंसा कीधी, प्रीति मांडी, दा KET Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन जैनधर्मसिंधु. दिाय लगें तेदनो धर्म मान्यो, कीधो॥ श्रीस म्यक्त्वव्रत विषयि अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवसमांहि ॥१॥ ___ पदेले स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रते पांच अतिचार ॥ वदबंधविजेए॥ छिपद चतुष्प द प्रत्ये रीषवशे गाढो घाव घाल्यो, गाढे बंध ने बांध्यां, अधिक नार घाल्यो, निलाबन कर्म कीधां, चारापाणीतणी वेलाये सार संन्नाल न कीधी, लेदणे देणे किणदिं प्रत्ये लंघाव्यो,तेणे नुखे आपण जम्या, कन्हे रही मराव्यो, बंधी खाने घलाव्यो, शल्यां धान्य तावमे नाख्यां, दलाव्यां, नरमाव्यां. शोधी न वावस्यां इंधण गणां, अणशोध्यां बाल्यो तेमांदि साप, विं जी, खजूरा, सरवलां, मांकम, जूआ, गिंगो डा, साहतां मुआ, उहव्या, रूडे स्थानके न मूक्या. कीमी मकोडीनां इंडां विगेह्यां. लीख फोडी. उदेही, कीडी, मंकोमी, घीमेल, कातरां, चूडेल, पतंगियां, देडकां, अलसीयां, जल, कुंता, मांस, मसा, बगतरा, माखी, तीम प्रमुख जीव विणग. माला हलावतां चलावतां पंखी, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. एए चरकलां, काग, तणां इंडां फोड्या, अनेरा एके ज्यिादिक जीव विणास्या, चाप्या, उदव्या,कांश दलावतां, चलावतां, पाणी गंटतां, अनेरा कां इश्काम काज करतां, विधसपणुं कीधुं. जीवर दारूमी न कीधी,संखारो सूकाव्यो, रूडं गलणु न कीधुं, आणगल पाणी वावस्युं. रूडी जयणा न कीधी. अणगल पाणीय फील्या, लुगमां धो यां. खाटला तावमे नाख्या, फाटक्या. जीवाक लनूमि लींपी, वाशीगार राखी, दलणे, खांडणे, लींपणे, रूमी जयणा न कीधी. आठम चन्द शना नियम नांग्या. धूणी करावी॥ पदेले स्थू लप्राणातिपात विरमण व्रत विषा अनेरोंजे कोइ अतिचार पद दिवसमांदि० ॥१॥ बीजे स्थूलमृषावाद विरमणव्रते पांच अ तिचार ॥ सहसारहस्सदारे ॥ सहसात्कारे कुणहीप्रत्ये अजुगतुं आल अन्याख्यान दीधुं. स्वादारामंत्र नेद कीधो. अनेरा कुणहनो मंत्र, आलोच मर्म प्रकाश्यो. किणदीने अनर्थ पाड वा कूमी बुद्धि दीधी. कूडो लेख लख्यो. कूमी साख नरी. थापणमोसो कीधो. कन्या, गौ, ढो Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैनधर्मसिंधु. र, नूमिसंबंधी लेहणे देणे व्यवसायें वाद वढ वाम करतां मोटकुं जू बोल्या. दाथ पग तणी गाल दीधी. करडका मोड्या. मर्म वचन बो ल्यां ॥ बीजे स्थूलमृषावाद विरमणव्रत विष उ अनेरो जे कोइ अतिचार पदा० ॥२॥ त्रीजे स्थूलअदत्तादान विरमण व्रतें पां च अतिचार ॥ तेनादडप्पयोगे ॥ घर बाहिर खेत्र, खले, पराइ वस्तु अणमोकली लीधी. वावरी, चोराइ वस्तु मोललीधी, चोर धाडप्रत्ये संकेत कीधो. तेहनें संवल दीधुं. तेहनी वस्तु लीधी. विरुधराज्यातिक्रम कीधो नवां, पुराणा, सरस विरस, सजीव, निर्जीव वस्तुना नेल सं नेल कीधा. कूमे काटले, तोले, माने, मापे, व दोस्यां. दाणचोरी कीधी, किणहीने लेखे वरां स्यो. साटे लांच लीधी. कूडो करदो काव्यो. वि श्वासघात काधो. परवंचना कीधी. पाशंग कूमा कीधां. मांमी चढावी. लदके बदके कूमा का टला मान, मापां कीधां. माता, पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र, वंची किणहीने दीधुं. जूदी गांठ कीधी, थापण उलवी. किणहीने लेखे पलेखें Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. नूलव्यु.पमी वस्तु उलवीलीधी ॥त्रीजे स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत विषयि अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवस ॥७॥ चोथे स्वदारासंतोष. परस्त्री गमन विरमण व्रतें पांच अतिचार ॥ अपरिग्गहीया इतर॥ अपरिगृहीतागमन इत्वर ॥ अपरिगृहीता गम न कीधुं. विधवा, वेश्या परस्त्री, कुलांगना,स्वदा राशोकतणे विषे दृष्टिविपर्यास कधो. सराग वचन बोल्यां. आठम, चन्दश, अनेराइ पर्व तिथे नियम लइ नांग्या. घरघरेणां कीधां करा व्यां. वर वढू वखाण्यां. कुविकल्प चिंतव्यो. अ नंग क्रीमा कीधी, स्त्रीनां अंगोपांग निरख्यां. पराया विवाद जोड्या. टिंगला ढिंगली परणा व्यां. कामनोगतणे विषे तीव्र अनिलाष कीधो. अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, सुदणे स्वप्नांतरें हुआ. कुस्वप्न लाधां. नट, विट, पुरुषांशु दांसुं कीधुं।चोथास्वदारासंतोषत्र तविषयि अनेरा जे कोश् अतिचार पदण॥॥ ___ पांचमे स्थूल परिग्रह परिमणव्रते पांच अ तिचार॥धण धन्न खित्तवतू॥धन, धान्य, क्षेत्र Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैनधर्मसिंधु. वस्तु, रूप्प, सुवर्ण, कुप्य, द्विपद, चतुष्पद नवविध परिग्रह ता नियम उपरांत वृद्धि देखी मूलगें संदेप न की धो. माता, पिता, पुत्र, स्त्रीतणे लेखे की धो. परिग्रह परिमाण लीधुं नहीं, लेइने पढिनं नहीं. पढिनं विसायुं. अ लीधुं मेल्युं. नियम विसस्या | पांचमे परिग्रह परिमाणव्रत विषयि अनेरो जे कोइ प्रति चार पद दिवसमांदि० ॥ ५ ॥ हें दिपरिमाणव्रते पांच प्रतिचार ॥ गम स्सय परिमाणे ॥ ऊर्ध्वदिशि, अधोदिशि, तिर्यग दिशियें जावा प्रववातणा निमम लेइ नांग्या. नानोगे विस्मृत लगे अधिक जुमि गया. पाठवणी याघी पाठी मोकली. वढाण व्यवसाय कीधो. वर्षाकालें गामतरू कीधुं, जु मिका एकगमा संखेपी, बीजीगमा वधारी ॥ बहे दिगपरिमाणव्रतविषयि नेरो जे कोइ तिचार पद दिवसमांदि० ॥ ६ ॥ सात में जोगोपोग विरमण व्रतें जोजन श्री पांच प्रतिचार ने कर्महुँती पंदर तिचार एवं वीश अतिचार ॥ सच्चित्तेप डिब दे० ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. सचित्त नियम लीधे, अधिक सचित्त लीधुं॥ अपक्कादार, उपक्कादार, तुबोषधि तणुंनदण कीधुं. उला, जंबी, पोंक, पापमी कीधां ॥ सच्चि त्त दवविगइ, पाणद तंबोल वब कुसुमेसु ॥ वादण सयण विलेवण, बंनदिसि न्हाण जत्तेसु ॥१॥ए चन्द नियम दिनगतरात्रिगत लीधा नहीं. लेश्ने नांग्या. बावीश अन्नदय, बत्रीश अनंतकायमांदि आउं, मूला, गाजर, पिम, पिंमाल, कचरो.मरण, कलि अांबली, गलो. वाघरमा खाधां. वाशी, कोल, पोली, रोट, लीत्रण दिवसर्नु उंदन लीधु. मधु, महुडा, माखण, माटी, वेंगण, पीलु, पीचु, पंपोटा, विष, दिम, करदा, घोलवमां, अजाण्यां फल, टिंबरु, गुंदां, महोर अथाj, आमणबोर, काचुं मी, तिल, खसखस, काचा कोविंबडां खाधां. रात्रि नोजन कीधो. लगनग वेलायें व्यावँ कीधुं. दि वस विणनगे शीराव्या. तथा कर्मतः पंदरक र्मादान ॥ इंगालकम्मे, वणकम्मे, सामिकम्मे, नामिकम्मे, फोमिकम्मे, ए पांचकर्म ॥ दंतवा णिजे, लकवाणिजे, रसवाणिजे, केसवाणिजे, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनधर्मसिंधु. विसवाणिजे, ए पांच वाणिज्य ॥ जंतपिल्क्षण कम्मे, निलंबणकम्मे, दवग्गि दावणया, सर दह तलाय सोसणया, असइ पोसणया, ए पांच सामान्य, ॥ए पांच कर्म, पांचवाणिज्य पांच सामान्य, एवं पंदर कर्मादान बहुसावद्य, मदारंन, रांगण, लीदाला, कराव्या. इंट, नि नामा पचाव्या. धाणी, चणा पक्वान्न करी वेच्या वाशी मांखण तपाव्या. तिलवदोस्खा फागण मास उपरांत राख्या. दलीदो कीधो. अंगीग कराव्या. श्वान, बिल्लाडा,शूडा, सालहि, पोश्या. अनेरा जे कांइ बहु सावध खरकर्मादिक समा चस्या. वाशीगार राखी. लीपणे, बूंपणे, मादा रंन कीधो. अणशोध्या चूला संधूक्या. घीतेल, गोल, गश तणांनाजन उघामां मूक्यां. तेमांदि माखी, कुंति, बंदर, गिरोली पमी. कीडी, चढी तेनी, जयणा न कीधी॥ सातमे लोगोपन्नोग विरमणव्रतविषयि अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवसमांदि० ॥७॥ आग्मे अनर्थदंम विरमणव्रतें पांच अति चार ॥ कंदप्पे कुक्कुए। ॥ कंदर्पलगें विटचेष्टा, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ प्रथमपरिछेद. हास्य, खेल, कूतूहल कीधां, पुरुष स्त्रीना दाव नाव, रूप, श्रृंगार, विषयरस वखाण्या. राज कथा, नक्तकथा, देशकथा, स्त्रीकथा कीधी. पराइ वात कीधी. तथा पैशुन्यपणुं कीg,आर्त्त रौषध्यान ध्यायां. खांमां, कटार, कोश, कुदामा, रथ नखल, मुशल, अग्नि, घरटी, निसाद, दातरमां, प्रमुख अधिकरण मेली दाक्षिण लगें माग्यां आप्यां. पापोपदेश दीधो. अष्टमी चतु देशीये खांमवा दलवा तणानियम नांग्या. मूरखपणा लगें असंब६ वाक्य बोल्या. प्रमा दाचरण सेव्या. अंघोले नाहणे, दातणे, पग धोणे, खेलपाणि, तेल अकिध गंट्यां. कीलणे कील्या. जूवटें रम्या, हिंचोले दिंच्या, नाटक प्रेदणक जोयां, कण कुवस्तु, ढोर लेवराव्यां. कर्कश वचन बोल्यां, आक्रोश कीधा, अबोला लीधा. करकमा मोड्या. मबर धस्यो. संन्नेडा लगाड्या. सराप दीधा. नेंसा, शांढ, हु, कू कमा, श्वानादिक जुकाव्या, जूझतां जोयां. खादिलगें अदेखा चिंतवी, माटी, मी. कण, कपाशीया, काजविण चाप्या. तेनपर बेग. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. आली वनस्पति खुदी, सुइ शस्त्रादिक निपजा व्या. घणी निज कीधी. राग द्वेष लगे एकने शहि परिवार वांगी. एकने मृत्यु दानी वांगी ॥ आग्मे अनर्थ दंमविरमणव्रत विषयि अने रो जे कोइ अतिचार पद दिवसमांहि ॥ ७॥ ___ नवमे सामायिकव्रते पांच अतिचार ॥तिवि दे उप्पणिदाणे॥सामायिक लीधे मन आदह, दोदह, चिंतव्यु. सावध वचन बोल्या. शरीर अणपमिलेद्यं हलाव्युं. ती वेलाये सामा यिक न लीधुं. सामायिक लेइ उघामे मुखे बोल्यां. जंघ आवी, वात विकथा घरतणी चिंता कीधी. वीज दीवा तणी नोदि हुश्, कण कपा शीया, माटी, मीतु, खमी, धावमी, अरणेटो पा षाण प्रमुख चाप्या, पाणी, नील, फुल, सेवाल हरीयकाय, बीयकाय, इत्यादिक आनड्यां, स्त्री तिर्यंच तणा निरंतर परस्पर संघट्ट हुआ, मुहुपत्तियो संघट्टि, सामायिक अणपूग्युं पायुं, पार विसायुं ॥ नवमे सामायिकव्रत विषयि अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवस ॥५॥ दशमे देशावगाशिकव्रतें पांच अतिचार ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. आणवणे पेसवणे॥आणवणप्पउंगे, पेसवण प्पउंगे, सदाणुवाई रूवाणुवाई, बढ़िया, पुग्गल परकेवे॥ नियमित नूमिकामांदे बाहेरथी कांई अणाव्युं. आपण कन्देथकी बाहेर कांइ मोक ल्यु. अथवा रूप देखामी, कांकरो नाखी, साद करीपपणुं तुं जणाव्युं ॥ दशमे देशावगा शिक व्रत विषयि अनेरो जे कोई अतिचार पद दिवसमांहि ॥१०॥ इग्यारमे पोषधोपवासव्रतें पांच अतिचार ॥ संथारुच्चारुविहि० ॥ अप्पडि लेहिय दुप्पमि लेदिय सजासंथारए ॥ अप्पडिलेदिय उप्पडि लेदिय जच्चार पासवण नूमि ॥ पोसह लीधे सं थारा तणी नूमि न पूंजी. बादिरला लहुडां वां स्थंडिल दिवसें शोध्यां नही. पडीलेह्यां नही. मातरूं अणपूंज्युं हलाव्युं. अणपूंजी नू मिकाये परग्व्युं. परग्वतां "अणुजाणदजस्स ग्गो” न कह्यो. परठव्या पूठे वारत्रण "वोसिरे वोसिरे " न करो. पोसह सालामांही पेसतां "निसिही" निसरतां"आवरसहि” वार त्रण जणी नही. पुढवी, अप्प, तेज, वाज, वनस्पति, Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. सकाय तणा संघट्टपरिताप, उपज्व, हुआ. संथारा पोरिसी तणो विधि नवो विसार्यो. पोरिसीमांदे जंध्या. विधें संथारोपाथर्यो. पा रणादिक ती चिंता कीधी. कालवेलायें देव न वांद्या. पक्किमणुं न कीधुं. पोसद सूरों ली धो. सवेरो पायो. पर्वतियें पोसह लीधो नदी ॥ इग्यारमे पोषधोपवासव्रतविषयि नेरो जे कोई प्रतिचार प ० ॥ ११॥ बारमेच्यतिथिसंविभाग व्रते पांच प्रति चार ॥ सच्चित्ते निरिकवणे ० ॥ सचित्त वस्तु देवे उपरबतां महात्मा महासती प्रत्यें प्रसूतुं दान दीधुं देवानी बुद्धे असूतुं फेडी सूतुं कीधुं, देवानी बुदे परायुं फेडी आपणुं कीधुं, देवानी बुहें सूतुं फेमी प्रसूतुं की धुं, देवानी बुदे व्यापणं फेडी परायुं कीधुं, वहो रवा वेला टली रह्यां, सूरें करी मदात्मा तेड्या मवर घरी दान दीधुं, गुणवंत घ्यावे भक्ति न साचवी, बती शक्तें सादम्मी वात्सल्य न कीधुं राई धर्मदेव सीदाता बती शक्तियें -६खां नदी, दीन की प्रत्यें अनुकंपादान न दी || ६० Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६॥ प्रथमपरिद. बारमे अतिथिसंविनागव्रत विषयि अनेरोजे कोई अतिचार पद दिवसमांदि० ॥१२॥ ___ संलेषणातणा पांच अतिचार ॥ इहलोए परलोए ॥ इहलोगासंसप्पउँगे, परलोगासं पप्पउँगे, जीवियासंसप्पउंगे, मरणासंसप्पउंगे कामनोगासंसप्पउंगे ॥इहलोके धर्मना प्रना वलगें राजादि, सुख,सौनाग्य,परिवार, वांग्यां परलोकें देव, देवें, विद्याधर, चक्रवर्ति तणी पदवी वांगी, सुख आवे जीवितव्य वाव्युं, उख आवे मरण वांग्युं, कामनोग तणीवांग कीधी ॥संलेषणाव्रत विषयि अनेरो जे कोई अति चार पद दिवसमांदि०॥ १३ ॥ तपाचार बार नेद ब बाह्य, अभ्यंतर ॥ अणसण मूणोयरित्रा०॥णसण नणीजप वास विशेष पर्वतिथें बती शक्तिये कीधो नहीं, कणोदरीव्रत ते कोलिया पांच सातकणारह्या नहीं, दत्तिसंदेप ते ऽव्य नणी सर्व वस्तुनो संदेप कीधो नहीं, रसत्याग तथा विगयत्याग न कीधो, कायक्वेश लोचादिक कष्ट करया न ही, संलीनता अंगोपांग संकोची राख्या नहीं Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. पञ्चकाण जांग्यां, पाटलो मगमगतो फेड्यो नहीं, गंग्सी, पोरसी, साट्ठपोरिसि, पुरिम, एकास गुं, बेच्प्रास नीवि, बिल प्रमुख पञ्चका पार विसायुं, बेसतां नवकार न नण्यो, उठता पच्चकाण करखं विसायुं, गंग्सीनं जा ग्यं, नीवी, बिल, उपवासादिक, तप करी काचं पाणी पीधुं, वमन हुर्ज, बाह्य तप विषयि अनेरो जे कोई प्रतिचार प० ॥ १४॥ अन्यंतरतप | पायवित्तं वि० ॥ मन शुद्धे गुरु कन्दे लोप्रणालीधी नहीं, गुरु दत्त प्रायश्चित्त तप लेखा शुड़ें पहुंचाड्यो नहीं, देव, गुरु, संघ, सादम्मी प्रत्यें विनय साचव्यो नहीं, बाल, वृध, ग्लान, तपस्वी प्रमुखनुं वै यावच्च न कीधुं, वांचना; पृचना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकयालक्षण पंचविध स्वाध्याय न कीधो, धर्मध्यान, शुक्लध्यान न ध्याया, आ र्त्तध्यान, रौऽध्यान ध्यायां, कर्म दय निमित्तें लोगस्स दशवीशनो काउस्सग्ग न कीधो ॥ अभ्यंतर तप विषयी अनेरो जे कोइ प्रति चार पद दिवसमांदि० ॥ १५ ॥ go Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद . वीर्याचारना ऋण प्रतिचार ॥ प्रणगूदिय बलविरजं० ॥ पढवे, गुणवे, विनय वैयावच्च, देवपूजा, सामायिक, पोसद, दान, शील, तप, नावनादिक धर्मकृत्यने विषे मन, वचन, काया तणुं वतुं वल वीर्य गोपव्युं, रूमा पंचांग खमा समण न दीघां, वांदा तणा प्रावर्त्तविधिसाच व्या नहिं. अन्यचित्त निरादरपणें बेठा, उताव लुं देववंदन, पडिक्कमणुं कीधुं ॥ वीर्याचार वि थियो मेरो जे कोइ प्रतिचार प०॥१६॥ ७१ नाणाइञ्प्रठ पश्वय,समसंलेदणु पण पनरक मेसु बारस तव विरिच्प्रतिगं, चनधी संसय इ यारा ॥ १ ॥ पडिसि दाणं करणे ० ॥ जिन प्रतिषेध अनदय, अनंतकाय, बहुवीजन क्षण, मदारंज परिग्रहादिक कीधां, जीवाजीवादिक सूक्ष्म वि चार सद्दह्या नहीं, आपणी कुमति लगे उत्सूत्र प्ररूपणा कीधी, तथा प्राणातिपात, मृषावाद, प्रदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोन, राग, द्वेष, कलह, अयाख्यान पैशु, न्य, रति रति, परपरिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यात्वशल्य, ए प्रदार पापस्थानक कीधां, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ जैनधर्मसिंधु. कराव्यां, अनुमोद्यां दोय, दिनकृत्यप्रतिक मण, विनय, वैयावच न कीधा, पनेरु जे कांइ वीतरागनी आज्ञा विरुध कीधुं, कराव्युं, अनु मोघुं होय ॥ ए चिहुं प्रकार मांदे ने जे को इ प्रतिचार पद दिवसमांहि सूक्ष्म, बादर, जा एतां, अजाणतां हुई होय ते सवि हुं मने, व चने, कायायें करी तस्स मिचामि एक्कडं ॥ १८ ॥ एवंकारे श्रावकतणे धर्मे, श्री समकित मूल बारवत, एकसो चोवीस अतिचारमांदे नेरो जे कोइ प्रतिचार पद दिवस मांदि सूक्ष्म, बा दर, जाणतां अजाणतां हुर्ज होय ते सवि हुं मने वचने कायायें करी तस्स मिचामि डुक्करं ॥ इति श्री श्रावकपरकी, चोमासी, संवचरी तिचार समाप्त ॥ ५६ ॥ ॥ अथ प्रभातना पच्चरका | ॥ ॥ प्रथम नमुक्कार सहि मुहसदिनुं ॥ ॥ उग्गय सुरे, न मुक्कार सदियं, मुसिदियं पञ्चकाई ॥ चनविदं पि च्प्राहारं असणं पाणं खाइ मं,साइमं॥अन्नचणानोगेणं, सहसागारेणं, मदत्त रागारेणं, सवसमादिवत्तियागारेणं वो सिरे ॥ ६७ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. ७३ ॥५८॥ बीजुं पोरिसि, साडूपोरिसीनुं ॥ उग्गए सूरे, नमुक्कारसहियं, पोरिसिं, सा पोरिसिं, मुसिदियं, पच्चकाइ ॥ नग्गए सूरे, चविदपि, प्रहारं असणं, पाणं, खाइमं, सा इमं ॥ अन्नणा जोगेणं, सदस्सागारेणं, पच न्नकालेणं दिसामोदेणं, साहुवयां, मदत्तरा गारेणं, सवसमादिवत्तियागारेणं वो सिरे ॥२॥ || श्रीजुं बीयासणा एकासानुं ॥ ॥ उग्गए सूरे, नमुक्कार सदियं, पोरिसिं, मु सिदि पच्चकाइ ॥ नग्गए सुरे, चनविहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइमं साइमं ॥ अन्नणानोगेणं, सदसागारेणं, पञ्चन्नकालेणं दिसामोदेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सब समादिवत्तियागारेणं ॥ विग पच्चकाइ ॥ अन्नणानोगेणं, सदसागारेणं, लेवालेवेणं, गिदचसंसद्वेणं, उरिकत्तविवेगेणं, पडुच्चमरिक एवं पारिठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सब समादिवत्तियागारेणं बियासणं, पञ्चकाइ ति विदपि प्रहारं असणं, खाइमं, साइमं, अन्न चणानोगेणं, सदसागारेणं, सागारियागारेणं, १० Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. आउहणं पसारेणं, गुरु अनुहाणेणं, पारिहा वणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समादिव त्तियागारेणं ॥ पाणस्स लेवेण वा अलेवेणवा अबेण वा, बहुलेवेण वा, ससिणवा, अ सिनेणवा, वोसिरे ॥ जो एकासणानुं पञ्चकाण कर होय तो, बियासणंने ठेकाणे एकासणं नो पाठ केदवो ॥ इति बियासणा एकासणानुं पच्चरकाण समाप्त ॥५॥ ॥६॥ चो\ आयंबिल, पच्चरकाण ॥ ॥जग्गए सूरे, नमुक्कार सदिअं पोरिसिं,सा ढपोरिसिं, मुसिदिशं पच्चकाइ॥ जग्गए सूरे चनविहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाश्मं, सा श्मं, अन्नबणानोगेणं, सहसागारेणं, पबन्नका लेणं दिसामोदेणं, साहुवयणेणं महत्तरागारेणं, सबसमादिवत्तियागारेणं ॥ आयंबिलं पच्चरकार ॥ अन्नबणानोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं गिदवसंसरणं,नस्कित्तविवेगेणं, पारिकावणिया गारेणं, महत्तरागारेणं सब समादिवत्तिगारे पं॥एगासणं पच्चरका॥तिविपि आढारं असण, खाश्मं सामं ॥ अन्नबणानोगणं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. सहसागारेणं, सागारिआगारेणं, आनण प सारेणं, गुरुअनुहाणेणं, पारिध्वणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमादिवत्तियागारेणं ॥ पा एस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अ णवा, बहु लेवेणवा, ससिबेण वा, असिने णवा॥ वोसिरे ॥इति आयंबिलनु पच्चरकाण ॥६॥ ॥६॥ पांचमुं तिविदार उपवास॥ ॥जग्गए सूरे,अप्नत्त पच्चरका॥तिविपि आदारं, असणं, खाश्मं, साइमं ॥ अन्नबणा नोगेणं, सहसागारेणं पारिहावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमादिवत्तियागारेणं ॥ पा णहार पोरिसिं, साढ पोरिसिं, मुसिदिअं, पञ्चकाइ ॥ अन्नबणानोगेणं, सहसागारेणं पबन्नकालेणं, दिसामोदेणं, साढुवयणेणं मह त्तरागारेणं, सबसमादिवत्तियागारेणं ॥पाणस्स लेवेण वा, अलेवेणवा, अण वा, बहुलेवेण वा, ससिलेण वा असिजेण वा वोसिरे ॥ इति तिविहार उपवास, पच्चरकाण ॥ ६ ॥ ॥६॥ बहुं चनविदार उपवासनुं ॥ ॥ सूरे जग्गए अप्नत्त पञ्चकाइ ॥ चनवि Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैनधर्मसिंधु. हंपि आदारं,असणं, पाणं, खाश्म,साश्म,अन्न बणा नोगेणं, सहसागारेणं, पारिहावणियागा रेणं, मदत्तरागारेणं, सबसमादिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥इति चनविदारउपवास- ॥ ६॥ ॥अथ सांछनां पच्चरकाण ॥ तहां प्रथम बीयासणं, एकासणं, आयं बिल, तिविदार उपवास, अने बह जे करे तो तेणेपाणदारनुं पच्चरकाण करते आवी रीतेः॥६३॥पाणहार दिवसचरिमंपच्चरका॥ अन्न गानोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारणं, सब समादिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥ इति ॥६३॥ ॥६॥ बीजुं चनविदार, पच्चरकाण ॥ ॥ दिवस चरिमं पच्चरका॥ चनविदंपि आ दारं, असणं, पाणं, खाश्मं,साइमं ॥ अन्नबणा नोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सबस मादिवत्तियागारेणं, वोसिरे ॥ इति ॥ ६॥ ॥६॥त्रीजुं तिविदार, पञ्चकाण ॥ ॥ दिवस चरिमं पच्चरकाशातिविपि आदा रं, असणं, खाश्मं, साश्मं, अन्नबणा नोगेणं सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्ति Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. यागारेणं, वोसिरे ॥ इति तिविदारनुं ॥६५॥ ॥६६॥ चोथु उविहार- पञ्चरकाण ॥ ॥दिवस चरिमं पच्चरकाश ॥ उविपि आदा रं, असणं, खाश्मं, अन्नबणानोगेणं, सहसा गारेणं, महत्तरागारेणं सव समादिवत्तियागा गारेणं वोसिरे इति ॥६६॥ ॥ पांचमुंजे नियम धारे तेने देशावगासिय नुं पच्चरकाण करवू तेनो पाठ कदे ॥ ॥६॥ देसावगासिअंजवनोगंपरिनोगंपच्च काइ॥ अन्नबणानोगेणं, सहसागारेणं, मद त्तरागारेणं सव समादिवत्तियागारेणं वोसिरे६७ ॥६॥ टुं पोसदनु पच्चरकाण ॥ ॥ करेमि नंते पोसहं, आहारपोसहं देस सवर्ड, सरीर सक्कार, पोसहं सवर्ड, बंनचेर पोसहं सवले, अश्वावारपोसहं सवर्ड, चनविदे पोसहं गमि॥ जाव दिवसं अहोरतं पडवा सामि ॥ विदंतिविदेणं ॥ मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि न कारवेमि, तस्स नंते पडि क्वमामि, निंदामि, गरिदामि, अप्पाणं वोसि रामि ॥ इति पञ्चखाणानि संपूर्णानि ॥६॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. ॥ ६९ ॥ अथ पोसद पारतां गाया || ॥ सागरचंदो कामो, चंदवडिँसो सुदंसणो धन्नो ॥ जेसिं पोसद पमिमा, प्रखंमिया जी विच्यं तेवि ॥ १ ॥ धन्ना सलाद णिका, सुलसा आणंद कामदेवाय ॥ जेसिं पसंसइ नयवं, ६ वयं तं महावीरो ॥ २ ॥ पोसदविधे लीधनं विधे पारीनं विधि करतां जे कोइ प्रविधि दुर्ज दोइ, ते सवि हुं मने वचने कायायें करी मि चामि डुक्कडं ॥ ॥ इति ॥ ६९ ॥ SG ॥ ७० ॥ अथ संथारापोरिसी ॥ ॥ निसिदी निसिदी निसिदी ॥ नमो खमास मणाणं, गोयमाइ ॥ महामुखीणं ॥ ए पाठ त या नवकार तथा करेमि नंते समाइ ॥ एट ला सर्व पाठ त्रण वार कदीने ॥ प्रणुजादजि हिता ॥ प्रणुजाद परमगुरू, गरुगुणरय हिं मंगियसरीरा ॥ बहुपमिपुन्नापोरिसि, रा इय संथारामि ॥ १ ॥ प्रणुजाद संथारं बाहुवदाणे वामपासेणं ॥ कुकुमिपायपसा रण अंतरंत पमऊ भूमिं ॥ २ ॥ संकोइ संमासा, नवते काय पमिदा || दुबइ न Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछंद. JU वर्जगं. उसास निरंजणा लोए ॥ ३ ॥ जइ मे हुआ प्रमार्ज. इमस्स देहस्सिमाइ रयणी ॥ प्रहार मुवदि देदं, सवं तिविदेणं वोसिरिअं ॥ ४ ॥ चत्तारि मंगलं ॥ अरिहंता मंगलं ॥ सि ६ मंगलं ॥ साहु मंगलं ॥ केवल्लिपन्नत्तो ध म्मो मंगलं ॥ ० ॥ चत्तारि लोगुत्तमा ॥ रिहंता लोगुत्तमा । सिधा लोगुत्तमा ॥ साहु लोगुत्तमा । केवल पन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो ॥ ६ ॥ चत्तारि सरणं पवामि ॥ अरिहंते स रणं पवामि ॥ सिदे सरणं पवामि ॥ साहु सरणं पवामि ॥ केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवामि ॥ ७ ॥ पाणाइवाय मलि, चोरिक्कं महुणं विमुचं ॥ कोदं माणं मायं, लोनं पिऊं तदा दोसं ॥ ८ ॥ कलहं नरकाणं पेसु न रई रई समात्तं ॥ परपरिवायं माया, मोमं मिचत्तसनं च ॥ ए ॥ वोसिरिस इमाई मुस्क मग्ग संसग्ग विग्धजुआई ॥ डुग्गर नि बंधणाई प्रहारस पावठाणाई ॥ १० ॥ एगोदं नचि मे कोइ नाढ मन्नस्स कस्सई ॥ एवं प्र दी मासों, अप्पाण व सासई ॥ ११ ॥ ए Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. गोमे सास अप्पा, नाण दंसण संजुसेसा मे बादिरा मावा, सवे संजोगलकण ॥१२॥ संजोगमूला जीवेण, पत्ता उस्कपरंपरा ॥ तम्हा संजोग संबंध, सवं तिविदेण वोसिरि॥१३॥ अरिहंतो मद देवो, जावजीवं सु साहुणो गुरु णो ॥ जिणपन्नत्तं तत्तं, श्अ सम्मत्तं मए गदि अं॥१४॥ खमित्र खमाविअ मइ खमित्र सबद जीव निकाय ॥ सिह साख आलोयण द, मुद्यद वर न नाव ॥ १५॥ सवे जीवा क म्म वस्स चनदह राज जमत ॥ ते मे सब ख माविआ, मुद्यवि तेह खमंत ॥१६॥ जं जं म णेण बई, जं जं वारण मासिअंपावं ॥ जंजं काएण कयं, मिबामि कम तस्स ॥१७॥ ॥इति संथारा पोरिसी ॥४०॥ ॥अथ चैत्यवंदन ॥ तत्र प्रथमं सीमंधरजिनचैत्यवंदनं ॥ ॥ सीमंधर परमातमा, शिव सुखना दाता॥ पुरस्कल व विजये जयो, सर्व जीवना त्राता ॥१॥ पूर्व विदेह घुमरीगिणी, नयरीये शोहे॥ श्री श्रेयांस राजा तिहां, नविअणनां मन मो Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद . ८१ हे ॥ २॥ चनद सुपन निर्मल लही, सत्यकी रा ी मात ॥ कुयुं पर जिन अंतरे, श्री सीमंधर जात ॥ ३ ॥ अनुक्रमे प्रभु जनमीया, वली यौवन पावे ॥ मात पिता दरखे करी, रुकमिणी परावे ॥ ४ ॥ जोगवी सुख संसारनां, संजम मन लावे ॥ मुनिसुव्रत नमी अंतरे, दीक्षा प्र त्रु पावे ॥ ५ ॥ घाती कर्मनो दय करी, पाम्या केवल ना ॥ रिवन लंबने शोजता, सर्व ना वना जाए ||६|| चौरासी जस गणधरा, मुनि वर एक शो कोम ॥ त्रण भुवनमां जोयतां, न दीं कोई एहनी जोम ॥ ७ ॥ दस लाख कह्या केवली, प्रभुजीनो परिवार || एक समय त्रण कालना, जाणे सर्व विचार ॥ ८ ॥ उदय पेढाल जिनांतरे ए, याशे जिनवर सि-६ ॥ जश विज य गुरु प्रणमतां, शुभ वांबित फल लीध ॥ ॥ ॥ अथ श्री सिदाचलजी नुंचैत्यवंदन ॥ ॥ विमल केवल ज्ञानकमला, कलित त्रिभु वन हितकरम् ॥ सुरराजसंस्तुतचरणपंकज, नमो आदिजिनेश्वरम् ॥ १ ॥ विमलगिरिवर शृंगमंडण, प्रवरगुणगण भूधरम् ॥ सुर असुर ११ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 叉 जैनधर्मसिंधु. किन्नर कोडि सवित ॥ नमो० ॥ २ ॥ करती ना टक किन्नरी गण, गाय जिन गुण मनहरम् ॥ निर्जरावली नमे प्रदोनिश ॥ नमो० ॥ ३ ॥ पुंम रिक गणपति सिद्धि साधी, कोमि पण मुनि म नद्रम् ॥ श्रीविमल गिरिवर शृंग सिधा ॥ नमो ० ॥ ४ ॥ निज साध्य साधन सुरिंद मुनिवर, कोडि नंत ए गिरिवरम् ॥ मुक्ति रमणी वस्या रंगे ॥ न मो० ॥ ५ ॥ पाताल नर सुरलोक मांदी, विमल गिरिवरतोपरम् ॥ नदि अधिक तीरथ तीर्थपत कदे ॥ नमो० ॥ ६ ॥ इम विमल गिरिवर शि खर मंडण, दुःख विदंडा ध्याईयें ॥ निज शु६ सत्ता साधनार्थ, परम ज्योति निपाइयें ॥ ७ ॥ जित मोद कोढ़ विबोद निषा, परमपद स्थित जयकरम् ॥ गिरिराज सेवाकरण तत्पर, पद्मवि जय सुदित करम् ॥ ८ ॥ इति ॥ ७३ ॥ ॥ चप्रथ सिन्धाचलनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ श्री शत्रुंजय सि६ खेत्र, दीवे दुर्गति वारे ॥ नाव धरीने जे चढे, तेने जवपार उतारे ॥ १॥ अनंत सिनो एद ठाम, सकल तीरथनोराय ॥ पूर्व नवाणुं शखनदेव, ज्यां वविच्या प्रभुपाय Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ॥२॥ सूरज कुंम सोहामणो, कविड जद अ निराम ॥ नानिराया कुलमंडणो, जिनवर करूं प्रणाम ॥ ३ ॥ इति चैत्य० ॥ ४॥ ॥अथ श्रीपरमात्मानुं चैत्यवंदन ॥ ॥ परमेसर परमातमा, पावन परमिह॥ जय जगगुरु देवाधिदेव, नयणे में दिछ॥१॥ अचल अकल अविकार सार, करुणा रससिं धु ॥ जगती जन आधार एक, निःकारण बंधु ॥॥ गुण अनंत प्रजु ताहारा ए, किमही क ह्या न जाय ॥राम प्रज्जु जिन ध्यानथी, चिदा नंद सुख थाय ॥ ३ ॥इति ॥ ५॥ __ अथ सीमंधर जिनस्तवनं ॥ ॥सुणो चंदाजी, सीमंधर परमातम पासे जावजो ॥ मुज विनतमी, प्रेमधरीने एणि परे तुमें संनलावजो॥ ए आंकणी ॥ जे त्रण्यनुव ननो नायक ॥ जस चोसह इंवें पायक ग॥ नाण दरिसण जेहनें खायक ॥ सुणो॥२॥ जेनी कंचन वरणी काया ॥जस धोरीखंबन पाया ॥ पुंडरीगिणि नगरीनो राया ॥ सु णो० ॥ ॥ बार पर्षदामिहिं बिराजे ॥जस Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. चोत्रीश अतिशय गजे जे ॥ गुण पांत्रीश वा णीए गाजे ॥ सुणो० ॥३॥नविजनने ते प डिबोदे बे॥ तुम अधिक शितल गुण शोदे ये॥ रूप देखी नविजन मोदे रे ॥ सुणो० ॥४॥ तुम सेवा करवा रसीयो यूँ ॥ पण जरतमां रे वसीयो बुं॥ महामोद राय कर फसीयो बुं॥ सुणो० ॥ ५॥ पण सादिबचित्तमां धरीयो । तुम आणा खग कर ग्रहीयो ॥ पण कांईक मुजथी मरीयो बै॥ सुणो० ॥६॥ जिन उत्तम पुंठे हुवे पूरो॥ कहे पद्मविजय थानं शूरो॥ तो वाधे मुज मन अति नूरो ॥ सु०॥७॥ति॥ ॥अथ श्रीसिहाचलस्तवनं ॥ ॥ जशोदा मावडी॥ए देशी॥ ॥जात्रा नवाणुं करीये विमलगिरी ॥ जात्रा नवाणुं करिये ॥ ए आंकणी ॥ पूरव नवाणुं वा र शेजगिरि, खन्न जिणंद समोसरीये ॥ वि० ॥१॥ कोमि सहस नव पातक त्रूटेशे ज सादामो मग जरीये ॥ वि० ॥२॥सात दोय अहम तपस्या, करी चढीये गिरिवरीयें॥ वि०॥३॥ पुंडरीक पद जपीये हरखे, अध्य Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ए वमाय गन धरीय ॥ वि० ॥ ४॥ पापी अन्न व्यीन नजर देखे, हिंसक पण नहरीये॥वि०॥ || नई संथारो ने नारी तणो संग, दूरथकी परिहरीय वि०॥६॥ सचित्त परिदारीनं एकल आहारी, गुम माथे पद चरीयें ॥विण॥॥पनि कमणा दोय विधिशुं करीये,पाप पमल विखहर। ये॥वि॥॥ कलिकालें एतीरथमोटुं, प्रवद ए जिम नव दरीए वि०॥॥नत्तम ए गिरि घर मेवंतां पद्मकहे नव तरीयविमल ॥१॥ ॥ अथ श्री सिघाचलजीन स्तवन । ॥ आंखडीय रे में आज, शत्रुजो दीगेरे॥ सवा लाख टकानो दहामो रे, लागे मुने मी वारे॥अांकणी॥ सफल थयो मारा मननो जमाहो ॥ वाला मारा।नवनो संशय नांग्यो रे। नरक तिर्यंच गति दूर निवारी, चरणे प्रनु जीने लाग्यो रे ।। शत्रं ॥१॥ मानवनवनो लाहो लीधो॥ वा० ॥ देहडी पावन कीधी रे॥ सोना रूपाने फूलडे वधावी, प्रेमे प्रददीणा दीधी रे ॥ शत्रु ॥७॥धडे पखालीने केशर घाली ॥ वा० ॥ श्री आदीश्वरपूज्यारे ॥ श्रीसि, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. हाचल नयणे जोतां, पापमेवासि ध्रुज्यारे॥श g॥३॥ स्वयमुखसुधर्मा सुरपति आगे॥वा॥ वीरजिणंद इम बोले रे॥त्रण नुवनमां तीरथ मोटुं, नहिं कोई शत्रुजा तोले रे ॥शत्रु॥४॥ इंड सरीखा ए तीरथनी॥ वा॥ चाकरीचित्त मां चादरे ॥ कायानी तो कासल टाले, सूरज कुंडमां ना रे ॥ शत्रु०॥५॥ कांकरे कांकरे श्रीसिद खेत्रे वा॥ साधु अनंता सीधा रे॥ ते माटे ए तीरथ मोटुं, नहार अनंता कीधारे ॥शत्रु॥६॥नानिराया सुत नयणे जोतां॥वा॥ मेद अमीरस वूठ्यारे ॥ उदयरतन कदे आज मारे पोते, श्रीआदीश्वर तूट्यारे ॥ शत्रु॥७॥ इति स्तवनं ॥७॥ ॥अथ श्रीशंखेश्वरपार्श्वजिन स्तुतिः॥ ॥शंखेश्वर पासजी पूजियें, नरनवनो ला दो लीजियें ॥मन वंबित पूरण सुततरु, जय वा मासुत अलवेसरु॥२॥दोय राता जिनवर अति नला, दोय धोला जिनवर गुणनिला ॥ दोय लीला दोय सामल कह्या, शोले जिन कंचन व र्ण लह्या ॥२॥ आगम ते जिनवरें नाखीयो, ग Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. णधर ते हीयमेराखीयो॥ तेदनो रस जेणे चाखी यो, ते हु शिव सुख साखीयो॥ ३॥ धरण। धर राय पद्मावती, प्रनु पार्श्व तणा गुण गाव ती॥ सहु संघना संकट चूरती, नय विमलना वंति पूरती॥४॥ ॥इति ॥ ५ ॥ ॥अथ शिखामण सकाय॥ ॥ जीव वारं वं मोरा वालमां, परनारथी प्रीति म जोम॥ परनारीनी संगत नहीं नली, तारा कुलमां लागशे खोड ॥ जीव० ॥१॥जी व आ संसार के कारमो, दीसे आल पंपाल॥ जीव एढवू जाणी चेतजो, आगल मागमे ना खी के जाल ॥ जी० ॥ ॥जीव मात पिता नाइ बेनमी, सह कुटुंब तणो परिवार ॥ जीव वेती वारे सह सगुं, पढें लांबा कीधा जुहार ॥ जीव०॥ ३ ॥ देहली लगें सगो आंगणो, शे रीअ लगे सगीमाय ॥ जीव सीम लगें साजन नलो, पहें हंस एकीलो जाय ॥ जीव० ॥ ४ ॥ जीव जातां थकां नवि जाणीयुं, नवि जाण्यो वार कुवार ॥ जीव गाडं लरीयुं ईधणे, वली खो खरी हांडलीसार ॥ जीव० ॥५॥जीव आठ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG जैनधर्मसिंधु. म पाखि न उलखी, जीव बहुला कीधा पाप जीव सुमतिविजय मुनि एम नणे, जीव च्या वागमण निवार ॥ जीव० ॥ ६ ॥ इति ॥ ८७ ॥ ॥ अथ श्री नाथी मुनिनी सद्याय ॥ ॥ श्रेणिक रयवामी चढ्यो, पेखीयो मुनि ए कं ॥ वररूप कांतें मोदी, राय पूबे ए कहोनें विरतंत ॥ १ ॥ श्रेणिक राय हुंरे अनाथ नि ग्रंथ ॥ ति में लीधोरे साधुजीनो पंथ ॥श्रेणि क० ॥ एकणी ॥ इणें कोसंबी नयरी वसे, मुऊ पिता परिगलधन्न || परिवार पूरें परिवस्यो, हुं हुं तेनो रे पुत्ररतन्न ॥ श्रे० ॥ २ ॥ एक दिवस मुऊ वेदना, ऊपनी में न खमाय ॥ मात पिता सढु झरी रह्या, पण समाधि किणे नवि थाय ॥ ० ॥ ३ ॥ गोरडी गुण मणिर्जरमी, चोरमी अबला नार ॥ कोरडी पीडा में सही, कोणे न कीधी मोरमी सार ॥ ० ॥ ४ ॥ बहु राज्य वैद्य बोलाविया, कीधला कोडि उपाय ॥ बावना चंदन चरचिया, तोहिपण रे समाधि नयाय ॥ ० ॥ ५ ॥ जगमांदि को केहनो न हीं, ते जणी हुं रे नाथ ॥ वीतरागना धरम सा " Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. रिखो, नहीं कोइबीजो रे मुक्तिनो साथ ॥ ० ॥ ॥ ६ ॥ वेदना जो मुऊ उपशमे, तो लेनं संजम जा र ॥ इम चिंतवतां वेदन गई, व्रत लीधुं में दर्ष अपार ॥ ० ॥ ७ ॥ कर जोमी राय गुण स्त वे, धन धन ए अणगार || श्रेणिक समकित पामीयो, वांदी पोहोतो रे नगर मकार ॥ श्रे० ॥ ॥ ८ ॥ मुनि अनाथी गावतां तूटे कर्मनीकोड गणि समय सुंदर तेहना, पाय वंदे रे बे कर जोड | ॥॥ इति नाथीनी सद्याय ॥८॥ ॥ अथ सामायिक लेवानो विधि G‍ ॥ प्रथम उंचें सनें पुस्तक प्रमुख मूकी श्रावक श्राविका कटासणुं, मुहपत्ती, चरवलो लेइ, शुरू वस्त्र, जग्या पूंजी, कटासा उपरवे सी, मुहपत्ती डाबा दाथमां मुख पासें राखी, जमणो हाथ थापनाजी सन्मुख राखी, एक न चकार गणी, पचिंद कदीयें; ने जो आ गलथी ते स्थानकें प्राचार्यप्रमुखनी स्थापना क रेली होय, तो तिदां पंचिदिय न कहेवुं, पबी इ चामि खमासमण देइ, इरियावदिया तथा त स्स उत्तरी ने अन्न उससीएणं कदी, एक १२ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए जैनधर्मसिंधु. लोगस्सनो अथवा चार नवकारनो कानस्सग्ग करी पारी, प्रगट लोगस्स कही, खमासमण दें, “श्नाकारेण संदिसह नगवन् सामायि क मुदपत्ती पडिलेडं॥"॥ एम कदी मुहपत्ति तथा अंगनी पमिलेदणना पच्चास बोल कही, मुहपत्ती पडिलेहीयें, पनी खमासमण देश, "श्बाकारेण संदिसद नगवन् सामायिक, संदिसाहं ॥७॥ कही खमा० श्ना० ॥ सामायिक गलं," एम कही, बेहाथ जोडी, एक नवकार गणी, श्बाकार नगवन् पसाय करी,सामायिक दंडक नच्चरावो जी. तेवारें व डिल, करेमि नंते कदे, पगी खमासमण देश बा०॥बेसणे संदिसाहं॥ ॥खमा०॥बन ॥बेसणे गजं ॥श्वं॥खमा०॥श्वा॥सजय संदिसाहुं॥श्वं ॥ खमा० ॥ श्बा ॥ सजाय (खमा होय, त्यां खमासमण देवू. इच्छा होय, त्यां इच्छा कारेण संदिसह जगवन् कहे, तथा ए सर्व विधि जे लख्यो छे, ते स्थापनाजी संन्मुख क्रिया करवा श्राश्रयी समजवो, परंतु सादात् गुरु विराजमान होय तो इच्छाकारेण संदिसह लगवन् सज्काय संदिसाहुँ, एम शिष्य कहे तेवारें गुरु कहे “संदिसह" तथा रियावहि पडिक्कमवाना आदेशमां गुरु “पमिक्कमेह" कहे, एम सर्व स्थानकें समजी लेवु.) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. करूं ॥ ॥ एम कही त्रण नवकार गणवा॥ पठी बे घमी सजायधर्मध्यानकरतिाए॥ ॥ अथ सामायिक पारवानो विधि॥ ॥खमासमण दे॥रियावदिपमिकमवाथी यावत्लोगस्स सुधी कही। खमा० ॥बा०॥ मुहपत्ती पडीलेडं एम कहीमुदपत्ती पमिलेही, खमासमण देश॥बा० ॥ सामायिक पारुं ॥ यथाशक्ति ॥ वली खमा0 श्बा ॥ सामायिक पास्युं तदत्ति।कही पी जमणो हाथ चरवला नपर अथवा कटासणानपर थापी एक नवका र गण। “सामाश्यवयजुत्तो” कहियें ॥ परी जमणो हाथ थापना सामो सवलो राखीने ए क नवकार गणी उठवू ॥इति सामायिक पार वानो विधि समाप्त ॥ ए॥ ॥अथ पाञ्चरकाण परवानो विधि ॥ ॥ प्रथम “रियाव दियाए” पडिकमी याव त् “जगचिंतामणि” नुं चैत्यवंदन “जयवीय राय” सुधी करवू ॥ पी “मन्दजिणाणं” नीस जाय कदी मुहपत्ति पडिलेहवी ॥ पठी खमास मण देश् श्वाकारेण संदिसह नगवन् पच्च Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए जैनधर्मसिंधु. काण पारुं यथाशक्ति “श्वामि इना पच्चरकाण पायुं “ तहत्ति” एम कही जमणो हाथ कटासणां अथवा चरवला नपर थापी, एक “ नवकार ” गणी, पच्चरकाण कयुं दोय तेनु नाम कहीने पार. ते लखीये बैये:जग्गए सूरे नमुक्कारसदिअंपोरिसिं,साम्पोरिसिं, गंठिसहिअं,मुसिदिअंपच्चरकाण कयुंचनवि दार, आंबिल, निवी,एकासj,बे आसणुं कयं, तिविदार पञ्चरकाण, फासिअं, पालिअं, सोहि अं, तीरअं, कहिअं, आरादिअं, जं च न आ रादिअं, तस्स मिलामि उक्कम, एम कही एक नवकार गणवो॥इति ॥ एत ॥अथ पमिलेहण करवानो विधि ॥ ॥ नवकार पंचिंदिअं कही, इरियावदियाए कहेवू, थापना दोय तो नवकार पंचिंदिअ न कदेवो. पनी तस्स उत्तरी कही एक लोगस्स अ थवा चार नवकारनो कानस्सग्ग करी, प्रगट लोगस्स कही, उन्ने पगें बेसी महपत्ती, चरवलो कटासणुं, उत्तरास, धोतीयुं, कंदोरो आदि नुं पडिलेदण करवं, पड़ी काजो काहामी, जीव Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. कलेवर सचित्त आदि जोवं, पनी काजो काहा ढनार थापनाजी सामो कन्नो रही, इरियावदि पमिकमी, काजो परविवा जग्या शोधी, त्रण वार अणुजाणह जस्सग्गो कही, काजो परठवी ने पी त्रणवार “वोसिरे" कहे ॥ इति ॥ए॥ ॥अथ देवसि प्रतिक्रमण विधि॥ ॥ प्रथम सामायिकलीजें, पठी पाणी वाव ख्यं होय तो, मुहपत्ति पमिलेहवी, अने आहार वावस्यो होय तो, वांदणां बे देवां, त्यां बीजा वांदणामां "आवसियाए" ए पाठ न कहेवो॥ पठी यथाशक्ति पच्चरकाण करवू ॥ परी खमा ममण देई श्वाकारेण संदिसह नगवन् चै त्यवंदन करू "श्वं” एम कही, वमेराये अथवा पोतं चैत्यवंदन कहेवू ॥ पठी जंकिंचि कदी नमुनुणं कहेवू ॥ पनी ऊना थईने अरिहंत चेश्याणं अन्नवं कही एक नवकारनो काक स्सग्ग करी, पारीने, जेने वमेरा दुकम आपे ते धणीयें “नमोऽर्हत्” कदीने प्रथम थोय क हेवी ॥ पठी प्रगट लोगस्स कही, सबलोए अ रिहंतचेश्याणं कही, एक नवकारनो कानस्सग्ग Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Uყ जैनधर्मसिंधु. . पारी बीजी थोय कहेवी ॥ पनी पुस्करवरदी कही, “सुअस्स जगवन करेमि कानस्सग्गं वंद णवत्तिाए” कही, एक नवकारनो कानस्सग्ग करी, त्रीजी थोय कहेवी ॥ पी सिहाणं बुझा एंवेयावच्चगराणं करेमिकानस्सग्गं अन्न ब० नो पाठ कही, एक नवकारनो कानस्सग्ग करी पारी "नमोऽर्हत्” कही, चोथी थोय क देवी॥पली बेशी दाथ जोडीने “नमुतुणं” कही खमासमण देश, “नगवानदं” कहे. वली बीजें खमासमण देश, “आचार्यदं” कहेवू, वलीत्रीजुं खमासमण देश, “नपाध्यायदं" कहेवू वली चोथं खमासमण देश, सर्व साधुन्योऽहं” क देवं, ए रीतें चार खमासमण देवापूर्वक जग वानादि चारने थोन वंदन करीयें ॥ पछी खमा समण आपी बाकारेण संदिसह नगवन् “दे वसिप्रतिक्रमणे गवं” एम कदी जमणो हाथ चरवला अथवा कटासणा ऊपर थापीने, श्वं सवस्सवि देवसिअं0 नो पाठ कदी ऊना थई, करेमि नंतेश्वामि गमि कानस्सगं जो मे दे वसि तस्स उत्तरि कही अतिचारनीआठ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. एप गाथानो कानस्सग्ग करवो, जो आठ गाथा न आवमती होय तो आठ नवकारनो कान म्सग्ग करवो,ते पारीने प्रगट लोगस्स कहेवो॥ पठी बेशीने त्रीजा आवश्यकनी मुहपत्ति पडि लेहीने वांदणां वे देवां ॥ पठी ऊना थईने इलाकारेण संदिसह नगवन् देवसिअं आलोठं वं आलोएमि कही जो मे देवसि कदेवं, पठी सात लाख० कही, अढार पापस्थानक आलोइने, “सबस्सवि देवसियं" कहेवू ॥ पठी नीचं बसी जमणो ढींचण कन्नो राखी, एक नवकार गणी, करेमिनंते श्वामि पडिक्क मिनंकही वंदितासूत्र संपूर्ण कदीने वांदणां बे देवां ॥ पठी खमासमण देई इलाकारेण संदि सह नगवन् अग्नहिउँदं अग्निंतर देवसियंखा मेनं एम कही, अग्नहि खामीने वांदणांबेवार देवां ॥ पठी ऊना थई "आयरिय नवजाय" कही करेमि नंते बामि गमि कानस्सग्गं जो मे देवसि कह “तस्स उत्तरी' कही बे लो गरसनो अथवा आठ नवकारनो कानस्सग्ग करी पारीने प्रगट लोगस्स कदेवो ॥ पनी सब Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ जैनधर्मसिंधु लोए अरिहंतचेणं कही, एक लोगस्स चप्रथवा चार नवकारनो काजस्सग्ग पारी पटी पुस्करवरदी, सुप्रस्स नगव, करेमि काजस्सग्गं वंद अन्न कही, एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काजस्सग्ग पारीने पी सिद्धाणं gai कही, सुप्र देवयाए करेमि काजस्सग्गं अन्नत्व० कढी, एक नवकारनो काजस्सग्ग पारी, " नमोऽर्दत्० " कही, पुरुषें “सुप्र देवया" नी पहेली थोय ने स्त्रीयें "कमलदल" नी पहेली योय कदेवी ॥ पी खित्तदेवयाए करेमि कान रसग्गं० कही, एक नवकारनो काउस्सग्ग पारी " नमोऽर्दत्" कही खित्तदेवयानी बीजी थोय स्त्री तथा पुरुष कदेव । ॥ पबी प्रगट एक नव कार गणी, बेशीनें बहा आवश्यकनी मुहपत्ति पडिलेही वांदणां वे देईने, इच्छाकारेण संदिसद भगवन् सामायिक, चजविसबो, वंदनक, पनि क्कमणुं, काउस्सग्ग, पञ्चकाण, करयुं बे जी, ए रीते व आवश्यक, संजारवां ॥ पी “इच्छामो अणुसहिं” “नमोखमासमणाां०" " नमोऽर्द तूo" कही, पुरुष, नमोस्तु वर्धमानाय कहे Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rug प्रथमपरिद. न स्त्री समारदावानी व्रण थोयो कहे॥ पीन मन्त्राणं कही. वमासमा आपी इचाकारेण सं हिम्मत नगवन् स्तवन नj. एम कही नमोऽर्ह ना कह! स्तवन कहे ॥ पठी वरकनक कही पूर्वली गीत चार खमासमणपूर्वक नगवान् प्राचार्य, नपाध्याय, सर्वसाधु, ए चारने वांदी जमाणो हाथ नपधि कपर थापी अट्ठाइजेसु मुनिवंदन कहेवू ॥ पठी खमासमण आपीश्वा कागा मंदिसह नगवन् देवसिय पायचित्तवि माह कानम्सग्ग करूं, इनं देवसिय पाय वित्त विमोहण करेमि कानस्सग्गं अन्ननस मिर कन्दी चार लोगस्स अथवा शोल नव कारना कानम्मग्ग करवो, ते पारी प्रगट लोग्ग म्म कहीन नीचे वशी खमासमण दे इचा कारण मदिसह जगवन सजाय संदिसाहे. वं कढी वली वीजें खमासमण देई श्वाकारण संदिसह नगवन सजाय नपुं एम सजायनो प्रादेश मागी एक नवकार गणी सजाय कदेवी ॥ पठी एक नवकार गणी, खमासमण देई ३ वाकारण मंदिसह नगवन् पुस्करक कम्मरक Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एज जैनधर्मसिंधुः निमित्तं कानस्सग्ग करूं, चं पुस्करकां क म्मका निमित्तं करेमि कानस्सग्गं “अन्नबा" कही “संपूर्ण चार लोगस्स अथवा शोल न वकार” नो कानस्सग्ग करवो, ते जेने लघु शां ति कदेवी होय एवो एक वडेरो, अथवा पोते शांति कदेवावालो दोय तो पोतेज पारीने “ नमोऽर्दत्” कदी लघुशांति कहीने प्रगट लोगस्स कदे ॥ परी शरियावदी अने तस्स उ त्तरी कदी, एक लोगस्स अथवा चार नवकार नो कानस्सग्ग करी, प्रगट लोगस्स कठेवो॥ परी चनक्कसाय कदी, नमुथ्थुणं कही, जावंति चेश्ाइं कही खमासमण देश जावंति केवि साहु कही उवसग्गहरं कही हाथ जोडी मस्तकें राखी जयवीयराय कही खमासमण देश मुदप त्ति पमिलेदवी॥ पठी खमासमण देई इबाका रेण संदिसद नगवन् सामायिक पालं. आ स्थानकें जो सादात्गुरु बिराजमान होय तो ते कदे के"पुणोवि कायवं” तेवार शिष्य"यथाश क्ति” कही फरी खमासमण देईश्बाकारेण संदि सह जगवन् सामायिक पायुं. तेवारें गुरु कदे Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VU प्रथमपरिछेद. " आयरं न मुत्तवं "ते सांगली शिष्य तदत्ति कहे ॥पनी जमणो हाथ चवला अथवा कटा सणा ऊपर थापी एक नवकार गणी " सामा यवयजुत्तो' कहीने थापेली थापना दोय तो तेनी सामो जमणो दाथ राखी एक नवकार ग णी करे॥ए देवसि प्रतिक्रमणनो विधि सा मान्य पणे कह्यो, बाकी अंतर्विधि वमेराथी स मजवो ॥ इति ॥१०॥ ॥ अथ राइप्रतिक्रमणविधि ॥ ॥प्रथम पूर्वली रीतें सामायिक लेवू तेज्यां सुधीत्रण नवकार गणी तिहां सुधी सर्व वि घि जाणवोपरी खमासमण देई नाकारण संदिसह नगवन् कुसुमिण उसुमिण राश्नवह णि पायबित्तविसोहण कानस्सग्ग करूं. श्वं करेमि कानस्सग्ग "अन्नब उससिएणं ,, कही चार लोगस्स अथवा शोलनवकारनो कामस्सग्ग करी पारीने प्रगट लोगस्स क देवो ॥ पठी खमासमण देई इलाकारेण सं दिसद नगवन् चैत्यवंदन जयवीयराय सुधी, कह ॥ परी पूर्वोक्त देवसीनी रीतें नगवान् Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनधर्मसिंधु. आचार्य, उपाध्याय अने सर्वसाधु, ए चारेने प्रत्येके एकेकुं खमासमण देश वांदवा ॥ पनी बे खमासमण देवापूर्वक सजायनो आदेश मागी एक नवकार गणी नरदेसरनी सजाय कही फरी एक नवकार गणी श्बाकार सुदराई० कदी श्बाकारेण संदिसह नगवन राईप्रतिक मणे गवं एम कदी जमणो दाथ उपधि ऊपर थापी श्वं सवस्सवि राश्य उचिंतिया कहीये पठी नमोलुणं, करेमि नंतेश्वामि गमि का नस्सग्गं, जोमे राजे0, तस्सउत्तरी कही एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो कानस्स ग्ग पारी प्रगट लोगस्स कहीने सबलोए अरि हंतचेश्याणं कदी एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो कानस्सग्ग करवो ॥ पनी पुरकरवर दी०, सुअस्स०, वंदण, कदी, अतिचारनी आठ गाथा (अथवा) गाथा न आवमे तो आ 5 नवकारनो कानस्सग्ग पारी सिहाणं बुाणं कदी बेसीने वीजा आवश्यकनी मुदपत्ति पनि लेही वांदणां बे देवां ॥पी कन्नाथई इबाकारे ण संदिसद नगवन् राश्यं आलोचं चं आ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. १०१ लोएमि जो मे राल अश्रो कजे कही “सातलाख" नो पाठ कही, अढार पापस्था नक आलोई सबस्सवि राश्यंनो पाठ कदेवो ॥ पठी बेशीने जमणो ढींचण कन्नोराखी एक न वकार गणी करेमि नंतेश्बामि पमिकमिक हीवंदितासूत्र संपूर्ण कहो बे वार वांदणां देवा. वली अनूहिउहं अग्निंतर राश्यं खामीने फरी बे वार वांदणां दैवा ॥ परी कना थईने आय रियनवजाए करेमि नंतेश्वामिछामि कालस्स ग्गं जोमे राईकही तस्सउत्तरीकही तपचिं तामणि करतां न आवमे तो चार लोगस्स अ थवा शोल नवकरनो कानस्सग्ग करी प्रगट लोगस्स कही हा आवश्यकनी मुहपत्ति पडि खेदीने वांदणां बे वार देवां ॥ पी सकल तीर्थ वंदन करीने यथाशक्तियें पच्चरकाण करवू ॥प जीगकारेण संदिसह नगवन् सामायिक, चन विसगे, वंदनक, पमिकमण, कानस्सग्ग, पच्च काण कयुं जी एम आवश्यक संजारवां ॥ पनी पच्चरकाण कां होय तो कांजी, धातूं दोय तो धातूं जी, कदेवू ॥पनी इगमोअणु Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ जैनधर्मसिंधु सहि नमो गमासमणाणं कही नमोऽर्हत्ण्कही योपी विशाललोचन, नमुबुणं, अरिहंत चे श्याणं, कही एक नवकारनो कानस्सग्ग पारी नमोऽर्दत्०कही कल्लाणकंदनी प्रथम थोय क देवी पनी लोगस्सा पुरकरवरदी, सिक्षणं बु हाणं, कही अनुक्रमें चार थोयो कदीयें बैयें, तिहां सुधी सर्व कहे, ॥ परी नमुबुणं कहीन गवान् आदि चारने चार खमासमणे वांदवा॥ पनी जमणो दाथ उपधि ऊपर थापी "अट्ठाइ जोसु कहेवू ॥ पी ईशान खुणानी सन्मुख श्रीसीमंधरस्वामी- चैत्यवंदन, स्तवन, जयवी यराय, कास्सग्ग थोय पर्यंत कहीयें, तिहां सुधी सर्व करवू ॥पनी खमासमण देई श्रीसि हाचलजीनु चैत्यवंदन, स्तवन, जयवीयराय, कानस्सग्ग थोय पर्यंत कदीयें बैयें, तिहां सुधी सर्व करवू ॥ पी सामायिक पारवाना विधिनी रीतें सामायिक पारवा सुधीनो सर्व विधि करवो॥ इति राश्प्रतिक्रमणविधिः समाप्तः॥२०॥ ॥अथ परिक प्रतिक्रमण विधि ॥ ॥प्रथम दैवसिकप्रतिक्रमणमां वंदित्तु कही Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद . १०३ रहियें तिदां सुधी सर्व देवं, पण चैत्यवंदनस कलाऽर्हतनुं कहेतुं, ने थोयो स्नातस्यानीक देवी. पी खमासमा देईनें इवाकारेण संदि सद जगवन् देवसिच् यालोच्य परिक्ता इ चाकारेण परकी मुहपत्ति पडिले हुं. एम क दी मुहपत्ति पडिले दियें पवी वांदणां बे दीजें, पठी इछाकार० संबुदा खामणेणं अनुहिहुं नंतर परिक खामेनुं इवं खामेमि परिकां पनरस दिवसाणं, पनरस राइप्राणं, जंकिंचि अपत्तियं० ॥ कही इवाकारेणसं० ॥ परिक आलोएम इवं आलोएमि जो मे परिकर्ड इरो कर्ज कदी इवाकारेण सं० ॥ पखीच्य तिचार प्रालोनं एम कही प्रतिचार कढ़ियें. प बी एवंकारे श्रावकतणे धर्मे श्रीसमकित मूल बा रव्रत, एकशो चोवीश अतिचारमांदे जे कोइ अतिचार पद दिवसमादे सूक्ष्म, बादर, जाणतां अजाणता हु होय, ते सवे हुं मनें, वचनें, कायायें करी मामि डुक्कडं ॥ सवसवि परिक डुचित्ति, नासिय, डुच्चि, इवाकारेण संदिस्सद जगवन् तस्स मिचामि कम || बाका ס Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनधर्मसिंधु. रि जगवन् पसाउं करि परिक तपप्रसाद करो जी. एम उच्चार करीने आवी रीतें कहियें:-च उन्जेणं एक उपवास, बेत्रांबिल, त्रण नीवि, चार एकासणां, आठ बे आसणां, बे हजारस काय,यथाशक्ति तप करी (प्रवेश) कस्यो होय तो पश्ही कहियें, अने करवोदोय तो तहत्ति कही ये, तथा न करवो दोय तो अणबोल्या रहीये. पली वांदणां बे दीजे. पी बाका० ॥ पत्ते खामणेणं अनुहिउहं अग्निंतर परिकअं खामे जं वं खामेमि परिकअं पनरस दिवसाणं पन रस राश्ाणं जंकिंचि अपत्तियं पली वांदणां बे दीजें. पली देवसिअं आलोअ पमिकंता बाका० ॥नगवन परिकअंपमिकमुं समपडि कमामि श्वं एम कही करेमिनंत्ते सामाश्यं०॥ कही बामि पडिकमिजं जो मे परिक० कहे Q. पनी खमासमण देश श्बाकारेणसंदिप स्किसूत्र पढं. एम कही त्रण नवकारगणी सा धु दोय तो परिकसूत्र कहे अने साधु न होय तोत्रण नवकार गणीने श्रावक वंदित्तुं कहे पनी सुअदेवयानी योय केदेवी. पनी हेग बेसी Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. १०५ जमणो ढिंचण उन्नो राखी एक नवकार गण। करेमि ते ॥श्वामि पडि ॥ कही वंदित्तुं कदे. पी करेमि नंते इनामि गमि कान स्सग्गं जोमे परिक०॥ तस्सउत्तरी० ॥ अ नब० ॥ कहीने बार लोगस्सनो कानस्सग्ग करवो. ते लोगस्स चंदेसु निम्मलयरा सुधी क देवा. अथवा अडतालीश नवकारनो काउस्स ग करी पारवो. पारीने प्रगट लोगस्स कही मु हपत्ति पडिलेदिनें वांदणां बे दीजें, पनी श्वा का॥समाप्त खामणेणं अनुहिउहं अग्निंतर ॥ परिकअं० ॥ खामेनं श्वं खामेमि परिकअं एक पकाणं पनरस दिवसाणं पनरस राझ्या णं जंकिंचि अपत्तिअंकही पनी खमासमण दे ने श्बाका० ॥ परिक खापणां खामुं. एम कही एक खमासण देई तीन तीन नवकार गुणी एम खामणां चार खामवा. पनी देवसि प्रतिक मणामां वंदित्तुं कह्या. पी बे वांदणां देश्ने ति हांथी ते सामायिक पारीयें तिहां सुधी सर्व देव सीनी पेठे जाणवू, पण सुअदेवयानी थोयोने ठेकाणे “ज्ञानादि"नीथोयो कहेवी.स्तवनअजि Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनधर्मसिंधु. य शांतिनुं कहे. सद्यायने ठेकाणेनवसग्गदरं तथा संसारदावानी थोयो चार कदेवी. अने लघुशांतिने ठेकाणे महोटी शांति कहेवी॥ शति परिकप्रतिक्रमणविधिः ॥ ॥ अथ चनम्मासीप्रतिक्रमणविधिः॥ ॥ए उपर कह्या मुजब परकीना विधि प्रमा णे करवू, पण एटलुं विशेष जे बार लोगस्सना कानस्सग्गने ठेकाणे वीश लोगस्सनो कानस्स ग करवो, अने परकीना आगारने ठेकाणे चन मासीना केहवा तथा तपने ठेकाणे बहेणं बेन पवास, चार आंबिल, नीवि, आठ एकास णां शोल बे आसणां, चार हजार सनाय, ए रीते कहीये ॥ इति॥ ॥अथ संवत्सरीप्रतिक्रमणविधिः॥ ॥ए पण उपर लख्या मुजब परकीना विधि प्रमाणे करवू, पण बार लोगस्सना कानस्सग्ग ने ठेकाणे चालीस लोगस्सनो कानसग्ग तपनें ठेकाणे अहम नत्तं एटले त्रण उपवास, ब आं बिल नव नीवि, बार एकासणां, चोवीस बे आ सणां, अने उ हजार सद्याय ए रीतें कहे," ने Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ प्रथमपरिछेद. पकीना आगारने ठेकाणे संवत्सरीना आगार कदेवा ॥ इति संवत्सरीप्रतिक सं० ॥ पोसह लेवानी विधि. प्रथम खमासमण दक्ष, प्रगट लोगस्स कहे वा पर्यंत इरियावदि पडिक्कमी, बाकारेण सं दिसह नगवान् पोसद मुदपत्ती पडिलेहु ! एम बोली, गुरु आदेश आपे एटले 'वं' कहीने मुदपति पडी खेहवी. पनी खमा० इबा पोसह संदिसाहु? श्वं खमा० श्बा पोसद गजें? पठी चं कही बे हाथ जोमी नवकार गणी,श्बकारी नगवन् पसाय करी पोसद दंडक जच्चरावोजी. कहेवू एटले गुरु पोसहनी करेमिनंते उच्चरावे. पगी खमासमण दश्श्बा सामायिक मुद पति पडि लेडं ? श्वं कही, मुहपत्ति पडीलेहीने, १ खमा० खमासमण देवू. २ श्वा० गकारेण संदिसह जगवन् कहे. ३ करेमि नंतेमां चार पहोरनो दिवसनो करनारने माटे "जाव दिवस” कहेवू, श्राउ पहोरनो करनारने माटे 'जाव अहोरत्त' कहेवू रात्रीना चार पहोरवालाने 'जाव शेष दिवस रत' कहेवु अने दिवसनो चार पहोरनो करनारज रात्रिनो चार पहोरनो पण करे तो कोटीसहित ने माटे 'जाव अहोरत' कहे. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ जैनधर्मसिंधु. खमा० श्वा० सामायिक संदिसाढं ? श्वं. ख मा०श्वा० सामायिक गलं ? श्वं कही बे हाथ जोडी नवकार गणी श्वाकारी जगवन् पसाय करी सामायिक दंडक उच्चारावोजी, गुरु 'करेमि नंते सामाश्यं' नो पाछ कहे. तेमां एटबुं विशे ष जे जावनियमं ने ठेकाणे जावपोसदं कहे,. पगी खमा0 इबा बेसणे संदिसाहुं ? श्वं ख मा० श्बा0 बेसणे गावं ? इबा. खमा० श्वान सकाय संदिसाहु ? श्वं. खमा० श्बा सद्याय करूं? श्वं कही,त्रण नवकार गणवा. पीखमा। श्बास बहुवेल संदिसाहुं ? श्बा बहुवेल . खमा० श्बा बहुवेल करशु. श्वं खमा इना पमिलेदण करूं? श्वं कदीने मुदपत्ति विगेरे पां चवाना पडिलेहवा. 'मुदपत्ति ५० बोलथी, चर वलो १० बोलथी, कटासणुं २५ बोलथी. सुत्र नो कंदोरो १० बोलथी अने धोती\ २५ बोल १ मुहपत्तिना ५० बोल पागल लख्या जे. उंग बोल होय त्यां ते ५० मांहेना प्रश्रमना ग्रहण करवा. २ पोसहमा आजूषण पहेरवा न जोश्ये कंदोरो सुत्रनो जोइ ये. ते गेमी, पमिलेही, पागे बांधीने ते संबंधना इरियावहीतेज वखत पमिकमवा ( बन्ने टंकनी पडिलेहणामां समजवु. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. १० थी पमिलेहवं. पली खमासमण दक्ष, इनाकारी जगवन् पसाय करी पमिलेदणा पमिलेदावोजी. एम कही वडीलर्नु अण पडिलेा एक वस्त्र उ त्तरासन पमिलेदवू. पनी खमा० श्बा जपधि मुहपत्ति पमिलेहुं? श्वं कही मुहपत्ति पमिलेहवी पगी खमा०श्चानपधि संदिसाढुं? श्वं खमा० इना उपधि पमिलेहुं ? श्वं कहीने पूर्वे पमिले हतां बाकी रदेख उत्तरासण,मात्रु करवा जवानुं वस्त्र अने रात्री पोसह करवो दोय तो कामली विगेरे २५ पचीस बोलथी पमिलेहवा. पनी एक जणे डंडास ण जाची लेवं तेने पडिलेही, इरि यावही पडिक्कमीने काजोलेवो.काजो'शुभएटले तपासीत्यांज स्थापनाचार्यनी सन्मुख ननडक बेसीने शरियावही पडिकमवा. परी काजो यथा योग्य स्थानके अणुजाणद जस्सग्गो कहीने परग्ववो. परव्या परी त्रणवार वोसिरे क देवू. पनी मूल स्थानके आवीने सौ साथे देव वांदे अने सकाय करे. १ काजामां सचित्त एकेंद्री नीकले तो गुरु पासे आलोयण लेवी. त्रस जीव नीकले तो यतना करवी. . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनधर्मसिंधु. ॥पोसह पारवानी विधि ॥ खमा० दश् इरियावदी पमिकमी, चउकसा यथी जयवियराय पर्यंत कदीने, खमा० इना मुदपत्ति पमीलेहुँ ? श्वं कही मुहपत्ति पमीले हवी. पठी खमा इग0 पोसह पारुं ? यथाश क्ति खमा0 श्ग पोसह पार्यो. तदत्ति कही नवकार गणी चरवला उपर जमणो दाथ स्था पीने सागरचंदो कहे ॥ पनी खमा श्वा0 मुहपति पमिडं ? श्वं कदी मुदपत्ति पडिलेदीने खमा०श्चा सामायिकपारु? यथाशक्ति. खमा० श्वा० सामायिक पायें. तदत्ति कही,चरवळा उपर दात स्थापी नवकार गणीने सामाश्य वयजुत्तो कदे. पड़ी विधि करतां जे का अविधि थ होय तस्समिवामी उक्कम कहे. इति ___ हवे जेणे सवारे आठ पदोरनोज पोसदली धो होय ते सांजना देव वांद्या पगी' कुंमल ली धा न होय तो लश्ने तथा मंमासण अने रात्री १ कुडंल-रुना पुलमा. ते बे कानमा राखे. जो गुमावेतो आळोयण आवे. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिद. ने माटे अचित्त पाणी चुनो नाखेलूं जाची रा खीने पठी खमा० दश् इरियावदी पमिकमीने खमा0 इग स्थडिल पडिलेडं ? श्वं कही चोवीश मांडला करे ते आ प्रमाणे आ मामला वडी नीति लघु नीति विगेरे प रविवा योग्य जग्या प्रतिलेखण निमित्ते कर वाना ने तेमां प्रथम संथारापासेनी जग्याए उ मांडला करवा१ आघामें आसन्ने बच्चारे पासवणे अाणहियासे श् आघाडे आसन्ने पासवणे अणहियासे, ३ आघामे मजे उच्चारे पासवणे अणहियासे. ४ आघाडे मजे पासवणे अणदियासे. ५ आघाडे दुरे उच्चारे पासवणे अणढ़ियासे, ६ आघाडे दूरे पासवणे अणहियासे, १ आघामे आसन्ने उच्चारे पासवणे अहियासे, २ आघामे आसन्ने पासवणे अदियासे, ३ आघाडे मजे जच्चारे पासवणे अहियासे, ४ आघामे मजे पासवणे अहियासे, ५ आघामे दूरे जच्चारे पासवणे अहियासे ६ आघामे दूरे पासवणे अहियासे, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ जैनधर्मसिंधु. १ अघामे आसन्ने उच्चारे पासवणे आणाघाडे, २ आघामे आसन्ने पासवणे आणाघामे, ३ आघाडे मजे उच्चारे पासवणे आणाघामे, ४ आघाडे मजे पासवणे आणाघामे, ५ आघाडे दूरे उच्चारे पासवणे आणाघामे, ६ आगामे दूरे पासवणे आणाघामे, बीजा उपाश्रयना बारणानी मांनी तर फना मामला उपर प्रमाणेज कदेवा. त्रीजा उ मामला नपाश्रयना बारणा बहार नजीक रहीने करवाना तथा चोथा उ मामला उपाश्रयथी सो हाथने आशरे दूर रहीने कर वाना तेमां पण त्रीजा न मामला प्रमाणे अ णाघामे शब्द कहेवो बाकीना शब्दो नपरना त्रण मांडला प्रमाणे ए प्रमाणे २४ मामला कस्या पगी शरियाव ही पमिकमीने चैत्यवंदन पूर्वक प्रतिक्रमण पूर्ववत करे. इति श्रीतपगढ प्रतिक्रमणविधि॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिजेद. ११३ ॥अथखरतरगबप्रति ॥ अथ जयतिहुअण लिख्यते ॥ ॥जय तिहुअण वरकप्परुक जय जिण धन्नं तरि, जय तिहुअण कल्लाणकोस उरिअक्करिके सरि॥ तिहुण जण अविलंघियाण जुवणत्त य सामिश्र, कुणसुसुदाइंजिणेसपास थंनणय पुरहिअ॥१॥त समरंत लहंति झत्तिवर पु त्त कलत्तहि. धम सुवन्न हिरम पुरम जणतंजदि रऊदि॥ पिकहि मुक असंखसुरक तुद पासप साश्ण, श्यतिहुणवरकप्परुरकसुरकहि कुण मदजिण ॥ २॥ जरजकर परिजुएल कणुणा 6 सुकुहिण, चरकुरकीणखएणखुड्डनरसल्लिय सूलिण॥तुह जिण सरणरसायणेणलहु हुंतिपु णमव, जय धसंतरिपास महवि तुडं रोगहरो नव॥३॥ विजाजोइस मंत तंत सिधिन अपय त्तिण, जुवणग्नुअ अमविद सिद्धि सिझर तुद नामिण ॥ तुद नामिण अपवित्तवि जण दो पवित्तन, तं तिहुअण कल्लाणकोस तुद पास निरुत्तन॥४॥ खुद्द पवत्त मंत तंत जंताइंवि सुत्तर, चरथिरगरल गहुग्गखग्ग रिउवग्गवि Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनधर्मसिंधु. गंजइ, उडियसब अणब घब निबार दय करि, उरिअइंदरज सुपासदेव उरिअकरिके सरि॥५॥तुद आणायंने नीमदप्पु घर सुरव र, रकस जक फणिंद विंद चोरानलजलहर। जलथलचारिरउद्दखुद्द पसुजोणि जोश्त्र, श्य तिहअणअविलंघिआण जय पास सुसामिष ॥६॥पबिअ अब अणबदिबन्नत्तिनरनिन्नर, रोमं चंचिअचारुकाय किम्मरनरसुरवर ॥ जसु सेवहि कमकमलजुअल परकालिअकलिमलु, सोजुवणत्तयसामिपास मदमद्दन रिजबलु॥॥ जय जोश्अ मणकमलनसल जय पंजरकुंजर, तिहुअणजणाणंदचंदजुवणत्तयदिणयराज य मश्मेशणि वारिवाद जयजंतु पिआमद, थंन यग्अि पासनाद नादत्तणकुणमह ॥॥ बहु विदवमञवाम सुम वमिन उप्परमहि,मुरकधम्मु कामबकाम नर नियनिय सब दि॥ जं जाय बहु दरिसणब बहु नाम पसिन, सो जो अ मण कमलनसलसुह पास पवन ॥ए॥ जय विप्नल रणणिरदसण थरदरिअ सरीरय, तर लिअ नयणविसम्मसुम्मगग्गिरगिरकरुणय॥ तई Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. सहसत्तिसरंति हुँतिनरनासिअ गुरुदर, मदवि जविसऊसपास नय पंजरकुंजर॥१०॥ पई पासविविअसंतनित्तपत्तंतपवित्तिय, वाहपवाद पवूढरूढ उहदाहसुपुलश्य ॥ ममहिमस्मसनम पुरमअप्पाणं सुरनर,श्यतिहुश्रण आणंदचंदज य पास जिणेसर॥११॥तुद कल्लाणमदेसुघंट टंकारव पिल्लित्र, वल्लरमल्ल महवनत्ति सुरवर गंजुद्धि॥ हलुप्फलिअ पवत्तयंति नवणेदि महूसव,श्य तिहुअण आणंदचंद जयपाससुद्ध नव ॥१२॥ निम्मल केवल किरणनियर विद् रिअ तमपदयर, दंसिअ सयलपयबसबविबरि अ पहानर॥ कलिकलुसिभ जण घूअलोयलो यणदअगोयर, तिमिर निरुहर पासनाह जुव पत्तय दिणयर॥२३॥ तुह समरणजलवरिससि त्त माणव मइ मेणि, अवरावरसुहमबबोद कं दलदल रेणिजाय फलनरत्नरिय दरिय छ हदाद अणोवम, श्यमश्मेश्णि वारिवाद दिसि पास मई मम ॥२४॥ कय अविकल कल्लाणव लिनबूरियज्दवणुं, दाविअसग्गपवग्गमग्ग उ ग्गगम वारj॥जयजंतुहजणएणतुलजंजणि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. यदियावहु, रम्म धम्म सो जयन पास जय जं तुपिआमहु ॥ १५॥जुवणारमनिवासदरित्र परदरिसणदेवय, जोणिपूअणखित्तवाल खुद्दा सुर पसुवय ॥ तुह उत्तह सुनह सुह अविसंठुल चिदि, श्य तिहुअण वणसींद पास पावाप णासहिं ॥१६॥फणिफणफारफुरंतरयण कररं जिअनदयल, फलिणी कंदलदलतमाल निल्नु प्पलसामल ॥ कमहासुर उवसग्गवग्ग संसग्ग अगंजिअ, जय पच्चरकजिणेस पास थंनणयपुर यि॥१७॥मदमणुतरलपमाणनेय वायावि विसंग्खु, नियतणुरवि अविणयसदाव आल सविदिलंघलु ॥ तुदमादप्पपमाणदेव कारुम पवत्तन, श्यमदमाअवहीरपासपालदिविलवं तन॥१७॥ किंकिंकप्पिनणेयकलुणुकिंकिंवनजं पिन, किं वनचिहिनकिठदेवदीय मविलंबिन ॥ कासुनकियनिप्पल्ललल्लुअ हिंउहत्तई, तह विनपत्तनताण किंपिपई पहु परिचत्तोरणातु ढुंसामिहुतुहुँमाय वप्पतुहुँमित्तपियंकरु,तुडंग इतुहुँमश्तुंदिज ताण तुहुँ गुरु खेमकरुाद उ हनरनारिअबराज राउलनिनग्गन,लीण तुद Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. ११७ कमकमल सरणजिणपालदि चंगन ॥२०॥प इंकिविकयनीरोयलोयकिविपावियसुहसय, कि विमई मंतमहंतकेवि किविसादियसिवपय॥कि वि गंजिअरिउवग्गकेविजसधवलिअ भूअल, मइंअवहीरहि केणपाससरणागयवबल ॥२२॥ पच्चुवयारनिरीहनादनिप्पमपयोअण,तुहुँ जिण पासपरोवयार करुणिकपरायण ॥ सत्तुमित्त सम चित्तवित्तिनयनिंदिअसममण,माअवहीरिअजु गविमइं पासनिरंजण॥१२॥दनं बहुविह हतत्तगत्ततुहं उहनासणपरु,ह सुयणहकरुणि कगण तुडं निरुकरुणाकरु ॥द जिणपास सामिसाबुतुहुँ तिहुअणसामिअ,जंअवहीरदि मइंकखंतश्य पासनसोदि॥२३॥जुग्गाजुग्ग विनागनादनदुजोअणतुदसमनवणुवयारसदा वन्नाव करुणारससत्तम ॥ समविसमद किंघण नएइ जुविदाहुसमंतन, श्य उहबंधवपासनाद मई पालथुणंतन ॥२४॥नयदीणददीणयमुए विअस्मविकिविजुग्गय, जं जोश्यनवयारुकरश्न वयारसमुजय॥दीणददीणनिहीणजेणतुदनाह णचत्तन, तोजुग्गनअदमेव पासपालदिमई चं Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ जैनधर्मसिंधु. गड ||२५|| अहम विजुग्गय विसेस कि विमस्म दिदीह, जं पास विजवयारुकरइ तुदनाहसम ग्गह ॥ सुच्चिच् किल कल्लाजेण जिण तुम्ह प सीयद, किं तंचेव देव मामइवही रह ॥ २६ ॥ तुह पच नहु होइ विद्दल जिजा न किं पु, दनुं इस्किन निरुसत्तचत्तक्कन जस्सु यमण ॥ तं ममन निमिसे ए एडविन ल नइ, सच्चं जं जुकियवसेण किं नंबरु पञ्चइ ॥ ॥ २७ ॥ तिहुसामिच्य पासनाह मई अप्पप यासिन, किन जं नियरूवसरिसुनमकुंव हुजंपि उ ॥ अस्मा जिणजगतुदसमो विद किस्मदयास , जइ अवगिल सि तुं दिजप्रकिंदोइसढ्या सन ॥ २८ ॥ जइ तुहरू वि कि विपेच्य पाइणवे लविन, तनजापुंजिए पास तुह्मदच्छंगी करिच्य न ॥ इयमदवि जं न होइ सातुहर्जदावण, रकंतद नियकित्तिणेयजुवहीर ॥२॥ एवमदारिदजत्तदेवश्यन्दवणमसन, जं प्रण लिय गुणगहण तुझ मुजि णिसि इन ॥ इय मई पसिय सुपासनादयंत्रणयपुरठि, इय मुणिवर सिरि जयदेव विस्मवर प्रणिदि ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. ११ ॥ ३० ॥ इति श्रीस्तंभनक तीर्थराज श्रीपार्श्व नाथस्तवनम् ॥ ॥ पीछें जय महायस कहे, सो लिखते है | ॥ अथ जय महायस प्रारंभः ॥ ॥ जय महायस जय महायस जय महाजा ग जय चिंतिय सुद फलय ॥ जय समच्च परम व जाणय, जय जय गुरु गरिम गुरु ॥ जय 5 दत्त सत्ताण ताणय, यंत्रणयविय पास जिए ॥ जवियद जीम बुलु, जव अवता ांत गुण तुक त्तिसंक नमो ॥ १ ॥ इति ॥ अथ सदाकालका अवश्य कर्तव्य सामायक पडिकमणा शास्त्रानुसारे विधि लि० ॥ ॥ प्रणम्य श्री जिनाधीशं सद्गुरुं च विशेषत श्रामादोरात्रकृत्यानि लिख्यन्ते लोक भाषया ॥ १ ॥ ॥ श्रावक दोय घडी रात्र रह्या पोशद शा लाये (अथवा ) गुरुकने अथवा घरने एक प्र देशे (यावी ) प्रथम दिवस संध्याये पहिले ह्या वस्त्र पहिरी (जो ) गुरुनो जोग न हुवे (तो) आप प्रमार्जित थानकै खमासमणपूर्वक तीन Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनधर्मसिंधु. नवकार गुणी थापनाजी यापै (पबै) खमासमण देई काकारेण संदिस्सद जगवनसामाय कमुहपत्ती पडिलेढुं ( गुरु कदै पलेह) पबे वं कदी, दूजी खमासमण देई मुहपत्ती पडिले जो होय खमा० कदै ॥ इच्छा० सं ॥ ज० सामायक संदिस्साकं ( गुरुकदै संदिस्सावेद ) पबै इवं कदी, वलेख० देने कहें इवाका० सं ज० ॥ सामायिक ठाउँ ( गुरु कदै वाएद ) इचं कदी खमासमण देई वितकाय जो रही तीन नवकार गुणी कदै इकार भगवन पसा व करी सामायक दंड उच्चरावोजी ( गुरु कदै उचरावे मो) पबै करेमि ते सामाइयं (इत्यादि) सामायक सूत्र गुरु वचन अनुभाषण करतो थको तीन वार उच्च खमासमण देई ॥ इचा० सं० ० इरियावदियं पडिक्कमामि ( गुरु क पक्किम है ) पबै इवं कदी || इच्छामि पडिक मिनं इरियावदिया ( इत्यादि पाठ करे ) इ रियावदी पडिक्कमि ॥ एक लोगस्सनो काउसग्ग करी णमो अरिहताणं कही कानसग्ग पारीमुखे प्रगट लोगस्स कही खमा० देई ॥ इच्चा० सं० Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ११ न वेसणो संदिस्सा(गुरु कदै संदिस्सावेद) पवै श्वं कही खमा० देई श्वा० सं० न० वै सणोगलं (गुरु कहै गए है) प→ कही खमासमण देई॥श्वा० सं० न० सिझाय सं दिस्सा (गुरु कहे संदिस्सावेद ) पवै वं कही ॥ पांगरणोपमिग्घा (गुरु कदै पडिग्घा एह ) पवै॥श्वं ॥ कही॥ वस्त्र ग्रहण करै. इति प्रजातसामायक ग्रहणविधि। ॥ अथ देवसी प्रतिक्रमण ॥ ॥प्रथम चैत्यवंदन ॥ जयतिहणनी पांच गाथा पदलाथी और दोय गाथा बेडानी कही जय महाशय २ कहीने सक्रस्तव आदि चारे थोन देववंदन करीनीचा वैसीने नमोबणं कहे पने वांदणापूर्वक श्री आचर्यमिश्र १ श्रीनपा ध्यायजी मिश्र श्री वर्तमाननहारक श्री पूज्य जीनो नाम लेश वांदीये ३ सर्व साधु साध्वी वांङ ॥ पने सबसवि राईय देवशिय करेमि नंते० श्वामि गमि0 तस्सुतरी अन्नतू आठ नवकारनो काउसग्गकरे मुंदडे लोगस्स कहे पड़े तीजे आवश्य करी मुहपत्ती पमिले Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनधर्मसिंधु. हवी ॥ दोय वांदणा देवे देवसियं आलोएमी० पवें गणेकमणे पडे चौंपुरा दिवसना लघु अतिचार ॥ अढार पापस्थानक आलोई सव सविदेवसिय पडे तीन नवकार तीन करेमिण पने वंदेतूसूत्र कहे पजे वांदणा दोय देवे ॥पने अनुहिम कही फेर २ वांदणां देई॥ आय रि जवझाए करेमि० तस्सुतरीन अन्नबू० दोय लोगस्सनो कानसग करे मुंहमे लोगस्स कहे॥वंदणअन्नपजे एकलोगस्सनो कान सग॥ मुंदडे पुष्करवरदी वट्टे वंदण अन्न एक लोगस्सनो काउसग्ग मुंदडे सिझणं बुझ ०प सुहदेवीयाए करेमि कासग्गअन्नर नवकारनो कानसग्ग करे ॥ सुवर्णसालिनीदे यात्। एक गाथा कहे पडे देत्रदेवीयाए करेमि कानस्सग अन्न० १ नवकारनो कानसग करे पने यासांषेत्रगतासंति गाथा १ कहे १ नव कारगुणी बड़े आवश्य करी मुदपत्ती पडिलेदे दोय वार वांदणा देवे॥श्वामो अणुसध्यिं नमोखमासमणाणं ॥ नमोस्तुवईमानाय तीन गाथा कहे ॥ नमोबणं कही वमोतवन कहे, Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. १२३ पठे श्री आचार्यजी मिश्र १ श्रीनपाध्यायमिश्र २ र्सवसाधु साध्वी वांडं अढा जे सु० कद ना फेर खमासमण दे॥पने देवसीप्रायश्चित्त विसोधवानिमित्तं करेमि कासगं अन्न लो गस्सनो कानस्सग करे पडे मुंहमे लोगस्स कदे पने दोपश्व नड्डादनिमित्तं करेमि कानसग्गं अन्न ४ लोगस्सनो काउस्सग करे मुंदडे लो गस्स कहे॥पने सिमायं संदिस्साएमि सिझाय करेमि॥पले श्रीसेट्ठी कहे॥पने नमोबुणं कही गेटो तवन कदे पठे जयवीराय कहे परे सिरथं नणज्यिपाससामिणो कहै प श्रीथंनना पा र्श्वनाथजी आराधना निमित्तं करेमि कानस्स ग्ग वंदण अन्न ४ लोगस्सनो कानसग्ग करे पड़े श्रीखरतरगतशृणगारदारजंयमयुगप्र धाननहारक दादाजी श्रीजिन दत्तसूरिजी महा राज चारित्र चूडामणी आराधवानिमित्तं करेमि कासग्गं अन्न १ लोगस्सनो कानसग्ग करे। इणीहीतरे दादाजी श्रीजिनकुशलसूरिनो र लो गस्सनो कानसग्ग पारी एक नवकार गुणी चै त्यवंदन करे चनक्कसाया कदै ॥ नमोबणं जय Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैनधर्मसिंधु. वीरायसूधी पबै लघु शांति कदै पबे सामायक पारै ॥ दवे राई प्रतिक्रमण विधि ॥ ॥ एक खमासमा देई ॥ इचा० सं०ज० ॥ चै त्यवंदन करूं (गुरुं क करे) इवं ॥ कही जय सामी २ रिस दसेतुंज उर्जित पहुनेमि जि जयन वीरसच्चनरमंगण नरुच्चदिमुणिसुवयम दुरिपास दरियखंडण प्रवर विदेहिंतिचयर चिहुं दिशिविदिशि जंकेवि तीच्णागयसं पयं वंडुं जिसधेवि कम्मनुमिदिं २ पढमसंघयण नक्कोसन सत्तरिस नजिणवराणविहरंत लग्नई नवको के लिए को डिसदसनव साहू संपय सं पइ जिणवरवीसमुज्यिको मिवरनाण समणा को मिसदसऽयथु णिजय पिच्च विहाण सत्ताण वइ सदस्सा लरका उपन्न कोडिजे चनसय बयासिया तिल के चेये वंदे वंदेनवको डिसयं पणवीसं कोडि लक तेपन्ना अठावीस सदस्सा चसय हासिया पमिमा ॥ जं किचि इत्यादि जयवीरायसूधी चैत्यवंदन करे || पबै खमा० देई ॥ इकारेण संदिस्सदै ज० कुसुमिण ड समिराई प्रायचित्त विसोदाचं करेमि का Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. १२५ सग्गं ( गुरु कहें करेद) अन्न ॥च्यार॥४॥ लोगस्सनो कानस्सग करी पारी प्रगट लो गस्स कदै ॥ पमिकमणो गववानो अवसर हवार खमासमण देई॥ (श्रीश्राचार्यजीमिश्र) कही वांदियेफेर खमासमण दे(श्रीनपाध्याय जी मिश्र)पबै वांदणा दई(जंगमयुग प्रधानन हारक श्रीपूज्यजीका नाम कही वांदिये ॥ बले खमासमण देई साधूजी वांदीये ॥ श्म च्यार खमासमणे पमिकमण गव॥बकारसमस्त श्रा वको वादूं (कही)गोमा लिये वेसी मस्तक नमावी दोय हाथे मुहपती मुखे देई सबसविराईय (इ त्यादि कहै) पिण श्बाकारेण संदिस्सह (इसो न कहै) पबै सकस्तव कही ॥ कनो थई करे मि० श्वामि गचं कानस्सगं0 (इत्यादि पाठ कही) तस्सुत्तरी अन्नत्थूण चारित्र शु नि मित्ते १ लोगस्सनो काउसग्ग करी (पारी) दर्शन शुद्धि निमिते लोगस्स कही सवलोए अ रिहंत चेश्ाणं ॥ करमि कानसग्गं इत्यादि कही १ लोगस्सनो कामसग्ग करी (पारी) झानातिचारनिमित्ते पुक्खरवरदी बढे (कही) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैनधर्मसिंधु. सुयस्स लगवर्ड करेमि का वंदणवतीयाए (इ त्यादि कही ) कानस्सग्ग करे कानस्सग्गमा चौपुहरी रात्रि मांद सातलाख इत्यादि आलोय णचिंतवे(अथवा) आठ नवकार चिंतवे (पबी) कानसग्ग पारी ॥ सिधाणं बुदाणं कही संडा साप्रमार्जनपूर्वक वैसी मुहपती पडिलेह पबैदो वांदणा देई अनहिमि खामि वांदणा वेदीजै तेविधि देवसीनी परे जा णवू पबै सबसवि० ॥ इबा0 न0 ए पद क हवे करी आलोया अतीचारनो प्रायबित मांगे पळे श्वं तस्समिबामि उकळं ॥ पडे जीमणो गोडो चंचो करी तीन नवकार तीन करेमिन बामि पमिकमिजं जोमेराईयो इत्यादि कही वंदितूसूत्र तंनिंदे तंच गरिदामि सूधी कदै ॥ पछै वांदणां देवै । पेने अनुहि कही फर वां दणां वेदेवा पबै आयरिऊन वजाए करेमिन्नं ते श्बा मिगमि कानसग्गं । तस्सुतरी अन्न बु०६लोगस्सनो काउसग्ग अथवा चौवी न वकारनो कानसग्ग करै ।पचै मुंदमै लोगस्स क है पबै मुहपत्ती पमिलद वांदणां देवै सग Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ला तीर्थानें याद करै पबै पच्चरकाण करै पछै श्वामो अणुसहिं (इसोपद कहै,) पछै नमोख मा समणाणं नमोऽर्दत् सिक्षाचार्योपाध्याय सर्व सा धुन्यः पबै संसारदावा (अथवा) परसमय तिमिरतरणं तीनगाथा कदै नमोनुणं अरि हंतचे ईयाणं करेमिकानसग्गं वंदण। अन्न तू०१ नवकारनो कानसरकरे पबै थरी १ गाथा कहै प लोगस्स कही वंदण अन्नब १ नवकारनो कानसग्ग पबै थूरीजी गाथा कहै पबै पुष्करवरदी वढेण्वंदणअन्नब०१न वकारनो कानसग्ग थुई तीजी गाथा कहै पर सिचाणं वुशाणं कदै पछै १ नवकारनोकानस ग करी पवै थरी चौथी गाथा कदै पछै श्री आचार्यजी मिअर श्रीनपाध्यायजी मिश्र० स र्वसाधूवांउं॥ इतिराई प्रतिक्रमण॥पबै श्रीसीमं धर चैत्पवंदन करवो पढ़ सिझगिरीनौचैत्पवंद न करी सामायकपारवा ॥ ॥ दवे पाखी पडिक्कमणो लि॥ तिहां प्रथम वं दिन सूत्र पर्यंत देवसी पमिकमी पडेश्वाकारेण संदिस्सह जगवन देवसियं आलोईयं पडिकंतं Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनधर्मसिंधु. परकी मुहपती पडिलेद पबे दो वांदणा देवै ॥ पाखी पडिक्कमणो हुवे तो पाखीरो नाम लेवे अथवा चोमाशी वा संवत्सरी, दोय तो सोढ़ी नाम लेवे परकोवइ कंत्तो कढणो ॥ पबे वांदणा दिया पढे पुन्यवंतो बींक जया करज्यो मधुर श्वरे पडिक्कमज्यो || खासे सुविवरा करी खासज्यो मांगल मांदे सावचेतसावधान र ढिज्यो देवसी रे ( थानके) पाखी चोमासी चमच जणज्यो | पाकारेण संदिस्सद जगवन संबुदाखाम ऐणं ॥ अनु ठिमि निंतर पखीयं खामे मि इयं खामि ॥ पखियं पन्नरस दिवसाणं पनरस राई (चोमासी) मांदे चन्दं मासाणं छन्दं पखाणं एकसोवीसरायं दियाणं (संवत्सरी) पमि कमणो हुवे तो ज्वाल सन्नमासाणं चोवीसन्ने पषाणं तीन से साठ रायं दियाणं जंकिंचिपतियं सर्वकदो पाकारेण संदिस्सद जगवन पखियं (३) आलोनं जोमे पखिर्ड यारो कर्ज ० सर्वकदणो पवे नाणं मिदंसणं मित्रप्र० ६ तिचार आलोयणा कढणा सब सवि पखिय ३ सर्व कहो पवे वांदा वे देवे पबे इवाकारेण Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ए प्रथमपरिवेद. संदिस्सह नगवन् देवसिय आलोश्यं पमिक्तं पत्तेय खामणेणं अनुजिमि अग्निंतरपखियं लारेकह्यो जिण रीतें सगलोकहणो परे वांदणा देवेपत्रे (पाखी) सूत्र कदे श्रावक श्राविका वंदेत् कहे पमिकमे देवसियं के ठिकाणे पखीयं ३ इसो कहणो तीन नवकार तीन करेमि नंते कहीने वंदेतु कहे मूलगुण उत्तरगुण अतीचार विशु-निमित्तं करेमि कानसगं श्वामि ग मि कानसगं जोम पबै तस्सुतरी० अ नत्र पछे पाखी पडिक्कमणे १२ चोमासे २० संवत्सरी ४० लोगस्सनो कानसग करे पडे प्रगट लोगस्स कदे पडे मुदपत्ती पमिलेद दोय वांदणा देवे पड़े श्बाकारेण बंदिस्सद नगवन् समाप्त खामणेणं अनुमिमि अग्निंतर पखीयं ३ लारे कह्यो जिणतरे कदे पश्चा0जाखाम णाखामुं पुन्यवंतो एकखमासमण देईतीन तीन नवकार गुणी चार वार पाखीसमाप्त खामणाषा मो पले खामणा खामी पळे पुन्यवंतोपाखीने खेषे एक उपवास अथवा दोय प्रांबिल तीन नीवी (अथवा) चार एकासणा (अथवा) दोय हजा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनधर्मसिंधु रसिकाय करी पाखीनी पेठ पूरज्यो पाषीने स्थानके देवसी ज्यो इम डुगाड चोमासि ( अ ) त्रिगुण संवत्सरीये सर्व कहवो पढे दे वसी प्रतिक्रमण बोड्यो ज्यांथी वांदा अन हिम फेर वांदा इत्यादि सर्व करणो देवसी कीरीते समऊणो ॥ इति खरतरगच्च सामायिक ( तथा ) पंच प्रतीक्रमण वीधी समाप्त ॥ अथ प्रचलग प्रतिक्रमण विधि | ॥ प्रथम नवकार कढ़ी एक ख० देई इनकार सुदराई सुद देवसी कढ़ी गुरुने सुखसाता पूबी इरिया वदी तस्सोत्तरी० अन्नच कही एक लोगस्सनो जसग्ग करी (प्रगट ) लोगस्सक दै (पी) इवाका०सं०जग० गमणागमण आलोनं तेकदै वै ॥ गमणा गमण ॥ मारगने विषे जातां याव तां पृथ्वी काय अप काय ते काय वाकाय वनस्पतिकाय, त्रसकाय, नील, फूलमाटी, पाणी, कण, कपाशिया, स्त्रीयादी तणो संघ हुवो दोय ते सविहुमन वचन कायायें करी तस्स मिचामिकमं ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रथमपरिबेद. ॥ चाकारेण सदस्सद जगवन् सामायिकता वाण नवकार गणुजी एम कही नीचा वैसी तीन नवकार की उना थई इबा० न० जीवराशी खमानं पबे सात लाख कही प्रढार पाप स्थानक यालोवे पबी इवा० ज० गुरु स्थापनाक रुंजी एम कही पर्चेदिय कदै इति (प्र यम) खमासमण ॥ खमासमण पूर्वक नीचे वैसी ने श्वा० ज० इव्य, क्षेत्र काल नाव धारुंजी १ ॥ अथ व्य देत्र काल नाव ॥ ॥ द्रव्य थकी लूगमां, लत्ता, घरेणां, गांवां पा रणुंनो करवाली, धारया प्रमाणें मोकलां बे. क्षेत्र थकी उपाशराना बारणानी मांदेली कोरें काल थकी समायिक, निपजे, तिहांसुधी, नावयकी यथा शक्तिने राग द्वेषें रहित व्रतीसंघातें बोलकं गुर्वादिक संघातें बोलवानो आगार बे. व्रती संघातें बोलवानुं पच्चरका बे. ए रीतेंबे कोटियें करी सामायिक करूं. सामायिक व्रत उच्चार करवा (एक) नवकारनो का सग्गकरुं जी. एम कही उजा थइने एक नवकार गणयें. ॥ पबी इछाकारेण संदिसद भगवन् ! सामायिक व्रत उच्चार करावो १३१ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. जी. पी गुरु (तथा) वडेरो करेमि नंते कहै ॥ पबी श्वामि खमासमण पूर्वक श्बाकारेण संदिसह नगवन्! बीजा आवश्यक नणी इरि यावदियं पमिकमुं जी. एम कही इरियावदि प डिक्कमी, परी तसनत्तरीकदेवी. पठी एक लो गस्सनो कानस्सग्ग करी, लोगस्स प्रगट कदे लोगस्स कहेतां दर्शनाचार निर्मल थाय ए बी जुं आवश्यक अने त्रीजुं खमसमण थयुं,पनी बामि खमासमण पूर्वक देठग बेसीने श्वाकारेण संदिस्सद जगवन् मानुं पमिलेहण करूं जी एम कही उत्तरासंगना बेमानुं पडिलेदण करवू. पनीश्वामि खमासमण पूर्वक श्नाकारेण संदि सह नगबन् त्रीजा आवश्यक नणी आवश्यक वांदणां करूं जी. पडे वांदणां देवै एम गुरु समी पें वांदणां बे वार दीजें, त्यां बीजी वारने वांदणे आवस्सिाए, ए पद न कहेवू; अने राश्पडि कमणे; रा वश्कंतो कहेवू (परकीय) परिक वश्क्कंतो कहेवू(चनमासिये) चनमासि वश्कं तोकदेवू. (संवत्सरिये) संवबरोवश्क्कंतो कहे ए वांदणां देतां झानादि त्रण निर्मल थाय. ए Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद . १३३ त्रीजुं आवश्यक नेचोथुं खमा साथयुं. इदा पोंताने मुखें, संध्या होय तो चनविहार अने सवार होय तो नवकारसी प्रमुखनुं पच्चरकाण मनने जावें धारे, तेथी तपाचार निर्मल याय ॥ पी एक जण उनोथइने इवामि खमास मण पूर्वक इवाका० सं० नगवन् ! चोथा आवश्यक जणी लघु प्रतिचार आलोनं जी. ॥ ॥ चप्रथ लघु प्रतिचार ॥ ॥ प्रथम नवकार कहीने, इवं अरिहंतदेव, सुसाधु गुरु, जिनप्रणीतधर्म, जावतो समकित प्रतिपालुं; व्यतो लौकिक लोकोत्तर देवगत, गुरुगत, पर्वगत मिथ्यात्वविषे जया करूं. ए श्रीसमकित तणा पांच प्रतिचार शोधुं. शंका, कंखा, वितिगिवा, परपाखंमीपरसंसा, परपाखं डी संधु ए पांच प्रतिचार मांदे जे कोई प्रतिचार हुई होय, ते सवि हुं, मने, वचनें कायायै कमिचामि डुक्करं ॥ १ ए बार व्रतमांदे पहेलुं प्राणातिपात विर मण व्रतस्थूल बेंद्रियादिक त्रस जीव निरपराध उपेतकरण संकल्पी करी दावा नियम, आरं Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनधर्मसिंधु. ने जयणा, ए पहेला प्राणातिपातविरमणवत तणा पांच अतिचार शोधुं.॥ बंधे, वहे, विजेए, अनारे, नत्तपाणवुने ए॥ए पांच अतिचा रमांदे जे कोइ अतिचार हुवो होय, ते सविडं मन, वचने,कायायें करी मिबामि उक्कडं. ॥१॥ २ बीजुं स्थूलमृषावादविरमणव्रत पंचवि ध, कन्नालीए, गोवालीए, जमालीए, नासाव हारे, कूडसरिकले. ए पांच मोटकां कूमां आप गने काज, स्वजनने काजें धर्मने का मूकी, प रकाजें कूमु बोलवा नियम, सूक्ष्म अलिक तण। जयणा करुं ॥ ए बीजा स्थूलमृषावादविरमण व्रततणा पांच अतिचार शोधुं. सहस्सानका णे, रहस्सानकाणे, सदारामंतनेए, मोसोवए से, कूमलेहकरणे ॥ ए पांच अतिचारमांदे जे कोइ अतिचार हुई होय, ते सविहु मने, वचने, कायायें करी मिबामि उक्कडं. ॥२॥ ३ त्रीजुं स्थूल अदत्तादानविरमणव्रत. स चित्त, अचित्त, राजनिग्रद कारीनं. पियारं अ णदी, लेवा नियम. सूदम तृण, इंधण, पथि पतित ववहार नियोगे, दाणचोरी जयणा ॥ए Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिजेद. १३५ जीजा स्थूलअदत्तादान व्रत तणा पांच अति चार शोधू. तेनादमे, तक्करप्पउंगे, विरुधरा कमे,कूम तुल्लकूडमाणे, तप्पमिरू अगववहारे॥ ए पांच अतिचारमांदे जे कोइ अतिचार हुई होय, ते सवि ढुं मने, वचने, कायायें करी मि बामि छक्कम ॥ ३॥ ४ चोडुं शीलवत. यथाशक्ते स्वदारासंतोष, परदाराविवर्जनारूप. ए चोथा शीलवत तणा पांच अतिचार शोधुं ॥ इत्तरपरिग्गदियागम णे, अपरपरिग्गदियागमणे, अनंगक्रीमा, पर विवादकरणे, कामनोगतिवानिलासे ॥ए पांच अतिचारमांदे जे कोइ अतिचार हु होय, ते सवि हुँ,मने वचने,कायायें करी मिबामि उक्कडं. ५ पांचमुं परिग्रहपरिमाणवत नवविध. खि त्त, घर, हट्ट, वाडिय, कुविय, धण, धन्न, दिर एम, सुवरम, अश्परिमाण दुप्पय, चनप्पयमिय. नवविद परिग्गद वयंतो॥ ए पांचमा परिग्रह परिमाणव्रततणा पांच अतिचार शोधुं. खित्त वबुप्पमाणाश्क्कमे, दिरमसुवमपमाणाश्कमे, धणधन्नप्पमाणाश्क्कमे, उप्पय चनप्पयप्पमा Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैनधर्मसिंधु. णाकमे,कुवियप्पमाणाश्कमे ॥ ए पांच अति चारमांदेजे कोइ अतिदार हुई होय, ते सवि हुं मने, वचने कायायें करी मिनामि उक्कडं ॥ ६ बहुं दिशिवत त्रिविधे जाणवु. जट्टदिसि वए, अदोदिसिवए, तिरियदिसिवए ॥ ए हा दिशिवततणा पांच अतिचार शोधुं ॥ जुट्ठदि सिप्पमाणाश्कमे, अहोदिसिप्पमाणाश्कमे, ति रियदिसिप्पमाणाश्कमे, खित्तबुटि,सयंतर-झा॥ ए पांचअति चार मांदे जे कोइ अतिचार हु वो होय, ते सवि हुँ मने, वचने, कायायें करी मिबामि दुकमं॥६॥ सातमुं लोगोपनोगव्रत विविध. नोजन तः कर्मतश्च. तत्र नोजनतः “सच्चित्तदव विग , नवाण तंबोल चीर कुसुमेसु ॥वाहण सय ण विलेवण, बंन दिसिन्दाण नत्तेसु॥१॥ए सातमा नोगोपनोग व्रत तणा पांच अतिचार शोधुं॥ सचित्त आदार, सचित्त पडिबश्ा दारे, अप्पोसदि नकण्या दुप्पोसदि नकण या तुबो सदिलकणया॥ए पांच अतिचार मा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद . १३७ " जे कोइ प्रतिचार हुई होय, ते सवि हुं म ने, वचने, कायायें करी मित्रामि डुक्कडं. ॥ ७ ॥ ॥ कर्मतो पन्नरे कर्मादान. इंगालकम्मे, वण कम्मे, सामी कम्मे, जामी कम्मे, फोडीकम्मे, दंत वाणिजे, लक वाणिजे, रस वाणिजे, विस वा णिजे, केस वाणिजे, जंतपीला, कम्मे निलंब कम्मे, दवग्गिदावण्या, सर दह तलाय सो सण्या, सई पोसण्या. ए पन्नर कर्मादांन स्थूल नियम, सूक्ष्म तणी जयणा ॥ ए पन्नर क मदांनमांदे जे कोइ प्रतिचार दुवो होय, तेस वि हुं मने, वचने, कायायें कर मिचामि डुक्करुं. अनर्थदमविरमणव्रत, चतुर्विध. tw वाणाय रिए, प्पमायाय रिए, हिंसप्पणयाणे, पावकम्मोवरसे ॥ एाठमा अनर्थ दंगविरमण व्रततणा पांच प्रतिचार शोधुं ॥ कंदप्पे कुक्कुई ए, मुहरिए, संजुत्ताच्यदिगरणे, जवनोगपरिनो ग, इरेगे ॥ ए पांच प्रतिचारमांदे जे कोइ प्रतिचार हुवो होय, ते सवि हुं मने, वचने, कायायें करी मा डुक्करं ॥ ८ ॥ ( नवमं सामायिकवत. सामइय नाम साव १८ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. द्यजोगपरिवऊणं, निरवजोग खासेवणं च ॥ए नवमा सामायिकव्रततणा पांच प्रतिचार शोधुं मण डुप्पणिदाणे, वयडुप्पणिढाणे कायडुप्पणि दाणे, सामाइयस्स प्रकरणया, सामाइयस्स १३ वुस्स करण्या ॥ ए पांच प्रतिचारमांदे जे कोइ प्रतिचार हुवो होय, ते सवि हुं मने, वचने, कायायें करी मिचामि डुक्करुं. ॥९॥ १० दशमुं देशावगा शिकवत ॥ दिसिवयगदियस्स, दिसापरिमाणस्स पइदिणं परिमाणकरणं ॥ ए दशमा देशावका शिकव्रत तथा पांच अतिचार शोधुं ॥ आणवणप्पउगे पेसवणप्पउगे सद्दाणुवाइ, रूवाणुवाइ बढ़ियापुग्गल पर - केवे ॥ ए पांच प्रतिचार मांदे जे कोइ - तिचार हुवो होय, ते सवि हुं मने, वचने, कायायें करी मिचामि एक्कमं. ॥ १० ॥ ११ इग्यारमुं पौषधव्रत, चिहुं नेदे जावं आदारपोसदे, सरीर सक्करपोसदे, बंजचेरपो सदे, धार पोसदे ॥ ए इग्यारमापौषध व्रत तणा पांच प्रतिचार शोधुं ॥ अप्प मिले दिय डुप्प मिले दिय सिकासंथारे, अप्पमजिय डुप्पम Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. १३॥ जिय सिजासंथारे, अप्पडिलेदिय उप्पमिलेदि यउच्चारपासवणमि, अप्पमजिअ उप्पमजि अउच्चारपावसण नूमि, पोसदोववासस्स सम्म अम्मम्मपालणया ॥ ए पांच अतिचारमांदे जे कोइ अतिचार हुवो दोय, ते सवि हुँ मने, वचने, कायायें करी मिलामि उक्कडं ॥११॥ १२ बारमुं अतिथिसंविनागवत, अतिथि संविनागोनाम. नाया गयाणं, कप्पणिजाणं, अन्न पाणाणं, दवाणं, देस, काल, सहास कार कम्मजोए पराश्नत्तीए आयाणुग्गद बु हिए संजयाणं दाणं ॥ए बारमा अतिथि संवि नाग व्रत तणा पांच अतिचार शोधुं ॥ स चित्त निरकेवणया, सचित्त पिदणया, काला श्क्कमदाणे परोवएसे, मरया ॥ ए पांच तिजारमांदे जे को अतिजार हुवो दोयतेसवि हुँ मने वचने कायायें करी मिबामि उकडं १२ ॥संलेषणा तणा पांच अतिचार शोधुं. द लोगासंसप्पउंगे, परलोगासंसप्पलंगे, जि विआसंसप्पउंगे, मरणासंसप्पउंगे कामनोगा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनधर्मसिंधु. संसप्पगे ॥ ए पांच अतिचारमांदे जे को इ अतिचार हुवो दोय ते सवि हुँ मने, वचने, कायायें करी मिबामि उक्कम. ॥ एवंकारे श्री समकित मूल बार व्रतविषे पंच्याशी अतिचारमांदे जे कोइ अतिचार, अनाचर, अतिक्रम, व्यतिक्रम, हुर्ड होय त था जाणते, अजाणते, सूदम, बादर, कानो,मा त्रा, मिमी पद, अदर, उंगे, अधिको,दलवो, नारी, आगल,पागल, कह्यो कदेवाणो दोय ते सविडं मने वचने,कायायें करी मिगमि उक्कडं॥ ॥ देसावगासिकं जवनोग परिनोग पच्च कामि अन्नबणानोगेणं सहस्सागारेणं महत्तरा गारेणं सबसमादिवत्तियागारेणं, वोसिरामि ॥ इति लघु अतिचारःसंपूर्णम्ः॥ ___॥ए पडिक्कमणनामें चोथु आवश्यक, अने पांचमुं खमासमण थयु. पी श्वामि खमास मण पूर्वक हेग बेसीने श्वाकारे संदिस्सद जगवन् चैत्यवंदन करुं जी॥ ॥अथ चैत्यवंदन ॥ ॥ ॥ जय जय महाप्रनु, देवाधिदेव, स Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. १४१ र्वज्ञ, श्रीवीतराग देव ॥ मुह दी परमेसर, सुं दर सोम सदाव ॥ नूरि नवंतर संचिउँ,नहो सो सवि पाव ॥ जे में पाप किया बालपणे, अ हवा अन्नाणे ॥ अणनवंतर सो सोखंडज यो परमेसर तुद मुंद दिवं सिरि पास जिणेसर ॥ पास पसी पसान करी वीनतमी अवधार ॥ संसारडो बीदामणो स्वामीआवा गमणनिवार॥ दबडाते सुलकणा जेजिनवर पूजंत॥ एके पुस्मे बाहिरा सो परघर काम करंत कवणेवामीवाविया कवणे गुंथ्यां फूल ॥ कवणे जिनवर चाढिया नाव सरीसां मुल ॥ वामी वेलो महोरीयो सोवन कुंपलीए ॥ पास जिणेसर पूजिये पंचेअंगु लीए ॥ दो धोला दो सामला दो रत्तोपल वन्न मरगय वन्ना मुन्नि जिण सोलस कंचनवन्न ॥ नियनिय मान करावियां, नरदेस रनयणानंद॥ ते में नावें वंदिया, ए चोवीसे जिणंद ॥ ॥वतु ॥ कम्मनूमीहिं, कम्म जुमीहिं, पढम संघयणि, उक्कोसयसत्तरिसय, जिणवराण विद रंत खप्नई,नवकोमीहिं केवलीण ॥कोमीसहस्स नव साहु गम्मइ, संप जिणवर वीस मुणि; Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनधर्मसिंधु. बिहुँ कोडीदिं वरनाण, समणद कोमी सहस्स उअ, थुणिसुं निच्च विदाण ॥ जयन सामीशर सद सिरि सित्तुंजी उडतपहु नेमिजिण; जयन वीर सच्चनरिमंडण ॥ जरुअबेहिं मुणिसुब्वय मु दरि पास उद उरिय खमण, अवर विदेहिं तिब यरा, चिहुँदिसि विदिसि जं केवि, तीअणागय संपश्य,वंदूं जिण सवि॥ सत्तावणइ सहस्सा, लरका बपन्न अकोडी ॥ पंचसयं चउत्तीसा, तियलोए चेइए वंदे ॥इति चैत्यवंदन ॥ इहां चार स्तवन अथवा अहोत्तरी कदेवी पीनना थश्ने उवसग्गदरं कहे. पनी, वेसीने जंकिंचि नाम तिबंसग्गे पायालि माणुसे लोए॥ जाइं जिणबिंबाई, ताई सवाई वंदामि ॥ पनी नमुबणं (नमो जिणाणं) सुधी कहे, (ए बहुंखमासमण.)परी श्वामि खमासमण पूर्वक श्बाकारेण संदिसह नगवन् ! गुरुवंदना करूं जी. एम कही गुरुवंदना कहीये. ॥ ॥ ॥अथ गुरुवंदना ॥ . ॥अढाऊोश्सु दीव समुद्देसु, पनरससु कम्म नूमीसु ॥ जावंत केवि साहू, रयदरण गुल पडि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. १४३ ग्गढ़ धारा ॥ १ ॥ पंचमदवय धारा, अढार स दस्स सीलिंग धारा, प्रख्यायारचरित्ता, ते सवे सिरसा मासा मचरण वंदामि ॥ २ ॥ पु सि रिअर किय, गुरुणो तप्पट्टिय पुजयसिंहा ॥ सूरिसिरि धम्मघोसा, महिंद सिंहा तर्ज गुरु णो ॥ ३ ॥ तप्पय सिरिसिंहपदा, तेसिं प जियसिंद वरगुरुणो ॥ देविंद सिंहगुरुणो तप्पय सिरिधम्मपद सूरि ॥ ४ ॥ सिरिसिंह तिलसूरी, तप्प सिरिमहिंद पद गुरुणो ॥ सिरिमेरुतुंग गुरुणो, तप्पय जयकित्तिगुरुराई ॥ ५ ॥ सिरि जयकेसरिसूरी, तप्पइ सिधंत सायरो सुगुरु ॥ सिरिनावसायर गुरु, तप्पय सूरिगुण निदाणो ॥ ६ ॥ सिरिधम्ममुत्तिसूरी, तप्पर कलाण सा यर मुदो || सिरि अमर सार गुरु, कल्लाप कुन संघस्स ॥ ७ ॥ तप्पट्ठि पुत्र पुवय माणु विज्ञाय सायरं सूरि ॥ सिरिजदय सायर सूरि, तप्पय गुणमणि रुहाणं ॥ ८ ॥ श्रीकीर्तिसागर सूरि, श्री पुण्यसागरसूरि, श्रीराजेंप्रसागरसूरि श्री मुक्तिसागर सूरियं वंदे, विहरमान श्री वि वेकसागर सूरियं वंदे. अचल गवनायकं वंदे. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनधर्मसिंधु. विधिपदगबनायकं वंदे. पदेखे पाटें सुधर्मास्वा मी, बीजे पाटें जंबूस्वामी, त्रीजे पाटें प्रनवस्वा मी, चोथे पाटें सिङनवसूरि, पांचमे पाटें यशो नसुरि, उठे पाटें संनूतिविजय सुरि, सातमे पाटे नाबाहु स्वामी, आठमे पाटें खिन्न स्वामी, एवा पाटानु पाट बेला श्री उप्पसहना मा आचार्य थाशे, तेने मदारी एकशो ने आठ वार त्रिकाल वंदना दोजो ॥ इति विधिपदागुरु वंदन ॥ए सातमुं (खमासमण.) पली श्वामि खमासमण पूर्वक श्वाकारेण संदिसह नगवन् सशाय कहूं, ससाय सांनढुं जी. अहीं नवकार कदीने ससाय कदेवी,॥ ॥ अथ ससाय॥ ॥अरिहंता मंगल मुज, अरिहंता मुऊ दे वाव ॥ अरिहंता कित्तियं ताणं, वोसिरामित्ति पावगं॥१॥सिहाय मंगलं मुज सिहायमुजा देवया ॥ सिहाय कित्तियं ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥२॥ आयरिया मंगलं मुझ आय रियामुज देवया ॥ आयरिया कि त्तियं ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥ ३ ॥ अवजाया मंगलं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. १४५ मुङ, उवजाया मुज देवया ॥ उवझाया कित्तियं ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥४॥ साहु मंगलं मुन्न, साहु मुन्न देवया॥ साहु कि त्तिय ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥ ५ ॥ एपंचे मंगलं मुझ, ए पंचे मुल देवया ॥ ए पंचें कि त्तियं ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥६॥ एसो पंच णमुक्कारो, सब पावप्पणासणो ॥ मंगलाणं च सवेसिं, पढमं दो मंगलं ॥ ॥ इति स साय ॥ए आठमुं खमासमण ॥ ॥ पीश्वामि खमा०श्नाकारेण संदिसह नगवन् पांचमा आवश्यक नणी दैवसिक प्रा यश्चित्त विशोधनार्थ करेमि काजस्सगं.अन्नबन इत्यादिककहीने चंदेसुनिम्मलयरा सुधी चार लोगस्सनो कामस्सग्ग करवो. पी नमों अरिहंताणं, कहीने कानसग्ग पारी पनी प्रगट लोगस्स कहीये. ए ( नवमुं) ख मासमण. फरी श्वामि खमासमण पूर्वक श्बा कारेण संदिसह नगवन् अभिनव कानस्सग्ग गजं. () अनिनव अशेष मुस्करकय कम्मरकय निमित्तं करेमि कानस्सग्गं अन्न Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनधर्मसिंधु. इत्यादिक कदिने “ सिहा सहिं ममदिसतुं" पर्यंत ( पांच ) लोगस्सनो कानस्सग्ग करवों. पठी नमो अरिहंताणं ए पद कहीने कानस्सग्ग पारवो, पठी प्रगट लोगस्स कदेवो. ए (दशमुं) खमासमण ( अने) पांचमुं आव श्यक पूरूं थयुं, एणे करी पमिकमणामांजे अ शुभ आचार रह्या ते आचार ए पांचे लोगस्स ना कनस्सग्गयीशु थाय .॥ पठी खमासमणपूर्वक इलाकारेण संदिसद नगवन् ! बघा आवश्यकनणीपच्चरकाण वां दयां करूं जी. एम कही बे वार वांदणं दीजे परीगुरु मुखें पञ्चरकाण करवं. ए अगीयारमुं खमासमम अने लु आवश्यक पूरुं थयु पी खमासमणपूर्वक देग बेशी ने श्वा कारेण संदिसह नगवन् ! सामायिकीपारवा त्रण नवकार मनमां गणवा. पली नमो अरिहं ताणं ए एक पद प्रगट कहीने बाकारेण सं दिसह नगवन्(सामायिक पारवा गाथा नपुंजी ॥ अथ सामायिक पारवानी॥ ॥ जं जं मणेण बई, जं जं वायाय नासियं Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिबेद. १४७ पावं ॥ कारण वि उकयं, मिठामि मुकमंत स्स ॥२ सव्वे जीवा कम्मवस, चनदह रजन मंत ॥ ते में सव्व खमाविया, मुझवि तेद खमं त ॥२॥खमी खमावी मेंखमी, बबिद जीव निकाय ॥ शुक्ष भने आलोवतां, मुझ मन वेरन थाय ॥३॥ दिवसे दिवसें खरकं, देश सुव्वन्नस्स खंमियएगो एगोपुलसामाश्यकरश्न पुहुप्यएत स्स॥४॥ कुणे पमाए बोलीचं, हुई विरुश्बुद्धिा जिण सासण में बोल, मिना मुक्कड सु६ि॥५॥ ॥ सामायिक व्रत फासिअं, पालिअं, पूरिश्र, तीरिअं, कित्तिअंआराहिअं,विधे,लीधु,विधेकी, धुं, विधै पाल्युं, विधं करतां कोसी अविधि,अशा तना हुइ होय, ते सवि हूं मनें, चनवें कायायें करी मिलामि डुक्कडं ॥१॥पाटी, पोथी, कवली, उवणी, नोकरवली कागलें पग लगाड्यो, दोय गुरुने आसने,बेसने,नपगरनेपगलगाड्यो,होय झान व्यतणी अाशातना थक्ष होय. ते सवि हुँ मनें, वचनें कायायें करी मिनामि डुक्कडं. अ दी हीपने विषे साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनधर्मसिंधु. जे कोइ प्रनु श्री वीतराग देवनी आज्ञा पाले. पलावे, नणे नसावे, अनुमोदे, तेदने मदारी त्रीकाल वंदना होजो. सीमंधर प्रमुख वीश विहरमांन जिनने मदारी त्रिकाल वंदना होजो, अतीत चोवीशी, अनागत चोवीशी, वर्तमान चोवीशीने मदारी त्रिकाल वंदना होजो. शष नानन, चंशनन, वर्धमान, वारीषेण, ऐ चार शाश्वता जिनने मदारी त्रिकाल वंदना होजो, दशमनना, दश वचनना बार कायाना ए बत्री श दोषमांदेलो सामायिकव्रतमांदे जे को दोष लाग्यो होय,ते सविहूं,मन, वचन कायाये करी मिबामि उक्कम, साचानीसदहणा, जूगना मिलामि उक्कडं. पत्रण नवकार मनमांगणी त्रण खमासमण देश्जयणावपूक उपq ए (बारमुं) खमासमण ॥ इति देवसीप्रतिक्रमण ॥ अथ रापडिक्कमणः॥ ॥प्रथम त्रण खमासमण आपी श्बाका र कहीने शरियावदी० पडिक्कमी पनी तस्स उत्तरी कदी एक लोगस्सनो काउस्सग करी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. १४ लोवबुं प्रगट लोगस्स कही गमागमण एटले मार्गने विषे जातां प्रावतां ॥ एकही पी सामायिक ठावा ण नवकार गुणीयें. पी जीवराशि खमावी अठार पाप स्थानक या लोइ पी गुरुस्थापना निमित्त पंचिदिय कही व्य, क्षेत्र, काल, जाव धारवा. पबी एक नवकार गुणी सामायिक व्रत उच्चार करीयें. पबी फरी बीजा आवश्यक जणी इरियावदी० ॥ तस्स उत्तरी० ॥ कही पी एक लोगस्सनो काउस्स ग्ग करी लोगस्स प्रगट कही पबी वीजा प्राव श्यक जण इवं निजव शेष डुरकरकय कम्मरकय निमित्त (पांच) लोगस्स नो काउस्सग्ग करवो. पी लोगस्स एक प्रगट कही, पबी कुसुमि सुमिण उद्दामि निमित्तं करेमि का नस्सग्गं. एम कही (४) लोगस्स नो काजस्सग्ग करवो. पी एक लोगस्स प्रगट कही पढी उत्तरा संगनोबेदको पडिलेही पबी चोथा आवश्यकजणी बेवार वांदणां देने पी एकजण जोरही पां चमाप्रावश्यक जणी लघु प्रतिचार कदे. पबी चैत्यवंदन कही ( चार ) स्तवन कदेवां. पी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनधर्मसिंधु. नवस ग्गहरं नमुक्षुणं कही गुरु वंदन करी सजाय कहीयें, पी बघा आवश्यक जणी वां दणांबे वार देने पच्चरकाण करीये. पठी सा मायिक पारवा त्रण नवकार गणीये. पी 'जंजं मणेण बई' इत्यादिक गाथा कही प्रतिक्रमण समाप्त करीयें ॥ इति विधिपद प्रतिकमणःस० ॥ अथ लोकागब प्रतिक्रमण विधिः॥ सामायक लेवानी विधिः प्रथम पोबाणानां सर्व वस्त्र पमिलेहवां त था यत्नायें आसनियुं पाथरवू, ते पनी गुरुने बामि खमासमणो० ॥ इत्यादिक व्रण वां दणां देवां, पनी श्रीमंधरजीने त्रणवांदणदेई पठी नाचे बेसीने नवकार गणवो, पठी प. दिअनो पाठ कहेवो. परी शरियावदि० तस्स उत्तरी० कही (एक) लोग्गस्स (अथवा) चार नवकारनो कानस्सग्ग करवो, पनी नमो अ रिहं ताणं कदी कानस्सग्ग पारवो प्रगट लो गस्स कही गुरुनी पासे सामायिकनी आझा मागवी. (कदापि) गुरु न होय तो सीमंधर स्वामी पासेथी आझा मागीने करेमी नंते Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. १५१ नो पाठ कदेवो. पठी डावो ढींचण उँचो राखी ने नमोबुणंकदेवं. ॥ इति सामायिक विधि. ॥अथ सामायिक पारवान विधिः॥ प्रथम नककार गणी, इरियावदि० तस्स उत्तरी कही, एक लोगस्स (अथवा ) चार नवकारनो कानस्सग्ग करी नमो अरिहंता णं पूर्वक कानस्सग्ग पारी प्रगट लोग्गस्स क दीने मावो ढींचण चंचो करी नमोनुणंनो पाठ कहेवो. पठी सामाश्य वयजुत्तो कही, दश म नना, दश वचनना, बार कायाना, इत्यादि पाठ कदेवा ॥ इति सामायिक पारवाविधि॥ ॥ अथ दैवसिक प्रतिक्रमण विधिः ॥ प्रथम गुरु पासे आज्ञा मागीये बैये, तेवी रीते आज्ञा मागीने पनी नवकार ग एणी, लोगस्स कही, डाबो ढींचण चंचो करी, नमोलुणंनो पाठ कही बे खामणां देवां, तिहां बीजे खामणे आवसिआए ए पाठ न कहेवो पी पमिकमण गवद् तेमां आवस्सश्बाकारेण ए पाठ नणवो.पनी उना थ(नवकार गणवो.) पनी करेनीनंते कहीने श्वामिगमि०पनी तस्स Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनधर्मसिंधु. उत्तरी०कदी आठ नवकारनो काजस्सग्ग करवो. पबी नमोरि दंताणं कदी काजस्सग्ग पारी प्रगट लोगस्सकही वली बे खामणां देवां, देने व अतिचारनां बे स्थुल तेमां एक तो श्री ज्ञानने विषे ने बीजो दर्शन ( ए टले) सम्यकत्व रत्नने विषे ऐ बे पाठ गुरु पासे कदेवराववा, (पने गुरु न होय) तो पोते कदेवा, ते पी श्रावकना प्रतिचार कदेवा. अथ प्रतीचार लिख्यते श्री ज्ञानने विषे जे प्रतिचार लगा होय ते आलोनं जं वाइदं वच्या मेलियं, दिणकरं अञ्चकरं पयदीणं जोगदीणं घोसहीणं, सुहु दिन्नं हु पचियं काले, कर्ज सझार्ड काले न कर्ज सझा, सझाऐं सझायं सझाएन स झायं, जे कोइ ज्ञानना चन्द अतिचारने विषे, दिवस संबंधि दोष लागो होय. तस्स मिचा नि डुक्कडं. ॥ १ ॥ दर्शन श्री समकेत रत्नने विषे जे, प्रतिचार लागो दोय, ते आलोकं, श्री जिन वचन समां सर्दह्यां न दोय, प्रतीत्या न दोय, रोचवां न Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. ९५३ होय, परदर्शनीनी आकांदा कीधी होय, फल प्रत्ये संदेह आण्यो होय, पर पाखंमीनी प्रशंसा कीधी होय, परपाखंडीनो संस्तव, परिचय कीधो होय परपाखंमी संघाते आलाप संलाप कीधा होय, जे कांइ समकित रत्नने विषे आठ प्रकारें, जाणतां अजाणतां दिवस संबंधि, दोष लगाड्यो होय तस्स मिबामि उक॥२॥ पदेवू स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रतने विषे जे अतिचार लागा होय, ते आलो. री शवशं गाढो घाव घाल्यो दोय, गाढे बंधनें बां ध्यो होय, अवयवनो बेद कीधो दोय अतिनार नयो होय, नात पाणीनो विवेद कीधो दोय, जे कांश दिवस संबंधि दोष लागो होय, तस्स मिलामि उक्कम. ॥३॥ बीजुं स्थूल मृषावाद विरमण व्रतनेविषे, जे अतिचार दोष लागो होय, ते आलोचं बु. सहसात्कारें कोइ प्रत्ये कूमां आल दीधां दोय, रहस्य गनी वात प्रगट कीधी होय,स्त्रीपुरुषना मर्म प्रकाश्यां होय,कोश्ने अपाय पाडवा नणी मृषा उपदेश दीधो दोय कूडा लेख लख्या Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनधर्मसिंधु. होय कूमी सांख पूरी होय, जे कोइ दिवस संबंधि दोष लागो दोय तस्समिठामि उक्कमं॥ - त्रीजुं स्थूल अदत्तादान विरमणव्रतने विषे जे अतिचार ला चोराश्वस्तु लीधी होय, चो रने सहाय दीधुं दोय, राज्य विरुद कीधुं होय कूडां तोला, कूमां मापकीधां होय, वस्तुमां नेल संनेल कीधा दोय,सखरी देखाडी नखरी आपी होय जे कोइ दिवस संबंधि दोष लाग्यो होय, तस्स मिबामिक्कडं॥ __ चोधुं स्थूल स्वदारा संतोष परदारा गमन विरमण व्रतने विषे जे अतिचार ला0 इत्तर थोडा कालनी राखीशुं गमन कीधां दोय अपर ग्रहीतनांगमन कीधा होय, अनंग क्रीमा कीधी होय, परायां विवाद नातरां जोमया होय, काम लोग तीव्र अनिला सेव्या होय, सेवराव्या होय, सेवतां प्रत्ये अनुमोद्या होय, जे को दिवस संबंधि दोष लागो होय, तसस्स मिल __पांचमां ईबापरिग्रह परिमाण व्रतने विषे जे अतिचार लागा होय, ते आलो. धन धा न्यनु, खित्तवथ्थुनु, रूपा सोनानु, उप्पद चन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. प्पदकु विधातर्नु परिमाण अति कम्युं होय, जे को दिवस संबंधी दोष लागो होय तस्स मिलामि उक्कम॥७॥ हा दिशि परिमाण व्रतने विषे जे अतिचार लागा दोय, ते आलोचं, जंची, नीची, त्रीनी, दशे दिशिनुं परिमाण, अतिक्रम्यु होय, व्य तिक्रम्यु दोय एक दिशि वधारी होय, एक दिशि घटाडी होय पंथने संदेदे मर्यादा लोपी आघो चाल्यो होय,जे को दिवस संबंधि दोष खागो होय, तस्समि० ॥ ७॥ सातमु उपनोग परिनोग परिमाण व्रतने विषे जे अतिचार लागा होय, ते आलो. पञ्च काण उपरांत सचित्तनो आहार कीधो होय, सचित्त पडिबझनो आदार कीधो दोय, अपक्क उपक्कनो आहार कीधो होय, तुबोषधिना न दाण कीधां होय जे कोइ दिवस संबंधि दोष लागा होय, त०॥५॥ __पन्नरे कर्मादान श्रावकने जाणवां. पण स माचरवा नहीं,इंगालकम्मे वणकम्मे सकट कम्मे साडिकम्मे नामीकम्मे फोडीकम्मे, दंतवाणिजे Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५६ जैनधर्मसिंधु. लकवाणिो रसवाणिजे विसवाणिजे केसवा णि एवंखुजंत पिल्लणकम्मं निलंबण कम्म, द वनुं देवू सरदह तलाय सोसंच, असयंती जन नां नरण, पोषण कीधां होय, जे को दिवस संबंधि दोष लाग्यो दोय, त०॥ १०॥ ___ आठमां अनर्थ दंम विरमण व्रतने विषेजेज तिचार लागा होय,ते आलो . कंदर्पनी कथा कीधी होय,नांमकुचेष्टा कीधी होय, मुखरी वचन बोल्यांदोय,पापनांअधिकरण जोमी मूक्यां होय उवनोग परिनोग अधिकांवधास्यां होय जे को दिवस संबंधि दोष लाग्यो होय त० ॥११॥ _ नवमां श्री सामायिक व्रतने विषे जे अति चार दोष लागा होय, ते आलो . मन, वचन,कायाना जोग पामुवे ध्याने प्रवर्ताव्या हो य, सामायक मांहे समतान कीधी होय अणपू ग्युं पायुं होय, पारतां वीसास्युंदोय जे कोइ दि वस संबंधि दोष लागो दोय,तस्स मिबा० १२ दसमां देसावगासिक व्रतने विषे जे अ० नीमि नुमिका बाहेरथी वस्तु अणावी दोय त था मोकलावी होय, शब्द करी रूप देखामी पु Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. १५७ द्गल नाखी आपणपुं उतुं जणाव्युं दोय, जे कोइ दिवस संबंधि दोष लागो होय त॥१३॥ __ अगीआरमुं पोषध व्रतने विषे जे अ० ला॥ सक्षा संथारो अप्रति लेख्यो होय, फुप्रति ले ख्यो होय, अप्रमार्यो ऊःप्रमा? होय, उच्चा र पासवण नुमिका अप्रति लेखी दोय, उप्र ति लेखी होय, अप्रमार्जि दोय, उ.प्रमार्जि हो य, पोसह मांहें वात विकथा निज्ञ प्रमादें करी काल निर्गम्यो होय, जे को दिवस संबंधि दो ष लाग्यो होय त० ॥१४॥ ___ बारमां अतिथिसंविनाग व्रतने विषे जे अ0 सूजती वस्तु सचित्त नपर मूकी दोय, सचित्तें करी ढांकी होय, काल अतिक्रम्यो होय, आपणी वस्तु परायी कीधी होय, मबर सदित दान दीधुं होय, नाणे बेगं साधु, सा धवीनी चिंतवणा न कीधी होय, नवकार नमो थ्थुणं नण्या गण्या विना व्रत पच्चरकाण पाह्यु होय, जे कोइ दिवस संबंधि दोष लागो होय, तस्समिबामि उक्कडं ॥ संलेषणाव्रतना पांच अतिचार लागा० श्द Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ जैनधर्मसिंधु...... लोगा संसप्पओगे परलोगा संसप्पओगे जीवि आ ससंप्पोगे मरणीया संसप्पओगे काम नोगनी वांग कीधी होय, जे कोई दिवस संबं धि दोष लागो होय, तस्स ॥१६॥ - अढारे पापस्थानक लागां होय, ते पालोन पदेद्यं प्राणातिपात ॥१॥बीजुं मृषावाद॥॥ त्रीजं अदत्ता दान ॥ ३॥ चोथु मैथुन ॥ ४ ॥ पांचमुं परिग्रह ॥॥ठं क्रोध ॥६॥ मान ॥७॥ माया॥॥लोनाणा राग ॥२०॥ देष ॥१२॥ कलह ॥१२॥अन्याख्यान ॥१३ ॥ पैशुन्य ॥२४॥परपरिवाद ॥२४॥रतिअरति ॥१६॥ माया मोसो॥२७॥मिथ्या दरसण शैल्य॥१॥ए अढारे पापस्थानक सेव्यां होय, सेवराव्यां होय सेवतांप्रत्ये अनुमोद्यां दोय जे कोइ दिवस सं बंधि दोष लागो होय तस्स मिलामि ७० ॥१७॥ ____ अतिक्रम. व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार मूलगुण उत्तर गुणने विषे जे कोइ दिवस संबं धि दोष लागो होय, तस्स मिबा०॥१७॥ इवं आलोएमि जोमे देवसियो अश्वारो कोकाश्मो वाश्ओ माणसिओ उस्सुतो उ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिवेद. १५ए म्मग्गो इत्यादि यावत् जंखमियं जं विराहिलं तस्स मिनामि उक्कम ॥१५॥ सव्वस्सवि दिवसि उचिंतिअम्नासिय उच्चिठिा तस्समि० सूत्रनणेमि सूत्र सानलेमि सूत्रनो आदेस.॥इति अतिचार॥ पी नवकारकही करेमि नंते कहेवू. पी श्वा मिगमि कहेवू. पनी वंदितुं सूत्र कहे, ते कही रह्या पनी पूर्वोक्त रीते बे खामणां देवां. पी अ नुहिमि कहीने खमावq. पठी सात लाख क देवा. पनी आयरिय नवनाए कहेवू पनी आ वस्सश्चाकारेण संदिसह लगवन् देवसियं प्रा यबित्त विशोधनार्थ करेमि कानस्सग्गं ए पाठ कही(१)नवकार गणी करेमिन्नते कहेवूपश्चा मिगमि तस्सउत्तरी कही (चार ) लोगस्स (अथवा) शोल नवकारनो कानसग्ग करी नमो अरिहताणं कही कानस्सग्ग पारी प्रगट लोगस्स कहीने वली पूर्वोक्त रीते बेखा मणां देवा. पी चनविदार, पच्चरकाण लेवं. पठी सामायिक, चनविसबो, वांदणां पडिकम j कानस्सग्ग, अने पञ्चरकाण, ए आवश्य Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनधर्मसिंधु. कने विषे जे कोई दोषलागो होय ते सविमन वचनकायायें करी तस्स मिचामि एक्कम ए पाठ कदी, माबो ढींचण उंचो करी नमुथुणं कदेवं, पढी नवकार गणी स्तवन कदेवु. तेवार पबी क र्मय निमित्त करेमि कास्सग्गं न एम क दीने चार लोगस्सनो कानसग्ग करवो पारी प्रगट लोगस्स कढ़ी पी नवकार गणीने सझाय कहे वी. पी नंदि कदेव । ॥ इति देवसीप्र० ॥ चप्रथ राइ प्रतिक्रमणविधि ॥ प्रथम गुरु पासे आज्ञा मागी सामायिक क वो पी नवकार गणी राइ कर्मक्षय निमिते करेमि का स्सग्गं कही वे लोगस्सनो काउस्स ग्ग पारी, प्रगट लोगस्स कही नीचे बेसी नवका र कदी, चव्वीसो कहिये, पटी वांदणां तथा खामणां लीजे, पबी उमा थइने राइ पायवित्त विशोधनार्थं करेमि काजस्सग्गं कही, एक नवका रगणी, करे मिते, इच्छामि हामि काजस्सग्गं जोमे राइ रो कर्ज इत्यादिक कही, तरसउत्तनो पाठ कदेवो. पी चार लोगस्स नो का सग्ग करी प्रगट लोगस्स कही पबी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. १६१ तरत जाने वस्साकारेण संदिस द जगवन् राइ पक्किमणें गए मं राईज्ञान दर्श न चारित्र तप, वीर्य तिचार चिंतवनार्थ करे मि कारसग्गं, एम कहि एक नवकार गणी, करेमि नंते ० इच्छामि गमि० तस्स उत्तरी० कही पी नाणं मिनो काउस्सग्ग करीये. पबी देवसिनी पेठे सर्व पाठ कहिये. परंतु ज्यां चार लोगस्सनो काउस्सग्ग यावे, ते स्थानके वरसी तपनो का - रसग्ग करी, प्रगट लोगस्स कही, पबी वे वादणां प्रापीने यथाशक्ति पच्चख्खाण लीजे.तेवार पबी स्तवन, सघायो, प्रजातनां केदेवाता दोयते देवा. त्यारी नंद कदेवी ॥ इति ॥ अथ पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि ॥ प्रथम तो देवसिनी पेठे वंदिता सुधी सर्व कदेवं, च्यालोच्यंतो निदंतों, देवसिय आलो एमि, पख्ख जमि, ए रीत कदेवु, पी त्याथी पाठुं वली वे खामणाथी मांगीने चार लोग्गस्स ना काजस्सग्ग पर्यंत कदेवं, पण चार लोग्गस्सने ठेका दीं बार लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो, ने बडो पच्चख्खाण आवश्यक यावे २१ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनधर्मसिंधु. तेवारे च विदारने स्थानके धारणा प्रमाणे पच्चख्खाण लेवं, त्यांथी पाठो आलोच्यंतो निंदंतो पख्खियं आलोएमि देवसिद्धं जणे मि कदिने तेवार पीतो वंदिता सूत्र कदी रह्या पी जे वे खामणां च्यापीये ढैये, त्यांथी सर्वदेवसि पडिक्कमणानी पेठे चलाववुं ॥ इति ॥ अथ चोमासी प्रतिक्रमण विधि. पख्खीनी पेठे चोमासी प्रतिक्रमणनो सर्व विधि जाणवो, परंतु जे ठेकाणे बार लोगस्सनो काउस्सग्ग वे बे, ते ठेकाणे वीश लोगस्सनो कास्सग्ग करवो, तथा जे जे स्थानके परकीयं पाठ यावे ते ते स्थानके चजम्मा सियं पाठ देवो. ॥ इति ॥ अथ संववरी प्रतिक्रमण विधि. पाखीनी पेठे संवत्सरी पडिक्कमणानो पण सर्व विधि जावो. परंतु एटलुं विशेष के जे ठेकाणे बार लोगस्सनो काजस्सग्ग आवे बे, ते ठेकाणे प्रदीं चालीश लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो, तथा जे जे स्थानके परिकयं पाठ घ्यावे, ते स्थानके संवचरियं पाठ कदेवो ॥ इति ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ प्रथमपरिजेद. अथ वरसी तपना कानस्सग्गनो पाठ ॥ अणसण मूणोअरिया, वत्ति संकेवणं रसचा॥ कायकिलेसो संली, ण आय बद्यो तवो होइ॥१॥ पायबित्तं विणजे, वेावचं तदेव सद्या ॥ साणं उस्सग्गोविय, अग्निंतर तवो होइ॥२॥धन्य श्री शषनदेव स्वामीने जेणे वरसी तप कल्यं, धन्य श्री महावीरस्वामीने जेणे बम्मासी तप कह्यु, एमज जे पंचमासी तप करे, तेने धन्य, जे चार मासी तप करे, तेने धन्य, जे त्रीमासि तप करे, तेने धन्य, जे बे मासी तप करे, तेने धन्य, जे पञ्चावन जपवास करे, तेने धन्य, जे पच्चास उपवास करे, तेनेधन्य, जे पिस्तालीश आगमना पीस्तालीश उपवास करे, तेने धन्य, जे चालीश उपवास करे, तेने धन्य, जे पांत्रीश वाणी रूप सत्य वचनना पांत्रीश उपवास करे, तेने धन्य, जे चोत्रीश अतिशयना चोत्रीश उपवास करे, तेने धन्य, जे तेत्रीश आशातना टालवा निमित्त तेत्रीश उपवास करे, तेने धन्य, जे बत्रीश योग संग्रहना बत्रीश उपवास करे, तेने धन्य, जे ए Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनधर्मसिंधु. कत्रीश सिझना गुण पामवाने एकत्रीश उपवास करे, तेने धन्य, जे त्रीश प्रकारे मदा मोहनीय कर्म टालवाना त्रीश उपवास करे, तेने धन्य, जे उगणत्रीश पापशास्त्र टालवाना - गणत्रीश उपवास करे, तेने धन्य, जे साधुनी अहावीस लब्धिना अहावीश उपवास करे, तेने धन्य, जे साधुना सत्तावीश गुणना सत्तावीश उपवास करे, तेने धन्य, जे वीश दशा कल्पना नवीश उपवास करे, तेने धन्य, जे पंचीश क्रिया टालवाना पच्चीश उपवास करे तेने धन्य, जे चोवीश तीर्थकरना नामना चोवीश उपवास करे, तेने धन्य, जे श्री सूय गडांगना त्रेवीश अध्ययनना त्रेवीश उपवास करे, तेने धन्य, जे बावीश परिसद जीतवाना बावीश नपवास करे, तेने धन्य, जे एकवीश सबल दोष टालवाने एकवीश उपवास करे तेने धन्य, जे वीश असमाधिना स्थानक टालवाने वीश नपवास करे तेने धन्य, जे श्री ज्ञाता सूत्रना प्रथम श्रुतस्कंधना जंगणीश अध्ययनना 5गणीश उपवास करे, तेने धन्य, जे अढार पा Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिद. १६५ पस्थानक टालवाना अढार उपवास करे, तेने धन्य, जे सत्तर प्रकारे संयम पासवाना सत्तर उपवास करे, तेने धन्य, जे श्री सूय गडांगना प्रथम श्रुतस्कंधना शोल अध्यनना शोल उपवास करे, तेने धन्य, जे पंदर परमाधामिना कर्म निवारवाना पंदर उपवास करे, तेने धन्य, जे चौट प्रकारना जीवनी दया पालवाना चौद उपवास करे, तेने धन्य, जे तेर काठीआ निवारवाना तेर उपवास करे, तेने धन्य, जे नीकुनी बार पडिमाना बार उपवास करे, तेने धन्य, जे श्रावकनी अगीआर पडिमाना अगीआर उपवास करे, तेने धन्य, जे दशविध यति धर्म पामवाना दश उपवास करे, तेने धन्य, जे नव प्रकारे ब्रह्मचर्य पालवाना नव जपवास करे, तेने धन्य, जे आठ कर्म टालवाना आठ उपवास करे, तेने धन्य, जे सात व्यसन निवारवाना सात उपवास करे तेनेधन्य, जे बकायनी रदाना उ नपवास करे, तेने धन्य, जे पांच प्रमाद टालवाना पांच उपवास करे, तेने धन्य, जे चार कषाय टालवाना चार उप Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनधर्मसिंधु. वास करे, तेने धन्य, जे त्रण दंम टासवाना त्रण उपवास करे, तेने धन्य, जे राग द्वेष टालवाना बे उपवास करे, तेने धन्य, जे एक उपवास करे, तेने धन्य, आयंबिल करे, तेने धन्य, एकासणुं करे, तेने धन्य, जे एक टाणुं करे, तेने धन्य, जे पूरिमाई करे, तेने धन्य, जे पोरसि करे, तेने धन्य, जे नवकारसि करे, तेने धन्य, जे गंठसीचं मुठ सीजं करे, जे कोश् श्री जिनाज्ञा प्रमाणे चाले ते जीवने धन्य , धन्य धन्य धन्य धन्य धन्य नमो अरिहंताणं ॥ति वरसी तपना कानस्सग्गनो पाठ संपूर्ण ॥ अथ नंदीनो पाठ. जयश्जगजीव जोणी, विप्राण जग गुरु जगाणंदो, जगनादो जगबंधू, जय जगप्पिया मदो जयवं ॥१॥जय सुआणं प्पनवो तिबयराणं अपडिमो जयश, जय गुरुलोगाणं जयश्मदप्पा मदा वीरो॥शानदं सब जगुजो, यगस्स नई जिणस्स वीरस्स, नई सुरा सुर नमं, सियस्स नई धूयरयस्स ॥३॥ गुण नवण गदण सुयरयण, नरिय दंसण विसुक्ष Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिछेद. रबागा, संघ नयर नदंते, अखंड चरित्त पागारा ॥४॥ संजम तवं तु बारस्स, नमो सम्मत्त पारियल्लस्स ॥ अप्पडिचक्क सज. दोन सया संघचक्कस्स ॥५॥नदं सील पडा गुसि यस्स, तव नियम तुरय जुत्तस्स ॥ संघरदस्स जगवर्ड, सऊडाय सुंनंदि घोसस्स ॥६॥ नंदि आनंदि सदा संघने जय जय कारणी. आनंद कारणी, कल्याण कारणी, श्री जिने देव श्रीगुरुदेवने त्रिकाल वंदना. ॥ __ सागर गब प्रतिक्रमण विधि. सागरगढ प्रतिक्रमण विधि तपे गब समान जाणना परं विशेष मात्र इतनादे की प्रतिक्रमपारनेकी समय ावदी न प्रतिक्रमतेदें. आनंद सूरीयगड प्रतिक्रमण विधि. समग्रविधि तपेग प्रतिक्रमण समान जाणना विशेष मात्र सागरगढ प्रमाण जाणना. वडग प्रतिक्रमण विधि, समग्र विधि तपेगबके प्रतिक्रमण विधि समान जाणना बिलकुल फरकनही. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनधर्मसिंधु. राजसूरीय गढ प्रतिक्रमण विधि. समग्र विधि तपेग समान जाणना. लहुडी पोसाल गढ प्रतिक्रमण विधि. समग्रविधि तपेगब प्रतिक्रमण समानजाणना. कमल कलसा गब प्रतिक्रमण विधि. समग्रविधि तपेगबके प्रतिक्रमणके विधि समान जाणना. कवलागब प्रतिक्रमण विधि. समग्रविधि तपेगबके प्रतिक्रमण विधि समान जाणना. विजयगड प्रतिक्रमण विधि. समग्रविधि तपेगबके प्रतिक्रमण समान जा णना विशेषमात्र इतना दे की कर्मक्षय निमित्त काउसग्गके पश्चात शांतिलोगस्स कदके कहते. पायचंग प्रतिक्रमण. तमामविधि तपगड समान जाणना परं विशेष मात्र यहहे की प्रथम देव वंदनके समय पुकरवरदीवढे प्रमुख न कहते चारों थुश्मात्र एक साथ कहदेतेंदे. और कितनीक संकलनामात्र निन्न दे. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिछेद. १६ए ॥ श्रथ सिझाचलजीनु चैत्यवंदनप्रारंजः॥ ॥ विमल केवलझान कमला, कलितत्रिजुवन, हितकरं ॥ सुरराजसंस्तुत चरणपंकज नमो श्रादि जिनेश्वरम् ॥ १॥ विमलगिरिवर, शृंगमंडण, प्रवरगुण गणनूधरं ॥ सुर असुर किन्नर, कोमिसेवित ॥ नमो ॥२॥ करति नाटिक किन्नरीगण, गाय जिनगुण मनहरं ॥ निर्जरा वली नमे अहोनिश ॥ नमो० ॥३॥ पुंडरीक गणपति सिकि साधि, कौकि पण मुनि मनहरं ॥ श्रीविमल गिरिवर शृंग सिद्धा ॥ नमो० ॥४॥ निज साध्यसाधन सुर मुनिवर, कोडीनंत ए गिरिवरम् ॥ मुक्तिरमणी वर्या रंगें ॥ नमो० ॥५॥ पाताल नर सुर लोकमांहि, विमलगिरिवर तोपरं ॥ नहिं अधिक तीर्थ तीर्थपति कहे॥ नमो ॥६॥ एम विमल गिरिवर शिखरमंमण, मुख विहंडण ध्याश्ये ॥ निज शुछ सत्ता साधनार्थ, परम ज्योति निपाश्य ॥ जितमोद कोद विगेह निमा, परम पदस्थित जयकरम् ॥ गिरिराज सेवा करण तत्पर, पद्मविजय सुहितकरं ॥७॥ इति चैत्यवंदनं समाप्तं ॥ ॥ अथ चोवीसजीननु चैत्यवंदन ॥ ॥ सुर किन्नरनागनरिंदनतं, प्रणमामि युगादिम जिनमजितं ॥ संनवमजिनंदनमथ सुमति, पद्मप्रज Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनधर्मसिंधु. मुज्ज्वलधारमतिं ॥१॥ वंदे च सुपार्श्व जिने महं, चंप्रनमष्टकुकर्मदहं ॥ सुविधिप्रजुशीतल जिनयुग लं, श्रेयांसमसंशयमतुलबलम् ॥२॥ प्रजुमर्चय नृपव सुपूज्यसुतं, जिनविमलमनंतमनिझनतम् ॥ नम धर्म मधर्मनिवारिगुणं, श्रीशांतिमनुत्तरकांतिगुणम् ॥३॥ कुंथू श्रीधर मसीशजिनान् मुनिसुव्रतन मिनेमिस्तमसिदिनान् ॥ श्रीपार्श्वजिने मिन्नेसमं, वंदे जिनवीरमनीरुतमं ॥४॥ ॥ कलश ॥ ॥ इति नागकिन्नर, नरपुंदर, वंदितक्रम, पंकजा ॥ निर्जितमहारिपु, मोहमत्सर, मानमदमकरध्वजाः॥ विलसंति सततं, सकलमंगल, केविकानन, सन्निनाः, सर्वे जिनामे, हृदयकमले, राजहंस, समप्रनाः॥५॥ इति चैत्यवंदनं संपूर्णम् ॥ ॥अथपंचतीर्थी चैत्यवंदन ॥ आजदेवअरीहंतनमुं, समरूं तारुं नाम ॥ ज्यां ज्यां प्रतिमा जिनतणी, त्यां त्यां करूं प्रणाम ॥१॥ शत्रुजय श्रीश्रादिदेव, नेम नमुं गिरनार ॥ तारंगे श्री अजित नाथ, बाबू रिखन जुहार ॥२॥श्र ष्टापदगिरि ऊपरें, जिन चोवीशी जोय ॥ मणिमय मूरति मानशु, नरतें जरावी सोय ॥३॥ समेतशि खर तीरथ वडु, ज्यां वीशे जिनपाय ॥ वैजारगिरि ऊपरें, श्री वीर जिनेश्वर राय ॥४॥ मांडवगढनो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिवेद. राजीयो नामें देव सुपास ॥ रिखल कहे जिन सम रतों, पहोंचे मननी श्राश ॥५॥ इति ॥ ७ ॥ ॥अथ बीजनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ऽविध धर्म जिणें उपदिश्यो, चोथा अभिनंदन ॥ बीजे जन्म्या ते प्रजु, नवपुःख निकंदन ॥१॥ मुविध ध्यान तुम्हें परिहरो, श्रादरो दोय ध्यान ॥ एम प्रकाश्युं सुमति जिनें, तेचविया बीज दिन॥२॥ दोय बंधन राग द्वेष,तेहनें नवि तजीयें ॥ मुजपरें शीतल जिन कहे, बीज दिन शिव नजीयें ॥३॥ जीवाजीव पदार्थनं, करो नाण सुजाण ॥ बीज दि. में वासु पूज्य परें, लहो केवल नाण ॥ ५ ॥ निश्चय नय व्यवहार दोय, एकांत न ग्रहीयें ॥ अर जिन बीज दिने चवी, एम जिन पागल कहीयें ॥५॥ वर्तमान चोवीशीयें, एम जिन कल्याण ॥ बीज दिने के पामीया, प्रज्जु नाण निर्वाण ॥६॥ एम अनंत चोवीशीयें ए, हु बहु कल्याण ॥ जिन उत्तम पद पद्मनें; नमतां. होय सुखखाण ॥७॥ ॥अथ पंचमी- चैत्यवंदन ॥ ॥ त्रिगडे बेग वीरजिन, नाखे नविजन श्रागें॥ त्रिकरण\ त्रिहुँ लोक जन, निसुणो मन रागें ॥१॥ बाराहो नलि नातसें, पांचम अजुवाली ॥ ज्ञान आराधन कारणे, एइज तिथि निहाली॥२॥ज्ञान विना पशु सारिखा, जाणो एणे संसार ॥ ज्ञान Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनधर्मसिंधु. आराधनथी ला, शिवपद सुखश्रीकार ॥३॥ ज्ञान रहित क्रिया कही, काशकुसुम उपमान ॥ लोकालो क प्रकाशकर, ज्ञान एक परधान ॥४॥ ज्ञानी सा सोबासमें, करे कर्मनो खेह ॥ पूर्व कोमी वरसां लगे, श्रझाने करे तेद ॥५॥ देश थाराधक क्रिया कही, सर्व श्राराधक ज्ञान ॥ ज्ञान तणो महिमा घणो, अंग पांचमे नगवान ॥६॥ पंच मास लघु पंचमी, जावजीव उत्कृष्टी ॥ पंच वरस पंच मास नी, पंचमी करो शुनदृष्टि ॥७॥ एकावनही पंचनो ए, कानस्सग्ग लोगस्त केरो ॥ जमणुं करो नाव शं, टाले नवफेरो ॥॥ एणी पेरें पंचमी श्राराहीयें ए, आणी नाव अपार ॥ वरदत्त गुणमंजरी परें, रंगविजय लहो सार ॥ए॥ इति पंचमीचैत्यवंदन ॥ ॥अथ अष्टमीनू चैत्यवंदन ॥ ॥ माहा शुदि बाग्मने दिने, विजया सुत जायो ॥ तेम फागुण शुदि थामे, संनव चवि थायो॥१॥ चश्तर वदनी बाग्में, जन्म्या षन जिणंद ॥ दी दा पण ए दिन सही, हुथा प्रथम मुनिचंद ॥॥ माधवशुदि बाग्मदिने, आठ कर्म कस्यां पुर ॥ अभिनंदन चोथा प्रनु, पाम्या सुख नरपूर ॥३॥ एहिज आठम उजली, जन्म्या सुमति जिणंद ॥ श्राम जाति कलशें करी, न्हवरावे सुर इंद ॥४॥ जन्म्या जेठ वदि आपमे, मुनिसुव्रत खामी॥ नेम Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद . १७३ आषाढ शुदि श्रावमे, अष्टमी गति पामी ॥ ५ ॥ श्रावण वदनी श्रावमे, नमि जन्म्या जगना ॥ तिम श्रावण शुदि आठमे, पासजीनुं निर्वाण ॥ ६ ॥ जावा वदि श्राम दिने, चविया स्वामी सुपास ॥ जिन उत्तम पदपद्मनें, सेव्यायी शिववास ॥ ७ ॥ ॥ इति ॥ ॥ अथ एकादशीनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ शासन नायक वीरजी, प्रभु केवल पायो ॥ संघ चतुर्विध थापवा, महसेनवन आयो ॥ १ ॥ मा धव सीत एकादशी, सोमल द्वीज यज्ञ ॥ इंद्रभू तियादें मख्या, एकादश विज्ञ ॥ २ ॥ एकादशसें चगुणा, तेनो परिवार || वेद अर्थ अवलो करे, मन अजिमान अपार ॥ ३ ॥ जीवादिक संशय हरी ए, एकादश गणधार ॥ वीरें थाप्या वंदीयें, जिन शासन जयकार ॥ ४ ॥ मलि जन्म र मलि पास, वरचरण विलासी ॥ रुषन श्रजित सुमति न मि, मलि घनघाति विनाशी ॥ ५ ॥ पद्मन शिव वास पास, जवजवना तोडी || एकादशी दिन था पणी, रुद्धि सघली जोडी ॥ ६ ॥ दश खेत्रें त्रिहुं कालनां, त्रणशें कल्याण || वरस अग्यार एकादशी, राधो वर ना ॥ ७ ॥ अगीयार अंग लखावीयें, एकादश पाठां ॥ पूंजणी ठवणी विंटणी, मशी का गल काठां ॥ ८ ॥ गीयार व्रत बांवां ए, वहो Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैनधर्मसिंधु. पडिमा श्रगियार ॥ खिमाविजय जिन शासने, सफ ल करो अवतार ॥ ए॥ इति ॥ ॥अथ श्रीविशस्थानकनुं चैत्यवंदन ॥ ॥पहेले पद अरिहंत नमुं, बीजे सर्व सिफ॥ त्रीजे प्रवचन मन धरो, आचारज सिक ॥१॥ न मोथेराणं पांचमे, पाठक गुण ॥ नमो लोए स वसाहुणं, जे जे गुण गरिहे॥२॥ नमो नाणस्स श्राम्मे, दर्शन मन नावो ॥ विनय करो गुणवंतनो, चारित्रपद ध्यावो ॥३॥ नमो बंन वयधारीणं, तेर मे किरियाणं ॥ नमो तवस्स चौदमे, गोयम नमो जिणाणं ॥४॥ चारित्र ज्ञान सुअस्सने ए, नमो तिबस्स जाणी ॥ जिन उत्तमपद पद्मने, नमता हो ये सुखखाणी ॥५॥ ॥श्रथ विशस्थानकना कानस्सगर्नु चैत्यवंदन ॥ ॥ चोवीश पंदर पिसतालीशनो, त्रीशनो करी यें ॥ दश पंचवीश सत्तावीशनो; काउस्सग्ग मन ध र्ये ॥२॥ पंच सडसहने दश वली, सीत्तर नव पणवी श ॥ बार अडवीश लोगस्स तणो, काउस्सग्ग धरो गुणीश ॥२॥ विश सत्तर गवन, छादश ने पंच ॥ एणी परें काउस्सग्ग जो करे, तो जाये नव संच ॥३॥ अनुक्रमें काउस्सग्ग मन धरो, गुणी लेजो वीश ॥ विश थानक एम जाणीयें, संक्षेपथी लेश ॥४॥ नाव धरी मनमा घणो ए, जो एक पद Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपरिच्छेद. १७५ राधे || जिन उत्तमपद पद्मने, नमी निज का रज साधे ॥ ५ ॥ ॥ अथ श्री रोहिणी तपचैत्यवंदन ॥ ॥ रोहिणी तप आराधीये, श्रीश्री वासुपूज्य ॥ दुख दोहग दूरें टले, पूजक होये पूज्य ॥ १ ॥ पदे ला कीजें वासदेप, प्रह उठीने प्रेम ॥ मध्यान्हें क री धोतीयां, मन वच काया खेम ॥ २ ॥ अष्ट प्रका रनी रचीयें, पूजा नृत्य वाजित्र ॥ जावें जावना जा वीयें, कीजें जन्म पवित्र ॥ ३ ॥ त्रिहुं कालें लेइ धूप दीप, प्रभु यागल कीजें ॥ जिनवर केरी नक्तिशुं, श्रविचल सुख लीजें ॥ ४ ॥ जिनवर पूजा जिन स्त वन, जिननो कीजे जाप ॥ जिनवर पढ़ने ध्याइये, जिम नावे संताप ॥ ५॥ कोड कोड गुण फल दीयें, उत्तर उत्तर जेद ॥ मान कहे ए विधि करो, ज्युं दोये जवनो बेद ॥ ६ ॥ ॥ अथ तीर्थवंदननुं चैत्यवंदन ॥ ॥ सीमंधर प्रमुख नमुं, विहरमान जिन वीश ॥ रिखजादिक वली वंदीयें, संपइ जिन चोवीश ॥१॥ सिद्धाचल गिरनार आबु, अष्टापद वलि सार ॥ स मेत शिखर ए पंचतीर्थ, पंचमी गति दातार ॥ २ ॥ ऊर्ध्व लोके जिनदर नमुं, ते चोराशी लाख ॥ सह स सत्ताएं ऊपरें, त्रेविश जिनवर जांख ॥ ३ ॥ एक शो बावन कोमि वली, लाख चोराएं सार ॥ सदस Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनधर्मसिंधु. चुम्माली सातशें, शाम जिन पडिमा उदार ॥४॥ अधोलोकें जिननवन नमुं, सात कोमि बोहोंतेर लाख ॥ तेरशे कोमि नेव्याशी कोमी शाठ लाख चित्त राख ॥ ५॥ व्यंतर ज्योतिषीमा वली ए, जि न जवन अपार ॥ ते नवि नित्य वंदन करो, जेम पामो नवपार ॥ ६॥ तिळ लोके शाश्वतां, श्रीजि ननवन विशाल ॥ बत्रीशशें ने उंगणशाप, वंडं थश् उजमाल ॥७॥ लाख त्रण एकाएं सहस, त्रणशें विश मनोहार ॥ जिनपमिमा ए शाश्वती, नित्य नि त्य करूं जुहार जात्रण नुवनमाहे वली ए, नामा दिक जिन सार ॥ सिक अनंता वंदीयें, महोदय प द दातार ॥ ए॥ इति ॥ ॥ अथ चोवीश तिर्थकरनी राशिनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ शांति नमी मबी मेष , कुंथु अजित वृषना ति ॥ संनव अनिनंदन मिथुन, धर्म करक सिंह सुमति ॥१॥ कन्या पद्मप्रन नेम वीर, पास सुपा स तुला ए ॥ शशि वृश्चिक धन षनदेव, सुविधि शीतल जिनराय ॥२॥ मकर सुव्रत श्रेयांसने ए, बारमा घट मीन लील ॥ विमल अनंत अर नामथी, सुखीया श्री शुनवीर ॥३॥ इति ॥ ॥ अथ श्रीचंदकेवलीना रासमांथी चैत्यवंदन ॥ ॥ अरिहंत नमो, नगवंत नमो, परमेसर जिन Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिछेद. 299 राज नमो ॥ प्रथम जिनेसर प्रेमे पेखत, सिद्धां सघलां काज नमो ॥ ० ॥ १ ॥ प्रभु पारंगत परम महोदय, अविनाशी कलंक नमो ॥ अजर अमर अद्भुत अतिशय निधि, प्रवचन जलधिमयंक नमो ॥ ० ॥ २ ॥ तिहुश्रण नविगण जब म वंबिय, पूरण देव रसाल नमो ॥ ललि ललि पायनमुं हुं जालें, कर जोमीनें त्रिकाल नमो ॥ ० ॥ ३ ॥ सिद्ध बुद्ध तूं जग जन सन, नय नानंदन देव नमो ॥ सकल सुरासुर नर वर नायक, सारे श्रहो निश सेव नमो ॥ श्र० ॥ ४ ॥ तूं तीर्थं कर सुखकर साहिब, तूं निःकारण बंधु नमो ॥ शर यागत जविने हितवत्सल, तूंही कृपारसासिंधु नमो ० ॥ ५ ॥ केवलज्ञानादर्शे दर्शित, लोकालोकख नाव नमो ॥ नाशित सकल कलंक कलुषगण पु रित उपद्रवजाव नमो ॥ ० ॥ ६ ॥ जगचिंताम णि जगगुरु जगहित, कारक जगजननाथ नमो ॥ घोर पार जवो दधितारण, तूं शिवपुरनो साथ नमो ॥ ० ॥ ७ ॥ अशरण, शरण नीराग निरंजन, निरुपाधिक जगदीश नमो ॥ बोधि दीर्ज अनुपम दाने सर, ज्ञानविमल सूरीश नमो ॥ ० ॥ ८ ॥ ॥ अथ श्रीचोवीश जिननावर्णनु चैत्यवंदन ॥ ॥ पद्मन ने वासुपूज्य दोय राता कहीयें ॥ चंद्रप्रन ने सुविधिनाथ, दो उज्ज्वल लहीयें ॥ १ ॥ २३ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैनधर्मसिंधु. " मल्लिनाथ ने पार्श्वनाथ, दो नीला निरख्या ॥ मुनि सुव्रत ने नेमनाथ, दो जन सरिखा ॥२॥ शोले जिन कंचनसमा ए, एवा जिन चोवीश ॥ धीरविमल पंडित तपो, ज्ञान विमल कहे शिष्य ॥ ३ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री चोविश जिन समकितजव गए ॥ तीनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ प्रथम तीर्थंकर तथा हुवा, जब तेर कही जे ॥ शांतिता जव बार सार, नव जव नेम लहीजे ॥ १ ॥ दश जव पास जिणंदने, सत्तावीश श्रीवीर ॥ शेष तीर्थंकर त्रिहुं जवें, पाम्या जवजल तीर ॥२॥ ज्यांथी समकित फरसीयुं, त्यांथी गणीएं तेह || धीर विमल पंडित तणो, ज्ञान विमल गुण गेह ॥ ३ ॥ इति ॥ ॥ अथ चन्दशें बावन गणधरनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ गणधर चोराशी कह्या, वली पंचाएं बेक ॥ दोय अधिक ग सय गणा, शोल अधिक शत एक ॥ १ ॥ शत सुमतिने गणधरा, एक सय अधिका सात || पंचाणु त्राणु तथा अडसी इगसी व्रात ॥२॥ बोहोतेर बासव सगवन, पंच्चास तैंतालीस ॥ बत्तिस पण तिस कुंथने, अर गणधर तेत्री ॥ ३ ॥ अडवी स अष्टादश कह्या, नमि सत्तर गणधार ॥ एकादश दश शिव गया, वीर तथा अगीयार ॥ ४ ॥ रिख जादिक चोविशना, एक सहस्स सय चार ॥ अधि केरा बावन का, सर्व मली गणधार ॥ ५ ॥ श्रय Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिद. १७ पद वरिया सबे, सादि अनंत निवास ॥ करीये शु न चित्त वंदना, जब लग घटमां शास ॥६॥इति ॥ ॥अथ श्रीपंच परमेष्ठि चैत्यवंदन ॥ ॥ बार गुण अरिहंत देव, प्रणमीजें जावें ॥ सिक श्राउ गुण समरतां, पुःख दोहग जावे ॥१॥ आचारज गुण बत्रीस, पंचवीश जवजाय ॥ सत्ता वीश गुण साधुना, जपतां सुख थाय ॥२॥ अष्टो त्तर सय गुण मली ए, एम समरो नवकार ॥ धीर विमल पंडित तणो, नय प्रणमे नित सार ॥३॥ति॥ ॥अथ श्री सीमंधर जिन थोय ॥ ॥श्री सीमंधर जिनवर, सुखकर साहेब देव ॥ अरिहंत सकलनी, नाव धरी करूं सेव ॥ सकल श्रागम पारग, गणधर नाखित वाणी ॥ जयवंती आणा, ज्ञान विमल गुणखाणी ॥१॥ (ए थोय चार वखत पण कहेवाय ) ॥अथ श्री सीमंधर जिन थोय ॥ ॥श्री सीमंधर देव सुहंकर, मुनि मन पंकज हं साजी ॥ कुंथु थर जिन अंतर जनम्या तिहुश्रण जश परशंसा जी ॥ सुव्रत नमि अंतर वरदीक्षा, शिक्षा जगत निरासेंजी ॥ उदय पेढाल जिनांतर मां प्रजु, जाशे शिव वहु पासेंजी ॥१॥ बत्रीश च उसही चउसही मलिया, श्ग सय सहि उकिहा जी॥चन अम श्रम मनी मध्यम कालें, विश जि Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. नेश्वर जिद्वाजी || दो च चार जघन्य दश जंबु, धाय पुरकर मोजारेंजी ॥ पूजो प्रणमो श्राचारां गें, प्रवचन सार उद्धारेंजी ॥ २ ॥ सीमंधर वर के वल पामी, जिनपद खवण निमित्ते जी ॥ अर्थ नि देशन वस्तु निवेशन, देतां सुणत विनीतेंजी ॥ द्वा दश अंग पूरवयुत र चियां, गणधर लब्धि विकसि यां जी ॥ श्रपवसिय जिनागम वंदो, अक्षरपद ना रसियां जी ॥ ३ ॥ खाणारंगी सम कितसंगी, वि विध जंग व्रतधारीजी ॥ चजविह संघ तीरथ रखवाली, सहु उपद्रव हरनारीजी ॥ पंचांगुली सूरि शासन देवी, देती तस जस शद्धिजी ॥ श्रीशुजवी र कड़े शिव साधन, कार्य सकलमां सिद्धिजी ॥ ४ ॥ ॥ श्रथ बीज तिथिनी स्तुति ॥ १८० ॥ दिन सकल मनोहर, बीज दिवस सुविशेष ॥ राय राणा प्रणमे, चंद्र तणी ज्यां रेख ॥ तिहां चंद्र विमाने, शाश्वता जिनवर जेह, हुं बीज तणे दिन, प्रणमुं, आणी नेह ॥ १ ॥ अजिनंदन चंदन, शीत लशीतल नाथ ॥ धरनाथ सुमतिजिन, वासुपूज्य शिव साथ || इत्यादिक जिनवर, जन्म ज्ञान नि र्वा ॥ हुं बीज तणे दिन, प्रणमुं ते सुविहा ॥ २ ॥ परकाश्यो बीजें, डुविध धर्म जगवंत ॥ जेम विमल कमल दोय, विजल नयन विकसंत ॥ श्रगम श्रुति श्रनुपम, जिहां निश्चय व्यवहार ॥ बीजें सवि Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयपरिछेद. ११ कीजें, पातकनो परिहार ॥३॥ गजगामिनी का. मिनी, कमल सुकोमल चीर ॥ चकेसरी केसरी, सर स सुगंध शरीर ॥ कर जोमी बीजें हुं प्रणमुं तस पाय ॥ एम लब्धिविजय कहे, पूरो मनोरथ माय ४ ॥अथ पंचमीनी स्तुति ॥ ॥ श्रावण शुदि दिन पंचमी ए, जन्म्या नेम जिणंद तो ॥ श्यामवरण तन शोनतुं ए, मुख शार दको चंद तो ॥ सहस वरस प्रनु श्रायु ए, ब्रह्म चारी नगवंत तो ॥ श्रष्ट करम हेलें हणी ए, पहो ता मुक्ति महंत तो ॥१॥ अष्टापदपर आदि जिन ए,पहोता मुक्ति मोकार तो ॥ वासुपूज्य चंपापुरी ए नेम मुक्ति गिरनार तो ॥ पावापुरी माहे वलि ए श्रीवीरतणुं निर्वाण तो ॥ समेत शिखर विश सिक हुश्रा ए, शिर वहुं तेहनी आण तो ॥२॥ नेमना थानी हुवा ए, नांखे सार वचन्न तो॥जीवदया गु ण वेलमी ए, कीजे तास जतन तो ॥ मृषा न बो लो मानवी ए, चोरी चित्त निवार तो॥ अनंत ती थंकर एम कहे ए, परहरिये परनार तो ॥ ३ ॥ गो मेद नामे यद ललो ए, देवी श्री अंबिका नाम तो॥ शासन सान्निध्य जे करे ए, करे वलि धर्मनां काम तो ॥ तपगड नायक गुण निलो ए, श्रीविज यसैन्य सूरिराय तो ॥ रिखनदास पाय सेवतां ए, सफल करो अवतार तो ॥४॥ इति ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनधर्मसिंधु. ॥ अथ श्रष्टमीनी स्तुति ॥ ॥ मंगल पाठ करी जस पागल, नाव धरी सु रराज जी ॥ आठ जातिना कलश करीने, न्हवरावे जिनराज जी ॥ वीरजिनेश्वर जन्म महोत्सव, कर तां शिव सुख साधेजी ॥ श्राठमनुं तप करतां श्रम घर, मंगल कमला वाधे जी ॥१॥ अष्ट करम वय री गजगंजन, श्रष्टापद परें बलीया जी ॥ श्राग्मे श्राम स्वरूप विचारी,मद आवे तस गलीया जी ॥ अष्टमी गति पहोता जे जिनवर, फरस श्राप नहिं अंग जी ॥ थामनुं तप करतां श्रम घर, नित्य नि त्य वाधे रंग जी ॥२॥ प्रातिहारज श्राप बिराजे समवसरण जिन राजे जी ॥ आठमे आठशो आग मनांखी, नवि मन संशय नांजे जी॥आवे जे प्रव चननी माता, पाले निरतिचारो जी ॥ श्रामने दि न अष्टप्रकारें, जीवदया चित्त धारो जी ॥३॥ अष्ट प्रकारी पूजा करीने, मानव नवफल लीजें जी ॥ सिकाइ देवी जिनवर सेवी, अष्टमहासिकि दीजें जी ॥ आउमनुं तप करता लीजें, निर्मल केवल झा नजी ॥ धीर विमल कवि सेवक नय कहे, तपथी कोमि कल्याण जी ॥४॥ इति ॥ ॥अथ एकादशीनी स्तुति ॥ ॥ एकादशी अति रूश्रमी, गोविंद पूजे नेम ॥ कोण कारण ए पर्व महोटुं, कहो मुझशुं तेम ॥ जि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयपरिबेद. १३ नवर कल्याणक अति घणां, एकशोने पंचास ॥ ते 0 कारण ए पर्व महोटुं, करो मौन उपवास ॥१॥ अगियार श्रावक तणी प्रतिमा, कहे ते जिनवर दे व ॥ एकादशी एम अधिक सेवो, वन गजा जिम रेव ॥ चोवीश जिनवर सयल सुखकर, जैसा सुरत रु चंग ॥ जेम गंग निर्मल नीर जेहवं, करो जिन\ रंग ॥२॥ अगीश्रार अंग लखावियें, अगीयार पा गं सार ॥ अगियार कवली वीटणां, ग्वणी पूंजणी सार ॥ चाबखी चंगी विविध रंगी, शास्त्र तणे अनु सार ॥ एकादशी एम उजवो, जेम पामियें नवपार ॥३॥ वर कमलनयणी कमलवयणी, कमल सुको मलकाय ॥तुजदंड चंम अखंड जेहने, समरतां सुख थाय ॥ एकादशी एम मन वशी, गणि हर्ष पंमित शिस ॥शासन देवी विघन निवारो,संघ तणांनिशदीस ॥ अथ शांतिजिन स्तुति ॥ ॥शांति जिणेसर समरियें, जेहनी अचिरा माय ॥ विश्वसेन कुल उपना मृग लंबन पाय ॥ गजपुर नयरीनो धणी, सोवन वरणी काय ॥ धनुष चालिस जस देहमी, वरस लाखनु आय ॥१॥ शांति जिनेसर सोलमा, चक्री पंचम जाणुं ॥ कुंथुनाथ चक्री बग, अर नाथ वखाएं ॥ एत्रिणे चक्री सही, देखी आणंद्रं ॥ संयम लइ मुतें गया, नित्य उठीने वंद ॥२॥ शांति जिनेसर केवली, बेग धर्म प्रकाशे॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनधर्मसिंधु. दान शील तय जावना, नर सोदें अन्यासे ॥ एह वचन जिनजी तणा, जेणे हियडे धरियां ॥ सुणतां शिवगती निर्मली, दिसे केवल वरियां ॥ ३ ॥ समेत शिखर गिरि उपरे, जश्ने स कीधुं ॥ काउसग्ग मुद्रायें रह्या, तिणे मुक्तीज लीधुं ॥ गरुमयद सेतुं सदा, देवी निरवाणी ॥ जविक जीव तुमें सांजलो, रुषजदासनी वाणी ॥ ४ ॥ इति ॥ ॥ अथ खादिजिन स्तुति ॥ ॥ यदि जिनवर राया, जास सोवन्न काया ॥ मरुदेवी जस माया, धोरी लंबन पाया ॥ जगत स्थिति निपाया, शुद्ध चारित्र पाया ॥ केवल सिरि राया, मोद नगरे सधाया ॥ १ ॥ सविजन सुखकारी, मोहमिथ्या निवारी | डुरगति दुःख जारी, शोकसंताप वारी ॥ श्रेणि रुपक सुधारी, केवलानंतधारी ॥ नमिये नरनारी जेह विश्वोपकारी ॥ २ ॥ समव सरण बेग, लागे जे जिनजी मीठा ॥ करे गणप पश्वा, इंद्र चंद्रादि दीवा ॥ द्वादशांगी वरीठा गुंथता टाले रीठा ॥ जविजन होय हिडा, देखी पुण्ये गरीद्वा ॥ ३ ॥ गुर समकितवंता, जेहरुकें महंता ॥ जेह सुजन संता, टालिये मुजचिंता ॥ जिनवर सेवंतां, विघ्नवारे डुरंता ॥ जिनउत्तम थुतां, पद्मने सुख दिता ॥ ४ ॥ इति Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिबेद. १५ अथ सिद्धचक्रजीनी स्तुति ॥ जिनशासन वंडित पुरणदेव रसाल ॥ नावे जविनजिये, सिद्धचक्र गुणमाल ॥ त्रिकाले एहनी पुजा करे उजमाल ॥ ते अमर अमरपद सुख पामे सुविशाल ॥१॥ अरिहंत सिझवंदो, आचा. रज उवसाय ॥ मुनिदरसण नाण चरण तप ए स मुदाय ॥ ए नवपद समुदित, सिझचक्र सुख दाय॥ ए ध्याने नविनां, नव कोटी पुःखजाय ॥२॥ श्रा शो चैत्रीमा शुद सातमथी सार॥पुनम लगी कीजे, नव आंबिल निरधार ॥ दोय सहस गणेवं, पद सम साढाचार ॥ एकाशी आंबिल तप श्रागम अनुसार ॥३॥ श्रीसिद्धचक्र सेवक, श्रीविमलेश्वरदेव ॥ श्रीपालतणीपरे सुख पूरे स्वयमेव ॥ दुःख दोहग नावे, जे करे एहनी सेव ॥ श्रीसुमती सुगुरुनो राम कहे नितमेव ॥४॥ इति ॥ ॥अथपर्युषण स्तुति ॥ सत्तर नेदी जिन पूजा रचीने. स्नात्र महोत्सब कीजेजी ॥ ढोल ददामां मेरी नफेरी, जबरी नाद सुणीजेजी ॥ वीरजिन आगे नावना नावी, मानव नव फल लीजेंजी ॥ पर्व पजूसण पुरव पुण्ये, आ. व्यां एम जाणीजे जी॥१॥मास पास वली दसम सुवालस, चत्तारी अ कीजेंजी ॥ उपर वली Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनधर्मसिंधु. दश दोय करीने, जिन चोवीस पूजीजेंजी ॥ वमा कलपनो बह करीने, वीर चरित्र सुणीजेजी ॥ पडवेने दिन जन्म महोत्सव, धवल मंगल वरतीजेजी ॥२॥ आठ दिवस लगे श्रमारी पलावी, अहमर्नु तप करियें ॥ नागकेतु नी परें केवल लहियें, जो शुन जावें रहियेजी ॥ तेलाधर दिन त्रण कल्याणक गणधरवाद वदीजेजी ॥ पास नेमीसर अंतर त्रीजें, षल चरित्र सुणीजेजी ॥३॥ बारसे सूत्रने सामाचारी, संवहरी पडिकमियेजी ॥ चैत्य प्रवामी विधिसुं कीजे, सयल जंतु खामीयेंजी ॥ पारणाने दिन स्वामी बल, कीजे अधिक वमाजी ॥ मान विजय कहे सकल मनोरथ, पूरो देवी सिकाजी॥४॥ ॥अथ पर्युषण स्तुति ॥ पुण्य, पोषण, पाप, शोसण, पर्व पजूसण पामीजी ॥ कल्प घेर पधरावो स्वामी, नारी कहे शि र नामीजी ॥ कुंवर गयवर स्कंध चमावी, ढोल निसाण वजडावोजी ॥ सदगुरु संगे चढते रंगे, वीर चरित्र सुणावोजी॥१॥ प्रथम वखाण धरम सार थी पद, बीजे स्वपना चार जी॥त्रीजे स्वपन पाठक वली चोथे, वीर जन्म अधिकारजी ॥ पांचमे दीक्षा बरे शिवपद, सातमें जिन त्रेवीशजी ॥श्राउमे स्थिविरावली संजलावी, पिउडा पूरो जगीशजी ॥२॥ अक्ष्म अभाई कीजें, जिनवर चैत्य Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद . १ नमीजेंज | ॥ वरसी परिक्कमणुं मुनिवंदन, संघसयल खामीजेजी ॥ दिवस लगे अमर प्रजावना, दान सुपात्रें दीजेजी ॥ जडबाहु गुरु वयण सूणीने, ज्ञान सुधारस पीजेजी ॥ ३ ॥ तीरथमां विमलाचल गिरिमां; मेरु महीधर नेमजी ॥ मुनिवरमांहिं जिनवर मोहोटा, पर्व पजूस तेमजी ॥ श्रवसर पामी स्वामी वल, बहु पकवान वाईजी ॥ खिमा वि जय जिन देवी सिद्धाई, दिन दिन अधिक वधाईजी ॥ ४ ॥ इति ॥ ॥ श्रथ सिद्धाचलजीनी स्तुति ॥ श्री सिद्धाचल तीरथ सार, गिरिवरमा जेम मेरु उदार, ठाकुर राम अपार ॥ मंत्रमाहें नवकारज जाएं, तारामां जेम चंद्र वखाणुं, जलधरमांहें जल जाएं || पंखी मांहें जेम उत्तम हंस, कुलमांहे जिम रुपननो वंश, नानि तणो जे यंस ॥ क्षमावंतमाहे जिम अरिहंता, तप सूरा मुनिवर महंता, शत्रुंजय गिरि गुणवंता ॥१॥ रुषन अजित संभव अजिनंदा, सुमतीनाथ मुख पुनमचंदा, पद्मप्रन सुखकंदा ॥ श्रीसुपार्श्व चंद्रप्रन सुविधि, शितल श्रेयांस सेवो बहु बुद्धि, वासु पूज्य मती शुद्धि ॥ विमल अनंत जिन धर्म ए शांति, कुंथु र मल्लि नमुं एकांति, मुनिसुव्रत शुद्ध पंथी ॥ नमी पासने वीर चोवीस, नेम विना ए जिन वीस, सिद्धगिरि श्रव्याईश ॥ २ ॥ - Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. रतराय जिन साथे बोले, स्वामी शत्रुजय कुण तोले, जिननुं वचन अमोले ॥षन कहे सुणो नरतराय, बहरी पालंता जे नर जाय, पातक नूको थाय॥ पशुपंखी जे ऋण गिरि श्रावे; जव त्रीजे ते सिहज थाय, अजरामरपद पावे ॥ जिनमतमें शेजो वखाएयो, तेमें आगम दिलमाहें आण्यो, सुणतां सुख जर आण्यो ॥३॥ संघपति नरत नरेसर आवे, सोवन तणा प्रासाद करावे, मणिमय मूरती गवे॥ नाजिराया मरुदेवी माता, ब्राह्मी सुंदरी बेन विख्या ता, मूर्ति नवाणु जाता ॥ गोमुखने चकेसरी देवी, शत्रुजय सार करे नित्यमेवी, तपगह उपर हेवी॥ श्रीविजयसेन सूरीश्वर राया, श्रीविजयदेव सूरी प्रणमी पाया, षनदास गुणगाया ॥४॥ इति ॥ ___॥ श्रीशंखेश्वर जिन स्तुति ॥ ॥ शंखेश्वर पासजी पूजियें ॥ नर नवनो लाहो लीजियें ॥ मन वंडित पूरण सुरतरू ॥ जय वामासुत अलवेसरु ॥१॥ दोय राता जिनवर अतिनला ॥ दोय धोला जिनवर गुण निला ॥ दोय लीला दोय सामल कह्या ॥ शोले जिन कंचन वर्ण लह्या ॥२॥ आगम ते जिनवर नांखियो ॥ गणधरें ते हियडे राखियो।तेहनो रस जेणेंचाखियो।ते हई शि व सुख साखियो ॥३॥ धरणीधर राय पद्मावती॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिवेद. १०ए प्रनु पार्श्व तणा गुण गावती ॥ सहु संघना संकट चूरती ॥ नयविमलना वंबित पूरती ॥४॥ इति॥ ॥ सिकाचलजीनी स्तुति ॥ पुंगर गिरि महिमां आगममां प्रसिद्ध ॥ विमलाचल नेटी लहिये अविचल शकि॥ पंचमी गती पोहोता मुनिवर कोडा कोड ॥ इण तीर्थे श्राबी कर्म विपातिक बोड ॥१॥ (श्रा स्तुति चार वार पण कहेवाय डे ) ॥अथ नवपद थुलि ॥ ॥ नित प्रति हुं प्रणमुं सिझचक्र सुन नाव । हिवकारज सिछिनो लाधो एह उपाय ॥ तुक नाम पसायें अरति ब्याधि पुलाय । ग तुज अनुग्रहथ। सुख संपति मुफ थाय ॥१॥श्री अरिहंत नमियै सिक सूरी उवकाय । मुनिवर त्रिण करणे दंसण नांण सुहाय । फुगविधि चारित्तें बुधविध तप मन नाय । ये नवपद ध्यातां निरुपम शिव सुख थाय ॥२॥ विद्या प्रवादै जाणो ए अधिकार ॥श्रीगुरु उ पदेशे सिद्धचक्र उकार । प्रवचन अनुसारें जांष्यो एह विचार; नविजन नित ध्यावो सुरतरु गुणनंमार ॥ ३ ॥ जिनधरम अनुरागी चके सरि सुखकार । सेवकनें आपै सुख संपति परिवार । हिव निकि उदयकरि चारित्र नंदी मन नाय । जिनचंद सूरी सर खरतर पति सुपसाय ॥ इति ॥ नवपदस्तुतिः॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैनधर्मसिंधु. ॥ अथ पार्श्व जिनस्तुतिः॥ कि धपमप धधमि धोधों ध्रस कि धरधप धौ रवं । दोंदोंकि दोंदों दागिडदि दागिमदिकि अमकिअणरण जेणवं । ऊफिफ्रेंकि केंफ्रें कणणरणरण निजकि निज जन रंजनं । सुरशैल शिखरे नवति सुखदं पार्श्व जिनपति मजनं ॥१॥ कटरेंगि थोगिनि किटति गिगमदां धुधुकि धुटनटपाटवं । गुणगणण गुणगण रणकिणेणे गुणणगुण गण गौरवं । ऊफिकेंकि कें– कणण रणरण निजकि निज जन सजाना। कलयंति कमला कलितकलमल मुकलमीस महेजिना: ॥॥कि → कि →→ शिवझिक झिपट्टा ताड्यते। तललोंकि लोलों त्रेषित्रेषिन में षिविन वाद्यति । उ कि धुंगि धुं गिनिधोंगिधों गिनि कलरवे । जिन मतमनंतं महिमतनुतानमतिसुरनर मुडवे ॥३॥ धुंदांकि षुषुदां षुषुमदि धुंदां षुषुड दि दोंदों अंबरे, चाचपट चच पट रणकिणे णें मणण मेंमें मंबरेतिहांसरगमपधुनि निधपमगरस सस ससस सुरसेवता । जिननाटयरंगें कुशल मनिशं दिसतु शासन देवता ॥४॥ इति ॥ वति वलिहुं ध्या, गाऊं जिणवरवीर । जिण पर वपजूसण दाख्याधरमनी सीर । आसाढचोमासे हुं तीदिनपंचास । पडिकमणोसंवरी करिये त्रिणउप वास ॥१॥ चोवीसे जिनवर पूजा सतरप्रकार । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिछेद. 1 करिये जलजावें जरिये पुण्यभंडार | वलिचैत्यप्रवा फिरतां लाज अनंत । इह परबपजूस सदुमें महि मावंत ॥ २ ॥ पुस्तकपूजावी नव वाचनायें वचाय । श्री कल्पसूत्र जिहां सुणतां पाप पुलाय । प्रतिदिन परजावन धूप अगर उखेवो । इम जवियण प्राणी परबपजूस सेवो ॥ ३ ॥ वलिसामी बच्छल करिये वारं वार । केइ जावनाजावे के तपसी सीलधार । ड दीपजूस इमसेवत आणंद । सुयदेवी सानिध कहे निलाज सुरिंद ॥ ४ ॥ ॥ इति श्री पर्जू षणा पर्व्व स्तुतिः ॥ अथ तीर्थ माला चैत्यवंदन. सत्या देवलोके रविशशिनुवने व्यंतराणां नि काये, नक्षत्राणां निवासे ग्रहगणपटले तार काणांवि माने, पाताले पन्नगेंद्रे स्फुटमणि किरणेध्वस्तसांद्रा धकारे, श्रीम तीर्थंकराणां प्रतिदिवसमदं तत्र चै त्यानि वंदे ॥ १ ॥ वैताढये मेरुशृंगे रुचक गिरेवरे कुंम ले हस्तिदंते, वारे स्फुटनंदीश्वर कनक गिरे नै षधे नीलवंते, चित्रे शैले विचित्रे यमकगिरिवरे चक्र वाले हिमाडौ, श्रीम तीर्थंकराणा० ॥ २ ॥ श्रीशैले व्यंध्यशृंगे विमल गिरिवरे अर्बुदे पावके वा, संमेते तारके वा कुल गिरिशिखरेऽष्टापदे स्वर्णशैले, सय्याद्रौ चोंजयंते विपुल गिरिवरे गूर्जरे रोहणाडौ, श्रीम तीर्थंकराणां ॥ ३ ॥ घाटे मेदपाटे क्षितितटमु १९१ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैनधर्मसिंधु. कुटे चित्रकूटे त्रिकूटे, लाटे नाटे च घाटें विटपि घन तटे देवकूटे विराटे, कर्णाटे हेमकूटे विकटतरकटे चक्रकोटे च जोटे, श्रीम तीर्थकराणां० ॥४॥ श्रीमाले मालवे वा मलयनि निखिले मेखले पिछले वा, नेपाले नादले वा कुवलय तिलके सिंहले मेहले वा, माहाले कौशले वा विगलित सलिले जंगले वा तमाले, श्रीम तीर्थंकराणां ॥ ५ ॥ अंगे वंगे कलिंगे मगधजनपदे सप्रयागे तिलंगे, गौडे चौडे मुरं वरतरद्रविडे उडियाने च पुंद्रे, आ मुझे पुलिंडे प्रक्लिकुवलये कन्यकुब्जे सुराष्ट्रे श्रीम तीर्थंकराणां ॥ ६ ॥ चंपायां चंद्रमुख्यां गजपुरमथुरापत्तने चोंक यिन्यां, कौशाव्यां कौशलायां कनकपुरवरे देवगियचकाइयां, नाशक्यें राजगेहे दशपुरनगरे जद्दले तामलित्यां, श्रीम तीर्थंकराणां ॥ ७ ॥ स्वर्गेमयैतरिक्षे गिरिशिखरहृदि स्वर्नदीनी रतीरे शैलाग्रे नागलोके जलनिधि पुलिने नूरुहाणां निकुंजे, ग्रामे रण्ये वने वा स्थल जल विषमे दुर्गमध्ये त्रिसंध्यं, श्रीम तीर्थंकराणां ॥ ८ ॥ इत्थं श्री जैन चैत्य स्तव मिद मऽनिशं नक्तिनाजा स्त्रिसंध्यं, प्रोद्य कल्याण देतुः कलिमलहरणं ये पवंती ह नित्यं, तेषां श्री तीर्थयात्राफल मऽतिविपुलं जायते मानवानां, कार्यं सिद्धं तथो चैः प्रभवति सततं चित्त मानंदकारि ॥ ए ॥ इति ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ द्वितीयपरिबेद. ॥ अथ नवपदली करण विधिलिख्यते ॥ (प्रथम) आसोज शुदि ७ (अथवा) चैत्रसुदि से उली सरू करें। (कदास) तिथि घटी हुवे तो (६) से वढी होय तो आरिम से सरू करै । (पिण) आंबिल (ए) पूनिमताई करै । (तिहां) प्रथम नूमि शुरू करके । मांमणादिक से चित्रित करै। पीने बाजोट ऊपरि सिहचक्र थापे. त्रिकाल पुजा करें। (सोलिखते हैं) प्रजात समय राई पडिकमणो करिके । पी. वस्त्र पडिलेहै। ( जहां ) सिक चक्र स्थापना हे ( तहां ) आयके पांच शक स्तवे देव वांदै । पीछे नव चैत्ये । (अथवा) नव प्रतिमा आगे। नव चैत्यवंदण करै । वास क्षेप पूजा करै । पीछे केसर चंदनसे पूजा करै । पीछे मध्याह्न समय पांच शक्र स्तवे देव बांदै। पी गुरु पास श्रायके । राई आलोवे । अब्लुहिमि खमायके आंबिलनो पच्चरकांण करै । प्रथम अरिहंत पदके वरण सपेद है। (इससे) श्रां बिल में चावल (और) गरम पाणी यह दोश् अव्य लेसुं । सो आंबिल पचखके । पी अरिहंत पदके बारे गुण है सो चिं तवि के बारै नमस्कार करै । सो लिखते हैं (प्रथम सब ठिकाणे) श्वामि खमासमणो । वं० इत्यादि कहि के नमस्कार करै ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ए जैनधर्मसिंधु. १ अशोकवृक्षप्रातिहार्यसंयुताय श्रीअरिहंतायनमः। २ पुष्पवृष्टिप्रातिहार्यसंयुताय श्रीअरि । ३ दिव्यध्वनि प्रातिहार्यसंयुताय श्रीअरि। ४ चामरयुग प्रातिहार्यसंयुताय श्रीअरि । ५ स्वर्णसिंहासण प्रातिहार्यसंयुताय श्री अरि । ६ नामंगल प्रातिहार्यसंयुताय श्रीअरि । इंसुनिप्रातिहार्यसंयुताय श्रीअरि। ७ बत्नत्रय प्रातिहार्यसंयुताय श्रीअरि । ए ज्ञानातिशय संयुताय श्रीअरि। १० पूजातिशयसंयुताय श्रीअरि । ११ वचनातिशय संयुताय श्रीअरि ।। १२ अपायापगमातिशयसंयुताय श्रीअरि० । ॥ इति छादश अरिहंतगुणाः ॥ ॥ इत्यादि नमस्कार करिके । अन्नत्थू ससियेणं । (कहिके) (१२) बारे लोगस्सनो काउसग्ग करै। एकलो गस्स प्रगट कहै। पीस्वस्थानक जाके। चैत्यवंदन करै पचरकाण पारिकोआंबिल करै। पहले जल पीवे (जब) चैत्यवंदन करिके पीवे।पीछेफेर चैत्यवंदन करिके तिवि हार पच्चरकाण करै गुणणो(२०००) ही णमो अरि हंताणं । इस पदको करै । श्रीपालका चरित्र नवपद महिमा सुणे । पूण पहिर दिन रहणेसें (तीसरीवेर) पांच शक्रस्तवे देव वाद।सामायिकलेके दिन बतेपमिक मणो करै। आरतीके समय दीप धूप कुसम पूजा करै। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद. १५ (अथवा) पहिले भारती प्रमुख करिके। पीजे पमिक मणो करै। (सोणेंके समय) इरिया बही पडिक्कमके चैत्यवंदन करिक।राई संथारा गाथागुणके सोवै।निसा न आवे जहांतक नवपदका गुण स्मरण करै ॥ इति प्रथम दिवसविधिः ॥१॥ ॥अथ द्वितीय दिवस विधिलि ॥ ॥ अब इसीतरे दूसरे दिन प्रजाति करणी सब क रिके सिझपदको लालवर्ण है।(इसीसें) गहुँकी रोटीको अंबिल करै ॐ ह्री णमो सिझाणं (इसपदको) गुणणो दो हजार करै । सिद्धपदके श्रावगुण । सो () गुणां को गुरु नमस्कार करावे (सो लिखते हैं)। १ अनन्तज्ञानसंयुताय श्रीसिद्धाय नमः । २ अनन्तदर्शन संयुताय श्रीसि । ३ अव्याबाध गुणसंयुताय श्रीसि। ४ अनन्तसम्यक्त चारित्रगुण संयुताय श्रीसि । ५ श्रदय स्थितिगुण संयुताय श्रीसि। ६ अरूपी निरंजनगुण संयुताय श्रीसि । ७ अगुरुलघु गुणसंयुताय श्रीसि । अनन्तवीर्यगुण संयुताय श्रीसि। ॥ इतिसिझोंके अष्टौ गुणाः॥ ॥ यह आवे नमस्कार करिके । अन्नत्थूससि बाग्लोगस्सनो काउसग्ग करै । एकलोगस्स कहिके Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनधर्मसिंधुः पारै पीछे पूर्वोक्त करणी अनुक्रमसें करै ॥ इति द्वितीय दिवस विधिः॥२॥ ॥अथ तृतीय दिवस विधि. वि०॥ ॥ पूर्वोक्त विधिसे प्रातकर्त्तव्य करै श्राचार्यपद पीले वर्ण है (इसीसें ) चिणाकी दालका श्रांबिल करै । ( उँही ही णमो आय रियाणं) इस पदको गु. णणो दोहजार करै । श्राचार्य पदके (३६) गुण याद करके बत्तीस नमस्कार करै। ॥अथ श्राचार्य पदके (३६) गुण लि० ॥ १॥प्रतिरूप गुणसंयुताय श्रीआचार्याय नमः। २ सूर्यवत्तेजस्वी गुणसंयुताय श्रीश्राचार्याय नमः। ३ युगप्रधानागम संयुताय श्रीश्राचार्याय नमः। ४ मधुरवाक्य गुणसंयुताय श्रीश्राचार्याय नमः। ५ गांजीय गुणसंयुताय श्रीश्राचार्याय नमः। ६ धैर्यगुण संयुताय श्रीया । ७ उपदेश गुणसंयुताय श्रीश्राचार्याय नमः। G अपरिश्रावी गुणसंयुताय श्रीआचा। ए सौम्यप्रकृति गुणसंयुताय श्रीश्रा । १० शीलगुणसंयुताय श्री। ११ अविग्रह गुणसंयुताय श्री० । १२ अविकथक गुणसंयुताय श्रीश्राचार्याय नमः। १३ अचपल गुणसंयुताय श्रीश्रा। १४ प्रसंत वदनगुण संयुताय श्रीश्रा। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिछेद. १ १५ दमागुण संयुताय श्रीया। १६ जुगुण संयुताय श्रीया । १७ मृगुण संयुताय श्रीया । १७ सर्व संगमुक्तिगुण संयुताय श्रीश्रा। रए छादश विधतपगुण संयुताय श्रीश्रा । २० सप्तदशविध संयमगुण संयुताय श्रीश्रा० । २१ सत्यव्रतगुण संयुताय श्रीमान् । २२ सौचगुण संयुताय श्रीया। २३ अकिंचन गुण संयुताय श्रीया; २४ ब्रह्मचर्यगुण संयुताय श्रीआ० । २५ अनित्य जावना नावकाय श्रीया। २६ असरण नावना नावकाय श्रीश्रा० । २७ संसार स्वरूप नावना जावकाय श्रीश्रा। २७ एकत्व स्वरूप नावना नावकाय श्रीआ० । शए अन्यत्व नावना नावकाय श्रीधा । ३० अशुचि जावना जावकाय श्रीथा। ३१ आश्रव नावना नावकाय श्रीमा। ३२ संबर नावना नावकाय श्रीया। ३३ निर्जरा नावना नावकाय श्रीश्रा । ३४ लोकस्वरूप नावना नावकाय श्रीा। ३५ बोधिदुर्लन नावना जावकाय श्रीया। ३६ धर्म कुर्लन नावना नावकाय श्रीश्रा० । इति. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १एज जैनधर्मसिंधु. ॥इति षत्रिंशदाचार्य गुणाः॥ यह बत्तीस नमस्कार करिके । अन्नबनससिएणं (इत्यादि कहिके) बत्तीस (३६) लोगस्तनो का उसग्ग करै । पारिके एक लोगस्स ऊंचै स्वरसें कहि यथोक्त करणी । अनुक्रमसें करै । इति तृतीय दिवस विधि ॥३॥ ॥अथ चतुर्थ दिवस विधि लि॥ ॥(ॐ झीणमो उवसायाणं) इस पदको (२) हजार गुणणो करै । हस्या मुंगकी दाल प्रमुखनो आंबिल करै । उपाध्याय पदके (२५) गुण याद करि के । नमस्कार करै ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ अथ उपाध्याय पदके २५ गुण लि० ॥ त्याचारांगसूत्रपठनगुणयुक्तायश्रीउपाध्यायेन्योनम २ सुयगमांगसूत्र पठन गुणयुक्ताय श्रीउपाध्या ३ श्रीगणांगसूत्र पठनगुणयुक्ताय श्रीज। ४ श्रीसमवायांगसूत्र पग्गुण युक्ताय । ५ श्रीनगवतीसूत्र पठनगुण युक्ताय । ६ श्रीज्ञातासूत्रपठनगुणयुक्ताय । ७ श्रीउपासकदशासूत्र पठनगुण युक्ताय । श्रीअन्तगडदशासूत्र पठनगुण युक्ताय । ए श्रीअणुत्तरोववाईसूत्र पठनगुण युक्ताय। १० श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र पठन यु। ११ श्रीविपाकसूत्र पठनगुण यु। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद. १२ उत्पादपूर्व पठनगुण यु० । ग्रायणी पूर्व पठनगुण युक्ताय० । १३ १४ वीर्यप्रवाद पूर्व पठनगुण युक्ताय० । १५ स्तिप्रवाद पूर्व पवनगुणयुक्ताय० । १६ ज्ञानप्रवाद पूर्व पठनगुणयुक्ता० । १७ सत्यप्रवाद पूर्व पवनगुण यु० । १० श्रात्मप्रवाद पूर्व पवनगुण युक्ताय० । १० कर्म्म प्रवाद पूर्व पवनगुण युक्ताय० । २० प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व पठनगुण युक्ताय० । २१ विद्याप्रवाद पूर्व पवनगुण युक्ताय० । २२ विंध्य प्रवाद पूर्व पठनगुण यु० । २३ प्राणायामप्रवाद पूर्व पठनगुण यु० । २४ क्रियाविसाल पूर्व पठनगुण यु० । २५ लोकबिंदुसार पूर्व पठनगुण यु० । ॥ इति पंचविंशति उपाध्याय गुणाः ॥ इस रीतसें पंचवीस नमस्कार करें (खमाहो के ) अन्नत्थूस० इत्यादि कहिके पंचवीस लोगस्सका का उग्ग करै । पारके एक लोगस्स कहके । ( पीछे ) पूर्वोक्त करणी करें ॥ इति चतुर्थ दिवस विधिः ॥ अथ पंचम दिवस विधि. uu ॥ ( एमो लोए सबसाहूणं) इस पदका ( 2 ) हजार गुणनो करै । साधुपद काले वर्ण है इस सें उडदका बल करै । सर्व साधुपद के सत्ताईस गुण चिंतवके नमस्कार करै ॥ ॥ በ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैनधर्मसिंधु. ॥ अथ साधुपदके (२७) गुणलिए ॥ १प्राणातिपात विरमणव्रत गुण युक्ताय श्रीसाधवेनमः २ मृषावाद विरमणव्रत गुण युग श्रीसा। ३ अदत्तादान विरमणव्रत गुण युग श्रीसा। ४ मैथुन विरमणव्रत गुण यु० श्रीसा। ५ परिग्रह विरमणव्रत गुण युग श्रीसा । ६ रात्रिनोजन विरमणव्रत गुण युग श्रीसा । ७ पृथ्वीकाय रदकाय श्रीसा । 6 अप्पकाय रदकाय श्रीसा० । ए तेउकाय रदकाय श्रीसा। १० वाजकाय रदकाय श्रीसा० । ११ वनस्पतिकाय रक्षकाय श्रीसा। १५ त्रसकाय रदकाय श्रीसा। १३ एकेंजी जीवरदकाय श्रीसा० । १४ बेडीजीव रक्षकाय श्रीसा । १५ तेजीजीव रक्षकाय श्रीसा । १६ चौरिंडीजीव रक्षकाय श्रीसा० । १७ पंचेंडीजीव रक्षकाय श्रीसा । १७ लोन निग्रहकारकाय श्रीसा। १ए दमागुण युक्ताय श्रीसा । २० शुजनावना नावकाय श्रीसा । २१ प्रतिलेखनादि क्रिया शुभकारकाय श्रीसा० । २२ संयम योगयुक्ताय श्रीसा । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिजेद. २०१ २३ मनोगुप्ति युक्ताय श्रीसा। २४ वचनगुप्ति युक्ताय श्रीसा । २५ कायगुप्ति युक्ताय श्रीसा। २६ सीतादि छाविंशति परीसहसहण तत्पराय। २७ मरणांत उपसर्ग सहण तत्पराय श्रीसा । ॥ इति सप्तविंशति साधु गुणाः ॥५॥ इस रीतसे सतावीस नमस्कार करै । (खडा हो के अन्नडू स (इत्यादि कहिके) सातवीस लोग स्सकाकाउस्सग्ग करै । पारके एक लोगस्स कहके (पी) पूर्वोक्तकरणी करै । ( यह पंच परमेष्टि पदके सब गुण मिलाणें सें (१७) होय ( इसीसें) मालाके दाणे (१०७) होते है । इति पंचम दिवस विधिः॥ ॥अथ षष्ट दिवस विधिलि ॥ ॥ ( ही नमो दसणस्स) इस पदको (२) हजार गुणनो करै । दर्शनपद सपेदवर्णहे (इससे) तंकुलका बिल करै । सम्यक्तके समसतिगुण चिंतवके नमस्कार करै ॥ ॥अथ सम्यक्तके समसवि नेदलि॥ १ परमार्थ संस्तवरूप श्री सदर्शनाय नमः। २ परमार्थ ज्ञातृसेवनरूप सद्दर्शनाय नमः । ३ व्यापन्नदर्शन वर्जनरूप सदर्शनाय नमः। ४ कुदर्शन वर्जनरूप सद्दर्शनाय नमः। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैनधर्मसिंधु ५ शुश्रषारूप सदर्शनाय नमः। ६ धर्मरागरूप सदर्शनाय नमः। ७ वैयावृत्तरूप सदर्शनाय नमः। ७ अर्ह हिनयरूप सदर्शनाय नमः। ए सिझविनयरूप सदर्शनाय नमः। १० चैत्य विनयरूप सदर्शनाय नमः। ११ श्रुतविनयरूप सदर्शनाय नमः । १५ धर्मविनयरूप सदर्शनाय नमः। १३ साधुवर्ग विनयरूप सदर्शनाय नमः। १४ आचार्य विनयरूप सदर्शनाय नमः। १५ उपाध्याय विनयरूप सदर्शनाय नमः । १६ प्रवचन विनयरूप सदर्शनाय नमः। १७ दर्शन विनयरूप सदर्शनाय नमः। १७ संसारे जिनमतसार मिति चिंतनरूप सद्द । १ए संसारे जिनमतिसार मिति चिंतन। २० संसारे जिनमतिस्थित साध्वादिसार मिति । २१ शंका दूषण रहिताय सदर्शनाय नमः। २२ कांदा दूषण रहिताय सदर्शनाय नमः। २३ विचिकित्सारूप दूषण रहिताय । २४ कुदृष्टि प्रसंसा दूषणरहिताय । २५ तत्परिचय दूषण रहिताय । २६ प्रवचन प्रनावकरूप सह । २७ धर्मकथा प्रनावकरूप स० । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद. १० वादी प्रजावक० स० । १० नैमित्तक प्रजावक० स० । २०३ ३० तपखी प्रजावक० सद० । ३१ प्रइत्यादि विद्या नृत्प्रजावक० स० । ३२ चूर्णां जनादि सिद्धप्रजावक० स० । ३३ कविप्रजावरूप सद्दर्शनाय नमः । ३४ जिनशासने कौसल्यता भूषण० स० । ३५ प्रजावना भूषणरूप स० । ३६ तीर्थसेवा भूषण० स० । ३७ स्थैर्यता भूषणरूप सद्दर्शनाय नमः । ३८ जिनशासने जक्ति भूषण० । ३० उपशम गुणरूप सद्दर्शनाय नमः । ४० संवेग गुणरूप श्रीस० ४१ निर्वेद गुणरूप श्री सद्दर्शनाय नमः | ४२ अनुकंपा गुणरूप श्रीस० । ४३ प्रास्तिक्यता गुणरूप श्रीस० । ४४ परतीर्थकादि वंदन वर्जन रूप श्रीस० । ४५ परतीर्थका दि नमस्कार वर्जन० श्रीस० ४६ परतीर्थकादि श्रालाप वर्जन० । ४७ परतीर्थकादि संलाप वर्जन० । ४० परतीर्थकादि सनादि दानवर्जन० श्रीस० । ४० परतीर्थकादि गंधपुष्पादि प्रेषण वर्जन० श्रीस २० राजा जियोगाकार युक्ताय श्रीस० । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनधर्मसिंधु. २१ गणा जियोगाकार युक्ताय श्रीस० । २२ बलाजियोगाकार युक्ताय श्रीस० । ५३ सुरा नियोगाकार युक्ताय श्रीस० । २४ कांतारवृत्याकार युक्ताय श्री० । ५५ गुरु निग्रहाकार युक्ताय श्रीस० । ५६ सम्यक्त चारित्रधर्मस्य मूलमिति चिंतन० श्री० । ७ चारित्र धर्मपुरस्य द्वार मितिचिंतन० श्रीस० । ५० चारित्र धर्मस्य प्रतिष्ठानमिति चिंतन० श्रीस० । ५० चारित्र धर्मस्याधार मिति चिंतन श्रीस० । ६० चारित्र धर्मस्य जाजनमिति चिंतन० श्री० । ६१ चारित्र धर्मस्य निधिसन्निमिति चिं० श्रीस० ६२ अस्ति जीवेति श्रद्धानस्थान यु० श्रीस० । ६३ सचजीव नित्येति श्रान स्थान यु० श्रीस० । ६४ सचजीव कर्माणि करोतीति श्रद्धानस्थान यु० । ६५ सचजीव कृतकर्माणि वेदयतीति श्रद्धान स्था० । ६६ जीवस्यास्ति निर्धाणमिति श्रद्धान स्थान यु० । ६ स्ति पुनर्मोहो पायेति श्रद्धानस्थान यु० श्री० । ॥ इति सप्तषष्टि दर्शनस्य गुणाः ॥ ॥ इस रीतिसें समसवि नमस्कार करै । ( खमाहो) अन्नत्थू ससि एणं० ( इत्यादि कहिके ) (६५) होके लोगस्स (अथवा ) 9 लोगस्स नो काउस्सग्ग करै । एक लोगस्स कहके । (पीछे) पूर्वोक्त करणी करै ॥ इति षष्ट दिवस विधिः ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिछेद. २०५ ॥ श्रथ सप्तम दिवस विधि लि॥ ॥ ( ही नमो नाणस्स)इस पदको (२)ह गुणनो करै । ज्ञानपद उज्वल वर्ण । तंडुलका श्रांबिल करै । कावन नेद ग्यानपदके चिंतवके नमस्कार करै ॥ ॥ अथ ज्ञानपदके (५१) नेदलि॥ १ स्पर्शनेंद्रीय व्यंजनावग्रह मतिझानाय नमः। २ रसनेंद्रीय व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमः। ३ घ्राणेंजीय व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमः। ४ श्रोत्रंडीय व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमः। ५ स्पर्शनेंद्रीय अर्थावग्रह मतिझानाय नमः । ६ रसनेंद्रीय अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः। ७ घ्राणेखीय अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः। ७ चक्षुरिंडी श्रर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः। ए श्रोत्रंडी अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः। १० मनऽर्थावग्रह मतिझानाय नमः। ११ स्पर्शनेंडी ईहा मतिझानाय नमः। १५ रसनेंडी ईहा मतिझानाय नमः। १३ घ्राणेंनी हा मतिज्ञानाय नमः। १४ चकुरिंडी ईहा मतिज्ञानाय नमः। १५ श्रोत्रंडी ईहा मतिज्ञानाय नमः। १६ मनें करी ईहा मतिझानाय नमः। १७ स्पर्शनेडी अपाय मतिज्ञानाय नमः। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनधर्मसिंधु २७ रसनेंसी अपाय मतिझानाय नमः। रए घ्राणेंसी ईहा मतिज्ञानाय नमः। २० चकुरिंड़ी अपाय मतिज्ञानाय नमः। १ श्रोत्रंजी अपाय मतिज्ञानाय नमः। २२ मनेकरी अपाय मतिज्ञानाय नमः। २३ स्पर्शनेंडी धारणा मतिज्ञानाय नमः। २४ रसनेंगी अपाय मतिज्ञानाय नमः। २५ घाणेजी धारणा मतिज्ञानाय नमः। २६ चहुरिंखी धारणा मति। २७ श्रोत्रंडीधारणा मति। २० मनो धारणामति ज्ञानाय नमः। .. शए अदर श्रुतज्ञानाय नमः। ३० अनकर श्रुतज्ञानाय नमः । ३१ संझी श्रुतज्ञानाय नमः। ३२ असंज्ञी श्रुतझानाय नमः। ३३ सम्यक् श्रुतझानाय नमः। ३४ मिथ्या श्रुतझानाय नमः। ३५ सादि श्रुतज्ञानाय नमः। ३६ अनादि श्रुतज्ञानाय नमः। ३७ सपर्यवसित श्रुतज्ञानाय नमः। ३० अंपर्यवसित श्रुतझानाय नमः। ३ए गमिक श्रुतझानाय नमः। ४० अगमिक श्रुतझानाय नमः। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिचैद. २०७ ४१ अंगप्रविष्ट श्रुत। ४२ अनंग प्रविष्ट श्रुत। ४३ अणुगामि अवधिज्ञानाय नमः। ४४ अननुगामि अवधिशानाय नमः। ४५ वर्डमान अवधि। ४६ ह्रियमान अवधि। ४७ प्रतिपाती अवधि। ४ अप्रतिपाती अवधि। भएकजुमति मनः पर्यवज्ञाय नमः। ५० विपुलमति मनः पर्यवज्ञानाय नमः। ५१ लोकालोक प्रकाशक श्री केवलझानाय नमः। ॥इति एकपंचासत ज्ञाननेदाः॥ इस रीतसे (५१) नमस्कार करै। (खमा होके) अन्नत्थ उससिएणण (इत्यादि कहै) (५१) लोग स्सके काज सग्ग करिके । प्रगट लोगस्स कहै। पीछे सब पूर्वोक्त करणी करै।इतिसप्तम दिवस विधिः॥॥ ॥ श्रथ अष्टम दिवस विधि वि०॥ ॥ (उही णमो चारित्तस्स) इस पदको (२) हजार गुणनो करै । चारित्रपदका उज्वल वर्णदे।(३सीसें) तंडुलका श्रांबिल करै। सित्तर नेद चारित्रपदके । चिंतवके नमस्कार करै ॥ ॥अथ चारित्रपदके (७०) नेदलि ॥ १ प्राणातिपात विरमणरूप चारित्राय नमः । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ जैनधर्मसिंधुः २ मृषावाद विरमणरूप चारित्राय नमः। ३ अदत्तादान विरमणरूप चारित्राय नमः। ४ मैथुनविरमणरूप चारित्राय । ५ परिग्रह विरमणरूप चारित्रा० । ६ दमा धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः। ७ आर्यव धर्म रूप चारित्रेज्यो नमः । मृता धर्म रूप चारित्रेच्यो नमः। ए मुक्ति धर्म रूप चारित्रेज्यो नमः । १० तपो धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः। ११ संयमधर्मरूप चारित्रेन्यो नमः। १५ सत्यधर्म रूप चारि। १३ सौच धर्मरूप चारि। १४ अकिंचनधर्मरूप चारि । १५ ब्रह्मचर्यधर्मरूप चारि। १६ प्रथवी रक्षासंयम चारित्रेभ्यो नमः १७ उदग रक्षासंयम चारि। १० तेऊ रदा संयम चारि । १ए बाऊ रदासंयम चारि । २० वनस्पति रदासंयम चारि । १ बेईजी रक्षासंयम चारिण। २२ तेजी रदासंयम चारि । २३ चौरिं जीरक्षा संयम चारि। २४ पंचेन्जी रदासंयम चारि० । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयपरिजेद. २०ए २५ अजीव रदासंयम चारि । २६ प्रेदासंयम चारि। २७ उत्पेदासंयम चारि । २७ अतिरिक्तवस्त्रजक्तादिपरपणत्यागरूपसंय चारि शए प्रमार्जन रूप संम चारि । ३० मनसंयम चारि। ३१ वाक्संयम चारि० । ३५ कायासंयम चारि । ३३ श्राचार्य वैयावृत्यरूप संयम चारि। ३४ उपाध्याय वैयावृत्यरूप संयम चारि । ३५ तपस्वी वैयावृत्त्य रूप चारि। ३६ लघुशिष्यादि वैयावृत्य रूपचारि । ३७ गिलाणसाधु वैयावृत्यरूप चा । ३७ साधु वैयावृत्यरूप चारि । ३ए श्रमणोपासक वैयावृत्यरूप चा । ४० संघ वैयावृत्यरूप चारि० । ४१ कुल वैयावृत्परूप चारित्रे । ४२ गण वैयांवृत्य रूप चारि। ४३ पशुपंगादि रहित वशति वसण ब्रह्मगुप्तचारि। ४४ स्त्रीहास्यादि विकथावर्जन ब्रह्मगुप्त चा। ४५ स्त्रीआसन वर्जन ब्रह्मगुप्त चा० । ४६ स्त्रीअंगोपांग निरीक्षणवर्जन ब्रह्म । ४७ कुड्यंतर सहित स्त्रीहाव नावश्रवण वर्जन ब्रह्म। २७ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनधर्मसिंधु. ४८ पूर्वस्त्री संजोग चिंतनवर्जन ब्रह्म० । ४ ति सरसाहार वर्जन ब्रह्म० । ५० अति आहार करण वर्जन ब्रह्म । प्रति ५१ अंग विभूषावर्जन ब्रह्म० । २२ असण तपोरूप चा० । २३ ऊणोदरी तपो रूप चा० । ५४ वृत्तिसंक्षेप तपोरूप चा० । ५५ रसत्याग तपो रूप चा० । ५६ काय किलेस तपोरूप चा० । 49 संलेखणा तपोरूप चा० । ५० प्रायवित्ततपो रूपचा० । २ विनय तपोरूप चा० । ६० वेयावञ्चतपो रूप चा० । ६१ स्वाध्यायतपो रूप चा० । ६२ ध्यानतपो रूप चा० । ६३ उपसर्ग तपो रूप चा० । ६४ अनंत दान संयुक्त चा० । ६५ अनंत दर्शन संयुक्त चा० । ६६ अनंत चारित्र संयुक्त चा० । ६५ क्रोधनिग्रह करण चा० । ६० माननिग्रह करण चा० । ६० माया निग्रह करण चा० । go लोज निग्रह करण चारित्रेभ्यो नमः । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिछेद. २११ ॥ इति सित्तर चारित्र नेदाः॥ ॥ इस रीतसे (७०) नमस्कार करै । (खडा हो के) अन्नथू ससि एणं० ( इत्यादि कहै) (30) लोगस्सका काउसग्ग करिके । एक लोगस्स कहै। (पी) पूर्वोक्त करणी सब करै । इति अष्टम दि. वस विधिः॥ ॥अथ नवम दिवस विधिलि० ॥ __॥(उही णमो तवस्स) इस पदको (२) ह. जार गुणनो करै । तपपदके-उज्वन वर्ण (इसीसें) तंकुलका आंबिल करै । पच्चास नेद तपपदके चिंत्त वके नमस्कार करै ॥ ॥अथ तपपदके (५०) नेदलिः ॥ १ यावत कथिक तपसे नमः। २ इत्वर तपनेद तपसे नमः। ३ वाह्यऊणोदरी तपनेद तपसे नमः। ४ अत्यंतर ऊणोदरी तपनेद तपसे नमः। ५ अव्यतप वृत्तिसंदेप तपनेद तपसे नमः। ६ देत्रतप वृत्तिसंक्षेप तपनेद तपसे नमः। कालतप वृत्तिसंदेप तपनेद तपन्नेद नमः। जनावतप वृत्तिसंक्षेप तपनेद तपसे नमः। ए कायक्लेस तपन्नेद तपसे नमः। १० रसत्याग तपनेद तपसे नमः।११ इंजी कषाय जोग विषयक संलोणता तपसे नमः। Page #246 --------------------------------------------------------------------------  Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद. ३५ ग्लान साधु वेयावच्च तपसे नमः । ३६ श्रमणोपासक वेमावच्च तपसे नमः । ३७ संघ वेयावच्च तपसे नमः । ३८ कुल वेयावच्च तपसे नमः । ३० गण वेयावच्च तपसे नमः । ४० वायणा तपसे नमः । ४१ प्रचना तपसे नमः । ४२ परावर्त्तना तपसे नमः । ४३ अनुप्रेक्षा तपसे नमः । ४४ धर्म कथा तपसे नमः । ४५ श्रार्त्तध्यान निवृत्त तपसे नमः । ४६ रोsध्यान निवृत्त तपसे नमः । ४७ धध्यान चिंतन तपसे नमः । ४८ शुक्लध्यान चिंतन तपसे नमः । ४ बाह्य उपसर्ग तपसे नमः । ५० अभ्यंतर उपसर्ग तपसे नमः । ॥ इति पंचासत् तपनेदाः ॥ २१३ ॥ इस रीतसें (५०) नमस्कार करै । ( खमा होके ) अन्न उससि ए० ( इत्यादि कहै ) (५०) लोगस्सके काउस्सग्ग करिके । एक लोगस्स कहै । (पीछे) पूर्वोक्त करणी करे । इति नवम दिवस विधि ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनधर्मसिंधु. ॥ अथ तपस्या ग्रहण करणे कों गुरुके पास जाणेकी विधि लि॥ ॥प्रथम शुन दिन शुज घडी देखके । अछा वस्त्र आनूषण पहरे । लिलाममे तिलक करे । दोव। सर । मस्तकमें धारण करे।हाथके मोली बांधके । अदत । सुपारी। श्रीफल । नेवेद्य । यथाशक्ति रोक नाणो लेके । नवकार गुणतो थको। गुरूके पास जावे । छादशावर्त बांदणा करके।झान पूजा करे पीछे बहुत प्रमोदवंत होके । गुरुके मुखसे तप ग्रहण करे. ॥अथ संदेप ऊजमणाविधि लि॥ ॥ पंच वर्णके धान्यसें सिकचक्रका मंडल करै। सिकचक्रजी के चौतरफ तीन गढ चूमीके श्राकार बनावै पहिलै गढमांहे। अष्टदल कमलके आकार नव पद स्थापन करै । पद पद के वर्ण गुण प्रमा णै । रक्तादिक चढावे । (ओर) पंचवर्णके धान्य । नवनालेर प्रमुखके गोटा रंगके। जिसपदके जैसे वर्णके होश (तैसे ही) रंगका गोला चढावै । पंच वर्णी (ए) धजा चढावै । दूसरै वलयमें । सोले श्री फल (अथवा) पूंगी फल चढावै । तीसरे वलयमें (४)बुहारा खारक चढावै। नव निधानके ठिकाणे(ए) नव बडा फल चढावै दश दिग्पाल । नवग्रहकों । पक्कान्न प्रमुख चढावै।इत्यादिक विधिसंयुक्त । सिक चक्र स्थापना । घर देहरासर आगे करै । और जि Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद. नमंदिर मांहे। बाह्य मंगपै ५॥ ७ हाथ प्रमणे में डल रचना करै । विस्तारसें सब विधि गुरूके बचन से करके । नव पदजी की पूजा पढायके कलस ढाले । धवल मंगल गीतगान गावे । वाजित वजा वे । (इसी तरे) महामोहबव । उदारचित्तसें करे । मंगल दीप आरती प्रमुख करे। मुसरे दिन विस ऊन करे । इति संखेप सिद्धचक्र मंगल विधिः । _उद्यापनमें ज्ञान नक्तिके कारण । ए पूग। ए। वीटांगणा। ए पुस्तक ए लेखण । ए ग्वणी। नव तोरण । ए रुमाल । ए दोरा। ए कटासणा। ए थापना ए चंपा । ए पूछिया। ए आर ती ए। कलश ए जापमाला। एमंदर । ए प्रतिमा। ए तिलक । ए मुगट । (इत्यादिक) अनेक नव नव चीज बणावे । शक्ति न होय तो यथाक्तै रोकनाणो चढावै । देव पदको देवव्यमैं देवे । गुरु पदको गुरु कों देवे। ग्यानपद को ग्यानखाते लगावे । इत्या दिकयथाजोग्य शुन्ज क्षेत्रे खरच करे । इति सिकच क्र संदेप उद्यापन विधिः ॥ ॥अथ वीस स्थानक तपकरण विधि लि०॥ ॥ तिहां प्रथम सुन महुर्त्तके दिन । नंदी स्थापना पूर्वक । सुविहित गुरुके समीप। वीश स्थानक तप । विधि पूर्वक उच्चरे । उली दो माससें लेके (या वत्) बम्मामें पूरी करे । (कदाचित् ) बम्मास मध्ये Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैनधर्मसिंधु. पूरी न कर सके (तो) वा उली गिणती में । न हीं। और नवी करणी पडे । एक उलीके वीस पद हे (तिहां) कोई वीस दिनसें । वीसों पद जूदा २ गिणें । कोई वीसों दिन में एकज पद गिणे । पू. सरे वीसों दिनमें दूसरो पद । (ऐसें) वीसों पद- . की वीस उली करे। तिहां पदाराधनके दिन प्रबल शक्तिवंत । अहम तप करिक श्राराधै । वीस अहमें एक उली होय । ऐसें वीसउली (४००) अहमें आराधै । और तिसमें हीनशक्ति बह तप करके श्रा राधैं । तिससे हीनशक्ति चौविहार उपवास करके ओराधे । तिससे हीन शक्ति त्रिविहार उपवास करके श्राराधे । हीन शक्ति आंबिल (तथा) त्रिवि हार एकासण करके आराधे । तिहां शक्तिवान प्रा णी। सब तपस्याके दिन अठ पहरी पोसह करे। (हीन शक्ति) दिन पोसह करे । वीसों पद पोसह सेती आराधे (जो) पोसह शक्ति सर्व पदमें न हो (तो) आचार्य पदे १ उपाध्याम पदे २ थिवर पदे ३ साधू पदे ४ चारित्र पदे ५ गौतम पदे ६ तीर्थ पदे ७ यह सात थानक तो पोसहज करके श्रारा धे । तथापि शक्ति नही (तो) तिस दिन देसावगासिक करे । सावद्य व्यापार त्यजे । सो पिण न होश (तो) यथाशक्ति तप करी आराधे । अपणी हीनतानावे (तथा) मृतक जातक का सूतकमें उ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिवेद. २१७ पवासादि तप गिणे न जावे । स्त्रीयां पिण ऋतु समय का तप न गिणे (तथा) तपके दिन पोसह सहित करे (तो) बहोत श्रेयकारी हे। सो नही होसके (तो) तपके दिन उजय टंक पमिकमणा करे। तीन टंक देव बंदन करे । दो सहस्त्र (२०००) एक पदका जप करे । ब्रह्मचर्य पाले। नूमि शयन करे। तपके दिन अतिसावध श्रारंन व्यापार न करे। असत्य न बोले । सब दिन तप पदके गुण कीर्तनमें रहे। (तथा) तपके दिन पोसह करे । (तो) पा रणे के दिन जिन नक्ति करके पारणो करे । करावे । नावना नावे । (तथा) तपकै दिन पदके गुण नेद प्रमाण संख्या काउसग्ग करे। (ता वन्मात्र) तिणकेगुण स्मरण पूर्वक खमासमण देई वं दनाकरे। उस पदका महिमा गुण याद करके उदात्त खरे स्तवना करे । हर्षित रहे। ॥ अब बीस स्थानक गुणनो और काउसग्गका प्रमाण लिखते है ॥ ॥ (णमो अरिहंताणं) (२०००) गुणनो। लोगस्स १५ काउसग्ग ॥ १॥ (णमो सिझाणं)(२०००) गुणनो । लोगस्स १५ काउसग्ग ॥२॥ (णमो पवय एस्स) (२०००) दो हजार गुणनो। लोगस्त ७ काउसग्ग ॥३॥ (णमो आयरियाणं) (२०००) दो हजार गुणनो। लोगस्स ३६ काउसग्ग ॥४॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनधर्मसिंधु. ( णमो थेराणं ) ( २००० ) दो हजार गुणनो । लोगस्स १५५ काउसग्ग ॥ ५ ॥ ( एमोजवज्जायाएं) दो हजार गुणनो । लोगस्स २५ काउसग्ग ॥ ६ ॥ ( णमो लोए सव्वसाहूणं ) (२०००) गुणनो । लो गस्स 29 का सग्ग ॥ 9 ॥ ( णमो नाणस्स ) २००० गुणनो | लोगस्स ५ काउसग्ग ॥ ८ ॥ ( एमो दंस एस्स) (२०००) गुणनो । लोगस्स ६७ काउसग्ग ॥ ए ॥ ( नमो विनयसंपन्नाणं ) ( २००० ) गुंण नो । लोगस्स १० काउसग्ग ॥ ( णमो चारित्रस्स ) ( २००० ) गुणनो । लोगस्स ६ काउसग्ग ॥ ११ ॥ ( णमो बंजवयधारीणं ) ( २००० ) गुणनो । लोग स्स ए काउसग्ग ॥ १२ ॥ ( एमो किरियाणं ) ( २००० ) गुणनो । लोगस्स २५ काउसग्ग ॥ १३ ॥ ( णमो तवस्सी ) २००० गुणनो । लोगस्स १२ काउसग्ग ॥ १४ ॥ ( णमो गोयमस्स ) २००० गुण नो । लोगस्स १० काउसग्ग ॥ १५ ॥ ( मो जि पाएं ) २००० गुणनो । लोगस्स १० काउसग्ग॥१६॥ ( णमो चरणस्स ) दो हजार गुणनो । लोगस्स १२ का सग्ग ॥ १७ ॥ ( एमो नांणस्स २००० गण नो । लोगस्स ५ काउसग्ग ॥ १८ ॥ ( णमो सुचना एम्स ) २००० गुणनो लोगस्स १० काउसग्ग ॥ १८॥ ( मो तित्थस्स ) २००० गुणनो । लोगस्स ५ का उसग्ग करे ||२०|| इतिवीस स्थानिक गुणनो संपूर्ण ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिबेद. १ए इत्यादि विधिसंयुक्त वीसों जैलीमें सब पदके उबव महोचव प्रनावना ऊजमणा पूर्वक करे । जि न साशनके उन्नति के कारण करे। इतनी शक्ति न हो (तो) एक उली (तो) विशेष उबवादि सहित करणी चाहिये ॥ इहां विधि प्रपाक ग्रंथसें बीस स्थानक सेवन विधि संक्षेप मात्र लिखीहै (जो) गुरुको संयोग हय । तबतो बिस्तारसें बीसों पदकी जूदी बिधि । गुरुके मुखसे समऊके करे जो गुरुका जोग न हो (तो) बिबेक संयुक्त इस बिधिकों देखके बीस स्थानक तप सेवन करे। बीस स्थानक तवन पढे (वा) सुणे । बीस स्थानकजी की पूजा करावे । अपनी शक्ति माफक बीस बीस ज्ञानोपगरण करावे । देव पदको देव खाते लगावे। ज्ञान पदको झान खाते लगावे । गुरु पदको गुरु महाराजकोदेवे । सब तीर्थो की यात्रा करे । साहमी बछल करे. ॥ इति वीसस्थानक तप विधि समाप्ता॥ ॥ मोदा करंडक तप ॥ उपवास, आयंबिल, नीवी, एकाशना, पुरिमव ए एक उली हुई एसें पांच वारली करनेसें पञ्चीस दिनसे यह तप पुरा करना, इस्मे नमो सिकाणं पदकी वीस नवकारवाली गुणनी. उद्यापनमे एक मब्बेमें नैवेद्य नरके जिनमंदिरमें ढोकना पूजा पढानी. ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनधर्मसिंधु. स्वर्ग करंगक तप ॥ प्रथम बारे एकाशना, नव नी · पांच ध्यायं बिल, एक उपवास, एसे २७ दिनसे यह " तप पुरा होता है. सिद्धाणं पदका गुणणा गुनना ॥ ॥ सौभाग्य सुंदर तप ॥ एक उपवास और एक श्रयं बलकी एक ली. एसें सोले उली करनी र्थात् बत्तीस दिनसे यह तप पूरा करना ॥ सिद्ध पद गुणना || उद्यापन उपर प्रमाणे करना. ॥ चोसहिया तप ॥ एकासना यांयं बिलकी एक उली एसी बत्तीस डेली करने से तप पूरा होय ॥ इस्मे सिद्धाणं पद गुणा ॥ ॥ अष्टाहिका तप ॥ एकेक जिनवरके पांच पांच कल्याणक के एकासने करनेसे चोवीस जिनके ९६० एकासने करने || जिस तीर्थंकरका कल्याणक होवे उसी जिनके नामकी नवकारवाली वीस गुएनी । यह कल्याणक तप जेसा तप हे परं अनुक्रम जिन्न हे ॥ उद्यापनमे चोवीश प्रकार के पक्कान्न चोवीश तिलक, प्रभु जिके सन्मुख रखना ॥ संघ पूजा करनी ॥ " ॥ बन्नु जिन तप ॥ श्रतीतानागत वर्त्तमान मी लके तीन चोवीशी तथा सीमंधरादिक वीश विहर मान जिन और चार शास्खते जिन मील बन्नु जिन यि एकेक उपवास करना और तिस तिस जि नके नामकी नवकार वाली गुपनी बन्नु दिनसे यह " Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिद. २२१ तप पूरा होता हे. उद्यापनमे उन्नवे मोदक मंदिरमें ढोकना गुरु नक्ति करना. ॥अष्टमी तप ॥ अष्टमी अष्टमीके दिन उपवास अथवा आयंबिल करके आराधना करनी. उद्या पनमे दूधसे जरा हुवा कलसके उपर श्वेत वस्त्र ढां कके तिसके उपर सक्कर के आठ मोदक रखके और ज्ञानोपकरण सहित कर्म दय निमित्त प्रतिमा वा पुस्तककी पास रखनेसे उद्यापन होताहे. इस्मे तपके दिन चंप्रन जिनाय नमः ए गुणना गुणना॥ ॥ अष्टापद पाहुडी तप ॥ आशोज अष्टमीसे पू र्णिमा तक आठ दिन एकाशना करना ॥ अष्टापद तीर्थायनमः ए पद गुणना उद्यायनमें जिन पूजा पढावी और नैवेद्यादिक ढोकन करना ॥ ॥अशोक वृद तप ॥ श्राशोजके मासमें एक उपवास एक एकासणा एसे तीस दिनका यह तप हे. सिझपदको गुणना. उद्यापनमे अशोक वृक्ष चां दिका बनाके मंदीरमे स्थापनकर पूजा पढानी. ॥ चांडायण तप ॥सुदि प्रतिपदासें एक उपवास एक आयंबिल एसे पनरा दिनका यहतपहे. सिद्धपद गुणना. उद्यापनमे पनरे लामु और चांदीकी चंद्र मूर्ति मंदरमे रखे और पूजा पढावे ॥ ॥ सूरायन तप ॥ कृक्ष पदके प्रतिपदासे उपवा स आयंबिल पनरे दिन तक करे. सिझाणं पद गूणे. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ হহহ जैनधर्मसिंधु उद्यापनमें पनर लामु और सोना अथवा चांदीकी सूर्य मूर्ति रखके पूजा पढावे ॥ ॥ तीर्थंकर वर्षमान तप ॥ यह तप आयंबिल अथवा नीवीसे किया जाताहे.प्रथम तीर्थंकरका एक श्रांयंबिल, दुसरे के दो, तीसरेके तीन चोथेके चार चोवीसमे के चोवीस करने. फिर चोवीसमेका एक, तेवीसमे के दो, बाईसमें के तीन यों पहिले जगवानके चोवीस आयंबिल करे. जो जो नगवानकी उली होय उस्के नामकी नवकारवा ली गुणे और पूजा करे. उद्यापनमे नैवेद्य चढावे । संघ पूजा करे देवगुरु नक्ति करे. . ॥जैन जनक तप ॥ निरंतर बत्तीस आयंबिल करनेसें यह तप पूरा होता है। उद्यायनमे बडे ग उमाठसे जिन पूजा करनी॥ निगोदायुदय तप ॥ एक उपवास एकासणा दो उपवास एकासना. तीनउपवास एकासना. दो उपवास एकासना एक उवववास एकासना. सिक पद गुणना । उद्यानमें. चोंदा मोदक वाटने और चौदा मोदक मंदरजीमे चढाने और पूजा करानी॥ ॥ कमल उलीतप ॥ एकांतर आठ उपवासकी एक उली करनी एसी नव उली एकहि वर्षमे कर नी चहीये. सिझपद गुणणा ओर उद्यापनमे सोना चांदीके नव नव कमल ढोकना गुरुनक्ति करनी. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद. २२३ ॥ मेरू कल्याणक तप ॥ एक तेला एक बिया सपा एक तेला एक बिसा एसे तीन तेले क रने. पीछे एकांतर बे उपवास करना. पारणेके दिन बियासना करना० जो पहिले तीन तेला न कर श के तो पहिले दों तेले करके बीचमे व उपवास क के बेल्ला एक तेला कर देवें. परं यहसब एक हि व र्ष में करना. इसमे यह नियम की मेरु त्रयोदशी के दिन बेल्ला तप होना चाहिये. इसमे श्रीषदेव पारंगताय नमः ए पद गुणना चहिये. यथाशक्ती - द्यापन अवश्य करना चाहिये. ॥ तप ॥ इसमे २० बेला करना और पारामे सिणा करणा. सब मील इस्के ४५८ उ पवास गिने जाते हे. सिद्धपद गुणणा ॥ उद्यापनमे ४५८ मोदक ढोकना. ॥ पद कमी तप ॥ पहिले एक उपवास पारणा. दो उपवास पारणा. एक उपवास पारणा ॥ प्रथम डेली ॥ एक उपवास पारणा दो उपवास पारणा. एक उपवास पारणा ॥ दुसरी जेली ॥ एक उपवास पारणा. दो उपवास पारणा. तीन उपवास पारणा. दो उपवास पारणा. एक उपवास पारणा ॥ तीसरी डेली ॥ एक उपवास पारणा. दो उपवास पारणा तीन उपवास पारणा. चार उपवास पारणा. तीन उपवास पारणा. दो उपवास पारणा. एक उपवास Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैनधर्मसिंधु. पारणा. सिझपद गुणणा ॥ उद्यापनमे मोति और प्रवाल चढावना । पुजा पढाना गुरुनक्ति करना ॥ सिकि वधू कंठानरण तप ॥ प्रथम दो. उपवास (बेला) पारणा. एक उपवास पारणा. तीन उपवास पारणा. दो उपवास पारणा. एक उपवास पारणा एसे नव उपवास करनेसे तप पूरा होता हे. सि, रूपद गुणना गुरु ज्ञान नक्ति करना ॥ ॥ रत्नारोहण तप ॥ एकाशन एक, नीवी एक. बायंबिल एक उपवास एक ॥ प्रथमावली ॥ नीवी, आयंबिल, उपवास, एकासन. ॥हितीयावली ॥ श्रा यंबिल, उपवास, एकाशन, नीवि. तृतीयावली ॥ उ, पवास, एकासण, नीवी, आयंबिल ॥ चतुर्थावली ॥ एक उपवास विगई, निविता रहित नीवी, आयंबिल ॥ पंचमावली ॥ इसतरे पांच श्रावलीसे रत्नारोह ण तप होता हे. सिझपद गुणना. उद्यापनमें रत्नमय नवकारवाली पांच, रत्नमय स्थापनाचार्य पांच, रत्नमय जिन बिंब पांच, मोदक वीस, इतनी वस्तु पुस्तकके पास ढोकना. तप के दिन ब्रह्मचर्य पाल ना. ज्ञान दर्शन चारित्रका आराधन करना. पारणाके दिन गुरु जक्ति करनी. अष्ट प्रकारी पूजा करनी. इस तपसे संतान प्राप्ती होती हे. गर्नश्राव होना बंध होता हे. श्राशोज सुदिपंचमीसे ए तप सरु करना. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद. २२५ ॥ आगमोक्त केवली तप ॥ त्र्यंबिल निरंतर दश, उपर एक उपवास, सिद्धपद गुणणा. उद्यापन में इग्यारे मोदक, इग्यारे श्रीफल, पुस्तकके पास ढोकनाष्टकारी पूजा पढानी गुरु जक्ति करनी ॥ ॥ अंग विशुद्धी तप ॥ आयंबिल तीन, नीवी ती न, एकासा तीन, एक उपवास अंतमे करना. सि ऊपद गुणणा. उद्यापनमे तेरे तेरे वस्तु पुस्तक के यागे ढोकना पूजा पढानी गुरु भक्ति करनी. ॥ पद्मोत्तरत॥ नव पांखडी के कमलकों पद्मकदतेहे. इस्मे नव उली करनी चहिये. एकेक जैली के निरंतर अथवा एकांतर आठ आठ उपवास करना. एसी नव ली करनी सिद्धपदगुणला. उद्यापनमें अष्टदल कमल सुवर्णका अथवा चांदीका नया बनाकर बिचमे गौतमस्वामीकी प्रतिमाका आकार करके स्थापन करना और अष्ट प्रकारी पूजा करना. श्रीसंघ औरगुरुनक्तिकरे. ॥ ॥ गणधर तप ॥वर्धमान स्वामी के इग्यारे गण धरके इग्यारह उपवास अथवा आयंबिल करना. उनके नामकी नवकार वाली गुणना. उद्यापनमे गुरुको इग्यारह वेश ( चारित्रोपकरण ) वेहेराना. संघनक्ति गुरुनक्ति और पूजा पढानी. ॥ माणिक्य प्रस्तारिका तप ॥ श्रशोज सुदी इ ग्यारसको उपवास. बारसकों एकासला. तेरसकी २२ " - Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनधर्मसिंधु. नीवी. चौदशका आयंबिल. पुनमका उपवासकरना. पागंतरमे दुसरी रीती यहहे की आशोसुदी बारसका आयंबिल. तेरसकी नीवी. चौदशका ए. कासणा. पुनमका उपवास. पुनमके उपवासके दिन उद्यापन करना सो यहरीतसे की पुनमके दिन सूर्योदय पहिले पवित्रहोके अपनी पसलीमे बानूषण श्रीफल, अक्षत लेके वाजित्रादि महोत्सव पूर्वक जिनप्रसादमे जाना. प्रथम प्रददिना करके उपरोक्त वस्तु ढोकना. फुसरी प्रदक्षिणामें बिजोरा ढोकनां. तीसरी प्रदक्षणामे तांबलपत्र सहित सुपारी ढोकनी. चतुर्थ प्रदक्षिणामे बकमो (अव्य) ढोकना. सात जातिके धान ढोकनां. लवण. कापम. कसुंब. कपास. पुरी १७ तांबे पीतलका बेहेमा ढोकनां. एकसो सोले दीपक करने. एक दीपकमे चांदीकी दीवट सुवर्णका कोडिया ढोकना. गुरुनक्तिसं घनक्ति करना. ॥ श्रुत देवता तप ॥ सुदपदकी एकादशीका उपवासकरना और मौनरहना. एसी इग्यारह एका दशी करनी. श्रुतदेवताकी पूजा करनी. उद्यानमे अपने घर सरस्वतीकी प्रतिमाकी प्रतिष्टाकराय के पधरावनी. और गठमाउसे पूजा पढानी ज्ञान ज्ञानीकी और संघकीनक्ति करनी. ॥ अंबिकातप ॥ कृष्ण पंचमीके दिन श्रीनेम Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद . २२७ नाथजी की पूजा पूर्वक अंबिका देवी की स्थापना करके एकाशन तप करके पूजा करनी. नैवेद्यफल ढोकना. एसे पांचवार करना. उद्यापनमें साधुजीको वस्त्र, छान्न, पान, बेहेराना. अंबिकाकी मुर्त्ति दोपुत्रसहित म्र वृक्षकेनीचे होय एसे देखा वकी करानी. ॥ मुकुट सप्तमी तप ॥ श्राषाढवदि सप्तमी के दिन उपवास करके श्रीविमल नाथजी की पूजा क a. कार्त्तिकवद सप्तमी के दिन उपवास करके श्री आदिनाथजी की पूजा करनी. मिगसर वदि ससमी दिने उपवास करके श्रीमहावीर स्वामी की पूजा करना. पोषवदि सप्तमीका उपवास करके श्री पार्श्वनाथ स्वामी की पूजा करनी उद्यापनमे लोक नालकी स्थापना करके मुकुट स्थानमे रहि जिना वलिको रत्न जति मुकुट चढाना. गवसें पुजा प ढाना एकेक जिनको सात सात वस्तु चढाना. ज्ञान गुरु संघकी नक्ति करना. ॥ स्वर्गस्वस्तिक तप ॥ चार एकासा निरंतर करके उपर एक उपवास करना. उद्यापनमे पांच जातिके एक कम धानके स्वस्तिक जिन मंदिरमे करा के पूजा पढावी. ज्ञान गुरु संघरक्ति करना. " ॥ शत्रुंजयमोदक तप ॥ पुरीमढ, एकासणा, नीवी. आयंबिल, उपवास निरंतर पांच दिन तक करना, Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनधर्मसिंधु. शत्रुजय नाम गुणना. उद्यापनमें पांचशेरगोधुमका एक लामु एसे पांच लामु चढावना ज्ञानगुरु संघ नक्तिकरना. ॥ सात सौख्य तप ॥ निरंतर सात एकासणा करके उपर एक उपवासकरना. उद्यापनमें सात मोदक ढोकना. आठमा मोदक चतुर्गुण बमाकरना । सोलजातिके पकवान चढाना. झानगुरु नक्तिकरना. ॥दीर समुष तप ॥श्रावणमासमे करना । निरंतर आठ एकासणा करके उपर एक उपवास करना. उद्यापनमे क्षीर खांड और घृतसे जरा हुवा थाल प्रजुकों ढोकना. ज्ञानगुरु संघ जक्तिकरनी. ॥ उमासी तप ॥ एकाशनांतरित यथाशक्तिरन्न उपवास करना. उद्यापनमे एकसो अस्सी मोदक मंदरमे चढाना. झान गुरु नक्ति करना महावीर स्वामीके नामकी नवकार वाली तपके दिन गुणनी. ॥ संवत्सरी तप ॥ एकाशनां तरीत ३६० उपवास करना ॥ षन देवजीके नामकी नवकारवाली गुणनी. उद्यापनमें चांदीका घट सेलडीके रससे नरके मंदीरमे चढाना. अक्षयतृतीयाके दिनपारणा श्रावे तेसे तप आदरना । ज्ञानगुरु संघकी नक्ति करनी ॥ ॥ अष्ट मासिक तप ॥ मध्यम बावीस तिर्थकर आश्रयिक एकांतरीत २४० उपवास करना. । जिस जिस जिन कातप आवे उन उनके नामकी नव. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिवेद. कार वाली गुणना. उद्यापनमे २४० मोदक चढाना झान गुरु नक्ति करे. ॥ चतुर्विध श्री संघ तप ॥ प्रथम दो उपवास ( बेला) करके एकांतरीत साठ उपवास करने । उद्यापनमे चतुर्विध श्री संघकी और ज्ञान गुरु नक्ति करनी. ॥ श्रष्ट कर्मोत्तर प्रकृति तप ॥ ज्ञानावरणीनी उत्तर प्रकृति ५, दर्शना वर्णीनी नव, वेदनीकी दो, मोहिनी कर्मकी अहाइस, आयुकर्मकी चार, नाम कर्मकी एकशोतीन, गोत्र कर्मकी दो, अंतरायकमकी पांच, सब मील १५७ प्रकृतिके १५७ उपवास एकाशनांतरित करना. एसे करनेसें एक उली हुइ. एसी श्रापली करनेसे यह तप पुरा होताहे सिक पद गुणणा. उद्यापनमे १५७ मोदक जिनमंदिरमे चढावणा. ज्ञानपूजा गुरुपूजा संघपूजा करनी. पूजा पढावणी॥ ॥हार तप ॥ प्रथम दो उपवास करके एकाशनांतरित सात उपवास करना. पी जपवास तीन ( तेला) करके एकाशनांतरित सात उपवास कर ना. अंतमे बेला करना. एवं तपो दिन एक वीस और पारणा सत्तर होय. सिझ पद गुणना, उद्यापनमें सुवर्ण, माणक, मोति, विजुम, रजत, पदक काहबीका सहित हार बनाके वर्धमान स्वामीको Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैनधर्मसिंधु चढाना. अथवा सुवर्ण हार बनाकै कंहारोपित करना । ज्ञाननक्ति गुरुनक्ति संघनक्ति करना. ॥ अहव दशमी तप ॥ प्रत्येक वर्षकी नाजवा सुद दशमीके दिन यथा शक्ति उपवासादि तप करके अंबिकादेवी के पास संगीतादिक करके रात्रि जागरण करना. मोदक फल पुष्पादिक ढोकना. धूप दीपादिक करना. अगले दिन स्वामी वत्सलकरके मुनिको दान देके पारणा करना. रेशमी चुनमी च. ढानी. एसे दशवर्ष करना. दूसरे वर्ष फलादिक छगुने चढाने. तीसरे वर्ष तीगुने चोथेवर्ष चोगुने च ढाने. ज्ञान गुरु संघनक्ति करना ॥ लघु संसार तारण तप ॥ निरंतर तीन आयं बिल करके एक उपवास करणा. सिझपद गुणना. एसे तीन उली करते बारे दिनसे तप पुराहोय. ॥ वृक्षसंसार तारण तप ॥ निरंतर तीन उपवा स ( तेला) करके एक आयंबिल करना. सिझपद गुणना. एसी तीन उली करनी. इस्मे नव उपवास तीन आयंबिलसे तप पूरा होय. उद्यापनमे चांदी का जाहाज बनाके एक थालीमे उधनरके सुधमे जहाज तिरानां. जहाजमे मोतिमुंगा रखना. वा मीवबल ज्ञानगुरु नक्ति करना. पूजा पढाना ॥ लाखी पमवा तप ॥ कार्तिक सुदि प्रतिपदाके दिन गौतमखामीके नामका उपवास करना. गौतम स्वामी Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीपरिजेद. ३१ के नामकी नवकार वाली गुणनी ॥ एक वर्षकी बा रे सुद पडवाको इसीतरें तपकरना । द्वितीयाको फुध चावलसे पारणा करना. समाप्तीके उद्यानमे पांच पांचसेर सवजातिके धान मंदिरजीमे ढोकना पूजा पढानी. ज्ञान गुरु संघजक्ति यथा शक्ति महो त्सव करना यह तप करनेसे सौजाग्यकी प्राप्ति होय अहावीस लव्धीकी प्राप्ती होती हे॥ ॥ परतपाली तप ॥ पंचवर्ष यावत श्रीवीर निणसे प्रारंज कर तीन उपवास करना पीछे बत्री स नीवी करनी समाप्तिमे तीन उपवास करना. प्र. तिवर्ष पांचसेरकी लापसी सुगंधीदार बनाके स्थाल मे जरके महोत्सव पूर्वक ढोकना. ज्ञान गुरु संघन क्ति प्रनावना करना. वीरनामगुणना ॥ ॥ त्रिपर्यंत घन तप ॥ १. २-३. ए प्रथमली . २.१.३. ए हितीयाउली. ३. २. १. ए त्रतीया - ली. १. ३. २. ए चतुर्था उली. २. ३. १ ए पंचमी उली. ३. १. २. ए बही उली. १. २. ३. ए सातमी जेली. ३. २. १. अष्टमी उली. २. ३. १. नवमी उली. सबमील तपोदिन ५४ पारणे दिन सर्व दिन १ उद्यापनमें ज्ञानगुरु साधर्मिक नक्तिन ॥ वर्ग तप ॥ १.२.१.१.२. १. १. २. ए उप वाससे प्रथमऊली. २. १. १. २. १.२.२. १. दूसरी उली. २. १. १. २. १. २.२.१. तीसरी उली.१.२. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३५ जैनधर्मसिंधु. २. १. २. १. १. २. चौथी उली. २. १. १. २. १. २. २. १. पंचम उली- १. २. २. १. २. १.१.२. बही उली. १. २. २. १. २. १. १. २. सातमी जेली. २. १. १. २. १. २. २. १. अष्टमी उली. सिझपद गुण ना. तपोदिन ए६ पारणा ६४ पांचमास दश दिनको यह तप पुरा होता हे. उद्यापनमे जिन पूजा. गुरु नक्ति साधर्मिक वात्सल्य करना. ॥श्रेणितप ॥ १. २. प्रथम पंक्ति. १. २. ३. कु. सरी पंक्ति. १. २. ३. ४. तिसरी पंक्ति. १. २. ३.४. ५. चतुर्थ पंक्ति. १. २. ३. ४. ५. ६. पंचम पंक्ति. १. २.३. ४. ५. ६. ७. बही पंक्ति. उश्रेणिमे उपवास ३ श्रावे. पारणा २७ सबमील ११० दिवसे तप पुरोहोय. उद्यापनमें सात कोणेका धवल गृह करना, सुवर्णमय निसरणी करणी. जिनमंदिरमे ढोकना. उद्यापनमेंशज्ञानगुरु साधर्मिक नक्ति करना. ॥ घन तप ॥ १.२., १. २., २. १., १. २. एसे बारे उपवास और श्राप पारणासे वीस दिनमे यह तप पुरा होय. सिकपद गुणे. उद्यापनमे २० मोदक चढावे. ज्ञानगुरु साधर्मिक नक्ति करे. ॥ निर्वाणदीपक तप ॥ तीनवर्षतक । दीपमालि काकी चौदश अमासका उपवासकरे. अहोरात्री अखं मदीपक रखे. रात्रिजागरणकरे। वीर प्रजुके नामकी नवकारवाली गुणे. उद्यापनमे ज्ञान गुरु जगति करे. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयपरिछेद. २३३ ॥ बत्रीस कल्यानक तप ॥ प्रथम एक अहम करके पीछे बत्तीस एकांतर उपवास करना और अंतमे एक अहम करना. इस तपमे आमतीस उपवास और चोत्तीस पारणे होते हे. दोमास बारे दिनसे तप पूरा होताहे. सिद्ध पदगुणना. उद्यापनमे जिनगृहमे बत्तीस बत्तीस वस्तु ढोकनी. ज्ञान गुरु संघ नक्ति करनी.यह तप वसुदेवहिंडी में लिखाहे. ॥ कर्म चक्रवाल तव ॥ प्रथम एक अहम करके एकांतर एक शह उपवास करने और अंतमे एक अहमकरना. ६१ उपवास और ६३ पारणेसें चारमास दशदिनकों तप पूरा होताहे. सिझपदगुणणा. उद्यापनमे आह आह वस्तुजिन मंदिरमें ढोकना. झान गुरु संघ नक्ति करना. ॥ शिव कुमार बेला तप ॥ इसमे बारे बेला (5) निरंतर अथवा सांतर करना. सिझपदगुणना. पारणेमे यथा शक्ति आयंबिल करना. उद्यापनमें बारबारे वस्तु जिन मंदिरमे ढोकना. ज्ञान गुरु संघकीनक्ति करना. ॥कर्म चूरन तप ॥ प्रथम एक अहम करके सात एकांतर उपवास करना और अंतमें एक अहम करना. ६६ उपवास और ६५ पारणा चारमास आठ दिनको यह तप पुरा होताहे. उद्यापनमें आशाखा सहित चांदीके वृक्षको सुवर्ण कुलामी Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैनधर्मसिंधु. सें बेदन करना. सिद्धपदगुणना. ज्ञान गुरु संघ जक्ति करना. ॥ खं दशमी तप ॥ सुक्ल पक्ष की दशमी के दिन एकाशनादि तपकरनां सिद्धपदगुणना. एसी दश एकादशी करनी तपके दिन अखंड अन्नका जोजन करना. उद्यापनमें दश जातिके धान्य फल पकवान जिनमंदिरमें ढोकन करना. शुध्ध वस्त्र चढाना ज्ञान गुरु जक्ति करना. यह तपके करनेसें विधवा न होय एसा महिमा हे. ॥ श्रमृताष्टमी तप ॥ सुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन आयंबिल करनां एसी आठ अष्टमी करना. सिद्धपदगुणना. देवपूजा करनी उद्यापनमे दूधसे जरा कलस एक, कंचुकी नवीन एक, मोदक एक, जल घट एक, जिन मंदिरमे चढाना ज्ञान गुरु संघ नक्ति करना. ॥ सत्तरी सय जिन तप ॥ सित्तेरसय जिन श्राश्रयि एकसो सित्तर एकांतर उपवास वा एकासना करना । गुणा गुरु मुखसे धारके जपना. उद्यापनमें एकसो सितर श्राविकाको जिमाना ज्ञान गुरु जक्ति करना. · ॥ दुःख दुःखित तप ॥ सुद पक्षकी प्रतिपदाको पहिला उपवास, सुद डुजका दुसरा, सुद तीजका तीसरा उपवास, यह प्रथम जेली. एसी Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेद. २३५ पांच ली करनी. सिद्धपद गुणना. तपके दिन रूषनदेवकी मूर्तिको अखं पुष्प माला चढानी. नवीन नवीन नैवेद्य ढोकना उद्यापनमे एक चांदीका वृक्ष बनाके उस्की शाखामे सोनेका पारणा लटकावै. रेसमकी पाटसे रेसमी तलाइ रखके उसमे सुवर्ण मय पुतली रखके जिन मंदीरमे ढोकना. रुषदेवकी पूजा करना. ज्ञान गुरु संघनक्ति करना. ॥ पंचमेरु तप ॥ एक मेरुके एकांतर पांच उपवास करना. सुदर्शन मेरुका नाम गुणणा. दुसरे बखत पांच उपवासमे विजय मेरु गीणना. तीसरे पांच उपवासमे अचल मेरु गिणना | चोथी वारके पांच उपवासमे मंदिर मेरु नाम गिणना. पांचमी वार पांच उपवासमें विद्युन्माली मेरु नाम गिना. इस्मे निरंतर करेतो २५ उपवास और २५ पारणा मिलके पचास दिनमे तप पूरा होय. उद्यापनमे सुवर्ण मय मेरु बनाके मंदीरमे रखना. २५. २५. बस्तु ढोकना. ज्ञान गुरु संघ जक्ति करना. ॥ बडा समवसरण तप ॥ प्रथम चार उपवास करके पारणे एकासा न बनेतो बियासणा करणाएसी चार डेली करते पजुषण की पंचमी के दिन पारणावे तेसें तप करणा. एसे चार वर्ष करने से ए तप पुरा होता. उद्यापनमे यथा शक्ति ज्ञान गुरु संघक्ति करे. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनधर्मसिंधु ॥ मोक्ष दंडक तप ॥ गुरुके हाथमे रखनेका दंडक अपने हाथ में लेके अपनी मुट्ठीसे जरना जितनी मुट्ठी होय उत्तना एकांतर उपवास करना. अथवा दूसरी विधि यह दे की एकासा बार, नीवी नव, आयंबिल पांच, उपवास एक, एवं सत्तावीस दीन तप करना. सिद्ध पद गुणना उद्यापन में बेल्ले उपवास के दिन एक थाल मे चावल जर श्रीफल रोकमं द्रव्य रखके वाजित्र सहित गीतगाते गुरुके पास जाके दंडकी पूजा करके थाल जेट करना. वस्त्रादिक वेराना. ज्ञानकी संघकी जक्ति करनी. ॥ दवयंती तप ॥ एकेक जिन श्राश्रयी वीस प्रायंबिल करना. एसी चोवीस ली करना. यह बना तप होनेसें एक पच्चीसमी उली शासन देवीके ना. मकी करनी और गुणणा अनुक्रमसे जिस जिस जिनकी उली होय तिस्का नाम गुणा और शासना देवीकी उली मे शासना देवीका नाम गुण या. इसमें पांच आयंबिल और चोंवीस पारणा होते हे. उद्यापनमें चोवीश जिनकी पूजापढानी. चोवीश तिलकचढाने. पांचसे मोदक चढाने और यथाशक्ती ज्ञान गुरु साधर्मिकन क्ति अवश्यकरना. . ॥ जलोदरी तप ॥ पुरुषको बत्तीस और स्त्रीको. ठावीस कवलका आहार होताहे तिस्मे यथा शक्ती न्यून करना उस्कों लोक प्रवाहमें उनोदरी Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीपरिद २३७ तप कहतें हे. प्रथम दिन श्राफ दूसरे दिन बारे तीसरे दिन शोले, चोथे दिन चोवीस, पांचमे दिन एकत्रीस, कवलका आहार करणा और एकासणा का पचखान करना. सिक पद गुणणा. सब मिलके पुरुषको १ स्त्रीको न् कवल आहार पांच दिनमें लेणा. उद्यापनमे कवलकी संख्या प्रमाण मोदक चढाना. ज्ञान गुरु संघनक्ति करना. ॥निर्वाण तप ॥ श्रादि नाथजीके निर्वाणके ब उपवास करना. वीर प्रजुके निर्वाण पर उपवास दो करने. शेष तीर्थ करके निर्वाणके एकांतर उपवास तीस तीस करने. जिन जिन तीर्थ करके निर्वाणका तप, चलता होय तब उन उन तीर्थ करके नाम की नोकार वाली गुणनी. उद्यापनमे चोवीस तीलक, चोवी पक्कान, चोवीस फल, चोवीस संख्यामे सर्व वस्तुयें ढोकनी. ज्ञान गुरु श्री संघकी नक्ति करनी. ॥केवल ज्ञान तप ॥ श्रीश्रादिनाथजी, महीनाथजी, पार्श्वनाथजी, नेमनाथजी ए चार तीर्थंकरोके केवलझान कल्याणक के तीन तीन उपवास करने. वासुपूज्यज्यस्खामीका एक उपवास और सब उन्नीस तीर्थकरोंके दोदो उपवास करने. सबमील ५१ उपवास करने. उद्यापनमें ५५ मोदक फल, फूल, नैवेद्य, ढोकना गुरुनक्ति करना Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैनधर्मसिंधु. ॥ जिन दीदा तप ॥ वीस तिर्थकरोने दीक्षा समय बह कीये तिस्के बेले करने. वासुपूज्यका एक उपवास. महीनाथ पार्श्वनाथजीके तीन तिन उपवास करना. सुमतिनाथ स्वामीके नामका एका शना करना. सबमिल ४७ उपवास एक एकाशणा होताहे. उद्यापनमे ४ मोदकादिक चढा वने अष्ट प्रकारी पूजा ज्ञान गुरु नक्तिकरना. ॥ जिन चवन जन्म कल्याणकतप ॥ एके के जि नके चवन कल्याणक के उपवास करणा. जिनजिन तीर्थरका तप होय तिसदिन तिनके नामकी नवकारवाली गुणे. उद्यापनमें चोवीस चोवीस चीजे चढावे ज्ञानगुरु जक्ति करे. ___गौतमपमघातप ॥ पंदरे पूर्णिमा पर्यंत एकाशनादितप करना. गौतमस्वामिकी प्रतिमाके पास की रका पात्र नरके ढोकना अष्टप्रकारी पूजा करनी. गौतमस्वामीकी प्रतिमाकै अनावे महावीर स्वामी की पूजाकरनी. उद्यापनमें चांदीका पमघा (पात्रे ) दीरजर के गौतमस्वामी अथवा महावीरस्वामिके पास ढोकनां गुरुजीको जोली पात्रे प्रमुख देनां. ॥ लघुपंचमी तप ॥ सुदी और वदीकी पंचमीका उपवास करना नमोनाणस्स गुणणा. एक वर्षके चोवीस और एक उपर उपवास करके २५ उपवाससे यह तप पूराकरना. यथाशक्ति उद्यापन करना। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिछेद. २३ए यह तप पौष अथवा चैत मासमे सरु नहि करना. पंचमी तप ॥ पांच वर्ष और पांच मास तक सु. दि पांचमीका चोवी हार उपवासकरना. नमोनाण स्स पद गुणना. यथाशक्ति उद्यापन करना. यहतप कार्तिक मिगसर, माघ, फालुन, वैशाख, जेष्ट, श्राषाढ, ए सात मासमेंसे हरेक माससें सिरु कीया जाता है। श्रखंड करना उद्यापन करना. ॥ पुंगरीक तप ॥ चैत्री पुनमके दिन उपवास करके पुंगरीक गण धरके नामकी नवकार वाली गु णे और पुजा करें एसे सात वर्ष करे. उद्यापनमे अगणित श्रावकोंको जिमावे अथवा प्रनावना करे अगणित अव्यसे ज्ञान नक्ति करे अगणित अन्न पान मुनिको वेरावे । जो चिज दीजावे सो गिणनानहि योंहि पसली नरके वेरावे । और प्रजावनानि पस ली जरके देवेपरंगिनेनही. ॥ गुणरत्न संवत्सर तप ॥ यह तप के सेवन करने वालोंको दिवसमें उक श्रासनमे रहना और रात्रिकों वीरासनसें रहना चहिये (वस्त्र रहित रह ना.) यह तप शोलेमासतक करना.तिस्मे प्रथम मा समे एकांतर उपवास करना मुसरे मासमें दो दो उपवास पारणा करना. तीसरे मासे तीन तीन उपवास पारणा करना. चोथा मासें चार चार उपवास उपर पारणा करना. एसें एकेक मासें एकेक Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैनधर्मसिंधु. दिन तपका बढाते जानां. एसे शोल मास तप करनां. शोले मासमे सब मिल ४७ दिन उपवास श्रावेगे. सब मिलके ७३ पारणा होतेहे. सिक पद गुणणां उद्यापन यथाशक्ती॥ आयंबिलवई मान तप ॥ प्रथम एक आयंबिल करके एक उपवास, दो आयंबिल करके एक उपवास, तीन श्रआयंबिल करके एक उपवास, चार आयं बिल करके एक उपवास एसे एकेक आयंबिल वढाते जांनां यावत् एकसो आयंबिल पर्यंत बढानां. सों थायंबिल उपर एक उपवास करें यह तपमे सबमिल एकसो उपवास थावें और पांचहजार पचास आयंबिल होतेंहे. ए महा तपका सेवन चौदेवर्ष, तीनमास और वीस दिनसें पूरा होताहे. उद्यापन यथा शक्ती करे. ॥अक्षयनिधि तप ॥ घर देरासरमे अथवा उपाश्रयादि उत्तम स्थानमे विचित्र चित्रित घटस्थापन करें तीस्मे प्रतिदिन मुठीनरके चावल और यथाशक्ति अव्य मालतें जाय. यथाशक्ति एकाशनादिक तपकरे. पजुसणके पनरे दिन पहिलें एतप सरुकरे पजुसणमे तप समाप्ति होय तेंसे आदर करें. पजुसणमे घटपूर्ण जर जाय और तपनि पूर्ण होय.पूर्ण होनेसे ऊपर श्रीफल वस्त्र मौली बांधके वाजिनादि महोत्सव पूर्वक मंदिरमें लाकें रखें और स्नानादि Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयपरिछेद. २४१ पूजा पढावें. ज्ञान पूजा गुरू पूजा करे. एसें चारवर्ष पर्यंत करे. उद्यापनमे त्रिपक्षिणी करके देव आगे ढोकना. यथाशक्ती महोत्सव करना ।। ___चांडायण तप॥ चंडमाजेसे सुक्लपक्षमे एकमके दिनसे बढता है तेसे पमवाके दिन एक कवल, उजके दिन दो कवल, तीजके दिन तीन कवल, चोथके दिन चार कवल एसे एकैक कवल पुनमतक बढावे. पुनमके दिन पनरे कवल श्राहार करे. कृष्णपदके चंउमाकी रीतिसे एके क कवल घटाते यावत् अमावास्याकों एककवल आहार करे एसें यवमध्य प्रतिमां तपत्नी इस्को कहतें है. यह चांडायण, यवमध्य तप एक मासकाहे. उद्यापनमें चांदीका चंग और सोनाके बत्तीस यव बनाके मंदिरमे चढावे और ज्ञान पुजा गुरू पूजा संघ पूजाकरे । अष्टप्रकारी पूजा पढावे. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैनधर्मसिंधु तृतीय परिवेद प्रारंनः। अथ श्रावकोंकी दिन चर्या कहते हैं. ॥ चिदानंद स्वरूप, रूपसे रहित, रक्षक और परम ज्योतिरूप, एसे सिर्फ परमात्माकों मेरा नमस्कार हो. मनः शुछिकों धरने वाले योगीश्वरों, ध्यान रूपी दृष्टि करके जिस्का स्वरूपकों देखतेहें; एसे परमेश्वरकी में स्तवना करताडं.प्राणिगण सुख समूहकों चाहतेंहें. और सर्व सुख समूह मोदमेंहे. वो मोदपदकी प्राप्ति ध्यानसें होतीहे. और ध्यान मनकी शुद्धीसे होताहे मनोशुद्धी कषायोके जयसेंहोतीहे कषायोंका जय इंडियोंके विजयसें होताहे. इंडियोंका विजय सदाचारसें होताहे. गुणोंका निबं. धन करानेवाला सदाचार समुपदेशसे प्राप्त होताहे. समुपदेशोंसें समृद्धिकी प्राप्ति होतीदे समृद्धि प्राप्त होनेसे सर्वत्र गुण प्राप्त होनेका उदय होताहे. सद्गुणोके उदयकी प्राप्तिके लिए श्राचारोंपदेश नामक ग्रंथकी रचना करी जातिहे. सदाचारके विचारोका निरूपण करने में रुचिकारक, विचक्षण पुरुषोको मनन करने योग्य, देवानु प्रियोंकों अत्यानंदकारी, यह ग्रंथ; पुण्यवंत प्राणियोको, विशेष श्रवण करने लायकहै. ___ अनंत पुजल परावर्ती करके पुनः उष्प्राप्य यह मनुष्य जन्मको प्राप्त होके विवेकी प्राणिकों धर्म Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिच्छेद. २४३ उपर अवश्य श्रादरवंत होना चहिये. क्योंकी सुननेसे, देखनेसें, करनेसें, दूसरोंसें करानेसें, अनुमो दनेसें यह धर्म सातों कुलकों निश्चय पवित्र करताहे. धर्म, अर्थ, काम, यह तीन वर्गके साधन विना यह मनुष्य जन्म पशुवत् निष्फल हे. तीन वर्गके साधनमें धर्म वर्गको अधिक साधन करना क्योंकी धर्मवर्ग बिना और काम न प्राप्त होशक्कें हे मनुष्यजव, यार्यदेश, उत्तमजाति, सर्व इंद्रियोंकी सुदृढता, परिपूर्ण दीर्घायुष, इतनी चिजें विना पुण्य प्राप्त न होशक्ती दे. कदापि पुण्ययोग सें उपरोक्त मील शक्तेदें. तथापि वीतरागके वचन पर श्रद्धा होनी दुर्लन हे. कदापि श्रद्धा होती है तथापि सुगुरुका योग सुपुष्य विना मिल शक्ता नही है. न्याय राजा, सुगंधसे पुष्प, उत्तम पदार्थसें, जोजन ज्यों शोजनीक होताहे त्यों उपरोक्त वस्तु जी सदाचार सेंहि शोजनीक होती है. सदाचार तत्पर पुरुष शास्त्रोक्त विधिसें परस्पर विरोध करके तीनों वर्गका खुसीसें साधन कर शक्ता हे. पंकित पुरुष रात्रिके चतुर्थ प्रहरसें वा पीबली दो घमी रात्रि उठे. निद्राको त्याग कर पंचपरमेष्टी मंत्र पढे. दक्षिण अथवा वाम दोनोमेंसें जो नाशिका वहती होय उस तरफका पग शय्यासें उती बख्त प्रथम धरती पर धरे. शय्याकों और शयन के वस्त्रोंका त्याग करके दूसरे शुद्ध वस्त्र Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनधर्मसिंधु. पहिन सुस्थान पर बेठके पंचपरमेष्टीका ध्यान करे. पूर्व अथवा उत्तर दिशा सन्मुख बेठके शरीर और स्थानकी शुद्धि करके मन समाधिसे जाप करे. पवित्र हो किंवा अपवित्र हो. सुस्थित हो वा दुःस्थित हो परं पंचपरमेष्टी नवकारमंत्र के जपने सें प्राणि सर्व पापसें रहित होता है. अंगुली के छाय नागसें, मेरुकों उल्लंघन करके, संख्यारहित, जो जाप करे सो प्रायः अल्प फल कारक होता है. उत्कृष्ट, मध्यम, अधम ए तीन प्रकारके जाप कहे जातें है. उसमें कमलादिक विधिसे जाप किया जायसो उत्कृष्टहे. जपमाला से जाप किया जाय सो मध्यमदे. विना मौन, विना संख्या, विना चित्त स्थिर रख्खे, विना अचल यासन, विना ध्यान जो जाप किया जाय सो अधम जाप कहा जाता है. पीछे गुरुके पास जाके अथवा अपने घरमें अपने पापकी शुद्धी के वास्ते श्रावश्यक ( प्रतिक्रमण ) करे. रात्रिके पापकी शुद्धीके वास्ते राई, दिनके पा पकी शुद्धी के वास्ते दैवसिक, पनरे दिनकी शुद्धीके वास्ते पाहीक, चारमासके पाप. शुद्धीके वास्ते चोमासी, बारमासके पापकी शुद्धीके वास्ते सां वत्सरीक; एसें पांच प्रतिक्रमण कहेहे. प्रतिक्रमण करके, कुल क्रमकों याद करके, हर्षित चित होके मंगल स्तुतिका पाठकों याद करे. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिच्छेद . मंगलाष्टक. मंगलं जगवान् वीरो, मंगलं गौतमः प्रभुः ॥ मंगलं यूलिनप्राद्या, जैनो धर्मोस्तु मंगलं ॥ १ ॥ नायाद्याः जिनाः सर्वे, जरताद्या श्च चक्रिणः ॥ कुर्वंतु मंगलं सर्वे, विष्णवः प्रति विष्णवः ॥ २ ॥ नाजि सिद्धार्थ भूपाद्या, जिनानां पितरः स मे ॥ पालिताखंग साम्रज्या, जनयंतु जयं मम ॥ ३ ॥ मरुदेवी त्रिशलाद्या, विख्याता जिन मातरः । त्रिजगऊ नितानंदा, मङ्गलाय जवंतु मे ॥ ४ ॥ श्रीपुंमरी केंद्रभूति, प्रमुखा गण धारिणः । श्रुत केवलिनो पीह, मंगलानि दिशंतु मे ॥ ५ ॥ ब्राह्मी चंदन बालाद्या, महासत्यो महत्तरा । अखं शील लीलाद्या, यछंतु मम मंगलं ॥ ६ ॥ चक्रेश्वरी सिद्धायिका, मुख्य शासन देवताः । सम्यग्दृशां विघ्नहरा, रचयंतु जय स्त्रियं ॥ ७ ॥ कपर्दी मातंग मुख्या, या विख्यात विक्रमाः । जैन विघ्नहरा नित्यं दिशंतु मंगलानि मे ॥ ८ ॥ यो मंगलाष्टक मिदं पटुधी रधीते, प्रातर्नरः सुकृत जावित चित्त वृत्तिः ॥ सौाग्य जाग्य कविता धुत सर्वविघ्नो, नित्यं स मंगल मलं लजते जगत्याम् ॥ ॥ पीठें मंदिरजी मे जाके निःसही कहके सर्व श्र शातनाका त्याग करके तीन प्रदक्षिणा देवे. विलाश, २४५ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैनधर्मसिंधु. हास्य, थुक (बलगम) का गिराना, निजा, कलह, विकथा, चार प्रकारका आहार, जिनमंदिरमे नहि करना. "हे जगन्नाथ तुमकों नमस्कार हो” इत्यादि स्तुतिका पाठ बोलके फल, अक्षत, सुपारी, जिन. राजके सन्मुख रख्खे. राजा, देव, गुरु, निमित्त शास्त्र वेत्ता इनके पास खाली हाथसें नहि जाना क्योंकी फलसें फल मीलताहे. जगवंतके दक्षिण नागमे पुरुष, दहिने नागमे स्त्री नव श्रथवा साठ हाथ दूर रहकर वंदना करे. पीछे उत्तरासण लगाके, योगमुखासें बेठके, मधुर ध्वनीसे चैत्य वंदन करे. पेटके उपर दो हाथकी कोणी रखकर, कमल डो. डाके आकार दोहाथकी दश अंगुलीयों संयोजित करे उनको योगमुखा कहतेहे. पीछे अपने घर जाके प्रातः क्रिया करे (जोजन, वस्त्र, घरके परिवारकी यथायोग्य व्यवस्था करे.) बांधव, नोकरों प्रमुखोंकों अपने अपने कार्यो में नियोजित करके बुद्धिके आठ गुण धारक पौषध शालामें जावें. शुश्रुषा (गुरुकी सेवा) श्रवण (उपदेशका सुनना) ग्रहण (स्वीकार करना) धारणा ( याद रखना) उहा (तर्क करना) अपोह (शमाधान करना) अर्थ (श्रनिप्राय समजना) तत्वज्ञान (तत्वसमजना) यह बुद्धीके श्राप गुण हे. धर्मका जाणकार होना, उ. बुछिका त्याग करना, ज्ञानको प्राप्त होना और Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिबेद. २४७ वैराग थाना ए सब सुननेसे प्राप्त होतेंहे. श्राचार्य और साधुओंकों पंचांग नमस्कार करके याशातना त्याग करके गुरुके सन्मुख बेठना. दों ढीचण, और दो हाथ लगाया हुवा मस्तक, धरतीपर टिकायके नमस्कार करनेको पंचांग नमस्कार कहतेंहें. ___ पलांची बांधके, लंबे पग पसारके, पग उपर पग चढाके, दो कांख दिखाते, अगामी, पीबाडी, बरोबर दोनुं तर्फ, गुरुके पास बेठना नहीं. अपनेंसे पूर्व आए हुवेकी बातें पूर्ण हुवे विना गुरुको बुलाना नही. श्राशयका समजदार गुरुके मुख सामने दृष्टि रखकर चित्तकी एकाग्रतासें धर्म शास्त्र सुने. वाख्यान पूर्ण हुवे पी अपनी शंकाका समाधान करे (पु) और देव गुरुके गुण गाने वाले (नाट जोजक ) को यथोचित दान देवे. जिस्ने प्रातः प्रतिक्रमण न किया होय सो वांदणा देके गुरुको वांदे। धर्मप्रिय श्रावक नवकारसहीत प्रमुख यथाशक्ती पच्चरकाण करे. दान देनेवालेनी जोबत पञ्चरकाण न करेतो तिर्यंच योनीमें उ त्पन्न होते. हाथी घोडा प्रमुखमे उत्पन्न हो केली बंधनमें पमतेंहे. जो दाताहे सो नरकमें न जाय. जो व्रत पञ्चरकाण करता हे सो तिर्यंच न होय. जो दयावंत होय सो हीन आयुष्य न होय. सत्यवादी होय सो उखर (उष्ट अवाजबाला) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ जैनधर्मसिंधु न होय. तपश्चर्या हे सो सर्व इंडियों रुप मृगको वश्यकरनेमे जाल ( फांसा ) समान हे और कषाय रुप तापको मिटानेके लिए प्रादासमान ह फिर कर्म रूप अजीर्णको मिटानेके लिए जातिवंत उत्तम हरडे समान हे. जो दूरहे, कुराराध्य (फुःखसें मिलने लायक ) हे, देवताओंकोजी जो उर्लजहे, सो सब तपसे मिल शक्ताहे. क्यो कि तपकों कोई उलंघन करने समर्थ नही. पी. बजारमें जाके अपने अपने कुलके उचित अव्यो पार्जनका उद्यम करे. मित्रोंके उपकारके वास्ते, बांधवोके उदयके वास्ते, न्यायवंत न्याय लक्ष्मीका उपार्जन करे. क्योंकी केवल अपना पेट कोन नही जर शक्ता हे ? नीच जनोचित व्यापार करना नही और दूसरोंसें जी कराना नही. क्योंकि संपदा पुण्यकर्मसे बढतीहे परं पापसे बढती नहि.कदापि पाप व्यापा. रसे लक्ष्मी बढे परं उसका परिणाम श्रला नहीहे. जिस व्यापारमे बहुत श्रारंजहोय, महापापहोय, लोकमे निंद्याहोवे एसा होय, श्ह लोक परलोकसे विरुरू होय एसे व्यापार (काम) नही करने. लोहार, चमार, मदिराकार, तेली, प्रमुख नीच जनो से अधिक लान होय तोजी व्यवहार नही रखना. एवं चरन् प्रथम याम विधि समयं । श्राको विशुफ विनयो नय राजमानः ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिजेद. २४ए विज्ञान मान जन रंजन सावधानो। जन्म घ्यं विरचये त्सकलं स्वकीयम् ॥१॥ इति दिनचर्यायां प्रथम वर्गः समाप्तः ॥ ॥ अथ द्वितीय वर्गः । प्रारज्यते ॥ दूसरा प्रहर दिन चढते अपने घर आयके विचक्षण जन जहां जीवाकुल नूमी नहोय एसे स्थान पर पूर्व दिशा सन्मुख बेठके स्नान करे. स्नान करनेके लिए चार पगवाला, जिस्मे नल लगाया होय एसा, एक बाजोट (पट्टा ) बनावे. जिस्का पाणी मुसरे बासणमे लेके निर्जीव स्थानमे डाला जाता होय तो जीवकी ठीक यत्ना होशकतीहे. रजस्वला अथवा नीच जातिका स्पर्श हुवा होय, अथवा सूतक श्राया होय, घरमे कोश्का मरण हुवा होय तो मस्तकसे सर्वांग स्नान करना. उपरोक्त कारण सीवाय देव पूजाके वास्ते बुद्धिवंत मस्तक वर्जित उष्ण जलसें स्नान करे. योगी पुरुष कहतेंहें की चंड, सूर्यके किरणोके स्पर्शसे समग्र जगत शुक होजातादे तो मस्तकनी उनके किरणोसे स्पर्शित होनेसें सदा पवित्र गिना जाताहे. __हर रोज शिर जीजोनेसें जीवघात होताहे. इसलिए नही निजोना. दया एहि हे सार जिस्मे एसे Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनधर्मसिंधु. सदाचार में सो सब धर्मके हेतुहे. अर्थात् कृपा धर्मका परिपालनके लिए सदाचार पालाजाताहे. निर्मल तेजका धारण करने वाला आत्मा सदा मस्तकमे रहताहे इस लिए और सदा वस्त्रसे वेष्टित रहनेसे मस्तक कनी अपवित्र होता नही. अझ जन स्नानके लिए जास्ति पाणी ढोलतेहे और उससे बहुत जीवकी विराधना करतेंहें; एसा स्नान करके श रीरकों पवित्र और आत्माकों मलीन करतेंहें. स्नान करने में जीजोया वस्त्र दूरकरके दूसरा वस्त्र पहिनके जहां तक पेर जीने रहे तहां तक अर्हत्का स्मरण करता उहांहि खमा रहे. जो खमा न रहेतो पगमें मेल लगेगा और पग अपवित्र होवेंगें. फिर कित नेक जीवोके घातकानी संजव होवेगा.इससे पापका जागीनी होवेगा. गृहमंदिर (घरदेरासर) में जाके प्रथमसे प्रमार्जना करके पूजा करने लायक वस्त्र पहिनके अष्टपट मुखकोश बांधे. मन, वचन, काया, वस्त्र, नूमि. पूजाके उपकरण, स्थिति (स्थिरता) यह सात प्रकारकी शुद्धी पूजाके समय करनी. स्त्रीका पहिना हुवा वस्त्र पुरुष पूजा समय नहि पहिरे और पुरुषका पहिना हुवा वस्त्र स्त्री नहि पहिरे क्योंकी उससे कामरागकी वृद्धि होती है. उत्तम कलसमे जरा जलसें जगतकों जलका श्रजिषेक करे और पीछे उत्तम वस्त्रसे अंग ढुंबन करके चंदना Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिछेद. २५१ दिकसें पूजा करे. केशर चंदन चढाते नीचे लिखित काव्य उच्चार करके चढावे. सच्चंदनेन घनसार विमिश्रितेन, कस्तूरिका व युतेन मनोहरेण । रागादि दोष रहितं महितं सुरें, श्रीमजिनं त्रिजगतः पति मर्चयामि ॥ पुष्प चढाने समय नीचे लिखित काव्य बोले. जाति जपा बकुल चंपक पाटलाथै, मंदार कुंद शत पत्र वरारविंदैः। संसार नाश करणं करुणा प्रधानं, पुष्पैः परैरपि जिने महं यजामि ॥ धूप करने समय नीचे लिखित काव्य बोले. कृष्मागुरु प्रचुरिता सितया समेतं, कर्पूर पूरमहितं विहितं सुयत्नात् । धूपं जिनेंद्र पुरतो गुरुतोष पोषं, जत्योदिपामि निज पुष्कृत नाशनाय ॥ अक्षत चढानेके समय नीचे लिखित श्लोक बोले. शानंच दर्शन मथो चरणं विचिंत्य, पुंज त्रयंच पुरतः प्रविधाय जत्या । चोदाक्षतैः कणगणैः रपरै रपीह, श्रीमंतमादि पुरुषं जिन मर्चयामि ॥ फल चढाने समय नीचे लिखित काव्य बोले. सन्नालिकेर पनसामल बीजपूर, Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ जैनधर्मसिंधु. जंबीर पूग सहकार मुखैः फलैस्तैः । खर्गाद्यनटप फलदं प्रमदा प्रमोद, देवाधिदेव मधुना प्रशमं महामि ॥ नीचे लिखित काव्य बोलके नैवेद्य चढावे. सन्मोदकै वंटक मंगक शालि दालि, मुख्य रसंख्यरस शालिनि रन्नजोज्यैः । कुत्रव्यथाविरहितं स्वहिताय नित्यं, तीर्थाधिराज महमादरतो यजामि ॥ नीचे लिखा काव्य बोलके दीपक चढावे. विध्वस्त पाप पटलस्य सदोदितस्य, विश्वावलोकन कला कलितस्य जक्त्या। उद्योतयामि पुरतो जिननायकस्य, दीपंतमः प्रशमनाय शमांबुराशेः॥ नीचे लिखित काव्य बोलके जल चढावे. तीर्थोदकै धुतमलै रमलस्वजावं, शश्वनदी हृदसरोवर सागरोजैः। उर्वार मार मद मोह महाहितार्य, संसार ताप शमनं जिनमर्चयामि ॥ नीचे लिखित काव्य बोलके हाथ जोड नमस्कार करे. पूजाष्टक स्तुति मिमा मसमा मधीत्य, योनेन चार विधिना वितनोति पूजां । जुत्का नरामरसुखान्य विखंमितानि, धन्यः सुवास मचिराबनते शिवेपि ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिच्छेद . २५३ नया मंदिर बनाना चाहे तो अपने घर में प्रवेश करते कायें हाथपर जमीनसें देढ हाथ उंचे शल्य रहित पवित्र स्थानपर मंदिर बनावे. पूजा करने - वाला पूर्व अथवा उत्तर दिशाके सन्मुख बेठे परं विदिशामें न बेठे और दक्षिण दिशातो सर्व कार्यमें वर्जित. पूर्व दिशा सामने बेहके पुजा करनेसें लक्ष्मीका लाज होय. अग्नि दिशामें बेठेतो संताप उपजावे. दक्षिण दिशामे मृत्यु कारक. नैरुतमें बेठेतो उपद्रव करे. पश्चिम और वायव्य दिशामें बेठेतो संतानकी हानी करे. दो पांव, दो ढीचण, दोहाथ, दो स्कंध ( खजा ) एक मस्तक यह नव स्थान पर अनुक्रमसें जगवंतकी प्रथम पूजा करे. उत्तम चंदन और केशर विना पूजा न करनी. ललाट, मस्तक कंड, हृदय, पेट, इतने स्थानपर अपने तिलक करना. प्रजातें शुध्ध वाससें, मध्यान्हें पुष्पादिकसे संध्या समय धूप दीप जगवंतकी पूजा करनी एक पुष्पके दो विजाग न हि करना. कलिको च्छेदनान हि पत्र, पांख मि, कलिकों ठेदन करनेसें हिंसा जेसा पाप लगता है. हस्त से गिरा, पेरकोलगा, जमीन पर पमा, शीर पर धरा एसे पुष्पोंसें कहि पूजा न करनी गंध रहित, तीव्र सुगंध बाला, नीच जातिजन फर्शित, कीटक दंशित, मलीन वस्त्र से वेष्टित, एसे पुष्पसें पूजा कर . Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनधर्मसिंधु. . नी नही. नगवंतके वामांगमें धूप रखना. जल पात्र सन्मुख रखना. पान अथवा फल हस्तमे रखना. उपरोक्त अष्ट प्रकारी पूजा हररोज करनी और नीचे लिखि एक वीस प्रकारी को पर्व तिथीमे अथवा तीर्थ स्थानोंपर अवश्य करनी एकीस प्रकारी पूजाके नाम. स्नात्र, चंदन, दीप, धूप, पुष्प, नैवेद्य, जल, ध्वजा, वासदेप, अक्षत, सुपारी, तांबुल, जंमारधि, फल, वाजित्र, गीत, नाटक, स्तुति, नत्र, चामर, आन्नूषण. विशेष लानार्थी श्रावक शुध्ध वस्त्रसे सुशोजित होके अशुचि मार्गको बोडके अच्छे मार्गसे ग्रामचैत्य (पंचायतीमंदिर ) दर्शनके लिए जाय. पूजाका फल विषे. मंदिरमे दर्शनके लिए जाऊंगा एसा विचार करनेसे एक उपवासका, जानेकों उठेतो दो उपवासका, मंदिरके मार्गमे चलेतो तीन उपवासका, मंदिरको देखनेसे चार उपवासका, मंदिरके दरवळेपर श्रानेसे बउपवासका, मंदिरके अंदर जाके दर्शन कर. नेसे पंदरे उपवासका, जिन पूजा करनेसे एक मासके उपवासका फल मीले. तीन वार “निःसीही" शब्दकों उच्चारके मंदिरमें प्रवेश करना. मंदिरकी प्रथम सारसंजाल (देखरेख )करके पी पूजा करना. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिजेद. २५५ मूलनायककी प्रथम पूजा करके पीछे अंदर बाहार सब जिनबिंबकी पूजा करना. अवग्रहसें बाहिर नीकलके पी लक्ति सहित वंदना करे. फिर सामने बेहके चैत्य वंदना करे. एक नमुथ्थुणंका पाइसें जघन्य, दो नमुथ्थुणंसे मध्यम, पांच नमुथ्थुणंसे उत्तम चैत्य वंदना जाणनी. फिरनी मुसरी प्रकारसेंनी तीन प्रकारकी चैत्य वंदना होतीहे. स्तुति पाठ बोलते योग मुजा, वंदना करते जिनमुखा, प्रणिधानके समय मुक्ताशुक्ति मुजा, करनी. (नमु. थ्थुणंका पाठ उच्चरते योग मुसा, जावंति चेश्याई यहपाठ बखत जिनमुना, जयवियराय उच्चरते मुक्ताशुक्ति मुना करी जातीहे.) ( यह परंपरागत आम्नायहे) पेटके उपर दो हाथकी कुणी स्थापन करके, कमल डोमाके अकार दोहाथकों एकिके सं योजित करके परस्पर अंगुलियोकों योजित करने कों “योग मुना” कहते हे. ( यह चैत्यवंदन करने के बख्त होती हे) चार घांगुली श्रागे, और तीन श्रांगुली पीछे, पिहुलि (पोहोली) रखे, फिर दोहाथ अपने घुटणके पास टटार रखके, नीची दृष्टीसें खमा रहनेको “जिनमुना” कहतें हें. ( यह कायोत्सर्ग समय होतीहे ) दो घोटणके बिचमें रहे हुवे, मो ति पकनेकी दो बीपके समान दोनुं हाथ परस्पर जुडे हुवे होय; एसे श्राकारवाले दो हाथोंकों अप Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनधर्मसिंधु नी ललाट ( कपाल ) पर लगाना उस्को "मुक्ता शुक्ती” मुसा कहतें हे ( यह मुसा जय वीयराय कहती बख्त की जाती हे) जगवंतकों नमस्कार करके मंदिजीसे बहार निकल ती बख्त "श्रावस्सही" एशा उच्चार करके निकले. फिर घर जायके अपने ना मित्रोंको साथ लेके जदय अनदयका (विचारवाला) जोजन करे . ( पग धोया सिवाय, क्रोधांध होके, पुर्वचन बोल ता ददीण दिशाके सन्मुख बेठके जोजन करेसो रा दस जोजन कहा जाताहे. पवित्र वस्त्र और शरीरसें अबे स्थानपर बेहके स्थि रतासें देव गुरुको याद करके, जोजन किया जाय सो मानुष्य जोजन गिना जाताहे. स्नानादिकसें श रीर शुरू करके, जिनपूजाकरके पूज्य जनो ( माता पिता) को प्रसन्न करके, मुनिजनोंकों और सत्पात्रों कों दानादिक देके पीछे नोजन किया जाय. सो उत्तम जोजन गिना जाताहे. जोजन, मैथुन, वमन(कय उलटी) दातण, लघु नीति, वडीनीति (कामा पेसाब ) करनेके समय बु हिमानोंकों मौन रहना चहिये. क्यों की शान या शातना होतीहे. अग्नि कोंन, नैरुत कोंन,और दक्षि ण दिशि यह तीन दिशा नोजनके वास्ते वर्जित हे सूर्यके उदय और श्रस्त समय, चंजसूर्यके ग्रहण Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ तृतीयपरिवेद. मय अपने बिरादरोंका शब ( मुरदा) पडा होय, तहां तक, नोजन नही करना. ___ संपदा बते जोजन में लोन रके सो बमा मूर्ख हैं. मानों वो पुरुष अन्य जनोंके लिए धन कमाताहे. अशुद्ध और अज्ञात जाजनमें, जाति बाहिरके घरका वा उनके हाथका, अज्ञात और निषिक अन्न पान फलादिक खाना नही. ___ बाल, स्त्री, गर्नपात, गो, ए चार हत्या करने वाले की, श्राचार व्रष्टो की, कुलमर्यादाका उलंघन करनेवालोकी पंक्ति में बेठ के जाणकार होके जोजन करना नही. मदिरा, मांस, सेहेत, म्रक्षण (खंणी मसका) वड पीपल जंबर वृदादि पांच जाति के फल, अनंतकाय, अज्ञात फल, फूल, साक, पत्र, रात्रि नोजन, कच्चे गोरससें मीला हुवा विदल, फूग लगाहुवा अन्न, दो दिन उपरांत का दहि, बिगमा दुवा अन्न, जिस्में जीव पडे होय एसे फल, पत्र, पुष्प, औरजी जिस्मे जीव उत्पन्न होनेका संजव होय एसे अचा रादिक सब अजदयों कों धर्मवंत प्राणी वर्जित करे. जोजन उर वडीनीतिमे विशेष देरलगाना नहि. पा णी पीनेमें और स्नान करने में उतावल करना नहि. पानी पीना जोजनकी श्रादिमे विष समान. अं. तमें शिक्षासमान और मध्यमे अमृत समान जाणना Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधुः अजीर्ण हुवा होय तहां तक नोजन नही कर. ना. पूर्ण कुधाकालमे अपने को रूचे सो नोजन क रना. नोजन किये पीछे मुख शुकि जल सुपारी तां बूंलादिकसे करनी.. विवेकी जन रस्ते में चलते तांबूल न खाय. सुपारी प्रमुख श्रदत फल दांतोंसें जांगना नही. क्यों की उससे जीव घात होत जोजन कीये पीछे उष्णकाल सिवाय सोना नही क्यों की सोनेसे शरीरमें व्याधिका संभव होता हे. इति दिनचयााँ हितीयः वर्गः समाप्तः ॥अथ तृतीय वर्ग प्रारंजः ॥ जोजन किये पीछे अपने घरकी शोजा देखता, विचरणोंसे वार्तालाप करता, पुत्रादिकोंकों शिखा वन देता थका सुखसे दो घडी वार विवेकी जन अ पने घरमें ठहरे. ___ गुणकी प्राप्तिकरनी यह अपने स्वाधीन हे. ध. नादिकका सुख दैवाधीन हे. एसे तत्ववेत्तोओंको कन्नी गुणकी हानी नहि होती हे. कुल हीन पुरुषनी अपने गुणसें उच्च दशाको प्राप्त कर शक्ताहे देखिये किचम्सें उत्पन्न होने वाला पंकज (कमल) कों सब अपने शिरपर धारण करतेंहे और पंक (कादा किचम) पेरसें घिसा जाता हे. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिजेद. २५ए गुण उत्पन्न होनेके लिए कोई कुल वा खांण नही हे परं उत्तम प्राणि अपने गुण करके प्रख्यात और उच्चदशा प्राप्त होता हे. जेसें सत्वादि गुण युक्त प्राणी राज्य योग्य हो जातेंहें तेसें एक विंश शति गुण युक्त होनेसें प्राणिगण धर्म योग्यहो शक्ते हे. (१) जिस्का हृदय कुछ (तुब) नहो, (५) सौम्य होय, (२) रूपवंत हो (४) जन वन्वन हो (५) कुर न हो, (६) नवनीरु (संसारसें जन्म जरामरणादिकसे मरताहो)(७) मूर्ख न हो (1) दाक्षिणतावाला हो () लजावंत हो (१०) दया सहित हो (११) मध्यस्थ हो (१२) सौम्यदृष्टि हो (१३) गुणरागी हो (१४) सहता हो (१५) सुपरिवारयुक्त हो (१६) दीर्घदृष्टी हो (१७) कुल परंपराकों माननेवाला हो. (१७) विनीत हो. (१ए) गुणकों नूलनेवाला न हो(२०) परहित हितार्थी हो (२१) सब बातोका सम जदार हो. यह किस गुण युक्त प्राणी धर्म रत्नके योग्य हो शक्ताहे. पंडित पुरुषोने बहुत करके राज कथा, देशक था, स्त्री कथा, लक्त कथा नही करनी क्यों की एसी विकथा करनेसे कुछ लान तो होता नही परं अनर्थका तो बरोबर संजव हे. धर्म कथाजी अपने सुमित्रो और बंधवोंसे कर. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनधर्मसिंधु. नी. धर्मशास्त्रके रहस्य के जाणकारोंके साथ धर्म ( तात्वीक ) विचार जरूर करना चाइये. जिससे पाप (धर्म) बुद्धिकी वृद्धि होय एसें लोगों में मित्रता और सहवासजी नहि रखना. को इका कोप, वचन सहन करना परं अपने न्यायको न बोमना. वर्णवाद तो कोकानी विचक्षणने बोलना नही. और पिता गुरु, स्वामी, राजादिकका तो - वर्णवाद जरूर बोलना हि नही. मूर्ख, दुष्ट, अनाचारी, मलीनजातिवाला, धर्मनिंदक, कुशीलिया, लोजि, चोर, इतनेकी संगती कभी नहि करनी. " "अज्ञात जनकी प्रसंशा करनी, अज्ञातको अपने घरमें स्थान ( उतारा) देना, अज्ञात कुलसे सादी करना, अज्ञातकों नोकर रखना, अपनेंसे बड़े लोगों कोप वा विरोध करना, गुणिजनसें तकरार क रनी, पसे अधिक दरवालेंकों नोंकर रखना, करजा करके धर्ममे धन लगाना, अपनी दुःखी श्र वस्था में अपना धन पराये हाथमें होयसों नही याचना, अपने बिरादरोमें विरोध करना, स्वजनों को बोडकर अन्यजनोंसें मैत्री करना, शक्ति बते ध र्ममे उद्यम नही करना, नोकरोका दंड करके उस धनसे अपनें मजा उमानी, दुःखी अवस्था में अप Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिवेद. ३६१ ने बांधवोंका साहाय याचना, अपने मुखसें अपने गुणका वर्णन करना, अपने बोलते बोलते हंसना, जिस तिसका खाना,” यह सब कार्य लोक विरूदे और मुर्खताके चिन्हहें सो त्याग करना. न्यायसे धन उपार्जन करना. अपनी रीत रीवाजोंमें देश, कालके विरुष्का त्याग करना, राज विरोधियोका संग और महाजनसे विरोध न करना कुल,शील,श्राचारमे अ पने समान जनसे और निन्न गोत्रवालेसें ब्यावसादी करना. अपनी जातिवालोंके पडोसमें अपना निवास रखना. जहां उपजव होवे एसें स्थानका त्याग करना, अपनी पेदासीके प्रमाणमे खर्चरखना लोकमे निंदा न होय एसा अपनी संपदानुसार वेष रखना-अपने देशका याचारको और अपने धर्मको न बोमना. जो अपना श्राश्रय चाहे उनकें हितमें रहना. अपना बलाबलका विचार रखना- अपने हित अहितका विशेष विचार रखके कार्यमे प्रवर्त्तना. श्रप नी इजियोंकों वश्य रखना- देव व गुरुमें बडा नक्ति जाव रखना. स्वजन, दीन हीन फुःखी, अतिथी की यथायोग्य भागता स्वागता करनी. यह विचार चा तुर्यताको अपने चित्तमें रखना. विचदणोसें शास्त्रसु नता, वा सीखता थका विचक्षण कितनाक समय को व्यतीत करे. नसीब पर विश्वास रखकर निरू Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनधर्मसिंधु..... द्यम बेग न रहे परं धन उपार्जनका उपाय करे क्यो की उद्यम विना नसीब कनी फल देता नही हे. कूमा तोल, कूडा माप, कूमालेख प्रमुख अनर्थ कार्योको त्याग करके शुद्ध व्यवहारसे व्यापारमे स दा प्रवर्ते. अंगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, नाटक कर्म, स्फोटककर्म, दंतवाणिज्य, लादावाणिज्य, रस वाणिज्य, केशवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्रपीमन, नि लाडन, (बेलके कर्ण नाक अंड नख रोम बेदना) असतीजन पोष (कुत्ते बिब्बे तोते प्रमुख जानवरोसे आजीविका करनी) दवदान (दव लगाना) सर ह तलाव शोषण करना. यह पंदरे कर्मादानका व्या पार श्रावक न करे. ___ लोखंड, महुडाके पुष्प, मदिरा, सेहेत (मधु) कंद, मूल, पान, फल, प्रमुख वस्तुका आजीविका निमित्त श्रावक व्यापार न करे. उष्ण कालमें बहुत जीव विराधना होनेके जय से विचक्षण श्रावक फाल्गुण माससे उपरांत तिल, गुड, टोपरा, प्रादा प्रमुख मेवा प्रमुखका व्या पार न करे. ___ चातुर्मासमें श्रावक गामीमे घोडे बेलोंकों जोने नही. बहुत आरंज प्रवर्तक कृषि कर्म श्रावक करे करावे नही. योग्य मोल मिलता होय तो लेण देण करना. बहु Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिछेद. २६३ त लाजके लिए अधिक लोज न करना क्यों की श्र धिक लाजके लोजसे कोई समय मूल धनकाजी नाश हो जाता हे. विशेष लान होता होय तथा पि उकार कोश्को न देना. दगिने रके सिवाय धनके लोनसें कोश्कों व्याजसें धन न देना. चौरीका माल निश्चय हुवे पीने थोडे मोलसे मि खता होय तो जी न लेना. सरस निरस वस्तुका नेल सेल न करना चोर, चंमाल, मलीन परिणाम वाला, धर्मन्तृष्ट, श्नोंके साथ श्ह लोक परलोकके सुख वांढकोंने व्यवहार न करना. विवेकी जन विक्रय समय असत्य न बोले. और लेने के समय अपने वचनकीकबुलातकों लोपनही करे. __ अदृष्ट वस्तुका सट्टा नहि करना. सोना, चांदी हीरा मणि प्रमुख पदार्थोंकी सत्यसत्य परिक्षा कीये विना लेना नही. राज बल सिवाय अनर्थ और विपत्तीका निवार ण दोशक्ता नही इस्के लिए राज्यमें मैत्रता, परिच य, रखनी चाहिये परं राज्यमे पराधीन न होना (स्वाधीन रहना योग्य हे.) तपस्वी, कवि, वैद्य, मर्मका जानकार, रसोइ क. रनेवाला, मंत्रवादी, अपने पूज्य ( माता पिता धर्म गुरु विद्यागुरु ) इनपर क्रोध न करना अव्यार्थी पुरु Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनधर्मसिंधु षकों अतिक्लेश, धर्मका उलंघन, नीचकी नोकरी, विश्वास घात, न करना. लेण देणके कार्यमें अपने वचनका लोप करना नहि क्यों की अपने वचन पालनेवालोकी बमी प्र तिष्टा होती हे. विचक्षणोंकों अपना धन मालका नुखसान होते बते जी अपने वचन पालनेकी बमि जरूरत हे.स्व प लानके वास्ते अपने वचनका लोप करनेवाले वसुराजाके न्याय पुःखी होते हे. __एसे एसे व्यवहारमे तत्पर पुरुषो तीसरा और चोथा प्रहर दिन वितावे. और संध्या समय व्यालु करनेकों अपने घरजावे. एकाशनादिक तप जिसने किया होय उनोने संध्या समय प्रतिक्रमणके वास्ते अपने गुरुके पास जाना. दिवसके अष्टम नागमे ( चार घमी दिन उते) व्याद करना. सूर्यास्त समय और रात्रिकों विवेकी ने जोजन करना नही. थाहार, मैथुन, निझा, स्वा ध्याय ( पठन पाठन ) यह चार कृत्य संध्या समय प्राणिगणको विशेषकरके त्यागने चाहिये. क्यों की सूर्यास्त समय नोजन करनेसें व्याधि होती है. मैथुन करे तो पुष्ट गर्न होता है. निखा करे तो नूतादिकोंका उपजव होता हे. पढन पाठ नसे निर्बुद्धी होता हे. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिबेद. २६५ व्यालु किये पश्चात् अवश्य दिवस ते चोवीहा रका पञ्चरकाण करना. कदापि नही बन शके तो छ विहार तेविहार तो अवश्यमेव करनाहि चाहियें क्यों की रात्रिनोजन त्यागने से दररोज एकाशन करने जितना लान मिल शक्ता हे. __जो प्राणी रात्रि जोजनमें दोष जाणके सबेर और सांजकों दो दो घमी आहारको आगेसें त्याग करतेंहे सो प्राणी पुण्यशाली जाणना. जो प्राणी यावजीव रात्रि नोजनको त्याग करतेंहे.सो अवश्य अपने समग्र आयुष्यका अर्धनाग के उपवासका फलको सहज मात्र में प्राप्त कर शक्ता हे. और वो धन्य बाद के योग्य होता हे. दिवस, रात्रिकों जो प्राणि मरजीमें आवे तब खाया करे और व्रत पञ्चरकाणसे विमुख हे सो प्राणि अवश्य श्रृंग पुब विनाका पशु समजनां. रात्रिनोजन करनेवाले पुरुष घूअडे, काक, बिल्ल मांजार, गीध, सांबर, सूअर, सर्प, विजु, घीरोली, के अवतार प्राप्त करते हे. रात्रिकों हवन, श्राफ देवपूजा, दान, स्नान, और जोजन तो विशेष कर के नहीज करना एसा अन्य शास्त्रोमेंनि लिखाहे. इति दिनचर्यायां तृतीय वर्गः समाप्तः ॥ स्वल्प जलसें हाथ पग और मुखकों प्रकासित करके धन्य धन्य मानता बडे हर्षसे संध्या समय धूप दीपादिकसें पुनः जिनपूजा करे. ३४ -- Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैनधर्मसिंधः सक्रिया सहित शान मोद साधक होता हे एसा जाणके संध्या समय पुनः श्रावश्यक करे. क्रियाहे सोहि फल दायक होतीहे परं एकिला झान फल दायक नही हो शक्ता हे. देखिये स्त्रीकों नोगे विना और जोजनकों खाए बिना एकिले उ स्के सुखके जाननेंसे सुख न होता हे. गुरुका योग न होय तो अपने घरमें स्थापनाचा र्य अथवा नवकारवाली प्रमुख की स्थापना करके उस्के पास अवश्य प्रतिक्रमण करना. __धर्मसें हि सर्व कार्य सिद्ध होतेहे एसा हृदयमें जाणके सर्वकाल तद्गत चित्त रहना.और धर्म सम यकों न उलंघन करना. कारणकी धर्मका साधनके समय गए पीछे अथवा समय न हुवे पहिले जोज प तपादिक धर्म किया कि जाय सो अनवसरपर उखर देत्रमे बोए बीजके न्याय निष्फल हो जाताहे. __पंमित पुरुष जो धर्म क्रिया करताहे उस्मे सम्य क् विधि करताहे. क्यों कि न्यूनाधिक विधि करनेसे मंत्रजापके न्याय न्यूनाधिक करनेसे लालके बदले अधिक दोष लगताहे. अर्थात् न्युनाधिक क्रिया क रनी नहि. औषधीजी लेनेकी विधिमे चूक की जाय तो अनेक अनर्थको उपजा शक्तीहे तेसें धर्म कियानी अविधिसे सेवनकी जायतो अनेक अन र्थ उपजाती हे. वास्ते विधिमे बिलकुल चूक करना Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिबेद. २६७ हि नहीं. वैयावच्च ( गुरुसेवा, पगचंपी ) करनेसे अ दय सुख, मंगल, श्रेयकी प्राप्ति होतीहे. इसलिए प्रतिक्रमण समाप्ति पीछे विवेकी गुरुकी विश्रामणा करे. गुरुकी विश्रामणा समय मुखपर वस्त्र लपेटनां, गुरुकों अपने पगका स्पर्श न होने देना. एसें गुरूके सर्व शारीरीक खेदको मीटावे. उपाश्रयसें निकलके रस्ते में जो जो जिनमंदिर आवे उनमें दर्शन करता थका अपने घर जाय. तिहां पग धोयके पंचपरमेष्टी मंत्रका जाप करे. मेरेको अरिहंतका, श्रीसिहजी महाराजका, के वली नांषित धर्मका, साधुजी महाराजका शरण हो. __मंगलके करनेवाले, फुःखगणसे दूर रखनेवाले, शीलसन्नाह ( बकतर ) को पेहेनकें काम कंदर्पकों जितनेवाले थूलील मुनि को नमस्कार हो. गृहस्थ उतेजी जिस्की बडी शील लीलाथी और सम्यक्त के प्रजावसे जिस्की विशेष शोनाथी एसे सुदर्शन सेठकों नमस्कार हो. कामकंदर्पकों जितनेवाले, आजम्नपर्यंत. अति चार रहित ब्रह्मचर्यकों परिपालन करनेवाले एसे मुनियोंको धन्य, कृत पुण्यसे नमस्कार हो. __एसे पंच परमेष्टीका स्मर्ण करके कामोदयके लिए नीचे प्रमाणे विचार करे. जिसने अपनी इंडियोका जय कियाहि नहि एसे बहुल कर्मी, निःसत्व, जीव, Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनधर्मसिंधु. एक दिन मात्रजी शील पालनेको समर्थ नहो शक्ते हे. हे संसार समुफ. मदिराजेसेमदयुक्त नेत्रोंवाली स्त्रीरूप पुस्तर पहाड बिच में न होते तो तेरा पार कों प्राप्त करना कुछ दूर नथा. मुक्ति पदकों अंतराय करनेवाली स्त्रीये प्राणिगणकों अवश्यमेव एक शि बारूपहि गिणनी चहिये असत्य, साहस (उतावल) माया (कपट)मूर्खता,लोजकी अधिकता,अपवित्रता, दया रहितता,इतने दोष स्त्रीयोंमे स्वनावसेंहि होतें हे. जो स्त्री (मुक्ति) रागी उपरजी वैरागी होती हे एसी स्त्रीकों कोन जोगवेगा ? जो पंमित होगा सोहि नोगवेगा. क्यों कि मुक्ति रूपिणी स्त्री वैरागी उपर बरोबर रागी हे परं रागी उपर रागी नहीहे. समएसा स्त्रीयोंके विषयमे असारता विचारता थका समाधिमे कितनाक काल निजा करे. परंतु पर्वति ‘थी प्रमुख उत्तम दिनोमे उत्तम श्रावक स्त्रीयोंसे वि षय नोग करे नही. विवेकीगण बहुत काल निजामें व्यतीत न करे. क्यों की विशेष निता करनेसें धर्म अर्थ और सुख ए तीनोंका नाश होता हे. __ जो प्राणी खटप ( थोमी) निझा करे, स्वरूप श्राहार लेवे, स्वल्प आरंन करे, स्वल्प परिग्रही, खल्प क्रोध करनेवाला होय एसे लक्षणवालोंको अ वश्यमेव स्वल्प संसार होता हे. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिच्छेद . २६ निद्रा, आहार, जय, स्नेह, लता, काम, कलि ( लडाइ ) क्रोध. यह चिजें ज्यों ज्यों अधिक कीये जांय त्यों त्यों अधिक वढती जाती है. विघ्न रूप वल्लिका समुदायकों छेदनेंमें साक्षात् कुहाडा समान श्री नेमिनाथ जगवंतकों याद कर के सयन करें तिनकों अवश्यमेव पुष्ट स्वप्नोंका परा जव न हो शक्ता हे. अश्वसेन राजा और वामादेवी राणी के पुत्र, श्रीपा र्श्वनाथजीका नाम स्मर्ण करके सोवे तो अवश्य मेव नर्थ कारक पुष्ट स्पप्न न देखें. महसेन राजा श्रौ र लक्ष्मणा नाम राणी के पुत्र श्री चंद्रप्रन स्वामीका स्मरण करनें सें सुखसें निद्रा याती हे. सर्व विघ्नरूपी सर्पके दूर करनें में साक्षात् गरुम समान, परम सर्व सिद्धि प्रदायक, श्री शांतिनाथ स्वामीका जो ध्यान करताहे उनकों बिलकुल जय न हो शक्ता हे. ॥ इति दिनचर्यायां चतुर्थ वर्गः ॥ सर्व जवोंमें उत्तममें उत्तम यह मनुष्य जन्मकों प्राप्त होके प्राणि गणने उसे सुकृत करके सकल सफल करना. निरंतर धर्म के सेवनसें सुखजी तदनु सार अचल मिल शक्ता हे. वास्ते दान, विद्याध्यय न, शुजध्यान. जप तपादिक सुकृत्योंमें अपने दिन अवंध्य (खंग) करना. आयुषके तीसरे जागमे अथवा अंत्य समयमे Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. जीव श्रागंतक नवका शुजाशन आयुष्य बांधताहे. आयुष्य बंधका तीसरा नाग बहुत करके पंच पर्वी की तिथीयोके दिन आताहे इसलिए पंच पर्वणीमे आरंज त्यागादिक सुकृत्यों कीये जांय तो अवश्य शुज आयुष्य बंध होय. वास्ते पंच पर्वणीमे अवश्य विशेष धर्म कृत्य करना उचित हे. प्राणी द्वितीया तिथीके श्राराधनसें रागद्वेषकों जय करके श्रागंतुक नवमें साधु श्रावक यह दो प्र कारके धर्मकी प्राप्ति कर शक्ताहे. पंचमीके आराधनसे पंच ज्ञानकों प्राप्त करके फिर पंच विध प्रमादका त्याग होनेसें शुरू चारित्र धर्मकों प्राप्त हो शक्ता हे. __ पुष्ट अष्ट कर्मोके नाश करनेके लिए और अष्ट मदका जय करनेके लिए पुनः अष्ट प्रवचन माता का परिपालनके लिए अष्टमी तिथीकी आराधना करना ठीक हे. एकादशीके श्राराधनसें ग्यारह अंगके ज्ञानकी प्राप्ति होतीदे और ग्यारह श्रावककी प्रतिमाकों व हनेकी योग्यता प्राप्त होती हे. " चतुर्दशीके श्राराधनसें प्राणी चउद पूर्वके ज्ञान योग्य होके चलदे राजके उपर सिझत्वावस्थाकों प्राप्त होता हे. ... यह पंच पर्वणीका महिमां याद करके पंच पर्व Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिवेद. णीमे जो धर्माराधन करतो अवश्य शुज फलकों प्राप्त कर शक्ता हे. ___ अतएव पंच पर्वणीमे विशेष धर्माराधन तप जपा दिक करना और उत्तर गुणकी वृद्धि के लिए स्नान, मैथुनादिकका अवश्य त्याग करना. पर्वणीमे अव श्य पौषध करना. न बन शके तोनी प्रतिक्रमण सा मायक जप तपादि अवश्य करना. पर्वणीमे कल्याणकादि तप करना. उपवास एका शणा, आयंबिल, बियाशणा, नीवी प्रमुख तपसे विं शति स्थानक तप आराधना. __ जो विधि पूर्वक यह तप आराधन किया जाय तो परम सुखके प्रदायक, सर्वोत्कष्ट तीर्थंकर गोत्र उपार्जन हो शक्ता हे. पंचम्यादि तपका उद्यापन करनेसे प्रणिधानकी पूर्णाहुती होतीहे और विशिष्ट फलकी प्राप्ति हो शक्ती है वास्ते उद्यापन अवश्य सब तपके करना. उपवास करके जो प्राणी पादिक प्रतिक्रमण कर ताहे सो अवश्य पंदरे दिनके पापकी शुद्धी करता हे और उनके उन्नय पद शुरू होशक्ते हैं. तीन चोमासीमें (आषाढ, फाल्गुण, कार्तिक की चउद सीमें) अवश्य षष्ट (बेला) करना चहियें. श्राम चनदश पंचमीके दिन उपवास, प्रतिक मण, आरंजवर्जन, अवश्य करना. जादोंकी श्रीप' Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ হই । जैनधर्मसिंधु. षणपर्वणीमें अवश्य कल्पसूत्र सुनना. और यथा शक्ती विशेष धर्म कर्म करना. श्रावक धर्म क ममे संतोष न करे परं आरंजादिकमे संतोष करके अवश्यत्याग करे. उत्तम श्रावक एकवीस वार जो कल्प सूत्रकों सुनेतो अवश्य आउनवमें सिद्धि पदको प्राप्त हो शक्ता हे. निरंतर सम्यक्तके और ब्रह्मचर्यके पालनेसें जो लाल होताहे उससे अधिक कल्प सूत्र सुननेंसें होशक्ता हे. दान देनेसें विचित्र तप करनेसें, सत्तीर्थके सेवन करनेसें, जो प्राणिगणके पाप क्षय होते हे सो सब शास्त्र श्रवण का महिमा हे. मुक्तिसें कोई अधिक तप, शत्रुजय से अधिक कोई तीर्थ, सम्यक्तसे कोई तत्त्व, कल्प सूत्रसे अधिक महिमांवंत को सूत्र नही हे. दीवा लीकी अमावास्याकी रात्रिको नगवंत महावीर स्वामी मोद गए और उसी प्रतिपदाके प्रातः काल श्री गौतम स्वामीजी केवल ज्ञान पाये हे इसलिए यह दोदीन अतीव पवित्र हे वास्ते उपरोक्त महा पुरु षोंका उसदिन ध्यान स्मर्ण करना. दीवालीमे दोन पवास, करके धूप, दीप, करके अखंम चावलसे गौ तम स्वामीके नामका वा मंत्रका जाप करे तो इह लोक परलोकमे महोदय सुख पामें. अपने घरमे वा ग्राम चेत्यमें विधि पूर्वक पूजा करके आरती मंगल दीपक करके अपने घर जायके अपने जा मित्र Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिवेद. २७३ पुत्रादिक को साथ लेके नोजन करना. जगवंतके पंचकल्याणकों के दिनमे यथाशक्ती सत्पात्रोंकों और याचकों को दानदेना. ॥ति दिन चर्यायां पंचम वर्गः ॥ उत्तम श्रावक धर्म कर्ममे प्रवृत्ति रखता थका पूर्ण निवृत्तिको प्राप्त कर शक्ताहे इसलिए अतृप्त मनसे निरंतर धर्म कर्म अवश्यमेव करना. जिस धर्मसें यह संपदाको प्राप्त हुवा हे तो अवश्य उस अपने उपकारीकों सेवन किये विना कोन रहेगा. एसा कोन मूर्ख होय की जिससे आगामी कालमें लान होने वालाहे एसे स्वामी (धर्म) को सेवन करने में प्रमाद रखके श्राप स्वा मी जोहीका पातकी बने? दान, शील, तप, नाव यह चतुर्विध धर्मकों धी र पुरुष आराधके (पुण्यानुबंधिपुण्य) और मोद सु खक्यों प्राप्त करखेता हे.थोमामेंसेंजी थोमा दानदेना परं बहुत मिलनेकी अपेक्षा न रखनी,क्योंकी श्वानुं सारी लक्ष्मी क्या मालम कब मिलेगी? ज्ञानदानसे ज्ञानवान् होता हे. अजयदानसें नि जय होता हे. अन्नदानसे सुखी होता है. औषध दानसे प्राणि अवश्य निरोगी होता हे. पुण्यकर्मसे कीर्ति होतीहे. दान हे सो मात्र की र्तिके लिए नही हे परं मोद सुखके वास्ते दिया Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. जाताहे. मात्र कीर्त्तिके लिए जो प्राणी दान देते हैं सो दान धर्म नही हे परंतु वो व्यसन हे. (विनोद मात्र हे एसा जाणना.) व्याजमे धन मुगुणा होता हे. व्यापारसें चोगुणा लाल होता हे. क्षेत्रसे सो गु णा लाल होता हे. परं पात्रदानमें अनंतगुण लान हो शक्ता हे. ____ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, प्रतिमाजी, मंदिरजी, ज्ञान यह सात क्षेत्रमे धनका बोना बीजके न्याय विशेष लान दायक होता है. जो प्राणि न क्ति नावसे जिन मंदिर नया बनाताहे उस्मे बहुत लानहे. क्यो की नये बनाये मंदिरके जितने परमा णु ( रजकण ) की संख्या होती हे तितने पढ्योपम प्रमाण देव सुख जोगता हैं. __ औरजी यह है कि जितने दिन नया मंदिर र हता हे तितने हजार वर्ष मंदिर बलानेवाला देवा यु नोक्ता होसक्ता हे. ___ सोना, चांदी, पाषाण, रत्न, मृत्तिका प्रमुखकी य थाशक्ति जो प्राणी नयी प्रतिमा जरावे तो नराने वाला प्राणी तीर्थंकर पद पामताहे.कममे कम एक अंगुष्टमात्रकीनी जो प्राणी नयी प्रतिमा जरावे सो प्राणी अवश्य देवादि सुख जोगके परमानंद पद प्राप्त होता हे. मोक्षफलका देनेवाला धर्मरूप वृद का मूल समान यह जैनागमको जो प्राणी लिखा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिछेद. २७५ ताहे वाचताहे और जावसे सुनताहे तो उनको श्र त्यंत नावकी (सम्यक्तकी) विशुद्धी होती हे. __ जो प्राणि जैनागम लिखाके गुणिजनोंको वांचने के लिए समर्पण कताहे उनकों उस शास्त्रके वर्ण मात्र अदरकी संख्या जितने वर्ष देवलोक गति प्राप्त होती हैं। ___ जो ज्ञानकी भक्ति करी जातीहे वो ज्ञान विज्ञा नसे शोजनीक होताहे. ज्ञान विज्ञानकी प्राप्तिकरने वाला अन्नदानहे इसलिए उत्तमजन हर वर्ष यथा शक्ती एकैक खामीवबल करें. बांधव कुटुबको जि माना यह संसार हेतुहे परं उस्मेनी साधर्मीक वन ल किया जायतो अवश्यमेव विशेष लान प्रद होता हे. अर्थात् नवसंसारसे तारकता गुण निष्पादक हो सक्ता हे. दर वर्ष सर्व प्राणीने अपने अपने तरफसे अव श्यमेव एक वार तो स्वामी वछल करना हि चहि ये. विवेक वान् श्रावक हर वर्ष एक वार तो अव श्यमेव श्रीसंघपूजा (प्रनावना) यथाशक्ति करे. योग्य आहार वस्त्र प्रमुख श्रीगुरुकों जलीनक्ति जा वसें देवे. यद्यपि अपनी विशेष शक्ति न होय तथा पि यथाशक्ती सत्पात्रोंकों असन, पान, खादिम स्वादिम, वस्त्र, पात्र, औषध प्रमुख अवश्य मेव देवे. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैनधर्मसिंधु. ___ कूवा, श्राराम, बगीचा, वृद, तलाब, गौ प्रमुख जो दान करते हे तथापि उनका जल प्रमुखको हानी नही आती हे प्रत्युत उनकी वृद्धि होतीहे तेसे सत्पात्रमें दान देनेसें धन जाता नही हैं परं प्रत्युत उनकी वृद्धि करता हे एसा समजना चहिये. प्रत्यक्ष देखिये की दान देने मे और जुक्तनो गी होनेमे कितना बड़ा अंतर(फरक) देखाजाताहे. नुक्त जोग (खायापीया ) उसरे दिनहि विष्टारूप होजाता है. और दान दिया अदत होता हे (वृद्धि पामतादे) वास्तव में विचार किजीयें की देनेमें श्र धिक लान हुवा कीखाय खरचाय बेहने में अधिक लान होता हे?सो विचारवंत आपहि समज सक्ते हे. शतसः प्रयाश करके प्राप्त किया और प्राणसेंनी अधिक वजन, यह धन हे. उनकी गती (कार्य)मात्र एकदानहि हे.अन्य गतिजो देखिजाती हे सो मात्र विपत्ती समजीजाती हे. न्यायमार्गसे उपार्जित कि ये धनको जो विवेकी जन सप्त क्षेत्रमे नियोजित करते हे सो श्रावक अपने धन और जीवितकों स फल कर सक्ते हे. ॥ति दिनचर्यायां षष्ठः वर्गः समाप्तः॥ इति चारित्रसुंदर गणि विरचितः आचार ग्रंथः समाप्तः Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिजेद. २७७ अथ वार्षिकचर्या माह - जैनोंको वर्षदिनमे अवश्य ग्यारह कृत्य करने चहिये सो बताते हे. प्रथम संघपूजा करनी सो यथाशक्ती नवकारवालीसें लेके सोनामोहोर प्रमुख सब श्रावकोंमे अथवा अपने अपने गछमे बाटनी. अजी वर्तमानकालमे जिस्कों (पहिरावनी ) कहते हैं सो यथाशक्ती वर्षमे एक दो चार वार अवश्य करना चाहिये (इससे महालाल होता है) दूसरा कृत्य साधर्मीक वात्सल्य दरवर्षमे एकवारतो अवश्यमेव करना. दुःखी जैनोंका यथायोग्य यथाश क्ती समुशरण करना. गुप्त दान करना. श्रावकोंकों आमंत्रण करके अंतरंग नक्तिनावसे जिमाना. और तांबुल पुष्पादिक देके प्रणाम करके सबका सत्कार करना. इससे तीर्थंकर गोत्र बंध होता हे. तीसरा कृत्यमे अष्टाहिक यात्रा सो अष्टान्हिका महोत्सव मंदरजीमें करना. नही बनेतो एक वर्षमे एक वार पूजा तो अवश्य पढानी. ॥ चोथा कृत्यमें रथयात्रा सो एक वर्षमे एक वार अवश्य रथ निका लना. एकिलेसे नबनेतो कितनेक समुदाय मिलकेनी अवश्य करना. ॥ पांचमां कृत्यमे तीर्थयात्रा सो पंचतीर्थी वा हर कोइली तीर्थकी समुदायसहित यथाशक्ती हरएकवर्ष एक यात्रा तो अवश्यकरनी. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ছুট जैनधर्मसिंधु. बके कृत्यमें देवाव्य वृद्धि करना. यथाशक्ती यथायोग्य एकवार तो नंडार ढोकना चमावा बोलना. सातमे कृत्यमे स्नात्रादि पूजा पढाना. पुण्यवान प्राणी नित्य स्नात्र पढातेहे यदि न बनेतोजी पर्वणी प्रमुखमे पढानी और एकवर्षमे जघन्यसे एकवारता अवश्यमेव स्नात्रपूजा पढानीइससेंनी अधिक खाजहे. श्रापमें कृत्यमे हरवर्ष एकवारतो अवश्य विशेष विधिसे श्रुत ज्ञान पूजा करना. यद्यपि ज्ञान पूजा हरहमेशका कर्तव्य हे तथापि ज्ञान पंचमी प्रमुख सब पंचमीके दिन यथाशक्ती वासदेप धूप दीप नै वेद्य रोकनाणा वस्त्रादिकसे ज्ञानपूजा अवश्य करनी. ॥ नवमें कृत्यमे हरवर्ष एक उद्यापन करना इसमें यह विचारदे की हरेक प्राणीकों दरवर्ष एकेक तपतो नया जघन्यसें करनाहि चहिये.जो तप करना उस्का उद्यापन अवश्य करना. यद्यपि सब तपके उद्यापन नहि बन शके तो एक तपका तो जरूर करना. ॥ दशमे कृत्यमे तीर्थ प्रनावना करना. इस्मे रथ नीकालना. गुर्वादीकोका नगर प्रवेश मोबव करना ग्यारमें कृत्यमे हरवर्ष पापकी शुशी के लिए गुरुके पास वार्षिक पापकी बालोयणा लेणी. वर्ष दिवसमे अपने जाणतां अणजाता जो कुब पाप हुवे होय सो गुरुकों कहना और उन पापकी शुद्धीकेवास्ते जो Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिवेद. ए प्रायश्चित (तप) करना कहेसो स्विकार करना ॥ इति दिनचर्यायां वार्षिक कृत्यानि ॥ ॥अथ श्राजन्म कृत्यान्याह ॥ त्रिवर्ग सिकिके लिए सर्व प्राणिमात्रनें अपने ज • न्मसें जीवित पर्यंत अगरह कृत्य करना सोकहते हैं. __ प्रथम कृत्य यहहे की जैनोने धर्म, अर्थ, काम यह तीन वर्ग यथायोग्य साधन हो शके एसे स्थान पर निवास करना क्योंकी जहां जिनमंदिर, अपने स्वजातीयजन, अपने गुरुकी जोगवाई, खान पान शु ही न होय एसे स्थानपर रहनेंसें सुख न हो सकेगा. उसरा कृत्य यहहे की त्रिवर्गसिझिके लिए यथायोग्य विद्यान्यास करणा क्यों की संपूर्ण विद्या न होय तो सर्व प्रकारसे दानी प्राप्त होवेगी. त्रिवर्ग संसि किन हो शकेगी. तीसरा कृत्य उत्तम स्त्रीसे लग्न करना क्यों की स्त्री विना त्रिवर्गका सुख साधन न हो सकता हे. __ चोथा कृत्यमे सन्मित्रोंसे मित्रता रखणी क्यों की सन्मित्रोंके सहवाससे कश्कर वातोंका लान मिल शक्ता हे नहिबणे तोजी एक दो धर्म मित्रतो अवश्य रखना चाहिये. पंचम कृत्य यहहे की उत्तम प्राणीने यथाशक्ती एक जिन मंदिर अवश्य करना क्यों की इससे ल क्ष्मी की साफल्यता और जन्म सफल होता हे. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनधर्मसिंधु. बके कृत्यमें अपने न्यायो पार्जित वित्तसें बहुत नहितो एक दो चारनी प्रतिमा जरावणी. सातमे कृत्यमें यथाशक्ती प्रतिष्टा अंजन शलाकाके महोत्सव करने. ' आपमे कृत्यमें पुत्रादिकोंकों धर्मयोग्य करने. नवमें पदस्थोके पद महोत्सव यथाशक्ती करना. . दशमें कृत्यमे नीति, व्यवहारीक, धार्मीक शास्त्रे वांचनेका, संग्रह करनेका सोख रखणा. ग्यारहमें कृत्यमें पौषधशाला, विद्याशाला, धर्म शाला, औषधशाला, पांगुलाशाला यथाशक्ती करना. बारहमें कृत्यमे धर्म शुद्धिके लिए प्रतिमा वहना. तेरहमे कृत्यमें जीवित पर्यंत सम्यक्त पालनाचवदमे कृत्यमें जीवित पर्यंत यथाशक्ती व्रत पच्च काणकों निरतिचार परिपालन करना.. पंदरेमे कृत्यमें शक्ती होय तो दीक्षा लेना. सोलहमे कृत्यमें वृद्धावस्थामें श्रारंज परिग्रह और अधिक खटपटोंका त्याग करना. सत्तरामे कृत्यमे वृद्धावस्थामे शीलपरिपालन करना. अगरहमें कृत्यमें अपना शमाधि मरण होय एसे साधन न रखने ( सत्संगती प्रमुख रखके पुर्गती से बचनां. और मनुष्य जवकों सफल करना॥ ॥शत आजन्म कृत्यानि समाप्तानि ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिजेद. ॥ अथ चतुर्थ परिछेद प्रारंजः ॥ ॥ अथश्री सीमंधर जिन स्तवन ॥ रासडाना राग मां ॥ रुपैयो ते श्रावँ रोकमो. महारा वालाजी रे ॥ ए देशी॥ ॥ मनहुं ते महारं मोकले, महारावालाजीरे ॥ ससिहर साथे संदेश ॥ जश्ने कहेजो महरावाला जी रे ॥ ए आंकणी ॥ जरतना नक्तने तारवा ॥ मा० ॥ एक वार श्रावोने आदेश ॥ ज० ॥१॥ प्रजुजी वसो पुष्करावती ॥ मा महाविदेह खेत्र मकार ॥ ज० ॥ पुरी राजें पुंडरिगिणी ॥ मा० ॥ जिहां प्रज्जुनो अवतार ॥ ज० ॥२॥ श्री सीमंधर साहेवा ॥मा॥ विचरंता वीतराग ॥ जश् ॥ पमिबोहो बहु प्राणीने॥मा॥ तेहनो पामे कुण ताग ॥ ज० ॥३॥ मन जाणे कमी मढुं ॥मा ॥ पण पोतें नहीं पांख ॥ ज० ॥ जगवंत तुम जोवा जणी ॥ मा० ॥ अलजो धरे ले ए आंख ॥ जय० ॥ ४॥ पुर्गम महोटा मुंगरा ॥मा॥ नदी नालानो नहिं पार ॥ जय० ॥ घाटीनी आंटी घणी॥ मा०॥ अटवीपंथ अपार ॥ जय० ॥ ५॥ कोमी सोनैये कासीदी ॥ करनारो नहीं कोय ॥ ज० ॥ कागलीयो केम मोकढुं ॥ मा० ॥ होंश तो नित्य नवली होय ॥ जय० ॥ ६ ॥ लखु जे जे लेखमां ॥ मा० ॥ लाख गमे अनिलाष ॥ जय० ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. तमें लेजामा ते सहो ॥ मा० ॥ मुझ मन पूरे डे सांख ॥ ज० ॥ ॥ लोका लोक सरूपना ॥ मात्र ॥ जगमां तुमें बो जाण ॥ ज० ॥ जाण आगे झुं जणावीयें ॥ मा० ॥ श्राखर अमें अजाण ॥ ज०॥ ॥ ॥ वाचक उदयनी विनति ॥ माण ॥ ससिहर कह्या संदेश ॥ ज० ॥ मानी लेजो महारीमा॥ वस्ति दूर विदेश ॥ ज० ॥ इति ॥ ॥अथ श्री युगमंधर जिन स्तवन ॥ श्हा आव एक क्षमा, आशफलं पातक मामार ।। श्रीयु ॥२॥ मुखम समयमा एणे जरतें, श्रतिशय नाणी नवि वरते ॥ कहीयें कहो कोण सांजल तेरे ॥ श्रीयुग ॥३॥ श्रवणें सुखीया तुम नामें, नयणां दरिसणन वि पामे, एतो जगमानो गमेंरे ॥ श्रीयुग ॥४॥ चार आंगल अंतर रहेg, शोकम लीनी परें व सडेवं. प्रन विना कोण आगल शय नाणी नवि वरते ॥ कहीयें कहो कोण सांजल तेरे ॥ श्रीयुग ॥ ३ ॥ श्रवणें सुखीया तुम नामें, नयणां दरिसणनवि पामे, एतो जगमानो गमेंरे ॥ श्रीयुग ॥४॥ चार अांगल अंतर रहेg, शोकम लीनी परें फुःख सहे, प्रजु विना कोण आगल कहे रे ॥ श्रीयुग ॥ ५॥ महोटा मेल करी श्रापे, बेहुने तोल करी थापे, सजान जस जगमा व्यापे रे ॥ श्रीयुग० ॥६॥ बेहुनो एक मतो थावे, Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ चतुर्थपरिछेद. केवल नाण जुगल पावे, तो सविवात बनी आवे रे॥ श्रीयुगः ॥ ७॥ गजलंबन गजगतिगामी, वि चरे विप्रविजय स्वामी, नयरी विजया गुणधामी रे ॥ श्रीयुग ॥ ७ ॥ मात सुतारायें जायो, सुदृढ नरपति कुल आयो, पंमित जिन विजयें गायो रे ॥ श्रीयुग ॥ इति ॥ ॥अथ बीजनुं स्तवन ॥ फतमल पाणीमाने जाय, ॥ए देशी॥ ॥प्रणमी शारद माय, शासन वीर सुहं करूं जी ॥ बीज तिथि गुणगेह, आदरो नवियण सुंदरू जी ॥१॥ एह दिन पंच कल्याण, विवरीने कहं ते सुणो जी ॥ माहा शुदि बीजे जाण, जन्म अनिनं दन तणो जी ॥२॥ श्रावण शुदिनी हो बीज, सु मति चव्या सुरलोकथी जी ॥ तारण नवोदधि तेह, तस पद सेवे सुरथोकथी जी ॥३॥ समेतशिखर शुजाण, दशमा शीतल जिन गणुं जी॥ चैत्र व दिनी हो बीज, वस्या मुक्ति तस सुख घणुं जी ॥४॥ फाल्गुन पासनी बीज, उत्तम उज्ज्वल मासनी जी ॥ अरनाथ तस च्यवन, कर्मदयें तव पास नी जी ॥ ५॥ उत्तम माघज मास, शुदि बीजे वासु पूज्यनोजी ॥ एहिज दिन केवल नाण ॥ शरण करो जीनराजनोजी ॥६॥ करणी रूप करो खेत, सम कित बीज रोपो तिहां जी ॥ खातर किरियाहो Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. जैनधर्मसिंधु जाण, खेड शमता करी जिहाजी ॥७॥ उपशम तप नीर, समकित डोम प्रगट होवे जी ॥ संतोष केरी हों वाम, पञ्चरकाण व्रत चोकी सोहे जी ॥७॥ नासे कर्म रिपु चोर, समकित वृक्ष फल्यो तिहांजी ॥ मांजर अनुजव रूप, उतरे चारित्र फल जिहां जी॥ ए ॥ शांति सुधारस वारी, पान करी सुख लीजीयें जी ॥ तंबोल सम त्यो स्वाद, जीवने संतो ष रस किजीयें जी ॥ १० ॥ बीज करो बावीश उत्कृष्टी बावीश मासनी जी ॥ चोविहार उपवास पालियें शील वसुधासनी जी ॥ ११॥ आवश्यक दो य वार, पमिलेहण दोय लीजीये जी ॥ देववंदन त्रण काल, मन वच कायायें कीजीयें जी ॥ १२ ॥ ऊजमणु शुन चित्त, करी धरीयें संयोगथी जी॥ जिन वाणी रस एम, पीजीयें श्रुत उपयोगथी जी ॥ १३ ॥ एणि विध करिये हो.बीज, रागने देष दरें करी जी ॥ केवल पद लहि तास, वरे मुक्ति उलट धरी जी ॥१४॥ जिन पूजा गुरु त्नक्ति, विनय करी सेवो सदा जी ॥ पद्मविजयनो शिष्य,नक्ति पामे सुख संपदा जी ॥१५॥ इति श्री बीज तिथि- स्तवन ॥ ॥अथ श्री पंचमीनु लघुस्तवन लिख्यते ॥ ॥ पंचमीतप तमें करो रे प्राणी, जेम पामो नि मल ज्ञान रे ॥ पहेलु झानने पड़ी क्रिया, नहिं को ज्ञानसमान रे ॥ पंचमी ॥१॥ नंदीसूत्रमा झा Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिबेद. श्य न वखाएयु, ज्ञानना पांच प्रकार रे ॥ मति श्रुत अ वधि ने मनःपर्यव, केवल एक उदार रे ॥ पंचमी ॥२॥ मति अगवीश श्रुत चउदह विह, अवधि असंख्य प्रकार रे ॥ दोय नेदें मनः पर्यव दाख्युं, के वल एक उदार रे ॥ पंचमी० ॥३॥ चंद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा, जेहवो तेज आकाश ॥ केवलझान स मुं नहिं कोश, लोकालो प्रकाश रे ॥ पंचमी ॥४॥ पारसनाथ प्रसाद करीने, मारी पूरो उमेद रे ॥ स मयसुंदर कहे हुं पण पामुं, ज्ञाननो पांचमो नेद रे ॥ पंचमी० ॥५॥ इति ॥ अथ ज्ञानपंचमी स्तवनं ॥ पुण्य प्रशंसी ॥ एदे शी ॥ सुत सिझारथ नूपनोरे ॥ सिझारथ नगवान ॥ बारह परषदा आगो रे ॥ नाचे श्रीवईमानोरे ॥१॥ नवियण चित्त धरो ॥ मन वच काय अमायो रे ॥ ज्ञान नक्ति करो ॥ ए आंकणी ॥ गुण अनंत आतम तणारे, मुख्यपणे तिहां दोय ॥ तेमां पण ज्ञानज वर्मुरे ॥ जिणथी दंसण होयरे ॥२॥नम् ॥ ज्ञाने चारित्र गुण वधेरे, ज्ञान उद्योत सहाय ॥ ज्ञानें स्थिविरपणुं सहेरे, आचारज जवसायरे ॥३॥ नम् ॥ ज्ञानी श्वासो श्वासमारे, कठिण करम करे नाश ॥वन्दि जिम इंधण दहे रे, क्षणमां ज्योति प्रकाशो रे ॥४॥ नम्॥ प्रथम ज्ञान पढ़ें दया Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनधर्मसिंधु रे, संवर मोह विनाश ॥ गुण गणंग पग थालीयें रे, जेम चढे मोद आवासो रे ॥ ५ ॥ ज० ॥ मर सुथ जेहि मणपजावा रे, पंचम केवल ज्ञान ॥ चन मुंगा श्रुत एक बे रे, स्वपर प्रकाश निदान रे ॥६॥ न० ॥ तेहनां साधन जे कह्यां रे, पाटी पुस्तक आदि ॥ लखे लखावे सांचवे रे, धर्मी धरी अप्रमादो रे ॥७॥ न ॥ त्रिविध आशातना जे करे रे, न णतां करे अंतराय ॥ अंधा बहेरा बोबडा रे, मुंगा पांगुला थायरे ॥ ७॥ न० ॥ लणतां गुणतां न था वडे रे, न मले वक्षन चीज ॥ गुण मंजरी वरदत्त परेंरे, ज्ञान विराधन बीज रे ॥ ए॥न ॥ प्रेमें पूजे परखदा रे, प्रणमी जग गुरु पाय ॥ गुणमंजरी वर दत्तनो रे, करो अधिकार पसायो रे ॥ १० ॥ इति ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ कपूर होये अति उजलोरे ए देशी ॥ ॥ जंबुझीपना नरतमा रे, नयर पदम पुरखास॥ अजितसेन राजा तिहां रे, राणी यशोमती तास रे ॥१॥ प्राणी आराधो वर ज्ञान ॥ एहज मुक्ति नि दान रे ॥ प्राणी ॥ ए आंकणी ॥ वरदत्त कुंवर ते हनो रे, विनयादिक गुणवंत ॥ पितरे जणवा मूकि उरे, आठ वरस जब हुँत रे ॥२॥ प्रा० ॥ पंमि त यत्न करे घणो रे. बात्र नणावण हेत ॥ अदर एक न आवडे रे, ग्रंथतणी शी चेत रे ॥३॥प्रा॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिच्छेद . २०७ कोढें व्यापी देहमी रे, राजा राणी सचिंत ॥ श्रेष्ठी तेहीज नयरमां रे, सिंहदास धनवंत रे ॥ ४ ॥ प्रा०॥ कपूर तिलका गेहिनी रे, शीले शोजित अंग ॥ गुण मंजरी तस बेटडी रे, मुंगी रोगें व्यंग रे ॥ ५ ॥ प्रा० ॥ शोल वरषनी सा थइ रे, पामी यौवन वेश ॥ दुर्जग पण परणे नहीं रे, मात पिता धरे खेद रे ॥ ६ ॥ प्रा० ॥ तेणें अवसरे उद्यानमां रे, विजयसे न गणधार ॥ ज्ञान रयण रयणाय रे, चरणं करण व्रतधार रें ॥ ७ ॥ प्रा० ॥ वनपालक नूपालने रे, दीघ वधाई जाम ॥ चतुरंगी सेना सजी रे, वंदन जावे ताम रे ॥ ८ ॥ प्रा० ॥ धर्मदेशना सांजले रे, पुरजन सहित नरेश ॥ विकसित नयन वदन मुदा रे, नहिं प्रमाद प्रवेश रे ॥ ए ॥ प्रा० ॥ ज्ञान विराधन परजवे रे, मूरख पराधीन ॥ रोगे पीड्या टलवले रे, दीसे दुःखीया दीन रे, ॥ १० ॥ प्रा० ॥ ज्ञान सार संसारमां रे, ज्ञान परम सुखहेत ॥ ज्ञान विना जग जीवमा रे, न लहे तत्व संकेत रे ॥ ११ ॥ प्रा०॥ श्रेष्ठी पुढे मुणींदने रे, जांखो करुणावंत ॥ गुण मंजरी मुज अंगजा रे, कवण कर्म विरतंत रे ॥ १२ ॥ प्रा० ॥ इति ॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ सूरती महिनानी देशीमां ॥ ॥ धातकी खंडना जरतमां, खेटक नयर सुगम ॥ व्यवहारी जिन देव बे, घरणी सुंदरी नाम ॥ १ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ जैनधर्मसिंधु. अंगज पांच सोहामणा, पुत्री चतुरा चार ॥ पंमित पासें शीखवा, तातें मुक्या कुमार ॥२॥ बालस्वना वें रामत, करतां दहामा जाय ॥ पंमित मारे त्यारे, मा आगल कहे थाय ॥३॥ सुंदरी सुखिणी शी खवे, नणवानुं नहीं काम ॥ पंड्यो आवे तेमवा, तो तस हणजो ताम ॥४॥ पाटी खमिया लेखण, बाली कीधां राख ॥ शउने विद्या नवि रुचे, जेम क रहाने जाख ॥५॥पामापरें महोटा थया, कन्या न दीये कोय ॥ शेठ कहे सुण सुंदरी, ए तुज कर णी जोय ॥ ६ ॥ त्रटकी जांखे जामिनी॥ बेटा बाप ना होय ॥ पुत्री होये मातनी, जाणे सहु कोय ॥७॥रे रे पापिणी सापिणी, सामा बोल म बोल॥ रीसाली कहे ताहरो, पापी बाप निटोल ॥ ७ ॥ शेलें मारी सुंदरी, काल करी ततखेव ॥ए तुज बेटी उपनी, ज्ञान विराधन हेव ॥ ए ॥ मूगंगत गुणमंज री, जातिसमरण पामि ॥ ज्ञान दिवाकर साचो, गु रुने कहे शिरनामि ॥ १० ॥ शेठ कहे सुणो खामी, केम जाये ए रोग ॥ गुरु कहे ज्ञान आराधो, साधो वंबित योग ॥ ११॥ उज्ज्वस पंचमी सेवो, पंच व रस पंच मास ॥ नमो नाणस्स" गणणुं गुणो, चो विहार उपवास ॥ १५ ॥ पूरव उत्तर सन्मुख, ज पियें दोय हजार ॥ पुस्तक आगल ढोश्ये, धान्य फलादिउदार ॥ १३ ॥ दीवो पंच दीवट तणो, सा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. थियो मंगल गेह ॥ पोसहमां न करी शके, तणवि धि पारण एह ॥ १४ ॥ अथवा सौजाग्य पंचमी, उ ज्वल कार्तिकमास ॥ जावजीव लगें सेवी, उजम णा विधि खास ॥ १५ ॥ इति ॥ ॥ ढाल चोथी ॥ एकवीशानी देशीमां ॥ ॥ पांच पोथी रे, ग्वणी पागं विटांगणां ॥ चाबखी दोरा रे, पाटी पाटला वतरणां ॥ म सी कागल रें, कांबी खमीश्रा लेखणी ॥ कवली डा बली रे, चंप्रथा करमर पुंजणी ॥१॥ त्रूटक ॥ प्रा साद प्रतिमा तास नुषण, केसर चंदन माबली ॥ वासकूपि वालाकूची, अगं खूहणां बावमी ॥ कलश थाली मंगलदीवो, भारतीने धूपणां ॥ चरवला मुह पत्ती साहमीवबल, नोकरवाली थापना ॥२॥ ढाल ॥ ज्ञान दरिसण रे, चरणनां साधन जे कह्यां ॥ तप संयुत रे, गुणमंजरीयें सदह्यां॥ नृप पूढे रे, वरदत्त कुंवरने अंग रे ॥ रोग उपनो रे, क वण करमना जंग रे ॥३॥ त्रूटक ॥ मुनिराज ना से जंबु छीपें, जरत सिंहपुर गाम ए ॥ व्यवहारी वसु तास नंदन, वसु सार वसुदेव नाम ए ॥ वन माहे रमतां दोय बंधव, पुण्य योगें गुरु मख्या ॥ वे राग्य पामी जोग वामी, धर्मधामी संवर्या ॥४॥ ढाल ॥ लघु बांधव रे, गुणवंत गुरु पदवी लहे॥प एसय मुनिने रे, सारण वारण नितु दिए ॥ कर्म Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ესე जैनधर्मसिंधु. योगे रे, अशुभ उदय थयो अन्यदा ॥ संथारे रे पोरिसी जणी पोढ्यो यदा ॥ ५ ॥ त्रूटक ॥ सर्वघा निंद व्यापी, साधु मागे वायणां ॥ उंघमां अंतराय यातां, सूरि हुआ दूमणा ॥ ज्ञान ऊपर द्वेष जाग्यो, लाग्यो मिथ्या भूतको ॥ पुण्य अमृत ढोली नाख्युं, जो पाप तो घडो ॥ ६ ॥ ढाल ॥ मन चिंतवे रे, कां मुज लागुं पाप रे ॥ श्रुत अन्यास्यो रे, तो एवडो संताप रे ॥ मुजबांध वरे जोयण सयण सुखें करे ॥ मूरखना रे, आठ गुणो मुख उच्चरे ॥ ७ ॥ त्रूटक ॥ बार वासर को मुनिने, वायणा दीधी नहीं ॥ अशुभ ध्यानें आयु पूरी, भूप तुज नंदन सही ॥ ज्ञानविराधन मूढ जपणं, कोढनी वेदन लही ॥ वृद्धबांधव मान सरवर, हंसगति पाम्यो सही ॥ ८ ॥ ढाल ॥ वरदतने रे, जातिस्मरण उपनुं ॥ जव दीठो रे, गुरु प्र मी कहे शुमनो ॥ धन्य गुरुजी रे, ज्ञानजगत्रय दीवो ॥ गुण अवगुण रे, जासन जे जग परवडो ॥ एए ॥ ० ॥ ज्ञानपावन सिद्धि साधन, ज्ञान कहो केम वडे || गुरु कड़े तपथी पाप नासे, टाढ जेम घन तावकें ॥ नूप पजणें पुत्रने प्रभु, तपनी शक्ति न एवमी ॥ गुरु कहे पंचमी तप आराधी, संपदा यो बेवडी ॥ १० ॥ इति ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिच्छेद. २०१ ॥ ढाल पाँचमी ॥ मेंदी रंग लागो ॥ ए देशी ॥ ॥ समरुवयण सुधारसें रे, नेदी साते धात ॥ त पशुं रंग नागो ॥ गुणमंजरी वरदत्तनो रे, नागे रो गमिथ्यात्व ॥ ० ॥ १ ॥ पंचमी तप महिमा घणो रे, पस्यो महीयल मांही ॥ त० ॥ कन्यासहस सयं वरा रे, वरदत्त परण्यो त्यांही ॥ त० ॥ २ ॥ नूपें कीधो पाटवी रे, आप थयो मुनि नूप ॥ त० ॥ जी मकांत गुणें करी रे, वरदत्त रवि शशि रूप ॥ ० ॥ ३ ॥ राज रमा रमणी तथा रे, जोगवे जोग य खंड ॥ त० ॥ वरसें वरसें उजवे रे, पंचमी तेज प्रचं ॥ ० ॥ ४ ॥ क्तोगी थयो संयमी रे, पा ले व्रत खट काय ॥ त० ॥ गुणमंजरी जिनचंद्रनेरे, परावे निज ताय ॥ त० ॥ ५ ॥ सुख विलसी थ‍ साधवी रें, वैजयंतें दोय देव ॥ त० ॥ वरदत्त पण ऊपनो रे, जिहां सीमंधर देव ॥ ० ॥ ६ ॥ अमर सेन राजा घरें रे, गुणवंत नारी पेट || त० ॥ लक्ष लक्षित रायने रे, पुण्यें कीधो नेट ॥ त० ॥ ७ ॥ शूरसेन राजा थयो रे, शो कन्या जरतार ॥ त० ॥ सीमंधर सामी कने रे, सुषि पंचमी अधिकार ॥ त० ॥ तिहां पण ते तप श्रादस्युं रे, लोक सहित, भूपाल ॥ त० ॥ दश हजार वरसां लगे रे, पाले रा ज्य उदार ॥ त० ॥ ए ॥ चार महाव्रत चोंपशुं रे श्री जिनवरनी पास ॥ त० ॥ केवल धरि मुक्त गयो Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. रे, सादि अनंत निवास ॥ त ॥ १० ॥ रमणी वि जय शुजापुरी रे, जंबु विदेह मकार ॥ त ॥ श्रम रसिंह महीपालने रे, अमरावती घरनार ॥ तम् ॥ ११॥ वैजयंतथकी चवी रे, गुणमंजरीनो जीव ॥ तम् ॥ मान सरस जेम हंसलो रे, नाम धघु सुग्रीव ॥ त ॥ १२ ॥ वीशे वरसें राजवि रे, सहस चोरा शी पुत्र ॥ त ॥ लाख पुरव समता धरे रे, केवल ज्ञान पवित्र ॥ तम् ॥ १३ ॥ पंचमीतप महिमाविषे रे, नांखे निज अधिकार ॥ त० ॥ जेणे जेहथी सु ख लद्यु रे, तेहने तस उपकार ॥१४॥ त०॥ इति॥ ॥ढाल बही ॥ करकंमुने करूं वंदना ॥ ए देशी ॥ ॥ चोवीश दमक वारवा ॥ हुँ वारी लाल ॥ चो वीशमो जिनचंदरे ॥ हुं वारी लाल ॥ प्रगव्यो प्राण त स्वर्गथी ॥ ९ ॥ त्रिशला उर सुखकंदरे ॥ हुं० ॥१॥ महावीरने करुं वंदना ॥ हुँ॥ए आंकणी॥ पंचमी गतिने साधवा ॥ ९ ॥ पंचम नाण विलास रे ॥ ९० ॥ माहानिशीथ सिझांतमां ॥ हुं० ॥ पंच मी तप प्रकाश रे ॥ हुं० ॥॥ अपराधी पण उक स्यो । ढुंग ॥ चंम कोशियो साप रे ॥ ढुं० ॥ यज्ञ करता ब्रामणो ॥ हुँ ॥ सरखा कीधा श्राप रे ॥ हुँ० ॥६॥ देवानंदा ब्राह्मणी ॥ हुँ॥ रिखजदत्त वली विप्ररे ॥ हूं ॥ ब्याशी दिवस संबंधथी ॥ हूं ॥ कामित पूस्यो क्षिप्र रे ॥ हुं ॥४॥ कर्म रोगने Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. शए३ टालवा ॥ ९० ॥ सवि औषधनो जाण रे ॥ टुं० ॥ श्रादस्यो में श्राशा धरी ॥ ९० ॥ मुज उपर हित श्राणिरे ॥ हुं० ॥ ५॥ श्रीविजयसिंह सूरीशनो ॥ हुं० ॥ सत्य विजय पन्यासरे ॥ ढुं० ॥ शिष्यकपूरवि जय कवि ॥ ९ ॥ चंद किरण जस जास रे ॥ ९० ॥६॥ पास पंचासरा सान्निध्ये ॥ हुं० ॥ खिमाविजय गुरु नाम रे ॥ हुँ ॥ जिन विजय कहे मुफ ह जो ॥ ९ ॥ पंचमी तप परिणाम रे ॥ हूं ॥७॥ कलश ॥ श्य वीर नायक, विश्वनायक, सिकि दाय क, संस्तव्यो ॥ पंचमी तप संस्तवन टोमर, गुंथी निज कंठे उव्यो ॥ पुण्य पाटण, क्षेत्रमांहे, सत्तर त्रा | संवत्सरें ॥ श्रीपार्श्व जन्म, कल्याण दिवसे, सक ल नवि, मंगल करे॥॥इति श्रीपंचमीस्तवनम् ॥ ॥अथ श्री अष्टमीनु स्तवन लिख्यते ॥ ॥हारे मारे गम धरमना साडा पचवीश देश जो ॥ दीपे रे त्यां देश मगध सहमा शिरें रेलो ॥ हारे मारे नगरी तेदमां राजगृही सुविशेष जो ॥ राजे रे त्यां श्रेणिक गाजे गज परें रे लो ॥१॥ हारे मारे गाम नगर पुर पावन करता नाथ जो ॥ विच रंतां तिहा श्रावी वीर समोसख्या रे लो॥हा॥चउद सहस्स मुनिवरना साथें साथ जो ॥ सुधारे तप संयम शियले अलंकस्यारे लो ॥२॥ हांग ॥ फूल्या रस जर फूच्या अंब कदंब जो ॥ जाणुं रे गुणशील Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए। जैनधर्मसिंधु. वन हसि रोमंचीयो रे लो ॥ हां०॥ वाया वाय सुवाय तिहा अविलंब जो ॥ वासें रे परि मल चिहुँ पासें संचियो रे लो ॥३॥ हां ॥ देव चतुर्विध श्रावे कोमा कोड जो॥ त्रिगडेरे मणि हेम रजतनुं ते रचे रे लो ॥ हां ॥ चोशह सुरपति सेवे होमाहोम जो ॥ श्रागें रे रस लागे, इंशाणी नचे रे लो ॥४॥ हा० ॥ माणमय हेम सिंहासन बेग आप जो ॥ ढाले रे सुर चामर मणि रत्ने जड्यां रे लो ॥ हां०॥ सुणतां कुंकुनि नाद टले सवि ताप जो ॥ वरसे रे सुर फूल सरस जानू श्रड्यां रे लो ॥५॥ हां ॥ ताजे तेजे गाजें घन जेम ढुंब जो॥राजे रे जिन राज समाजे धर्मने रे लो॥ हां ॥ निरखी हरखी आवे जनमन ढुंब जो ॥ पोषे रे रस न पडे धोखे नर्ममा रे लो ॥६॥ हां ॥ आगम जाणि जिननों श्रेणिक रायजो ॥ श्राव्योरे परवरियो हय गय रथ पायगे रे लो ॥ हां ॥ दक्ष प्रदक्षिणा वंदी बेगे गय जो ॥ सुणवा रे जिनवाणी मोटे नायगे रे लो ॥॥हा॥ त्रिजुवन नायक लायक तव जगवंत जो ॥ आणीरे जन करुणा धर्मकथा कहे रे लो ॥ हां ॥ सहज विरोध विसारी जगना जंत जो ॥ सुणवा रे जिनवाणी मनमां गह ॥ ॥ इति ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. ॥ ढाल बीजी ॥ वालम वहेलारे आवजो ॥ ए देशी॥ ॥ वीरजिनवर एम उपदिशे, सांजलो चतुर सु जाण रे ॥ मोहनी निंदमां कां पमो, उलखो धर्मनां गण रे ॥ विरति ए सुमति धरी आदरो ॥१॥ ए आंकणी ॥ परिहरो विषय कषाय रे, बापमा पंच परमादथी ॥ कां पडो कुगतिमां धाय रे ॥ वि०॥२॥ करी सको धर्मकरणी सदा, तो करो ए उपदेश रे॥ सर्वकाले करी नवि शको, तो करो पर्व सुविशेषरे ॥ वि० ॥३॥ जू जूत्रा पर्व षट्नां कह्यां, फल घणां श्रागमें जोय रे ॥ वचन अनुसारें आराधतां, सर्वथा सिकिफल होय रे ॥ वि०॥४॥जीवने आयु परन व तणुं, तिथिदिने बंध होय प्रायरे ॥ तेह नणि एह आराधतां, प्राणि सति जाय रे ॥ विणाय॥ तेहवे अष्टमी फल तिहां, पूजे गौतम स्वामरे ॥ज विक जीव जाणवा कारणे, कहे वीर प्रजु तामरे ॥ वि०॥६॥ अष्ट महा सिसि होय एहथी, संपदा श्राग्नी वृद्धि रे॥ बुझिना पाठ गुण संपजे, एह थी आठ गुण सिकिरे ॥ वि०॥ ७ ॥ लाज होय श्राउ पडिहारनो, अव पवयण फल होयरे ॥ नाश श्रम कर्मनो मूलथी, अष्टमीन फल जोय रे ॥ वि०॥ ॥ आदि जिन जन्म दीक्षा तणो, अजितनो जन्म कल्याण रे ॥ च्यवन संजव तणो एह Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए जैनधर्मसिंधु. तिथे, अजिनंदन निर्वाण रे ॥ वि एसुमति सु व्रत नमि जनमीया, नेमनों मुक्तिदिन जाणरे ॥ पास जिन एह तिथे सिझला, सातमा जिनच्यवन माण रे ॥ वि० ॥ १०॥ एह तिथि साधतो राजि, दंडवीरज लह्यो मुक्तिरे ॥ कर्म हणवा जणी अष्टमी, कहे सूत्र नियुक्तिरे ॥ ११ ॥ अतीत अनागत का लना, जिन तणां के कल्याण रे ॥ एह तिथे वली घणा संयमी, पामशे पद निर्वाणरे ॥ विण ॥१॥ धर्मवासित पशु पंखिया, एह तिथे करे उपवास रे ॥ व्रत धारि जीव पोसों करे, जेहने धर्म अन्यास रे वि० ॥ १३ ॥ नांखियो वीरे श्रापम तणो, नविक हित एह अधिकार रे ॥ जिन मुखें उच्चरी प्राणिया, पामशे जव तणो पार रे ॥ वि०॥ ॥ १४ एहथी संपदा सवि लहे, टले कष्टनी कोम रे ॥ सेवजो शिष्य बुध प्रेमनो, कहे कांति करजोम रे ॥ वि० ॥ १५ कलश ॥ एम त्रिजग नासन, श्र चल शासन, वर्डमान जिनेश्वरू ॥ बुध प्रेमगुरु, सुपसाय पामी, संथूण्यो अल वेसरू ॥ जिन गुण प्रसंगें, नण्यो रंगे, स्तवन ए, आठमी तणो ॥ जेन विक नावे, सुणे गावे, कांति सुख, पावे घणो ॥१॥ इति अष्टमी स्तवनं समाप्तं ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिवेद. ए ॥ अथ श्री एकादशी स्तवन लिख्यते ॥ ॥ जगपति नायक नेमि जिणंद, द्वारिका नगरी समोसया ॥ जगपति वंदवा कृष्ण नरिंद, जादव कोमशुं परिवस्या ॥१॥ जगपति छीगुण फूल अमू ल, जक्तिगुणे माला रची ॥ जगपति पूजी पूजे कृ. ष्ण, दायिक समकित शिवरुचि ॥२॥ जगपति चारित्र धर्म अशक्त, रक्त श्रारंन परिग्रहे॥ जगप ति मुज श्रातम उझार, कारण तुम विण कोण कहे ॥३॥ जगपति तुम सरिखो मुफ नाथ, माथे गाजे गुण निलो ॥ जगपति कोय उपाय बताव, जेमकरे शिववधू कंतलो ॥॥ नरपति उज्ज्वलमागशिर मास आराधो एकादशी ॥ नरपति ऐकशोनेपचाश,कल्या एक तिथि जबसी ॥५॥ नरपति दश क्षेत्रे त्रण काल, चोवीशी त्रीशे मली ॥ नरपति नेवू जिननां कल्याण, विवरी कहुं आगल वली ॥६॥ नरपति अर दीक्षा नमि नाण, मलिजन्म व्रत केवली॥ नरपति वर्तमान चोवीशी, मांहे कल्याणक श्रावली ॥७॥ नरपति मौन पणे उपवास, दोढशो जप मा ला गणो ॥ नरपति मन वच काय पवित्र, चरित्र सू यो सुव्रत तणो ॥ ७॥ नरपति दाहिण धातकीखंम, पश्चिम दिशि श्नुकारथी ॥ नरपति विजय पाटण अनिधान, साचो नृप प्रजापालथी ॥ ए ॥ नरपति नारी चंझावती तास, चंप्रमुखी गजगामिनी ॥ नर Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैनधर्मसिंधु. पति श्रेष्ठी शूर विख्यात, शीयल सलीला का मिनी ॥ १० ॥ नरपति पुत्रादिक परिवार, सार भूषण ची वर धरी ॥ नरपति जाये नित्य जिनगेह, नमन स्तवन पूजा करे ॥ ११ ॥ नरपति पोषे पात्र सुपात्र, सामायिक पोष वरे ॥ नरपति देववंदन आवश्य क, काल वेलायें अनुसरे ॥ १२ ॥ इति ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ एकदिन प्रणमी पाय, सुव्रत सा धुतारी ॥ विनयें विनवे शेठ, मुनिवर करी करुणा री ॥ १ ॥ दाखो मुऊ दिन एक, थोमो पुण्य कीयो री ॥ वाधे जिम वम बीज, शुभ अनुबंधी थ यो री ॥ २ ॥ मुनि जासे महाजाग्य, पावन पर्व घणां री ॥ एकादशी सुविशेष, तेहमां सुण सुमना री ॥ ३ ॥ सित एकादशी सेव, मास इग्यार लगें री ॥ अथवा वरस इग्यार, उजवी तपशुं वगे री ॥ ४ ॥ सांजलि सद्गुरु वेण, आनंद श्रति उल्लस्यो री ॥ तप सेवी उजविय, आरण स्वर्ग वस्यो री ॥ ५ ॥ एक विश सागर याय, पाली पुण्य वसें री ॥ सांजल केशवराय, श्रागल जेद यशे री ॥ ६ ॥ सोरीपुरमां शेठ, समुद्रदत्त वडो री ॥ प्रीतिमति प्रिया तास, पुण्यें जोग जड्यो री ॥ ७ ॥ तस कूंखें अवतार, सू चित शुभ स्वपनें री ॥ जनम्यो पुत्र पवित्र, उत्तम ग्रह शुकने री ॥ ८ ॥ नाल निक्षेप निधान, भूमिथी प्रगट हवो री ॥ गर्जदोहद अनुजाव, सुव्रत नाम Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिजेद. व्यो री॥ए ॥ बुद्धि उद्यम गुरु जोग, शास्त्र अ नेक जण्यो री ॥ यौवनवय अगीयार, रूपवती स्त्री परण्यो री ॥ १० ॥ जिन पूजन मुनिदान, सुव्रत पचरकाण धरे री॥ अगीयार कंचन कोम, नायक पुण्य नरेरी ॥ ११॥ धर्मघोष अणगार, तिथि अ धिकार कहे री॥ सांजलि सुव्रत शेठ, जाति स्मरण लहेरी॥ १२ ॥ निजप्रत्यय मुनि शाख, नक्तं तप उच्चरे री ॥ एकादशी दिन श्राउ, पहोरो पोसो धरे री॥ १३ ॥ इति ॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ पत्नी संयुतें पोसह लीधो, सुव्रत शेतें अन्यदा जी ॥ अवसर जाणी तस्कर आ व्या, घरमां धन बुंटे तदा जी ॥१॥ शासन जक्ते देवि शक्ते, थंगाणा ते बापमा जी ॥ कोलाहल सुणि कोटवाल आव्यो, नूप श्रागल धस्या रांकडा जी ॥२॥ पोसह पारी देव जुहारी, दयावंत लेनेटको जी॥रायने प्रणमी चोर मूकावी, शेतें कीधो पारणों जी ॥३॥ अन्य दिवस विश्वानल लागो, सोरीपुरमां आकरो जी॥ शेठजी पोसह समरस बेठा, लोक कहे हठ कां करो जी ॥ ४॥ पुण्यें हाट व. खारो शेउनी, उगरी सहु प्रशंसा करे जी॥ हरखें शेठजी तपउजणुं, प्रेमदा साथे श्रादरे जी ॥५॥ पुत्रने घरनो नार जलावी, संवेगी शिर सेहरोजी॥ चउनाणी विजयशेखर सूरि, पासें तपव्रत श्रादरेजी Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनधर्मसिंधु. ॥ ६ ॥ एक खट मासी चार चौमासी, दोसय ब सो हम करे जी ॥ बीजां तप पण बहुश्रुत सुत्रत, मौन एकादशी व्रत धरे जी ॥ ७ ॥ एक अधम सुर मिथ्यादृष्टि, देवता सुव्रत साधुने जी ॥ पूर्वोपाजित कर्म उदेरी, अंगें वधारे व्याधिने जी ॥ ८ ॥ कर्मे नडीयो पापें जमीयो, सुर कहे जार्ज औषध जीजी ॥ साधु न जाये रोष जराये, पाटु प्रहारें यो मुनि जी ॥ ए ॥ मुनि मन वचन काय त्रियोगें, ध्यान न दहे कर्मने जी ॥ केवल पामी जिन पद रामी, सुव्रतनेम कहे श्यामने जी ॥ १० ॥ ॥ ढाल चोथी ॥ कान पयंपे नेमने ए, धन्य धन्य यादव वंश ॥ जिहां प्रभु श्रवतस्या ए ॥ मुज मन मानस हंस, जयो जिन नेमने ए ॥ १ ॥ धन्य शि वा देवी मामी ए, समुद्रविजय धन्य तात ॥ सुजात जगतगुरु ए, रत्नत्रयी अवदात || जयो० ॥ २ ॥ चरण विराधी उपनो ए, हुं नवमो वासुदेव ॥जयो० ॥ तिथे मन नवि उसे ए, चरण धरमनी सेव ॥ जयो० ॥ ३ ॥ हाथी जेम कादव गल्यो ए जाएं उपादेय देय ॥ जय० ॥ तो पण हुं न करी शकुं ए दुष्ट कर्मना ज्ञेय ॥ जय० ॥ ४ ॥ पण सरणो ब लियातणो ए, कीजें सीजे काज ॥ जय० ॥ एहवा वचनने सांजली ए ॥ बांह ग्रह्यानी लाज ॥ जयो० ॥ ५ ॥ नेम कहे एकादशी ए, समकित युत आरा Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिजेद. ३१ ध ॥ जयो॥ थाईश जिनवर बारमो ए, जावि चो वीशियें लाध ॥ जयो ॥६॥ कलश ॥ श्य नेमि जिनवर, नित्य पुरंदर, रेवताचल, मंडणो ॥ बाण नंदमुनि, चंद वरसे राजनगरें, संथुण्यो ॥ संवेग रंग, तरंग जलनिधि, सत्यविजय, गुरु, अनुसरी ॥ कपूर विजय कवि, दमा विजय गणि, जिन विजय जय, सिरि वरी॥१॥ . ॥अथ श्री श्राराधनानुं स्तवन प्रारंज ॥ __॥ दोहा ॥ सकल सिद्धिदायक सदा, चोवीशे जिनराय ॥ सहगुरु सामिनी सरसती, प्रेमें प्रणमुं पाय ॥१॥ त्रिजुवनपति त्रिशला तणो, नंदन गुण गंजीर ॥ शासन नायक जग जयो, वर्षमान वमवी र ॥२॥ एक दिन वीर जिणंदने, चरणे करि परणाम ॥ नविक जीवना हित जणी, पूजे गौतम खा मि॥३॥ मुक्तिमार्ग श्राराधियें, कहो किण परें श्र रिहंत ॥ सुधां सरस तव वचन रस, नांखे श्री नग वंत ॥४॥ अतिचार बालोश्ये, व्रत धरी गुरु शा ख ॥ जीव खमावो सयल जे, योनि चोराशी लाख ॥५॥ विधियुं वली वोसिरावियें, पाप स्थान अढा र ॥ चार शरण नित्य अनुसरो, निंदो कुरित आचार ॥ ६॥ शुजकरणी अनुमोदियें, नाव नलो मन आण ॥ अणसण अवसर आदरी, नवपद जपो सुजाण ॥७॥ शुन्जगति आराधन तणा, एडे दश . Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ जैनधर्मसिंधु. अधिकार ॥ चित्त श्राणीने श्रादरो, जेम पामो वन पार ॥॥ ॥ढाल पहेली॥ ॥ए बिंमि किहां राखी ॥ ए देशी ॥ झान दरिसन चारित्र तप वीरज, ए पांचे श्राचार ॥ एह तणा श्ह जव परनवना, आलोश्य अतिचार रे ॥१॥ प्राणी ज्ञान नणो गुणखाणी ॥ वीरवदे एम वाणी रे प्राण ॥ ज्ञा० ॥ ए आंकणी गुरु उलवियें नहिं गुरु विनये, कालें धरी बहुमान॥ सूत्र अर्थ तनय करी सूधां, नणीयें वही उपधा न रे ॥२॥ प्रा० ॥ झा ॥ज्ञानोपकरण पाटी पोथी, उवणी नोकरवाली ॥ तेह तणी कीधी श्रा शातना, ज्ञान नक्ति न संजाली रे ॥३॥ प्रा० ॥ इत्यादिक विपरीतपणाथी, ज्ञान विराध्यु जेह ॥ श्रा नव परजव वलिय नवोनवे, मिबाबुक्कम तेह रे॥ ॥ ४ ॥ प्राणी समकित ल्यो शुक जाणी॥ ए आंकणी ॥ जिनवचनें शंका नवि कीजे, नवि पर मत अनिलाख ॥ साधुतणी निंदा परिहरजो, फ लसंदेह म राख रे ॥५॥प्रा० ॥ स० ॥ मूढपणुं बंगो परसंसा गुणवंतने आदरियें ॥ सामीने धर्मे करी थिरता, नक्ति प्रनावना करीये रे ॥६॥ प्राण ॥ ॥ स ॥ संघचैत्य प्रासाद तणो जे, अवर्णवाद म न लेख्यो ॥ अव्य देवको जेविणसाड्यो, विणसंतां Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिजेद. ३०३ उवेख्यो रे॥७॥ प्राण स ॥ इत्यादिक विपरीत पणाथी, समकित खंड्यु जेह ॥ आनव० ॥मिछान ॥७॥प्रा०॥ चारित्रव्यो चित्त श्राणी ॥ ए श्रांक णी ॥ पांच समिति त्रण गुप्ति विराधि, आठे प्रवच न माय ॥ साधुतणे धर्मे परमादें, अशुफ वचनमन काय रे ॥ ए॥प्रा० ॥ चाण ॥ श्रावकने धर्मे सामा यिक, पोसहमां मन वाली ॥ जे जयणा पूर्वक जे आवे, प्रवचन माय न पाली रे ॥१॥ प्राण ॥ चा॥ श्त्यादिक विपरीतपणाथी, चारित्र मोड्यु जेह ॥ आजव०॥ मिठा ॥ ११ ॥ प्रा० ॥ चा ॥ बारें नेदें तप नवि कीधुं, बते योंगें निज शक्ते ॥ धर्में मनवचन काया वीरज, नवि फेरवियो नगतें रे॥ ॥ १२ ॥ प्राण ॥ चा० ॥ तपवीरज श्राचारें एणी परें विविध विराध्या जेह ॥ आजव ॥ मिला ॥ १३॥ प्राण ॥ चा० ॥ वलीय विशेष चारित्र केरा, अतिचार बालोय ॥ वीर जिणेसर वयण सुणीने, पाप मयल सवि धोश्य रे ॥ १४ ॥प्राण ॥ चा० ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ पामी सुगुरुपसाय रे ॥ ए देशी॥ ॥ पृथिवी पाणी तेज रे, वान वनस्पति ॥ एपांचे थावर कह्यां ए॥ करि करसण आरंज, खेत्र जे खेमीयां ॥ कूवा तलाव खणावीयां ए॥१॥ घर आरंज अनेक, टांकां नोयरां ॥ मेडी माल चणावी याए । लिंपण चूंपण काज, एणी परें परपरें ॥पृथि Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनधर्मसिंधु. वी काय विराधीया ए॥॥धोयण नाहण पाणी, जील ण अपकाय ॥ डोतीधोती करी दूहव्यां ए ॥ जाती गर कुंजार, लोह सोवनगरा ॥ नामजुजा लिहाला गरा ए ॥३॥ तापण शेकण काजें, वस्त्र निखारण ॥ रंगण रांधण रसवतीए ॥ एणी परे कर्मादान, परे परिं केलवी ॥ तेज वाज विराधीया ए॥॥ वाडीवन आराम, वावी वनस्पति ॥ पान फूल फल चुंटीयां ए ॥ पोहक पापमी शाक, शेक्यां शूकव्यां ॥ बुंद्यां बेद्यां आथीयां ए॥५॥ आलसीने एरंग, घाणी घालीने ॥ घणा तिलादिक पीलीया ए ॥ घाली कोढुं मांहि, पीली सेलमी ॥ कंद मूल फल वेचीयां ए॥६॥ एम एकेंजिय जीव, हण्या हणाविया ॥ हणतां जें अनु मोदीया ए॥श्रा नव परनव जेह, वलिय, नवोनवें ॥ ते मुफ मिलामि मुक्कम ॥ ७॥ क्रमी सरमीयां कीमा, गामर गंमोला ॥श्यल पूरा श्र लसीयां ए ॥ वाला जलो चुडेल, विचलित रसत णा ॥ वली अथाणां प्रमुखना ए ॥ ७॥ एम बेई जिय जीव, जे में दूहव्या ॥ ते मुज ॥ उद्देही जूं लीख, मांकड मंकोडा ॥ चांचड कीडी कुंथुआ ए ॥ए॥ गदहीयां घीमेल, कान खजूरडा॥गींगोमांधनेमी यां ए ॥ एम तेइंडिय जीव, जे में उहव्या ॥ ते मु ऊ ॥ १०॥ माखी मत्सर मांस, मसा पतंगीया ॥ कंसारी कोवियावंडाए ॥ ढींकणवी तीड, नमरा Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. ३०५ जमरीयो ॥ कोता बग खममांकमी ए ॥ ११॥ एम चौरिंजिय जीव, जे में दूहव्या ॥ ते मुज०॥ जलमां नाखी जाल, जलचर दूहव्या ॥ वनमा मृग संतापी या ए ॥ २ ॥ पीड्या पंखी जीव, पामी पासमां ॥ पोपट घाट्या पांजरे ए ॥ एम पंचेंजिय जीव, जे में उहव्या ॥ ते मुज० ॥ १३ ॥ ॥ढाल त्रीजी॥ ॥ प्रथम गोवाला तणे नवे जी॥ए देशी॥ ॥ क्रोध लोन जय हास्यथी जी, बोल्यां वचन असत्य ॥ कूड करी धन पारकां जी, लीधां जेह श्र दत्त रे ॥ जिनजी ॥१॥ मिलापुक्कड श्राज, तुज साखें महाराज रे ॥ जिनजी॥ देश सारूंकाज रे॥ जिनजी॥ मि ॥ ए श्रांकणी ॥ देव मनुज तियंचना जी, मैथुन सेव्यां जेह ॥ विषयरस लंपटपणे जी, घणुं विटंब्यो देह रे ॥ जि ॥२॥ मि ॥ प. रिग्रहनी ममता करी जी, जव नव मेली श्रा थ ॥ जे जिहांनी ते तिहां रही जी, को न श्रावी साथ रे ॥ जि ॥३॥ मि० ॥ रयणी नोजन जे कयां जी, कीधा नदय अजय ॥ रसना रसनी सासजी, पाप कस्यां प्रत्यक्ष रे ॥ जि॥शामि॥ व्रत लेई विसारीयां जी, वली जाग्यां पच्चरकाण॥क पटहेतु किरिया करी जी, कीधां आप वखाण रे ॥ जि० ॥५॥त्रण ढाल श्रावे उहे जी, आलोया Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैनधर्मसिंधु. अतिचार ॥ शिवगति आराधनतणो जी, ए पहेलो अधिकार रे ॥ जि ॥६॥ ॥ ढाल चोथी॥ साहेलमीनी देशी॥ ॥ पंच महाव्रत श्रादरी ॥ साहेलमी रे ॥ अथवा त्यो वन बार तो ॥ यथाशक्ति व्रत आदरी ॥ सा० ॥ पालो निरतिचार तो ॥१॥ व्रत लीधा सं. नारीयें ॥ सा० ॥ हियडे धरीय विचार तो ॥ शिव गति आराधनतणो ॥ सा० ॥ ए बीजो अधिकारसाहम्मी संघ खमावियें ॥ सा॥ जे उपनो अमोति शी लाख तो ॥ मन शुळं करो खामणा ॥ सा॥ कोंश्शुं रोष न राख तो ॥३॥ सर्व मित्र करी चिं. तवों ॥ सा ॥ को न जाणो शत्रु तो ॥ राग द्वेष एम परिहरो ॥ सा ॥ कीजें जन्म पवित्रतो ॥४॥ साहम्मी संघ खमावियें ॥ सा०॥ जे उपनी अप्रीति तो ॥ सजान कुटुंब करी खामणां ॥ सा ॥ ए जि नशासन रीति तो ॥५॥ खमियें ने खमावियें ॥ सा० ॥ एहज धर्मनो सार तो ॥ शिवगति आराधनतणो ॥ सा ॥ ए त्रीजो अधिकार तो ॥६॥ मृ षावाद हिंसा चोरी ॥ सा ॥धन मूर्चा मेहुन्नतो॥ क्रोध मान माया तृष्णा ॥ सा० ॥ प्रेम वेष पैशुन्य तो ॥ ७॥ निंदा कलह न किजीयें ॥ सा ॥ कूडां न दीजें आल तो॥रति अरतिमिथ्या तजो ॥साणा माया मोह जंजाल तो ॥ ॥ त्रिविध त्रिविध वो. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. ३०७ सिरावियें ॥ सा ॥ पापस्थान थाढार तो ॥ शिव गति बाराधन तणो॥साए चोथो अधिकार तो॥णा ढाल पांचमी ॥ हवे निसुणो श्हां आवीया ए एदेशी ॥ जनम जरा मरणे करीए, ए संसार असार तो ॥ कस्यां कर्म सहु अनुजवे ए, को न राखणहार तो ॥१॥ शरण एक अरिहंतनुं ए, शरण सिझन गवंत तो ॥ शरण धर्म श्रीजैननो ए, साधु शरण गु णवंत तो ॥२॥ अवर मोह सवि परहरी ए, चार शरण चित्त धार तो ॥ शिवगति बाराधन तणो ए ए पांचमा अधिकार तो ॥३॥था नव परजव जे करयां ए, पापकर्म केई लाख तो ॥ आत्मसाखें ते निंदीयें ए, पडिकमियें गुरु साख तो ॥४॥ मि थ्यामति व वियां ए, जे नांख्यां उत्सूत्र तो ॥ कु मति कदाग्रहने वशे ए, वली थाप्यां उत्सूत्र तो ॥ ५॥ घड्यां घमाव्यां जे घणां ए, घरटी हल हथी यार तो ॥ जव जव मेली मूकीयां ए, करता जीव संहार तो ॥ ६ ॥ पाप करीने पोषिया ए, जनम ज नम परिवार तो ॥ जनमांतर पहोता पली ए, कोश न कीधी सार तो ॥७॥श्रा नव परनव जे कस्यां • ए, एम अधिकरण अनेकतो ॥ त्रिविध त्रिविध वो सिरावीयें ए, आणी हृदय विवेक तो ॥ ॥ दुष्कृ त निंदा एम करी ए, पाप कस्यां परिहार ॥ शिवग . ति आराधन तणो ए, ए हो अधिकार तो॥ ए॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ जैनधर्मसिंधु. ॥ ढाल बही॥आदर तुं जोश्ने श्रापणी ॥ए देशी॥ . ॥धन्य धन्य ते दिन माहरो, जिहां कीधो धर्म॥ दान शीयल तपाचरी, टाल्यां दुष्कर्म ॥ध॥१॥ शत्रुजयादिक तीर्थनी, जे कीधी यात्र ॥ युगतें जिन वर पूजीया, वली पोख्यां पात्र ॥ ध० ॥२॥ पुस्तक ज्ञान लखावीयां, जिणहर जिणचैत्य ॥ संघ चतुर्वि ध सांचव्या, ए साते खेत्र ॥ध० ॥३॥ पमिकमणां सुपरें करयां, अनुकंपा दान ॥ साधु सूरि उवकायनें दीधां बहुमान ॥ ध० ॥४॥ धर्मकारज अनुमोदि ये, एम वारोवार ॥ शिवगति आराधनतणो, ए सा तमो अधिकार ॥ ध० ॥५॥ नाव जलो मन श्रा णीयें, चित्ताणी गम ॥ समता नावें नावीयें, ए आतमराम ॥ ध० ॥६॥ सुख दुःख कारण जीवने, को अवर न होय ॥ कर्म आप जे आचस्यां, नो गवियें सोय ॥ ध०॥७॥ समता विण जे अनुसरे, प्राणी पुण्यनां काम ॥ बारउपर ते लीपणुं, कांखर चित्राम ॥ धम् ॥ ॥ नाव जली परें जावीयें, ए ध मनो सार ॥ शिवगति आराधनतणो, ए आठमो अधिकार ॥ध०॥ ए॥ ॥ ढाल सातमी ॥ रेवतगिरि उपरें ॥ ए देशी॥ ॥हवे अवसर जाणी, करीयें संलेषण सार ॥श्र . सण आदरीयें, पच्चरकी चार आहार ॥ लक्षुता स वि मूकी, बांडी ममता ग ॥ संए श्रातम खेले, स Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. ३०ए मता ज्ञान तरंग ॥१॥ गति चारे कीधा, आहार अनंत निःशंक ॥ पण तृप्ति न पाम्यो, जीव लाल चीयो रंक ॥ मुलहो ए वली वली, अणसणनो प रिणाम ॥ एथी पामीजे, जिवपद सुरपद गम ॥२॥ धनधन्नाशालिन, खंधोंमेघकुमार ॥ अणसण श्रा राधी, पाम्या नवनोपार ॥ शिवमंदिर जाशे, करी एक अवतार ॥ आराधन केरो, ए नवमो अधिकार ॥३॥ दशमे अधिकारे, महामंत्र नवकार ॥ मनथी नवि मूको, शिवसुख फल सहकार ॥ ए जपतां जा ये, पुर्गति दोष विकार ॥ सुपरे ए समरो, चउद पू रवनो सार ॥४॥ जन्मांतरे जातां, जो पामे नवका र ॥ तो पातक गाली, पामे सुर अवतार ॥ ए नव पद सरिखो, मंत्र न को संसार॥श्व नवने पर नवे, सु ख संपत्ति दातार ॥ ५ ॥ जुर्म नीलने नीलमी रा जा राणी थाय ॥ नव पद महिमाथी, राजसिंह म हाराय ॥ राणी रतनवती बेहु, पाम्या ने सुरनोग ॥ एक जवथी वेशे, सिद्धि वधू संयोग ॥६॥ श्रीम ती ने ए वली, मंत्र फल्यो ततकाल ॥ फणिधर की टीने, प्रगट थर फूलमाल ॥ शिवकुमरे योगी, सोव नपुरिसो कीध ॥ एम एणे मंत्रे, काज घणानां सि क॥७॥ ए दश अधिकारे, वीर जिणेसर नांख्यो॥ श्राराधन केरो, विधि जेणे चित्तमा राख्यो ॥ तेणे Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जैनधर्मसिंधु. पाप पखाली, नव जय दूरे नाख्यो ॥ जिन विनय करंतां, सुमति अमृतरस चाख्यो ॥ ७॥ ॥ ढाल आठमी॥ नमो नविनावशु ए ॥ ए देशी॥ सिकारथ राय कुलतिलो ए, त्रिशलामात महा र तो ॥ अवनीतले तुमे अवतया ए करवा अम उ पगार ॥१॥ जयो जिन वीरजी ए ॥ ए आंकणी॥ में अपराध कस्या वणा ए, कहेतां न लडं पार तो॥ तुम चरणे आव्या नणी ए, जो तारे तो तार ॥२॥ ज॥ आश करीने आवीयो ए, तुम चरणे माहा राज तो ॥ आव्याने उवेखशो ए, तो केम रहेशे लाज ॥२॥ ज ॥ कर्म अनुजण आकरां ए, जन्म मरण जंजाल तो ॥ हुं बुं एहथी उन्नग्यो ए, बोडा वो देवदयाल ॥ ४ ॥ ज० ॥ आज मनोरथ मुज फ ट्या ए, नागं फुःख दंदोल तो ॥ तूगे जिन चोवी शमो ए, प्रगट्या पुण्य कबोल ॥५॥ ज० ॥ नव नव विनय तुमारमो ए, नाव नक्ति तुम पाय तो॥ देव दया करी दीजिये ए, बोध बीज सुपसाय ॥ ६॥ ज० ॥ इति ॥ .. ॥ कलश ॥ श्य तरण तारण, सुगति कारण, फुः खनिवारण, जग जयो ॥ श्रीवीर जिनवर चरण थु णतां, अधिक मन, उलट थयो ॥१॥ श्री विजय देव, सुरीद पटधर, तीरथ जंगम, इणि जगे ॥ तप गबपति श्रीविजयप्रन सूरि, सूरितेजे, जगमगे॥२॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिबद. ३११ श्रीहीरविजय सूरि, शिष्य वाचक, कीर्ति विजय, सु रगुरु समो ॥ तस शिष्य वाचक, विनयविजये, थु एयो, जिन चोवीशमो ॥३॥इस सत्तर संवत, उंग ण त्रीशे, रही रांदेर चौमास ए ॥ विजय दशमी, विजय कारण, कि गुण श्रन्यास ए॥४॥ नरन व आराधन, सिकि साधन, सुकृत लील, विलास 'ए ॥ निर्जरा हेतें स्तवन रचियुं, नामे पुण्य, प्रका शए ॥ ५॥ इति श्रीपुण्यप्रकाशस्तवनं समाप्तं ॥ ॥अथ श्री सिद्धचक्रजीनु स्तवन ॥ ॥आ लालनी देशी॥ ॥ समरी शारदा माय, प्रणमी निज गुरुपाय ॥ श्रा लाल ॥ सिकचक गुण गायशु जी॥ ए सिक चक्र श्राधार, नवि उतरे नवपार ॥ श्रा॥ते जणी नवपद ध्यायशुं जी ॥१॥ सिक चक्र गुणगेह, जस गुण अनंत अह ॥ श्रा०॥ समर्यां संकट उपश मेजी लहियें वंबित जोग, पामी सवि संजोग । ॥ श्रा॥ सुरनर ावी बहु नमेजी ॥२॥ कष्ट निवारे एह, रोग रहित करे देह ॥ श्रा॥ मय पासुंदरी श्रीपालनेजी ॥ ए सिक चक्र पसाय, श्रा पदा पूरें जाय ॥ आ॥आपे मंगल मालने जी॥ ॥३॥ ए सम अवर न कोय, सेवे ते सुखीयो होय ॥ श्रा० ॥ मन वच काया चश करीजी॥ नव यां बिल तप सार, पमिकमणु दोय वार ॥ आप ॥ देव Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैनधर्मसिंधु वंदन त्रण टंकना जी ॥४॥ देव पूजोत्रणवार, ग गणुं ते दोय हजार ॥ ॥ स्नान करी निर्मल पणेजी॥ आराधे सिक. चक्र, सान्निध्य करें तेनी शक्र ॥ श्रा०॥ जिनवर जन श्रागें जणे जी ॥५॥ ए सेवो निशिदीस, कहीयें वीशवा वीश ॥ श्रा०॥ बाल जंजाल सवि परिदो जी ॥ ए चिंतामणी रत्न, एहना कीजें यत्न ॥ श्रा॥ मंत्र नही एद उपरें जी॥६॥ श्रीविमलेसर यदा, हो जो मुक परत ॥ श्राप ॥ हूं किंकर बुं ताहरो जी ॥ पाम्यो तुहिज देव, निरंतर करूं हवे सेव ॥ आ॥ दिवस वत्यो हवे माहरोजी॥७॥ विनति करुं बुं एह, धरजो मुजशुं नेह ॥ ० ॥ तमने शुं कहियें वली वली जी ॥ श्रीलक्ष्मी विजय गुरुराय, शिष्य केसर गुण गाय ॥आ॥ अमर नमे तुज लली ललीजी ॥ ॥ नवपदजीनुं स्तवन ॥ नवपद ध्यान सदाजयकारी॥ ए आंकणी॥अरिहंत सिक आचारज पाठक, साधु देखो गुणरूप उदारी ॥ नवपद ॥१॥ दरशन ज्ञान चारित्रहे उत्तम, तप दोअनेदे हृदयविचारी॥नवपदण्॥२॥मंत्रजडी र तंत्र घणेरा, उन सबकुंहमदूर विसारी॥ नवपद॥३॥ बहुत जीव जवजलसे तारे, गुण गावत हे बहु नरना री॥ नवपद ॥॥श्रीजीन जक्त मोहन मुनी वंदत, दिनदिन चमते हरख अपारी॥ नव० ॥ ५॥ति॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्थपरिछेद. ३१३ ॥ मङ्गल॥ रागिणी कालेंगरा मङ्गल मूरत पाशकी या ॥ मग ॥ दारुण पङ्कः सकल मुखहारी, दायकहै सुखरासकीया॥मङ्ग० १॥ सेवन ईन्छ चन्छ रवी सुरगुरु, चाहत हैं नित जा. सकी या ॥ मङ्ग० २॥ निरखत नैन सफल नई आस्या, करण चरणके दासकी या॥मङ्ग३॥ इति॥ रागिणी बाहार आज महोबव रंग रलीरी, जायो सुत त्रिसलादे राणी, कामित पूरण काम कलिरी॥आ॥सजि सिनगार सकल सूर बनिता, आपन आपन मेल चलिरी॥ श्रावत सिझारथके आङ्गण, पूरत मोतीयन चोक मीलिरी॥ श्रा०१॥ईन्छ हुकुम करी धनद पठायो सब बसुधा धन धान्य नरिरी॥कनक रत्नमणि पंच बरणके, कुसुम विखेरत गलीय गलीरी॥श्रा०॥ इन्द्राणी मिल मङ्गलगावे, नाचत नाटक सूर कुमरीरी ॥ बाजत गहर शबद कर मुन्दुनी, वीणा वेणु मृदङ्ग नलीरी॥श्रा३॥ जय जय कार जयो तिहुं जगमे, व्याधि व्यथा सब पूर टलीरी॥ हरखचंद जनमें प्रनु मेरे, मनकी आस्या सफल फलिरी श्रा०४॥ इति ॥ चैतावरकी चाल मङ्गल राजे गिरनार, नेम पद मङ्गल है॥देवा०॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जैनधर्मसिंधु राजमती पद पङ्कज, मंगल रहै नेमी राय ॥ने १॥ मंगल धन धन्या मुनिनायक, सव तपसि बिच सार ने०॥ मंगल गणपति मंगल पाठक मंगल सव अनगार ॥ ने ३॥ जयजय २ खेम कुशल गुरू, श्रानन्द घन अवतार ॥ ने ४ ॥ इति ॥ रागिणी काफि गावो मङ्गलचार, सखीरी बीर प्रनुको जन्म जयो है । अबधी ज्ञान कर इन्ड कमदीयो, करहुं महोबव सार ॥ स॥१॥ मेरुशिखर पर देव सकल मिल, करत सुत्नक्ति अपार ॥ स०२॥ वसु विधि पूज रचत प्रजुजी कि, सफल करत अवतार ॥सण्३॥ जय जय शब्द करत सूर नर वर, जय जय जगदाधार ॥ स०४॥ अजर अमर पद दायक प्रजुजी, सेवो शिव सुखकार ॥ स० ५ इति ॥ रागिणी ईमन कल्यान कीजे मङ्गलचार, आज घर नाथ पधारे ॥की०॥ पहले मङ्गल जीनजीकी पूजा, घस केशर घन सार॥ आ० १॥ उजे मङ्गल धुप जो खेळं, और चढाऊं पुष्प हार ॥ आ०२॥ तिजे मङ्गल घएटा बजाऊं, फांऊनकी फङ्कार ॥ ३॥ चोथे मङ्गल आरती ऊतारूं, नांचं थेईथे तार पाण्रूप चन्द कहे कहां लग वरएं, शिव लहिये नव पार ॥ श्रा की० ५॥ इति ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिवेद. ११५ रागिणी सोहिनी-ताल यत थाज की रेण सोहाई, दरस मोहनकी में पाई॥ था॥ पद पङ्कज तेरो मन मधुकर मेरो, सदा रहत लपटाई ॥ द० १॥ नवपद ध्यान सदा में चाहुँ, अवर नही दील नाई द० ॥२॥ अजर अमर पद चाहत तुमसे, आनन्द मङ्गल वधाई ॥ द॥३॥इति रागिणी काफी पोढो पोढोजी झषन पीयारे, निमा बस नयन तिहारे ॥ पोढो ॥ प्रनु बालस अती ललसानी, पुढे मरुदेव्या माई॥ पोढो ॥१॥ प्रनु सुनन्द सुमङ्गला राणी, जिनरुच रुच सेज सवारी ॥ पोढो॥२ प्रजु नवल साजन्य सनेही, तुंतो मन वंबित फल देही ॥ पोढो ॥३॥ इति ॥ रागिणी नैरवी राखो नाथ बडाई, हमारी ॥ रा० सेवा चोर सदा मोहे जानो, दरसन देवोनें गुसांई हमारे ॥ राण १॥ अनाथनके नाथ जगत जन वछल, सुन्दर वदन सुहाई हमारे ॥ रा०॥ नानु चन्द प्रजु जल थल अम्वर, जहां देखो तहां सहाई हमारे॥३॥इति रागिणी कालेंगरा ॥ आवो गावो वधाई मोरी साथनीयां॥ श्रावो॥ नृप सुमित्रके पदमा देवी, सुत जायो सुखदारी ॥ आवो १ ॥ जन्म कल्याणक करीये जाको, मुनि Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जैनधर्मसिंधु सुव्रत जिन राईरी ॥ श्रावो० २ ॥ तीन लोकके हित कर प्रगट्यो, नाना कृषि हरषाईरी ॥ श्रावो० ३॥ इति ॥ रागिणी भैरवी - ताल धिमे तेताला वाजतो बधाई राजा नानिके दरबाररे ॥ श्र० ॥ मरु देवाजीने बेटो जायो, नाम कृषन कुमाररे ॥ श्र० १ अयोध्यामे व होवे, मुख बोले जयजयकाररे ॥ घनन २ घण्टा बाजै, देव करे यैथै कररे ॥ श्र० २ ॥ इन्द्राणी सब मङ्गल गावै, लावै मोती मालरे । चन्दन चरची पाये लागे, प्रभु जीवो चिरकालरे ॥ आ० ॥ ३ ॥ नाजि राजा दानदेवे, वरसे खण्डित धाररे ॥ गाम नगर पुर पाटण देवे, देवे मणि जंढाररे श्र० ४ ॥ हाथी देवे साथी देवे, रथ देवे तुखारे । हीर चीर पिताम्बर देवे, देवे सब सिनगाररे ॥ श्र० ५ ॥ तिन लोक को दिनकर प्रगट्यो, घर घर मङ्गलचाररे । केवल कमला रूप निरञ्जन, आवागमन निवाररे ॥ श्र० ६ ॥ इति ॥ रागिणी भैरवी - ताल धिमे तेताला ॥ मङ्गलरे गावत सकल सुरनार ॥ ढेर || मोतीयन थाल जरी जाय वधावत, गावत गीत रसाल ॥ मं० १ केशर चन्दन कावन जरीयारे, कर लीय कंचन थाल ॥ मं० २ ॥ चंद कुशलकी यही घरज है रे, जवोदधि पार उतार ॥ मं० ३ ॥ इति । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिजेद. ३१७ चैतावरकी चाल श्राजकी रेण सोहानि, देखो श्राजकी रतियां ॥ श्रा० ॥ पारस प्रजुजीको जनम नयो है, हरष नई देवा हरष नई वामा राणी ॥ देखो० १॥ अश्वसेन घर वटत बधाई, घर २ अरी देवा घर २ मङ्गल मांनी ॥ दे० प्रा०२॥छार २ सब तोरण थंन है, चोखे मुख सेज सेगनी ॥ दे० प्रा०३ ॥ रतन थाल मुगताफल जरके, चोक पुरे इन्जानी ॥ दे० आ०४॥ सुमन अधमको निज पद दीजे, सुध समकित सहनानी ॥ देखो० श्रा० ॥५॥ इति ॥ जैरवीका पूहा ॥ प्रजुको नाम अमोल है, जामे लगत न मोल। नफा वहोत तोटा नही, जर नरके मन तोल ॥ ए जीब नूला फीरत है, ममताके कबोल । अश्वसेनके लाडले, श्रीपारस मुख बोल ॥ रागिणी जैरवी-ताल यत् । बलिहारीमरु देवी नन्दकी, नज नानिके नन्दन अवध बिहारी ॥ बलि १॥ तिन लोक तिन पावन कीन्हें, आनन्द लहर सुनन्दकी ॥ बलि ॥ कोशलपूर निकट सरजु तट, पूरण कला सो चन्दकी॥ बलि०३ ॥ दास तुमारो करत विनति, जयजय रूषन जिनन्दकी ॥ बलिण ४ ॥ इति ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ जैनधर्मसिंधु. पुनः-ताल तेताल जगदीग तुं मेरा प्रजु प्यारावे, तेरी श्रांखियांदी मानुं अजब बनी है, सुन्दर श्याम दीदारावे ॥ जग १॥घमि पल ५ सुमरण तेरो, कवडं न दीलसें न्यारावे ॥ जग २॥ जो तुफ ध्याया तिन सुख पावा, दरशन ज्ञान आधारावे ॥ जगण्३॥इति॥ पुनः-ताल तेताला आज प्रत्तु तेरे चरण लाग, मिथ्यातनींद मै खोरे। दर्शन कर परशन मन मेरे, आनन्द चित अव होरे ॥ श्राज० १॥ तुम बिन देव अवर नही उजो, देखा त्रिजुवन जोरे ॥ आज ॥ दास तुमारो करत विनती, तुम विन मेरो न कोरे॥ आज ३॥ इति ॥ पुनःताल कवाली नेम जिनन्दजीसैं अांखमली; मोरी रैन दिवस नीत लग रहीरे ॥ने ॥१॥ पहले श्राय उन दोस्ती कीन्ही, ले पीछे बिटकाय दईरे ॥ ने ॥१॥ पसु यन पर प्रजु दया करीनै, शिव रमणीने वर लईरे ॥ ने० ३॥ केई नविक रसना कर दोस्ती, रत्न विम ल पद पाय लई रे ॥ ने० ४ ॥ इति ॥ पनः जगन नररी देखन दे मुखन चन्द, मोरा देवी माता श्रीधन धन, जायोडे झषन जिनन्द ॥७० १ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिजेद. ३१॥ याकुं पूजत अती सुख उपजत, सब जीवन सुख कंद ॥ ज०२॥ यातें हीतकर अरज करत है, ची रंजी रहो तेरानंद ॥ ७०३॥ इति पुनः मेरी लागी लगन, नेम प्यारेसे ॥ मे ॥ सुनरी सखीएक बात हमारी, कहीयो कन्त हमारे से ॥ मे० १॥ जोगन होकर सङ्ग चलुङ्गी, प्रीत त जुं जग सारेसे ॥ मे २॥ नाम लीयासें आनन्द उपजे, कीरत होत उर धारेसे ॥ मे ३॥ इति पुनः रात गई अब प्रात होन जयो, क्या सोवे जिया जागरे रा० ॥ दोय घमी तडको अब रहियो, ऊन धरममें लागरे ॥रा १॥ जिन वानी ऊर वीच धारले, और नरम सव त्यागरे ॥ रा०२॥ आन न्द सुगुरु बचन हित मानो, ए सुधा शिव मार्गरे॥ रा० ४ ॥ इति ॥ रागिणी जैरबी श्रादि जिनन्द, मेरो आदि जिनन्द । दरसन तेरो है सुखकन्द ॥ मे० १॥ तुम दरशन विन क ल न पमत है, बिन मै तो दीन हीन पकड्यो स रण ॥ मे०॥ दास तिहारो अरज करत है जि नजी अवतो बुमावो जवफन्द ॥ मे०३॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. पुनः नवरिया मोरा कोन उतारे बेमा पार । इह सं सार समुद्र गंजीरा, किसबिध उतरूंगा पार ॥ न० ॥ १ ॥ राग द्वेष दोनुं नदियां वहत है । जमर पक त गति च्यार || न० ॥ २ ॥ षन दासको दरसन चहिये । ए वीनती अबधार ॥ न० ३ रागिणी रवी - ताल दादरा जरलावोरे कटोरा केशरका में नब अंग पूजुं पर मेश्वरका ॥ ज० ॥ मरुदेवी कुंखें जन्म लियो है | कुमर नानि रत्ने सरका ॥ ज० १ ॥ केशर चन्दन पुष्प चढाउं ॥ मुख निरखु रुषनेसरका ॥ ज० २ ॥ रत्न जड़ितकी आरती उतारुं । नृत्य करूं परमेश्वर का ॥ ज० ३ ॥ मोती चंदकी एहिज वीनती, चरणन बोकुं परमेश्वरका ॥ ज० ४ ॥ इति ३२० पुनः म्हारो मुंनें कब मिलस्यै मन मेलू ॥ मन मेलू बिन केलिन कलिए । वाले कवल कोई वेलुं ॥ म० १ ॥ आप मिलाथी अंतर राषै ॥ सुमनुष ते न ले लू || म०॥२॥ श्रानन्द घन प्रभु मन मिलियावि न ॥ कौ नवि विलगैंचेलू ॥ म० ३ ॥ भैरवी - ताल दादरा इन्द्राणी प्रभुके वेगी श्रांज्यो कजरा । मे तो नवन करि कर लेही, तुं करले इयाकी जाप जीरा Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिच्छेद. ३१ ॥१॥६॥में पहिराती जुज जुजबंध, पहरा देतुंवाली कपमा॥ई॥२॥ में तो मुगट धरूं सीर उपर तुं पहरा दे फूलुंके गजरा ॥ ई० ॥३॥ नयनानन्द सुर ईन्ज नगति लख, नविजन सम्यक दृष्टि खरा॥३०॥४॥ ताल दादरा। . नयना पीहर वा गये नयना वदल॥नयना वदल गये वनकुं निकल गये, बृतलीना सुधर॥नय१॥व्याह नकुं, आये मेरे उला कहांए ॥ दे दरस गये तोरणसे फिर ॥नय० ॥१॥जोमारथ परमारथ कारण, कंकणको तोड लीया संजमको धरन॥२॥ पशुपुकारे प्रजुजी नीहारे । दुखिया बिचार बोडे बन्धन कतर ॥नय॥३॥ खेलोप्यारी बीमा हमारि।मुळे वेगी बता दो गिरनार कीमगर ॥ने ॥४॥ करुंगी नयन सुखकारी तपस्या में तो लौंगी प्रज्जुके पद पंकज पकर ॥ न॥ पुनः सखीरी म्हारो, नेम गयो गिरनार । तारि है राजुलनार सखिरी ॥ तोरनसे रथ पीडो फेरयो, पशुवारी सुनि पुकार सखिरी ॥१॥ सहसा वलकी कुंज गबिनमें, पंच महाव्रतधार सखिरी॥२॥ राजुल उनी अर्ज करत है, आवागमन निवार स खिरी॥३॥ चंद कपुरा कहे कर जोडी, चरण सरण आधार सखिरी० ॥ इति ॥ . Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ जैनधर्मसिंधु. पुनः मेंतो दासी 'तुमारी विना दाम कि । निजरमें जो उहाँ किसी कामकि ॥१॥ और देवसे काम नही मेरे। दिलमें वसि है सूरत स्यामकी ॥॥मे०॥ घडि घडि पल पल बिन लिन निस दिन । रटन लगी है तेरे नामकी ॥३॥मे॥ राखूगी आमें सुरमें से बढके, जो पांजगी रजमें तेरे धामकी । मे॥४॥तप जप संजममें चित लावो, जेसे मिले राज शिववामकी॥५॥जैनधरम मानव जव पाके । करलेन लाई आतम रामकी ॥६॥ मे॥ दास गुलावकी एहि अरज हे। सार करो मुफ नामकी ॥ मे ७ ॥इति॥ रागिणी गारा नैरवी वस्तुगतेवस्तुनोलदाण, गुरुगम विनानहीपावेरे। गुरुगमविन नहीपाबेकोऊ, नटकत नरमावे॥जवन आरिशे श्वानकुकमा निजप्रतिबिंबनिहालेरे ॥ इतर रूपमनमाहि विचारी,महाशुध विस्तारेरे॥व०॥निर मल फिटक शिलाअंतरगत, करिबर लक्षपर गहिरे॥ दशनपुराय अधिक उखपावे, वेषधरत दिलमांहिरे व०॥२॥सश खेजाय सिंघकुं पकडे । कुवोदिछ दि. खारे॥ निरख हरितेजाणफुसरो । पड्यो ऊंप तिहां खारे ॥व०॥३॥ निजबायावेताल नरमधर ॥ मर सबाल चित मांहिरे ॥ रजु सर्प करि कोज मानत॥ ज्यौलौंसमजत नां हिरे ॥व०॥४॥. नलनी व्रम Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ . नयमान चतुर्थपरिछेद. मर्कट मुगीजिम ॥ त्रमबशअतिऽखपावेरे ॥ चिदा नंद चेतनगुरुगमबिना, मृग त्रमाधरीधावेरे॥५॥इति रागिणी नैरवी-ताल मध्यमान वसोजी मेरे नेननमें महाराज, सामलि सूरत मोह नि मूरत ॥ तारण तरण जिहाज ॥वावानी सुधारस दरस ऊपन्यो॥करतां श्रगम अपार ॥वाचेन विजय करजोडी वीनवे, चरण कमल सिरताज ॥वाति॥ रागिणी गारा जैरवी दीनके नाथ दयाल सबन की । तें काहेकुं कृपा विसारीरे दीन ॥ में हं दीन अनाथ जगत मै, तूं साहिव उपकारीरे ।दीन। पण अपनेकी रीत निब हिये। दो संपद सुखकारीरे दी० ॥ दास चुनी सेव ककी श्ररजी। सुनिये प्रनु जसधारीरे ॥ दी॥इति पुनः प्रजु मोसे कवन वहाने बोलो, रैन दिहा मार्नु ध्यान तुमारा, अंतर दी पट खोलो ॥ प्र० ॥ हाल असांगा तुऊनुं मालुम, जो खामि टुक जोलो ॥॥ श्रास पुरावो दासको स्वामी, ऊटपट सङ्ग मिला लो॥ दास चुनी पायो रत्न अमोलक, वेर २ क्युं तोलो ॥ रागिणी रवी-ताल तेताल जविकनरसेवोशांतिजिनन्द ॥ कञ्चन वरन मनो हरमुरती, दीपत तेजदिनन्द । रन ॥ पञ्चम चक्रध र सोलमजिनवर, विश्वसेननृपकुलचंद ॥ २ म० ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैनधर्मसिंधु. जवदुख जंजन जन मनरंजन, लंबन मृग सुखक न्द ॥ ३० ॥ गुन विलासपदपङ्कजनेटत ॥ पायोप रमानंद ॥ ४ ज० ॥ इति रागिणी भैरवी मे होली - ताल कवाली मेरे जाई जुई गुलावरी ॥ याज पूजनको ल हरख जयो || एटेक || केतकी चंपक मरु मोघरा ॥ फूलकी पगर जरावरी ॥ थाज प्रभु० ॥ १ ॥ मुकट कुंमल शिरबत्र विराजे ॥ यांग शोहे जनावरे ॥ ज० २ ॥ संत सवे मिली जावना जावो ॥ मादल ताल मिलाबरी | आज ३ ॥ अनन्तनाथ जीके गुणगांन ॥ लालगुलाल उमावरी । यज० ४ ॥ कर जोरी प्रधागे अरजी ॥ जवखसे बोमावरी ॥ ०५ पोहोरहे नांम तुह्मारा । ध्यानधरूं शुजनावरी ॥ ० ६ आनन्द हरष वधाई उनको || विनय सहित गुणगावरी ॥ श्र० ७ ॥ इति रागिणी सिन्धनैरवी कुण वन वीर समोसा मैतोसु पिदे श्रवनधुनि आजरी कुण ॥ जंगम तीरथ सुरतरु, जगनायक, श्री जिनराजरी || १ कुण० ॥ गोतमगधर सारिषा, साथै एकादश गणधारी ॥ मुनिचऊदसहससाथे जला, गुरु तारण तरण जिहाजरी ॥ २ कुल० ॥ शमव सरण रच ना रची, मिलच ससुरराजरी ॥ सूर नर विद्याधर मिली || मिलचन विहसंघ समाजरी ॥ ३ कु०॥ घ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. ३२५ णारे दीवशनी नावना ह्मारी,सफल फली सवाज री।चलो सखी विलँवनकीजीये, बंदीजेश्रीजिनराज री॥४ कुण । नाबजगति दिलमें घणी, सकि सा थै सामग्रीसाजरी ॥ हरखचंदरांणी चेलना ॥ साख्या निज आतमकाजरी ॥ ५ कूण ॥ इति रागिणी सिन्धु आदिनाथ जिन प्यारा हो, तेरो दरशन आन न्दकारा १॥ नानि राय मारुदेविके नंदा। तुम ता रण संसारा हो ते॥ तुमरे गुणको पार न पावे, न जन करे जगसारा हो ते३॥ बरस दिवसने पारणे, स्वामी पीयोरस अपारा हो ते ॥४ ईन्छचन्नी पास्या पुरो। मेटो कष्ट हमारा, होते० ५॥ इति रागिणी नैरवी - समऊ परी मोहे समझ परी जगमाया सब कुं ती ज० ॥१॥ आजकाल तुं कहा करै मूख, नांदि जरोसा दिन एक घरी ज० ॥ ॥ गाफिल बिन जर नांहि रहो तुम, सिर पर घुमें तेरे काल अरी जण ॥३॥ चिदानंद ये वात हमारी प्यारे, जाणो हो नित्त दिल मांहि खरी ज॥४ ईति पुनः चितमें धरो प्यारे चितमें धरो ये सीख हमारी अब चितमें धरो, थोमासा जीवनां काज अरे नर, काहेकुं बलपर पंच करो ये ॥१॥ कूम कपट पर Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैनधर्मसिंधु. जोह करण तुम, अरे मन पर नव थाह नरो॥ए॥ ॥२॥ चिदानंद जोए नहीं मानौ तो, जनम मरन नव मुखमें परो ॥ ए ॥३॥ इति ताल दादरा दोनुं दसतो में अगीया रचावो सखी, नयना हमारी प्रजुसेलगी।दोनुजालीकी अंगीया प्रनुकी रचावो ॥ मस्तक मुगट पहनावो सखी ॥ नय० १॥ चलो सखी बागोंमें जईये ॥ चुन २ कलियां चढावो सखी ॥ नय० ॥चलो सखी जिनवंदन जयें ॥ नृत्य करो सब मिलके सखी नय० ॥३॥सांवरी मूरत खूब रची है, देखतही मन नीदारो सखी ॥ नय० ४ ॥ संवत ऊनीसे चऊदेकी साले, माघ वदि तीथ नवमी सखी ॥ नय० ॥ सुन्दर बिजयजीकी एहिअरज है ॥ नित उठ चरण पखालो सखी॥ नय०६॥ इति रागिणी नैरवी मेरो मन लागी रह्यो महावीर चरणमें जाय ॥ सिझारथके नन्दन एसे ॥ मातात्रिसला देवीमाय ॥ मे १॥ जनमतही स्वामी मेरुकंपायो, संसयदीया है मिटाय ॥ मे ॥ दावीकुंम स्वामि जनम लिया हैं, मुगत पावा पुरी जाय । मे जो कोई ध्यावे स्वामी सो फल पावे, चंद किरत गुण गाय मे०॥इति Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ चतुर्थपरिछेद. पुनः न मेरी विनतमीऊर धारो। तुम तारण तिढुं स्वामी। मोहे जरोसो तीहारो ॥१॥ मोसे श्रा जगमें कोई।मैं देख्यो जग सारो ॥२॥ सुन तारण पतीत ऊधारण । जवसागरथी तारो॥३॥ जुल सेवककी चित्त न दीजे, अपनी और नीहारो ॥ प्र० ॥ इति पुनः नाथ नये वैरागी हमारे ॥ कासे जाय कहुँ मेरी सजनी । वीन अवगुन मोहे त्यागी॥ हमा० ॥ परवस तुती जांय पनी है तुहिं तुहिं रटणा लागी॥ ह ना लाल विनोदी ईह रुपको नीरखत । वीर ह व्यथा तन नागी॥हना ॥ इति पुन सीतलनाथनुं स्तवनतारिये मोदे शीतल स्वामी ॥ शीतल स्वामी अन्तर जांमी॥ यांकडी ॥ काल अनादि पुदगलके संग, नटकत जयो हुँ निकामी ॥तारि॥१॥एसो न रहियो कोई थानक, मरण विनाको अंतरजामी ॥२॥ ओर फीर सुक्षम वादर पुदगल ॥ पराबरत कीयो सीरनामी ॥ ३ ॥तारी अधम उधारण बिरुद तिहारो, कृपा करी तारो नव्यजानी । जानुं Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जैनधर्मसिंधु चंद कदे प्रजुजीकी सेवा, सिवसुख की है र निशानी ॥ ४ ॥ तारी इति . पुन अध्यातम स्तवन. __ क्योंकर जक्ति करुं प्रजु तेरी ॥ क्यों० ॥ काम । क्रोध मद मान विषय रस, बोडत गेल न मेरी प्र०॥ करम नचावत तिमहि नाचत, माया वस नट चेरी प्र ॥ दृष्टि राग दृढबंधन बांध्यो, निकसत न सहे सेरी ॥प्र० ॥ करत प्रसंशा सव मिल अपणी ॥ परनिंदा अधिकेरी ॥ कहत मान जिन नाव जगत विन; शिव गत होत न नेरी ॥प्र०॥ इति पुनः संसार नाम जिस्का, जो सारा असार हैं, इस जगमें न कोई मेरा ॥ तेरा नाम सार है ॥ जवजल अगम अथाहरे इसका न पार है ॥ चारो गतिकी जवरां, पडती अपार है। से ॥१॥ जिया देख डरा मेरारे, तुमसे नहीं लिपा ॥तेरे हाथ मेरारे अबतो उधार है ॥ सं० ॥ तुम सिवाय देव मै, ध्यान दूसरा, मैंनेतो अपने दिलमें किया करार हैं ॥ स० ॥३॥ अव डोड सकल वातकुं तेरी शरन गही, जिनदास हाथ जोडके करता पुकार हे ॥सं॥४॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिवेद पुनः ( थियेटर ) मैं अरज करूं, सूनो महाराज | पायो में चरण सरण राखोने प्रभुजी लाज ॥ सु० १ ॥ सुमति जिनन्दा मेरे । सुरत सुहानी तेरे । कुमति न आवे नेडे, महिमां कहांला देखो, सफल घमी हे आज ॥ सु० २ ॥ वैशाख मास जो थाया । सदु लोग हरष पाया । रोग शोग दुख पुलाया । शुक्ल पक्ष देखो सोहे | पंचमी तिथि है आज ॥ सु० ३ ॥ नविन मंदिर बाजै । जहां प्रभुजी विराजे । मानुं शशि सूरज लाजे । चलो सखी सब मिलि । प्रभुजीकुं पुजुं श्राज ॥ सु० ४ ॥ इति । ३२ पुनः सुमति जिनन्दा प्रभु श्राज जुहारो । अष्टद्रव्य लेके श्राय ॥ पुजुं प्रभुजीके पाय । मनहिमें हरष ति योही मेरो ॥ सु० १ ॥ त्र्यायो मैं तुमारे पास । पुरो मेरी जिलाष । दीन बन्धु दिनानाथ जगत उजियारो | ना मिलेगो एसो दाव काज सुधारो ॥ सु० ॥ २ ॥ इति I पुन: ( तुमरि ) नेमि जिन तुमरो दरस लागे प्यारोरे । दरस देख मन आनन्द आवे । पातिक हर गयो सारोरे ॥ ने० १ ॥ मैं हुं दीन अनाथ प्रभुजी । नाथ गरिव नेवाज हो तुमहि । कृपा करी मोहे तारोरे ॥ ने०२ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैनधर्मसिंधु. सेवककी प्रनु एहि अरज है । जब सङ्कटसे निवा रोरे ॥ ने० ३ ॥ इति पुनः सूरत एसी सांवरी। में जांज वारि । प्रजुजी एक अरज सुनो मोरी॥ टेर० ॥ समुद्र विजेजीके नन्दन प्रजुजी, सेवा देवी माता जिके नयननको न ये गुलजारी ॥ सु० १॥ राजुलको परनीजन आ ये । पशुयनको निरख रथ फेरके चले गये गिरनारी ॥ सु०॥ नव नव प्रीत बिनमें तो मी । नेम राजुल मिल हुवे जव मुगतिके अधिका री॥ सु० ३ ॥ दास आस कर अरज करतु है, मे हर मोहे कीजे दरस मोहे दीजे । चरनणकी में जांउ वलिहारी ॥ सु०४॥ इति पुनः सुमति जिन मुजरो हमारो प्रनु लीजेजी ॥ मेघ नृपति जीके नन्दन स्वामी मात सुमङ्गलाके प्यारो जी ॥ सु० १॥ पैसो नर नव पायके प्राणि । नित नित वन्दन किजेजी ॥ सु०॥ असे जिनजीको पूजत प्राणी । जव नव पातिक विजेजी ॥ सु०३॥ दास तुमारो करत वीनति अजर अमर पद दीजे जी ॥ सु० ४ इति पुनः हजूर तुमसे कहुं में दिलकी वेजार पनमें जो Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिजेद. ३३१ वीती वतियां । ह० देर । न धीर तनमें खुसी न दिल में वेहाल पनमें नराई बतियां ॥ ह० १॥ सि कार्थ तिसला के नन्द सुनिये कृपाके सिंधु देवी रस्वामी, संसार वनमें कीयो नमन मैं, चोरासि दलकी यह च्यार गतियां ॥ ह०२॥ कषाय कुमति कुकर्म मिलके दे मार च्यारुं तरफसे घेरयो । सदासे इनकी वेजासही है मैं मेरे दमसे उपाधि अतियां। ॥ ह०३ ॥ रही न वाकी विपतकी वातें न जानुं तुम क्या विशाल ज्ञानी, रहुं सरणमें निहाल कीजै अजैकी लागी चरनसै मतियां ॥ ह० ४ ॥ पुनः साहिव तेरी वंदगी में जुलता नही, जुलता न ही साहव विसरता नही॥ सा टेर ॥ अष्टादश दोष रहित देव है सहि औरदेव अन्यदेव मानता नही ॥ मा सा० १ ॥ मुनि है निग्रंथ सो तो गुरु है सहि और गुरु जैसधारी मानता नही ॥सा॥ जीव दया सुझ सो तो शास्त्र है सहि और शास्त्र आस्या रुपी मानता नही । सा० ॥ ३ दान शिय ल तप जप धर्म है सहि और धर्म विषय मानता नही । सा ४ ॥ मुक्ति रुपी सिक शिला वांबता सहि संसार मुखजाल रूपी मेटीए सहि ॥ साप ५॥ कहत मुनि खेत माल तारिये मोहि आवाग मन मोरी मेटिये सहि ॥ सा०६ इति Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैनधर्मसिंधु. पुनः दीले नादानकुं समझाया चायगें । हाल में हमकुं जगति जली हुवे । सुन शीयल संजमकुं सजवाय लायेगें ॥ दी०॥ अष्टकर्मोंकी प्रकृतिका सञ्चय होए जाहिल । वंध वा उदय उदीरण सत्तामें तूं गाफि ल । महाराजा मोहकी गति नाति से उलका सा मिल । सागर कोमा कोमी सतरे काठीया नव सा मिल । चउनाणी अनगार जिनके हीये इस धाई ल। जैसे कर्म मोह मदनकुं जीतावी चायेगें। दिल २॥ इति पुनः आवो नेम रह जावो सदन, हमको न सता वोरे । आ० (टेर ॥ ब्याहन आए सजकै सऊन, पशुवनकी सुन देख रुदन। गिरनारी चले निज बांड वतन् तकसीर बतावोरे ॥ ये० १॥ पूनम जैसे चंद बदन, मोहन मुरति श्याम बरण, मेरी निकी लागी नव जवकी लगन, मत बेह दिखावोरे ॥२॥ ये रिहम् ॥ संजम दूती लागि श्रवन्, प्रजुको सिखाए नीके फिरन् । प्रज्जु तारण ना म तुह्मारो तरण । रथ फेरिन जावोरे येरिर० ३ ॥ कपूर कहे प्रजुजीके चरन् राजुल मन वेराग धरण ले दोम नेमि जिनजीकी सरण, शिवपूरतो दिखा वोंरे ॥ ये रिशि० ४ ॥ इति Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. ३३३ पुनः (पहामी) कधी प्रजु पदमें मन लाया तो होता, अरे नि रगुनका गुण गाया तो होता । पडां है बेखबर मा याके फंदमें, जगतजंजालसुं बजाया तो होता ॥ ज क० १॥ अब अबसर आमिला, टुक सोच प्यारे, श्रातम हितकार प्रजु ध्याया तो होता ॥क०॥ तुं है मनमोहनके त्रिशलानंद प्यारा । जिन सेवामें सुख पाया तो होता, पुरायो आश चुनीकी प्रनुजी, दिल नर दरस दिखलाया तो होता ॥ ०३॥ इति पुनः शांति वदनकज देख नैन मधुकर मन लीनोरे॥ जलाम टेर ॥ श्रीजिनके मकरंद बैन । विरमीन व पुरगन्ध रैंण शिवपुरके सदासुख कंद दैन। सम कितरस नीनोरे ॥ न १ कामित पूरण काम धेन । मद मोहके चूरण गंम फॅन, लहे मनको अली श्राराम चेन, गुंजै अति कीनोरे ॥ २॥ कपूर कहे जिनपदका अन । उरधारो नवि तारोन । हो य मुक्ति सेऊ पर सार सैन । आगम कह दीनोरे ॥जला ॥ इति पुनः दिवाना तेरे दरसका यार मै हुँ। जो रखता हुँ तुऊसे सरोकार में हुं ॥ दि०॥ तेरा ध्यान रहता है हरदम् मुझको । टुक एक महर कीजो लाचार Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैनधर्मसिंधु. में हुँ ॥ दि॥ दया नाव धारो प्रनु चरणसे लगा लो खवर लोगे मेरा गुणेगार में हुं । दि० ॥ दरसवे गी दिजीये दया कर चुन्नीको, जगन्नाथ तुम हों, तावेदार में हुं ॥ दि॥ इति ॥ पुनः ध्यानमें जिनके सदा लयलीन होना चाहिये, झान गुरु ज्ञानीसे ले परवीन होना चाहिये ॥ राह सञ्जमका पका कल्यानकी सूरत मिले, काल गफलतमे सजन् , नाहक नखोना चाहिये ॥ ध्या० ॥ धर्मकी खेती किया चाहे जमीकुं साफ रख वीज समकितको हृदयमें सच्चेसे वोना चाहिये ॥ध्या०॥ कामना मनकी सफल श्रानन्दसे पूरन नई, अवतो समता सेजउपर सुखसे सोना चाहिये । दास चुन्नी अपने घर आंगनमे फूलेगा कलप । जव थिति प कनेसे मुक्ति फल सलोना चाहिये ॥ ध्या० ॥इति॥ पुनः (तुमरि) श्रीआदिनाथजीका देख दरश सुविधा मोरी मिट गईरे ॥ आज मुवि ॥आनंद आज जयो मेरो मन ॥सिव सुख चाहतहुं प्रज्नु हाथन ॥ जिन की मुर त चंदनसे तनमनसे लपट गरे ॥ श्राज मुवि० ॥१॥ अष्टप्रव्य ले पूजन आये वीतराग के दरशन पाए जिनवांनी कानोंसे सुनी फुरगत मोरी कट गरे ॥ श्रा० ॥२॥ काल अनादि मैं प्रज्जु फिरी Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिबेद. ३३५ यो, कारजएक मेरोनासरीयो, अब मैं तेरो दरशन पायो कुमति मोरी हटगईरे ॥ श्रा० ॥३॥ जबल ग मुक्तन आबे नेडे, तबग लक्तिवसौ उर मेरे, श्रात्म सुझ समकित धरके शिव रमणी वर लश्रे॥श्रान्॥इति पुनः (खाम्बाज) जिनंदकी मैं वारी बवि प्यारी, वारी जाजं वार हजारी ॥ जि०॥ वदन वि मांनुचंद शरदसी, मेटो अशुन अंधियारी ॥ जि० ॥१॥ निरख चकोरी ह रष नरानी, नैनन मङ्गल कारी ॥ जि ॥२॥ चुन्नी तृप्त होत दरसनसे, आसा पूरो हमारी॥ . पुनः एहाल अपना कहूं मैं कासे, सजन विना नर जर श्रावै बतिया ॥ ए० ॥ न ताव तनमें न चयन दिलको विरहका मारा वेहाल मतिया ॥ ऐ०॥ न कोई ऐसा हकीम देखू जो मेरे दिलको करार श्रावै, सखी खजनका खबर जो पाऊं, तो लिख लिख पगऊं पतिया ॥ ए ॥२॥ जल विन मीन क्योंकर जीवे,अरज इतना विचार देखो, एजीव जीवन पिया दरश विन, कटैगा कैसे अन्धेरी रतियां ॥ ए क पटके पट खोल आए सजन सखी गये मुख जन म जनम के । चुन्नी निरुपम दरसकै आगे कह मैं अव क्याअनुठी वतियां ॥ ए० ॥ इति ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जैनधर्मसिंधु श्री पंच तीर्थ जिन स्तुति. नृपतनयेवर हे मन माके. ए राह. श्री जिनराज सदा सुखकारी,दास नमे शिरन मनकरी तुम शरणांगत श्राव्यांबालक, तारो हे प्रनु मेहर करी, आदि जिनवरा, अजित प्रनु खरा, शांतिनाथजी, शांति करो त्वरा, पार्श्वनाथने, वीर जीनवरा, बालमित्रने, साह्य करो त्वरा, जिनवरजी, करुं अरजी-श्री जीनराज. १ तुमे दया करी, अम पाप परहरी, शिववधु प्रजू, आपजो खरी, तुम विना बिजो, देव वृथा, जाणी एम अमे, बोडीये मिथ्या. शिवरमणी, मनहरणी-श्री जिनराज नगरमां रही, अर्ज करे सही, तारक तुमविना, बीजो कोई नही, सकल संघना, कष्ट कापजो, मनसुखलालने, मग्न राखजो, सुख करजी फुःख हरजी-श्री जिनराज.३ श्री श्रादिनाथनुं स्तवन. श्रादिजिनेश्वर-अर्ज स्विकारो, कर ग्रही सेवकने प्रजु तारो ॥ आदि जिनेश्वर ॥१॥प्रथम नरेश्वर,प्रथम जिनेश्वर, प्रथम युगल तुमे धर्मनिवास्यो । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिवेद. श्रादिजिनेश्वर ॥॥ श्राजनी थांगी-अजब बनी बे ॥ सुंदर मुख शोने प्रनु सारो ॥ श्रादिजिनेश्व र ॥ ३ ॥ रोहिणी पतिथी-कोटी गुणो प्रनु बदन आनंदी दिसे तुमारो ॥ श्रादिजिनेश्वर ॥४॥ मृगपतिथी पण अधिक गुणोडे, लंक कटीनो प्रनु जी तुमारो ॥ श्रादिजिनेश्वर ॥५॥ नाथ निरंज न-नव पुःखनंजन, नवो नव होजो शरण तुमा रो ॥ श्रांदिजिनेश्वर ॥६॥ युगम् नाव स्तवना वली करवा, बालमित्रनी बुद्धिबधारां ॥ श्रादिजि नेश्वर ॥७॥ ___श्रीसंजवनाथ जिनुं स्तवन । त्रिताल चोपाइ-प्रनु पासमुं मुखॉ॥ संजवजिनजीनुं मुखहुं शोहे, नयणा देखी जग सहु मोहे. रोहिणीपतिसम वदन विशाल, तस श्र जैकारे दीसे नाल, कांति कनकसरीखी सारी, इंज चंषरूप जायहारी; __ सावथ्यीमा हतो दूकाल, प्रनू जनमतां थयो सुगाल, धान्यनां तिहां संजव थाय, अव्य संचवथी नयरी साहायः फल फूल संजवथया सार, तेथी वर त्यो त्यां जयजयकार; राय जितारी वीचारी श्राम, संजवथी पाड्यं संजव नाम; एवा संजव करजो श्र- . मने, बालमित्र अरज करे तुमने; अहमदनगरमा र हेतां उल्हास, मुनि मनसुखनी पूरोयास । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु श्री अजिनन्दन जिन स्तवन । गजल, आज याबी राज हजुरमां ए राह | अजिनन्दन आज श्रानन्दमां, तुम दर्शनें थइ सु न मती; एक दुष्ट कुलटा बे सही, पूर्व जवनु वेर काढ्यं श्रही; अहोनिश मारे पाबलपडी, मतीचष्ट कधी मारी ति ॥ १॥ एवी पुष्ट बे जे कुमती, जस सोबते होय दुर्गति । ते दुष्टा पुर निवारिनें, श्रापो मोने सुमती । श्र ॥२॥ रही नगरमां मन मगन थइ, बालमित्र श्रति श्रानन्दथी, मांगे मुखें थी एम कही, आपो मोने शिवगती । ३ श्री सुमतिनाथ जिनु स्तवन । अवर मदन अलबेलो - ए रामा | ३३८ सुमति जिनेश्वर तारो जवाब्धिथी सुमति जिने श्वर तारों । नयरी कोशल्या धन तुज धरणी, जन्म्यो सुमति जिन प्यारो । जवा० १ कुल दीपक मेघरथ राजाना, त्रण जगत्रने तारो ॥२॥ मङ्गला माता मङ्ग ल उदरी, प्रसवे सुमति जिन सारो । जवा ॥३॥ शशी सम सोदे वदन प्रजुनुं, क्रौंच लंबन दितकारो । ज. ॥४॥ सुमती दाता समकित थापो, कुमती दूर निवा रो ॥ न. ५ ॥ श्राप हजूरे लेजो ामने, बुटे थाजनमा रो । ज. ६ ॥ बाल मित्रना प्यारा प्रभुजी, मनसुखदास तुमारो | ज. ॥ ७ ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३॥ चतुर्थपरिजेद. श्रीपदम प्रनु स्तवन होरीनी राह सांवरेसे कहियो-ए राह ॥ प्रज्जु पद्म प्रन जिन प्यारा ॥ ए टेक ॥ सुशिमा माता उदरे श्राव्या, चउद सूपन गुणसारा; लंबन शोहे रक्त कमलनु, नयरी कोसंबी वशनारा, प्रनु जीतो मोहन गारा ॥ प्रनु पद्म प्रन जिनप्यारा ॥१॥ छादशी कार्तिक वदनी सोहे, जनम तिथी ग्रह सा रा; कुल इक्ष्वाकुं दियर प्रगट्या, श्रीधरकुल शण गारा, प्रजु सब जन हितकारा॥प्रनु पद्मप्रन जिन प्यारा ॥२॥ अहमदनगरे आज श्रानन्दे, गावे गुण तुम सारा; बालमित्र करजोड़ी विनवे, पावे नवोद घि पारा; नव नव शरण तुमारा ॥ प्रनु पद्म प्रज जिनप्यारा ॥३॥ श्रीसुपार्श्वनाथ- स्तवन ॥ बनफारानी राह। सुपार्श्वजिनन्दप्रजु प्यारा, मुज स्वामी मोहनगा रा, ए टेक॥वणारशीनां तुमे वाशी, माता पृथवीम न उल्हाशीजि; रायप्रतिष्ठित कुल अंगारा, मुज स्वामी मोहनगरा ॥ १ ॥ जेष्ठ शुक्लछादशी सार, जन्म्या त्रीजगदाधारजी, तुलरासींनां धरनारा, मु ज स्वामी मोहनगारा ॥ २ ॥ मध्यम अवेयकथी श्राब्या, वान कंचनसम सोहाव्याजी ॥ ऊंचा हिश तधनुष डे सारा, मुज स्वामी मोहनगारा ॥३॥बि Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैनधर्मसिंधु. शलाख पुरवनु श्रायु, दिनकरथी तेज सवायुंजी, बो स्वस्तिकलंबन धरनारा, मुज स्वामी मोहनगारा ॥ ४ ॥ प्रभु तुम दरशन मनजावे, मुनिमनसुख तुम गुणगावेजी ॥ बोबाल मित्रना प्यारा ॥ मुज स्वामी मोहन गारा ॥ ५ ॥ श्रीचन्द्रप्रभुजीनुं स्तवन ॥ राग माढ - मेवाडो मली - ए राह ॥ चंद प्रभु चित चोरी लीधुं, देखाडी दीदार ॥ मन मोहाव्युं मांहरु. मने देखामी दीदार ॥ चन्द्रपूरी न यरी विषे, महासेन राजान ॥ लक्ष्मणा माता उदरे, प्रभु याव्या पुरुष प्रधानरे म० ॥ १ ॥ लंबन शोने चन्द्रनुं कांई गुण अनन्त प्रधान ॥ दर्शन करतां आपजो, कांई शिवरमणीनुं दानरे म० ॥ २ ॥ नयणा कमल कचौलडा कांई, नाशा शुक समसार ॥ सम्य क्त दृष्टि जीवने प्रभु, ताहरो बे आधाररे ॥ म ० ॥ ३ ॥ चि तमां लागी चटपटी प्रभु, लटपट मन बोजाय ॥ खट पट शिव वधुने माटे, श्रावे है मुजदायरे ॥ म० ॥ ४ ॥ एकला आप वरीने बेठा, करीये सेवक सार ॥ बाल मित्र शुभ वन्दन करतां, विनवे वारंवाररे म० ॥२॥ श्री सुविधिनाथ स्तवन ॥ बेधर सुधारस पान चतुर नर प्रेम थकी करीये॥ ए राह ॥ नवरंगी यांगी आज दीलमां धरीये, रस अमृ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिच्छेद. ३४१ त जक्ती पान चतुर नर प्रेम थकी करिये ॥ ज‍ जिन मंदिरमां श्रांगी नव नव रचिये, पल पल वारे जिन नाम हृदयमां धरीये, तो मोक्षालयनु द्वार सत्वरे वरीये ॥ रस ० ॥ १ ॥ रुम जुम बुम बू म पग यकीनृत्यने करीये, त्यां चैत्यालयमां गीत ज्ञान प्रदरीये, तो जव सागरनो पार शीघ्रथी त रीये ॥ रस छा० ॥ रही अहमदनगरे बाल मित्र गुण गाइयें, प्रभु जक्ती करतां अनन्त सुखने पाइये, तो सुविधि जिनेश्वर जजतां सुखीया थईये रस० ॥ ३ शीतल नाथ स्तवन । शीतलनाथनी शीतलता जारी, दरशन करतां जाय कषायहा ॥ कमल सम नेत्र तेज जारी । शीतलना नी ॥ १ ॥ शशिसम वदन शीतल कारी, कटी केश री लंकारी, रुपे इन्द्र चन्द्र जाये वारी । शीतल नाथनी ॥२॥ कांतिकेवि दिशे कामगारी ॥ मुरती प्रभुजीनी मनोहारी ॥ जगतवत्सल प्रभु जयकारी ॥ शीतलनाथनी ॥ ३ ॥ जवी जीवने शीतलकारी, अ रजी मनसुखनी स्वीकारी ॥ बाल मित्रने जो तारी ॥ शीतलनाथनी ॥ ४ ॥ श्रेयांस जिनस्तवन । मावुं लगाडो तो मारा सम बे सलुंनी रे - ए राग । श्रेयांस प्रभुजी तुमें सहाय करोमारीरे, आपणों किं कर जाणी उतारो जवपारीरे, श्रे० ॥ १ ॥ विष्णु पि Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ जैनधर्मसिंधु. ता कुठे श्राव्या विष्णु माता तारीरे॥ जगतवच्छल प्रजु तुंबे आनन्दकारीरे ॥श्रेण ॥२॥खमगीलंडन प्रनु सोहे सुखकारीरे, करुं एक अरजी स्वीकारो प्र लु मारीरे,॥श्रे॥३॥ऽष्ट्र एक रामा मारी, पाउल पनी नारीरे॥ लीधुं बुंटी एव्य मने बहु मार मारीरे;॥श्रेण ॥ लोकोमा लजावी मने कस्यो बे खुवारीरे, नामे डे कुमती तेने काढो प्रजु न्यारीरे; श्रे॥५॥ अहमद नगरे रही करे अर्ज सारीरे; बाल मित्र गाय ने श्रा नन्द हितकारीरे । श्रे० ॥६॥ श्रीवासुपुज्य स्वामीनुं स्तवन । गमका तराना ए राह । वासुपुज्य विलाशी, चंपाना वाशी, पुरो श्रमारि श्राश॥ करुं पुजाहुँखाशी ॥केशरघासी, पुष्प सुवासी, पुरो । ए टेक.॥ चैत्यवदंन करूं चित्तथी प्रजुजी, गा, गीतारसा ल ॥ एम पूजा करी विनती करुं बं,थापो मोदद याल । दियो कर्मने फांसी, काढो कुवाशी, जेम जाय नाशी। पू ॥१॥ संसार घोर महो दधिथी, का ढो अमने बहार ॥स्वारथनां सहु को सगा , मात पिता परिवार; बालमित्र उहाशी, बिनय बिलाशी अर्जि खाशी. पुरो० ॥१॥ विमल नाथ स्तवन । पूजो देव करो तुम सेव कुकर्मो तन न न न न त्रुटे। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिवेद. ३४३ जगतमा सार रूप एक जैन धरम, पैसा जाण मि थ्यात्वकुं गेडेगें हम, तनका क्या नरोसा निकल जावैगा दम । पूजो ॥१॥ नजो नजो प्रनुकुं क्या लगता हे दाम॥सबसैं आगे प्रजुका हम लेवेगें नाम सेवे जो बिमल नाथ होवेगा काम । पूजो देव०५ बालमित्र पूजे चन्दन केशरचंग, चालोशपूजो प्रनुजी के नव अंग, कहे करजोडी मनसुख मनरङ्ग । पूजो देव० ॥३॥ वैरागीपद वि वि वदन निहार निहार ॥ ॥ प्रोखि तपति अगमा गम कीनो विसरी विगत बिहार ॥ ब० ॥१॥ गये अनादि कालमें ऐसे दीठी न हिय दिदार, निरुपम निजर निहार निहारत, रंजिय रूप रिक वार ॥ ब० ॥२॥ अंतर एक महूरत अंतर प्यार करीश्रणगार, लीने ज्ञान सारपद नीतर, चे तनता जरतार ॥ ब० ॥३॥ इति ॥ श्रीअनन्तनाथ जिनुं स्तवन । खरे उतारो राजा नरथरी॥ ए राह । अनन्त प्र नु मुज तारजो ए टेक। अवगुण मुजमां अनन्त , तुम गुण अनंत अनंतजी; मोहराय वश हुं परयो तुमें तो कीधो तस अंतजी॥१॥अनंत ॥ हूं रागी घणो लालची, तुमें तो थया वीत रागजी। राग केष मु ज टालीये, चार कषायनो त्यागजी। श्रनंत ॥२॥ पाप Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जैनधर्मसिंधु अनन्ता में कर्या, कुम कपटनो ढुं गेहजी॥था पापी नै उद्धारशो॥ बो तारक निसंदेहजी। अनंत ॥३॥ तुम सम तारक कोई नही, मुज सम पापी न थ न्यजी ॥ करुणा नजर हवे कीजीये, तो था धन्य धन्यजी॥श्र. ॥४॥ नवनव जटक्यो तुम विना, म लीया हवे नगवंतजी, बालमित्रने दीजिये, अक्षय झान अनंतजी । अ. ॥५॥ श्रीधर्मनाथनुं स्तवन । प्रजु धर्म नाथ (२) तुमें धर्मतणा लो दाता, तुम बिना अनंत नव रखमयो पण मली नहीं कांई शा ता प्र॥१॥ हवे तुम डेडो (२) पकडयो करो एक काम, मम घरमा जे तस्वर २ ते काढो तमे तमाम प्र. ॥२॥ महा मेहेनतथी (२) हुँ मेल, अव्य अपार ॥चार चोर दुटी करी मारे जे मने बहं मार, प्र. ॥३॥ तेनि पांच नग्नी (२) पुष्ट कृ त्य करनारी, ते तस जातनी साथै मली वहु पाप करावे जारी प्र.॥४॥ मम मित्र आवे (२) मुज घर माहे कोई वार, जात जग्नी नेगा थई काढे २ तेने बाहार प्र.॥५॥मुज घर केरो (२) में श्रश्व महामद मातो ते पण तेणें कबजकों ने कहं केटली वातो प्र. ॥६॥ दरशन करतां (२) में औलखीया नगवांन, बालमित्रनी अरज स्वीकारो देजो अक्षय ज्ञान प्र.॥६॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. ३४५ शांतिनाथ जिन स्तवन। प्यारी बेनी शोक तमें समावजो-ए राह॥प्रनु शांतिनाथने समरजो, जिनराज प्रज्जुनुं ध्यान सदा तुमें मनथी,धारजो॥शांतिनाथध्यावो, सुखी थावो, ट्यो लावो, श्रावक कुलमांबावी रुडा गुणथी गाज जो॥प्र.॥१॥ पाप त्यजजो प्रनु नजजो अरिदम जोकर्म रिपुने मारी जलदी शिवमां जावजो प्र. गुण गावे, जगति जावै बहु ध्यावे, अहमदनगरना बाल मित्रने प्रेमे पालजो प्र.॥३॥ श्रीकुंथुनाथ जिन स्तवन । मुखथीरे मायुप्रनु तुम पाशे, आपो मोद रत न, शिवरमणी नहीं जो प्रनुजी नीश्चे एह वचन; मोद वधु नहि मुकुं प्रजुजी निश्चे एह वचन. शिव वधु वरवा, मोजने करवा, मनमा राखं मान, नव स्थिति पाके, समकित सांखे, बावीस करतो गम न। शिव ॥१॥ क्रोध तजवजो, मान हरवजो मायाने मारजो मार; लोज न गरो नव नव टालो; मुज पर राखी मन । शिव ॥२॥ सुखने करजो मुखने हरजो वेजो आप हजूर; कुन्थु जिनवरजी बालमित्र अरजी, स्वीकारो था मगन । शिव०३ श्रीअरनाथजीनुं स्तवन। जैन धर्म हृदय धरो चिंतामणी, मारो कर्म करो गर वरो शिवरमणी, ए टेक । पुर देशांतर थी तुमें Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैनधर्मसिंधु. श्राव्या ॥ सोदागर गुणवंत; जाबुं बे दजी डर तुमारे पको कोईक सन्त । वरो ॥ १॥ जनम जरा मृत्यु त णा, जय ते अपरम्पार; नरक निगोद थी जमतां श् पाम्यो मनुष्यवतार | वरो ॥१॥ धर्मरुपी द्रव्य मे लवी, पहोंचो शिवपूर वास; मनुष्य जव पामी करी, तुमें एवा करीने प्रयास. ॥३॥ वरो ॥ पांचे इंद्री वश करो, मारो चार कषाय; त्रण दलालनी सङ्गत थी, ब्यापार ते बहु थाय ॥ वरो ॥ ॥ श्रीारनाथ कृपा करी, देजो मोक्ष श्रावास ॥ बाल मित्रनी वीनती, प्रभु पुरो म ननी आश| वरो ॥ ५ ॥ इति ॥ मल्लीनाथजीनुं स्तवन । राग परज ॥ पानी ने गमका मचाया ॥ एराह ॥ मल्ली जिने श्वरवन्दिये | ए टेक ॥ मिथुला नयरी अति शोजती, कुम्ज नरेश्वर राय २ । राणी प्रजावती उदरे, मल्ली नाथ प्रभु श्राय | म. ॥ १ ॥ पूर्व जवे माया करी तेथ लाग्या बहु पाप २ ; स्त्रीपणे प्रवीने ऊपना एवो मायानो वे व्याप । म. २ बमित्रने प्रतिबोध तां कीधो बहु उपकार २ । तेम मने प्रतिबोधजो, मारी रज स्वीकार । म. ३ एवं जाणीने श्रमे त्या गशुं, माया कपट विकार २ | बाल मित्रनी विनती. अवधारो ते श्रीकार । म. ४ श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन । कुंवरी कुंवर मारा लागको ए राह मुनिसुव्रत Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ चतुर्थपरिछेद. जिन सांजलो, शी कहुँ पुःखनीरे वात, पापना पिंग समान हुँ, तुमें बो जग तात । मुनी. ॥१॥ बादर सुक्षम नीगोदमां, जम्यो अनंतो काल, । बेदन नेदना वेदना॥ थकी काढो दयाल । मुनी. बीती चल रिंखी जीवमां, जम्यो काल असंख्य, जलचर थलचर खेचरे, नम्यो संख्यासंख्य।मुनी.॥३॥ तेम पंचेंडि तीर्यन्चमा। कीधा पाप अपार । तेथी वली २ नरक मां । उपज्यो बहु वार । मुनी. ॥४॥ साते नरक मां वली २, ऊपनो वार अनंत, परमां धामीनी वेद ना, पापी जीव सहंत । मुनी. ॥ ५॥ पकमी पळा मता, देतां उपर मार, करवत थी शीर वेरता, मारे वली तरवार । मुनी.॥६॥एम अनंती, वेदना,सही मै वार अनन्त; पण था पापी जीवना, मुखनो श्राव्यो न अन्त । मुनी. ॥ ७ ॥जगवडल जिनराजजी, हवे आव्वो तुम पास, डोडं नही हवें डेमलो, तुजमां ने मुज आश । मुनी. ॥॥ जीव अनन्ता ऊधर्या, देश अदय ज्ञान, बालमित्रनी विनती, चित धरजो जगवान । मुनी. ॥ ए॥ श्रीन मिनाथ जिनुं स्तवन । दशा श्रा-शी थर मारी-ए राह । मोहनगारी, मनोहारी, शोना नमीनाथनी नारी॥मस्तक मुकुट मणी तणी, कांति अतिचलकंत॥नाल स्थल पण ऊल कतुं, कुंमल थी उससंत, सकल अंगे शोनाकारी, Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैनधर्मसिंधु. बबि देखी जाउ वारी । मो.॥ १॥ श्राङ्गी चीज मावनी॥हीरामणि जलकंत, मुख बबि कोटि चन्द्र मांगनयणा अति विकसंत, जगत शोनानी हरनारी, देखी वंदे ने नरनारी । मो. २ समकीत दे दातार तुं, देतुं अदय ज्ञान, पद २ ताहरी बंदना, श्रीपति श्रीनगवान; बालमित्र नक्ति तारी, सकल सुखनी देनारी। मो. ॥३॥ श्रीनेमनाथजी स्तवन । प्यारा नेम मानो, नहीं पाबा आवो, दीन दयाल कृपा करी श्रावो; लियो । संसारनो, लाव्हो, नहीं पाबा श्रावो । टेक ॥ (राजुल)-तुम विन श्रा संसा रमां॥अवर न को आधार; आमी आवी उत्नी रहूं, क्यां जाशो आवार । (नेमनाथ)-सारथी चाल नहीं जनुं रहेवायडे, (राजुल)-परएया विना जोऊ केम जवाय । प्यारा ॥२॥ ___ कर ग्रहीने नले पढी जाजो, मानो मानो जादव पति जासो।नहीं (नेमनाथ)-अष्ट नवांतर हुँ रह्यो, तुज साथे सुण नार; नवमे नव तुमे हवे, आवो थ मारी लार; (राजुल)-मुजथी साथे पण हवे अवाय बे, बाल मित्र मन राजी बहु थाय । प्यारा. ॥२॥ श्रीपार्श्वनाथजी स्तवन, . प्रन्नु पुरो मारी आस.॥ एटेक ॥वसों नयरी वनार सी वासावीसमा जिनश्री पासायहि लंबन धरी Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. ३४ए उन्नासरे. प्रजु० ॥१॥ वाहः वदन तुमारं पास ॥ करे दिनकर सम उजास॥तुम दर्शनथी पापनो नासरे॥प्र नु० २ कस्यां चोरांसी प्रवास ॥ नमी आव्यो हवे तुम पास॥ळ आप चरणनो दासरे. प्रनु० ॥३॥ को ध मान मोहनो त्रास ॥ वली लोने कीधो लास॥ कर जोमी करूं अरदासरे. प्रज्जु ॥४॥ सह्या नर्क निगो दनां त्रास, करोक्रूर कर्मनो नास, हवे आपो मोद आवासरे. प्रजु ॥५॥ बाल मित्रनी अरजी खास, कहे मनसुख मन उदास.बु पास प्रजुनो दासरे.प्रतुण्६ श्रीमहावीर स्वामीनो स्तवन । जपती प्रीतमनी जपमाल ए राह करतां जिन वरना गुणग्राम पूजा करूं बहुसारी । पूजा करतां बहु प्यारी ॥नक्ती नाव थकी मेंधारी॥वरसूं प्रेमथी शिबसुन्दरी नारी । करतां ॥ टेक ॥चार अने चोरा शोना, चक्रे चढयो बहूवार । कूप अरट सम चम णनो॥ कदीये न पाम्योपार । मलिया महावीर उप गारी,तसाणा शिरधारी॥वरसूं ॥१॥मनमहारूं ला गी रहयुं॥ सुंदरी तारी पास । तुज रूप नयणें निर खवा ॥ मनमां बहू उदास । नवोनव सेवना सारी नेटवानक्ति नारी बरसुं॥२॥ नार कुमती यें जोल ब्यों॥ प्रीत थी पारावर । ये नारीना सङ्गमा॥कांश्ये नदीगेसार । कुमती न ठारी नारी॥ तेथी गयोडं हारी । वरसुं॥३॥ तुज सम प्रियजगतमां ॥श्रव Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैनधर्मसिंधु. र न को देखाय । जिन दरशन करतां अहीं मनमु बहु हरषाय । देखतां तुज देदारी॥बनीश हुं गेहलो जारी । वरसुं ॥ ४॥ गुण गातां महावीरना॥ टलशे कुमती कुनार । मनसुख अने बाल मित्रने॥ मलशे शिवपूरी सार । नंदन वन मोकारी॥ विनती करे क रारी। बरसुं ॥५॥ ॥ मुंबाला महावीर स्तवन ॥ रागणी केरबा ॥ मारो मुंबालो महावीर ॥ मा ॥ वीरसर्वमां धीर वीर तुं ॥ मुं॥ देरामा राजायें श्रावी, मुंबे नाख्यो हाथ ॥ अनिमानी राजाने शिक्षा, दिधि तें जगना थ ॥१॥ मुं॥ हाथ नाखतां मुंगे तुटी ॥ पडी देरासर मांय ॥ अनिमानी राजा त्यां नमीयो, ए अचरिज मनमाय ॥२॥ मुं॥ ते दिनथी जग मां विख्यातो, मूंगलो महावीर ॥ घाणेरावनां इंग रमाहें, बेगे साहस धीर ॥३॥ मुं ॥ एकलडं देहेरे देखिने, मुगले कीधी रीस ॥ देरुं पामवा सुजट सी पाई आव्या ते दस वीस ॥४॥ मुं॥ तुज थाणा धारी योगणीयो, करवा लागी युध्ध ॥ त्रसुल तणा प्रहारें मार्या, नाहा तेह अबुझ ॥५॥ मुं॥ मुंब त्रुटतां पाणी राख्यु, देख्याड्या जो हाथ ॥ तारण तरण बे विरुद तुम्हारु, शिवपुरनो के साथ ॥६॥ सुं॥ बाणेराव खामीने नेव्या, मुंबालो महावीर ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ चतुर्थपरिछेद. अक्षयज्ञान सेवक श्म जपे, जयजय श्री महावीर ॥७॥ मुं॥ इति ॥ रागणी पीतु तोबिना और न जाचुं जिनंद राय ॥ए टेक ॥ और देव शिव देवे ए मत, सांजली किम करी राचुं॥ एमत जे धारे ते जन, समकित किम रहे साचुं ॥ जि॥॥ जबहिं तबहिं तुम देवोगे, एह वचन नही काचुं ॥ समकित रत्न देखाव्वो तेथी, मानुं बुं सहु साचुं ॥जि ॥२॥ आगे अनेक उझारे सुनकर, चर नकमलपर माचुं ॥ अक्षय ज्ञान दायक देखिने, हर षित थ थ नाचुं ॥ जि ॥३॥ इति रागण कीफोटी साधु डे जिनंद नाम अवरने न राचुं ॥ मुकुट कुंडल चलक ऊलक, नाल तिलक जाचुं ॥ रत्न ज मित कुंमलेथी॥ तरणी तेज काचुं ॥१॥ मोतिहार जग जगाट, देखतांज माचुं ॥ बाजुबंध ज्ञानचंड, गीत गा नाचुं ॥ साचुं ॥२॥ इति रागणी पीवुधन युवती पर मन ललचाएं. एथी अधिक बी जुं कांश नजाणुं ॥ एटेक ॥ दान शियलमा चित्त नव लागे, जप तप सुणतां मन गनराणुं ॥ धन ॥ ॥१॥ सप्त व्यसन सेवनमां रसियो, करवा कपट कालजें कोतराणुं ॥ धन ॥२॥र्षा वेष मत्सर पर Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ जैनधर्मसिंधु. निंदा, बल प्रपंचथी हृदय जराणुं ॥ धन ॥३॥ जव जव एवा पाप करंता, पापनां नारथी पिंक जराणुं ॥ धन ॥४॥ तुं तारक पण ढुं बहु पापी, मारो उध्धार करोतो हुँ जाणुं ॥५॥धन॥ श्रीशंखेश्वर ताहरी कृपा थी, अक्षय ज्ञान- पेहेरुं घराणुं ॥ धन ॥६॥ इति ॥ मराठी चालनी साखी अकल वरुपी घट घट व्यापी, अनंत गुणी जग वान. लोका लोक प्रकाशक नास्कर, केवल ज्ञान निधान ॥ जग हितवछल करुणासागर, गुण रत्नाकर स्वामी. शिव सुख पामी बहु दुःख वामी, त्रिजुवन जन विश्रामी. ॥१॥अशरण शरणा जव जय हरणा. तुं प्रजुतारण तरणा ॥ अजर अमरणा, शिवसुख करणा, प्रजु वंषु तुज चरणा. तुंजगत्राता तुं पितु माता, दे सुख शाता दाता; तुंजगत्राता विश्व विख्याता, अदय ज्ञान प्रदाता ॥२॥ थियेटर दीलधर मनकर जिनवर पूजन करवा जश्य श्रा ज ॥ एटेक ॥ नाव धरीने पूजे जिनने तेहने धन्य धन्य॥ पूजा करतां शिवपूरजावा प्राणी बांधे पुण्य, साची नक्ति रीजी स्वामी देजो दरिसन॥ रागणी गुजराती गरबी प्रजुतार हवे माकं अहिं \ थसेरे ॥ कर्यां पाप ते अनंत मारां क्यम जसेरे ॥१॥प्र॥ ताहरु Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिच्छेद ३५३ शरण मारे हवे यहीं एक बेरे, ताहरा ध्यानथी नंत पाप दय जसेरे ॥ २ ॥ प्र ॥ जैन गायन मंड ली नित्य गाय बेरे ॥ तेथी अक्षय ज्ञान मने श्राप सेरे ॥ ३ ॥ प्रभु ॥ इति ॥ रागणी दक्षणी श्रीयेटर श्री चराचर विश्ववरा, शिवसौख्यकरा, जयजी महरा, सुरासुरेश्वर वंद्य तरा ॥ शि ॥ एटेक ॥ ज व तारक तुं जगनो त्राता, जय वारक विजुविश्व विख्याता, तुं सुखशाता देपितुमाता, अनंतगुणो तुजमां प्रवरा, जय धैर्य धरा ॥ १ ॥ शि ॥ अखूट खजानो बे प्रभु ताहरो, हुंलुं सेवक प्रभुजी ताहरो, नवसागरथी पार उतारो, कांइक जुजपर करण करा जय शोक हरा, ॥२॥ शि ॥ ताहरु ध्यान धरुं नित्य रंगे, हुं पण थाइस प्रभु तुज संगे, अक्षय ज्ञान दे दान उमंगे, नाजिनंदन नाम धरा, जयविजय करा ॥ ३ ॥ गजब. जंमा निसा सा नाखती रे दीकरी दुखी ॥ ए राह ॥ निहार यार तार तुं विचार दारहे ॥ गुनेगा रकुं उतार पार तुहि दिलदार है ॥ १॥ नि ॥ श्रव्य क्तमे अजाणते यह कर्म में करे, कृपाकरें प्रभु यहो कृपावतारहें ॥ २ ॥ नि । शरण्यहे प्रभुजी तुं शर ण दीजीयें मुजे, अक्षय ज्ञान दानदे त्रैलोक्य सार हे ॥ ३ ॥ निहार इति ॥ ४५ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैनधर्मसिंधु. राजुलगीत. देखा नही कलु सार जगतमे देखा नही कबु सार, श्रासंसार असार ॥ज॥ तुं तारे तो तार ॥ ज ॥ माहारे तुं अधार ॥ ज ॥ दे । एटेक ॥ मेंणा दर दश् हवेहुँ थाकी॥संदेसानो नही पार ॥ हाय हाय हायरे हवे॥ बेक बनी लाचार ॥ ॥ ज ॥ दे ॥१॥ रमिरडिहुं श्रासुंडे जीनी ॥ गमे नही श्रृंगार ॥ हाय हाय हायरे हवे॥अंगबले अंगार॥ अं । ज। दे ॥२॥ पुरी फुरी पिंजर थयुं अंग॥ वियोगः खअपार ॥ हाय हाय हायरे हवे॥ दीदाल श्रावार । दी।जादे ॥३॥ जैन गायक मंडली गावे॥राजुलगीत उचा र ॥ जाय जाय जायरे एतो। मोद मंदिरमां पधा र ॥ मो॥ज ॥ दे ॥४॥ रागणी खमाच तुमरी॥ दरीसन बिन अखियां तरस रही ॥ ए राह ॥ नव पदसे मेरे विघन कटे । ज्यौं श्री पालके अघवि घटे ॥ एटेक॥ ध्यान स्मरण जो करते तिनके॥ स्पष्ट अस्पष्ट सब कष्ट कटे ॥१॥ न ॥ नट विट लंपट सबहि सुधारे, मोह सुनटका जोर हटे ॥२॥ न ॥ दान शियल तप नाव प्रमुख गुण ॥ विनय नया दिक गुण प्रगटे ॥३॥ न । अघट विघट घटना इह ज गकी।नव पद ध्यानसें सब सुलटे ॥४॥ न ॥ पुना जैन गायक मंडलीकुं॥अक्षय ज्ञान दशा प्रगटे॥५॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिजेद. ३५५ धनासिरी. जबलग विषय घटा न घटी। एटेक ॥ तबलग तप जप संयम क्रिया ॥ कहा करत कपटी ॥ लोक दि खावन करत हे क्रिया ॥ पहिरत पीत पटी ॥१॥ ज ॥ ध्यान धरी योगी होय बेहत॥बक वृत्ति कप टी ॥ बेठ तखत ज्ञानी होय बेहत॥ करे उपदेश अती ॥२॥ज ॥ उग्रविहार धरत श्रागंबर ॥ मुख से कहत यति ॥ वनवासी तनजस्म लगावत ॥ शिर पर धरत जटी॥३॥ ज ॥ नग्न रहत पंचाग्नी सेव त, साधत योगही। शह हह कष्ट करे पण मनतो, नाचत नृत्यनटी ॥४॥ जबगल विषय घटा न घटी तबलग तुं क्या फलपावेगो, विषयवहीनकटी ॥ जैन गायन मंगल ताकुं वंदत ॥ जाकी अक्षयज्ञान दशा प्रगटी ॥५॥ जवलग ॥ इति ॥ राग कल्याण जय जय नव पदा श्राप संपदाकाप आपदा ते शुज ध्यानथी सदा ॥ एटेक ॥ श्वेतरंग अरिहंता वंदो, रातासिझमहंत ॥ श्राचारजपीला ने लीला, उवकायाजगवंत ॥१॥ज॥ सुंदरश्याम सखूणा साधु॥ धवलाले पद चार ॥ दंशणनाण चरण तपवंदो, सिक चक्र एसार ॥२॥ज ॥ पांच गुणी चल गुण जे एमां, श्राधारा श्राधेय ॥ गुणसेव्याथी गुणीयल थाये, जाणोनिः संदेह ॥ ३ ॥ज॥ शांतिसारे विधन Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैनधर्मसिंधु. निवारे, उतारे जवपार ॥ अक्षय ज्ञान प्रचारक मं डल || वंदेवारंवार ॥ ४ ॥ रागणी बरवा ॥ अरे दहि माहरी तुरकवाने घेर लई ॥ एराद ॥ प्रजुदीजें दरस बनी देर नई ॥ टेक ॥ लखचो रासी फेरा फिरतां ॥ दुःखसहन करे मेनें केइ केई ॥ १ ॥ प्र ॥ जवजव जटकत सरहुं आयो | अब तो राखो समकित दान दई ॥ २ ॥ प्र ॥ पुना जैन गायक मंगली तो ॥ अक्षय ज्ञान पद चाहाय रही ॥ ३ ॥ प्र ॥ ठुमरी ॥ हजारों मेरे कान के मोती ॥ एराह ॥ प्रभु मेरो ज्ञानकी ज्योती ॥ मानों सूर्यकिरण कोटी ॥ टेक ॥ घटघट व्यापक ज्ञान कला बे, निजगुणता मोटी ॥ १ ॥ प्र ॥ अनंत गुणीनां गुणनी गणना ॥ करवी ते खोटी ॥ २ ॥ ॥ ए प्रजुने तो रूप न रे खा, वर्णादिक नोती ॥ २ ॥ प्र ॥ गुणीयनकों जजते गुणी होवे ॥ केवलता मोटी ॥ ४ ॥ ॥ अक्षयज्ञान दशा प्रगटावे ॥ कर्ममलीन धोती ॥ ५ ॥ इति ॥ राग गोमी गोडी गाइयें मनरंग ॥ एटेक ॥ एक ध्याने एक ताने || कर केदारो संग ॥१॥ गोमी ॥ यात्रा कीजे अमृत पीजे ॥ नीर वहे जिम गंग ॥ रोग शोक जय Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिच्छेद . ३५७ क्लेस नासे ॥ आलस नावे अंग ॥ २ ॥ गोमी ॥ पोढंता प्रभुनाम लीजें ॥ आणी मन उबरंग ॥ अ जय ने नींद माहे ॥ कदिय न होवे चित्त जंग ॥ ३ ॥ गोमी ॥ इति ॥ तुमरी सकल मर्म मल दय करके मुगत पुर गए गए रे ॥ मु ॥ टेक ॥ अविनाशी विकार हे ॥ परमातम शिव धामरे ॥ समाधान सर्वांग अरुपी ॥ मेरेमन रहेरदे रे ॥ १ ॥ स ॥ शुद्ध बुद्ध विहे ॥ रहे अनादि अनंत ॥ वीरप्रभुके आगे गौतम ॥ अमृ त पद लहे लहेरे ॥ २ ॥ स ॥ इति ॥ वैरागी पद कहा कीनो नर जब पाके ॥ रहा मोहमद बाके ॥ टेक ॥ वृद्ध अवस्था आयलगी तब ॥ बेठो बुद्धि गुमाके ॥ क ॥ जुठ बोल धन जोम लीयो दे ॥ जो ले जीवनकों समजाके ॥ कुमतीनार संग राच रह्यो हे ॥ सुमती गुनको नसाके ॥ २ ॥ क ॥ मात तात सुता सुत नारी ॥ इनसे नेड़ लगाके ॥ ए सब पने घरों वे ॥ तेरी देह जलाके ॥ ३ ॥ क ॥ सतगुरु कहे पर जब सुख करले ॥ चरनन चित्त लगा के ॥ छात्र सुनले फिर कोन सुनावे ॥ श्रवनन सुद्ध कराके ॥ ४ ॥ ॥ इति ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. राग माढ ताल पंजाबी __ अजिहो कहो ज्ञानी, कोठे थांको देश ॥ साची तो कहोने ॥ कोहे ॥ एटेक ॥ जन्म लियो तबहो झानी, जुरा होता केस ॥ स्याश्की सपेदी आई ॥ अज हुँ क्युं नहिचेत ॥१॥ कोहे ॥ कोठेका संगाती तुम ॥ हे आया एक ॥ कहिने जावोला हो ज्ञानी ॥ नमता एका एक ॥२॥ कोहे॥ सुखमे संगाती घणा ॥ मुखमेन एक ॥था हिपचो जो ज्ञानी ॥ नीका कर देख ॥ ३ ॥ को ॥ धर्म तो संगातीसाचो ॥ जुहातो अनेक ॥ अमीचंद साहेब ने समरो ॥ राखे थांकीटेक ॥४॥ को ॥ इति ॥ जजनी पद जिन रायानां दरिसन पायारे ॥ नलेजले जिनं द गुण गाया ॥ तने वंदेडे सुरनररायारे ॥॥ तुने बं द्याथी गुणीमां गणायारे ॥ ज ॥ एटेक ॥ अश्वसेन नृपनंदन राया ॥ वामाराणीनां जो जाया ॥ चिंताम णीजी प्रत्नु चिंता चूरोने ॥ नवनवनी नावठहरा यारे ॥ न ॥१॥ स्वप्नाना सुखने अननी बाया ॥ एवी संसारनी ने माया ॥ एवो उपदेश के साचो तुमारो पण ॥ से जगत नरमाया रे ॥२॥नले ॥ जिणंद वाणी अमीय समाणी ॥ साची जाणे डे जवि प्राणी ॥ बास बसतो नवि गंडी देजो ने तुमे ॥ माखण लेजो तांणीरे ॥३॥ जले ॥ धन्य Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिवेद. ३एए सफल दिन आज घमिपल ॥ आजनी सुकृत कमा णी॥ वीर्य जहास विनानी जे करणी ते ॥ पाणी मां जेम लींटी तांणीरे ॥४॥ नवे ॥ साचीतो वा णी तेणेज जाणी ॥ जेणे करी ते प्रमाणी ॥ अक्षय ज्ञान मुनी स्पर्श ज्ञानविण ॥ बीजुं बधुं धुल धाणी रे ॥५॥ नले ॥ इति ॥ ॥ श्रीशांति नाथजी स्तवनं ॥ तुज्यं नमस्ते स्वामी ॥ शांति जिनंदाजी ॥ दृग देखे परमानंदा, ॥ मुख पुनमचंदाजी॥शां ॥ एटे क ॥ जन्मे प्रजु शांति सुधारी ॥ जग मरी निवारी जी ॥प्रनु शांति नाम हितकारी ॥मेंने सेवा धारी जी॥१॥ तुज्यं ॥ तुम विना कोन हे मेरा ॥ तुं साहब हेराजी ॥ हरो मिथ्या रोग अंधेरा ॥ हहो जव फेराजी ॥२॥ तुज्यं ॥ तुम दीन दयालाजी ॥ शासनके लालाजी ॥ मे सदा जपुं जप माला ॥ घर खेम खयालाजी॥३॥तुज्यं ॥ तुम कल्पवृक्ष हित कारी॥ चिंतामन धारीजी ॥ प्रन्नु आतम शरण तु मारी॥द्यो हमे सुधारीजी ॥ अब खुसी तुमारीजी ॥ ॥४॥ तुज्यं ॥ इति ॥ तुमरी वीर प्रजुजी तेरी दोस्तिमे ॥ मेरी समता सखी मे रबान नरे॥ एटेक ॥ आप न श्राए बोध पढाए॥ तेरी सुरतपर कुरवान नरे॥१॥ वीर ॥ शासन Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैनधर्मसिंधु. नायक एहि अरज हे ॥ दीजे दरस बमी बेर लश रे॥२॥वीर॥ आशा दासकी पुरन कीजें ॥ चरण शरण लपटाय ररे ॥ ३॥ वीर ॥ ॥समेत शिखरथी स्तवन ॥ तुमतो जले विराजोजी ॥ सांवरिया महाराज शिखरपर नले विराजोजी ॥ तेरे घाटे चोकी लागे॥ यात्री जाण न पावे॥ हुकुम कियो श्रीपार्श्वजिनेश्वर ॥ बांह पकमलेजावे ॥१॥ तु ॥ उंचा नीचा पर्वतसो हे॥ तले नीलका वासा॥पेमपेम पर सिंह धमुके ॥ जिहां लिया तुम वासा ॥२॥तु ॥ टुंक टुंक पर धजाविराजे ॥ कालरका ऊणकारा ॥ कालरका ऊण कारासेती ॥गुंजे परवत सारा ॥ तुम ॥३॥ दूरदेस के जात्री आवे ॥ पूजा आन रचावे ॥ अष्ट व्य पूजामे लावे॥मन वंडित फलपावे ॥तु॥४॥ सुरनरमुनि जनवंदन आवे ॥ महा परम सुखपावे ॥ चंद खुसाल चरणको सेवक हरख हरख गुणगावे ॥तुम ॥५॥इति॥ ॥विरजिनस्तवन ॥ नाथ कैसें जंबुको मेरे कंपायो ॥ ना ॥ सिका रथ सुत नाम धराया ॥ त्रिसला राणीनो जायो । बप्पन दिशि कुमरी मील आई ॥ सुची कर्म करायो ॥ १॥ ना ॥ इंज महोत्सव जबतिहां प्रग टयो ॥ मेरु शिखरले आयो ॥ इंच सिहांसन पर ले बेहो ॥ मनसंदेह जरायो ॥२॥ ना ॥ अव Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिद. ३६१ धि झानसे तवतिहा देख्यो ॥ अंगुठे मेरु चंपायो ॥ संशय हरण चरण प्रजुजीके, कलस हजारु ढ रायो ॥ ना॥३॥ सिकारथ घर आयकेरे ॥ मंगल चार गवायो ॥ सुमन अधमकों निजपद दीजे,मन वंबित फल पायो ॥४॥ इति ॥ समेत शिखर ॥ सांवरिया जैसें बने तेसें तारो ॥ मेरी करणी कबु न विचारो ॥ सा ॥ नागनागनी व्याकुल दोनुं ॥ जरत अगनीसे उवारो ॥ उनकों राजदियो सुर पुरकों ॥ मुजकों क्योंन उधारो ॥ १॥ सां ॥ अश्व सेनके नंदन कहिये ॥ माता वामा देवी प्यारो ॥ बाल श्रावस्थामें जोग लियो हे॥ चार महाव्रत धारो ॥२॥सां ॥ योग निरोधी दसखख श्रावक ॥ अष्ट करमकों पठारो ॥ काया गाल गए सिवपुरकों ॥ लोका लोकनिहारो ॥३॥ सां ॥ धन्यघमी धन्य जाग हमारो ॥ शिखर समेत जुहारो ॥ मनवचका नमत बुध गंगा ॥ चरण कमल बलि दारो ॥ रागणी माढ. मेवाडोरे मली ॥ एराह ॥ प्रजु जीव जीवन आधाररे, तुमने खमारे खमा ॥ एटेक ॥ श्रीसिका. चल मंमन साहेब, तुं प्रजु श्रानंद कंद ॥ जव्य कमल प्रति बोधन दिनमणि, मुखडं पुनम चंदरे ॥१॥ तु ॥ तुज वाणी अमृत करेरे, सागर जेम Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैनधर्मसिंधु. गंजीर ॥ दीन दयाल कृपाकर मुजपर, तारक नव जल तीररे ॥२॥ तुं ॥ जवजव लटकत शरणेहुं श्राव्यो, जांगो जवनी नीर ॥ मारां तारां सुं करो प्रजु, तारक बो वडवीररे ॥३॥ तुं ॥ मरुदेवीने तारियां प्रनु, तार्या सोये पुत्र ॥ तार्या विना केम चालसे प्रनु, हुं पणदुं घर सूत्ररे ॥ ४ ॥ तुं ॥ दीना नाथ दयाल दयाकरी, राखो मुजने पास ॥ पुना जैन गायक मंगलीने ॥ अक्षय ज्ञाननी आशरे ॥५॥ मस्तक मुकुट कानन कुमल, फलक फलक तज पुज जगतना घटना यातन्यार।।५।९ ॥ जागा नी रचना बे बहुसारी॥ करतां अनुमोदन पुण्यथाय नारी ॥ एटेक ॥ हीरामणि माणक जडेलां, मुखबबी तेज देखी जाय चन्अहारी ॥ १ ॥ ॥ मस्तक मुकुट काने कुंगल, फलक फलक तेज पुंज बलिहारी॥२॥ श्रां ॥ बांहे बाजुबंध हार गलामा, मुक्ताफलना वंदे नरनारी ॥३॥ श्रां ॥ सर्वांगे प्रजुतेज अनंतु, चंडसूर्य कोटी तेज जायहारी ॥ श्रां ॥ पुना जैनगायन मंडलीने दीजे ॥ अक्षय झानदशा विस्तारी ॥५॥ श्रां इति ॥ होरी ॥ सामरो सुख दाई, जाकी बबी वरनी नजाई ॥ सा ॥ एटेक ॥ श्रीअश्वसेन वामा नंदनकी, की. नि. त्रिजुवन बाई ॥ समेत शिखर गिरि मंगन प्र. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ चतुर्थपरिछेद. जुको, देख दरस हरखाई ॥ हृदय मेरो अति उल साई॥१॥ सा॥ आज हमारे सुरतरु प्रगटे,आज श्रानंद बधाई ॥ तिन लोकको नायक निरख्यो, प्रगटी पूर्व पुण्याई, सफल मेरो जन्म कहाई॥॥ सा॥प्रजुके सरस दरस बिनुपाए,नव नव नटक्योंमें नाई॥ अबतो प्रजुके चरण चित्तलाग्यो, बाल कहे गुणगाई प्रनु संग लगन लगाई ॥३॥ सा ॥ इति ॥ . होरी. राग उपर प्रमाणे ॥ सामपे कहियो वीनती मोरी॥ एटेक ॥ राजुल चंडानकों बोले, आइ बसंत रीतु होरी, बागुंमैं फाग केसीमे खेलु ॥ सब सखियनकी टोरी ॥ प्रिया गए हमको बोरी ॥१॥ सा॥ सज सिनगार संग लइ सिखरे, अबीर गुलालकी जोरी, अपने पिया संग खेलखेलत हे, केशरको रस घोरी, बाजे मफ ताल टकोरी॥२॥॥ सा ॥ एते कारन वालम घर श्रावो, खेलुमें रंगजर होरी॥ ए वीनती सुन प्रजुने राजुलकी ॥ दीने सब मुखतोरी ॥ रत्नकहे नर वरजोरी ॥३॥ सा ॥ इति ॥ ॥पावा पुर जिन गीतं ॥ अखियां मेरी प्रजुजीसें आज लगी॥ टेर ॥ पावा पुर श्रीवीरजिनेश्वर ॥ देखत पुरगति पुरटली॥ श्र॥१॥ मस्तक मुकुटसोहे मनमोहन ॥ बिचविच हीरा मोतिलालजमि ॥२॥ अ॥ रत्नजमि. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _. . ३६४ जैनधर्मसिंधु. त दोयकुंमलसोहे ॥ ॥ गले बिच मोतियन मालपनी ॥३॥ अ॥ हरखचंद के तुम चरण न बोडुं पल एक घरी श्र ॥ इति ॥ ॥पद ॥ जिन राज नाम तेरा हो रारे हमारा घटमे ॥ टेक ॥ जाके प्रनाव मेरा॥अज्ञानका अंधेरा ॥ ना गा जया उजेरा ॥१॥रा ॥ सुरत तेरी रागें ॥ देख्या विजाव त्यागे॥ अध्यात्म रूप जागे ॥२॥ रा॥ मुखा प्रमोद कारी ॥ षनेस ज्युं तिहारी ॥ लागत मोहे प्यारी ॥३॥ रा ॥ त्रैलोकनाथ तुमही ॥ ह. महें अनाथ गुनही ॥ करियें सनाथ अबहि ॥४॥ रा ॥ प्रजुजी तिहारी सांखे ॥ जिन हर्ष सुरी ना. षे॥ दिल माहिं येहिं राखेहो ॥५॥ इति ॥ तु बरवा. अबतो उधार्यो मोहे चहिये ॥ जिनंदराय, राखं जरोंसो मे प्रजुके चरणको ॥ एटेक ॥सुनो श्रीश्रेयां सनाथ ॥ साचो शिव पुर साथ ॥बिरुद तुमारो प्रन्नु तारन तरनको ॥ १॥ ॥ सिंह पुरी जन्म ठगम ॥ पिता विष्णुसेन नाम ॥ विष्णुराणी कुंखें जायो॥ कंचन वरनको ॥२॥ अ॥ वरस चोरासी लाख ॥ आयुष्य परम नांख ॥ लंडन चरन खग सुखके करनको ॥३॥थ ॥ हुँतोढुं अनाथ तुम नाथनके नाथ प्रजु ॥ तुमविना और मेरे उसरो सरनको Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद. ३६५ ॥४॥रा ॥ प्रजुके चरणारबिंद पुजत हरषचंद ॥ काटिये करम फुःखमेटिये मरनको ॥५॥॥इति पद. गुण अनंत अपार प्रजुतेरे ॥ गु ॥ टेक॥सहस र सना करत सुरगुरु ॥ तोउ न पायोपार ॥१॥प्र॥ कोन अंबर गिने तारा ॥ मेरु गिरको जार ॥ चरम सागर लहर माला ॥ करत कोन विचार ॥२॥प्र॥ नक्ति गुण लवलेस नाखें ॥ सुविधिजिन सुखकार ॥ समय सुंदर कहत हमको।स्वामी तुम श्राधार ॥प्र॥ राग कल्याण. माश् मेरो मन तेरो नंद हरें ॥ एटेक ॥ कंचन वरण कमल दल लोचन ॥ निरखत नयन हरे॥१॥ पंचवरण मनहरण धरनपर, उम उम पांव धरे ॥रतन जमित कंचन घुघरियां ॥रुण ऊणकार करे ॥२॥ मा ॥ हलत लसत मुगता फल माला॥पीत वसन उपरे ॥ मानु चलिहे मान शिखरते ॥ गंगप्रवाह खिरे ॥३॥ मा ॥धन त्रिसलादे जाग्य तिहारो॥ तुंतिहुं जवन शिरे ॥ तीन जवनको नायक तेरे ॥ श्रांगनमे विचरे ॥४॥ मा ॥ श्रीवर्धमान जिनकी मूरत ॥ बिनु देखे न सरे ॥ हरखचंद प्रजु वदन विलोकत ॥ सबहि काजसरे ॥ ५ ॥ इति ॥ तुमरी. इंसानी सब हमक हमक जन्म महोत्सव आवे ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैनधर्मसिंधु. घननननन घननननन, घंटा सुघोखा बाजे एटेक॥ ॥गान तान नाच रंग॥इंघासन थाय ॥ धन्य धन्य श्राजको दिवस, प्रजुजीको दरिसन पाय ॥६॥१॥ वीर काया लघु देखी ॥ इंछ मन अकलाय ॥ अवधि देखी वीर मेरु अंगुके दबाय ॥२॥६॥ जन्म महोत्सव जिनको करी, इंछ देव लोक जाय ॥ दास नर प्रनु तणा, हरसेन गुन गाय ॥३॥ ॥ इति ॥राग सोरठ॥ ॥ कहुँ कहांलोंवारुं नणदलवीर ॥ क० ॥ मिथ्या गणकि पूंजीषा, बनगए जनम फकीर ॥ क० ॥१॥ गश्य गई सो नलीय रहीसो, धर धर मनको धीर॥ कहांलों धीर धरूं धीरज धर,विरह जनमवहीर॥ कण ॥॥ जाललाल बिंदी नही जावै,आजुषण नही वीर ॥ ग्यानसार वालो आय मिलै घर,तोन रहै कोई पीर॥ ॥राग पुनः॥ ॥ होजी आली जानै मानै थारी चाहि घणी, वहिला वेग पधारो ॥ हो ॥ आयुकरम बिन सातुं कि स्थिति, कोमम सागर इककोम गुणी ॥ हो ॥ १॥ के ते दिन चिंतवतां अबकै, ज्युं त्युं प्रीतवणी जै ॥ ५ ॥ जलो बुरो तोही चलि आयो, अंत तो घरको धणी बै, ग्यानसार कहै ढीलन कीजै, प्रीत अंतरको नणी ॥ हो ॥३॥ इति पदम् ॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिछेद ३६७ ॥राग जैसें ॥ ॥ षन जिणंद श्राणंद कंद कंदा, याहीते चरण सेवे कोट सुर इंदा ॥ ५ ॥१॥ मरुदेवा नानि नंद, अनुजवचकोर चंद ॥ आपरूपकोखरूप, कोटज्यु दिणंदा ॥ २० ॥२॥ शिवशक्ती न चाहुं चाहुं न गोविंदा ॥ ग्यानसार नक्तिचाहुँ, मे हुँ तेरा बंदा ॥ आयो हलकारो गोपी मदको अ राह प्रनु नेम कुमरजी आप बीराजो गीरनारमे एटेक । गीरनारी गीरवररे उपर. उंची टुंकां शात ॥ शातों टुंके चरण पादुका. में वंछ दिनरातरे. प्रनु नेमकुम रजी ॥ १ ॥ शंख लंडन दश धनुषरीकाया.श्रायु वर स हजार॥ श्याम वरण शीवादेवी नंदन, वंदो वार हजाररे॥प्रनु नेमकुरजी ॥२॥ काती वद बारश चवी आयो. सौरी नयरी मजार ॥ श्रावण सुद पंच मि दिन जनम्या. वरत्यो जयजय कार रे॥प्रजु नेमकु ॥३॥ शहशावन जश् शंयम लीनो. बांडी राजुल नार ॥ श्रावणवद षष्टी दीन दीदा. प्रजुजी बाल कुमाररे. प्रनु नेमकुमरजी ॥४॥ चोपन दीन बदम स्थ रहीने. आशो वद्य अमाश ॥ वेमश वृक्ष तले प्रनु पायो केवल ज्ञान प्रकाशरे । प्रनु नेमकुमरजी ॥५॥ सुदी आषाढ अष्टमी रुमी, शंलेखन एकमा स ॥ पदमाशन प्रनु मोद पधारे. अविनाशी आवा सरे ॥प्रजु नेमकुरजी॥६॥ कल्याणक पांचो श्म Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैनधर्मसिंधु. थुणतां पामो अक्षय ज्ञान ॥ बालमित्रकी अरजी suatr. प्रभुको शरण प्रधांनरे ॥ प्रभु नेमकुमरजी ७ पद. किसविध किये कर्म चकचूर ॥ उतम क्षमापे चंनो मने यावे ॥ क ॥ एक तो प्रभु तुम परम दयालु रोसन तिलतुष मात्र हजूर ॥ डुजे जीव दयाके सागर ॥ तीजे संतोषी नरपुर | उ ॥ १ ॥ चोथे प्रभुतुमही तउपदेश ॥ तारन तरन जगत मसहुर ॥ कोमल वचन सरन सत वक्ता ॥ निर्लोभी संजम तपसूर ॥२॥ केसे मोह मलतुमजीत्यो ॥ अंतराय के से कियो निरमूल || केसेज्ञाना वरण निवार्यो | केसे कियेचा रोघातिया दूर ॥ ३ ॥ त्यागी वैरागी हो तुमसाहेब ॥ यकिं चनव्रत धारकर ॥ सुरनर मुनी सेवेचर्नतुमारे तोजीनहि प्रभुजी केगरुर ॥ ४ ॥ करत यासारदास नसुख ॥ दीजेाब मोहेदान जरुर ॥ जन्मजन्म पद पंकज सेतुं ॥ योरन कबु चित चाहेहजूर ॥ ५ ॥ ॥ ॥ इति चतुर्थ परिछेदः समाप्तः ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद. ३६ए ॥ अथ पंचम परिवेद. प्रारज्यते ॥ ॥ अथ श्री सीताजीनी सद्याय प्रारंज ॥ ॥ जनक सुता हुँ नाम धरावं, राम ने अंतरजा मी॥ पालव मारो मेलने पापी, कुलने लागे डे खामी ॥ अमशो मांजो, मांजो मांजो मांजो ॥ अ० ॥ महारो नाहली उहवाय ॥ अ० ॥ मने संग के नो न सुहाय ॥ १० ॥ माहारं मन मांदेथी अकु लाय ॥१०॥१॥ए आंकणी ॥ मेरु महीधर ग म तजे जो, पछर पंकज ऊगे ॥ जो जलधि मर्यादा मूके, पांगलो अंबर पूगे ॥ १० ॥२॥ तो पण तुं सांजल रेरावण, निश्चय शील न खंमु॥ प्राण श्र मारो परलोक जाये, तो पण सत्य न बंमु ॥०॥ ॥३॥ कुण मणिधरनी मणि लेवाने, हैडे घाले हाम ॥ सती संघातें स्नेह करीने, कहो कुण साधे काम ॥ अ॥४॥ परदारानो संग करीने, थाखर कोण उगरियो ॥ उंडं तो तुं जोवे आलोची, सही तुऊ दाहामो फरियो ॥ अ०॥५॥ जनकसुता हुं जग सहु जाणे, नामंमल डे नाई ॥ दशरथ नंदन शिर स्वामी, लखमण करशे लमाई ॥ ॥६॥ हुंधणीयाती पीउ गुणराती, हाथ डे महारे लगती ॥ रहे अलगो तुज वयणे न चलूं, कां कुलें वाये काती ॥ ॥७॥ उदयरतन कहे धन्य ए अब Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैनधर्मसिंधु. ला, सीता जेहनुं नाम ॥ सतीयो मांहे शिरोमणि कहीये, नित्य नित्य होजो प्रणाम ॥ अ० ॥ ॥ ॥ अथ वणजारानी सद्याय ॥ __॥ नरजव नयर सोहामणुं ॥ वणजारा रे ॥ पा मीने करजे व्यापार ॥ अहो मोरा नायक रे ॥ स त्तावन संवर तणी ॥ व०॥ पोठी गरजे उदार ॥१॥ ॥ अ०॥शुज परिणाम विचित्रता ॥ व०॥करिया पां बहु मूल ॥ १० ॥ मोद नगर जावा नणी ॥ व०॥ करजे चित्त अनुकूल ॥१०॥१॥ क्रोध दावान ल उलवे ॥व०॥ मान विषम गिरिराज ॥ अ० ॥ उलंघजे हलवें करी ॥ व० ॥ सावधान करे काज ॥ ॥ १० ॥३॥ वंश जाल माया तणी ॥ व० ॥ नवि करजे विशराम ॥ श्र० ॥ खामी मनोरथ जट तणी ॥ २० ॥ पूरणनुं नहीं काम ॥ अ०॥४॥ राग द्वेष दोय चोरटा ॥व०॥ वाटमां करशे हेरान ॥ अ॥ विविध वीर्य उल्हासथी ॥ व०॥ ते हणजे शिरगय ॥०॥५॥इम सवि विघन बिदारीने ॥व०॥ पहोंचजे शिवपुर वास ॥१०॥खय उपशम जे नावना ॥ व०॥ पोगी नस्या गुण राश ॥ १०॥६॥ खायिकनावें ते थशे ॥ व ॥ लाज होशे ते अपार ॥ अ० ॥ उत्तम वणज जे एम करे ॥ व०॥ पद्म नमे वारंवार ॥॥॥ इति ॥वणकारानी सद्याय॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिवेद. ३७१ ॥ अथ सोदागरनी सद्याय॥ ॥लावो लोवोने राज, मोघां मुलनां मोती॥ ॥ए देशी॥ ॥ सुण सोदागर बे, दिलकी बात हमेरी॥तें सोदागर दूर विदेशी, सोदा करनकुं श्राया ॥ मोस म आये माल सवाया, रतनपुरीमा गया ॥ सु० ॥ ॥१॥ तिनुं दलालकु हर समजाया, जिनसें बहोत न फाया ॥ पांचं दीवानुं पाऊं जमाया, एककुं चो की बिठाया ॥ सु॥२॥ नफा देख कर माल वि हरणां, चुआ कटे न युं धरनां ॥ दोनुं दगाबाजी फुर करना, दीपकी ज्योतसे फिरनां ॥ सु ॥३॥ और दिन वली मेहेलमें रहनां, बंदरकुं न हलानां ॥ दश सेरसें दोस्तिहि करना, उनसे चित्त मिलानां ॥ ॥ सु० ॥४॥ जनहर तजनां, जिनवर नजनां, स जना जिनकुं दला॥ नवसरहार गले में रखनां, ज खनां लखकी कटाइ ॥ सु० ॥ ५॥ शिरपर मुकुट चमर ढोला, अम घर रंग वधाई ॥ श्रीशुजवीर विजय घर जा, होत सताबी सगा ॥सु०॥शति॥ ॥अथ श्री श्रापस्वनावनी सद्याय ॥ ॥श्राप स्वनावमा रे, अबधु सदा मगनमें रहे नां ॥ जगत जीव हे करमाधीना, अचरिज कबुथ न लीना ॥ आ॥१॥ तुम नहीं केरा कोई नहीं तेरा, क्या करे मेरा मेरा ॥ तेरा है सो ते। पासे, Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ जैनधर्मसिंधु अवर सबे अनेरा ॥ श्रा॥२॥ वपु विनाशी तुं अविनाशी, अब हे श्नकुं विलासी ॥ वपु संग जब दूर निकासी, तब तुम शिवका वासी ॥ आ॥३॥ रागने रीसा दोय खवीसा, ए तुम पुःखका दीसा ॥ ॥ जब तुम उनकुं दूर करीसा, तब तुम जगका ई सा ॥ आप ॥४॥ परकी थासा सदा निरासा, ए हे जग जन पासा ॥ ते काटनकुं करो श्रन्यासा, ल हो सदा सुखवासा ॥ श्रा० ॥५॥ कबहींक काजी कबहींक पाजी, कबहींक हुथा अपत्राजी॥ कबहींक जगमें कीर्ति गाजी, सब पुजलकी बाजी ॥ अ॥ ॥६॥ शुक उपयोग ने समता धारी, ध्यान ज्ञान मनोहारी॥ कर्म कलंककुंदर निवारी, जीव वरे शिव नारी ॥ आ ॥॥ इति श्रापस्वजाव सद्याय ॥ ॥ अथ श्री सहजानंदीनी सजाय ॥ बीजी अशरण जावना ॥ ए देशी ॥ . ॥ सहजानंदी रे आतमा, सूतो कांश निश्चिंत रे ॥ मोह तणा रणीया नमे, जाग जाग मतिवंत रे, लूटे जगतना जंत रे, नाखी वांक अत्यंत रे, नरका वास ठवंत रे, को विरला जगरंत रे ॥ स ॥१॥ राग हेष परिणति नजी, माया कपट कराय रे ॥ काश कुसुम परें जीवमो, फोगट जनम गमाय रे, माथे नय जम राय रे, श्योमन गर्व धराय रे, सहु एक मारग जाय रे, कोण जग अमर कहाय रे ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद. ३३३ ॥ स० ॥२॥रावण सरीखा रे राजवी, नागा चा स्या विण धाग रे ॥ दश माथां रण रमवड्यां, चांच दीए शिर काग रे, देव गया सवि नागरे, न रह्यो माननो गरे, हरि हाथें हरिनाग रे, जोजो जाल ना राग रे ॥ स० ॥३॥ केश चाल्या केश चालशे, केता चालणहार रे ॥ मारग वहेतो रे नित्य प्रत्ये, जोतां लग्न हजार रे, देश विदेश साधार रे, ते नर शणे संसार रे, जातां जम दरबार रे, न जुवे वार कुवार रे ॥ स ॥४॥ नारायणपुरी झारिका, ब लती मेली निराश रे ॥ रोता रणमां ते एकला, ना ग देव श्राकाश रे, किहां तरु बाया श्रावास रे, ज ल जल करी गयो सास रे, बल नल सरोवर पास रे, सुणी पांमव शिववास रे ॥ स ॥५॥ गाजी गाजीने बोलता, करता हुकम हेरान रे ॥ पोढ्या अग्निमां एकला, काया राख समान रे, ब्रह्मदत्त नरक प्रयाण रे, ए ऋषि अथिर निदान रे, जेवू पीपल पान रे, म धरो जूठ गुमान रे॥ स ॥६॥ वालेसर विना एक घमी, नवि सहातुं लगार रे ॥ ते विना जनमारो वही गयो, नहीं कागल समाचार रे, नहीं को कोश्नो संसार रे, स्वारथीयो परिवार रे, माता मरुदेवी सार रे, पहोतां मोद मोकार रे ॥ स॥ ७॥ माता पिता सुत बांधवा, अधिको राग विचार रे ॥ नारी-असारी रे चित्तमां, वंजे विष Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैनधर्मसिंधु. य गमार रे, जुवो सूरिकांता जे नार रे, विष देती जरतार रे, नृप जिनधर्म आधार रे, सऊन नेह निवार रे ॥ स ॥ ७ ॥ हसी हसी देती रे ताली यो, शय्या कुसुमनी सार रे ॥ ते नर अंते माटी थया, लोक चणें घर बाररें, घमता पात्र कुंजार रे, एह, जाणी असार रे, बोडे विषय विकार रे, धन्य तेहतो अवतार रे ॥ स० ॥ ए ॥ थावच्चासुत शिव वस्या, वली एलाची कुमार रे ॥ धिक् धिक विषया रे जीवने, लश् वैराग्य रसाल रे, मेहेली मोह जंजा लरे, घर रमे केवल बाल रे, धन्य करकंग नूपाल रे ॥ स ॥ १० ॥ श्री शुनविजय सुगुरु लही, धर्म रयण धरी बेक रे ॥ वीर वचन रस शेलडी, चाखे चतुर विवेक रे, न गमे ते नर नेक रे. धारता धर्म नी टेक रे, जवजल तरिया अनेक रे ॥ स ॥११॥ इति सहजानंदी सद्याय ॥ ॥अथ सांजल सयणानी सद्याय ॥ ॥ लांजल सयणा साची सुणावं, पूरवपूण्ये तुं पाम्यो रे ना॥ नरक निगोदमां जमतां नरजव, ते निःफल केम वाम्यो रे जा ॥ सांग ॥१॥ जैनधर्म जयवंतो जगमां, धारी धर्म न साध्यो रे नाइ॥ मेघघटा सरिखा गज सादे, गर्दन घरमां बांध्यो रे नाश् ॥ सा० ॥२॥ कल्पवृक्ष कूहाडे कापी, धंतुरो घेर धारे रे जा ॥ चिंतामणि चिंतित पूरण ते, का Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिजेद. ३७५ ग उमाडण डारें रे जा॥ सां ॥३॥ श्म जाणी जावा नवि दीजें, नर नारी नरजवने रे ना ॥1 लखी शुद्ध धर्मने साधो, जे मान्यो मुनि मनने रे जा ॥ सांग ॥४॥ जे विनाव परजावमा नजीयें, रमण स्वनावमां करीये रे ना॥ उत्तम पदपद्मने अवलंबी, नवियण नवजल तरी रे ना ॥ सांग ॥ ॥५॥ इति श्रीयातम हित सद्याय ॥ ॥अथ रात्रिनोजननी सद्याय प्रारंन ॥ ॥ पुण्य संजोगें नरजव लाधो, साधो आतम काज ॥ विषया रस जाणो विष सरिखो, श्म नांखे जिनराज रे प्राणी ॥ रात्रिनोजन वारो ॥१॥ श्रा गम वाणी साची जाणी, समकित गुण सही नाणी रे प्राणी ॥रात्रि० ॥ ए आंकणी ॥ अजदय बावी शमां रयणीनोजन, दोष कह्या परधान ॥ तेणें का रण रातें मत जमजो, जो हुवे हश्डे शान रे ॥ ॥प्रा० ॥२॥ दान स्नान आयुधने नोजन, एटला रातें न कीजें ॥ ए करवां सूरजनी साखें, नितिवच न समजीजें रे ॥प्रा॥३॥ उत्तम पशु पंखी पण रातें, टाले नोजन टाणो ॥ तुमे तो मानवी नाम धरावो, केम संतोष न श्राणो रे ॥ प्रा० ॥४॥ माखी जू कीमी कोली श्रावमो, नोजनमां जो श्रावे ॥ कोढ जलोदर वमन विकलता, एवा रोग उपावे रे ॥प्रा० ॥५॥ बन्नु जव जीवहत्या करतां, पातक जेद उपा Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैनधर्मसिंधु. युं ॥ एक तलाव फोमंतां तेटवू, दूषण सुगुरु बतायु रे ॥प्रा०॥ ६ ॥ एकलोत्तर नव सर फोड्या सम, एक दव देतां पाप ॥ अग्लोत्तर जव दव दीधा जिम, एक कुवणिज संताप रे ॥ प्रा० ॥७॥ ॥ एक शो ने चुम्मालीश जव लगें, कुवणिजना जे दोष ॥ कूडं एक कलंक दियंतां, तेहवो पापनो पोष रे ॥ प्राण ॥ ॥ एक शो एकावन जव लगें दीधां, कूमां कलंक अपार ॥ एक वार शील खंड्या जेवो, अनर्थनो विस्तार रे ॥प्राण ॥ ए॥ एकशो नवाएं जव लगें खंड्यां, शीयल विषय संबंध ॥ एके रात्रि जोजनें तेहवो, कर्म निकाचित बंध रे ॥ प्रा० ॥ ॥ १० ॥ रात्रिनोजनमां दोष घणा बे, श्यो कहिये विस्तार ॥ केवली केहतां पार न पावे, पूरव कोडी मकार रे ॥ प्रा० ॥ ११॥ रातें नित्य चो विहार क रीने, शुज परिणाम धरीजें ॥ मासे मासे पासखम पनो, लाज श्णे विध लीजें रे ॥ प्राण ॥१५॥ मुनि वसतानी एह शिखामण, जे पाले नर नारी॥सुर नर सुख विलसीने होवे, मोद तणा अधिकारी रे ॥प्रा० ॥ १३ ॥ इति रात्रिनोजननी सद्याय ॥ ॥ अथ जोबन अस्थिरनी सद्याय ॥ ॥राग प्रजाति ॥ जोबनीयानी मोजां फोजां, जाय नगारां देती रे ॥ घरि घरि घमियाला वाजे, तोय न जागे तेथी Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद. ३७७ रे॥१॥ जो ॥ जरा राक्षसी जोर करे बे, फेलावे फजेती रे ॥ श्रावी अवधे उशंके नहीं, लखपतिने खेती रे ॥ जो ॥२॥ मा बेग मोज करे बे, खांतें जोवे खेती रे ॥ जमरो नमरो ताणी लेशे, गोफण गोला सेंती रे ॥॥ जो ॥३॥ जिनराजाने शरणे जाउँ, जोरालो को न जेथी रे ॥ पुनीयामा दूजो दीसे नहीं, श्राखर तरशो तेथी रे ॥ जो ॥ ॥४॥ दंत पड्याने मोसो थयो, काज सयुं नहीं केथी रे ॥ उदयरत्न कहे या समजो, कहीयें वातो केती रे ॥ जो ॥५॥ ॥अथ निंदावारक सद्याय ॥ ॥ निंदा म करजो कोइ पारकी रे, निंदानां बोख्यां महा पाप रे ॥ वयर विरोध वाधे घणो रे, निंदा करतां न गणे माय बाप रे ॥ निंदा ॥१॥ दूर बलंती कां देखो तुम्हें रे, पगमा बलती जुवो सहु कोय रे ॥ परना मेलमां धोयां लूगां रे, कहो केम ऊजलां होय रे ॥ निं ॥२॥श्राप संजालो सहुको श्रापणो रे, निंदानी मूको पमी टेव रे ॥ थो डे घणे अवगुणे सह नया रे, केहनां नलियां चुए केहेनां नेव रे॥नि॥३॥ निंदा करे ते थाये नारकी रे, तप जप की, सहु जाय रे ॥ निंदा करो तो क रजो श्रापणी रे, जेम बुटकबारो थाय रे॥ निं॥ ॥४॥ गुण ग्रहजो सहुको तणो रे, जेहमां देखो ४८ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जैनधर्मसिंधु. एक विचार रे ॥ कृष्णपरें सुख पामशो रे, समयसुं दर सुखकार रे निं० ॥५॥ इति ॥ अथ शीयल विषे पुरुषने शिखामणनी सद्याय ॥ ॥ चाल ॥ सुण सुण कंता रे, शीख सोहा मणी ॥प्रीत न कीजे रे, परनारी तणी ॥ उथलो ॥ परनारी साथे प्रीत पिउमा, कहो किण परें कीजी यें ॥ जंघ वेची थापणी, उजागरो केम लीजीयें ॥ काडीबुटो कहे लंपट, लोकमांहे लाजीये ॥ कुल विषय खंपण रखे लागे, सगामां केम गाजीयें ॥१॥ चाल ॥प्रीति करंतां रे, पदेलां बीहीजीयें ॥ रखे को जाणे रे मनशुं ध्रुजीयें ॥ ज० ॥ ध्रुजीयें मनरों फुरीये पण, जोग मलवो नहीं ॥ रात दिन विल पंत जाये, अवटा मर, सही, ॥ निज नारीथी संतोष न वढ्यो, परनारीथी कहो \ हशे ॥ जो न थै नाणे तृप्ति न वली तो, एक चाटे शुं हशे॥२॥ मृग तृष्णाथी रे, तृष्णा नवि टखे ॥ वेलु पीट्यां रे, तेल न नीसरे ॥ ज० ॥ न नीसरे पाणी वलोवतां, लव लेश मांखणनो वली ॥ बुमतां बाचक नयाँ पाणी ते, तस्या वात नसांजली ॥ तेम नार रमतां पर तणी संतोष न वत्यो एक घमी ॥ चित्त चट पटी उच्चाट लागे, नयणें नावे निडी ॥ ३ ॥ चाल ॥ जेवो खोटो रे रंग पतंगनो ॥ तेवो चटको रे, परस्त्रीसंग नो ॥ ज० ॥ परनारी साथे प्रेम पिउ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद. ३१ मा, रखे तुं जाणे खरो ॥ दिन चार रंग सुरंग रू डो, पढी नहीं रहे निर्धरो ॥ जे घणा साथे नेह मांडे बांग तेहगुं प्रीतमी ॥ एम जाणी म म कर नाहला, परनारि साथें प्रीतमी ॥४॥ चाल ॥ जे पति वाहालो रे, वंचे पापिणी ॥ परशुं प्रेमेंरे राचे सापिणी ॥ 1 ॥ सापिणी सरखी वयण निरखी, रखे शीयलयकी चले ॥श्रांखने मटके अंग लटके, देव दानवने बले ॥ ए मांहे काली अति रसाली, वाणी मीठी शेखमी ॥ सांजली रेनोला र जाणजे विष वेलमी ॥ ५॥ चाल ॥ संग निवारो रे, पररामा तणो ॥ शोक न कीजें रे, मन मिलवातणो ॥ उ ॥ शोक शाने करो फोगट, देखवू पण दोहि यूँ ॥ क्षण मेमिये क्षण सेरीयें, जमतां न लागे सो हिवू ॥ जश्वासने निःश्वास श्रावे, अंग जांजे मन जमे ॥ वली कामिनी देखी देह दाजे, अन्न दी नवि गमे ॥६॥ चाल ॥ जाये कलाले रे, मनशं कल मले ॥ उन्मत्त थश्ने रे, अलल पलल लवे ॥ ॥ उ० ॥ लवे अलल पलल जाणे, मोहगहिला मन रडे ॥ महा मदन कहिन कारी, मरण वारु त्रेवडे॥ ए दश श्रावस्था काम केरी, कंत कायानेदहे ॥ एम चित्त जाणी तजेराणी, पारकी ते सुख लहे ॥ ७ ॥ चाल ॥ परनारीनां रे, परीनव सांजलो ॥ कंता की जें रे, जाव ते निर्मलो ॥ ॥ निर्मदे नावें नाह Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनधर्मसिंधु समजों, परवधू रस परिहरो ॥ चांपी कीचक जी मसेनें, शिला हेग्ल सांजलो ॥रण पड्यां रावण दशे मस्तक. रम वड्यां ग्रंथे कह्यां ॥ तेम मूंजपति फुःखपुंज पाम्यो, अपजश जग मांहे लह्यां ॥ ७ ॥ ॥ चाल ॥ शीयल सलूणा रे, माणस सोहीयें ॥ विण श्राजरणे रे, जग मन मोहीये ॥ ज०॥ मोहीयें सुर नर करे सेवा, विष अमिय थई संचरे ॥ केसरी सिंह शीयाल थाये, अनल तिम शीतल करे ॥ साप थाए फूलमाला, लछी घरे पाणी जरे ॥ परनारी परिहरी, शीयल मन धरी, मुक्ति वधू हेला वरे ॥ ए॥ चाल ॥ ते माटे हुँ रे, वालम विनवू ॥ पाए लागीने रे, मधुर वयणे स्तवं ॥ ज० ॥वयण महारं मानीयें, परनारीथी रहो वेग ला ॥ अपवाद माथे चढे मोटा, नरकें थश्य दोहि ला ॥ धन्य धन्य ते नर नारि जे दृढ, शीयल पाले कुल तिलो, ते पामशे यश जगतमांहि, कुमुद चंद सम ऊजलो ॥१॥ ॥अथ नारी शिखामणनी सद्याय ॥ ॥चाल ॥ एक अनोपम, शिखामण खरी ॥ स मजी लेजो रे, सघली सुंदरी ॥ ज० ॥ सुंदरी सहे जे हृदह हेजें, पर सेजें नवि बेसीयें ॥ चित्तथकी चूकी लाज मूकी, परमंदिर नवि पेसीयें ॥ बहु घेर हीमी, नार निर्लज, शास्त्रे पण, तजवी कही। जेम Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिजेद. ३१ प्रेत दृष्टे, पड्युं जोजन, जमवु ते, जुग तुं नहीं ॥ १॥ चाल ॥ परशुं प्रेमें रे, हसीय न बोलीयें ॥ दां त देखामी रे, गुह्य न खोलीयें ॥ ज० ॥ गुह्य घरनु, परनी श्रागें, कहोने केम प्रकाशीयें ॥ वली वात जे, विपरीत नांखे तेहथी दूरे नाशीयें ॥ असुर सवारा, अने अगोचर, एकलां नवि, जायें ॥ सहसात्कारें, काम करतां, सहेजें शील गमावीयें ॥२॥ चाल॥ नट विट नरशुं रे नयण न जोमीयें ॥ मारग जातां रे, श्राघु उढीयें ॥ ज०॥ श्राघु ते उढी, वात करतां, घणुंज रूमां, शोजीयें ॥ सासू अने, माना जएया विण, पलक पास न, थोजीयें ॥ सुख फुःख सरज्यु, पामीये पण, कुलाचार, न मूकीयें ॥ परवश वसंतां, प्राण तजतां, शीयलथी, नवि चूकीयें ॥३॥ चाल ॥ व्यसनी साथें रे, वात न कीजीयें।परनर हाथेरे, ताली न लीजीयें॥॥ ताली न लीजें, नजर न दीजें चंचल चाल न चालिये ॥एक विषयबुझें, वस्तु केहनी हाथे पण नवि कालिये॥ कोटी कंदर्प,रूप सुंदर,पुरुष पेखीन मोहिये ॥ तणखला तोले गणिय तेहने, फरिय सामुं न जोश्यें ॥॥ चाल ॥ पुरुष पीयारो रे, वति न व खाणीयें ॥ वृक्ष ते पिता रे, सरखो जाणीयें ॥ ॥ जाणीयें पीयु विण, पुरुष सघला, सहोदर, समो वडे ॥पतिब्रतानो, धर्म जोतां, नावे को तडोवमें।कुरूप कुष्टी कूबमोने इष्ट कुर्बल निर्गुणो ॥ जरतार पामी, Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३न्य जैनधर्मसिंधु. नामिनी ते इंप्रथी श्रधिको गणो ॥ चाल ॥ अमर कुमारे रे,तजी सुर सुंदरी ॥ पवनंजयें रे, अंजनापरि हरी ॥॥ परिहरी रामेवनमां सीता, नले दमयंति वली ॥ महा सती माथे, कष्ट पड्यां पण शीयलथी ते, नवि चली ॥ कसोटीनी परें,कसीअ जोतां कंत\ विहडे नहीं ॥ तन मन्न वचनें, शीयल राखे, सती ते जाणो सही ॥६॥ चाल ॥ रूप देखाडी रे, पुरुष न पाडीयें ॥ व्याकुल थश्ने रे मन न बगाडीयें ॥ ॥ ज० ॥ मन न बगामीयें, पर पुरुष, जोग जोता, नवि मले ॥ कलंक माथे, चढे कूमां सगा सहु, दूरे टले ॥ अणसरज्यो, उच्चाट, थाये, प्राण तिहां, ला गी रहे ॥श्ह लोक पामे आपदा, परलोक पीमा बहु सहे ॥ ७॥ चाल ॥ रामने रूपें रे, शूर्पनखा मोह। ॥ काज न सीधुं रे, अने जत खोइ ॥ उम् ॥जत खो देख अजया, शेठ सुदर्शन, नवि च ल्यो ॥ जरतार आगल, पमी नों, अपवाद सघ ले, उबल्यो॥ कामिनी देखी, कामनी बुझें, वंकचूल, वाह्यो घणुं ॥ पणशीयलथी, चुकी नहीं, दृष्टांत एम, केतां नणुं ॥ ७ ॥ चाल ॥ शीयल प्रनावें रे, जुवो शोले सती ॥ त्रिजुवनमांहे रे, जेह थई बती ॥ ॥ सती थने, शीयल राख्यु, कल्पना, कीधी नहीं॥ नाम तेहना, जगत् जाणे विश्वमां ऊगी रही ॥ वि विध रत्ने, जडित नूषण, रूपसंदरि, किन्नरी॥ एक Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिद. ३३ शियल विण शोने नही ते सत्य गणजो सुंदरी ॥ चाल ॥शीयल प्रजावे रे, सुर सेवा करे ॥ नव वा मेरे जेह निर्मल धरे ॥ धरे निर्मल, शीयल उज्वल, तास कीर्ति फलहले ॥ मनकामना, सवि सिद्धि पामे, अष्ट नय, कुरे टले ॥ धन्य धन्य ते, जाणो धरा, जे शीयल चोखं, आदरे, ॥ आनंदना ते, उघ पामे उदय महा जस, विस्तरे ॥ १० ॥ इति नारीने ॥अथ धोबीमानी सद्यय ॥ ॥ धोबीमा तं धोजे मननं धोतीयं रे, रखे राख तो मेल लगार रे॥ एणेंमेले जग मेलो कस्यो रे, विण धोयुं न राखे लगार रे ॥धो ॥२॥ जिनशासन सरो वर सोदामणुं रे, सम कित तणी रूमी पाल रे ॥ दानादिक चार बारणां रे, मांहि नव तत्त्व कमल विशाल रे ॥धो ॥॥ तिहां कीले मुनीवर हंसला रे, पी ये ने तप जप नीर रे॥शम दम श्रादि जे शील रे, तिहां खाले थापणुं चीर ॥धो॥३॥तपवजे तप तमके करी रे,जालवजे नव तत्त्व वाम रे॥ बांटा उमाडे रखे पाप अढारना रे,एम उजतुं होशे ततकाल रे॥धोग ॥४॥ बालोयण साबूडो सूधो करे रे,रखे श्रावे माया शेवाल रे ॥ निश्चे पवित्रपणुं राखजे रे, पडे श्रापण नीमी संजाल रे ॥ धोणारखे मूकतो मन मोकलु २॥चल मेलीने संकेल रे॥ समयसुंदरनी शीखमी रे, सुखमी अमृत वेल रे ॥ धो० ॥६॥ इति ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३न्। जैनधर्मसिंधु ॥ अथ श्री नरतचक्रीनी सद्याय॥ ॥ मनहीमे वैरागी नरतजी, मनही में वैरागी॥ सहस्स वत्रीश मुकुट बंध राजा, सेवा करे वडवागी ॥ चोश सहस्स अंतेउरी जाके, तोहि न हुवा अनुरागी ॥ न ॥ १ लाख चोराशी तुरंगम जाके, बन्नु कोम हे पागी ॥ लाख चोराशी गज रथ सो हिये, सुरता धर्मशुं लागी ॥ ज० ॥२॥ चार करो ड मण अन्नज उपडे, खूण दश लाख मण लागे । तीन कोम गोकुल मुजे,एक कोम हल सागीना ॥३॥ सहस्स बत्रीश देश वमनागी, नये सरवके त्यागी॥ बन्नु कोम गामके अधिपति ॥ तोहे न हुश्रा सरागी ॥ ज०॥४॥ नव निधि रतन चोगडा बा जे, मन चिंता सब जांगी ॥ कनक कीरत मुनिवर वंदत हे, देजो मुक्ति में मागी ॥ ज० ॥ __ चेत चतुरनर निज मनमाहि॥क्षण दण आयुष जायजी कां निचिंत थश्ने सुतो,नरनव ए ले जाय जी॥॥॥काम क्रोध तृष्णारसे रातो,तेणें न जाएयु, काय जी॥लागे घरे किम कूप ख णासेसांके न बांधि पालजी॥शाचे॥आयु अस्थिर जिम जल पंपोटोमर ण ते आवे निदानजी॥राय रंक केहने नवि बोडे, पंडित जाण अजाणजी ॥३॥चे॥पुण्य पाप दोय साथें आवे, अवर न आवे कोयजी ॥ कहे नारायण धर्म करो जिम,श्रावागमण न होयजी ॥४॥चे॥ इति॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिच्छेद. ३५ ॥ अथ श्री बाहुबलजीनी सद्याय ॥ ॥ बहेनी बोले हो बाहुबल सांजलो जी ॥ रूडा रूमा रंगनिधान ॥ गयवर चढिया हो, केवल केम हुवे जी ॥ जाण्युं जाएयुं पुरुष प्रधान ॥ ब० ॥१॥ तुज सम उपशम जगमा कुण गणेजी, अकल निरं जन देव ॥ नाश नरतेसर वादाला विनवे जी, तुऊ करे सुर नर सेव ॥ ब० ॥२॥ नर वरसालो हो वनमां वेठी जी, जिहां घणां पाणीनां पूर ॥ ऊर मर वरसे हो, मेहुलो घणुं जी, प्रगट्या पुण्य अंकूर ॥ ब० ॥३॥ चिहुं दिशि वीट्यो हो वेलमीये घj जी, जेम वादल बायो सूर ॥ श्री आदिनाथे हो, श्रमने मोकल्यां जी ॥ तुम प्रतिबोधन नूर ॥ ब०॥ ॥४॥ वर संवेगरसे हो, मुनि नख्या जी ॥ पाम्यु पाम्युं केवल नाण ॥ माणकमुनि जस नामे हो, हरख्यो घणुं जी ॥ दिन दिन चढते रे, वान ॥ बन ॥५॥ इति सद्याय ॥ ॥अथ श्री ढंढण ऋषिजीनी सद्याय ॥ ॥ ढंढण ऋषिजीने वंदण। ॥ ९ वारी लाल ॥ उ स्कृष्टो अणगार रे ॥ हुँ वारी लाल ॥ अनिग्रह लीधो आकरो ॥ हुँ वारी० ॥ लब्धे लेशुं श्राहार रे ॥ हुँ वारी लाल ढं० ॥१॥ दिन प्रति जावे गोचरी ॥ हुं ॥ न मले शुक आहार रे हुं ॥ न लीये मू ल असूऊतो ॥ ९ ॥ पीजर हुवो गात रे ॥ ९॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैनधर्मसिंधु ढं ॥२॥ हरि पूजे श्री नेमने ॥ हुं० ॥ मुनिवर सहस्स अढार रे ॥ ९० ॥ उत्कृष्टो कोण एहमें ॥ ॥ हुं० ॥ मुजने कहो कृपाल रे ॥ हुं० ॥ ढं॥३॥ ढंढण अधिको दाखीयो ॥ हुं० ॥ श्रीमुख नेम जि णंद रे ॥ हुं ॥ कृष्ण उमाह्यो वांदवा ॥ हुं० ॥ध न्य जादवकुल चंद रे ॥ हुं० ॥ ढंग ॥४॥ गलीश्रा रे मुनिवर मल्या हुं० ॥ वादे कृष्ण नरेश रे ॥९॥ किणही मीथ्यात्वी देखिने ॥ हुं० ॥ श्राव्यो जाव विशेष रे॥ हुं ॥ ढंग ॥ ५ ॥ श्रावो श्रम घर साधु जी ॥ हुं त्यो मोदक ने शुद्ध रे ॥ ढुंग ॥ रिषीजी लश् श्रावीया ॥ ९० ॥ प्रचुजी पास विशुद्ध रे ॥ ॥ हुं० ॥ ढं० ॥ ६॥ मुज लब्धे मोदक मिख्या ॥ ॥ हुं० ॥ मुजने कहो कृपाल रे ॥ हुं० ॥ लब्धि न हिं वत्स ताहरी ॥ हुं० ॥ श्रीपति लब्धि निहाल रे ॥ हुं० ॥ ढंग ॥ ७॥ तो मुजने लेवो नहीं ॥ ९ ॥ चाल्यो परठण काज रे ॥ हुं० ॥ इंट निंजाडे जा ने ॥ हुं० ॥ चूरे कर्म समाज रे ॥ हुं ॥ ढंग ॥ ॥ श्रावी सूधी नावना ॥ हुँ० ॥ पाम्यो केवल नाण रे ॥ हुं० ॥ ढंढण ऋषि मुगते गया हुं० ॥ कहे जिन हर्ष सुजाण रे ॥ ९ ॥ ढंग ॥ ए ॥ इति ढंढण षिनी सद्याय ॥ ॥ अथ श्री अश्मंताजीनी सद्याय ॥ ॥ श्री अश्मंता मुनिवरजूके, करणीकी बलि हा Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिवेद. ३८७ री वे ॥ खट वर्षन के संजम लीनो, वीरवचन चित्त धारी वे ॥ श्री० ॥ १ ॥ विजय नृपति श्रीदेवी नंद न, कोलासपुर अवतारी वे ॥ अंग अग्यार पढे गुण आदर, त्रिविध त्रिविध अविकारी वे ॥ श्री० ॥ ॥ २ ॥ तपगुण रयण संवत्सर आदिक, करके काय उद्धारीवे ॥ प्रभु देशें बिपुलाचल परि, करी सण अति जारी वे ॥ श्री० ॥ ३ ॥ केवल पाय मुक्ति गये मुनिवर, कर्म कलंक निवारी वे ॥ श्रढा रमताले तिहिं गिरि उपर, कीनी थापना सारी वे ॥ ० ॥४॥ वाचक अमृत धर्म सुगुरुके, सुपसाये, सुविचारी वे ॥ शिष्य क्षमाकल्याण दरख धर, गावे यति जयकारी वे ॥ श्री० ॥ ५ ॥ इति सद्याय ॥ ॥ अथ श्री करकंडू प्रत्येक बुधजीनी सद्या ॥ ॥ चंपा नगरी अति जली || हुं वारी लाल || दधिवाहन नूपाल रे || हुं वारी लाल ॥ पद्मावती कूखें उपनो || हुं० ॥ कर्मे कीधो चंगाल रे || हुं ॥ ॥ १ ॥ करकंडुने करुं वंदा || हुं० ॥ पहिलों प्रत्येक बुध रे || हुं० ॥ गिरुवाना गुण गावतां ॥ ० ॥ स मकित थाये शुद्ध रे ॥ हुं० ॥ २ ॥ लाधी वांशनी लाकमी ॥ हुं० ॥ थयो कंचनपुर राय रे ॥ हुं० ॥ बापसुं संग्राम मांगी || हुं० ॥ साधवी ली सम जाय रे || हुं० ॥ ३ ॥ वृषन रूप देखी करी ॥ हुं० ॥ प्रतिबोध पाम्यो नरेश रे ॥ हुं० ॥ उत्तम संजम Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जैनधर्मसिंधु. यादस्यो || हुं० ॥ देवतादीधो वेश रे || हुं० ॥ ४॥ कर्म खपाय मुगतें गया || हुं० ॥ करकंडू ऋषि राय रे ॥ हुं० ॥ समयसुंदर कहे साधुने ॥ हुं० ॥ प्रण म्यां पातक जाय रे || हुं० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री मनोरमा सतीनी सद्याय ॥ ॥ मोहनगारी मनोरमा, शेठ सुदर्शन नरीरे ॥ शील प्रजावें शासनसुरी, थइ जस सान्निध्यकारी रे ॥ मो० ॥ १ ॥ दधिवाहन नृपनी प्रिया या दीए कलंक रे कोप्यो चंपापति कहे, शूली रोपण वंक रे ॥ मो० ॥ २ ॥ ते निसुणीने मनोरमा, करे काउस्स ग्ग धरी ध्यान रे ॥ दंपती शील जो निरमलुं, तो वो शासन मामरे ॥ मो० ॥३॥ शूली सिंहासन ययुं शासन देवी हजूर रे ॥ संजम यही थया केवली, दंपती दोय सनूर रे ॥ मो० ॥ ४ ॥ ज्ञानविमल गुण शीलथी, शासन शोज चढावे रें सुर नर सवि तस किंकरा, शिव सुंदरी ते पावे रे || मो० ॥५॥ इति ॥ ॥ अथ क्रोधनी सधाय ॥ ॥ कडवां फल बे क्रोधनां, ज्ञानी एम बोले ॥ रीशतणो रस जाणीयें, हलाहल तोलें ॥ क० ॥ ॥ १ ॥ क्रोधें क्रोम पूरव तणुं, संजम फल जाय ॥ क्रोध सहित तप जेकरे, ते तो लेखें न थाय ॥ क०॥२॥ साधु घणो तपीयो हुतो, घर तो मन वैराग ॥ शिष्य ते क्रोध की थयो, चंगकोशोयो नाग ॥ क० ॥ ३ ॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिवेद. आग उठे जे घरथकी, ते पहेलु घर बाले ॥ जल नो जोग जो नवि मले, ते पासेंर्नु परजाले ॥ क० ॥ ॥४॥ क्रोधतणी गति एहवी, कहे केवलनाणी ॥ ॥ हाण करे जे इतनी, जालवजो एम जाणी ॥ ॥ क० ॥५॥ उदयरतन कहे क्रोधने, काढजो गले साही ॥ काया करजो निर्मली, उपशम रस नाही ॥ क० ॥ ६ इति क्रोधनी सद्याय ॥ ॥अथ माननी सद्याय ॥ ॥रे जीव मान न कीजीयें, माने विनय न श्रा वे रे ॥ विनय विना विद्या नहीं, तो किम समकित पावे रे ॥ रे ॥ १॥ समकित विण चारित्र नहीं, चारित्र विण नहीं मुक्ति रे ॥ मुक्तिनां सुख डे शा श्वतां, ते केम लहिये जुक्ति रे ॥ रे ॥२॥ विन य वमो संसारमां, गुणमां अधिकारी रे ॥ माने गुण जाये गली, प्राणी, जो जो विचारी रे ॥ रे ॥३॥ मान कमु जो रावणे, तेतो रामे मास्यो रे ॥ पुर्यो धन गरवे करी, ते अंते सवि हास्यो रे ॥ रे॥४॥ शूकां लाकमां सारिखो, फुःखदायी एखोटो रे॥उद यरत्न कहे मानने, देजो तमे देशवटो रे॥५॥इति ॥अथ मायानी सद्याय ॥ ॥ सम कितनुं मुल जाणीयें जी, सत्य वचन सा दात ॥ साचामां समकित वसे जी, मायामां मि थ्यात्व रे ॥ प्राणी म करीश माया लगार ॥१॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Uმ जैनधर्मसिंधु. एकणी ॥ मुख मीठो जूगे मनें जी, कूम कपट नो रे कोट ॥ जीनें तो जी जी करे जी, चित्तमांदे ताके चोट रे ॥ प्रा० ॥ २ ॥ आप गरजें श्रघो पडे जी, पण न धरे विश्वास ॥ मनशुं राखे श्रांतरो जी, ए मायानो पास रे ॥ प्रा० ॥ ३ ॥ जेदशुं बांधे प्री तमी जी, तेहशुं रहे प्रतिकूल ॥ मेल न खंडे मन तणोजी, ए माया नु मूल रे ॥ प्रा० ॥ ४ ॥ तप की धुं माया करी जी, मित्रशुं राखे रे नेद ॥ मल्लि जिनेश्वर जाणजो जी, तो पाम्या स्त्री वेद रे ॥ ॥ प्रा० ॥ ५ ॥ उदयरत्न कहे सांजलो जी, मेलो मायानी बुद्धि ॥ मुक्ति पुरी जावा तणो जी, ए मा रग बे शुद्ध रे ॥ प्रा० ॥ ६ ॥ इति ॥ ॥ श्राचारांग सून्नी वाय ॥ ॥ कोइलो पर्वत धुंधलो रेलो ॥ ये देशी ॥ श्राचारांग पहेलुं कयुं रेलो अंग इग्यार मकार रे ॥ चतुरनर ॥ अढार हजार पढ़ें जिहां रेलो, दा ख्यो मुनि आचार रे ॥ च० ॥ १ ॥ जावधरीने सां जलोरेलो. जिम जाजे जव जीति रे ॥ च० ॥ पू जा जक्ति प्रजावना रेलो, साचविये सवि रीति रे ॥ च० ॥ जाव० ॥ ए आंकणी || दो सुप्रबंध सुहा मणां रेलो, श्रयणां पणवीस रे ॥ च० ॥ शाश्वता हां कहे रेलो, युक्ति श्रीजगदीश रे ॥ च०॥ जा० ॥ २ ॥ मीडेवयऐं गुरु कयुं रेलो, मीठडुं श्रं Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ पंचमपरिजेद. गज एह रे ॥ च ॥ मीठडीरीते सांजले रेलो, सु ख लहे मीठडां तेह रे ॥ च ॥ ना० ॥३॥ सुर तरु सुरमणि सुरगवी रेलो, सुरघट पूरे काम रे ॥ च ॥ सांजल, सिद्धांतनुं रेलो, तेहथी अति श्र निराम रे ॥ च ॥ जाण ॥४॥ श्रीनयविजयविबु कतणो रेलो, वाचक जस कहे शीश रे ॥ च० तुम ने पहिला अंगनो रेलो, शरण होयो निशदीश रे ॥च० ॥ ना० ॥५॥इति ॥ ॥ ॥अथ कलियुगनी सद्याय ॥ ॥ सरसती सामिनी पाय नमीने, उलट मनमां हे श्रायो । तीरथ नहीं कोई इण संसारे, तेणे ए कलियुग आयो ॥ देखो बे यारो कूमो कलियुग थायो ॥ एत्रांकणी ॥ बाबो कहे मारी नानमी बेटी, दिन दिन मूख्य सवायो ॥ यारो कूमो कलियु ग आयो ॥१॥ राजा ते परजाने पीडे, कुनर काम जलायो ॥ बोल बंध नहि मंत्रीने, गोचर खेत्र खे मायो ॥ बे यारो ॥२॥ गुरुने गाल दिये नित चेलो, वेद पुराण पढायो ॥ सासु चूले ने वहु खाटलडे, फुके शरीर जलायो ॥ बे यारो ॥३॥ एशी वरस नो हीडे होशे, मूळे हाथ घलाये ॥ पंच तणी साखे परणीने, अबला अर्थ गमायो ॥ बे यारो॥॥जोगी जंगम ने संन्यासी नांग जखे मदवाहो॥चोर चाड परधनने खाये, साधु जन सीदायो॥बे यारो ॥५॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए जैनधर्मसिंधु. निर्धनने बहु बेटा बेटी धनवंत एक न पायो ॥ नीच तणे घर अति वणी लखमी उत्तम जन सीदायो । बे यारो ॥ ६ ॥ न मले बाप संगाते बेटो, घणेरे मनोर्थे जायो ॥ हाथउपाडे मायने मारे, परणी शुं उमाह्यो ॥ बे यारो ॥ ॥ घरमाने घेलो कहे बेटो, आद तणो मद वाह्यो ॥ वहु सूतीने वर हीमोले, सासरे सूवाने धायो ॥ बे यारो ॥ ७ ॥ हलखेडे ब्राह्मण गौ जोत्ति, निर्दय नाक फमायो॥ मा बाप बेटी वेचीने, बेटाने परणायो ॥ बे यारो ॥ ए॥ राग तणे वश गुरुने गुरुणी, काम करे परा यो ॥ कांगानी पेरे कलहो मांगी, कुल गुरु नाम धरायो ॥ बे यारो ॥ १० ॥बैयर बार वरसनीने बेटो, दीगे गोद खेलायो ॥ माग्यां मेह न वरसे महीयल, लान्ने धयो सवायो ॥ बे यारो ॥ ११ ॥ कूमा कलियुगनी ए माया, देखी गीत गवायो ॥ पत्नणे प्रीति विमल परमारथ, जीन वचनें सुख पायो ॥ बे यारो कूमो ॥ १२ ॥ ॥अथ शियल स्वाध्याय ॥ धन्य धन्य ते दीन माहारो॥ए देशी॥ शियल समुंव्रत को नहि, श्री जीनवर नाखे रे ॥ सुख आपे जे शाश्वतां, उर्गति पमता राखेरें ॥शि॥१॥ व्रत पचरकाण विना जुओ, नव नारद जेहरे ॥ एक ज शियल तणे बले, गया मुकतें तेहरे ॥ शि॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद ३९३ ॥२॥ साधु अने श्रावक तणां, व्रत ने सुखदायीरे शियल विना व्रत जाणजो, कुशका सम जारे ॥ ॥ शि ॥३॥ तरुवर मूल विना जिस्यो, गुण विण लाल कमानरे ॥ शियल विना व्रत एहवं, कहे वीर जगवानरे ॥ शि० ॥४॥ नव वामें करी निर्मबुं, प हेर्बु शीलज धरजोरे ॥ उदय रत्न कहे ते पड़ी, व्रतनो खप करजोरे ॥ शि॥५॥ ॥निजमीनी सवाय ॥ - निमी वेरण हुइ रही, कीम कीजें हो सा पुरु श निदानके; चोर फरे चिहुं पासथी, किम सूता हो कांश दिनने रात के ॥ नि ॥१॥ वीर कहे सूणो गोयमा, मत करजो हो एक समय प्रमादके ॥ जरा थावे यौवन गले, किम सूता हो कांश कव ण सवादके ॥ नि ॥२॥ चउद पूरवधर मुनिवरा निसा करता हो गया नरक निगोद के ॥ अनंतो अनंत काल तिहारहे, श्म बगडे हो, कांश धरमनो मोदके ॥ नि ॥३॥ जोरावर घणा जालमी, यम राजा हो कांश सबल करके ॥ नीज सेन्या लक्ष चिहुं दिशे, किम जागता हो नर कहिये शूर के ॥ नि० ॥ ४॥ जागतडां गंजे नहि, बेतराये हो नर सूतो नेटके ॥ सूतारीणी पामा जण्या, किम कीजें हो शा पुरुषनी नेटके ॥ नि ॥५॥ श्री वीरें श्म जाखीयुं, पंखी नारंड हो न करे परमाद के; तेह Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए। जैनधर्मसिंधु तणी परें विचारजो, परिहरजो, हो गोयम परमाद के ॥ नि॥६॥ वीर वचन श्म सांजली, परिहरी यो हो गोयमें परमाद के; लीला सुख लाधां घणां, श्रीर रहियो हो जगमा जसवादके; ॥ नि ॥७॥ निंद निउमी मत आणजो, सूश रहेजो हो साव धान के; ध्यान धरम हियें धारजो, श्म जाखे हो मुनि कनक निदान के ॥ नि॥७॥ ॥अथ श्रात्मबोध सद्याय ॥ जीव क्रोध म करजो, लोन म धरजे, मान मला श्श नाश् ॥ कूडां कर्म म बांधीश, धर्म म चूकीश, विनय म मूकीश ॥ नारे जीवडा ॥ दोहिलो मान वजव लाधो, तुमे कांश करी तत्वने साधो रे जोखा ॥ दोहिला ॥ ए आंकणी ॥१॥ घर पनवाडे दे रासर जतां, वीश विमासण थाय ॥ नूख्यो तरश्यो राउल राते, माथे सहेतो घाय रे ॥ जीवधा दोहिण ॥२॥ धर्म तणी पोशाले चाल्या, सूणवा सद्गुरु वाणी ॥ एक वात करे बीजो उठी जाये, नयणे निंद नराणीरे ॥ जीव० ॥३॥ नामे बेठो लोने पेठगे, चार पोहोर निशि जाग्यो ॥ बे घमी, पमि कमj करतां,चोखो चित्त न राख्योरे ॥ जीव० ॥४॥ था उम चउदश पुनम पाखी, पर्व पर्युसण सारो ॥ बे घमीन पचरकाण करंतां, एक बीजाने वारो रे॥ रे ॥ जीव० ॥ ५॥ कीर्ति कारण पगरण मांडी, अ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद ३५ रथ गरथ सवि खूटे ॥ पुण्यने काजे पारकुं पोतानु, गांउडीए नवि बूटे रे ॥ जीव ॥ ६ ॥ घर घरणीने घाट घमाव्या, पहेरण श्रागा वाघा ॥ दश आंगली दश वेढज पहर्या, निर्वाणे जावु ने नागारे ॥ जीव मा० ॥ ७ ॥ वांको श्रदर माथे मोडु, नीलवट श्रा धो चंदो ॥ मुनि लावण्य समय श्म बोधे, ए त्रण कालें वंदो ॥ जीवमा ॥७॥ ॥अथ श्री जीनहर्षजीकृत पांचमा श्रारानो सद्याय॥ ॥ वीर कहे गौतम सुणो, पांचमा थारना नाव रे ॥ मुखीया प्राणी अतिघणा, सांजल गौतम सु जावरे ॥ वीर ॥१॥ शदेर होशे ते गाममां, गाममां, होशे समशान रे ॥ विण गोवा रे धण चरे, ज्ञानी नहिं निरवाण रे ॥ वी० ॥२॥मु ज केडे कुमती घणा, होशे ते निरधार रे ॥ जिनम तिनी रुचि नवि गमे, थापशे निजमति सार रे ॥ वीर ॥३॥ कुमति काका कदाग्रही, थायशे श्राप णा बोलरे ॥ शास्त्र मारग सवि मूकशे, करशे जि न मत मोल रे ॥ वी० ॥४॥ पाखंमी घणा जाग शे, नांगशे धरमना पंथ रे॥ आगम मत मरमी करी, करशे नवा वली ग्रंथ रे ॥ वी० ॥५॥ चाल पीनी परें चालशे, धर्म न जाणे लेशरे आगम शा खाने टाखशे, पालशे निज उपदेश रे॥ वी०॥६॥ चोर चरड बहु लागशे, बोलीन पाले बोल रे ॥ सा Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - A . ३७६ जैनधर्मसिंधु धुजन सीदा यशे, उर्जन बहुला मोल रे ॥वी॥॥ राजा प्रजाने पीमशे, हिंडशे निरधन लोक रे॥ माग्या न वरसशे मेहुला, मिथ्यात्व होशे बहु थो क रे ॥ वी० ॥ ॥ संवत् योगणीश चौदोत्तरें, हो शे कलंकी राय रे ॥ माता ब्राह्मणी जाणीयें, बाप चंमाल कहेवाय रे ॥ वी० ॥ ए ॥ व्यासी वरषनु थाउखु, पामलीपुरमा होशे रे, तसु सुत दत्त नामें जलो, श्रावककुल शुज होषे रे ॥ वी १०॥ कौतुकी दाम चलावशे, चर्म तणा ते जोय रे ॥ चोथ लेशे निक्षा तणी, महा आकरा कर होय रे ॥ वी० ॥ ॥ ११ ॥ अवधियें जोयतां, देखशे एह स्वरुप रे ॥ हिजरुपें आवी करी, हणशे कलंकी नूप रे ॥ ॥ १५ ॥ दत्तने राज्य थापी करी, इंऽ सुर लोकें ज य रे ॥ दत्त धरम पाले सदा, नेटशे शेत्रंज गिरि राय रे ॥ वी० ॥ १३ ॥ पृथ्वी जीन मंडित करी पामशे सुख अपार रे ॥ देव लोकें सुख जोगवे, नामे जयजयकार रे ॥ वी० ॥ १४ ॥ पांचमा श्राराने बेमु ले, चतुर्विध श्रीसंघ होशे रे ॥ बहो आरो बेसतां, जीनधर्म पहिलो जाशे रे ॥ वीर ॥ १५ ॥ बीजे अगनी जायशे, त्रीजे राय न कोय रे ॥ चोथे पोहरे लोपना, बड़े थारे ते होय रे ॥ १६ ॥ दोहा ॥ है आरे मानवी, बिलवासी सवि होय ॥ वीश वरसनुं आउखं, षटवर्षेगर्जज होय ॥ १७ ॥ सहस चोराशी Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ पंचमपरिछेद वर्षपणे, जोगवशे जवि कर्म ॥ तीर्थंकर होशे जलो, श्रेणिक जीव सुधर्म ॥ १७ तसु गणधर अति सुंदरु, कुमार पाल नूपाल ॥ आगम वाणी जोश्ने, रचीय रयण रसाल ॥१५॥ पांचमा श्राराना नाव ए, श्रागमें नांख्या वीर ॥ ग्रंथ बोल विचार कह्या, सांजलजो नवि धीर ॥ २० ॥ जणतां समकित सं पजे, सुणतां मंगल माल ॥ जीनहर्षे कही जोड ए, नाख्यां वयण रसाल ॥१॥ इति ॥ ॥अथ श्रमल वर्जन स्वाध्याय कंथ तमाकू परिहरो॥ ... ए देशी॥ ॥ श्रीजीनवाणी मन धरी, सद्गुरु दीये उपदेश मेरे लाल ॥ बावीश अनदयमांहे कडं, अमल थ जदय विशेष ॥ मे ॥ अमल म खा साजनां॥१॥ अमल विगोवे तन ॥ मेण्जंघ बगासां घेरणी, श्रावे श्राखो दिन्न ॥ मे ॥ १० ॥२॥ अमली श्रमलने सारिखो, श्रावे थानंद थाय ॥ मे ॥ उतरतां श्रा रति घणी, धीरज जीव न धराय ॥ मे ॥ अ॥३॥ आलस ने उजागरो, बेगे ढबकां खाय ॥ मे॥ अकल नकांश उपजे, धर्म कथा न सुणाय ॥ मे० ॥ ॥०॥४॥ काला अहिथी उपमुं, नामें जे अहि फीण ॥ मे ॥ संग करे कोण एहनो, पंमित लोक प्रवीण ॥ मे० ॥ अ० ॥५॥पहेढुं मुख कम हु वे, वली घांटो घेराय ॥ मे ॥ उदर व्यथा नित्य Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३एज जैनधर्मसिंधु. श्राकरो, श्णधी अवगुण थाये॥मे॥१०॥६॥ नाक बंधायें बोलतां, धाधुं वचन बोलाय ॥ मे ॥अमी सुकाये जीननु, एहने खाय बलाय ॥ मे ॥७॥ दाढीने मूगंदिशि, उगे नही अंकूर ॥ मे० ॥ काया काली मिश हुए, गाबमी गाले नूर ॥ मे ॥१०॥ ॥७॥ पलक अवेरुं जो लीए, तो पातम अकुलाय ॥ मे ॥ नाक चूए नयणां ऊरे, काम करीन शका य ॥ मे ॥ १०॥ ए॥ अधबिच मारगमां पडे, जीवन मृत्यु समान ॥ मे ॥ हाथ पगोनी नस ग ले, अमली श्रावी शान ॥ मे ॥ १०॥ १०॥ श्रा गरा बाबो कह्यो, मालवी मांडे नेल ॥ मे ॥ थापदणुं सखरं नही, मिशरी\ मन मेल ॥ मे ॥ अ॥ ११॥ नवटांक जे नर जीरवे, तसु थहि वि ष न जणाय ॥ मे ॥ अमल घणुं खाधाथकी, कंद 4 बल मिट जाय ॥ मे ॥१०॥ १२॥ अमलीने उन्हें रुचे, टाटु नावे दाय ॥ मे० ॥ खोनी रोटी खांमधी, उपर दूध सुहाय ॥ मे ॥ १० ॥ १३॥ कुलवंती जे कामनी, जाणे जुगति सुजाण ॥ मे ॥ कांति विखी क्षण करी, श्रमलीने दीए श्राण ॥ ॥ मे० ॥ १४ ॥प्रीतम आशा पूरती, न करे रीश लगार ॥ मे ॥ कथन न लोपे कंथन, ते विरली संसार ॥ मे ॥ अ०॥ १५॥ पुर्जागणी नारी जी का, बोले कर्कश वाण ॥ मे ॥ रे रे अधम अफी Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद Buu शिया, थालसवंत अजाण ॥ मे० ॥ ० ॥ १६ ॥ परणी जाइ पारकी, शुं कीधुं तें धीठ ॥ मे० ॥ पो तानुं पण पेट ए, निठुर जराय न नीठ ॥ मे० ॥ ॥ ० ॥ १७ ॥ कान कोट भूषण सहु, वेची खाधुं ते ॥ मे० ॥ निर्लज तुज घरवासमां, कहे सुख पाम्युं जेह ॥ ० ॥ ० ॥ १८ ॥ अमल समो सुगो नहीं, मानो एमुक शीख ॥ मे० ॥ बाले सुंद र देही, ते मगावे जीख ॥ मे० ॥ श्र० ॥ १७ ॥ दालिजीने दो हिलुं, सुर उग्यानुं शाल ॥ मे० ॥ श्री मंतने पण नहीं नलुं, जोतां ए जंजाल ॥ मे० ॥ ॥ अ० ॥ २० ॥ सासु वहु वढतां बतां, रीसे श्रमल जवंत || मे० बालक खाये अजाणतां, जो घर म ल हवंत ॥ मे० ॥ ० ॥ २१ ॥ प्राणी वध जिपशुं हुवे, ते तो तजीयें दूर ॥ मे० ॥ कर्मादान दशमुं कहुँ, विष व्यापार पर || मे० ॥ ० ॥ ५२ ॥ च तुर विचार ए चित्त धरी, कीजें अमल परिहार ॥ ॥ मे० ॥ खिमा विजय पंडित तो, कहे माणिक म नोहार || मे० ॥ ० ॥ ॥ अथ काया उपर सद्याय ॥ ॥ काया रे वामी कारमी, सीचंतारे शूके ॥ उठ कोम रोमा वली, फल फूल न मूके ॥ का० ॥ का या माया कारमी, जोवंतां जाशे ॥ मारग लेजो मो दनो, जीवको सुख पाशे ॥ का० ॥ २ ॥ अरिहंत Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जैनधर्मसिंधु. श्रांबो मोरीयो, सामायिक थाणे मंत्र नवकार संजा रजो समकित सुधगंणे ॥ का० ॥३॥ वामी करो विरतां तणी, सवि लोन निवारो ॥ शील संयम दोनु एकगं, नली पेरे पारो ॥ का० ॥४॥ पांच पुरुष देशावरी, बेग एणी डाली ॥ फल चुंटीने चोरीश्रां, न करी रखवाली ॥ का० ॥५॥ श्ण वामी एक सूमलो, सुख पिंजर बेगे ॥ बहुत जतन करी राखजो, जातो किणही न दीगे ॥ का० ॥६॥ का जोलपणे जव हारियो, मती मोमी संजाली ॥ रत्न चिंता मणि सारीखी, कांश गांउ न वाली॥ ॥ का० ॥७॥ रत्न तिलक सेवक जणे, सुणेजो वनमाली ॥ वाम नली परें पालजो, करजो ढंग वाली ॥ का०॥॥ ॥अथ तेर काठीयानी सद्याय ॥ ॥श्रालस पहेलो जी काठियो, धर्मे ढील कराय रे, निवारोजी काठिया तेर दूरे करो ॥ बीजो ते मो ह पुत्र कलत्रशुं, रंगें रहे लपटाय रे ॥ निवारोजी ॥ का ॥१॥त्रीजो ते अवरण धर्ममां, बोले अव रण वादरे ॥ निवारोजी ॥ कण् ॥ चोथो ते दंलज काठियो, न लहे विनये सवाह रे ॥ निवारोजी ॥ ॥ का ॥२॥ क्रोध ते काठियो पांचमो, रीसें रहे अमलाय रे ॥ निवारोजी ॥ का ॥ बहां प्रमाद ते कग्यिो, व्यसने विगूतो थाय रे॥ निवारोजी ॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजमपरिछेद. ४०१ लहे, ॥ का० ॥ ३ ॥ कृपण काठियो सातमो, न गमे दाननी वातरे ॥ निवारोजी ॥ का० ॥ आठमो जयथी नवी सुणे, नरकादिक यवदात रे ॥ निवारोजी ॥ ४ ॥ नवमो ते शोक नामें कह्यो, शोकें बांडे धर्म रे ॥ निवारोजी ॥ का० ॥ दशमो अज्ञाने ते नवि धर्म धर्मनो मर्म रे ॥ निवारोजी ॥ का० ॥ ॥ ५ ॥ विकथा नामे अग्यारमो, लोक वातें धरे प्रीत रे ॥ निवारोजी ॥ क० ॥ कुतुहल काठियो बारमो, कौतुक जोवा धरे चित्त रे ॥ निवारोजी ॥ ॥ का० ॥ ६ ॥ विषय ते काठियो, तेरमो, नारि साथै धरे नेहरे ॥ निवारोजी ॥ का० ॥ ७ ॥ इति श्री तेर काठियानी सद्याय ॥ ॥ अथ महोटी होंस न करवा श्राश्रयी सद्याय ॥ होशीमा जाई (प्राणि) होंश न कीजें महोटी वावी बे बंटी बाजरी, तो शाली केम लहियें मोटी रे ॥ हों ॥ प्राणी जेणें दीधुं तेणे लीधुं जे देशे तेलेशेरे ॥ जेणे नवि दीधुं तेणे नविलीधुं दीधा विना केम लेशे रे ॥ हों० ॥ १ ॥ वाव्या विना कर्षण केम ल हियें, सेव्या विना केम वरीयें ॥ पुण्य विना मनो रथ मोटा, दीघा विण केम करियें रे ॥ हो० ॥ ॥२॥ सी सानी अकोटी श्रापी, आपी तरुवानी त्रोटी ॥ ते सोनार कने केम मागीश, सोनानी करी मोटी रे ॥ हों० ॥ ३ ॥ शालिन धन्नो कयवन्नो, मूलदे ५१ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जैनधर्मसिंधु व धनसार ॥ पुण्य विशेषे प्रत्यक्ष पाम्या, अलवेस र अवतार रे ॥ हों० ॥ ४ ॥ एवं जाणी रुडं पामी, करजो धर्म सखा ॥ साधु हर्ष कर जोकी विनवे, दीधुं लेशे लारे ॥हों ॥५॥इति होसीमा सद्याय॥ ॥अथ मधुबिंद्या दृष्टांत सद्याय प्रारंजः ॥ ॥ ढाल ॥ सरसती मुज रे, माता द्यो वरदान रे ॥ गौतम रे, लांख श्रीवर्षमान रे ॥ बंडो गिरु श्रा रे, विस्था विषयनु ध्यान रे ॥ विषयारस रे, बे मधुबिंदु समान रे ॥ त्रुटक ॥ मधुबिंछ सरिखो विषय निरखो, जापरखो, चित्त शुंगनर जनम हारयो मोह गारयो, पिंम नारयो पापशुं॥तार पमियो नाग नमियो, कोई देवाणुप्पिोयो ॥ वमवृक्ष जमियो वेगें चमीयो करडियो बप्पियो॥१॥ ढाल॥वम हेठल रे, कूप श्रबे असराल रे ॥ दोय अजगर रे,मगर जिश्या . विकराल रे ॥ चिहुं पासे रे, चार जुयंगम काल रे ॥ वली उपर रे, मोटो बे महुयाल रे ॥त्रुटक ॥ महुयाल माखी रगत चाखी, चंचु राखीने रही ॥ घंधोलतो गजराज धायो, पडत वमवार ग्रही ॥ वमवार कापे उंदर आपे, ताप संता ग्रह्यो ॥ मधु थकी गलीयो बिंड ढलीयो, तेणे सुखलीणो रह्यो ॥२॥ ढाल ॥ एह संकट रे, बोडण देव दयाल रे ॥ पुःख हरवा रे, विद्याधर ततकाल रे ॥ उकरवा रे, धरियुं तास विमान रे॥ो आवे रे, मधुबिंषु करे Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिच्छेद. ४०३ सान रे ॥ टक ॥ मधुबिंडु चाखे, वचन जाखें, करे लालच लखवली ॥ वार वार राखे सान पाखे, रहो क्षण एक पर रली ॥ तस खेचर मलीयो वेगे वलि यो, रंक रुलीयो ते नरु ॥ मधुबिंदु चाटे विषय साटे को उपनय जगगुरु ॥ ३ ॥ ढाल ॥ चोराशी लख रे, गतिवासी कांतार रे ॥ मिथ्यामति रे, भूलो जमे संसार रे जरा मरणारे, अवतरणा ये कूप रे, ॥ आठ खाणी रे, पाणी पगइ सरुप रे ॥ त्रुटक ॥ आठ कर्म खाणी दोय जाणी, तिरिय निरय ज गरा ॥ चारे कषाया मोह माया, लंबकाया विषद रा ॥ दोय पक्ष जंदर मरण गयवर, त्र्यायुवमवाइ वटा ॥ चटका वियोगा रोगशोगा, जोग योगा सा मटा ॥ ४ ॥ ढाल || विधाधर रे, सदगुरु करे संजा ल रे ॥ तेणें धरीयुं रे, धर्म विमान विशाल रे || विषया रस रे, मीठो जेम महुयाल रे ॥ परुखावे रे, बाल यौवन वयकाल रे | त्रुटक ॥ रह्यो बाल यौवन काल तरुणी, चित्तहरणी निरखतो ॥ घरजा रत्तो पंक खुत्तो, मदवगुत्तो पोषतो ॥ आनंद श्र णी जैनवाणी, चित्त जाणी जागीयें ॥ चरण प्रमोद सुशिष्य जंपे, छाचल सुख एम मांगी यें ॥५॥ इति ॥ ॥ अथ वैराग्य सद्याय प्रारंभः ॥ ॥ श्रीसीमंधर साहेब सांजलो ॥ ए देशी ॥ ॥ कां नवि चिंतें हो चित्तमें जीवमा, श्रायु गले Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ जैनधर्मसिंधु दिन रात ॥ वात विचारी रे पूरवनव तणी, कुण कुण ताहरी रे जात ॥ कां ॥१॥ तुं मत जाणे रे ए सहु महारां, कुण माता कुण जात ॥ श्राप स्वारथ ए सह को मल्या, म कर पराइ रे वात ॥ ॥ कां० ॥॥ दोहिलो दीसे रे नव माणस तणो श्रावक कुल अवतार ॥ प्राप्ति पूरी रे गुरु गिरुश्रा तणी, नहीं तुज वारो रे वार ॥ कां ॥३॥ पुण्य विद्रणो रे उःख पामे घणुं, दोष दीये किरतार ॥ आप कमा रे पूरव नवतणी, नवि संजारे गमार ॥ ॥कांग॥४॥ कग्नि कर्मने रे शहनिश तुं करे, जेहना सबल विपाक ॥ हुँनवि जाणुं रे कुण गति ताहरी, ते जाणे वीतराग ॥ कां ॥५॥ तुज देखतां रे जोने तें जीवडा, केश के गयां नर नार ॥ एम जाणीनेरे निश्चें जांय, चेतन चेतो गमार ॥ कांग॥६॥ सुख पाम्यां रे बहु रमणीतणां, अनंत अनंती रे वार ॥ल ब्ध करे जो जिन\ रमे, तो सुख पामे अपार॥७॥ ॥अथ स्त्रीवर्जन शिखामण सद्याय ॥ ॥धर्म नणी जातां धरा, वचमांहे पाडे वाट॥ ललि लीए सर्व लूटीने, व्रतनी जे वहे उवाट ॥ ब ला हो, बहु बहु बोली ए बाल, जे अबता उपाये बाल, जे वाघणथी विकराल, जे आपे मरण श्र काल ॥ ब० ॥१॥ संसारे सह सरिखं नहीं, जो वसंतां जोय ॥ एक वांको एक पाधरो, बोरडीये Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद. ४५ कांटा जिम होय ॥ ब० ॥२॥ बला बला सहुको कहे, बीजी जला बलवंत ॥ ए जेवी एके नहीं, जे बलें पामी बलंत ॥ ब० ॥३॥ श्राखाढो गाढो ब ट्यो केश बख्या नर कोम ॥ गुणवंतनु पण नहीं ग जु, जे क्षणमां लगाडे खोड ॥ ब० ॥ ४ ॥ जलाले आकासमां, एक आंखे उलाले अनेक ॥ महीयें पग मंडे नहीं वली, नासे विनय विवेक ॥ब० ॥ ॥५॥ जशोधर जिस्या खानमी, वली मुंज जिस्या महाराज ॥ पुण्यवंत परदेशी सारिखा, ते कांता हण्या निजकाज ॥ ब० ॥६॥ जोरावर जंबू जिस्या, वंक चूल सरिखा वीर ॥ समर्थ शूविना सारिखा, जेह नां नारियें न उतास्यां नीर ॥ ब० ॥७॥ शोल स ती श्रादें थर महासतीयो जग हितकार ॥ अने क नर तेणें उमस्या, रहनेमि आदें निरधार ॥॥ ॥ ॥ सुदर्शन बलतां नवि बस्यो, थयो केवल क मलाकंत ॥ परमोदय पामे सही, जे पास एहने न पंत ॥ व०॥ ए ॥ इति स्त्री वर्जन सजाय ॥ ॥अथ परस्त्री वर्जन सद्याय ॥ ॥धणरा ढोला ए देशी ॥ ॥ शीख सुणो पीउ माहरी रे, तुजने कहुं कर जोक ॥ धणरा ढोला ॥प्रीत म कर परनारी शुं रे, आवे पग पग खोम ॥ध कडं मानोरे सुजाण कह्यु मानो ॥ वरज्यां वों, मारा लाल, वरज्यां Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जैनधर्मसिंधु वों, परनारीनो नेहलमो निवार ॥ धणरा ढला ॥ ॥१॥जीव तपे जिम वीजली रे, मनहुं न रहे गम ॥ ध० ॥ काया दाह मिटे नही रे, गांठे न रहे दाम ॥ ध० ॥२॥ नयणे नावे निमी रे, श्राठे पोहोर उठेग ॥ ध० ॥ गलीबारे नमतो रहे रे, लागू लोक अनेक ॥ध ॥३॥ धान न खाये जापतो रे, दीव न रुचे नीर ॥ ध० ॥ नीसासा ना खे घणा रे, सांजल नणदीना वीर ॥ध०॥४॥ नूतलमें निसि नीसरे रे, मुरी मुरी पिंजर होय ॥ ध० ॥ प्रेमतणे वश जे पडे रे, नेह गमे तव दोय ॥ध ॥ ५॥ रात दिवस मनमां रहे रे, जिणशु अविहम नेह ॥ ध० ॥ वीसांख्या नवि वीसरें रे, दाफे कण कण देह ॥ ध० ॥ ६ ॥ माथे बदनामी चढे रे, लागे कोम कलंक ॥ध० ॥ जीवितनो सं शययमैरे, जूवोरावण पतिलंक ॥ध ॥७॥ परनारीना संगथीरे, जलो न थाये नेठ ॥ १० ॥ जूवो कीचक नीमडे रे, दीधो कुंजी हेग ॥ध ॥ ॥ थाये लं पट लालची रे, घटती जाये ज्योत ॥ धम् ॥ जीत न थायेतेहनी रे, जिम रायचंद प्रद्योत ॥ ध० ॥ परनारी विषवेलमी रे, विषफल नोग संयोग ॥ ॥ध० ॥ श्रादर करी जे श्रादरे रे, तेहने जवजय शोग ॥ध ॥ १० ॥ वाहाला महरी विनति रे, सा ची करीने जाण ॥ ध ॥ कहे जिन हरष तुमे सां Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद. ४७ जलो रे, हियडे आणि मुज वाण ॥ ध०॥११॥ इति परस्त्री वर्जन स्वाध्याय ॥ ॥ अथ जीवने समता विषे शिखामण ॥ ॥हो प्रीतमजी प्रीतकी रीत अनीत तजी चित्त धारीयें, हो वालमजी वचन तणो अति उंमो मरम विचारीयें ॥ ए आंकणी ॥ हारे तुमें कुमतिके घेर जावो बो, तुमें कुलमां खोट लगावोडो, धिक ऐवज गतनी खावो बहोगा॥अमृत त्यागी विष पीउडो, कुमतिनो मारग लियोडो, ए तो काज अयुक्त की योगे ॥ हो ॥२॥ ए तो मोह रायकी चेटी बे, शीव संपत्ति एथी बेटी बे, एतो साकर गलती पे टीने ॥ हो ॥३॥ एक शंका मेरे मन श्रावी बे, किण विध ए चित्त नावी , एतो दाहण जगमा चावी ॥ हो ॥४॥ सह कृषि तमारी खाए बे, करी कामण चित्त नरमाए बे, तुम पुण्ययोगे ए पाए ॥ हो० ॥५॥ मत आंबल काज बाजल बोवो, अनुपम नव विरथा नवि खोवो, अब खोल नयण प्रगटी जोवो ॥ हो ॥६॥ण विध समता बहु समजाए, गुण अवगुण कंश सहु दरशाए, सुणी चिदानंद निज घर थाये ॥ हो ॥७॥ इति ॥ ॥अथ दान, शील, तप, नाव स्वाध्याय ॥ ॥श्री महावीरे नांखीया, दानना चार प्रकार रे ॥ दान शियल तप नावना, सखी पंचम गति दा Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ जैनधर्मसिंधु तार रे ॥ श्री महा० ॥१॥ दाने दोलत पामीयें सखी दाने क्रोड कल्याणरे ॥ दान सुपात्र प्रत्नाव थी, सखी कयवन्नो शालिना जाणरे ॥ श्री महान ॥२॥ शियले संकट सविटले, सखी शिलें वंदित सिकरे ॥ शियलें सुर सेवा करे, सखी सोल सति परसिद्धरे ॥ श्री महा० ॥३॥ तप तपो नवि नाव शं, तपें निर्मल तन्नरे ॥ वर्षोपवासी षनजी, सखी धन्नादिक धन्य धन्यरे ॥ थी महा॥४॥ जरता दिक शुज नावथी, सखी पाम्यो पंचम गम रे ॥ उदयरत्न मुनि तेहने, सखी नित्य किरे प्रणामरे ॥ श्री महावीरे ॥५॥ ॥सामायिक लाल सद्याय ॥ ॥कर पमिकमणुं नावशें, दोय घनी शुन ध्यान ॥ लालरे ॥ परजव जातां जीवने, संबल साचूं जा ण ॥ लालरे ॥ कर० ॥१॥श्री वीर मुख श्म उ चरे, श्रेणिक राय प्रत्ये जाण ॥लालरे॥लाख खांनी सोना तणी, दिये दिन प्रत्ये दान ॥ लालरे ॥का ॥॥ लाख वरस लगें ते वली, एम दीये अव्य अपार ॥ ला ॥ एक सामायिकने तोलें, नावे तेह बगार ॥ ला० ॥ क० ॥ ३ ॥ सामायिक चनविस त्यो, देव वंदन दोयवार ॥ ला॥ व्रत संचारो रे आपणां, ते नव कर्म निवार ॥ ला० ॥ कर॥४॥ कर काउस्सग्ग शुज ध्यानश्री, पचरकाण सूधुं वि Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिच्छेद . चार ॥ ला० ॥ दोय सद्यायें ते वली, टालो टालो अतिचार ॥ बा० ॥ कर ॥ ५ ॥ श्री सामायिक प्रतापथी, लहियें अमर विमान ॥ लालरे ॥ धर्म सिंह मुनि एम जणे, ए बे मुकित निदान ॥ ला लरे ॥ कर० ॥ ६ ॥ ॥ अथ बींक विचार सद्याय ॥ || देशी चोपाइनी ॥ बीक शुकननो कहुं विचार, सुगुरु समीप सूयो में सार ॥ आगलमां जो बींकज होय, अशुभ तणी जाणे जे, कोय ॥१॥ पहेला शुकन हुवां शुज घणां ॥ ढींकज हुआ निष्फल तेतणां पढीं कज हुआ पढी जे जाए, शुकन हुआ ते करो प्रमा ॥ २ ॥ माबी बींक होय अर्ध फली कहे, जमणी बीक बुरी सब कहे ॥ पूठे बींक सुखदायक सही, घणी ठीक ते निःफल कही ॥ ३ ॥ हांसे जय उपा धीयें करी, हठ घणो मनमांहे धरी ॥ एक बींक ते निःफल जाण, कुतर बींक तो निःखर आए ॥ ४ ॥ मंजार बींक ते मरणज करे, इसी बींक कष्टकारी सरे, ॥ वस्तु वेचतां बींकज होय, श्राएयुं करीयाएं मोघुं होय ॥ ५ ॥ वस्तु लेतां बींकज होय, बमणो लाज सघलानो जोय ॥ गइ वस्तु जो जोवा जाय, बींक होय तो लाज न थाय ॥ ६ ॥ नवां वस्त्र वली पेहेरतां, बींक होये आगल बतां ॥ जोजन होम पूजानुं काम, मंगलीक जेधर्म सुठाम ॥ ७ ॥ ५२ MOR Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जैनधर्मसिंधु. काम एटलां कीधानी अंत, वली क्रिया करावे खंत ॥ रति स्नान करीने रहे, बींक होय तो पुत्रज लहे ॥॥ तुवतीने दीधे दान, पनी होवे पुत्र निदा न ॥ वैरी जीती जागुंजोये, डीके वैरी सब लो हो य ॥ ए॥ रोगी काज वैद्य तेमवा, जातां बीके जो नव नवा ॥ ते रोगीने मृत्यु जाणीये, काम विन वैद्य नाणीये ॥ १० ॥ वैद्य रोगीने घरे श्रावतां, बीं क होये औषध श्रापतां ॥ रोगी तणो रोग ते समे, आहार लेते जम गमे ॥ ११॥ व्यापारे लीधे व्या पार, बींक होय तो वृधि अपार ॥ लेखु शुभ दीधु रायने, बीक फोक थाये तेहनें ॥१॥पाणीपीता अथ संवाद, बीक दृष्टि दोष अनिवाद नवे घरे वसवा श्रावीयें, बींक होये तो उचालीयें ॥ १३ ॥ व्याजे अव्य केहने श्रापता, वली पृथवीमां धन दाटतां ॥ कर्षण जोवा जातां वली, वृष्टि होय पुहवी मन रु सी॥ १४ ॥ बींक शुकन नर जाणे जेह, पग पग संपद पामे तेह ॥ बींक विचार जाणे जो कोश, ज्ञ कि वृद्धि कल्याणक हो ॥१५॥ इति बींक विचार॥ ॥श्रथ वैराग्योपदेशक सद्याय ॥ ॥ हक मरना हक जाना यारो, मत को करो गु माना॥हा ए आंकणी ॥ उंढण माटी, रण माटी, माटीका सराना ॥ वसतीमेंसें बहार निकाला, जंग ल किया ठिकाना ॥ ॥१॥ हाथी चडते घोडे च Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिबेद. ४११ मते, उर श्रागें निशाना ॥ नीली पीली बेरख चल ती, उत्तर किया पयाना ॥ ह॥२॥ नरपति हो के तखतपर बेठे, नरिया नारी खजाना ॥ सांज स वारे मुजरा लेते, उपर हाथ बेकाना ॥ ह॥३॥ पोथी पढ पढ हिंछ नूले, मुसलमान कुराना ॥ रुपचंद कहे अरे नाश् संतो, हरदम प्रनु गुण गाना ॥ ह ॥४॥ ॥ अथ नाव स्वाध्याय ॥ ॥ धन्य धन्य ते दिन महारो ॥ ए देशी ॥ ॥रे नवि नाव हृदय धरो, जे जे धर्मनो धोरी एकल मब अखंग जे, कापे कर्मनी दोरी ॥रे नवि०॥१॥ दान शियल तपत्रण ए, पातक मल धोवे ॥ नाव जो चोथो नवि मले, तो ते निष्फल होवे ॥रे नवि० ॥२॥ वेद पुराण सिद्धांतमां, षट् दर्शन नांखे ॥ नाव विना नव संतति, पमतां को ण राखे ॥ रे नवि० ॥३॥ तारक रुप ए विश्वमां, ऊंपे जग नाण ॥ जरतादिक शुन लावधी, पाम्या पद निर्वाण ॥ रे नवि०॥४॥ औषध आय उपाय जे, मंत्र यंत्रने मूली, जावे सिफ होवे सदा, नाव विण सहु घूली ॥ रे ॥ वि० ॥ ५॥ उदय रत्न क हे जावधी, कोण केल नर तरिया ॥ शोधी जोजो सूत्रमा सजान गुण दरिया ॥ रे जविण ॥६॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जैनधर्मसिंधु. ॥अथ वीश स्थानकना तपनो सद्याय ॥ ॥श्रीसीमंध साहेब आगें ॥ ए देशी ॥ अरि हंत पहेले थानक गणीयें, बीजे पद सिद्धाणं ॥त्री जे पवयण शायरिय चोथे, पांचमे पद थे राणं रे ॥ नविया ॥ वीश थानक तप कीजें ॥ श्रोली वीश करीजें रे ॥ ज० ॥ गणणुं एह गणीजें रे ॥ ज०॥ जिम जिनपद पामीले रे ॥ ज० ॥ नर जव लाहो लीजें रे ॥जणावी॥१॥ ए श्रांकणी ॥ उवद्याए बके सव्वसाहूणं, सातमे श्रारमे नाण नवमे दंसण दस मे विणयस्स, चारित्र अगियारमे जाण रे ॥ ज० ॥ ॥ वा ॥२॥ बारमे बंजवय धारीणं, तेरस मे कि रियाणं ॥ चउदमे तव पन्नरमे गोयम, सोलसमें न मो जीणाणं रे ॥ ज०॥ वी० ॥३॥ चारित्तस्स सत्त रमे जपीगें, अढारसमे नाणस्स ॥ उगणीशमे नमो सुयस्स संजारो, वीशमे नमो तित्थस्स रे ॥ नम्॥ ॥ वी० ॥ ४ ॥ एकासणादिक तप देव वंदन, गण| दोय हजार ॥ संध विनय बुध शिष्य सुदर्शन, जंपे एह विचारो रे ॥ ज० ॥ वी० ॥ ५॥ इति ॥ ॥शीयल विषे शीखामणनो सद्याय ॥ ॥ ढाल ॥ एतो नारी रे, बारी बे पुर्गति तणी॥ बगंम संगत रे मूरख तुं परस्त्री तणी ॥ जीव जोला रे, मोला तेहगुं मंम करे ॥ शीख मानी रे, बानी वात तुं परिहरे ॥ १॥ त्रुटक ॥ जो वात करीश Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिजेद. ४१३ परनारी साथे, लोक सहु हेरे अ ॥ राय रांक थ इने रख्या राने, सुखें नहीं बेसे पडे ॥ ए मदनमा ती विषय राती, जेसी काती कामिनी ॥ पहेदूं तो वली सुख देखाडे पजे, पाडे नामिनी ॥॥ ढाल कर पगना रे, नयण वयण चाला करी॥बोलावी रे, नर लेश्धा सुंदरी ॥ नोलावी रे,हाव नाव देखाडशे ॥ पगें लागी रे, मरकलडे पळे पाडशे ॥३॥ त्रुटक ॥ ए पास पाडे धन गमाडे, मान खंडे ले लबी ॥ बोलं ती रुडी चित्त कूडी, कूम कपटनी कोथली ॥ ए नर अमूलक वस्य पडिजे, पडे नपोसायें पायको दीवा नमंडे मानखंमे मारसहे पडे रायको.४ ॥ ढाल ॥ बांमी लेशे रे, वेश्याना लंपट नरा ॥ सहु सधवा रे, विधवा दासी दूरे करा जा नाशी रे, रुप देखी जीव एह तणुं ॥ उनो रही रे, एह साहामुं, मम जो घणुं ॥५॥ त्रुटक ॥ घणुं म जोश्श एह साहा मुं, कुलस्त्री दीठे नवि गमे ॥ जीम शूनी पूवें श्वान हींडे, तिम परनारि पूठे कां नमे ॥ जिम बिलामो दूध देखे, मोलें डांग न देख ए, परनारि वेंधो पुरुष पापी किसो जय नवि, लेख ए॥६॥ ढाल ॥ फ ल वेणी रे, शिर सिंदूर सेंथोजस्यो ॥ ते देखी रे, फट मूरख मन कां कस्यो ॥ देखी टीलां रे, ढीलां इंडिय करी गह गह्यो । शिर राखमी रे, आंखें दे इतुं कां रह्यो ॥ ७ ॥ त्रुटक ॥ कां रह्यो मूरख यां Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जैनधर्मसिंधु. खें देश, शणगार जार एवं धस्या ॥ ए उली जीहा आखें पीहा, कान कूपा मल नया ॥ नारी अग्नि पुरुष माखण, बोलतां वीगरे । स्त्री देदमां शुं सार दीगो, मूढ महिआंकां करे ॥ ७॥ ढाल ॥ इंजिय वाह्यो रे, जीव अज्ञानी पापि ॥ माने नरगह रे, सरग करी विष व्यापी॥ कां नूलो रे, शणगार देखी एहना ॥ जाणी प्राणी रे, ए ले पुःखनी अंग ना ॥णात्रुटक॥ अंगना तुंडोमी जो करे,तो जश की ति सघले लहे ॥ कुशीलनुं जो नाम लियेको, पर लोक मुरगति सुखसहे, विजय ना बोले जे न मोले, शीयल थकीजे नरवरा॥तस पायें लायु सेवा मागु, जे जगमांहे जयकरा॥१॥इतिाशील सद्याय॥ ॥अथ प्रजातें वाहाणलां गावानो सद्याय ॥ ॥ मिथ्यामति रे रजनी असरालके ॥ वाहाणलां जलें वायांरे ॥ जीहां जंघे रे प्राणी बहुकाल के ॥ वहाणां ॥ नवि जाणे रे जीहां यमनी फाल के ॥ ॥ वा ॥ तिहां पामे रे पग पग जंजाल के ॥ वाण ॥१॥ जीहां ऊमपे रे क्रोध दवनी काल के॥वा॥ मानरुपी रे अजगर विकराल के॥ वा०॥ डंसे मा या रे सापणी रोषाल के ॥ वा ॥ जीहां चावो रे लोन रुप चंमाल के ॥ वा ॥२॥रागादिक रे राद स महावृंद के ॥ वा श्राप कर्मना रे जीहां मांड्या फंद के ॥वा॥ जीहां देखे रे पुर्गति दुःख दंद के Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिद. ४१५ ॥ वा ॥ नवी दीसे रे जीहां ज्ञान दिणंद के ॥ ॥ वा ॥३॥ धसमसतां रे जीहां विषयनी जाल के ॥ वा ॥ लीये लूटी रे नगणे पलिवाल के ॥ ॥ वा० ॥ अटवी अनंती रे जीहां विकट उजाम के ॥ वा ॥ चाले नही रे जीहां व्रतनी वाड के ॥ ॥वा ॥४॥ निरखंतारे श्रीजिनमुख नूर के ॥ ॥ वाण ॥ हवे जग्यो रे महासमकेत सूर के ॥वा॥ उखदायी रे दोषि गया दूर के ॥वा॥ वली प्रगव्या रे पुण्यतणा अंकूर के ॥ वा ॥५॥ सुता जागो रे देस विरतिना कंत के ॥ वा० ॥ वली जागो रे सर्व विरति गुणवंत के ॥वा॥ तमे नेटो रे नावें लगवंत के ॥वा॥ पमिकमणां रे करो पुण्यवंत के ॥वा॥६॥ तमे लेजो रे देवगुरुनु नाम के ॥वा॥ वली करजो रे तमे धर्मनां काम के ॥ वा ॥ गुरुजन नारे गावो गुण ग्रामको ॥वा॥ प्रेम धरीने रे करो पूज्य प्रणा म के ॥वा॥॥ तमे करजो रे दशविध पच्चखाण के ॥ वा ॥ तुमे सुणजो रे श्रीसूत्रवखाण के ॥ वा॥ आराधो रे श्री जिननी आण के ॥ वा ॥ जिम पामो रे शिवपुर संगणके ॥ वा ॥ ७॥ सांजलीने रे श्रीमुखनी वाण के ॥ वा० ॥ तमे करजो रे सही सफल विहाण के ॥ वा ॥ वदे वाचक रे उदयर त्न सुजाण के ॥ वा० ॥ एह नणतां रे लहीये कोड कल्याण के ॥ वा० ॥ए॥इति ॥वाहला ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. ॥ अथ वैराग्य सद्याय ॥ को काज न आवे रे दुनियांके लोको, कोठ काज न आवे || जूठी बातका यानि नरोंसा, पीछे सें पस्तावे रे ॥ ० ॥ १ ॥ मतलबकी सब म बि लोकाइ, बढोतहिं रंग बानावे रे || 50 ॥ २ ॥ अपना अर्थ न देखे सो तो, पलकमे पीठ देखावे रे ॥ ० ॥ ३ ॥ बाजीगरकी बाजी जेसा, अजब दिमाक देखावे रे || || ४ || देखो दुनियां सकल खीली है, युंहीं मन ललचावे रे || कु० ॥ ५ ॥ जि ने जान्या तिने आप पिछान्या, बे खबरी दुःख पा वे रे ॥ ० ॥ ६ ॥ हंस सयाने एक सांइंशुं वर, काहेकुं चित्त न लावे रे | 5० ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ श्रथ चैतन्य शिक्षाजास प्रारंभ ॥ ४१६ ॥ याप विचारजो श्रातमा, जांतें शुं जूले; थिर पदारथ उपरें, फोगट शुं फूले ॥ श्र० ॥ १ ॥ घटमांहे बे घरधणी, मेलो मननो जामो ॥ बोले ते बीजो नथी, जोने धरी तामो ॥ ० ॥ २ ॥ पा मीश तुं पासेंथकी, बाहेर शुं खोले || बेसे कां तुं बूमवा, मायानी लें || आ० ॥ ३ ॥ प्रीवा वि केम पामीये, सु मूरख प्राणी || पीवाये किम पश लीयें, जांऊवानां पाणी ॥ ० ॥ ४ ॥ आप स्वरुप नलखे, मायामांहे फूले ॥ गरथ पोतानी गांवनो, व्याजमा जिम डूले ॥ ० ॥ ५ ॥ जोतां नाम न Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद ४१७ जाणिये, नहिं रुप न रेख ॥ जगमांहे ते केम जडे, अरुपी अलेख ॥ आण ॥ ६ ॥ अंध तणी पेरे श्रा फले, सघला, संसारी ॥ अंतरपट आमो रहे, कोण जूवे विचारी ॥ श्रा॥७॥ पहेले पावू करी, पनी जोने निहाली ॥ नजरें देखीश नाथने, तेहशुं ले ताली॥आगाज॥ बंधण हारो को नथी, नथी जोमा वण हारो ॥ प्रवृत्ते वांधियें पोते, निवृतें निस्तारो ॥ आाए। नेदानेद बुझ करी, नासे ने अनेकानेद तजीने जो जजे, तो दीसे एक ॥श्रा ॥१॥ काले धोढुं नेलीये,तो ते थाये बेरंगू वेरंगें बुडे सहि,मन न रहे चंगु ॥ श्रा॥११॥ मन मरे नहिं जिहां लगें, घूमे मद घेख्यो । तब लगें जग नूट्युंजमे, न मटे जव फेरो ॥ आण १२ ॥ Gघ तणे जोरें करी, शं मो-ह्यो सुहणे ॥ अलगी मेली उंघने, खोली जोने खूणे ॥ आप ॥ १३ ॥ त्यारे जगमां तुज विना, बी जो नवी दीसे ॥ जिन्न नाव मटशे तदा, सेहेजे सुजगीशें ॥ श्राप ॥ १४ ॥ माझं तारु नवि करे, स हुश्री रहे न्यारो ॥ श्णेए हिनाणे उलीख्यो, प्रजु तेहने प्यारो ॥ आ॥ १५॥ सिझदिशायें सिझने, मलीयें एकांति ॥ उदयरत्न कहे श्रातमा, तो नांगे ब्रांति ॥॥१६॥ इति चैतन्य शिदानास संपूर्ण ॥ ॥ अथ वैराग्य सद्याय ॥ राग श्राशावरी॥ ॥ किसीकुं सब दिन सरखे न होय ॥ प्रहजग Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ जैनधर्मसिंधु त अस्तंगत दिनकर, दिनमें अवस्था दोय ॥ कि० ॥१॥ हरि बलिज पांडव नल राजा, रहे खट खंट रिछि खोय ॥ चंमाल के घर पाणी श्राएयुं, राजा हरिचंद जोय ॥ कि० ॥२॥ गर्व म कर तुं मूढ गमारा, चमत पमत सब कोय ॥ समय सुंदर कहे इतर परत सुख, साचो जिनधर्म सोय ॥ कि ॥३॥ इति वैराग्य सद्याय ॥ ॥ अथ निशानी सद्याय ॥ ॥ बेटी मोह नरिंदकी, निझा नामें विख्यात बे ॥ धर्म वेषणि पापणी, न गमे धर्मनी वात बे॥ निंद न लहे जे सजनां, सजानां बे पुःखजंजना बे ॥ टेक ॥ नि ॥ १॥ घेरे सघला जीवने, जिहां जमनो पास बे॥ जा घमि निंद न पायें, ता घ मि प्रजुको वास बे॥निं०॥२॥ आलस उमराव एहनो, जालिम जोक जुवान बे ॥ दूत बगासूं जा जो, चाले आगेतान बे ॥ नि ॥३॥ जाति पां च बे जेहनी पसरी विश्व प्रमाण बे॥ केवल विना एक जेहनी,कोइ न लोपेआणबे ॥ करमे न श्रावे ढकडी धर्मे पामै नंगाणबे वाजां बाजे जिहां उघनां, तिहां होय सुखनी हाण बेनि॥५॥उदय रत्न कहे जंघने, जीत्यानो एह उपाय बे॥ पहेंला श्रादार जो जीतिये, तो निसावश थाय बे॥६॥ निं० ॥इति॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद ए ॥अथ वैराग्य सद्याय॥ ॥प्राणी काया माया कारमी, कूडो डे कुटुंब परिवाररें ॥ जीवमला ॥ समरण कीजें सिग्नुं॥ मा हरुमाहरुंम कर रे मानवी, पंथ वहेवू परले पार रे जीवमला ॥ सम॥१॥प्राणी सहने वलावे सांक व्या. मलिया बे मोहने संबंध रे जीवमला ॥ प्राणी आयु कयें अलगां थयां, धीठगे एवो संसारी धंध रे जी० ॥ सम ॥२॥ प्राणी काष्ठ परें रे काया बसे, वली केश बले जेम घास रे ॥ जी० ॥ प्राणी मानवी मर्कट वैरागीया, वली पडे माया विश्वास रे जी० ॥३॥प्राणी पमा उडे जीव उपरें, दोरी पवन बले ले जाय रे जी० ॥ प्राणी त्रुटी दोरी संधाय , श्राउखु त्रुटुं न संधाय रे जी० ॥ सम॥ ॥४॥ प्राणी काचे कुंने पाणी केम रहे, हंस उमी जाय काय रे जी० ॥ प्राणी भाशा अतिघणी श्राद रे, थावा वालो तेहिज थायरे जी० ॥ सम ॥५॥ प्राणी जेने घरे नोबत गमगडे, गावे वली खट रा गरे जी० ॥ प्राणी गोखें तेहने धूमता, शून्यथये० वली उडे काग रे जी० ॥ सम ॥६॥ प्राणी एम संसार असार , सारमां श्रीजिनधर्म सार रे जी प्राणी शांति समर समता घरी, चार त्यजी वली आदरो चाररे जी० ॥ सम० ॥७॥प्राणी पांचे त जो रे पांचे जजो, त्रण्य जीपो त्रण गुणधार जीरे ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जैनधर्मसिंधु प्राणी रयणी जोजन परिहरो, सात व्यसन तजो सुविचार रे जी० ॥ सम ॥ ॥ प्राणी समता क रोब कायानी, सांजलो सद्गुरुनी वाण रे ॥जी० ॥ प्राणी साची शीखामण एह , एम कहे जे मुनि कल्याण रे जी० ॥ सम० ॥ ए॥ इति ॥ ॥अथ सार बोलनी सद्याय लिख्यते ॥ ॥ सरसती सामिनी पय प्रणमेव, सहगुरुनाम सदा समरेव ॥ बोलिश एणि परें श्राचार, जो ले जो जाण विचार ॥ १ ॥ पंमित ते जे नाणे गर्व, झानी ते जे जाणे सर्व ॥ तपस्वी ते जे नाणे क्रोध, कर्म श्राप जीते ते जोध॥२॥ उत्तम ते जे बोले न्याय, धर्मी ते जे मन निरमाय ॥ गकुर ते जे पाले वाच, सदगुरु ते जे जांखे साच ॥३॥ गिरु ते जे गुण आगलो,स्त्री परिहार करे तेजलो ॥ मेलोतेजे निंदा करे, पापी ते हिंसा आचरे ॥४॥ मूर्ति ते जे जि नवरतणी, कीर्ति ते जें वीजे सुणी लब्धि ते गौतम गणधार, बुधियप्तिको अजय कुमार ॥५॥श्रावक ते जे लहे नवतत्त्व, कायर ते जे मूंके सत्व ॥ मंत्र खरो ते श्रीनवकार, देव खरो जे मुक्ति दाता र ॥६॥ पदवी ते तीर्थंकर तणी, मति ते जे उप जे आपणी समकित ते जे साचुं गमें, मिथ्यामति ते नूलो नमे ॥ ७॥ मोटो जे जाणे परपीड, धनवं तो जे नांगे जीड ॥ मनवश आणे ते बलवंत, श्रा Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद लसथी श्रलगो पुण्यवंत ॥ ७॥ कामी नर ते कही यें अंध, मोहजाल ते मोटो बंध ॥ दारीजी जे धर्मे हीन, उर्गतिमाहे रुले ते दीन ए ॥ श्रागम ते ज्यां बोली दया, मुनिवर ते जे पाले क्रिया ॥ संतोषी ते सुखिया थया, फुःखीया ते जे लोने ग्रह्या ॥१०॥ नारी ते जे होये सती, दर्शन ते उघो मुहपत्ति ॥ राग देश टाले ते यति, सूधू जाणे ते जिनमती ॥ ११॥ काया ते जे शीलें पवित्र, मायारहित होए ते मित्र ॥ वृद्धपणुं पाले ते पुत्र, धर्म हाण पाडे ते शत्रु ॥ १२ ॥ वैरागी ते विरमे राग, तारु ते नवतरे अथाग ॥ रौरव नरकतणो ए नाग, बाग हणीने मागे त्याग ॥ १३॥ देहमांहे ते सारी जीह, धर्म थाय ते लेखे दीह ॥ रसमांही उपशम रस लीह, थूलीना मुनिवरमा सिंह ॥ १४ ॥ साचु ते जे जि ननुं नाम, जिनन दे; ज्यां ते गाम ॥ न्यायवंत क हिये ते राम, योगी ते जे जीते काम ॥ १५॥ एह बोल बोल्या में खरा, सार नथी एथी उपरा ॥ कहे पंमित लक्ष्मी कबोल, धर्म रंग मन धरजो चोल ॥ ॥ १६ ॥ इति सद्याय ॥ ॥अथ सामायिकना बत्रीश दोषनी सद्याय ॥ ॥ चोपा ॥ शुज गुरु चरणें नामी शीश सामा यिकना दोष बत्रीश ॥ कहिशं त्यां मनना दश दो ष, पुशमन देखी धारतो रोष ॥१॥ सामायिक Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जैनधर्मसिंधु विवेकें करे, अर्थ विचार न हैडे धरे ॥ मन उद्वे ग वंबे यश घणो, न करे विनय वडेरातणो ॥ २ ॥ जय आणे चिंते व्यापार, फल संशयनी आएं सार ॥ दवे वचनना दोष विचार, कुवचन बोले करे हुंकार ॥ ३ ॥ ले कुंची जा घर उघाम, मुख लवरी करतो वढवाड ॥ श्रावो जावो बोले गाल, मोह करी दुलरावे बाल ॥ ४ ॥ करे विकथाने हास्य अ पार, ए दश दोष वचनना वार ॥ काया केरां दूषण बार, चपलासन जोवे दिश चार ॥ ५ ॥ सावध काम करे संवात, घालस मोडे उंचे हाथ ॥ पग लंबे बेसे अवनीत, उटिंगन ल्ये यांनो जींत ॥ ६ ॥ मेल उतारे खरज खणाय, पग उपर चढावे पाय ॥ ति उघाडुं मेले अंग, ढांके तेम वली अंग उपंग ॥ ७ ॥ निद्रायें रस फल निर्गमें, करहा कंटक तरु ए जमे ॥ ए बीशे दोष निवार, सामायिक कर जो नर नार ॥ ८ ॥ समता ध्यान घटा उजली, केशरी चोर हुवो केवली ॥ श्रीशुजवीर वचन पा लती, स्वर्गे गइ सुलसा रेवती ॥ ए ॥ इति ॥ ॥ श्रथ अश्मंताजीनी सद्याय ॥ ॥ श्री अश्मंता मुनिवरजूकी, करणी की बलि हारी वे ॥ खट वर्षनके संजम लीनो, वीरवचन चित धारी वे ॥ श्री० ॥ १ ॥ विजय नृपत्ति श्री देवी नंदन, पोलासपुर अवतारी वे ॥ अंग अग्यार Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद ४२३ पढे गुण आदर, त्रिविध त्रिविध अविकारी वे ॥ ॥ श्री० ॥ २ ॥ तप गुण रयण संवत्सर श्रादिक, करके काय उझारी वे ॥ प्रनु श्रादेशे विपुलाचल पर, करी अणसण अति नारी वे ॥ श्री० ॥ ३ ॥ केवल पाय मुक्ति गये मुनिवर कर्म कलंक निवारी वे ॥ अढारसें अमतालें तिहि गि रि, कीनी थापना सारी वे ॥ श्री० ॥ ४ ॥ वाचक अमृत धर्म सुगुरुके, सुपसायें सुविचारी वे ॥ शिष्य क्षमा कल्याण हरख धर, गुण गावे जयकारी ते ॥ ॥ श्री० ॥५॥ इति अश्मंता मुनिनो सद्याय ॥ ॥अथ समकेतनी चोपा॥ ॥ धुर प्रणमुं जिनवर चोवीश, सविगणधरने नामुं शीश ॥ तेहनां वयण सुणे जे कान, मन रा खे समकितने ध्यान ॥१॥ साचो देव एक वीतरा ग, धर्म तणो जेणे दाख्यो माग ॥ ते जिनवरनी पाटुं श्राण, जे होये साचा सुगुरु सुजाण ॥२॥ पंच महाव्रत मनमां धरे, राग द्वेष पेहेलु परिहरे ॥ चारित्र पालेटाले दोष,लीये आहार थोडे संतोष॥३॥ दोषमाहे जे श्राधाकर्म, टाले ते त्रोडे श्राप कर्म ॥ आधाकर्म करे नर नार, ते पण घणुंए रुले संसार ॥४॥ मूकी देह तणा सुखवास, सहे परीसह बा रे मास ॥ तपे करिने जेणे जस लाध, वंदनिक ते त्रिजुवन साध ॥५॥ एक संयमने बीजी क्षमा, Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाशे सवाणे सिात विचार ॥ ४२४ जैनधर्मसिंधु. शत्रु मित्र जेहने बेहु समा ॥ दृष्टिराग तरी उतरी ते जाशे नव सायर तरी॥६॥ एकापणुं करी मन गम, जणे गुणे सिझांत तमाम॥सदरुनो उपदेश आचार, जो समजो हैये विचार ॥७॥ एक पहेरे मुनिवरनो वेश, पण साचो न दीये उपदेश ॥ जेह उत्थापे जिनवर वयण, तेहने किहां हियानां नय ण ॥ ॥ घर मूकीने थया माहातमा, ममता जश् लागा श्रातमा ॥ मारु मारूं एम कहे घj, तेह मू रख वदनता पणुं ॥ ए ॥ एक त्यागी दीसे इस्या, लोने शिष्य करेषण कश्या॥पंच महाव्रत कहे,उचरे, उपशम रस ते कहो किम गरे ॥ १० ॥ श्राधाकर्मी वहोरे घणो धरम विगोवे जिन वरतणो यंत्र तंत्र मूली करी करी, चूरण आपे घर घर फरी ॥ ११ ॥ कुगुरु तणा जाणी अहि नाण, सेवा न करे जे होये जाण ॥ जिनवाणी सांजलीयें इसी, सोनुं गुरु बे लीजें कसी॥१२॥ सोनाथी होय एकन वहाण कूगुरुकरे नव नवनीहाण, सोने घाग पण ते मले, कुगुरु पसायें जव नव रुखे ॥ १३ ॥ स 4 मसे हुए नवनो अंत, कुरुगु करे संसार अनंत ॥ एम जाणी वली लीजे साप, कुगुरु नमि नवि बोलियें श्राप ॥ १४ ॥ एक वहे जिनवरनी श्राण, वैर वहे तिहां एक अजाण ॥ एह आपणा नही गुरु एम, बोली लीये वदंतुं तेम ॥ १५ ॥ एक जणे Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिबेद. ४२५ मारा गुरु देव, में करवी एहि जनी सेव ॥ पद तणा स्वामीने मान, अवर पदने दे अपमान ॥१६॥ एक सगा जाणी माहातमा, गुणपाखें तारे श्रातमा॥ पात्र जणी पूजे तेहने, समकित केम ले तेहने ॥ ॥ १७ ॥ देखी परखी गुरु गुणवंत, श्रावकने मनसं यमवंत ॥ एह आपणा नही श्म नणे, दान मान सघले अवगणे ॥ १० ॥ एका ने गबनो अनुराग, पण न लहे साचो जिनमाग ॥ वीर वचन लेश्ने पाधलं, कुगुरु सुगुरु जोश् श्रादरुं ॥ १५ ॥ जेहने आगमनुं बहु मान, तेहना उघडे एणे कान ॥ ए साधारण गुरुनी वात, जश्ने जोस्ये मुक्ति मात ॥ ॥२०॥ हृयय नयन तम जुन सुजाण, बंमो कुगुरु ए जिन आण ॥ सदगुरु तणा चरण आचरो, जेम नवसायर लीलायें तरो ॥२१॥ जे जिन आण व हे निशदीश, ते उपर जे नाणे रीश ॥ नवे तत्व निरता सदहे, सूधूं समकित छैते कहै॥॥ एहवुसम कित सूधुं जाण, धर्मकाजनु म करीश काण ॥ जिनवर पूजासजुगुरु नक्ति, जावें करवी श्रातम सक्ति ॥२३॥ पमिकमणुंने फासुं नीर, कीजें धर्म कडं जे वीर ॥ धर्मे कि निधि घर हूंत, धर्मे संकट सवि नाजंत ॥२४॥ धर्मे सूर्य निरतो तपे, धर्मे पाप करम सवि खपे ॥ धर्मे होये रुपनो योग, धर्मपसायें संपत्ति लोग ॥२५॥ जणे गुणे ने बहु तप ५४ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जैनधर्मसिंधु. करे, पण समकित सूधुंनादरे ॥ समकित विण ते सहए फोक, समकित आदर कर रोक ॥२५॥ समकित माय बाप संसार, समकित सुख संपत्तिनो सार ॥ समकित एह धर्मनु मूल, समकितथी सहु ए अनुकूल ॥ २७ ॥ समकित झछि सिकि घर घणी समकित लगे होये सुर धणी ॥ समकित सीजे सघ लां काज, समकित लगें त्रिजुवननुं राज ॥ २ ॥ समकित सहितनुं सुणो प्रमाण, कृष्णरायनुं जुर्ड मंमाण ॥ तपविण श्रेणिक राजद धणी, लेशे पदवी अरिहंत तणी ॥ए॥ समकित पालेजे नर नार, वली नावे ते संसार ॥ एम जाणी समकित श्रा दरो, सिकि रमणी जेम लीला वरो ॥ ३० ॥ इति॥ ॥ श्रथ यात्मशिदा सद्याय ॥ राग रामग्रीमा सहेजानंदी देशी ॥ ॥ आतमरामेंरे मुनि रमे, चित्त विचारीने जोय रे ॥ ताहारुं दीसे न कोय रे, सहु खारथी मट्यु तोय रे, जन्म मरण करे लोयरे, पू सवि मली मली रोय रे ॥ श्रा० ॥ १॥ सजन वर्ग सवि का रिमुं, कूमो कुटुंब परि वार रे ॥ को न करे तुज सार रे, धर्म विण नहीं को आधार रे, जिणें पा मे जव पार रे ॥ आ ॥२॥ अनंत कलेवर मूकी यां, तें कीयां सगपण अनंत रे ॥ जव उकेगें रे तुं .. .. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिवेद. ४२७ जम्यो तोही न आव्यो तुज अंत रे ॥ चेतो हृदय मां संत रे ॥ श्रा० ॥ ३ ॥ जोग अनंता तें लोग व्या, देव मणुए गतिमाहे रे ॥ तृप्ति न पाम्यो रे जीवमो, हजी तुज वांग डे त्यांहिरे, आण संतोष चित्तमांहि रे ॥ श्रा० ॥ ४ ॥ ध्यान करो रे आतम तणुं, परवस्तुथी चित्त वारी रे ॥ अनादि संबंध तुज को नहीं, शुरू निचे श्म धारी रे इण विध नि ज चित्त गरी रे, मणिचंड आतम तारी रे॥आए ॥ अथ समय सुंदरजीकृन मायानी स्वाध्याय ॥ ॥ माया कारमी रे, माया म करो चतुर सुजाण ॥ जा ॥ ए आंकणी ॥ मायायें वाह्या जगत विलु द्धा, मुखीया थाये अजाण ॥ मा० ॥ १ ॥ न्हाना महोटा नरने माया, नारीने अधिकरी॥ वली वि शेष अतिघणी व्यापे, घरमाने काजेरी ॥ मा० ॥२॥ योगी जंगम यती संन्यासी नग्नथ परवर्या ॥ जंधे मस्तक अग्नि धखंती, मायाथी नवि मरिया ॥मा॥ ॥३॥ माया मेली करी बहु नेली लोग्ने लक्षण जाय ॥ चोर मरें धरतीमां घाले, उपर विसहर थाय ॥ माम् ॥ ४॥ माया कारण उरदेशांतर, अ टवी वनमांजाय,प्रवहण वेसीही पदिपोतर सायरमा जंपाय ॥ मा० ॥ ५॥ शिवजूति सरिखा सत्यवादी, सत्यगोष कहावे ॥ रतन देखी मन तेहy चलीजं, मरीने पुर्गति जावे ॥ माम् ॥६॥ लब्धिदत्त मा Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. यायें नमीयो, पमीयो समुल मकार ॥ मुख माख णी थश्ने मरीयो, पमीयो नरक छ वार ॥ मा० ॥ ॥ इंजे तो सिंहासनथापी, संनूयें माया राखी ॥ नेमीसर तो माया मेली, मुगतीमां थया साखी ॥ माणाना मन वचन कायायें माया, महेली वनमा जाय ॥ धन्य धन्य तेह मुनि सर जेहना तीन जवन गुणगाय ॥ मा० ॥ ए॥ एवं जाणीने नविप्रा पी, माया मूको अलगी॥ सम यसुंदर कहे सार जगमां, धर्म रंगशुं वलगी ॥ मा० ॥ १० ॥ इति ॥ ॥अथ शील विषे सद्याय ॥ ॥रखेको रमणी रागमां, प्राणी मुंजा ॥ थिर ए बाला जपरे, थिरशाने था॥१॥ एतो अनरथy आश्रम के कलेशनो ने कंदो ॥ वैरोदधी पूर वधारवा, आवो पूनमचंदो ॥ र ॥२॥ कुलटा नारीने कारणे, केश कुलवंता ॥ आचरण हीणा श्रा चरे, वहालाशुं वेढंता ॥ र ॥३॥ उखनी दरी ए सुंदरी, पुरगतीनी दाता ॥ श्रागमथी ल्यो उल खी, गुण एहना ज्ञाता ॥ र ॥४॥ खांग मीठी करी लेखवे मलतां मूढप्राणी ॥ उदेवदे कहीयें पजे, जिनमती जाणी ॥ र० ॥ ५॥ इति ॥ ॥अथ मुनि दान विजयजी कृत कर्म उपर सज्जाय॥ ॥ कपूर होये अति उजलो रे ॥ ए देशी ॥ सुख फुःख सरज्या पामीयें रे, श्रापद संप्रद होय ॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिवेद लीला देखी परतणी रे, रोष म धरजो कोय रे, ॥ प्राणी मन नाणों विष वाद ॥ एतो कर्मतणा पर साद रे ॥ प्रा० म॥१॥ फलने आहारे जीवीश्रा रे, बार वसर वन राम ॥ सीतारावण लगयो रे. कर्म तणां ए काम रे ॥प्राण॥२॥ नीर पाखें वन एकलो रे मरणपाम्यो मुकुंद॥नीच तणे घर जल वह्यो रे,शीसधरी हरिचंद रे॥प्रा॥३॥नले दमयंति परिहरी रे, रात्रिसम य वन बाल ॥ नाम ठगम कुल गोपवी रे, नले निर वाह्यो काल रे॥ प्रा० ॥४॥ रुप आधिक जग जा पीयें रे, चक्री सनत कुमार ॥ वरस सातशें लोग, वी रे, वेदना सात प्रकार रे ॥ प्रा० ॥५॥ रुपें वली सुर सारिखा रे, पांडव पांच विचार ॥ ते वन वासें रमवड्या रे, पाम्या पुःख संसार रे ॥ प्रा० ॥ ॥६॥ सुरनर जस सेवा करे रे, त्रीनुवनपति वि ख्यात ॥ ते पण कर्मविटंबीया रे, तो माणस के मात रे, ॥ प्रा० ॥७॥ दोष न दीजें कहने रे, क मविटंबण दार ॥ दान मुनि कहे जीवने रे, धर्म सदा सुखकार रे ॥प्राणाजा इति कर्मनी स्वाध्याय॥ ॥ अथ सुमति विलाप सद्याय प्रारंन ॥ ॥ पम्जो कुमतिगढना कांगरा, मरजो मोहमहे राण ॥ वासो महरो निजघरें नावीयो, एणे परघर कीधां प्रयाण ॥ वा ॥ श्म कहे सुमती सुजाण ॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जैनधर्मसिंधु. वा० ॥ १ ॥ दांत पाडुंरें डुती तथा पाकोसपना लजं प्राण ॥ जेणें महारो जीवन जोंलव्यो | लइ ना ख्यो नरकनी खा ॥ वा० ॥ २ ॥ माययें मद पाइ रे, वास्यो पोताने वास ॥ माहारोने वासो एपें टा लीयो, इणे मुज कीधी निरास ॥ वा० ॥ ३ ॥ गुण वंतना गुण गोपवी, निगुणाशुं मांडे गोठ ॥ आप स्वरुप न खोलखे, एतो पापनी चलवे पोठ ॥ वा०॥ ॥ ४ ॥ पूज्य साथै धरे आसकी, एतो पूज्यना पूजे पाय || परम महोदय पामशे ज्यारें अवशे आपणे ठाय ॥ वा० ॥ ५ ॥ श्रीदादापास पसाउलें, मेंतों कुमतीनो पाम्यो कोट ॥ घरें आयो निज घरधणी, तो शोकनी चूकवी चोट ॥ वा० ॥ ६ ॥ उदयरंतन वाचकवदे, पूजशे जे प्रभुना पाय ॥ ते परमपदें पधारशे, वली संपद लेशे सवाय ॥वा०॥७॥ ॥ अथ श्री शांतिनाथनो दशमो जव मेधरथ राजानी सद्याय प्रारंभः ॥ ॥ दशमें नवेंश्री शांतिजी, मेघरथ जीवडा राय रूमाराजा ॥ पोसह शालामां एकला, पोसह लीयो मन जाय ॥ रूमा राजा ॥ धन्य धन्य मेघरथ राय जी, जीवदया गुण खाण ॥ धर्मी राजा ॥ धन्य० ॥ ॥ १ ॥ एकणी ॥ इशानाधिप इंद्रजी, वखाण्यो मेघरथ राय ॥ रुमा राजा ॥ धर्मे चलाव्यो नवि च ले, महासुर देवता श्राय ॥ रुडा राजा ॥ धन्य०॥२॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिवेद. ४३१ पारेवुसींचाणा मुखें अवतरी, पमीयु पारे खोला मांय ॥ रुमा राजा ॥ राख राख मुज राजवी, मुज ने सींचाणो खाय ॥ रुमा राजा ॥ धन्य० ॥३॥ सींचाणो कहे सुणो राजीया, ए जे महारो थाहार ॥ रुडा राजा ॥ मेधरथ कहे सुण पंखीया, हिंसाथी नरक अवतार ॥ रुमा पंखी ॥ धन्य० ॥ ४ ॥ शरणे आव्युं रे पारेवडं, नहीं श्रापुं निरधार ॥ रुमा पंखी ॥ माटी मगावी तुजने दे, तेहनुं तुं कर आहार ॥ रुडा पंख। ॥ धन्य० ॥५॥ माटी खपे मुज एह नी, कां वली ताहरी देह ॥ रुडा राजा ॥ जीवदया मेघरथ वसी, सत्य न मेले धर्मी तेह ॥ रुडा राजा ॥ धन्य० ॥६॥ काती खेश पिंग कापीने, ले मांस तुं सींचाण ॥ रुमा पंखी ॥ त्राजुऐ तोलावी मुजने दी, ए पारेवा प्रमाण ॥ रुमा राजा ॥ धन्य० ॥७॥ त्राजु मगावी मेघरथ रायजी, कापी कापीमुके मंस रुमा राजा ॥ देवमाया धारण समी, नावे एकण अंश ॥ रुडा राजा ॥ धन ॥७॥ ना सुत राणी वलवले, हाथ काली कहे तेह ॥घेला राजा ॥ एक पारेवाने कारणे, शुं कापोगे देह ॥ घेला राजा ॥ धन्य० ॥ ए ॥ महाजन लोक वारे सहु, म करो एवडी वात ॥ रुमा राजा मेघरथ कहे धर्म फल जलां, जीवदया मुजधात ॥ रुडा राजा ॥ धन्य ॥ ॥ १० ॥ त्राजुयें बेठा राजवी, जे नावे ते खाय ॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जैनधर्मसिंधु रुमा पंखी ॥ जीवधी पारेवो अधिको गएयो, धन्य पिता तुज माय ॥ रुमा राजा धन्य० ॥ ११ ॥ चड ते परिणामे राजवी, सुर प्रगट्यो तिहां आय ॥ रुमा राजा ॥ खमावे बहुविधे करी, लली लली लागे डे पाय ॥ रुमा राजा ॥ धन्य० ॥ १२ ॥ इंजे प्रशंसा ताहारी करी, तेहवो तुं बो राय ॥रु डा राजा ॥ मेघरढ काया साजी करी, सुर पोहोतो निज गय ॥ रुमा राजा ॥ धन्य० ॥ १३ ॥ संयम लीयो मेघरथ रायजी, लोख पूरवनुं श्राय ॥ रुमा राजा ॥ वीशस्थानक विधे सेवियां, तीर्थंकर गोत्र बंधाय ॥ रुडा राजा ॥ धन्य ॥ १४ ॥ इग्यारमे न वें श्रीशांतिजी, पोहोता सर्वार्थसिक ॥रुमा राजा॥ तेत्रीस सागर आउखु, सुख विलसे सुर रिक॥ रुडा राजा ॥ धन्य० ॥ १५ ॥ एक पारेवा दयाथकी, बे पदवी पाम्या नरिंद ॥ रुडा राजा ॥ पांचमा च क्रवर्ति जाणियें, शोलमा शांति जिणंद ॥रुमा राजा ॥ धन्य० ॥ १५ ॥ बारमे नवें श्रीशांतिजी, अचिरा कूखेंअवतार ॥ रुडा राजा ॥ दीदालेश्ने केवल व ख्या, पहोता मुगति मोकार ॥ रुडा राजा ॥ १७ ॥ त्रीजेनवें शिवसुख लह्यो, पाम्या अनंतु ज्ञान ॥ रु मा राजा ॥ तीर्थंकरपदवी सही, लाखवर्ष आयु जाण ॥ रुमा राजा ॥ धन्य० ॥ १७ ॥ दयाथकी नव निधि होवे, दया ये सुखनी खाण ॥ रुडा राजा ॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिच्छेद . ४३३ जव अनंतनी ए सगी, दया ते माता जाए ॥ रुमा राजा ॥ धन्य० ॥ १५ ॥ गजनवें शशलो राखियो, मेघकुमार गुंण जाण रुडां राजा ॥ श्रेणिकराय सुत सुख लह्यां, पोहोता अनुत्तर विमान ॥ रुमा राजा ॥ धन्य० ॥ २० ॥ एम जाणी दया पालजो, मनमांहे करुणा याण ॥ रुमा राजा समयसुंदर एम वीनवे, दयाथी सुख निरवाण ॥ रुरु राजा ॥ धन्य० ॥ २१ ॥ ॥ अथ श्री लब्धिविजयजी कृत पंदर तिथिनी पंदर ॥ सद्याय प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ श्रीमद्गोडी जगधणी, दायक शिवग ति जेह ॥ लिय विधन दूरें हरे, टाले पुरित अ बेह ॥ १ ॥ सुधादृष्टि होवे सदा, एहवी जेहनी ह ष्टि ॥ उरग तजी सुरपति कस्यो, गिरुन गुणें गरिष्ट ॥ २ ॥ जावियपद पंकज सदा, हुं नित्य प्रणमुं तास ॥ सकल मनोरथ पूरवे, ते वीशमो जिनपाश ॥ ३॥ जावे प्रणमू जारती पूरे पूरण आश ॥ मूरखनें पंकि त करे, आपे वचन विलास ॥ ४ ॥ ( पांवांतरें ) मूरखने पंदित करे, जेवी तुज आख्यत ॥ वचन सुधारस पोषवा, वर दे शारद मातु ॥ ४ ॥ शक्ति नहिं सिद्धांतनी, बुद्धि नही लवलेश ॥ वचन विला स करी कहुं, ते पण नहिं सुविशेष ॥ ५ ॥ पण मु ज एक आधार बे, सगुरु तणो पसाय ॥ तस अनु जावें उपजे, वचन सदा सुखदाय ॥ ६ ॥ श्रागमना ماما Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु अनुसारथी, थाणी मन पवित्र ॥ पंदर तिथि सात वारनां, पजणुं तेह चरित्र ॥ ७ ॥ जिम मृग नाद लीनो थको, निसुणे थइ एक रंग ॥ तिम सु जो नविण तुमें, श्राणी चित्त अभंग ॥ ८ ॥ ४३४ ॥ अथ प्रतिपदानी सद्याय प्रारंभः ॥ ॥ कपूर होवे यति उजलो रे ॥ ए देशी ॥ पहेली तिथि एणीपरें वदे रे, सांजलो प्राणी सार ॥ एक धर्म जग आदरो रे, जाणी अथिर सं सार रे प्राणी ॥ धरजो धर्मशुं राग, जिम पामो जवतागो रे ॥ प्रा० ॥ ६० ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ दश दृष्टातें दोहिलो रे, मानवजव अवतार ॥ पामी धर्म ने सद्ददो रे, पामो जिम जयकारो रे ॥ प्रा० ॥ ॥ ध० ॥ २ ॥ धर्म वको संसारमां रे, जांखे श्रीकी रतार ॥ सुरमसिम ए धर्म बे रे, मव मियां या धारो रे ॥ प्र० ॥ ध० ॥ ३ ॥ धर्मथकी संपद मले रे, धर्म की नवनिधि धर्मथक संकट टले रे, धर्म थकी रुद्धि वृद्धि रे ॥ प्रा० ॥ ध० ॥ ४ ॥ जुर्द धर्म प्रजावथी रे, चक्री जरत नरेंद्र ॥ अजरामर पद शाश्वतां रे, पाम्यो परमाणंदो रे ॥ प्रा० ॥ ध० ॥ ॥ ५ ॥ जे नर जिनधर्म पामीने रे, करशे प्रमाद लगार || तो पडवे कहे जीवको रे, पमशे नरक म जारो रे ॥ प्रा० ॥ घ० ॥ ६ ॥ एम जाणी नविना Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद. .. ५३५ वशं रे, कीजे अनुत्तर धर्म ॥ विजय लब्धि सदा लहो रे, बंमी मिथ्या जरमो रे ॥ प्राण ॥७॥ ॥अथ द्वितीयानीसजकाय प्रारंजः ॥ ॥ कोश्लो वर्वत धुंधलो रे लो ॥ ए देशी ॥ बीज कहे नव्य जीवने रे लो, निसुणो आणी रीऊ रे ॥ सुगुणनर ॥ सुकृतकरणी खेतमें रे लो, वावो समकित बीज रे ॥ सुम् ॥ धरजो धर्मशुं प्रीतमी रे लो, करि निश्चय व्यवहार रे ॥ सु॥ श्ह नवें परनवें नवोनवें रे लो, होवे जयुं जग ज यकार रे ॥ सु० ॥ धर ॥ ए श्रांकणी ॥१॥ कि रिया ते खातर नाखिये रे लो, समता दिजें खेम रे॥ सु॥ उपशम नीरे सींचीये रे लो, उगें जयु समकित बोम रे ॥ सु० ॥ घ० ॥॥ वाम करो सं तोषनी रे लो, तस पांखमी चिहु गेर रे ॥ सु॥ व्रत पच्चरकाण चोकी वो रे लो, वारे युं कर्मना चोर रे ॥ सु० ॥ ध० ॥३॥ अनुभव केरे फूलडे रे लो, महोरे समकित वृद रे ॥ सु० ॥ श्रुतिचरित्र फल उतरे रे लो, ते फल चाखो शिक्षरे ॥ सु॥ धम् ॥४॥ ज्ञानामृत रस पीजीयें रे लो, स्वाद व्यो साम्य तांबूल रे॥ सु ॥ण रसें संतोष पामशो रे लो, लेहशो नवनिधि फूल रे ॥ सु० ॥ ध० ॥५॥ इण विध बीज तमें सद्दहो रे लो, गंडी राग ने वेष रे ॥ सु ॥ केवल कमला पामी रे लो, वरि Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ जैनधर्मसिंधु यें मुक्तिविवेक रे ॥ सु० ॥ ध॥६॥ समकित बी ज ते सद्दहे रे लो, ते टाले नरक निगोद रे ॥सु॥ विजय लब्धि सदा लदे रे लो, नित नित विविध विनोद रे ॥ सुध ॥७॥ इति ॥ ॥ अथ तृतीयानी सद्याय प्रारंजः॥ ॥डर अांबा अांबली रे ॥ ए देशी ॥ त्रीज कहे मुजलखी रे, श्रादरो देवगुरु धर्म ॥ जनम जरा मृत्यु बुटस्यो रे, टालो जवजय कर्म ॥ नविकजन, धरजो धर्मशुं राग ॥ जिम पामो न वनिधि ताग ॥ न ॥ ध०॥ ए आंकणी ॥१॥ मोहिनी त्रणे परिहरो रे, राखो मन निःशल्य ॥ गा रव त्रणे मत करो रे, मो त्रएये शल्य ॥ न० ॥ धम् ॥२॥ मानव नवमां मोटकां रे, कहियां तीने रत्न ॥ ज्ञान दर्शन चारित्र अ रे, तेहy करियें य त्न ॥ न० ॥ ध० ॥३॥ ए त्रएये रत्नयोगथी रे, पा मियें त्रीनुवन राज ॥ श्रीजगवंत शकारशे रे, सर शे वंडित काज ॥ न० ॥ धम् ॥४॥ त्रिवर्गनां सुख मेलवो रे, आणी त्रएये योग ॥ मन वचन काया योगथी रे, टालो कर्मना रोग ॥ न० ॥ ध० ॥ ५॥ त्रण गुप्ति सूधी धरे रे, जे नर त्रीज श्राराधि ॥ वि जयलब्धि ते पामशे रे, दिन दिन सुख समाधि ॥ ॥अथ चतुर्थीनी सद्याय प्रारंजः ॥ ॥ कपूर हवे अति उजलो रे ॥ ए देशी ॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिच्छेद. ४३७ चोथ कहे जवि सांजलो रे, माहरा गुण अ जिराम ॥ माहरी शीखें 'चालशो रे, तो लेशो मु क्तिनु ठाम रे ॥ प्राणी, जिनवाणी धरो चित्त ॥ ए तो आणी मन शुभ रीत रे ॥ प्रा० ॥ जि० ॥ ए की ॥ १ ॥ विकथा चारे परिहरो रे, परिहरो चार कषाय ॥ कमा रुपी धन संचियें रे जवोजव पातक जाय रे ॥ प्रा० ॥ जि० ॥ २ ॥ त्रिगडे बेसी जिनवरें रे, जांख्यो च विह धर्म ॥ दान शियल तप जावना रे, ए चारे सुखनां हर्म्य रे ॥ प्रा० ॥ जि० ॥ ३ ॥ दानें ते दोलत पामीयें रे, शीलें जस सौनाग्य ॥ तप करी कर्म विनाशियें रे, जावें जाव जाग रे ॥ प्रा० ॥ जि० ॥ ४ ॥ जवनिधि पार उ तारवा रे, ए चारे नाव समान ॥ सकल पदारथ आपवा रे, ॥ ए चारे प्रगट निधान रे ॥ प्रा० ॥ जि० ॥ ५ ॥ इम जाणी पुण्य कीजीयें रे, सांगली सदगुरु वाणी ॥ चिहुं गतिनां दुःख टालीयें रे, हो वे कोमी कल्याण रे ॥ प्रा० ॥ जि० ॥ ६ ॥ चोथ तणा गुण जाणिने रे, जे धरे च धर्मद्वार ॥ विज य लब्धि सदा लहे रे, साधि पदारथ चार रे ॥ ॥ अथ पंचमीनी सद्याय प्रारभ्यते ॥ ॥ जय जगनायक जगगुरु रे ॥ ए देशी ॥ पुनरपि पांचम एम वदे रे, सांजलो प्राणी सु जाण ॥ श्रीजिन अनुमतें चालीयें रे, जिम ल Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जैनधर्मसिंधु हियें सुखनी खाण ॥ १॥ नविक जन, धरजो धर्म शुं प्रिति ॥ ए तो आणी मन शुनरीत ॥ न ॥ ध० ॥ ए आंकणी ॥ श्राश्रव पंच दरें करी रे, कीजें संवर पंच,सुमित सखीशुन पालीने रे, तुमें मेंलो शिव वधूसंच ॥ न० ॥ ध० ॥२॥ पंच महाव्रत अनुस री रे, पालों पंच श्राचार ॥ त्रिकरण शुकियें ध्याव जो, रे पंचपरमेष्टी नवकार ॥ न० ॥ ध० ॥३॥ सम कित पंच आजुवालजो रे, धग्जों चारित्र पंच ॥ पं च नूषणने पडिवजी रे, टालो पुषण पंच ॥ ज० ॥ धम् ॥४॥ मत करो पंच प्रमादने रे, मत करो पंच अंतराय ॥ पंचमी तप शुज श्रादरो रे, जि म दिन दिन दोलत थाय ॥ ज० ॥ ध० ॥५॥ पं चमी तप महिमा घणो रे, कहेतां नावे पार ॥ वर दत्तने गुणमंजरी रे, जुन पाम्या जवनो पार ॥न॥ ध० ॥६॥ पांचमी एम आराधीयें रे, लहियें पंच म नाण ॥ चउद रजावात्मक लोकना रे, एतो मनप जव शुज जाण ॥ न ॥ध ॥७॥ घनधाति क में खपावतां रे, वाजे हो मंगल शब्द ॥ पंचमी ग ति अविचल लहे रे, तिहां सुख अनंत सुलब्द ॥ ज० ॥ध ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥अथ षष्ठीनी सद्याय प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ण विध पांचे तिथि नलि बोली शुन परिणाम ॥ एक एकत्री चढते गुणे, मनोहर Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ए पंचमपरिछेद. ने अनिराम ॥ १॥ बठी तणा गुण वर्णवं, मूकी मन थनिमान ॥ हवे नवियण नावें करी, निसुणो थश् सावधान ॥२॥ ढाल ॥ मुबखमानी दे शी ॥ठी कहे मुज उलखी रे, बटको पापथी दूर सनेहा सांजलो काय रदा कीजीयें रे, होवे ज युं सुखसनूर ॥ स० ॥ १॥ चार कषाय राग शेषने रे, नाखजो दूर विमारि ॥ स ॥ बए अव्यने उल खी रे, पालो निरतिचार ॥ स ॥२॥ सम कित शुद्ध जगावियें रे, नांगिये पुःखनी बेमि ॥ स॥ मग्न रहो जिनधर्ममें रे, नाखो कुगति उखेमि ॥ ॥ स० ॥३॥ बह श्राराधो जावगुंरे नवियण थर उजमाल ॥ स ॥ नकित मुकित सदा लहो रे, होवे युं मंगल माल ॥ स० ॥४॥ लब्धि कहे सा जन तुमें रे, म करो प्रमाद लगार ॥ स ॥ दिन दिन संपदा अभिनवी रेहोवे श्री श्रीकारसाय॥ ॥अथ सप्तमीनी सद्याय प्रारंजः॥ ॥ बुहारणे जायो दीकरो सो नारी हे ॥ ए देशी ॥ सातम कहे सात आतमा ॥ सुखकारी हे ॥ प्राणी राखीयें सोय ॥ सदा सुखकारी हे ॥ सुख आवे गर्व न कीजीयें ॥ सु० ॥ पुःख आवे दीन न होय ॥ स ॥१॥ सात जय निवा रियें ॥ सु० ॥ बमियें मिथ्या शंस ॥ स ॥ सात अमीरस कुंभमां ॥ सु०॥ ऊलीयें थश्ने हंस ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० जैनधर्मसिंधु ॥ स ॥२॥ सातम दिन साखे तमें ॥ सु०॥ वा वीयें अव्य विशेष ॥ स ॥ सुकृतकर्षण जगीनें ॥ ॥ सु० ॥ उपजे धान्य विवेक ॥ स० ॥३॥ वाम करो तुमें शीलनी ॥ सु० ॥ तस पांखमी चिहुँ होर ॥ स ॥ चोकी वो सही धर्मनी ॥ सु० ॥ अध को न करे जोर ॥ स ॥४॥ मनरुपी माल बनावियें ॥सु॥बेसी ये तिहां सावधान ॥सण॥ विरतिरुपी गोफ णे करी ॥ सु० ॥ नाखियें गोला शान ॥ स ॥॥ पुष्कृत पंखी उमाडीयें ॥ सु० ॥ करी निश्चयव्यव हारे ॥स॥ पोंक आरोगियें पुण्यना ॥ सु० नवियण थ हुशियार ॥ स० ॥ ६॥ सात नय जाणी तुमें ॥ सु० ॥ तपी खलां बनाव ॥ स० ॥ करुणारस जल आणीने ॥ सु० ॥ सात नय खलां पिवराव ॥ ॥ स ॥७॥ जीवदया सकटे नरी ॥ सु० ॥ सुकृत कर्षण सार ॥ स० ॥ संवर बलदनें जोतरी ॥सु०॥ श्राणियें खला मकार ॥ स ॥ ॥ ध्यानरुपी थंज रोपीने ॥ सु० ॥ लणियें रूपक संयोग ॥ स० ॥जि नाण सही नावीयें ॥ सु० ॥ हालरु अशोक ॥ स० ॥ ए॥ फुःखरूपी बूरां शाटकी ॥ सु०॥ ना खियें दूर सुजाण ॥ स० ॥ आतमबल नंमारमें ॥ ॥सु० ॥ जरजो स्कृत ध्यान ॥१॥ स० ॥ श्ह नव परनव नवो नवें ॥सु॥ पामियें सुख विचित्रास संतोष राखी श्रातमा ॥ सु० ॥कीजे पुण्य पवित्र ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद. ४४१ ॥ स ॥११॥ लब्धि कहे नविश्ण विधे ॥ सु० ॥ आदरे प्राणी जेह ॥ स ॥ सात रज्ज्वातम नेदीने ॥ सु० ॥ सवि सुख लेहेशे तेह ॥ स ॥१॥इति ॥ ॥अथ अष्टमीनी सद्याय प्रारंजः॥ ॥ दरिया मन लागो ॥ ए देशी ॥ श्रापम कहे आठ मदनो, प्राणी मूको ते गम रे नवियण हित धरी ॥ आठ प्रकारे श्रातमा, उलखो तुमें अजिरा म रे ॥ ज० ॥ १॥ पडिकमणां पोषा करी, तोमो पुःखना वर्ग रे ॥ ज० ॥ सुमिति गुप्ति सूधां धरी, मेलो सुख अपवर्ग रे ॥ नम्॥२॥ अष्ट महागुण सिझना, ध्यावो ते निश दीस रे ॥ न ॥ अष्ट म हासिक संपजे, पहोचे मनह जगीश रे ॥ ज० ॥ ॥३॥ जिनदेवनी करो हाजरी, दिल पाक करी मन कोड रे ॥ न ॥ मनरुपी घोडो बनावियें, गुरु झान लगाम जोम रे ॥ ज० ॥४॥ शीलनी पाखर नाखीयें, तपरुपी खमंग खेश हाथ रे ॥ ज०॥ क्षमा बक्तर पेहेरीने, ध्यान कबाण सलोथ रे ॥ न० ॥ ॥५॥ विरति तीर चलाविनें, अष्ट करम मद मो डि रे ॥ ज० ॥ विषय कषाय जे आकरा, तेहनां ते मस्तक तोमि रे ॥ ज ॥६॥ श्रीजिन ागल श्रा वीनें, मजरो करो कर जोडि रे ॥ ज०॥ श्रीजिन केरा पसायथी, मोद शहेरें जाउँ दोगी रे ॥न॥ ॥७॥ श्राम दिन शुन जाणिनें, धर्मनां करियें Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ जैनधर्मसिंधु वखाण रे ॥ ज० ॥ कपटनो कोट उमामियें, वाजे युं जीत निशान रे ॥ ज० ॥ ॥ इषि परें अष्टमी जा वशुं, च्यादरे प्राणी जेह रे ॥ ज० ॥ लब्धि कहे ज वि तस घरे, प्रगटी पुण्यनी रेह रे ॥ ज० ॥णाइति ॥ अथ नवमीनी सद्याय प्रारंभ ॥ ॥ बन्यो रे विद्याजीनो कलपको ॥ ए देशी ॥ जीरे नवमी कडे नमीयें सदा, एतो श्रीजन केरां बिंब दो विशेष ॥ नव ांगें पूजा बनावीयें, ए तो मूकी मननो दंज हो ॥ विशे० ॥ १ ॥ ए की ॥ नविय शुभजावें करी ॥ ढंको विषयकषाय छातीव हो || वि० ॥ स्नात्र महोत्सव कीजीयें, एतो दीजें दान सदीव हो ॥ वि० ॥ ज० ॥ २ ॥ जीरे पूजा न क्ति प्रजावना, करि रोपे जे कीर्ति थंज हो ॥वि० ॥ सुख अनंतां ते वरे, तस जस जणेसुर रंग हो ॥ ॥ वि० ॥ ज० ॥ ३ ॥ जिरे जिन में स्तवना जा वशुं, एतो जे करे नाटारंज हो । वि० ॥ लाज श्र नंतो जिन जणे, जुड़े महिमा जाव अचंन हो ॥ ॥वि० ॥ ज० ॥ ४ ॥ जिरे जिन स्तवना गुण गाव तां, एतो समकित होये उद्योत हो । लंकापति रा व परें, तो बांध तीर्थंकर गोत हो ॥ वि० ॥ ॥ ज० ॥ ५ ॥ जिरे अरिहंत जक्ति प्रजावथी, ए तो जाये जवनां पाप हो ॥ वि० ॥ जिरे नव निधा न सुख संपजे, वली होवे युं अधिक प्रताप हो ॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद. ४३ ॥ वि०॥ न ॥६॥ जिरे नवपद ध्यान सदा ध री, ए तो पाली नव विध शील हो ॥ वि० नव नोकषायने परहरी, एतो लहीयें सुखनी लील हो ॥ वि० ॥ न० ॥७॥ जिरे नवेतत्वने अोलखी, ए तो पामी मनुष्य अवतार हो ॥ वि०॥ शत्रुमित्र स रिखा गणो, एतो सकल जंतु निर्धार हो ॥विजन॥ ॥ ॥ जिरे उपकार ते कीजीयें, ए तो टालीये प रनी पीक हो ॥ वि० ॥ नवमीयें नवपुण्य अनुसरी, ए तो नांगी जवनी नीम हो ॥ वि०॥ न॥॥ जिरे इण विध नवमी प्रमोदशुं, एतो आदरे प्राणी जेह हो ॥ वि० ॥ लब्धिविजय रंगें करी, एतो शि वसुख लेहशे तेह हो ॥ वि० ॥ ज० ॥ १० ॥ इति॥ ॥अथ दशमीनी सद्याय प्रारंजः ॥ ॥ राम नणे हरि उठीयें ॥ ए देशी ॥ दशमीयें पुषमन वारियें काम क्रोध मद जोर रे ॥ दश विध यति धर्म आचरी, कापीयें दुःख तणी दोर रे, लाल सुरंगारे अत्तमा वहिये धर्मनी होररे प्रग टे पुण्यनो तोर रे, लहियें मुकितनुं गेर रे, वाधे जस चिहुं उर रे ॥ ला ॥१॥ दशविध विनय अभ्यासथी, तोमीयें मोहजंजाल रे॥दशविध मिथ्या त्व परहरी, मी आल पंपाल रे ॥ ला ॥ मेली ये सुकृतमाल रे, प्रगटे लाग्य विशाल रे, होवे मंग लमाल रे, लहियें सुख ततकाल रे ॥ ला ॥२॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ जैनधर्मसिंधु. त्रस थावर सर्व जीवने, संझा कही तस रंग रे ॥ संज्ञा प्रत्ये उलखी, कीजें गुरुनो प्रसंग रे ॥ला ॥ संज्ञा धर्म न चंग रे, राखीयें चित्त अन्नंग रे, सुख तटिनी वहे अंग रे, उलटे ज्युं गंगरंग रे ॥ ला॥ ॥३॥ दश विध प्राण त्रस जीवनें, नांखे जिनवर वीर रे ॥ ते दश प्राण तुं पामीने, धरियें, मन दया धीर रे ॥ ला ॥ दशविध सुख शरीर रे. हरियें द श विध पीर रे, तोडीयें पुःखजंजीर रे, पामी न वोदधि तीर रे ॥ ला ॥४॥ दश पच्चरकाण सिद्धांत मे, पाल्यां बे सहि बोल रे ॥ तेहमां नित्य एक ना वशं, करे पच्चरकाण अमोल रे ॥ ला ॥ जाण ला न अतोल रे, मुकितशुं करि बंध कोल रे, लब्धि नणे दिल खोल रे, वाजे जीतना ढोल रे॥ला॥५॥ ॥अथ एकादशीनी सद्याय ॥ ॥ दोहाः एम दशतिथि अधिकार अथ, किंचित् कह्यो चरित्र ॥ शास्त्र तणा अनुसारथी, वर्णन करी विचित्र ॥१॥ हवे एकादशितिथि तणा, कहे सूरि जन माहाराज ॥ त्रिकरण करीने आतमा, निसुणो थश् मृगरज ॥२॥ ढाल ॥ नथरो नगीनो माहरो ॥ ए देशी ॥ हवे एकादशी इन वदे, नवि, जन बंडी यें विषयासत्त हो ॥ वसन उढो निर्विकारनां ॥ ॥ न ॥ जेहनी ने सबल प्रतीत हो ॥१॥ गुणना रागी नवी, अवगुण त्यागी सही होऐं ॥ ज० ॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिवेद. ४४५ पामी अनुजव संतहो ॥ एत्रांकणी॥ ध्यान तणी अं गीठिका ॥॥ जोजन तिम संतोष हो ॥ श्रास व समता पीवतां ॥नम् ॥ करजो काया पोष हो ॥ गुण ॥ अ० ॥२॥ मायानिशादरें कीजीयें ॥ न ॥ शुरू स्वन्नावें क्षीण हो ॥ तैलाभ्यंग तिम उदासीनता ॥ ज० ॥ श्रुत तंबोल प्रवीण हो ॥ गु० ॥ अ० ॥३॥ उचा महेल विवेकना ॥न॥ वास करो तेह मांहे दो ॥ अग्यार बोल ते धारियें ॥ ज० ॥ रसपोषण जे जेह हो ॥ गुण ॥ अ० ॥४॥ अग्यार अंगरस सांजली ॥ न ॥ प्रतिमा वहो श्र ग्यार हो ॥ कर्म कठिन दूरे करी ॥ ज० ॥ लहियें यु मुक्ति उवार हो ॥ गु० ॥ अ० ॥५॥ एकाद शी तप कीजियें ॥ ज० ॥ एम एकादश वर्ष हो । अग्यार अंग वाचक होवे ॥ न ॥ पामियें सुजस हर्ष हो ॥ गु० ॥६॥णविध नवियण आदरो ॥ न॥ जाणो एकादशी सार हो ॥ लब्धि कहे नवि सांजलो ॥ना होवे ज्यु नवनिस्तार हो ॥ गुण ॥७॥ ॥अथ छादशीनी सद्याय प्राजरंः॥ ॥ रहो रहो वालहा ॥ ए देशी ॥ हादशी कहे नविनावशुं, कीजें धर्मनी गोठ लाल रे ॥ विण दा में रस लीजीयें, जिम साकरनी जरी पोठ॥लाल रे ॥१॥ जावें नवियण सांजलो ॥ ए श्रांकणी ॥ बा रसे बार उपांगना. निसुणो जे कह्या बोल लाल रे Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ जैनधर्मसिंधु. ॥ स्वाद व्यो अमृत तेहना, टालीजमतानिटोल लाल रे ॥ ना ॥२॥ बारे व्रत नवि उच्चरी, मेली ये सुकृत माल लाल रे॥ कर्म मलीन दूरे करी,श्रावक कुल अजुवाल लाल रे ॥ ना ॥ बारे नेदें तप जे अजे, आदरो बंडी क्रोध लाल रे ॥ बारे नावना नावियें ममता वारियें विरोध लाल रे ॥ना ॥४॥ कुरस वचन कहेतां थकां, दिवस तणुं तप जाय लाल रे॥ अधिक खीजंतां मासन, तप तप्युं निष्फ ल थाय लाल रे ॥ ना ॥ ५ शाप दियंतां वर्षर्नु, तप जाये सुणो धीर लाल रे ॥ हणतां श्रमणपणुं हणे, एणी परें बोले वीर लाल रे ॥ जा ॥६॥ श्रीजिनवरें दो वर्णवी, निरकुप्रतिमा बार लाल रे ॥ ते तुमें नवियण पडिवधी, पालीयें शुम श्राचार लाल रे ॥ ना ॥७॥णविध जे नर द्वादशी, आदरे शुज परिणाम लाल रे ॥ ते नर वंबित पाम शे, शाश्वतां सुख अनिराम लाल रे ॥ ना० ॥ ७ ॥ छादशी जेह श्राराधशे, धरशे जिनशुं राग लाल रे ॥ लब्धिविजय कहे ते नरा, पामशे लवनो त्याग लाल रे ॥ना ॥ए॥इति ॥ ॥अथ त्रयोदशीनी सद्याय प्ररंजः॥ ॥रंगरो रे रसीया रे फुला गुलाबरो ॥ ए दे शी॥ ते रस श्रोता श्रागले, नाखे मन श्रादहाद हे॥ श्रीजिनवाणी सांजाली, ते रस चाखो खाद Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिच्छेद. ४७ हे ॥ १ ॥ रसिया रे सूरिजन जावें हे सांजलो ॥ श्री जिन बिंब जरावियें, कीजें जिन प्रासाद हे ॥ ज्ञाननक्ति सवि साचवो, ते रस चाखो स्वाद हे ॥ २० ॥ २ ॥ काठीया तेरे परहरी, कीजें नव पद याद है | समकित वास सदा लड़ी, ते रस चाखो स्वाद हे ॥ २० ॥ ३ ॥ श्री जिन अनुमति चालिये, तजीयें मिथ्यावाद हे || अनुजवरुपी शेल की, ते रस चाखो स्वाद हे ॥ २० ॥ ४ ॥ तेरमे गुण ठाणे संचरी, शुक्तिध्यान प्रसाद हे ॥ केवल कमला पामीने, ते रस चाखो स्वाद दे ॥ २० ॥ ५ ॥ ते रसना गुण जाणीनें, जे नर तजशे प्रमाद हे ॥ ते नरना गुण बोलशे, सुर नर अमृत वाद हे ॥ ० ॥ ६ ॥ शुभजावें सुकृतपणे, तेरशगुण आराधी हे ॥ लब्धि विजय कहे नेहशुं, लहियें सुख समाधि दे ॥ २० ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ अथ चतुर्दशीनी सद्याय प्रारंभः ॥ ॥ प्यारी ते पीयुने विनवे हो राज || ए देश ॥ ॥ हवे च दशतिथि इम वदे रे हां, एतो सांजलो चतुर सुजाण ॥ जवियां जावशुं ॥ श्रुत सिद्धांतना बोलजे रे हां, एतो ते करो वचन प्रमाण ॥ ज० ॥ १ ॥ व मना कुसुम तणी परें रे हां, एतो दोहिलो मनु अवतार ॥ ज० ॥ श्रार्यदेश पण दोहिलो रे हां, एतो दोहितुं श्रावक कुल सार ॥ ज० ॥ २ ॥ श्रद्धा Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० जैनधर्मसिंधु. ते पण दोहिडं रे हां, एतो दोहिलो ज्ञानसंयोग ॥ ज० ॥ दोहिली जिननी सेवना रे हां, एतो दो हिलो मननो योग ॥ ज० ॥३॥ ए सविपुलन पामवां रे हां, जिम रयणतणे दृष्टांत ॥ न ॥ ते तुम पुण्यप्रनावथी रे हां, एतो पाम्यो मनुनव संत ॥न ॥४॥ पामी चउदश तप तणो रे हां, एतो खप करो मनने प्रमोद ॥ न ॥ चौद नियम संना रजो रे हां, एतो संदेपजो तिम चौद ॥न ॥५॥ चौद पूरवना नावथी रे हां, एतो चौदमे चढे गुण गण ॥ ज० ॥ अंतगम केवली होवे रे हां, एतो श्रदर पंच प्रमाण ॥ न० ॥६॥ चौद जुवन ए लोकनां रे हां, एतो देखी जाणे नाव ॥ ज०॥चौद रज्ज्वात्मक नेदीने रे हां, एतो शिव सुख ते नित्य पावल॥७॥ चौद लाख मनु योनिनारे हां,ए तो बूटीयें दुःखथी जीव ॥ ज० ॥ श्म जाणी चऊदश आदरो रे हां, एतो दिल करि नाव अतीव ॥न॥ ॥ ॥ चउदशना गुण सांजली रे हां, धरियें सुवि हित बुध ॥ नम्॥लब्धिविजय रंगे करी रे हां, एतो लहिये कि समृकि रे॥ ज० ॥ ए ॥ इति ॥ ॥अक्क पूर्णिमानी ससाय प्रारंजः ॥ । ॥सुमला संदेशो रे कहे माहरा पूज्यने रे ॥ ए देशी ॥ पूनम कहे नव्य जीवनें रे, सांजलो सद्गुरु वाणी रे ॥ अथिर तन धन आउखु रे, जलबुद Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद ४४ए परें जाण रे ॥ जावें हे नवियण सांजलो ॥ ए आं कणी ॥१॥ असार संसारने पेखीने रे, धर्मशुंध रो प्रतिबंध रे ॥ बांधव सयण ए जाणजो रे, खार्थ नूत संबंध रे ॥ ना॥२॥ सकल कुटुंबनें पोषवा रे, जे नर करेय ने पाप रे ॥ तेह तणां रे फल दो हिला रे, सहेशे ते एकलो श्राप रे ॥ ना० ॥३॥ जिम मृग तृष्णाने कारणे रे, जमतो रणमां धाय रे ॥ नमे पजे ए जीवमो रें, नव नव पुःखीयो थायरे ॥ ना ॥४॥ ए धन घरणी ए धामने रे, कां न ले गयो साथ रे ॥ जिहां जश्ने जीव उपनो रे, ति हां सहि होये तेहनें हाथ रे ॥ ना ॥ ५॥ श्म जाणीने धर्म कीजीयेंरे, टाली ते विषय विकार रे ॥ दिन दिन दोलत अनिनवी रे, पामियें हर्ष श्र पार रे ना० ॥६॥ पूरण जीवितव्य पामीने रे, श्रा दरो प्रण धर्म रे ॥ पूरण शांत स्वजावथी रे, पूर ण बेदो ए कर्म रे ॥ ना० ॥७॥ पूरण जन्म जरा थकी रे, पूरण बूटी फुःख रे ॥ पूरण लीला पा मीयें रे, पूरण सुरनर सुख रे ॥ ना ॥७॥ पूरण पन्नर सिझना रे जाणियें पूरण नेद रे ॥ पूरण पंद र योगना रे. ते पण नावनिर्वेद रे ॥ जाण ॥ ए ॥ पंदर जातिना नाखियां रे, परमाधामी जोर रे॥ ॥ते पण दुःखथकी बूबी रे, टाली ते कर्म अघो र रे ॥ ना ॥ १० ॥ पंदर कर्म नूमि उलखी रे, Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० जैनधर्मसिंधुः बंगो कषाय ते शोल रे ॥ नवियण दिन दिन पा मी रे, संपदा पुण्यरंग रोल रे ॥ ना० ॥११॥ जिम शशी शोलकली सही रे, नांखे जिनवर वाच रे॥ तिम ए धर्म कला सशी रे, पामीयें जगतमांसाच रे ॥ ना० ॥ १२ ॥ पूरणमासी ए जाणीने रे, जे स सही करशे ए पुण्य रे ॥ विजयलब्धि ते पामशे रे, दिन दिन निज सुखतन्न रे ॥ ना० ॥ १३ ॥ श्राम चउदश पूर्णिमा रे, अंग उपांगें अधिकार रे ॥ जिनवरें कहियो माहानिशीथमां रे, बीजप्रमु खनो विचार रे ॥ ना ॥ १४ ॥ ते सवि जाणो व्यव हारथी रे, धर्म उद्यम उपदेश रे ॥ निश्चयमार्गे अ प्रमादी जे होवे रे, ते पाले पंदर तिथि विशेष रे॥ ॥जाम् ॥ १५ ॥ एम जाणीने जवि जावियें रे, अव्य ने नावथी धर्म रे ॥ सघली तिथि आराधतां रे, लब्धि कहे सदा सुख शर्म रे जा ॥ १६ ॥ ॥अथ उपदेशी पद ॥ में हुं मुसाफर पाया हो प्यारा, नही को मे रा॥ नही० ॥ जनम दुवा तब अपना कहावे, न ही रेहेणेका डेरा हो प्यारा ॥ नही० ॥१॥ सजन कुटुब सब अपना कहावे, ज्युं तीरथका मेला हो प्यारा ॥२॥धन कंचन कबु स्थिर नही रेहेणां, ज्यु बादलका घेरा हो प्यारा ॥नही॥३॥ रुपचंद कहे प्रेमकी बातां, ज्युं धानीका फेरा हो प्यारा॥४ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिच्छेद ४५१ ॥ अथ उपदेशी प्रजाती पद ॥ जाग जाग रयण गश्नोर नयो प्यारे ॥ पंचकुं प्रपंच कर, वश यारे ॥ जाग जाग रयण गइ जोर जयो प्यारे ॥१॥ ए आंकणी ॥ तृषनामे मीन मरे, नोगमें मतंगा ॥ श्रवणमें कुरंग मरे, नयनमें पतंगा ॥ जाण ॥२॥ वासनामें चमर मरे नासा रस लेतां ॥ एक एक इंजीसंग, मरे जीव केता ॥जा॥३॥ पंचके पड्यो तुं फंद, कयुं कर वश आवे ॥ मार तुं मन इछा नूत, ज्युं निरंजन पावे ॥ जाग० ॥४॥ ॥अथ प्रनाती रागमां पद ॥ में परदेशी दूरका, प्रजु दरसनकुं आया ॥ला ख चोराशी देश फिरया, तेरा दरिसन पाया ।मे॥ ॥ १ ॥ सूदम बादर निगोदमें, वनस्पति बसाया ॥ अप तेज वायुकायमें काल अनंत गमाया ॥ में ॥ ॥२॥ स्वर्ग नर्क तिर्यंचमें, केता जन्म गमाया ॥ मनुष्य अनारजमें नम्या, तिहां नही दरिसन पा या ॥ में० ॥३॥ तेरो मेरो दरिसन अब नयो, पुर न पुन्य पसाया ॥ रुपचंद कहे नाग्य खुले, निरंज न गुण गाया ॥ मे ॥ ४ ॥ इति ॥ ॥अथ मनहित शिक्षानुं पद ॥ ॥राग कल्याण ॥रे मन लोनी तेरो कोण पति यारो ॥रे मन ॥ आठ गांउको सांगे मीगे, गांठ गांठ रस न्यारो ॥रे मन० ॥१॥ डिनमें उरे पल Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ जैनधर्मसिंधु कमें दूजो, घमी घमी दिलसे न्यारो ॥ रे मन ॥ ॥॥ चचंल मन वरज्यो नही माने, प्रजुनवपार उतारो ॥रे मन लोनी.॥३॥ इति ॥ ॥अथ वैराग्यपद ॥ ॥राग बेलावल ॥ रे मन कयुं जिन नाम विसा रयो ॥ कयुं ॥रे मनः ॥ विषय विकार महामद धारयो, जनम जुया ज्युं हारयो ॥रे मन ॥१॥ जीने तोकुं नरदेही दीनी, गर्नकी आंच उछारयो । प्रजुजीकुं तें शठ मूरख, एक घमी न संनार्यों ॥ रे मन० ॥२॥ नही कब दान शियल तप पूजा, न ही जीन नाम उच्चार्यों ॥ जैन धर्म चिंतामणी सरी खो, काच जाणकर मार्यों ॥ रे मन ॥३॥ कर ले सुकृत दया उझरले, जो जव चाहत सुधार्यों ॥ हर खचंद वर्धमान जीनेसर अवसर माहेन संजार्यो ॥ रे मन ॥४॥ इति ॥ ॥वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥राघ जंगलो काफी ॥ जगमें नही तेरा कोश, नर देखहु निहचें जो ॥ जग ॥ ए श्रांकणी ॥ सुत मात तात अरु नारी, सहु स्वारथके हीतकारी बिन स्वारथ शत्रु सोश ॥ जग ॥ १॥ तुं फीरत महा मदमाता, विषयन संग मूरख राता ॥ निज संगकी सुध बुक खोइ ॥ जग ॥२॥ घट झानक ला नवि जाकुं, पर निज मानत सून ताकुं॥ श्राख Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद ४५३ र पडतावा हो ॥ जग ॥३॥ नवि अनुपम नर जव हारो, निज शुरू स्वरुप निहारो ॥ अंतर मम ता मल धो॥ जग ॥ ४ ॥ प्रजु चिदानंदकी वा पी, धार तुं निश्चे जग प्राणी ॥ जिम सफल होत जव दोश् ॥ जग ॥५॥ इति ॥ ॥वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥ जूनी जूठी जगतकी माया, जिन जाणी नेद तिन पाया ॥ जू ॥ ए श्रांकणी ॥ तन धन जोबन सुख जेता, सऊ जाणहुँ अस्थिर सुख तेता ॥ नर जिम बादलकी बाया ॥ जूती ॥१॥ जिम अनित्य नाव चित्त आया ॥ लख गलित वृषनकी काया ॥ बूजे कर कंमुराया ॥ जूठी ॥ २ ॥ श्म चिदानंद न मनमांही, कबु करीए ममता नाहीं ॥ सदगुरुए नेद लखाया ॥ जूठी ॥३॥ ॥वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥राग प्रजाती ॥ मान कहा अब मेरा मधुकर ॥ मान ॥ ए आंकणी ॥ नाजिनंदके चरण सरोज में, कीजे अचल बसेरा रे ॥ परिमल तास लहत मन सेहेजे, त्रिविध पाप उतेरा रे ॥ मान ॥१॥ जदित निरंतर ज्ञान नान जिहां, तिहां न मिथ्यात अंधेरा रे ॥ संपुट होत नही ताते कहा, सांज क हा सवेरा रे ॥ मान० ॥२॥ नहितर पडतावोगे Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ जैनधर्मसिंधु प्रखर बीतगया यो वेरा रे ॥ चिदानंद प्रभु पदपंक ज सेवत, बहुरि न होय जव फेरारे ॥ मान० ॥ ३॥ ॥ वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥ राग धनाश्री ॥ मूल्यो जमत कहा वे जा न ॥ मूल्यो० ॥ ए यांकणी ॥ श्राल पंपाल सकल तज मूरख कर अनुभव रस पान ॥ क० १ ॥ आप कृ तांत गड़ेगो इक दिन, हरि मृग जेम यचान ॥ होयगो तन धनथी तुं न्यारो, जेम पाको तरु पान ॥ कल्यो० ॥ २ ॥ मात तात तरुणी सुत सेंती, गर ज न सरत निदान ॥ चिदानंद ए वचन हमारो, धर राखो प्यारे कान ॥ कट्यो ॥ ३ ॥ इति ॥ ॥ वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥ राग जैरव ॥ जागरे बटाउ अब, जइ जोर वेरा ॥ जाग० ए यांकणी ॥ जया रविका प्रकाश, कुमुद ये विकास || गया नाश प्यारे मिथ्या, रेनका अंधेरा ॥ जा० ॥ १ ॥ सूता केम यावे घाट, चालवी जरुर वाट || कोइ नांहि मित्त परदेश में ज्युं तेरा ॥ जा० ॥ २ ॥ अवसर बीत जाय, पिबे पिबतावो थाय ॥ चिदानंद निहचें, ए मान कहा मेरा ॥ जागरे बटाउ अब जइ जोर वेरा ॥३॥ इति ॥ अथ वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥ राग आशावरी ॥ घट विणसत वार न लागे ॥ उघट ॥ ए झांकणी ॥ याके संग कहा श्र Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमपरिछेद ४५५ ब मूरख, बिन बिन अधिको पागे ॥ श्रो॥१॥ काया गमा काचकी शीशी, लागत ठणका नागे ॥ उ घट ॥५॥ श्रावि व्याधि व्यथा कुःख ऋण न व, नरकादिक फुनि आगे ॥ मगहु न चलत संग विण पोष्या, मारगहमें त्यागे ॥ ७० ॥३॥ मदबक बाक गहेल तज वीरला, गुरु किरपा कोउ जागे ॥ तनधन नेह निवारी चिदानंद, चलीये ताके सागे ॥1॥४॥ इति ॥ ॥अथ वैराग्यपदेशी पद ॥ ॥ राग बिनास ॥ जूठी जग माया नर केरी काया, जिम बादरकी गया मारी॥ ए श्रांकणी ॥ ज्ञानंजन कर खोल नयण मम, सदगुरु श्णे विग प्रगट लखारी ॥ जूठी० ॥ मूल विगत विषवेल प्रगटीश्क, पत्र रहित त्रिजुवनमें गरी॥ तास पत्र चुण खात मिरगवा, मुखबीन अचरिज देख हुंआरी ॥ जूठी॥२॥पुरुषएक नारी निपजाइ, तेतो नपुंसक घरमें समाश्री॥पुत्र जुगल जायेति णवालाते जगमा हे अधिक फुःख दारी ॥ जूठी० ॥ ३॥ कारण बिन कारजकी सिकि, केम नश् मुख कही नवि जारी ॥ चिदानंद एम अकल कलाकी, गति मति को विरले जन पारी॥ जठी ॥४॥ इति ॥ ॥ अथ ज्ञानोपदेशी पद ॥ ॥ राग सारंग ॥ मेरे घट ग्यात नानु नयो Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ जैनधर्मसिंधु. नोर ॥ मेरे ॥ चेतन चकवा चेतन चकवी, जागो विहरको सोर ॥ मेरे ॥ १॥ फैली चिंहु दीश चतु रा नाव सचि, मिट्यो नरम तम जोर ॥ आपकी चोरी आपही जानत, औरे कहत न चोर ॥ मेरे ॥२॥ अमल कमल विकस नये नूतल, मंद विष य शशी कोर ॥ श्रानंद घन एक वल्लन लागत, और न लाख किरोर ॥ मेरे ॥३॥ इति पद ॥ ॥ अथ वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥राग कल्याण ॥ या पुद्गलका क्या विसवासा, है सुपनेका वासारे ॥ या ॥ ए आंकणी ॥ चमत कार बिजुली दे जैसा, पाणी बीच पतासा ॥ या देहीका गर्व न करना, जंगल होयगा वासा ॥ या ॥१॥ जूठे तन धन जूठे जोखन, जूठे है घरवा सा ॥ आनंद घन कहे सवही जूठे, साचा शिव पुर वासा ॥ या ॥२॥ इति ॥ ॥इति पंचम परिवेद समाप्त ॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद. ४५७ ॥शष्ठमपरिवेद प्रारंजः॥ ॥ अथ श्रीगौतमाष्टक बंद ॥ ॥ वीर जिणेसर केरो, शिष्य, गौतम नाम जपो निशदीश ॥ जो कीजें गौतमनुं ध्यान, तोघर विल से नवे निधान ॥ १॥ गौतम नामें गिरि वर चडे मनोवांडित हेला संपजे ॥ गौतम नामें नावे रोग, गौतम नामें सर्व संजोग ॥२॥ जे वैरी विरूया वंकडा, तस नामें नावे दुकमा ॥ नूत प्रेत न विमंडे प्राण, ते गौतमनां करुं वखाण ॥३॥ गौतम नामें निर्मल काय, गौतम नामें वाधे श्राय ॥ गौतम जि नशासन शणगार, गौतम नामें जय जयकार ॥४॥ शाल दाल सुरहा घृत गोल, मनोवांबित कापम तंबोल ॥घरसुघरिणी निर्मल चित, गौतम नामें पुत्र विनित ॥५॥ गौतम उदयो अविचल जाण, गौत म नाम जपो जग जाण ॥ महोटा मंदिर मेरुसमान, गौतम नामें सफल विदाण ॥६॥ घर मयगल घोमानी जोम, वारू पहोंचे वांबित कोम ॥ मही यल माने महोटा राय, जो तुठे गौतमना पाय ॥७ ॥ गौतम प्रणम्यां पातक टले, उत्तम नरनी संगत मले ॥ गौतम नामें निर्मल ज्ञान, गौतम नामें वाधे वान ॥ ७ ॥ पुण्यवतं अवधारो सहु, गुरु गौतमना Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ जैनधर्मसिंधु गुण जे बहु ॥ कहे लावण्यसमय कर जोक, गौत तू संपत्ति कोम ॥ ए॥ इति ॥ ॥अथ श्री तिजयपहुत्त प्रारंज ॥ ॥तिजयपहुत्त पयासय, अह महापामिरजुत्ता णं ॥ समय रिकत्त विश्राणं, सरेमि चकं जिणंदाणं ॥१॥ पणवीसाय असीश्रा, पन्नरस पन्नास जिण वर समूहो ॥ नासेउ सयल रिश्र, नविश्राणं नत्ति जुत्ताणं ॥२॥ वीसा पणया लाविय, तीसा पन्नत्तरी जिणवरिंदा ॥ गहन्नू रक सारणि, घोरु वसग्गं पणासंतु ॥ ३ ॥ सित्तिरि पणतीसाविय, सही पंचेव जिणगणो एसो ॥ वाहि जल जलण हरि करि, चोरारि महानयं हरज ॥४॥ पणपन्नाय दसेव य, पन्नही तहय चेव चालीसा ॥ रकंतु मे सरीरं. देवासुर पणा मिश्रा सिया ॥ ५॥ उ हरहुँ हः सरसुंसः, हरहुंहः तहचेव सरसुंसः ॥ श्रालिहिय नाम गणं, चकं किर सबउँनई ॥ ६ ॥ उ रोहिणी पन्नत्ती, वासिंखला तहय वऊअंकुसिया ॥ चके सरि नरदत्ता कालि महाकालि तह गोरी ॥७॥ गंधारी महाजाला, माणवि वझट्ट तहय अजुत्ता ॥ माणसि महमाण सिश्रा, विद्यादेवी रकंतु ॥७॥ पंचदस कम्म नूमिसु, उप्पन्नं सत्तरं जिणाणसयं ॥ विविद रयणाश्वन्नो, वसोहिअं हरउ पुरियाई ॥ ए ॥ चउतीस अश् सय जुश्रा, श्र: महापाडि Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद. ४५ए हेर कयसोहा ॥ तिबयरा गयमोहा, काएथवा पय त्तेणं ॥ १० ॥ ॐ वरकणय संख विद्युम, मरगय घण सन्निहं विगयमोहं ॥ सत्तरिसय जिाणणं, सवामर पूश्वं वंदे ॥ स्वाहा ॥ ११ ॥ ॐ जवणवर वाण वंतर, जोश्सवासी विमाणवासी अ॥॥ जे केवि पुछ देवा, ते सवे जवसमंतु मम ॥ स्वाहा ॥ १२ ॥ चंदण कप्पूरेणं, फलए लिहिजण खालिशं पीयं ॥ एगंतरा गहनूश्र, साइणि मुग्गं पणासेश ॥ १३ ॥ श्य सत्तरिसयं जंतं, सम्मं मंतं, कुवारि पमिति हि ॥ हरिपारि विजयवंतं, निनंतं निच्चमच्चेद ॥ ॥ १४ ॥ इति ॥१॥ ॥अथ श्री नमिऊणनामक स्मरणं लिख्यते ॥ ॥ नमिऊण पणय सुरगण, चूमामाणि किरण रंजिअं मणिणो ॥ चलणजुश्रलं महालय, पणासणं संथवं वुलं ॥ १॥ सडिय कर चरण नह मुह, निबु नासा विवन्न लायन्ना ॥ कुछ महा रोगानल, फुलिंग निद्दल सवंगा ॥२॥ ते तुह चलणा राहण, सलिलंजलि सेय वुद्विय बाया (उबहा) वण दव दहा गिरिपा, यव व पत्ता पुणो लबी ॥३॥ पुवाय खुप्रिय जलनिहि, उनम कबोल जीसणारावे ॥ संनं त नय विसंतुल, निद्यामय मुक्कवावारे ॥ ४ ॥ श्रवि दलित्र जाणवत्ता, खणेण पावंति इनिअं कूलं ॥ पास जिण चलण जुश्रलं, निच्चंचिथ जेन मंति Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० जैनधर्मसिंधु नरा ॥ ५ ॥ खर पवणुडुत्र वणदव, जालावलि मिलिय सयल डुम गहणे ॥ उनंत मुद्ध मय वसु, जीसणरव जी सणंमि वणे ॥ ६ ॥ जगगुंरुणो कमलं, निधाविष्य सयल तिहु णानोयं ॥ जे संजरं ति मणु, न कुणइ जलणो जयं तेसिं ॥ ७ ॥ विलसंत जोग जीसण, फुरियारुण नयण तरल जी हालं ॥ उग्गजुगं नवजलय सबदं जीसयायारं ॥८॥ मन्नंति कीम सरिसं दूर परिढ विसम विसवेगा ॥ तुह नामरकर फुमसि, द्धमंत गुरुवा नरा लोए ॥ ॥ वसु जिल्ल तक्कर, पुलिंद सद्दुल सहनी मासु ॥ जय विदुर बुन्नकायर, जनुरि पहि सासु ॥ १० ॥ विलुत्त विवसारा, तुह नाह पणाम मत्त वावोरा ॥ ववगय विग्धा सिग्धं, पत्ता हिय इयिं गणं ॥ ११ ॥ पलि नलनयणं, दूरवियारियमु हं महाकायं ॥ नह कुलिसघाय विचलिछा, गद कुंजलानोयं ॥ १२ ॥ पणय ससंजम पचिव, नह मणिमाणिक्क पाि पमिस्स ॥ तुह वयणपदण धरा, सीदं कुछपि न गति ॥ १३ ॥ ससिधवल दंतमुसलं, दीहकरुल्लाल बुढि उचाई || महुपिंग नयणजुलं, ससलिल नवजलहरारावं ॥ १४ ॥ जीमं महागदं श्रच्चासन्नंपि ते नवि गणं ति ॥ जे तुझ चलण जुलं, मुवि तुंगं समलीया ॥ १५ ॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिच्छेद . ४६१ समरम्मि तिरक खग्गा, निग्धाय पविद्ध उद्भूय कबं धे ॥ कुंत विविनिन्न करि कलह, मुक्कसिकार परं मि ॥ १६ ॥ निकिय दप्पुकर रिज, नरिंद निवदा डा जसं धवलं ॥ पावंति पाव पसमिए, पासजि तुह पावे ||१७|| रोग जल जलए विसहर, चोरारि मद गय रण जयाई ॥ पास जिए नाम संकी, तणेण पसमंति सवाई ॥ १७ ॥ एवं महा जयहरं, पास जिनिंदस्स संथवमुयारं ॥ जविय जणा दरं, कल्ला परंपर निहाणं ॥ १० ॥ राय जय जरकररकस, कुसुमिण दुस्सउण रिकपीमासु ॥ संकासु दोसु पंथे, उवसग्गे तहय रयणीसु ॥ २० ॥ जो पढइ जो छ निसुबइ, ताणंकइलो य माणतुंग स्स || पासो पावं पसमेज, सयल जुवण च्चियां चलणो ॥ २१ ॥ उवसग्गंते कमठा, सुरम्मि जापान जोन सं चलि ॥ सुरनर किन्नर जुवईहिं, संधु जयन पा सजिलो ||२२|| एस्स मनुयारे, श्रहारस अरकेरहिं जो मंतो ॥ जो जाइ सो काय, परम पयचं फुरुं पासं ॥ २३ ॥ पासह समरण जो कुपर, संतुठे हिययेण ॥ अत्तर सय वाहि जय, नासर तस्स दूरेण ॥२४॥ ॥ अथ श्री जक्तामर स्मरणं प्रारंजः ॥ ॥ जक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रमाणा, मुद्योतकं दलित पापत मोवितानम् ॥ सम्यक् प्रणम्य जिन पादयुगं युगादा, वालंबनं जवजले पततां जनानाम् Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जैनधर्मसिंधु ॥ १ ॥ यः संस्तुतः सकलवाङ् मयतत्त्वबोधा, डुद्र नूतबुद्धि पटुभिः सुरलोकनाथैः ॥ स्तोत्रैऊंग त्रितय चित्त हरैरुदारैः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेंद्र म् ||२|| बुला विनापि विबुधार्चित पादपीठ, स्तोतुं समुद्यतम तिर्विगतत्र पोऽहं ॥ वालं विहाय जलसं स्थितमिंडु बिंब, मन्यः क इछति जनः सहसा ग्रही तुं ॥ ३ ॥ वक्तं गुणान् गुणसमुद्र शशांककांतान्, क स्वे दमः सुरगुरु प्रतिमोपि बुद्ध्या ॥ कल्पांत कालप वनोद्ध तनक्रचकं, कोवा तरीतुमल मंबुनिधिं भुजा ज्याम् ॥ ४ ॥ सो s हं तथापि तव नक्ति वशान्मु नीश, कर्तुं स्तवं विगत शक्तिरपि प्रवृत्तः ॥ प्रीत्यात्म वीर्यमविचार्य मृगोमृगेंद्र, नान्येति किंनिज शिशोः परिपालनार्थम् ॥ ५ ॥ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास धाम, त्वदनक्तिरेव मुखरीकुरु ते बलान्मां ॥ यत्को किलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारु च्यूतक लि का निकरे कहेतुः ॥ ६ ॥ त्वत्संस्तवेन जवसंत तिस निबद्धं, पापं क्षणात्य मुपैतिशरीर जाजाम् ॥ यात्रांत लोकमलिनी लमशेषमाशु, सूर्याशु निन्नमिव शार्वर मंधकारम् ॥ ७ ॥ मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद, मारज्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ॥ चेतो हरिष्यतिसतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफल द्युतिमुपैति नन्दबिंदुः ॥ ८ ॥ श्रास्तां तव स्तवन मस्तसमस्त दोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरिता निहंति ॥ दूरे सह Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिछेद. ४६३ स्रकिरणः कुरुते प्रजैव, पद्मा करेषु जलजानि विका शनांजि ॥ ए ॥ नात्यद्भुतं भुवन भूषणभूतनाथ, जूते गुणैर्जु विजवंतम निष्टुवंतः ॥ तुल्या जवंति जवतो ननु तेन किंवा मूत्याश्रितं यह नात्मसमं करोति ॥ १० ॥ दृष्ट्वा जवंतम निमेषविलोकनीयं नान्यत्र तो षमुपया तिजनस्य चक्षुः ॥ पीत्वा पयः शशिकर युतिदुग्धसिंधोः, दारं जलं जलनिधेर शितुं कश्छेत् ॥ ११ ॥ यैः शांतराग रुचिजिः परमाणुनिस्त्वं, निर्मा पितस्त्रिभुवनै कललामभूत ॥ तावंतएव खलु तेप्य णवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥ १२ ॥ वक्रं क्व ते सुरनरोरग नेत्रहारि, निः शेषनिर्जित जगत्रित योपमानम् ॥ बिंबं कलंकमलिनं क निशा करस्य, यद्वासरे जवति पांऊप लाशकल्पम् ॥ १३ ॥ संपूर्ण मंगल शशांक कलाकलाप, शुत्रागुणा स्त्रिभु वनं तव लंघयंति ॥ ये संश्रितास्त्रि जगदीश्वर ना थमेकं, कस्तान्निवारयति संचरतोय थेष्टम् ॥ १४ ॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशागनानि, नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् ॥ कल्पांत कालमरुता चलि ताचलेन, किं मंदराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५ ॥ निर्झमवर्त्तिरपवर्जिततैलपूरः कृत्स्नं जगत्र यमिदं प्रकटीकरोषि ॥ गम्योनजातु मरुता चलता चलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ॥ १६ ॥ नास्तं कदाचिडुपयासि नराहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जैनधर्मसिंधु. सहसा युगपऊगंति ॥ नांजोधरोदरनिरुकमहाप्रजा वः, सूर्यातिशा यिमहिमासि मुनीं लोके ॥ १७॥ नि त्योदयं दलितमोहम हांधकारं, गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ॥ विज्राजते नव मुखाब्जमनपकांति, विद्योतयङगदपूर्वशशांकबिंबम् ॥ १७॥ किंशर्वरी षु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेंदलिते षुत मस्सु नाथ ॥ निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियझालधरैर्जलनारनप्रैः ॥ १५ ॥ ज्ञानं य था त्वयि विनाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरा दिषु नायकेषु ॥ तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा मह त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेपि ॥२०॥ मन्ये वरं हरिहरा दयएव दृष्ट्वा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ॥ किं वदितेन जवता नुवि येन नान्यः, कश्चिन्म नोहरति नाथ नवांतरेपि ॥ २१॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान, नान्या सुतं त्वउपमं जननी प्रसूता॥सर्वादिशो दधति जानिसह स्त्ररश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु जालम् ॥२२॥त्वामा मनंति मुनयः परमं पुमांस, मादित्य वर्णममलं तम सः परस्तात् ॥ त्वामेव सम्यगुपलच्य जयंति मृत्यु नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनिज पंथाः ॥२३॥ त्वाम व्ययं विनुमचिंत्यमसंख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वरमनं त मनंग केतुम् ॥ योगीश्वरं विदित योगमने कमेकं, झानखरूप ममलं प्रवदंति संतः ॥ २४ ॥ बुझ स्त्व Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५ शष्ठमपरिद मेव विबुधार्चित बुद्धिबोधात्, त्वं शंकरोसि जुवन त्रयशंकरत्वात् ॥ धातासि धीर शिवमार्ग विधेर्विधा नात्, व्यक्तं त्वमेव जगवन् पुरुषोत्त मो ऽसि ॥२५॥ तुभ्यं नम स्त्रिजुवनार्त्ति हराय नाथ, तुज्यं नमः दितितलामल नूषणाय ॥ तुज्यनम स्त्रिजगतः परमे श्वराय, तुज्यं नमोजिन नवो दधिशोषणाय ॥२६॥ कोविस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै, स्त्वंसं श्रितो निरवकाशतया मुनीश ॥ दोषैरुपात्त विविधा श्रय जातगर्वैः स्वप्नांतरेपि न कदाचिद पीक्षितोसि ॥२७ ॥ उच्चै रशोकतरु संश्रित मुन्मयूख, मानाति रूप ममलं नवतोनितांतम् ॥ स्पष्टोल्लसत्किरण मस्ततमो वितानं, बिंबं रवेरिव पयोधर पार्श्ववर्ति ॥२७॥ सिंहासने मणिमयूख शिखाविचित्रे, विजाजते तव वपुः कनकावदातम् ॥ बिंबं वियहिल सदंशलतावि तानं, तुंगोदयाडि शिरसीव सहस्ररश्मेः ॥ए ॥ कुंदावदात चलचामर चारुशोनं, विचाजते तव वपुः कलधौतकांतम् ॥ उद्यबशांकशुचि निर्जरवारिधार, मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिवशातकौनम् ॥ ३० ॥ बत्रत्रयं तवं विनाति शशांककांत, मुच्चैःस्थितं स्थगितजानु करःप्रतापम्॥ मुक्ताफलप्रकरजाल विकृतशोनं,प्रख्या पय त्रिजगतः परमेश्वरत्वंम् ॥ ३१ ॥ उन्निबहेमनव पंकजपुंजकांति, पर्युद्धसन्नखमयुखशिखानिरामौ ॥ पादौपदानि तव यत्र जिनेंस धत्तः, पद्मानि तत्र Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ जैनधर्मसिंधु. विबुधाः परिकल्पयंति ॥ ३२ ॥ छं यथा तव विनू तिरनूजिनेंद्र, धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य ॥ यादृक् प्रजा दिनकृतः प्रदतांधकारा, तादृकुतो ग्रहग एस्य विकाशिनोपि ॥ ३३ ॥ श्योतन्मदा विल विलोलक पोलकमूल, मत्तमद चमरनाद विवृद्धकोपम् ॥ ऐरा वतानमिजमुद्धतमापततं दृष्टा जयं जवति नो जव दाश्रितानाम् ॥ ३४ ॥ निन्नेजकुंनगलडुज्वलशोणि ताक्त, मुक्ताफलप्रकरनूषितनू मिजागः ॥ बद्धक्रमःक मगतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रमयुगाचलसं श्रितं ते ॥ ३५ ॥ कल्पांतकाल पवनोद्धतवह्निकल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्लमुत्फुलिंगम् विश्वजिघत्सु मि व संमुखमापतंतं, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥ ३६ ॥ रक्तेक्षणं समदको किलकंठनीलं, क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतंतम् ॥ श्रक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंक, स्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥ ३७ ॥ वल्गत्तुरंगगजगर्जित जीमनाद, माजौ बलं बलवतामपि जूपतीनां ॥ उद्य दिवाकरमयूख शिखा पविद्धं, त्वत्कीर्तनाथमश्वाशु निदामुपैति ॥ ३८ ॥ कुंताग्र जिन्न गजशोणित वारिवाद, वेगावतारतरुणातु रोधी ॥ युद्धे जयं विजितडुर्जयजेयपक्षा, स्व त्पादपंकजवनाश्रयिणो लनंते ॥ ३७ ॥ अंजोनिधौ दुजितनी पणनचक्र, पाठीनपीठजय दोल्बणवावा नो ॥ रंगतरंग शिखर स्थितयानपात्रा स्त्रासं विहाय Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद ४६७ जवतःस्मरणावति ॥४०॥ उदूनूतनीषणजलो दरनारजुग्नाः, शोच्यां दशामुपगताश्युतजीविताशाः॥ त्वत्पादपंकजरजोमृतदिग्धदेहा, मा नवंति मकर ध्वजतुल्यरूपाः ॥ ४१ ॥ आपादकंठमुरुगृखलवेष्टि तांगा, गाढं बृहनिगमकोटिनिघृष्टजंघाः ॥ त्वन्नाम मंत्रमनिशं मनुजाः स्मरंतः, सद्यः स्वयंविगतबंधन या नवंति ॥ ४२ ॥ मत्तहिअमृगराजदवानलाहि, संग्रामवारिधिमहोदरबंधनोबम् ॥ तस्याशु नाशमुप याति जयं नियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमान धीते ॥ ४३ ॥ स्तोत्रस्रजं तव जिनेंगुणौनिबझां, जक्त्या मया रुचिरवर्ण विचित्रपुष्पां ॥ धत्ते जनो य श्ह कंठगतामजस्रं, तं मानतुंगमवशा समुपैति ल इमीः ॥ ४४ ॥ इति श्री जक्तामरस्तोत्रं संपूर्ण ॥ ॥ अथ श्रीकल्याणमंदिरस्तोत्रं प्रारज्यते ॥ ॥ वसंततिलकावृत्तम् ॥ ॥ कल्याणमंदिरमुदारमवद्यनेदि, नीताजयप्रदम निंदितमंघ्रिपद्मम् ॥संसारसागरनिमजदशेषजतुं, पो ता यमानमजिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥ यस्य स्वयं सुर गुरुर्गरिमांबुराशेः, स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विजुर्विधा तुम् ॥ तीर्थेश्वरस्य कमवस्मयधूमकेतो, स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥२॥ युग्मम् ॥ सामान्य तोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप, मस्मादृशाः कथमधीश जवंत्यधीशाः ॥ धृष्टोपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिव Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० जैनधर्मसिंधु धो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मेः ॥३॥ मोह दायादनुजवन्नपि नाथ मयों, नूनं गुणान् गणयितुं न तव दमेत ॥ कल्पांतवांतपयसः प्रकटोऽपि यस्मा, न्मीयेत केन जलधेननु रत्नराशिः ॥ ४॥ अज्युद्य तोस्मि तव नाथ जमाशयोऽपि, कर्तुं स्तवं लसदसं ख्यगुणाकरस्य ॥ बालोऽपि किं ननिजबाहुयुगं वित त्य, विस्तीर्णतांकथयति स्वधियांबुराशेः॥५॥ ये योगि नामपि न यांति गुणास्तवेश, वक्तं कथं नवति तेषु ममावकाशः ॥ जाता तदेव मसमीक्षित कारितेयं, ज पंति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ श्रा स्तामचिंत्यमहिमा जिनसंस्तवस्ते, नामापि पातिन वतो नवतो जगंति ॥ तीव्रातपोपहत पांथजनान्नि दाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ हृर्तिनि त्वयि विनो शिथिली नवंति, जंतोःणेन निबिमा अपि कर्मबंधाः ॥ सद्यो जुजंगम मया श्व मध्यनाग, मन्यागते वन शिखं मिनि चंदनस्य ॥७॥ मुच्यंत एव मनुजाः सहसा जिनें, रौषैरुपाव शतै स्त्वयि वीकितेऽपि ॥ गोवामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे, चारै रिवाशु पशवः प्रपलाय मानैः ॥ ए॥ त्वं तारको जिन कथं नविनां त एव, त्वामुहंति हृदयेन यमुत्तरंतः ॥ यहा दृतिस्तरति यजालमेषनु न, मंतर्गतस्य मरुतः स किलानुनावः ॥ १० ॥ य स्मिन्हर प्रनृतयोऽपि हतप्रनावाः, सोऽपि त्वयार Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद ४६ तिपतिः क्षपितः कणेन ॥ विध्यापिता दुत नुजः पयसाथ येन, पीतं न किं तदपि दुईरवामवेन ॥ ११ ॥ स्वामिन्न नपगरिमाण मपि प्रपन्ना, स्त्वां जं तवः कथमहो हृदये दधानाः ॥ जन्मोदधिं लघु तरंत्यति लाघवेन, चिंत्यो न दंत महतां यदि वा प्रावः ॥ १२ ॥ क्रोधस्त्वया यदि विजो प्रथमं निरस्तो, ध्वस्ता स्तदा बत कथं किल कर्मचौराः ॥ प्लोषत्यमुत्र यदिवा शिशिरापि लोके, नीलडूमाणि विपिनानि न किं हिमानी ॥ १३ ॥ त्वां योगिनो जिन सदा परमात्मरूप, मन्वेषयंति हृदयांबुज कोशदेशे ॥ पूत स्य निर्मल रुचेर्यदि वा किमन्य, दक्षस्य संजवि प दं ननु कर्णिकायः ॥ १४ ॥ ध्याना जिनेश जवतो नविनः क्षणेन, देहं विहाय परमात्मदशां व्रजंति ॥ तीव्रानला डुपल जावमपास्य लोके, चामीकरत्वम चिरादिव धातुभेदाः ॥ १५ ॥ अंतः सदैव जिनयस्य विजाव्यसेत्वं, जव्यैः कथं तदपि नाशय से शरीरम् ॥ एतत्स्वरूपमथ मध्य विवर्त्तिनोहि, यद्विग्रहं प्रशमयं ति महानुभावाः ॥ १६ ॥ श्रात्मा मनीषिजिरयं त्वदने दबुद्धया, ध्यातो जिनेंद्र ! जवतीह जवत्प्रजावः ॥ पा नीयमध्य मृतमित्यनु चिंत्यमानं, किंनाम नो विषवि कारमपाकरोति ॥ १७ ॥ त्वामेव वीततमसं परवादि नोपि, नुनं विजो हरिहरा दिधियाप्रपन्नाः ॥ किं का चकाम लिनिरीश सितोऽपि शंखो, नो गृह्यते विवि Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैनधर्मसिंधु धवर्णविपर्य येण ॥ २०॥ धर्मोपदेशसमये सविधानु जावा, दास्तां जनो नवति ते तरुरप्यशोकः ॥ अ न्युजते दिनपतौ स महीरहोपि, किंवा विबोधमु पयाति न जीवलोकः ॥ १७ ॥ चित्रं विनो कथमवा मुखवृंतमेव, विष्वक् पतत्य विरला सुर पुष्पवृष्टिः॥ त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश गति नूनम धएव हि बंधनानि ॥॥ स्थाने गनीर हृदयोदधि संनवायाः, पीयूषतां तवगिरः समुदीरयंति ॥ पीत्वा यतः परम संमदसंग नाजो, नव्या व्रजति तरसाप्य जरामरत्वम् ॥२१॥ खामिन सुदूर मवनम्यसमुत्प तंतो, मन्ये वदंति शुचयः सुरचामरोघाः ॥ येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुंगवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुजावाः ॥२२॥ श्यामं गनीरगिरमुज्वलहे मरत्न, सिंहासनस्थ मिह नव्य शिखंमिन स्त्वाम् ॥ आलोकयंतिरत्नसेन नदंत मुच्चै, श्वामी कराडि शिरसीव नवांबुवाहम् ॥२३॥ उद्गबता तव शितिद्युति मंमलेन, लुप्त बदछवि रशोक तरुर्बनूव ॥ सान्निध्य तोऽपि यदिवातववीतराग, नीरागतां व्र जतिको न सचेत नोपि ॥ २४ ॥ नोनोः प्रमाद म वधूय नजध्वमेन, मागत्य निवृतिपुरि प्रतिसार्थवा हम् ॥ एतनिवेदयति देवजगत्रयाय, मन्ये नदन्ननि ननः सुरकुंकुनिस्ते ॥२५॥ उयोतितेषुजवता नुवने षु नाथ, तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः॥ मुक्ताक Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद लाप कलितोवसितातपत्र, व्याजाविधा धृततनुर्बुव मन्युपेतः ॥२६॥ स्वेन प्रपूरितजगत्रयपिमितेन, कां तिप्रताप यशसामिव संचयेन ॥ माणिक्यहेमरजत प्रविनिर्मितेन, सालत्रयेण जगवन्ननितोविनासि ॥ ॥ २७ ॥ दिव्यसृजोजिन नमस्त्रिदशाधिपाना, मुत्सृ ज्य रत्नरचितानपि मौलिबंधान् ॥ पादौ श्रयंति जव तो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमंतएव ॥ २७ ॥ त्वं नाथ जन्मजलधेर्विपराङमुखोपि, यत्ता रयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान् ॥ युक्तं हि पार्थिवनि पस्य सतस्तवैव, चित्रं विनो यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥ श्ए ॥ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक पुगतस्त्वं, किंवा करप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश ॥ अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव, ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतुः ॥३॥ प्राग्लारसंत ननांसि रजांसि शेषाबापि तानि कमठेन शन यानि ॥ बायापितैस्तव न नाथ हताहताशो, ग्रस्तस्त्वमी निरयमेव परं पुरात्मा ॥ ॥ ३१ ॥ यदगर्जपुर्जितघनौघमदज्रजीमं, श्य तडिन्मुसलमांसल घोरधारम् ॥ दैत्येन मुक्तमथ स्तरवारि दभ्रे, तेनैव तस्य जिन उस्तरवारिकृत्यम् ॥ ३२ ॥ ध्वस्तोर्ध्वकेशविकृता कृतिमय॑मुंग, प्रालंब नृद् नयदवक विनिर्यदग्निः ॥ प्रेतबजः प्रतिनवंतम पीरितोयः, सोऽस्याऽजत्प्रतिनवं वपुःखहेतुः ॥३३॥ धन्यास्त एव जुवनाधिप ये त्रिसंध्य, माराधयंति Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. विधिवहिधुतान्यकृत्याः ॥ जत्योबसत्पुलकपदमल देहदेशाः, पादयं तव विजो नुवि जन्मनाजः ॥ ॥ ३४ ॥ अस्मिन्नपारलववारिनिधौ मुनीश, मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि ॥ श्राकर्णिते तु तव गोत्र पवित्रमंत्रे, किंवा विपहिषधरी सविधं समेति ॥३५॥ जन्मांतरेऽपि तव पादयुगं न देव, मन्ये मया महित मीहित दानददम् ॥ तेनेह जन्मनि मुनीश पराजवा नां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥ ३६ ॥नुनं नमोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विनोसकृदपि प्रविलो कितोऽसि ॥ मर्माविधो विधुरयंति हि मामनाः,प्रोद्य प्रबंधगतयः कथमन्यथैते ॥ ३० ॥ श्राकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीदितोऽपि, नुनं न चेतसि मयाविध तोऽसिनत्या ॥ जातोऽस्मि तेन जनबांधव पुःख पात्रं, यस्मा क्रियाः प्रतिफलंति न नावशून्याः ॥३॥ त्वं नाथ पुःखिजनवत्सल हे शरण्य, कारुण्य पुण्यव सते वशिनां वरेण्य, ॥ जक्त्या नते मयि महेश दयां विधाय, फुःखांकुरोदलनतत्परतां विधेहि ॥ ३५ ॥ निःसंख्यसारशरणं शरणं शरण्य, मासाद्य सादितरि पुप्रथितावदातम् ॥ त्वत्यादपंकजमपि प्रणिधानवं ध्यो, वध्योऽस्मिचेद जुवनपावन हा हतोऽस्मि ॥४०॥ देवेंऽवंद्य विदिता खिलवस्तुसार, संसारतारक विनो नुवनाधिनाथ ॥ त्रायस्व देव करुणाहृद मां पुनी हि, सीदंतमद्य नयदव्यसनांबुराशेः ॥४१॥ यद्यस्ति Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ शष्ठमपरिवेद. नाथ नवदंनिसरोरुहाणां, नक्तेः फलं किमपि संतति संचितायाः ॥ तन्मेत्वदेकशरणस्य शरण्य नूयाः, स्वा मीत्वमेव जुवनेऽत्र नवांतरेऽपि ॥ ४२ ॥ छ समा हितधियो विधिवजिनेंड, सांस्रोतसत्पुलककंचुकि तांग नागाः ॥ त्वबिंबनिर्मलमुखांबुजबहलक्या, ये संस्तवं तव विनो रचयंति जव्याः ॥ ४३ ॥श्रार्या॥ जननयनकुमुदचं,प्रनास्वराःस्वर्गसंपदो जुक्त्वा ॥ते विगलितमलनिचया, अचिरान्मोदं प्रपद्यते ॥ युग्म म् ॥ ४४ ॥ इति श्रीकल्याणमंदिरंसंपूर्ण ॥ ॥अथ वृक्ष गोतम स्वामीनो रासलिणवीर जिणे सर चरण कमल,कमला कय वासो ॥ पणमवि पजणी सुसामिसाल, गोयम गुरुरासो ॥ मण त्तण वयणे एकांत करवि, निसुणन नो जविया ॥ जिम निवसै तुम देह गेह, गुण गणं गह गहियां ॥१॥ जंबुझिव सिर नरह खित्त, खोणी तल मंमण ॥ मग ह देश सेणिय नरेस, रिज दल बल खंगण ॥ धण वर गुवर गांम नाम, जिहा गुणगण सजा ॥ विप्प वसै वसुलू तत्थ, तसु पुहवीजजा ॥२॥ ताण पुत्त सिरी इंद जुय,नूवलय पसिको॥ चउदद विजा विविह रूव, नारी रस लुको ॥ विनय विवेक विचार सार, गुण गणह मनोहर ॥ सात हाथ सुप्रमाण देह, रूवहि रंना वर ॥ ३ ॥-नयण वयण कर चरण जिण विपंकज जल पामिय, तेजेंहि तारा, ६० . Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ जैनधर्मसिंधु. चंद सूर, श्राकास जमामिय ॥ रूवहिमयण अनं ग करवि मेन्यो निरधामिय धीरमें मेरु गंजीर सिंधु, चंगम चयचाडिय ॥४॥ पेखवि निरुवम रूव जास, जिण जंपे किंचिय ॥ एकाकी किल जीत श्न, गुण मेल्या संचित्र अहवा निश्चे पुत्व जम्म, जिणवर इणअंचिय ॥ रंजा पजमा गौरी गंगा, रति हा विधि वंचिय ॥५॥ नहिं बुद्ध नहिं गुरु कवि न कोई, जसु श्रागल रहि ॥ पंचसया गुणपात्र बात्र, हीडे पर वरि ॥ करे निरंतर यज्ञकर्म, मिथ्यामति मोहिय ॥ इंण बल होशे चरम नाण, देसणह विसोहिय ॥६॥ वस्तु, बंद ॥ जंबूदीवह जंबूदीवह, नरद वासंमि, खो णीतलमंमणो, मगधदेस सेणिय नरे सर ॥ धण वर गुठवर गाम तिहां, विप्प वसे वसुजूर सुंदर, तसु पुहवी नजा सयल, गुणगणरुव निहाण ॥ ताणपुतवीद्या निल, गोयम अतिहि सुजाण ॥७॥ नाषा ॥ चरम जिणेसर केवल नाणी, चन विहसंघपश्ठाजाणी ॥ पावापुर सामी संपत्तो, चल विह देव निकायें जुत्तो ॥॥ देवें समवसरण तिहां कीजें, जिणे दी मिथ्यामति सीजे ॥ त्रिजुवन गुरु सिंहासण बश्शा, ततखिण मोह दिगते पहा ॥ ॥ ए ॥ क्रोध मान माया मद पूरा, जाये नाग जिम दिनचोरा ॥ देवहुंमुनि आकाशे वाजी, धर्म Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिच्छेद. ४७ नरेसर यावि गाजी ॥ १० ॥ कुसुमवृष्टि विरचे तिहां देवा, चोराड इंद्र जसु मागे सेवा ॥ चामर त्र सिरोवर सोदे, रूपेंहिं जिणवर जग सहु मोहे ॥ ११ ॥ उवसम रसजर जरी वरसंता, जोजन वाणी वखाण करता ॥ जाणवि व माण जिल पाया, सुर नर किन्नर वे राया ॥ १२ ॥ कंतिसमूहें फलफल कंता, गयण विमाऐं रणरणकंता ॥ पेखवि इंद्रभूइ मन चिंते, सुर यावे ह्म जगन होवंते ॥ १३ ॥ तीर तरंगक जिम ते वहता, समव सरण पुहता गहगहता ॥ तो अजिमानें गोयम जपे, इणि श्रवसरें कोपें तणु कंपे ॥ १४ ॥ मूढा लोक श्रजा पिढं बोले, सुर जाता इम कां मोले ॥ मूं आगल कोइ जाप जीजें, मेरु वर किम उपमा दीजें ॥ १५ ॥ वस्तु छंद ॥ वीर जिणवर वीर जिणवर नाण, संपन्न पावा पुरि सुर महिय पत्तनाद संसार तारण ॥ तिहिं देवेहिं निम्मविय समवसरण बहु सुरककारण ॥ ॥ जिणवर जग उजोय करे, तेजें करि दिनकार ॥ सिंहास सामिय वविर्ज, हुर्ज सुजयजयकार ॥ १६ ॥ जाषा | तो चढि घणमाण गर्जे, इंदनूइ नूय देव तो ॥ हुंकारो करी संचरि, कवण सुजिणवर देव तो ॥ जोजन भूमि समोसरण, पेखवी प्रथमारंज तो ॥ दह दिसि देखे विबुधवधू यावंती सुररंज तो ॥ १७ ॥ मणिमय तोरण दंगधजा, कोसीसे नव Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ जैनधर्मसिंधु. घाट तो ॥ वैरविवर्जित जंतुगण, प्रातीहारज श्राप तो ॥ सुर नर किन्नरअसुरवर, इं इंसाणी राय तो ॥ चित्ते चमकिय चिंतवे ए, सेवंता प्रजुपाय तो ॥ १० ॥ सहस किरणखामी वीर जिण, पेखवी रूप विसाल तो ॥ एह असंनव संजव ए, साचो ए इंस जाल तो ॥ तो बोलावे त्रिजग गुरु, इंजनू नामेण तो ॥ श्रीमुख संशय सामि सवे, फेडे वेदपएण तो ॥ १५ ॥ मान मेव्दि मद ठेलि करे, जगतें नामें सीस तो ॥ पंचसयाशुं व्रत लियो ए, गोयम पहिलो सीस तो॥बंधव संजम सुण वि करे,अगनिनू आवे ३ तो ॥ नाम लेश्यानाष करे, ते पण प्रतिबोधे तो ॥२०॥ श्णे अनुक्रमें गणहररयण, थाप्या वीर इग्यार तो ॥ तो उपदेशे नुवन गुरु, संजमशुं व्रत बार तो ॥बिहु उपवासें पारणु ए, आपण विहरंत तो ॥ गोयम सजम जग सयल, जयजयकार करत तो ॥ २१ ॥ वस्तुबंद ॥ इंदनूर इंदनू चढिय बहु मान ॥ हुंकारो करि संचरि, समवसरण पुह तो, तुरंततो ॥ इह संसय सामि सवे चरमनाह फेडे फुरंतो ॥ बोधबीज सद्याय मने, गोयम जवह विरत्त ॥ दिका लेश सिरका सहिय, गणहर गुण संपत्त ॥ २२ ॥ नाषा ॥ श्राज हु सुविहाण, अज पंचेलिमा पुण्य जरो ॥ दीगा गोयमसामि, जो निय नयणे अमिय जरो ॥ सिरिगोयम गणधार, पंचसया Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद. ४७७ मुनि परिवरिय ॥ नूमिय करय विहार, नवियांजन पमिबोह करे ॥ समवसरण मजार, जे जे संसा उप जे ए ॥ ते ते पर उपगार, कारण पूजे मुनिपवरो ॥२३ ॥ जिहां जिहां दीजेदिक, तिहां तिहां केव ल उपजे ए ॥ आप कन्हे अण हुँत, गोमय दीजें दान श्म ॥ गुरु उपर गुरु नत्ति, सामिय गोयम उप निय ॥ण बल केवल नाण, रागज राखे रंग जरे ॥२॥ जो अष्टापद शैल, वंदे चढि चनविस जिण श्रातम लब्धि वसेण, चरम सरीरी सोइ मुनि ॥ श्य देसणानिसुणेश, गोयम गणहर संचरि ॥ तापस पन्नरस एण,तो मुनि दीगे आवतोए ॥२५॥ तवसोसिय निय अंग, अम्ह सक्ति नवि उपजे ए॥ किम चढशे दृढकाय, गज जिम दीसे गाजतो ए॥ गिरु ए अजिमान, तापस जो मन चिंतवे ए॥ तो मुनि चढियो वेग, आलंबवि दिनकर किरण ॥३६॥ कंचण मणि निप्पन्न, दंग कलस धज वमस हिय ॥ पेख वि परमाणंद, जिनहर नरहेसर महि अनियनिय काय प्रमाण, चदिसि संविधजिणह बिंब ॥ पणमवि मन उदास, गोयम गणहर तिहां वसिय ॥ २७ ॥ वयर सामीनो जीव, तिर्यक् ज़ंजक देव तिहां ॥प्रतिबोधे पुंडरीक, कुंमरीक अध्ययन जणी ॥ वलता गोयम सामी, सवि तापस प्रतिबोध करे ॥ लेश आपणे साथ, चाले जिम जूथाधिपति Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ जैनधर्मसिंधु. ॥ २८ ॥ खीरखं घृत आणि अमिश्र वूठ अंगुठ वे ॥ गोयम एक पात्र करावे पारपुंसवे ॥ पंच सया शुभ जाव, उऊल नरि खीरमीसें ॥ साचो गुरुसंजोग, कवल ते केवल रूप हुई ॥ २७ ॥ पंच सया जिणनाह, समवसरण प्रकारत्रय ॥ पेखवि केवल नाण, उप्पन्नो उजोय करे ॥ जाणे जिल्ह पीयूष, गाजंती घणमेघ जिम ॥ जिवाणी निसुणे, नाणी पंचसया ॥ ३० ॥ वस्तुछंद ॥ इणे अनु क्रमेणे अनुक्रमें नापसंपन्न || पन्नर सय परवरिय, हरिय पुरिय जिणनाद वंदिय || जाणवी जगगुरु aru, तिह नाप अप्पा निंद ॥ चरम जिणे सर इम जाइ, गोयम मकरिस खेउ ॥ बेह जइ पण सही, होसुं तुल्ला बेउ ॥ ३१ ॥ जाषा ॥ सामि ए वीर जिणंद, पूनिम चंद जिम उल्ल सि ॥ विहरि ए जरहवासम्म वरिस बहुत्तर संवसिा ॥ तो एक पमेव, पायकमल संघें सहिश्र ॥ आ िए नयणाणंद, नयर पावापूरिसुरमहिय ॥ ॥ ३२ ॥ पेखी ए गोयम सामी, देवशर्मा प्रति बोध करे | आपण ए त्रिशला देव, नंदन पोतो परम पए ॥ वलतो ए देव आकाश, पेखवि जाणिय जिसमे ए ॥ तो मुनि ए मन विखवाद, नाद जेद जिम उपनो ए ॥ ३३ ॥ कुण समो ए सामिय देखि आप कहे हुं टालि ए ॥ जाणंतो ए तिहुश्रण Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपरिच्छेद ყJU नाह, लोक वेवहार न पालि कीधलुं सामि, जाणिऊ केवल ॐ ए बालक जेम, हवा के ए ए ॥ अति जलुं ए मागशे ए ॥ चिंतवि लागशे ए ॥ ३४ ॥ किम ए वीर जिणंद, जगतें जोलो जोल वि ए ॥ पण विल नेह नाह न संपे सूचव्यो ए ॥ साचो ए इह वीतराग, नेह न जेणें लालि ए ॥ इसमे ए गोयम चित्त, राग वेरागें वालि ए ॥ ३५ ॥ श्रावतो ए जो उलट, रहेतो रागें साहि ए ॥ केवल ए नाण उप्पन्न, गोयम सहेंजें उमा हि ए ॥ तिहु ए जयजयकार, केवल महिमा सुर करे ए ॥ गणहरु एकरय वखाण, जवियण जव इम निस्तरे ए ॥ ३६ ॥ वस्तुबंद || पढम गणहर पढम गढ़पर वरस पंचास गिहिवासें संवसिय ॥ तीस वरिस संजम विजू सिय॥ सिरिकेवल नाप पुष, बार वरिस तिहुयणनमंसिय ॥ रायगिहि नयरी हिं ववि, बाणवई व रिसाउं ॥ सामी गोयम गुण निलो, होशे शिवपुर वार्ड ॥ ३७ ॥ जाषा ॥ जिम सहकारें कोयल टहुके, जिम कुसुमवनें परिमल महेके, जिम चंदन सुगंधनिधि || जिम गंगाजल लहेरें लड़के, जिम कणयाचल तेजें फलके, तिम गोयम सौभाग्य निधि ॥ ३८ ॥ जिम मान सरोवर निवसे हंसा, जिम सुर वर सिरि कण्यवतंसा, जिम महुयर राजीव वनी ॥ जिम रयणायर रयणें विलसे, जिमांबर Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. तारा गण विकसें, तिम गोयम गुण केलिवनी ॥३॥ पूनिम निसि जिम ससिहर सोहे, सुरतरु महिमा जिम जग मोहे, पूरव दिसि जिम सहसकरो॥पंचा नन जिम गिरिवर राजे, नरवर घर जिम मयंगल गाजे, तिम जिनशासन मुनि पवरो ॥४०॥ जिम सु रतरुवर सोहे शाखा, जिम उत्तममुख मधुरी जाखा, जिम वनकेतकी महमहे ए ॥ जिम नूमिपति नूय बल चमके, जिम जिनमंदिर घंटा रणके, तिम गो यम लब्धे गहगहे ए॥४१॥ चिंतामणि कर चढिउ आज, सुरतरु सारे वंद्रिय काज, कामकुंन सवि वश हुई ए ॥ कामगवी पूरे मनकामिय, अष्ट महासिक श्रावे धामिय, सामिय गोयम अणुसरो ए ॥ ४२ ॥ पणवरकर पहेलो पजणीजें, मायाबीज श्रवण निसु गजें, श्रीमती शोना संजवे ए ॥ देवहधुरि अरि हंत नमीजें, विनयपहु उवद्याय शुणीजें, इण मंत्र गोयम नमो ए॥४३॥ पुर पुर वसतां कांकरीजें, देश देशांतर कांश जमी जें, कवण काज श्रायास करो॥ प्रह ठी गोयम समरीजें काजसमग्रह ततखण. सिके, नवनिधि विलसे तास घरे ॥ ४४ ॥ चउदह सय बारोत्तर वरसें, गोयम गणहर केवल दिवसे, किलं कवित उपगारकरो ॥ श्रादिहिंमंगल एचपन णीजे, परव महोबव पहिलो लीजे, शछि वृद्धिक खाण करो ॥ ४५ ॥ धन माता जिणे जयरे धरिया, Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिवेद. धनपिता जिण कुलं अवतरिया धन सहगुरु जिणे दिखियाए ॥ विनयवंत विद्या नंमार, जसुगुण कोश न लग्ने पार, विद्यावंत गुरु विनवे ए॥गौतमसामीनो रास जणीजे, चनविह संघ रलि यायत कीजे, शकि वृद्धि कल्याण करो ॥ ४६॥ कुंकुम चंदन बमो देव रावो ॥ माणक मोतिनां चोक पुरावो ॥ रयण सिंहा सण॥ बेसणुंए॥तिहां बेसीप्रनु देसना देसे ॥ नविक जीवनां काज सरसे ॥ नित्य नित्य मंगल उदयकरो ॥ इति श्री गौतम स्वामीनो रास संपूर्ण । ॥अथ श्रीमहावीरजिन बंद ॥ ॥ सेवो वीरने चित्तमां नित्य धारो, श्ररिक्रोधने मन्नथी दूर वारो ॥ संतोष वृत्ति धरो चित्तमांहिं, राग केषथी दूर था उबाहिं ॥१॥ पड्यामोहना पासमां जेह प्राणी, शुद्ध तत्वनी वात तेणें न जाण ॥ मनु जन्म पामी वृथा कां गमोडो, जैनमार्ग बंमी तुला कों नमो बगे॥॥अलोजी अमानी निरागी तजो बगे सलोजी समानी सरागी जजो बो॥ हरि हरादि अ न्यथी शुरमोडो, नदी गंगा मूकी गलीमां पमोडो ॥३॥ केश् देव हाथें असि चक्रधारा, केश देव घाले रुंढ मा ला॥केश देवउत्संगेंराखे बेवामा, केश देव साथे रमे वृंद रामा ॥४॥ केश देव जपे ले जपमाला, केश मांसनदी महावीकराला । के योगिणी नोगिणि जोग रागें, के रुजाणी गगनो होम मागे ॥५॥ ___--- ६१ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनधर्मसिंधु. इसा देव देवी तणी आश राखे, तदा मुक्तिना सुख ने केम चाखे ॥ जदा लोजना थोकलो पार नाव्यो, तदा मधनो बिंदु उमन्न नाव्यो॥६॥ जेह देवलां श्रापणी आश राखे, तेह पिमने मन्न\ लेथ चाखे॥ दीन हीननी जीडते केम नांजे, फुटो ढोल होये कहो केम वाजे ॥७॥ अरे मूढ जाता नजो मोद दाता, अलोनी प्रचूने नजो विश्वख्याता ॥ रत्न चिंतामणि सारिखो एह साचो, कलंकी काच ना पिंमशुं मत राचो ॥ ॥ मंद बुद्धिसु जेह प्राणी कहे बे, सवि धर्म एकत्व नूलो नमे ॥ कीहां सर्षवाने कीहां मेरु धीरं, कीहां कायरा ने कीहां शूर वीरं ॥ ए॥ कीहां स्वर्णथालं कीहां कुंजखंडं॥ किहा कोजवा ने कीहा खीर मंझ ॥ कीहां खीरसिं धु कीहां दारनीरं, कीहां कामधेनु कीहां डाग वीरं ॥१॥कीहां सत्यवाचा कीहां कूडवाणी, कीहां रंकनारी कीहां रायराणी ॥ कीहां नारकीने कीहां देवजोगी, कीहा इंऽ देही कीहां कुष्टरोगी॥११॥ कीहां कर्म घाती कीहां कर्मधारी, नमो वीर स्वामी जजो अन्यवारी॥ जिसी सेजमां स्वप्नथी राज्य पामी, राचे मंदबुद्धि धरी जेह स्वामी ॥ १२ ॥ अथिर सुख संसारमा मन्न माचे, ते जना मूढमां श्रेष्ठशुं श्ष्ट बाजे ॥ तजो मोह माया हरो दंजरोषी, सजो पुण्य पोषीजजो ते अरोषी ॥ १३॥ गतिचा Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिच्छेद. ४८३ र संसार पार पामी, आव्या यास धारी प्रभु पाय स्वामी ॥ तुहिं तुहिं तुहिं प्रभु परम रागी, जव फेरनी श्रृंखला मोह जागी ॥ १४ ॥ मानीयें वीरजी अर्ज वे एक मोरी, दीजे दासकुं सेवना चरण तोरी ॥ पुण्य उदय हुई गुरु याज मेरो वीवेकें लोमे प्र दर्श तेरो ॥ १५ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री नवकारनो बंद || ॥ दोहा ॥ वंदित पूरे विविध परे, श्री जिन सासनसार || निश्चय श्रीनकार नित्य, जपतां जयज यकार ॥ १ ॥ यमशह दार अधिक फल, नव पद नवे निधान || वीतराग स्वय मुख वदे, पंच परमेष्टि प्रधान ॥ २ ॥ एक अक्षर एक चित्त, समस्या संपत्ति थाय ॥ संचित सागर सातनां, पातिक दूर पलाय ॥ ३ ॥ सकल मंत्र शिर मुकुट मणि, सरु जापित सार । सो जवियां मन शुद्धशुं, नित्य जपीये नवकार | दहाटकी || नवकार थकी श्रीपाल नरेशर ॥ पाम्यो राज्य प्रसिद्ध ॥ समशान विषे शिवनाम कुमरने, सोवन पुरिसो सिद्ध || नव लाख जपंता नरक निवारे, पामे जवनो पार ॥ सो जवियां जत्तें चोखे चित्ते, नित्य जपीये नवकार ॥ ५ ॥ बांधि शाखा शिंके बेसि, देवल कुंड हुताश ॥ तस्कर ने मंत्र समय श्रावके, उड्यो ते श्राकाश ॥ विधि Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. ४४ रीत जप्यो विषधर विष टाले, ढाले अमृतधार ॥ सो ॥ ६ ॥ बीजोरा कारण राय महाबल, व्यंत र पुष्ट विरोध ॥ जेणें नवकारें हत्या टाली, पाम्यो यद प्रतिबोध ॥ नवलाख जपंतां थाये जिनवर, इस्यो ने अधिकार ॥ सो० ॥ ७॥ पबिपति शिख्यो मुनिवर पासे, महामंत्र मन शुद्ध ॥ परजव ते राज सिंह पृथवीपति, पाम्यो परिगल रिछ॥ ए मंत्रथकी अमरापुर पहोतो, चारुदत्त सुविचार ॥ सो॥6॥ संन्यासी काशी तप साधंतो, पंचाग्नि परजाले ॥ दीगे श्रीपास कुमारे पन्नग, अधबलतो ते टाल ॥ संजलाव्यो श्रीनवकार स्वयंमुख, इंअनुवन अवतार ॥ सोगाणामनशुळं जपतां मयणा सुंदरी, पामी प्रिय संयोग॥श्ण ध्याने कुष्ठ टक्यो जंबरनो, रक्त पित्तनो रोग ॥ निश्चें शुं जपतां नवनिधि थाये, धर्म तणे श्रा धार॥सो ॥ १० ॥ घटमांहि कृष्ण नुजंगम घाल्यो, घरणी करवा घात ॥ परमेष्ठि प्रनावे हार फूलनो, वसुधामांहि विख्यात ॥ कमलावतीयें पिंगल कीधो, पापतको परिहार ॥ सो० ॥ ११॥ गयणांगण जाति राखी गृहिणी, पामीबाणप्रहार ॥पद पंच सुणतां पांडु पति घर, ते थई कुंता नार॥ए मंत्र अमूलक महिमा मंदिर. लवकुखनंजणहार॥सो० ॥१॥ कंबल संबलें कादव काढ्यां, शकट पांचशें मान ॥ दीधे नवकारें गया देवलोकें, विलसे श्रमर विमान ॥ ए मंत्रथकी Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिछेद. ४५ संपत्ति वसुधातलें विलसे जैन विहार ॥ सो ॥ ॥ १३ ॥ श्रागें चौवीशी हुई अनंती, होशे वार अनंत ॥ नवकार तणी कोश् आदि न जाणे, एम नांखे अरिहंत ॥ पूरव दिशि चारे आदि प्रपंचे, समस्यो संपत्ति सार ॥ सो० ॥ १४ ॥ परमेष्ठि सुरप द ते पण पामे, जे कृत कर्म कगेर ॥ पुमरिगिरि उपर प्रत्यदा पेख्यो, मणिधर ने एक मोर ॥ सह गुरु सन्मुख विधि समरंता, सफल जनम संसार ॥ सो० ॥ १५ ॥ शूलिकारोपण तस्कर कीधो, लोह खरो परसिझ॥तिहां शेनें नवकार सुणाव्यो, पाम्यो अमरनी फ॥ शेग्ने घर आवी विघ्न निवास्यो, सुरें करी मनोहार ॥ सो० ॥ १६ ॥ पंच परमेष्ठि झानज पंचह, पंचह दानचारित्र॥ पंच सद्याय महा व्रत पंचह, पंच समिति समकित ॥ पंच प्रमाद विषय तजो पंचह, पालो पंचाचार ॥ सो ॥ १७॥ कलश ॥ बप्पय ॥ नित्य जपीयें नवकार, सार संपत्ति सुखदायक ॥ सिझमंत्र ए शाश्वतो, एम जंपे जगनायक ॥ श्री अरिहंत सुसिक, शुम श्राचार्य जणीजें ॥ श्रीउवज्काय सुसाधु, पंचपरमेष्ठि थुणी जें ॥ नवकार सार संसार बे, कुशल लाज वाचक कहे ॥ एक चितें श्राराधतां, विविधज्ञद्धि वांडित लहे ॥ १० ॥ इति ॥ ११५ ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. " ॥ अथ श्री शोल सतीनो बंद ॥ ॥ यदि नाथ आदिजिनवर बंदी, सफल मनो रथ की जियें ए ॥ प्रातें उठी मांगलिक कामें, शोल सतीनां नाम लीजियें ए ॥ १ ॥ बाल कुमारी जग हितकारी, ब्राह्मी जरतनी बड़ेनमी ए ॥ घट घट व्यापक अक्षर रूपें शोल सतीमांहि जे मी ए ॥ ॥ २ ॥ बाहुबल जगिनी सतीय शिरोमणि, सुंदरी नामे रिषन सुता ए ॥ अंग स्वरूपी त्रिभुवनमांदे, जेह अनुपम गुणजुता ए ॥ ३ ॥ चंदनबाला बाल पणाथी, शीयलवती शुद्ध श्राविका ए ॥ श्रदनां बाकुलां वीर प्रतिलच्या, केवल लही व्रत जाविका ए ॥ ४ ॥ उग्रसेन धुच्या धारिणी नंदनी, राजिमती नेम वल्लजा ए || जोबन वेशें कामने जीत्यो, संयम लेइ देव डुलाए ॥ ५ ॥ पंच जरतारी पांव नारी, डुपदतनया वखाणी यें ए ॥ एक शो आठे चीरपूरा णां, शीयल महिमा तस जाणीयें ए ॥ ६ ॥ दशरथ नृपनी नारी निरुपम, कौशल्या कुलचंडिका ए ॥ शीयल सलूणी राम जनेता, पुण्य तणी परनालिका ए ॥ ७ ॥ कोशंबिक में संतानिक नामें, राज्य करे रंग राजीयो ए ॥ तस घर घरणी मृगावती सती, सुरनुवनें जश गाजीयो ए ॥ ८ ॥ सुलसा साची शीयलें न काची, राची नहीं विषयारसें ए ॥ मुख कुं जोतां पाप पलाए, नाम लेतां मन उल्लसे ए ॥ ४८६ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिवेद. ४७ ॥ ए॥ राम रघुवंशी तेहनी कामिनी, जनकसुता सीता सती ए ॥ जगसढ जाणे धीज करंतां, अनल शीतल थयो शीयलथी ए ॥ १० ॥ काचे तांतणे चालणी बांधी, कूवाथकी जल काढीयु ए ॥ कलंक उतारवा सतीय सुजना, चंपा बार उघामीयु ए ॥ ११॥ सुरनर वंदित शीयल अखं मित, शिवा शिव पदगामिनी ए ॥ जेहने नामें निर्मल थश्ये, बलि हारी तस नामनी ए १५ ॥ हस्तिनागपुरें पांमुरायनी, कुंता नामें कामिनी ए॥ पांमव माता दसे दसारनी, बहेन पवित्रता पद्मनी ए ॥ १३ ॥ शीलवती नामे शीलव्रतधारिणी, त्रिविधतेहने वंदीयें ए ॥ नाम जपंतां पातक जाए, दरिसण छरित निकंदीयें ए ॥ १४ ॥ निषधा नगरी नलहनरिदनी, दमयंती तस गेहनी ए, ॥ संकट पमतां शीयलज राख्यु, त्रिजुवन कीर्ति जेहनी ए ॥ १५ ॥ अनंग अजीता जगजन पूजिता, पुष्पचूला ने प्रजावती ए ॥ विश्वविख्याता कामित दाता, शोलमी सती पदमा वती ए॥१६॥ वीरेंजोखी शास्त्रे साखी, उद यरतन नांखे मुदा ए॥ वहाणुं वातां जे नर नणशे, ते लेशे सुख संपदा ए ॥ १७ ॥ इति ॥ ॥अथ श्री नवकार लघु बंद ॥ ॥सुखकारण नवियण, समरो नित्य नवकार ॥ जिनशासनश्रागम, चौद पूरवनो सार ॥ ए मंत्रनो Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ जैनधर्मसिंधु ॥ महिमा, कहेतां न लहुं पार सुरतरु जिम चिंतित वंबित फल दातार ॥ १ ॥ सुर दानव मानव, सेव करे करजोड | विमंगल विचरे, तारे जवियण कोम ॥ सुर बंदें विलसे, अतिशय जास अनंत ॥ पहे ले पद नमियें, रिगंजन अरिहंत ॥ २ ॥ जे पन्नरे नेदें, सिद्ध थया जगवंत || पंचमी गति पोहोता, ष्ट करम करि अंत ॥ कल कल स्वरुपी, पंचानं तक जेइ ॥ जिनवर पय प्रणमुं, बीजे पद वलि एह ॥ ३ ॥ गच्छजार धुरंधर, सुंदर शशिहर सोम ॥ करे सारण वारण, गुण बत्तीसें थोम ॥ सुत्र जाण शिरोमणि, सागर जेम गंजीर ॥ त्रीजे पद नमी यें, आचारज गुणधीर ॥ ४ ॥ श्रुतधर गुण यागर, सूत्र जावे सार ॥ तपविधि संयोगें, जांखे अर्थ विचा र ॥ मुनिवर गुण जुता, कहियें ते वजाय ॥ चो ये पद नमियें, अहो निश तेहना पाय ॥ ५ ॥ पंचा श्रवटाले, पाले पंचाचार ॥ तपसी गुण धारी, वारे विषय विकार ॥ त्रस थावर पीहर, लोकमांहें जे साध ॥ त्रिविधें ते प्रणमुं, परमारथ जिणें लाघ ॥ ॥ ६ ॥ रि करि हरि सायणी मायणी भूत वैता ल ॥ सवि पाप पणासे, वाधेमंगल माल ॥ एणें समरण संकट, दूर टले ततकाल ॥ इम जंपे जिन प्रन, सूरि शिष्य रसाल ॥ ७ ॥ इति ॥ १३ ॥ ॥ इति श्री पंचपरमेष्ठी बंद ॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद. ॥ श्री ॥ जिन पञ्जर स्तोत्रं ४८‍ ॐ श्री अँहँ यो नमोनमः ॥ ॐ श्री सिद्धेच्यो नमोनमः ॥ ॐ की यँ आचा र्येभ्यो नमोनमः ॥ ँ श्री श्री अँई उपाध्यायेज्यो नमोनमः ॥ ॐ कूँ। अँहँ गौतम प्रमुखसर्वसाधुज्यो नमोनमः ॥ १ ॥ एष पञ्चनमस्कारः सर्व पाप दयं करः ॥ मङ्गलानां च सर्वेषां प्रथमं जवति मङ्गलम् ॥ २ ॥ ी श्री जये विजये, ई परमात्मनेन मः ॥ कमलप्रसूरीन्द्रो, जाषते जिनपञ्जरम् ॥ ३ ॥ एकनक्तोपवासेन, त्रिकालं यः पठेदिदम् ॥ मनोऽजि लषितं सर्वं फलं स लजते ध्रुवम् ॥ ४ ॥ नूशय्यात्र ह्मचर्येण, कोलोज विवर्जितः । देवताग्रे पवित्रात्मा, षण्मासैर्लजते फलम् ॥ ५ ॥ श्रर्हन्तं स्थापयेन्मूनि, सिद्धं चक्षुर्ललाटके ॥ श्राचार्यं श्रोत्रयोर्मध्ये उपाध्या यं तु नासिके ॥ ६ ॥ साधुवृन्दं मुखस्याग्रे, मनःशुद्धिं विधाय च ॥ सूर्यचन्द्र निरोधेन, सुधीः सर्वार्थ सिद्ध ये ॥ ७ ॥ दक्षिणे मदनद्वेषी, वामपार्श्वे स्थितो जि नः ॥ श्रङ्गसंधिषु सर्वज्ञः, परमेष्ठी शिवंकरः ॥ ८ ॥ पूर्वाश च जनो र दाग्नेयीं विजितेन्द्रियः ॥ दक्षि पाशां परब्रह्म, नैर्ऋतीं च त्रिकालवित् ॥ ए ॥ पश्चि माशां जगन्नायो, वायव्यां परमेश्वरः ॥ उत्तरां तीर्थ कृत्सर्वामीशानेऽपि निरञ्जनः ॥ १० ॥ पातालं जगवा ६२ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. नहँन्नाकाशं पुरुषोत्तमः, ॥ रोहिणीप्रमुखा देव्यो, रदन्तु सकलं कुलम् ॥ ११ ॥षनो मस्तकं रदे. दजितोऽपि विलोचनम् ॥ संनवः कर्णयुगलेऽजिनन्द नस्तु नासिके ॥ १५ ॥ उष्टं श्रीसुमती रदद्दन्तान्प द्मप्रनो विनुः ॥ जिह्वां सुपार्श्वदेवोऽयं, तालु चन्छ प्रनानिधः ॥ १३ ॥ कंवं श्रीसुविधि रदद्, हृदयं श्रीसुशीतलः ॥ श्रेयांसो बाहुयुगलं,वासुपूज्यः कर यम् ॥१४॥ अंगुलीविमलो रददनन्तोऽसौ नखानपि ॥ श्रीधर्मोऽप्युदरास्थीनि श्रीशान्तिर्नानि मंगलम् ॥१५ श्रीकुन्थुर्गुह्यकं रके, दरो लोम कटी तटम् ॥ महिरू रुपृष्ठवंश,जंघे च मुनिसुव्रतः ॥१६॥ पादांगुलीनमीरदे ड्रीनेमिश्चरणम्यंम् ॥ श्रीपार्श्व नाथः सर्वांगं वर्धमा नश्चिदात्मकम् ॥ १७॥ पृथिवीजलतेजस्क, वाय्वा काशमयं जगत ॥ रक्षेदशेष पापेच्यो, वीतरागो नि रञ्जनः ॥ १७ ॥ राजहारे स्मशाने च, संग्रामे शत्रु संकटे ॥ व्याघ्रचौरा निसर्पादि, नूत प्रेतजयाश्रिते ॥ ॥रए ॥ अकाले मरणे प्राप्ते, दारिध्यापसमाश्रिते॥ अपुत्रत्वे महापुःखे, मूर्खत्वे रोगपीमिते ॥२०॥ माकिनीशाकिनी ग्रस्ते, महाग्रहगणार्दिते ॥ नद्युत्ता रेऽध्ववैषम्ये, व्यसने चापदि स्मरेत् ॥१॥ प्रातरेव समुबाय, यः स्मरेजिनपञ्जरम् ॥ तस्य किजि जयं नास्ति, लनते सुखसंपदः॥२२॥ जिन पिंजरनामेदं,यः स्मरेदनुवासर ॥ कमलप्रज राजेन्छ- श्रियं सलजते Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद. ყდა नरः ॥ २३ ॥ प्रातः समुखाय पठेत्कृतज्ञो, यस्तोत्र मेत किन पञ्जराख्यं ॥ श्रासादयेत्री कमल प्रजाख्यं, लक्ष्मी मनोवांतिपूरणाय ॥ २४ ॥ श्रीरुद्रपल्लीय वरेण्यगछे, देवप्राचार्य पदाब्जहंसः ॥ वादीन्द्रचूकाम णिरेषजै नो, जीयागुरुः श्रीकमल प्रजाख्यः ॥ २५ ॥ इति श्रीकम प्राचार्य विरचितं श्री जिन पञ्जर स्तोत्रं समाप्तम् ॥ ॥ श्री ॥ ॥ ग्रहशान्तिस्तोत्रम् ॥ जगङ्गुरुं नमस्कृत्य, श्रुत्वा सगुरुनाषितम् ॥ ग्रह शान्ति प्रवक्ष्यामि जव्यानां सुखहेतवे ॥ १ ॥ जन्म लग्ने च राशौ च यदा पीमन्ति खेचराः ॥ तदा संपूजयेद्धीमान्, खेचरैः सहिता जिनान् ॥ २ ॥ पुष्पै र्गन्धैर्धूपदीपैः, फलनैवेद्यसंयुतैः ॥ वर्णसदृशदानैश्च वस्त्रैश्च दक्षिणान्वितैः ॥ ३ ॥ पद्मजस्य मार्तमश्च न्द्रश्चन्द्रप्रनस्य च ॥ वासुपूज्येनूसुतश्च बुधोऽप्यष्ट जिनेश्वरे ॥ ४ ॥ विमलानन्तधर्माऽराः, शान्तिः कुन्थुर्न मिस्तथा ॥ वर्धमानो जिनेन्द्राणां पादपद्मे बुधो न्यसेत् ॥ ५ ॥ रुषमा जितसुपार्श्वाश्चाजिनन्द नशीतलौ ॥ सुमतिःसंजवस्वामी, श्रेयांसस्य बृहस्प तिः ॥ ६ ॥ सुविधेः कथितः शुक्रः सुव्रतस्य शनैश्च रः ॥ नेमिनाथस्य राहुः स्यात्, केतुः श्रीमलिपार्श्व योः ॥ ७ ॥ जिनानामग्रतः कृत्वा, ग्रहाणां शान्ति Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ए जैनधर्मसिंधु. तवे ॥ नमस्कारशतं नक्त्या, जपेदष्टोत्तरं शतम् ॥७॥ जसबाहुरुवाचैव पञ्चमश्रुतकेवली ॥ विद्याप्रवादतः पूर्वात् ग्रहशान्तिविधि शुजम् ॥ ए॥ उं ही श्री ग्रहाश्चन्द्रसूर्याङ्गारकबुधबृहस्पतिशुक्रश नैश्चरराहुकेतुसहिताः खेटा जिनपतिपुरतो वति ष्ठन्तुः मम धनधान्यजयविजयसुखसौजाग्यधृति की र्तिकान्तिशांतितुष्टिपुष्टिबुफिलमीधर्मार्थकामदाः स्युः स्वाहा ॥ इति ग्रहशान्ति स्तोत्र समाप्तं ॥ श्रथ मंत्राधिराज स्तोत्रं ॥ श्रीपार्श्वः पातु वो नित्यं, जिनः परमशंकरः ॥ नाथः परमशक्तिश्च, शरण्यः सर्वकामदः॥१॥ सर्व विघ्नहरः स्वामी,सर्वसिझिप्रदायकः ॥ सर्वसत्वहितो योगी श्रीकरः परमार्थदः ॥२॥ देवदेवः स्वयंसि कश्चिदानन्दमयः शिवः ॥ परमात्मा परब्रह्म, परमः परमेश्वरः ॥३॥ जगन्नाथः सुरज्येष्ठो, जूतेशः पुरु षोत्तमः ॥ सुरेन्यो नित्यधर्मश्च, श्रीनिवासः शुजार्ण वः॥४॥ सर्वज्ञः सर्व देवेशः, सर्वदः सर्वगोत्तमः॥ सर्वात्मा सर्वदर्शी च, सर्वव्यापी जगजुरुः ॥५॥ तत्त्वमूर्तिः परादित्यः, परब्रह्मप्रकाशकः ॥ परमेन्छः परप्राणः, परमामृतसिछिदः॥६॥ अजः सनातनः शम्लुरीश्वरश्च सदाशिवः ॥ विश्वेश्वरः प्रमोदात्मा, देत्राधीशः शुनप्रदः ॥ ७॥ साकारश्च निराकारः, सकलो निष्कलोऽव्ययः निर्ममो निर्विकारश्च, निर्वि Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिच्छेद. ४३ " कल्पो निरामयः ॥ ८ ॥ श्रमरचा जरोऽनन्त, ए कोऽनन्तः शिवात्मकः ॥ अलक्ष्यश्चैवामेयश्च, ध्यानल दयो निरञ्जनः ॥ ए ॥ ॐकाराकृतिरव्यक्तो, व्यक्तरू पस्त्रयीमयः ॥ ब्रह्मद्वयप्रकाशात्मा, निर्जयः परमाद रः ॥ १० ॥ दिव्यतेजोमयः शान्तः, परामृतमयोऽच्यु तः ॥ यद्येोऽनाद्यः परेशानः, परमेष्ठी परः पुमान् ॥ ११ ॥ शुद्धस्फटिकसंकाशः, स्वयंभूः परमाच्युतः ॥ व्योमाकार स्वरूपश्च लोकालोकावजासकः ॥ १२ ॥ ज्ञानात्मा परमानन्दः, प्राणारूढो मनः स्थितिः ॥ मनः साध्यो मनोध्येयो, मनोदृश्यः परापरः ॥ १३ ॥ सर्वतीर्थमयो नित्यः सर्वदेवमयः प्रभुः ॥ जगवान् सर्वतत्त्वेशः, शिवश्री सौख्यदायकः ॥ १४ ॥ इति श्री पार्श्वनाथस्य, सर्वज्ञस्य जगङ्गुरोः ॥ दिव्यमष्टोत्तरं नामशतमत्र प्रकीर्तितम् ॥ १५ ॥ पवित्रं परमं ध्येयं, परमानन्ददायकम् ॥ मुक्तिमुक्तिप्रदं नित्यं पवते मङ्ग लप्रदम् ॥ १६ ॥ श्रीमत्परमकल्याण सिद्धिदः श्रेय सेऽस्तुवः ॥ पार्श्वनाथ जिनः श्रीमान्, जगवान् परमः शिवः ॥ १७ ॥ धरणेन्द्र फणन्त्रालंकृतो वः श्रियं प्रभुः ॥ दद्यात्पद्मावतीदेव्या, समधिष्टितशासनः ॥ ॥ १८ ॥ ध्यायेत्कमलमध्यस्थं ॥ श्रीपार्श्वजगदीश्व रम् ॥ ँ । ली श्री समायुक्तं, केवलज्ञाननास्कर म् १९ ॥ पद्मावत्या न्वितं वामे, धरणेन्द्रेण दक्षिणे ॥ परितोऽष्टदलस्थेन, मन्त्रराजेन संयुतम् ॥ २० ॥ अष्ट Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए जैनधर्मसिंधु पत्रस्थितैःयस्यनमस्कारैस्तथा निः॥ज्ञानाद्यैर्वेष्टितं नाथ, धर्मार्थकाममोकदम् ॥ २१॥ शतषोडशदला रूढं, विद्यादेवी निरान्वितम् ॥ चतुर्विंशतिपत्रस्थं, जिनं मातृसमावृतम् ॥ २॥ मायावेष्टयत्रयाग्रस्थं, क्रौंकारसहितं प्रजुम् ॥ नवग्रहावृतं देवं, दिक्पाले दशनिवृतम् ॥ २३ ॥ चतुष्कोणेषु मन्त्राद्यचतुर्बीजा वितैर्जिनैः ॥ चतुरष्टदशनीति, विधाकसंझकैर्युतम् ॥ २४॥ दिक्तु दकारयुक्तेन, विदिक्कु लाकि तेन च ॥ चतुरस्त्रेण वज्रांकदितितत्त्वे प्रतिष्टितम् ॥२५॥ श्रीपार्श्वनाथ मित्येवं, यः लमाराधये जिनम् ॥ तं सर्वपापनिर्मुक्तं, जजते श्रीः शुनप्रदा ॥ २६ ॥ जिने शः पूजितो जक्या, संस्तुतः प्रस्तुतोऽथवा ॥ ध्यात स्त्वं यैः दणं वापि, सिहस्तेषां महोदयः ॥२७॥ श्रीपार्श्वयन्त्रराजान्ते,चिन्तामणिगुणास्पदम्॥ शान्ति पुष्टिकरं नित्यं, कुसोपवनाशनम् ॥ २७ ॥ शकि सिकिमहाबुझिधृतिश्रीकान्तिकीर्तिदम् ॥ मृत्युंजयं शिवात्मानं, जपनान्नन्दितो जनः ॥ ए॥ सर्वकल्या णपूर्णःस्याऊरामृत्युविवर्जितः ॥ अणिमादिमहासि किं, लदाजापेन वाप्नुयात् ॥ ३० ॥ प्राणायाममनो मन्त्रयोगादमृतमात्मनि ॥ त्वमात्मानं शिवं ध्यात्वा, स्वामिन् सिध्यन्ति जन्तवः ॥ ३१ ॥ हर्षदःकामदश्चे तिरिपुनः सर्वसौख्यदः ॥ पातु वः परमानन्दलक्षणा संस्मृतो जिनः॥ ३२ ॥ तत्त्वरूपमिदं स्तोत्रं, सर्वमङ्ग Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद. ४ए लसिद्धिदम् ॥ त्रिसंध्यं यः पठे नित्यं, नित्यं प्राप्नो ति स श्रियम् ॥ ३३ ॥ अथ लघु जिनसहस्रनाम लिख्यते ॥ ॥ नम स्त्रिलोकनाथाय ॥ सर्वज्ञाय महात्मने ॥ वये तस्यैव नामानि॥ मोदसौख्याजिलाषया ॥१॥ निर्मलः शाखतो शुकः॥ निर्विकल्पो निरामयः ॥ निःशरीरो निरातंकः ॥ सिद्धः शुमो निरंजनः ॥२॥ निष्कलंको निरालंबो ॥ निर्मोहो निर्मलो त्तमः ॥ निर्मयो निरहंकारो॥ निर्विकारोथ निष्कियः ॥३॥ निर्दोषोनिरुजः शांतः॥ निमद्यो निर्मलः शि वः ॥ निस्तरंगो निराकारो ॥ निष्कम्मोनिष्कलप्रजः ॥४॥ निर्वादो निरुपज्ञानः ॥ निरागो निरयोजिनः निः शब्दःप्रतिमश्लेष्टः॥ उत्क्रष्टो ज्ञानगोचरः॥५॥ निःशंगात् प्राप्तकैवल्यो नैष्टकः शब्दवर्जितः ॥ अनि यो महपूतात्मा ॥ जगशिखर शेषरः ॥ ६॥ निः शब्दो गुण संपूर्ण ॥ पापतापप्रणाशनः ॥ सोपियोगात् शुनंप्राप्तः कर्मयोतिबला वहः ॥७॥ अजरो अमरः सिकः ॥ अर्चितः अक्षयो विजुः ॥ अमूर्तः अच्यु तोब्रह्म ॥ विष्णु रीश प्रजापत ॥ ॥ अनिंद्यो वि श्वनाथश्च ॥ अजो अनुपमोनवः ॥ अप्रमेयोजगन्ना थ ॥ बोधरूपो जिनात्मकः ॥ ए॥ अव्ययसकलारा ध्यो ॥ निष्पन्नो ज्ञानलोचनः ॥ अवेद्यो निर्मलो नि त्यः ॥ सर्वसत्यविवर्जितः॥१॥अजेयः सर्वतोनमः॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ जैनधर्मसिंधु. निष्कषायो जवांतकः ॥ विश्वनाथः स्वयंबुझः ॥वीत रागोंजिनेश्वरः ॥ ११॥ अंतको सहजा नंद ॥ अवा मानसगोचरः ॥ असाध्यशुमश्चैतन्यः ॥ कर्मनोकर्म वर्जितः ॥ १५ ॥ अनंतविमलझानी ॥ निस्पृहो नि प्रकाशकः ॥ कर्मा जितो महात्मानः ॥ लोकत्रयशि रोमणिः ॥ १३ ॥ अब्यावाधो वरःशंन्नुः ॥ विश्व वे दी पितामहः ॥ सर्वनूतहितोदेव ॥ सर्वलोकसरण्य कः ॥ १४ ॥ आनंदरूपचैतन्यो ॥ जगवां स्त्रिजगा रुः ॥ अनंतानंतधीशक्तिः ॥ सत्यव्यक्त व्ययात्मकः ॥ १५॥ अष्टकर्म विनिर्मुक्तः ॥ सप्तधातुविवर्जित गौरवादित्रयावारः ॥ सर्वज्ञानादिसंयुतः ॥ १६ ॥ श्र जयःप्राप्तकैवल्यः ॥ निर्माणे निरपेदकः ॥ निष्कलं केवलज्ञानी ॥ मुक्तिसौख्यप्रदायकः ॥ १७ ॥ अना मयो महाराध्यो । वरदो ज्ञानपावकः ॥ सर्वेशःसत् सुखावासः ॥ जिनेप्रोमुनिसंस्तुतः ॥ १७ ॥श्रन्यून परमझानी ॥ विश्वतत्वप्रकाशकः ॥प्रबुको नगवान्ना थः॥प्रस्तुतः पुण्यकारकः ॥ १६ ॥ शंकरः सुगतो रोजः सर्वशो मदनांतकः ॥ ईश्वरो जुवनाधीशः ॥ सचित्तः पुरुषोत्तमः २० ॥ सदोजातमहात्मानं ॥ वि मुक्तोमुक्तिववनः योगींसो नादिसंसिद्धः ॥ निरीहो झानगोचरः ॥ १॥ सदा शिवां चतुर्वक्रः ॥ सत्सौ ख्य स्त्रिपुरांतकः ॥ त्रिनेत्रः त्रिजगत्पूज्यः ॥ कल्या णकोष्ट मूर्तिकः ॥२२॥ सर्वसाधुजनैवद्यः ॥ सर्वपा Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद. पविवर्जित ॥ सर्वदेवाधिकोदेवः ॥ सर्वजूतहितंकरः ॥२३॥ स्वयं विद्या महात्मानं ॥ प्रसिद्धः पापनाशनः तनुमात्रचिदानंद ॥ चैतन्यश्चैत्यवैनवः॥ २४ ॥ सक लातिशयोदेव ॥ मुक्तिस्थो महतामहः ॥ मुक्तिका र्यायसंतुष्टो ॥ निरागः परमेश्वरः ॥ २५ ॥ महादेवो महावीरो ॥ महामोह विनाशकः ॥ महाजावो महा दर्शः ॥ महामुक्तिप्रदायकः ॥ २६ ॥ महाज्ञानी महा योगी ॥ महातपो महात्मकः॥ महर्डिको महावीर्यो महांतिकपद स्थितः ॥ २७ ॥ महापूज्यो महावंद्यो ॥ महाविघ्नविनाशकः ॥ महासौख्यो महापुंसो ॥ महा महिमः श्रच्युतः ॥२७॥ मुक्तामुक्तिजसंबोधः ॥ एकानेकविनिश्चलः सर्वबंधविनिर्मुक्तो ॥ सर्वलोकप्र धानकः॥श्यामहासूरो महाधीरो ॥ महाकुःख विना शकः॥ महामुक्ति प्रदोधीरो ॥ महाहृद्यो महा गुरुः ॥ ३० ॥ निर्मारोमार विध्वंसी ॥ निष्कामो विषयाच्युतः ॥ अगवंता महानांतो ॥ शांतिकल्या णकारक ॥३१ परमात्मापरं ज्योतिः ॥ परमेष्टी प मेश्वरः॥ परमात्मापरानंदः परंपरम श्रात्मकः ॥३॥ प्रस्तुतोनंत विज्ञानी ॥ संख्यानिर्वाणसंयुतः॥ नाक तिं नाक्षरोवर्णी ॥ व्योमरूपो जितात्मकः ॥३३॥ व्यक्ताव्यक्तजसंबोधः ॥ संसारबेदकारणः ॥ निरव धोमहाराध्यः ॥ कर्मजिशर्मनायकः ॥३४॥ बोध सत्सुजगयो ॥ विश्वात्मानरकांतकः ॥ खयंनूपाप Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एज जैनधर्मसिंधु. हृत्पूज्यः पुनीतोविजवस्तुतः ॥ ३५ ॥ वर्णातीतो महातीतः ॥ रूपातीतो निरंजनः ॥ अनंतज्ञानसंपू रें ॥ देवदेवेशनायकः ॥३६॥ वरेण्योनव विध्वं सी ॥ योगिनांज्ञानगोचरः ॥ जन्ममृत्यु जरातीतः॥ सर्व विघ्नहरोहरः ॥३७॥ विश्वकूनब्यसंवंद्यः॥पवि जोगुणसागरः ॥ प्रसन्नः परमाराध्यः लोकालोकप्रका शकः ॥ ३० ॥ रत्नग!जगतूस्वामी इंअवंद्यः सुरार्चि तः ॥ निष्प्रपंचो निरातको ॥ निःशेषकेश नाशकः ॥३ए ॥ लोकेशो लोकसंसेव्यो ॥ लोकालोकविलो कनः ॥ लोकोत्तमो त्रिलोकीशो ॥ लोकायशिखरस्थि तः॥४०॥ नामाष्टकसहस्राणि ॥ ये पठन्ति पुनः पुनः ते निर्वाणपदं यांति ॥ मुच्यते नात्र संशयः ॥४१॥ इति लघुसहस्रनाम संपूर्ण ॥ ___॥सकलमङ्गलकेलिनिवेशनं ॥ सहृदयं हृदयं गम देशनं ॥ अनिनतोत्तमजक्तसुरेश्वर ॥ नमतशीतल नाथाजनेश्वर ॥१॥ सहजसुन्दरसमुणमन्दिर ॥ विमलकेवलबोधविकखरं ॥श्रतिसुवर्णसुवर्णसमद्युतं॥ प्रवरबंधुरलक्षणसंयुतं ॥२॥ (युग्मं ) यदीयनक्ति विना नवे नवे नवेवजीष्टार्थ निदानमञ्जतं ॥ स एव नन्दात्मसमुन्नवो जिनः ॥ समर्चनीयः खलुशी तलः प्रजुः ॥३॥ कर्मानितप्तान नविनः सुशीतला न् ॥ कुर्व म्नदावाक् सुधया दयापरः ॥ सदेव देवो नवतातसदैव मे ॥ सदिष्टसिध्यै जिनराजशीतलः Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिवेद. प्रणय ॥४॥ अधिगतशिवशर्मा वीतमोहादिकर्मा ॥ दृढ रथ तनुजम्ना सर्वतः साधधर्मा ॥ त्रिदशमहितमूर्तिः स्फूर्तिमत्पुण्यकीर्ति ॥ जयतु गतनवार्तिः शीतलः सौम्यमूर्तिः ॥५॥ इति श्रीशीतलजिनः स्तोत्रम् ॥ ॥ यस्य ज्ञान दयासिन्धो ॥ दर्शनं श्रेयसे ध्रुवं ॥ सश्रीमान् पार्श्वतीर्थेशो ॥ निषेव्यः सततं सतां ॥१॥ वामासूनोर्यशः पुंजे रगाधस्यानघागुणाः॥ स्मर्यन्तेयेन स स्मार्यो ॥ जवेत्प्राचीन बर्हिषां ॥२॥ विहाय विषयाशक्तान् ॥ संसारिकसुरासुरान् ॥ सेव्यतामद यो धीराःपार्श्व देवोपरः प्रनुः ॥३॥ जिनाःसर्वार्थ दानेन ॥ येन कल्पघुमायपि ॥ नवेदन्यर्चितो लो के ॥सश्रियेचानतायच ॥४॥ संस्तुतो मधुर श्लोकै॥ जैनलाजप्रदायकः ॥ कल्याणकारको नूयात् ॥ श्री मान् शंखेश्वरःप्रजुः ॥५॥ इति पार्श्वजिन स्तुतिः ॥शालिनीचन्दः॥ ॥ गौमीग्रामे स्तंनने चारु तीर्थे ॥जीरावस्यां पत्तने लोअवाख्ये॥ वाणारस्यांचा पिविख्यातकीर्ती श्रीपाश्वेशंनौमि शंखेश्वरस्थ॥१॥ष्टा र्थानां स्पर्शने पारिजातं ॥ वामादेव्यानन्दनं देववं धं ॥ खर्गेनमौ नागलोके प्रसिहं॥ श्रीपा० ॥२॥ जित्वानेद्यं कर्मजालं विशालं ॥ प्राप्यानन्तं ज्ञानर नं चिरत्नं ॥ लब्धामंदानंद निर्वाणसौख्यं ॥ श्री पाप ॥३॥ विश्वधीशं विश्वालोकेपवित्रं॥ पापागम्यं मो लक्ष्मीकलत्रं, अंजो जादं सर्बदा सुप्रसन्नं ॥ श्री Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जैनधर्मसिंधु. पा० ॥४॥ वर्षेरम्ये खं गदो र्नागचं ॥संख्येमासे माधवे कृष्णपदे ॥ प्राप्तं पुण्यै दर्शनं यस्य तंच ॥ श्रीपा० ॥ इति शंखेश्वर जिनस्तवः ॥ ॥ विशदसणराजि विराजितं ॥ घनघनाघनना दविनाजितं ॥ नजतनक्तिरेण रमेश्वरं ॥ जगति पार्श्वजिनेशमनश्वरं ॥१॥विविधवर्ण विनूषितविग्र हाः ॥ विहितदूईम दर्पक निग्रहाः ॥ वसुयुगाकमि ताः सुकृताकराः जिनवरा प्रनवंतु शिवंकरा ॥२॥रु चिरवर्ण निबछमनिन्दितं ॥ सुमनसा प्रकरैर निवेदि तं ॥ निखिलसाधुजनाः खलुनिमिदं, जिनमतं नम तांचितशर्मदं॥३॥ सकलनब्यसरोज विकाशिका ॥ कुमत संतमसोचयना शिका ॥ जिनवरानन पद्मग तोन्मुदा ॥ नवतु वाग्जिन लाजशुजार्थदा ॥४॥ इति पार्श्वजिनस्तोत्रम् ॥ ॥ श्रीमन्नम्र सुरासुरेन्जमुकुटप्रद्योतिरत्नप्रना ॥ जाखत्पादनखेन्दव प्रवचनांनोधौ ब्यवस्थायिनः ॥ ये सर्वे जिनसिकसूरिसुगतास्ते पाठकासाधवः ॥ स्तुत्यायोगिजनैश्च पंचगुरवः कुर्वतु मे मङ्गलं ॥१॥ सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं ॥ मुक्तिश्री नगरायनं जिनपतेः स्वर्गापवर्गप्रदः धर्मः सूक्ति सुधाश्च चैत्यमखिलं जैनालयं श्यालयं प्रोक्तंतत्त्रि विधं चतुर्विध ममीकुर्वतु मे मङ्गलं ॥२॥ नानेयादि जिनाधिपास्त्रिन्नुवनेख्याताश्चतुर्विंशतिः ॥ श्रीमन्तो Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ शष्ठमपरिजेद. जरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो शादश ॥ ये विष्णु प्रतिविष्णुलाङ्गलधराः सप्ताधिकाविंशति ॥ स्त्रैलो क्ये जयदास्त्रिषष्टिपुरुषाः ॥ कुर्वतुमे मङ्गलं ॥३॥ कैलाशे वृषजस्य निर्वृतिमही वीरस्य पावापुरी ॥ चंपायां वसुपूज्यसजिनपतेः ॥ सम्मेतशैलेईतां ॥ शेषाणामपि चोयन्तशिखरेनेमीश्वरस्याईतो ॥ नि र्वाणाविनयः प्रसिझविनवाः कुक्तु मे मङ्गलं ॥ ॥ ४ ॥ ज्योतिब्यंतर नावनामर गृहे. मेरौ कुलामो स्थिता ॥ जंबूशास्मलि चैत्यशाखिषु तथावदार रूप्यादिषु ॥ इक्ष्वाकारगिरौच कुंमलनगेठीपेच नंदी श्वरे ॥ शैखेयेमनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वतु मे मङ्गखं ॥५॥ यो गर्नावतरोपिजय त्यहतां जन्मानिषेको त्सवे ॥ यो जातः परिनिक्रमेवचजवोयः केवलज्ञान जाक् ॥ यः कैमख्यपुरप्रवेशमहिमासंजावितः स्वर्गि निः ॥ कल्याणानि च तानि पंचसततं कुर्वं तु मे मंगलं ॥ ६॥ ये पंचौषधिक्ष्यः श्रुततयोकिंग ताः पंचये ॥ येचाष्टांगमहा निमित्तकुशला ये ष्टीवि धाचारणा ॥ पंचज्ञानधराश्च येपि बलिनो ये बुद्धि शहीश्वरा ॥ सप्तै ते सकलाश्च ते गणनृताः कुर्वं तु मे मगलं ॥७॥ देव्यश्चाष्टजयादिका विगुणिता विद्यादिका देवता ॥ श्रीतीर्थं कर मातृकाश्च जन कायक्षाश्च यदीश्वराः॥ द्वात्रिंशत् त्रिदशाग्रहानिधि सुरादिक्कन्यकाश्चाष्टधा ॥ दिक्पाला दश इत्यमीसुर Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ जैनधर्मसिंधु. गणाः कुवं तु मे मङ्गलं ॥ ८ ॥ इत्थं श्री जिनमङ्ग लाष्टकमिदं कल्याण कालेर्हतां ॥ पूर्व्वापि महोत्स वेपि सततं श्री सौख्य संपत्करं ॥ ये शृएवंति पठंति तैश्च मनुजैर्धर्मार्थकामान्विता ॥ लक्ष्मीराश्रयते वि पायरहिताः कुर्व तु मे मङ्गलं ॥ ए ॥ इति श्री ॥ शिवं शुद्ध बुद्धं परं विश्वनाथं ॥ नदेवनबंधुर्नकर्म नकर्ता नांगं नसंगं नइछा नकामं ॥ चिदानन्दरुपं नमोवी तरगं ॥ १ ॥ नबंधो नमोक्षो नरागा दिलोकं ॥ नयोगंनजोगं नव्याधिर्नशोकं ॥ नक्रोधं नमानं नमाया नलोनं चि० ॥ २ ॥ नहस्तौ नपादौ नत्राणं नजिह्वा नचकुर्नकर्णं नवक्त्रं न निद्रा ॥ नखादं नखेदं नवर्ण नमुद्रा ॥ चि० ॥ ३ ॥ नजन्मं नमृत्युं नमोदं नचिं ता ॥ न छुट्ट् ॥ नजीतं नकृष्यं नतुंदा, नखामीन भृत्यं देवो मर्त्यं ॥ चि० ॥ ४ ॥ त्रिदंडे त्रिखंडेह रेविश्वव्यापं ॥ रुषीकेश विध्वस्त कर्म्मा रिजालं ॥ न पुण्यं न पापं न क्ष्यानप्राणं ॥ चि० ॥ ५ ॥ नबाल नवृद्धं न विद्वान्नमूढा ॥ नबेद्यं नभेद्यं नमूर्त्तिर्नमी हा कृष्णं शुकं नमोदं नतंद्रा ॥ चि० ॥ ६ ॥ नया द्यं नमध्यं नमंत्यं नमन्या ॥ नद्रव्यं नक्षेत्रं नदृष्टौ न जव्या ॥ नगुर्वो न शिष्यो नयायो नदीनं चि० ॥ ८ ॥ इदंज्ञानरूपं स्वयं तत्ववेदी ॥ नपूर्णं न शून्यंसचैतन्य रूपं ॥ न अन्यो जिजिन्नंनपरमार्थमेकं ॥ चि० ॥ ८ ॥ श्रात्मारामगुणाकरं गुणनिधिश्चैतन्यरत्नाकरं ॥ सर्वे Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिवेद. ६०३ नूतगतागते सुखमुखजातात्वयासर्बग॥त्रैलोक्याधि पतिस्वयंस्त्र मनसाध्यायंति योगीश्वराः॥ वंदे तंहरि वंश हर्षहृदयं श्री मान नू दच्युतः ॥ ए ॥ इति श्रीपरमात्मास्तोत्रं ॥ ॥ दर्शनं देवदेवस्य ॥ दर्शनं पापनाशनं ॥ दर्शनं स्वर्ग सोपानं ॥ दर्शनं मोक्षसाधनं ॥ १॥ दर्शनेन जिनेसाणां ॥ साधूनां वंदनेनच ॥ नतिष्टतिचिरं पा पं॥ विषहस्तेयथोदकं ॥ २ दर्शनं जिनसूर्यस्य ॥ सं सारध्वांतनाशनं ॥ बोधचित्तपद्मस्य समस्तार्थप्रका शकं ॥३॥ दर्शनंच जिनेंअस्य ॥ सझामृतवर्षणं जन्म दापविनाशाय ॥ वृंदणंसुखवारिधेः ॥४॥ जिनेजक्ति जिनेजक्ति ॥ जिनेनक्ति दिनेदिने ॥ सदामेस्तु, स दामेस्तु, सदामेस्तु नवेनवे ॥ ५॥ नहित्राता नहि त्राता ॥ नहित्राता जगत्त्रये ॥ वीतरागसमोदेवो ॥ न जूतोन नविष्यति ॥ ६ ॥ अन्यथा शरणं नास्ति ॥ त्वमेवशरणं मम ॥ तस्मात् सर्व प्रयत्नेनारदराज नेश्वर ॥ ७॥ वीतरागमुखंदृष्ट्वा ॥ पद्मरागसमप्रनं ॥ नै कजन्मकृतंपापं ॥ दर्शनेन विनश्यति ॥॥ अर्हतो मंगलं नित्यं ॥ सिखाजगतिमंगलं ॥मंगलंसाधवोमु ख्यं ॥ धर्मः सर्वत्र मंगलं ॥ए॥ लोकोत्तमा श्हाई तः॥ सिझालोगोत्तमाः सदा ॥ लोकोत्तमोयतीशा नां ॥ धर्मोलोकोत्तमोहतां ॥१०॥ शरणं सर्वदार्हतः॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनधर्मसिंधु. सिद्धाशरण मंगलं ॥ साधवः शरणं लोके ॥ धर्म शरणमतां ॥ ११ ॥ इति श्रीनमस्कार स्तोत्रं ॥ ॥ अथ कृषिमंगल स्तोत्र ॥ ॥ श्रद्यंताक्षरसंलक्ष्य ॥ मक्षरंव्याप्ययत् स्थितं ॥ निज्वालासमनाद ॥ बिंडुरेखा समन्वितं ॥ १ ॥ अग्निज्वालासमात्रांतं ॥ मनोमल विशोधकं ॥ देदी प्यमानं हृत् ॥ तत्पदंनौमि निर्मलं ॥ २ ॥ श्रई मित्यरंब्रह्म ॥ वाचकं परमेष्ठिनः ॥ सिद्धचक्रस्य सीजं ॥ सर्वतः प्रणिदध्महे ॥३॥ ॐ नमोईद्यई शेज्य, ॐ सिद्धेन्योनमोनमः ॥ ॐ नमः सर्वसू रिज्य ॥ उपाध्यायेज्य तँ नमः ॥४॥ ॐ नमः सर्व साधुज्य ॥ ॐ ज्ञानेन्यो नमोनमः ॥ ॐ नमस्तत्त्वदृष्टिज्य ॥ श्वा रित्रेन्यस्तु, ॐ नमः ॥५॥ श्रेयसेस्तु, श्रियेस्त्वेत ॥ दर्ददाष्टकंशुनं ॥ स्थानेष्वष्टसुविन्यस्तं ॥ पृथग्बी जसमन्वितं ॥ ६ ॥ श्राद्यंपदं शिखांरके ॥ त्परंरतु मस्तकं ॥ तृतीयं रक्षेन्नेत्रे ॥ तुर्ये रक्षेच्चनासिकां ॥ ७ ॥ पंचमंतुमुखंरदेत् ॥ षष्ठंरदेच्चघंटिकां ॥ नान्यं सप्तमंर || रत्पादांतमष्टमं ॥ ८ ॥ पूर्वप्रणवतः सांत ॥ सरेफोद्यब्धिपंचषान् ॥ सप्ताष्टदशसर्यांका न् ॥ श्रितोविंदुस्वरान् पृथक् ॥ ए ॥ पूज्यनामाक्षरा श्रायाः ॥ पंचातोज्ञानदर्शन ॥ चारित्रेम्यो नमो मध्ये ॥ कूँ। सांतहसमलंकृतः ॥१०॥ ॐ ॥ झाँ ॥ ॐ ॥ ॐ ॥ ॐ ॥ ॐ ॥ ॐ ॥ झाँ ॥ ॐः अ सियाजसा Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिछेद. ५०५ ज्ञानदर्शनचारित्रेम्योनमः ॥ जंबूवृक्षधरोहीपः॥दारो दधिसमावृतः ॥ अहंदाद्यष्टकैरष्ट ॥ काष्टाधिष्टैरलंक तः॥ ११ ॥ तन्मध्य संगतोमेरुः॥ कूटलदैरसंकृतः॥ उच्चैरुच्चैस्तरस्तार ॥ स्तारामंगलमंमितः ॥ १२ ॥ तस्योपरिसकारांतं बीजमध्यास्यसर्वगं ॥ नमामिबि बमाईत्यं ॥ ललाटस्थं निरंजनं ॥ १३ ॥ अक्षयं निर्मलंशांतं ॥ बहुलं जामयतो ज्जितं ॥ निरीहं निरहंकारं ॥ सारं सारतरं घनं ॥ १४ ॥ अनुकतं शुनं स्फीतं ॥ सात्विकं राजसंमतं ॥ तामसं चिर संबुद्धं ॥ तैजसं शर्वरीसमं ॥ १५ ॥ साकारंच निरा कारं ॥ सरसं विरसंपरं ॥ परापरं परातीतं ॥ परं पर परापरं ॥ १६ ॥ एकवर्ण हिवर्णंच ॥ त्रिवर्णं तुर्य वर्णकं ॥ पंचवर्ण महावर्ण ॥ सपरंच परापरं ॥ १७ ॥ सकलं निष्कलंतुष्ट ॥ निवृतं ब्रांतिवर्जितं ॥ निरंज नं निराकारं ॥ निर्लेपं वीतसंश्रयं ॥ १७ ॥ ईश्वरं ब्रह्मसंबु ॥ बुद्ध सिकं मतंगुरु ॥ ज्योतीरूपं महा देवं ॥ लोकालोक प्रकाशकं ॥ १५ ॥ अर्हदाख्यस्तु, वर्णतः ॥ सरेफोबिंऽमंमितः तुर्यस्वरसमायुक्तो, बहु धानादमालितः ॥ २० ॥ अस्मिन् बीजे स्थिताः सर्वे ॥ वृषनाद्याजिनोत्तमाः ॥ वर्णे निजैनिजैर्यु क्ता ॥ ध्यातव्यास्तत्रसंगताः॥२१॥ नादचं उसमा कारो ॥ बिंपुर्नीलसमप्रनः ॥ कलारुणसमासांतः॥ स्वर्णानः सर्वतोमुखः ॥२॥ शिरः संलीन ईकारो ॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ जैनधर्मसिंधु. विनीलोवर्णतःस्मृतःवर्णानुसारसंलीनं तीर्थकृन्मंगलं स्तुमः ॥३॥ चंडप्रजपुष्पदंतौ॥नादस्थिति समाश्रितौ ॥ बिंदुमध्यगतौनेमि ॥ सुब्रतौ जिनसत्तमौ ॥ २४ ॥ पद्म प्रजवासप्रज्यौ ॥ कलापदमधिष्ठितौ शिरस्थि तिसंलीनौ ॥ पार्श्वमसी जिनेश्वरौ ॥ २५ ॥ शेषा स्तीर्थकृतः सर्वे ॥ हरस्थाने नियोजिताः॥ माया बीजादरंप्राप्ता ॥ श्चतुर्विंशतिरहतां ॥ २६ गतरागळे पमोहाः॥ सर्वपापविवर्जिताः॥ सर्वदाः सर्वकालेषु ॥ ते नवंतु जिनोत्तमाः ॥ २७॥ देवदेवस्ययच्चकं तस्य चक्रस्ययाविना ॥ तयानादित सर्वाङ्ग मामांहिनस्तु माकिनी ॥ २७ ॥ देवदेवस्य० ॥ मामांहिनस्तु, राकि नी ॥ ए॥ देवदे० ॥ मामांहिनस्तु, लाकिनी ॥ ॥ ३० ॥ देव ॥ मामां हिनस्तु, काकिनी ॥३१॥ देवदे० ॥ मामांदिनस्तु शाकिनी ॥ ३५ ॥ देव० ॥ मामां हिनस्तु हाकिनी ॥ ३३ ॥ देव ॥ मामांहि नस्तु याकिनी ॥३४॥ देव ॥ मामांहिंसंतुपन्नगाः ॥ ३५ ॥ देव ॥ मामांहिंसंतु हस्तिनः ॥ ३६ ॥ देवदे० ॥ मामांहिंसंतुराक्षसाः ॥ ३७॥ देव ॥ मामांहिंसंतुवह्नयः ॥ ३० ॥ देव ॥ मामांहिंसंतु सिंहकाः ॥ ३ए ॥ देव ॥ मामांहिंसंतु पुजनाः ॥४०॥ देवदे॥ मामांहिंसंतु नूमिपाः ॥४१॥ श्री गौतमस्ययामुडा ॥ तस्यायानुविलब्धय, ॥ तानिरन्यु द्यतज्योति ॥ रहंसर्व निधीश्वरः ॥ ४२ ॥ पातालवा Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिजेद. ५०७ सिनो देवा ॥ देवानूपीध्वासिनः ॥ खर्वासिनोपि ये देवाः ॥ सर्वे रदंतु मामितः ॥ ४३ ॥ येऽवधिल ब्धयो येतु ॥ परमावधिलब्धयः ॥ ते सर्वे मुनयोदे वाः ॥ मां संरदंतु सर्वदा ॥ ४४ ॥ उर्जनानूतवेता लाः ॥ पिशाचामुगलास्तथा ॥ तेसर्वेप्यु पशाम्यंतु दे वदेव प्रनावतः ॥४५॥ ॐ ही श्रीश्चधृतिर्लक्ष्मी । गौ री चंमी सरस्वती ॥ जया वा विजयानित्या ॥ कि नाजितामद उवा ॥ ४६ ॥ कामांगाकामबाणाच ॥ सानंदानंदमालिनी ॥ माया मायाविनी रौजी ॥क ला कालीकलिप्रिया ॥४७॥ एताः सीमहादेव्यो॥ वर्त्ततेयाजगत्त्रये ॥ मह्यंसर्वाः प्रयबंतु॥ कार्तिकीर्ति धृति मतिं ॥ ४ ॥ दिब्यो गोप्यः सुधः प्राप्यः श्री शषिमंगलस्तवः ॥ नाषितस्तीर्थनाथेन जगत्त्राण कृ तेनयः ॥ ४ए ॥ रणेराजकुलेवहौ ॥ जलेमुर्गे गजे ह रौ ॥ श्मशाने विपिने घोरे ॥ स्मृतो रक्षति मानवं ॥ ५० ॥ राज्यत्रष्टा निजं राज्यं ॥ पदज्रष्टा निजं प दं ॥ लक्ष्मीनूष्टानिजां सदमीं ॥ प्राप्नुवंति न संश यः ॥५१॥ नार्यार्थीलजते नार्यां ॥ पुत्रार्थी बनते सुतं ॥ वित्तार्थी लजते वित्तं ॥ नरः स्मरण मात्रतः ॥ ५५ ॥ स्वर्णरूप्ये पटेकांस्ये ॥ लिखित्वा यस्तुपूज येत् ॥ तस्यैवाष्ठमहासिजि ॥ गृहेवसति शाश्वती ॥ ५३॥ नूय॑पत्रेलिखित्वेदं ॥ गलके मूनिं वाजुजं॥ धारितं सर्वदा दिव्यं ॥ सर्वनीति विनाशकं ॥ ५४॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जैनधर्मसिंधु. जूतैः प्रेतेहै र्यदः ॥ पिशाचैर्मुजलैमलैः॥ वातपित्त कफोकै, मुच्यते नात्रसंशयः ॥५५॥ नूर्नु वः स्वस्त्र यीपीठ ॥ वर्तिनः शाश्वता जिनाः ॥ तैस्तुतैर्वंदितै ईष्टै, यत्फलं तत्फलंश्रुतौ ॥ ५६ ॥ एतमोप्यमहा स्तोत्रं ॥ नदेयं यस्यकस्यचित् ॥ मिथ्यात्व वासिने द त्ते ॥ बालहत्या पदेपदे ॥ ५७ ॥ श्राचाम्लादितपः कृत्वा ॥ पूजयित्वा जिनावली ॥ अष्टसाहनिको जा पः ॥ कार्य स्तत्सिकिहेतवे ॥ ५ ॥ शतमष्ठोत्तरंपा त ॥र्येपठति दिने दिने ॥ तेषां नब्याधयो देहे ॥ प्रजवंति नचापदः ॥एए॥ अष्टमासावधिंयावत् ॥ प्रातःप्रातस्तुयःपठेत् ॥ स्तोत्रमेत न्महातेजो। जिन बिंबं स पश्यति ॥ ६० ॥ दृष्टे सत्यहतोबिंबेजवेसप्त मके ध्रुवं ॥ पदंप्राप्नोतिशुझात्मा ॥ परमानंदनंदितः ॥६१ ॥ विश्ववंद्यो नवेत् ध्याता॥ कल्याणानिचसो नुते ॥ गत्वास्थानंपरं सोपि ॥ नूयस्तु न निवर्त्तते ॥ ६ ॥ इदं स्तोत्रं महास्तोत्रं ॥ स्तुतीनामुत्तमंपरं॥ पठनात्स्मरणाजापा खन्यते पदमुत्तमं ॥ ६३ ॥ इति श्रीशषिमंगलस्तोत्रं ॥ देपकश्लोकान्निराकृत्यमूलयं त्रकल्पानुसारेण लिखितं गणिनिः श्रीक्षमाकट्या णो पाध्यायैः तस्योपरि मयापि लिखितं इदं स्तोत्रं ॥ ॥अथ श्रीगौमीपार्श्वजिन वृक्षस्तवनलि० ॥ ॥ (दहा) बाण। ब्रह्मावादनी ॥ जागै जगवि ख्यात ॥पासतणा गुणगावतां ॥ मुफ मुख वसज्यो Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिछेद. मात ॥ १ ॥ नारंगैश्रणहिलपुरै ॥अहमदा वादै पास ॥ गौडीजी धणी जागतौ ॥ सहुनी पूरे श्रास ॥२॥ सुज वेला सुत्नदिन घमी॥महुरत एकममाण॥ प्रतिमा ते इह पासनी ॥ थई प्रतिष्ठा जाण ॥३॥ ( ढाल ) गुण हि विसाला मंगलीक माला ॥ वामा नो सुत साचोजी ॥ धण कणकंचण मणिमाणकदे ॥ गौडीजी धणी जाचोजी ॥४॥ (गु०) श्रण हिलपुर पाटणमांहे प्रतिमा ॥ तुरक तणें घर हुँतीजी ॥ अश्वनी नूमि अश्वनी पीमा ॥ अश्वनी वालि विगू ती जी ॥ ५॥ ( गु०) जागंतो जद जेहनें कहि यै ॥ सुहणो तुरकनै श्रापैजी ॥ पास जिने सर केरी प्रतिमा ॥ सेवक तुक संतापै जी ॥६॥ (गुण) प्रह उठीने परगट कर जे ॥ मेघा गोठीने देजे जी ॥ श्रधिको मलेजे उडो मलेजे ॥ टक्का पांचसै लेजेजी ॥ ७॥ (गु०) नहिं श्रापिस तोमारीस मुर मीस ॥ मोर बंध बंधास्यैजी ॥ पुत्र कलत्र धन हय हाथी तुऊ ॥ लबिघणी घर जास्यै जी॥ ॥ (गु०) मारग पहिलो तुमनें मिलस्यै ॥ सारथवाइजेगोठी जी ॥ निलवट टीलो चोखा चोड्या ॥ वस्तु बहै तसुपोठी जी॥ए॥ (गु०) (दहा)म तुरकडो ॥ माने वचन प्रमाण ॥ बीबीनेसुहणा तणो ॥ संनलावै सहिनाण ॥ १० ॥ बीबी बोले तुरकनें ॥ वमा देव है कोय।अबसताब परगटकरो॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. नहीतो मारै सोय ॥ ११॥ पाउलीरात परोमीय ॥ पहली बंधै पाज॥सुहणा माहेंसेग्नें ॥संनलावै जद रोज ॥ १५ ॥ ( ढाल ) एम कही यद आयो राते ॥ सारथ वाहुनेंसुहणे जी ॥ पासतणी प्रतिमा तुंलेजे ॥ लेतो सिरमत धुणे जी ॥१३॥ (एम) पांचसैटका तेहनें श्रापे ॥ श्रधिको मा थापिस वारूजी ॥ जतन करी पुहचाडे थानकि ॥ प्रतिमा गुण संचारै जी ॥ १४ ॥ (एम) तुऊने होसी बहु फलदायक ॥ लाई गोपीने सुणजे जी ॥ पुजी स प्रणमीस तेहनापाया ॥ प्रहठीने थुणजे जी ॥ १५ ॥ (ए) सुहणो देने सुरचाल्यो ॥ अपनें थानक पहुतोजो ॥ पाटण मांहें सारथवाहु ॥ हीडै तुरकनें जोतोजी ॥ १६ ॥ (ए) तुरकै जातां दीगे गोठी ॥ चोखा तिलक बिलाडै जी॥ संकेत पहुतो साचोजाणी ॥ बोलावै बहुलामैजी ॥ १७ ॥ (ऐ०) मुफ घरि प्रतिमा तुऊने श्रापुं ॥ पास जिणेसर केरीजी ॥ पांचसै टका जो मुफ आपै ॥ मोलन माणु फेरीजी ॥ १७ ॥ (ए) नाणो दे प्रतिमा लेई ॥ थानक पहुतों रंगैजी ॥ केसरचंदन मृगमद घोली ॥ विधसुं पूजे रंगेजी ॥ १५ ॥ (ए) गादी रूमी रूनी कीधी ॥ ते मांहि प्रतिमा राखैजी ॥ अनुक्रम श्राव्यापारकरमांहें ॥ श्रीसंघने सुर सा खै जी ॥२०॥ (ए) उन्लव दिन अधिका Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिछेद. थाये ॥ सत्तर नेद सनात्रो जी ॥ गम ना दर सण करवा ॥ श्रावै लोक प्रजातो जी॥१॥ (ए०) (उहा ) इकदिन देखै अवधिसुं॥ पारकर पुरनो नंग ॥ जतनकरुं प्रतिमा तणो ॥ तीरथ अबै अनं ग ॥ २२ ॥ सुहणो आपै सेग्नें ॥ थल अटवी उजा म ॥ महिमा थास्यै अति घणी ॥ प्रतिमा तिहां पुहचाड ॥ २३ ॥ कुसल खेम तिहां अबै ॥ मुजनें तुऊने जाणि ॥ संका बोमी काम करि ॥ करतो मकरिस काणि ॥ २४ ॥ (ढालपास मनोरथ पूराकरै ॥ वाहण एक वृषन जो तरै ॥ पारकरथी परियाणो करै ॥ श्क थलचढ बीजो ऊतरै ॥ २५॥ बारै कोस श्राव्या जेतलै ॥ प्रतिमा नविचालै ते तलै॥गोठी मनद विमासण थई। पास जुवन मंमा → सही ॥३६ ॥ आ अटवी किमकरुं प्रयाण ॥ कु टको कोश्नदीसै पादण ॥ देवल पास जिनेसर तणो ॥ मंमा किम गरथै विणो ॥ २७ ॥ जलविन श्रीसंघरहस्यै किहां ॥ सिलावटो किम आवै श्हां ॥ चिंतातुर थयो निखालहै ॥ यदराज श्रावीनें कहै ॥ २० ॥ गुंहली ऊपर नांणो जिहां ॥ गरथघणो जाणीजे तिहां ॥ स्वस्तिक सोपारीने गणि ॥ पाह ण तणी उबटस्यै खाणि ॥ श्ए ॥ श्रीफल सजल तिहां किल जूओ ॥ अमृत जलनीसरसी कूओ ॥ खाराकूया तणो श्ह सैनांण ॥ नूम पड्यो छै नीलो Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१५ जैनधर्मसिंधु. गण ॥ ३० ॥ सिलावटो सीरोही वसै ॥ कोढपरा नवियो किसमिसै ॥ तिहां थकी तू इहां आणजे ॥ सत्यवचन माहरो मान जे ॥३१॥ गोठीनो मनथि र थापियो ॥ सिलावटनें सुहणो दियो ॥ रोगगमी में पूरूं आस ॥ पास तणो मंमें आवास ॥ ३ ॥ सुपन माहे मान्यो तेवैण ॥ हेम वरण देखाड्यो नैण ॥ गोठी मनह मनोरथ हुवा ॥ सिलावटैने गया तेमवा ॥ ३३ ॥ सिला वटो आवै समरो ॥ जीमें खीरखांम घृत चूरमो ॥ घमै घाट करै कोर णी॥लगन नलै पाया रोपणी ॥ ३४ ॥ थंनए कीधी प्रतली ॥ नाटक कौतिक करती रली॥ रंग मंम्प रलियामणो रसै ॥ जोतां मानवनो मन हसै ॥३५॥ नीपायो पूरो प्रासाद ॥ स्वर्गसमो मंडे संवाद ॥ दिवस विचारी इंडोघड्यो ॥ ततखिण देवल ऊपर चड्यो॥३६॥ शुल लगन शुन वेलावास ॥ पचासण वैग श्रीपास ॥ महिमा मोटी मेरुसमान ॥ एकल मनवगडे रहै वान ॥ ३० ॥ वात पुराणों में सांज ली ॥ तवन मांहि सूधी सांकली ॥ गोठी तणा गोतरीया अ॥यात्र करीने परणे प॥३०॥ (दहा) विघन विडारण यद जगि ॥ तेहनो अकल सरूप ॥ प्रीतकरी श्रीसंघनें ॥ देखाडै निजरूप ॥ ३६ ॥ गिरु ओ गौमी पास जिन ॥ श्रापै अरथनंमार ॥ सानि ध करै श्रीसंघनें ॥ आस्या पूरणहार ॥४०॥ नील Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिवेद. पलाणे नीलक्ष्य ॥ नीलो थक्ष असवार ॥ मारग चूकामानवी ॥ बाट दिखावण हार ॥४१॥ (ढास) बरण अढार तणो लहै जोग ॥ विघन निवारै टालै रोग ॥ पवित्र थई समरै जे जाप ॥ टालै सगला पाप संताप ॥ ४२ ॥ निरधनने घरि धन नो सूत्र ॥ श्रापै अपुत्रीयाने पुत्र ॥ कायरनें सूरापण धरै ॥ पार उतारै लबी वरै ॥ ४३ ॥ दो जागीने दै सोना ग ॥ पगविरुणाने श्रापै पग॥गमनहीं तेहनें बैठा म ॥ बंबित पूरै अलिराम ॥ ४४ ॥ निरधाख्या में ये आधार ॥ जवसायर ऊतारै पार॥ारतीयानी पार त नंग ॥ धरै ध्यान ते लहै सुरंग ॥ ४५ ॥ समस्या सहाय दीयै यद राज॥ तेहना मोटा अबै दिवाज ॥ बुझि हीणने बुद्धि प्रकास ॥ गूंगाने चै वचन विला स ॥४६ ॥ कुखियांने सुखनो दातार ॥ जय गंजण रंजण अवतार ॥ बंधन तूटै बेडी तणा ॥ श्रीपाव नाम श्रदर समरणा ॥ ४ ॥ (दूहा) श्रीपाव नाम अदर जपै ॥ विश्वानर विसराल ॥ हस्ति यूथ दूरेटलै ॥ उद्धरसींह सियाल ॥ ४ ॥ चोर तणा जयचकवै ॥ विष अमृत उडकार ॥ विषधरनो विष ऊतरै ॥ संग्रामें जयजयकार ॥ ४ए ॥ रोग दालिज फुःख ॥ दोहग दूर पुलाय ॥ परमेसर श्री पासनो ॥ महिमा मन्त्र जपाय ॥ ५० ॥ (कमखानीचाल )२ जंजितुं जंजितुं जंज उपसम धरी ॥ ॐ हीं श्री श्री Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जैनधर्मसिंधु. पार्श्व अक्षर जपतै ॥ नूतनें प्रेत कोटिंग व्यंतर सुरा उपसमै ॥ वार इकवीस गुणंतें ॥ ५१ ॥ ( उं० ) शुद्धरा रोग सोगा जरा जंतनें ॥ ताव एकांतरा त्ततै ॥ गर्भबंधन ब्रणं सर्पविलू विषं ॥ चालिका वालमेवा ऊतै ॥ ५२ ॥ ( जं ) साइणी माइणी रोहणी रंकणी | फोटका मोटका दोषहुंतें ॥ दाढ जंदरतणी कोल नोला ती ॥ खान सीयाल विक रालदंतें ॥ ५३ ॥ ( ं) धरणेंद्र पदमावती समर सोनावती ॥ वाट आघाट अटवी अटतै ॥ लखमी लीला मिलै सुजस वेला वलै ॥ सयल श्रास्या फलै मन हसंतें ॥ ५४ ॥ ( जं० ॥ अष्टमहाजय हरै कान पीमा टलै ॥ ऊतरै सूल सीसगजांते ॥ वदत वर प्रीतसुं प्रीति विमला प्रभू ॥ श्रीपास जिए नाम राम मंतै ॥ २५ ॥ ( जं जितु ) इति श्रीगोडी पार्श्वनाथ जी वृद्ध स्तवन समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीजीमगंजन पार्श्वनाथ बंद ॥ ॥ जुजंगी छंदनी चाल ॥ ॥ वारु विश्वमां देश काशी बिराजे, जिहां जान्ह वी नीर गंजीर गाजे ॥ पुरी नाम वाराणसी तिहां प्रसिद्धि, शोना स्वर्गनी जिणे उलाली लीधी ॥ १ ॥ घं शुं वखाणे कवि घाट तेहनो, सहु चित्त चाहे जोवा रूप जेनो ॥ धराधीश तिहां खङ्गधारी धरा ने पाले, प्रेमशुं अश्वसेना निधाने ॥ २ ॥ वामा तेह Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिबेद. ५१५ नी गेहनी रूपे रंजा, शीले सर्व नारी जीती ए अचं जा ॥ सदा सुंदरी ते सोहे चं वयणी, सुती सेज मां एकदा मध्य रयणी ॥ ३॥ सुरलोक दशमां थकी जे सनूरे, प्रजुपार्श्व वामाकुखे पुण्यपूरे ॥ चतुर्थिदिने चैत्रनी कृष्ण पदे, वस्या गर्नवासे विशाखा सुरदे ॥४॥ देवी चौद सुहणां तदा दिव्य देखे, महामो द पामी माने तेह लेखे ॥ जायो पोश मासे दशमी अंधारी, आखाविश्वनो जेह उद्योतकारी॥ ५ ॥ मलि दिग्कुमारी सुरेंजे मलायो, गायो इलरायो पूजीने वधायो ॥ वधंते प्रनु यौवने जाम जायो, प्रजावती राज कन्या प्रणायो ॥ ६ ॥ विषय लोग विलशी वस्या गृहवासे, वरश त्रीशमे व्रत लीधुं उहासे ॥ त्र्याशी रात्रि मौने रह्या मुक्ति वासी, तप स्या करी शुक्क ध्यानाज्यासी, ॥ ७॥ चोखे चित्त निर दोष चारित्र पाली, बहु कर्मना वृदनां मूल बाली॥ थया केवली चैत्रनी कृष्ण चोथे, देखे लोक अलोकने ज्ञानज्योते ॥७॥ मली देवताये महामोदधारी, कस्यो त्रिगडो विश्व व्यामोह कारी॥ स्वामी दिव्य सिंहासने बेगसोहे ॥ बारे परखदानां बहु मनमोहे ॥ ए॥ नवे नेहरुं एहने जे निहाले ॥त्रिधा ताप संतापते पूर टाले ॥ अहो एक नजरे जिणे एह दीगे, मुने मान खो तेहनो लागे मीठगे ॥ १० ॥ दीये देशना दीन बंधु दयानी, प्राणी पुण्य पामी सुणो जैन वाणी ॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ जैनधर्मसिंधु. लही दुर्लनं मानवं ए शरीरं, मुधा कां गमोडो बुध बोध हीरं ॥ ११ ॥ मदे जेह माता पड्या मोह पा से, धने जेह धाता विषयने विलासे ॥ मुंफाया मुग्ध माया तणा फंद मांही, मिथ्या ते ग्रस्या शुछने ते न चाही ॥ १५ ॥ धरे धर्मने जे होश धर्म धोरी, तजी कर्मने ते कापे कर्म दोरी॥ नजी शुद्धने ते लहे शुभ हेतु, थाय तेह मिथ्यातनो धूम केतु ॥ १३ ॥ वसी वासना जेहनी जैन वयणे, नावे आमलो तेहने को ३ नयणे ॥ जेहनां चित्त सिद्धांत मांहे रमेडे, किम तेह नूला कहोने जमे ॥ १४ ॥ मिथ्याते लीना तेहने ते गमे, दोषी जीवना ते जिहां तिहां दमे ॥ फरी लाख चोराशीना फेर मांहे, विना नाथ तेहने धरे कोण बाहे ॥ १५ ॥ जिणे जैन सिद्धांत नी युक्ति जाणी, कहोनेको तेहने गमे अन्यवाणी ॥ हीरे जे हव्यो उलखी देत श्राणी, कहो किम ते संग्रहे काच प्राणी ॥ १६॥ देश देशनाने प्रजु तीर्थ थापे, जग जंतु बंधुपणे बोध श्रापे ॥ मही मं मले विचरे जेम वायु, पुरुं जोगवी एकसो वर्ष श्रायु ॥ १७ ॥ मासे श्रावणे शैल समेत श्रृंगे, वश्या श्वेत षष्टी दिने मुक्तिसंगे ॥ प्रन्नु नीम नंजन नामे नजं ता, जांजे जीडने सुख आपे अनंता ॥ १७ ॥ सेवो शुद्ध बुझे सदा बोध दाता, जजो नाव नक्ते प्रनु नूत त्राता ॥ सेव्यो हेज\ एह सहजे सधारे, Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिवेद. ५१७ पूज्यो प्रेमशुं पापना बंध वारे ॥ १५ ॥ वधे वंदतां संपदा जे वधारे, धघु ध्यानमां सेवकां बाहे धारे ॥ अर्यो उबटे आपदाथी उगारे, स्तव्यो त्रिविधे जेह संसार तारे ॥ २० ॥ नम्यो नेहशुं जेह नवेनिकि आपे, कीजे चाकरी तो चारे गति कापे ॥ जोतां जेहनी श्रादि कोई न जाणे, कवि तेहना गुण केता वखाणे ॥२१॥ नमो नाथ अनाथ सनाथ कारी, नमस्ते अरूपी बहु रूपधारी ॥ नमो बुद्धि शुद्धा तमा सिकि नर्त्ता, नमो पारगामी नमो सौख्य कर्ता ॥२॥ नमो मुक्ति दाता नमो तुं विधाता, नमो विश्वनेता नमो तुं विख्याता ॥ नमो सर्व वेदी अवे दी नमस्ते. नमो शंकरो सर्वव्यापी नमस्ते ॥ २३॥ सेढी वेत्रवत्योपकंठे दिदारु, खेहुँ हरीश्राद्धं वसे गाम वारु ॥ राजे तत्र त्रेवीशमो तीर्थराय, जेहना नामथी कोटि कल्याण थाय ॥ २४ ॥ धरणे पद्मा वतीने पसाय, सदा संघना विघ्न पूरे पलाय ॥ उद यरत्न नांखे गाता पार्श्वस्वामी, पूरी आजमेंतो नवे निछिपामी ॥२५॥ ॥ अथ सरस्वती अष्टक प्रारंजः॥ ॥ हरिगीत बंद ॥ ॥ बुद्ध विमलकर नाव बुधवर, निरूप रमनी, निर खियें ॥ वर देय न बाला, पद प्रवाला, मंत्रमा ला हर खियें ॥ स्थिर थानंना, अति अचंना, रूप Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ जैनधर्मसिंधु. रंजा जलकती ॥ नजियें नवानी, जगत जानी, राज रानी सरस्वती ॥ १॥ सुरराज सेवित, देख दैवत, पद्म पेखत, श्रासनं ॥ सुखदाय सूरति, माय मूरति, पुःख पुरति निवारनं ॥ त्रिहु लोक नारक, विघ्न वारक, धरा धारक, धरपती ॥ नजियें ॥२॥ केवियां कोपित, लोन लोपित, अवनि उपित, ईश्व री ॥ शंतोष धारन, विघन वारन, मदन मारन, महेश्वरी॥खल दहां खंगन, बिजबंडन, पुष्ट दमन, नरपती॥ नजियें ॥३॥ शिव शक्ति साची, रंग राची, अज अजाची, योगिनी॥मद करन मत्ता तरन तत्ता, धत्त धत्ताध्वं गिनी ॥ जिनाणपंति, मन रमति,धवल दंति, वरमती ॥ नजियें॥४॥ जलथल जनानी पव न पानी, मति बखानी, वीजली ॥ गिरवरां गहन, वाघ वाहन, सर्प साहन, शीतली ॥ हदहांक धारी, हत हजारी, धनुष धारी, जगवती॥ नजियें॥५॥ कणणाट जबरि, विधिम धपवरि, रिरिरिरधर,खजि ये॥धिधिधौं किधौं, गमदि घिधिक धिरतं, घिधिक धौंग मदी गजियें ॥ झांकिौंनौं रुरुरु मतियां त्तत्तकि त्रांत्रां दमकती॥ नजियें ॥६॥रिरि रमकि रमि रिमि, फिकिम किमि किमि उमकि उम पग रञ्चि यें ॥ घम घमकि घम घम ग्रहणिक ग्रहणि, गमश्र ति अमग नृत्ति मचियें ॥ तत थेश्य तांनन, मात मानन, अचल थानन दरसती ॥ नजियें ॥७॥चव Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिछेद. ५१ए चक्र चालन, जटिक कालन, गर्व गालन, गंजनी ॥ विरदां विदारन, महिष मारन, दलिज दारन, जंज नी ॥ चरचिये चंडी, खलांखमी, मदन मंडी मलक ती ॥ जजियें ॥ ॥ कविकरे अष्टक, टले कष्टक विसन पृष्टक कजियें ॥ मणिमौलि मंडित, पढेपंमि त, ए अखंमित पेखियें ॥ दयासुर देवी, सुरांसेवी, नित नमेवी, जगपती॥नजियें॥ ए॥इति समाप्त ॥ ॥अथ क्रोध मान माया लोननो बंद ॥ ॥ चोपाई॥ ॥ पहेलां सरस्वती, लीजे नाम, चोवीश जिनने करुं प्रणाम ॥ क्रोध मान मायाने लोन, नाखं अर्थ करी थिर थोज ॥ क्रोधे तप कीधो परजले, क्रोधे कर्म घणेरां फले ॥ क्रोधे करणी रूडी जाय, क्रोधे समतारस सूकाय ॥२॥ क्रोध तणे वश कांश नवि गणे, मातपिता गुरुने अवगणे ॥ क्रोधे पंचेंडि य मुंजाय, क्रोधे फेर घणेरो थाय ॥ ३ ॥ क्रोधे विकथा वाधे घणी, क्रोधे कर्म निकाचित नणी ॥ क्रोधे बे बंधव आंफले, क्रोधे जरत बालुबल लडे ॥ ॥४॥ क्रोधे श्रचंकारी जटा, क्रोधे परशुं करे खटप टा ॥क्रोधे अरजुन मालि नाम, महावीर स्वामी किधो सुगम ॥ ५॥ क्रोधे कूड कपट केलवें, क्रोधे लुमि गति मेलवे ॥ क्रोधे फरससम फरसी फेरवे, क्रोधे सुजुम दल मेलवे ॥ ६॥ क्रोधे ब्रह्मदत्त थयो Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ այս जैनधर्मसिंधु. कठोर, ब्राह्मण डोला काढ्या जोर ॥ क्रोधें सासु थई नणंद, सुनद्रासती शिर कीधो फंद ॥ ७ ॥ क्रोधें काया कर्मनो बंध, क्रोधें घरमा पैंसे धंध ॥ क्रोधें चेडो ते महाराय दल विहल मामा घरजा य ॥ ८ ॥ क्रोधें कोशिक कटकी करे, जांगी विशा ला पो फरे ॥ क्रोधें लखमणने वलि राम, क्रोधें रावण टाल्यो वाम ॥ ए ॥ क्रोधतणी बे खोटी वात, कोईन करशो एहनी तात ॥ क्रोधें कर्म घणां बंधा य, क्रोधें दुर्गति पकवा जाय ॥ १० ॥ तेह जणी सहु ठंडो क्रोध, सुख निरबाध लहो वलि बोध ॥ मान ती दवे सुजो वात, मानतजे ते सबल सुजात ॥ ११ ॥ माने मान तुरंगें चडे, माने मोह जालमां पडे ॥ माने नीच कुलें अवतरें, माने विनय मूल न विजडे ॥ १२ ॥ माने चउगतिने अनुसरे, माने जंबुक जव मांहे फिरे || शांब प्रद्यन को विचार, माने शियाल तो अवतार ॥ १३ ॥ माने बलराजा निरधार, ब्राह्मण रूप धरयो मोरार ॥ मान गयंद तोडे जोर, बाहुबले बांड्यो एकठोर ॥ १४ ॥ मान ती वधती वेल, माने नमिया दुखनी रेल ॥ माने वीरमती ते नार, चंदनें कीधो कुर्कट सार ॥ १५ ॥ प्रेमला लही हायें चमी, सूरज कुंडे कीधो नर फरी ॥ माने दुर्योधन दुःख लहे, माने सर्पनी उपमा कहे ॥ १६ ॥ माने धर्म न पामे कदा, माने कर्म बंधाये Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिजेद. ५२१ सदा ॥ माने मान वधंतो होय, माने जीव फरे सहु कोय ॥ १७॥ माने बुझ गर्ने नर सोय, मान तजे ते सुखियो होय ॥ माने गज असवारी करे, माने जीव अगोचर फिरे ॥ १०॥ मानतणी ते ए गति कही, धर्मी नरते सुणजो सही ॥ हवे मायानो कहं विचार, माया नरक तणो गर ॥१५॥ मायामोह तणो दोष, माया कर्म तणोडे पोष ॥ माया कपटें महिनाथ, माया मोह तणोडे साथ ॥ २० ॥ माया यें कूम कपट केलवे, माहायें लुमी गति मेलवे ॥ माया मानव जूगेलवे, माया नरनारी शोषवे ॥२१॥ माया श्राखाम नूति मुणींद, मायायें लामु वोदोख्या फंद ॥ माया मोहो टो ने मकरंद, माया पडिया सू रज चंद ॥२२॥ माया फंद तणीजे जाल, माया सिंह तणी फाल ॥ माया अधिक करे उफंड, माया कर्म तणो कुंग ॥ २३ ॥ माया मांहे धर्म न थाय, माया पुण्य करे अंतराय ॥ २४ ॥ बोहोटो महोटो माया धरे, माया सबल संसारें फिरे ॥ माया जालें बांध्यो जीव, मायाये प्राणी करतो रीव ॥ २५ ॥ अर्थ कह्यो मायानो सार, लोन तणो हवे कहुं विस्तार ॥ लो ने लक्षण जाये सहु, लोने पमिया दाणव बहु ॥२६॥ लोने लाज घणेरो थाय, लोन्ने नरनारी जाय ॥ लो ने गांमो घेलो होय, लोने धर्म न जाणे कोय ॥७॥ लोने सागर दत्त जलमां पड्यो, लोन सुजुम चक्रीने Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैनधर्मसिंधु. नड्यो ॥ लोने संचय धननो करे, माखी जिम महू लें फिरे ॥ २८ ॥ लोने धन नवि खरचे धणी, वागुल जव पामशे कां फणी ॥ लोने देश विदेशें जाय, लोने नरनारी फलाय ॥ २० ॥ पुण्य होय तो पामें वली, बेठा धर्म करो मन रली ॥ क्रोध लो जनो बांकोपास, श्रावक धर्म करी उल्लास ॥ ३० ॥ लोने नाना मोटो जीव, लोजे कार्य करे सदीव || लोन तपी गति ढंको सार, तीर्थयात्र करो उदार ॥ ३१ ॥ ढार पांत्रीसा वरश मकार, वागमदेश वडो सार ॥ देवदर्शन करोसुखकार, पामो जिम जव सायर पार ॥ ३२ ॥ क्रोध मान माया नो संग, वली aisो लोन प्रसंग ॥ कहे कवि सुणो पंक्ति राय, कांति विजय हरखे गुण गाय ॥ ३३ ॥ ॥ अथ श्रीमणिजीनो बंद प्रारंभः ॥ ॥ श्री मणि सदा समरो, तर बीचमें ध्यान खं धरो ॥ जपियां जय जयकार करो, जजियां सहु नित्य जंकार जरो ॥ १ ॥ जेकुशल करे नामज लियां, आनंद करे देव याश कियां ॥ सौनाग्य वधे जग सहस्सगुणो, दिलसेव्यादे प्रभु जश डुगुणो ॥ २ ॥ रिय सह लगा जागे, विरुयावैरी जन पाय लागे ॥ संकट शोक वियोग हरे, जंण वेला आय सहाय करे ॥ ३ ॥ छूत जयंकर सहु जागे, जह योगी सायणी नवि लागे ॥ वाय चोराशी जाया Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिछेद. ५२३ लगी, लखमी सहु श्राय मले वेगी ॥४॥ गुल पा पमियां गुरुवार दिने, लापसिया लाऊ शुद्ध मने ॥ धुप दिप नैवेद्य धरो, श्रापम दिन पूजा अवश्य क रो॥५॥ जेहने दिनप्रति जाप सदा, तस सुपनांतरमे प्रत्यद कदा ॥ ज पियां सहु जाये आपदा, कोश मणा घरे रहे न कदा ॥६॥ मुहमद सारु तमें जस कर्यो, गुण सार जिस्यो तमें गुण कस्यो ॥ श्री दी ना नाथजी दया करो, शिर उपर हाथ दियो सख रो॥७॥ नवियण जे नावें नजशें, कारज सिकि आपणी करशे ॥ पूज्यां पुत्र वधे उगणा, किणी वा तें कदि रहें नहि उणा ॥ ॥ श्री मणिन मनमें ध्यावो, सुख संपत्ति नहु वेगें पावो ॥ लक्ष्मी कीर्तिवर श्राप लहे, शिवकीर्ति मुनि एम सुजस कहे ॥ए॥ ॥ अथश्रीमणिनजीनी श्रारति प्रारंजः ॥ ॥जय जय निधि, जय माणिक देवा ॥जयमा०॥ हरि हर ब्रह्म पुरंदर, करता तुज सेवा ॥ जयदेव जयदेव ॥ १॥ तुं वीराधिप वीरा, तुं वंबित दाता ॥ तुंवं ॥ माता पिता तुं सहोदर, डो प्रजु जगत्राता ॥ जय दे० ॥२॥ हरि करीबंधन उदधी, फणिधर अरि अनला ॥ फणि० ॥ ए तुज नामे नासे, साते जय सघला ॥ जयदे ॥ ३ ॥माक त्रिसुल फूल माला, पासांकुस बाजें ॥ पासांग ॥ एक कर दाणव मस्तक, एम षट् जुज राजे॥ जयदे ॥४॥ तुं Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ जैनधर्मसिंधु. भैरव तुं किंन्नर, तुं जग महादीवो ॥ तुंज० ॥ काम कल्पतरु धेनु, तुं प्रभु चिरंजीवो || जयदे० ॥ ५ ॥ तपगपति सुरि, ध्यावे तुऊ ध्यानं ॥ ध्यावे० ॥ मणि जड़ जड़कर, आशा विसरामं ॥ जयदे० ॥ ६ ॥ संवत् अढारहसें पांसव, श्री माधव मास ॥ श्रीमा० ॥ दीपविजय कविरायनी, पूरो सहु यास ॥ जयदे० ॥ ॥ ७ ॥ इति श्रीमणिजइजीनी आरति ॥ ॥ अथ ज्वर ( ताव ) बंद ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ॐ नमो आनंद पुरनगरे, अजयपाल राजान ॥ माता श्रजया जनमियो, ज्वर तुं कृपा निधान ॥ १ ॥ सातरूप शक्ति हुई, करवा खेल जगत ॥ नाम धरा वे जूजुवा पसख्यो तुं इत्त उत्त ॥ २ ॥ एकांतरो बेयांतेरो, ऋइयो चोथो ताम, शीत उष्ण विषम ज्वरो, ए साते तुज नाम ॥ ३ ॥ ॥ छंद ॥ ॥ ए साते तुज नाम सुरंगा, जपता पूरे को मि उमंगा ॥ तें नाम्या जे जालिम जूगां, जगमां व्यापी तुज जस गंगा ॥ ४ ॥ तुज श्रागें नूपति सब रंका, त्रिभूवनमां वाजे तुज मंका ॥ माने नहिं तु केहनी शंका, तूठो पे सोवन टंका ॥ ५ ॥ साधक सिद्ध तणा मद मोडे, असुर सुरा तुज आागल दोडे ॥ कुछ धीना कंधर तोडे, नमीचाले तेहने तुं बोडे ॥ ६॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिद. ५२५ श्रावंतो थरहर कंपावे, माह्याने जिम तिम बहकावे पहिलो तुं केडमां थी आवे, सात शिरख पण शीत न जावे ॥ ७॥ ही ही हुं हुंकार करावे, पांश लिया हामां कममावें ॥ उनाले पण अमल जगावे, ताऐं पहिरणमां मूतरावे ॥ ७ ॥ आशो कार्तिकमां तुज जोरो, हव्यो न माने धागो दोरो । देश विदेश पमावे शोरो, करे सर्व तुं तातो तोरो ॥ए॥ तुं हाथीनां हाडां नंजे, पापीने ताडे करपंजे ॥ नक्ति वत्सल नावें जो रंजे, तो सेवकने कोय न गंजे॥१०॥ फोमक तोमक झमरु माकं, सुरपति सरिखा माने दाकं ॥ धमके धुंसड धांसम धाकं, चढतो चाले चंच ल चाकं ॥ ११ ॥ पिशुन पडामण नहीको तोथी, तुज जस जील्या जाय न. कोथी॥शी अणखील करो ए थोथी, मेहर करीअलगा रहो मोथी॥१२॥ जक्त थकी एवमीकां खेमो, अवल अमिनां बांटां रेडो ॥ लाखा नक्तनो ए निवेमो, महाराज मूको मुज केमो ॥ १३ ॥ लाजवसोमां अजया राणी, गुरु बाण मानो गुण खाणी ॥ घरें सिधावो करुणा आणी, . कहुंबु नाके लींटी ताणी ॥ १४ ॥ मंत्र सहित ए बंदजे पढशे, तेहने ताव कदी नव चढशे ॥ कांति बल देही नीरोगं, लेदेशे लखमी लीला जोगं॥ १५ ॥ ॥ॐ नमो धरि श्रादि, बीज गुरु नाम वदीजें ॥ श्रानंदपुर अवनीश, अजयपाल श्राखीजें ॥ अजया Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ जैनधर्मसिंधु. जात अढार, वांचिये साते बेटा ॥ जपतां एहिज जाप, जक्तसुं न करे खेटा ॥ उतरें अंग चढियो पल कमे, तारा वयणे मुदा॥ कहे कांति रोग नावे कदि, सार मंत्र गणियें सदा ॥ १६ ॥ इति ज्वरबंद समा प्त ॥ ए बंद सात वार, अथवा एकवीश वार सांन ले गणे तो ताप जतो रहे ॥ ॥अथ श्री यंत्र महिमा वर्णन बंद ॥ ॥ चोपाई॥ ॥ जिण चोवीशे पय प्रणमे वि, सह गुरु तणा व चन निशुणे वि॥ यंत्र तणो महिमा अति घणो, जावे बोर्बु नवियण सुणो ॥ १॥ शोले कोठे लखिये वी श, सघला जय टाले जगदीश ॥ अगवीसमां रोग जय हरे, उत्रीसें युति जय करे ॥॥त्रीशे वलि सायणि नासंति, बत्रीसे सुख प्रसवते हुति ॥ देवध्व जा जो लखियें श्में, परचक्र नय न होवे किमें ॥ ॥३॥ घर बारणे जो लखियें एह, कामण नव परा नवे तेह ॥ शाकणि संहारी न हुवे तिहां, चोत्रीसो यंत्र लखिये जिहां ॥४॥ चालिसे शीस रोग टले, पागे वयरी हेला दले ॥ अने वली करबे बहु मान वसुधा वलि वधारे वान ॥५॥ बासठे वंध्या गर्नज धरे, एसा वयण सद्गुरु उच्चरे ॥ चोसठनो महीमा बे घणो, मार्गे जय न होय को तणो ॥६॥ वारि जय रिपु शाकणि तणां, चोसपना महिमा नहिं म Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिजेद. णां ॥ बावत्तरीजूत नूरि जेह. पूंजे नर जय पामे ते ह ॥ ७॥ पंचाशी पंथे जय हरे, अव्योतरशो शिव सुख करे ॥ वीसोत्तरशो नयणे निरखंत, प्रवस वेद न ते नवि हुँत ॥ ७॥ बावनशोनो उली नीर, मुख धोवे हुवे वाहालो वीर ॥ सतरिसयनो महिमा अ नंत, तुब बुद्धि किम जाणे जंत ॥ ए ॥ एकसो बहु त्तरो यंत्र प्रनाव, बालकने टाले पुष्ट नाव ॥ बिहुँसो नो यंत्र लखियें बार, वाणिज्य घणां होय हाट मका र ॥ १० ॥ त्रणशे नरनारीनो नेह, विणगे वाधे नही संदेह ॥ चारशे घर जय नवि होय, कण उत्प त्ति घणी खेत्रे जोय ॥ ११ ॥ पांचसे महिला गर्नज धरे, पुरुषहने पुत्र संतति करे ॥ बसे यंत्र होये सुख कार, सातसे ऊगडे होये जय कार ॥ १२ ॥ नवसें पंथे न लागे चोर, दशसें फुःखन पराजवे घोर ॥ ग्यारसें ले जे जीव उष्ट, तेहना जय टाले उत्कृष्ट ॥ १३ ॥ बंदि मोक्ष बारसे होय, दश सहसे पुनः ते हिजहोय ॥ वली सयलनीरदा करे, एमयंत्र तणी महिमा विस्तरे ॥ १४ ॥ पंचाससे राजादिक मान, शाकणि दोष निवारण ग्यान ॥ कंठे तथा मस्तक जे धरे, अशुल कर्मते शुद्धज करे ॥ १५ ॥ बावनना नो मस्तके तथा, कंठे खेत्रपालनो हित सदा ॥ पण यालीस शिर कंठे होय, सर्व-वश्य थाय तस जोय ॥ ॥ १६ ॥ कुंकुम गोरोचंदन सार, मृगमदसों चौदश Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ जैनधर्मसिंधु रवि वार ॥ पवित्र पणे पुष्य मूल नक्षत्र, एकमनां जो लखिये यंत्र ॥१७॥ पार्श्व जिनेश्वर तणे पसाय, अलिय विधन सब दूर पलाय ॥ पंमित अमर सुंद र श्म कहे, पूजे परमारथ सब लहे ॥ १७ ॥ ॥अथ मंगल चार ॥ ॥ सिकार्थ नूपति शोहे दत्रियकुंमें, तस घेर त्रिशलाकामिनीए ॥ गजवर गामिनी पोढीय नामि नी, चउद सुपन लहे जामिनी ए ॥ त्रुटक जामि नी मध्ये शोजतारे, सुपनदेखे बाल ॥ मयगल झष जने केसरी, कमला कुसुमनो माल ॥ इंसु दिनकर ध्वजा सुंदर, कलश मंगल रूप ॥ पद्म सरजलनिधि उत्तम, अमर विमान अनूप ॥ रत्ननो अंबार उज्व ल, वन्हि निर्धूम ज्योत ॥ कल्याण मंगलकारी माहा, करत जग उद्योत चजद सुपन सूचित विश्व पूजि त, सकल सुख दातार ॥ मंगल पहेबुं बोली एए, श्री वीर जगदाधार ॥ १ ॥ मगध देशमां नयरी राजगृही, श्रेणिक नामें नरेशरू ए॥ धनवर गोवर गाम वसे तिहां, वसुनूति विप्र मनोहरु ए॥ त्रुट क ॥ मनोहरु तस मानिनी, पृथिवी नामें नार ॥ अनूति आदेश , त्रण पुत्र तेहने सार॥ यज्ञकर्म तेणें श्रादखु, बहु विप्रने समुदाय ॥ तेणें समे ति हां समोसस्या, चोवीशमा जिनराय ॥ उपदेश तेह नो सांजली, लीधो संजमनार ॥ अगीयार गणधर Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिवेद. थापीया,श्रीवीरें तेणी वार॥ईन्डनूति गुरुनगते थयो माहा लब्धिनो नंमार ॥ मंगल बीजुं बोली, श्री गौतम प्रथम गणधार ॥२॥ नंद नरिंदनो पामली पुरवरें, सकमाल नामें मंत्री सरू ए ॥ लाबलदे तस नारीअनुपम, शीयलवती बहुसुखकरू ए ॥ त्रु टक ॥ सुखकरू संतान नव दोय, पुत्र पुत्री सात ॥ शीयलवंतमां शिरोमणि, थूलील जग विख्यात ॥ मोह वशे वेश्या मंदिर, वस्या वर्षजबार ॥ नोग नली पेरें नोगव्या, ते जाणे सहु संसार ॥ शुध संजम पामी विषय वामी, पामी गुरु आदेश ॥ कोश्या आवा रह्यो निश्चल, मग्यो नहीं लवलेश ॥ शुरु शीयल पाले विषय टाले, जगमा जे नर नार॥ मंगल त्रीजुं बोलीए, श्रीथूलिन अणगार ॥३॥ हेममणि रूप मय घमित अनुपम, जडित कोशीसां तेजेंगेए ॥ सुरपति निर्मित त्रण गढ शोजित, मध्य सिंहासन जगमगे ए॥ त्रटक ॥ जगमगे जिन सिं हासने ए, वाजिन कोमाकोम ॥ चार निकायना दे वता, ते सेवे बेहुकरजोड ॥ प्रातिहारज आठशुं रे, चोत्रीश अतिशयवंत ॥ समवसरणें विश्वनायक, शो ने श्री नगवंत ॥ सुरनर किन्नर मानवी, बेठीते पर्ष दा बार ॥ उपदेश दे अरिहंतजी, धर्मना चारप्रका र॥दान शीयल तप नावना रे, टाले सघलां कर्म ॥ मंगल चोथु बोलीयें, जगमांहे श्रीजिनधर्म ॥ ए Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० जैनधर्मसिंधुः चार मंगल गावशेजे, प्रजातें धरी प्रेम ॥ ते कोमि मंगल पामशे, उदयरत्न नांखेएम ॥४॥ ॥अथ नीडनंजन पार्श्वनाथनो बंद ॥ ॥ फूलणा बंद प्रजाती ॥ जीमनंजन प्रजु नीम नंजन सदा, नहिंकदा निष्फल थायसेवा ॥ नविजन नावशुं जजन मांही जजे, परमपद संपदा तखत लेवा ॥१॥ काशी वणारसी जिनपद पुरे जयो, वामा अश्वसेन सुत विश्वदीवो ॥ सेढीवेत्रक तटे खेटकपुरत, कल्पनी कोड कृपाल जीवो ॥२॥ नीम नव नित्तिनय नाव नंजणो, त्नक्ति जनरंज णोजावें नेट्यो ॥ आज जिनराज मुज काज सिझां सवे, मोह राजाननो मान मेव्यो ॥३॥ कोटि मन कामना सुजस बहु ठगमना, शिव सुख धामना आज साध्यां ॥ मंगल मालिका आज दीपालिका, मुज मन मंदिरें मोज वाध्या ॥४॥ पाठकें गठमें कात्ति वद श्राग्में, सतर अव्योत्तरें पासगायो ॥ उदयनिज दा सनी एह अरदास सुणि, हितधरी नाथजी हाथ सायो ॥५॥ इति ॥ ॥अथ श्री गौतम गुरु प्रजात बंद ॥ जयोजयो गौतम गणधार, मोटी लब्धितणो नं डार ॥ समरे वंबित सुख दातार, जयो जयो गौतम गणधार ॥१॥ वीरवजीरवमो अणगार, चौद हजार मुनि शिर दार ॥ जपतां नाम होय जयकार ॥ ज Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिछेद. ५३१ यो० ॥२॥ गय गमणी रमणी जग सार, पुत्र कल त्र सजन परिवार ॥ आपे कनक कोमि विस्तार ॥ जयो ॥३॥ घरे घोमा पायक नहींपार, सुखासन पालखी उदार ॥ वैरी विकट थाये विसराल ॥ जयो ॥ ४ ॥ प्रह उही जपियें गणधार, शकि सिकि कमला दातार ॥ रूपरेख मयण अवतार ॥जयो ॥५॥ कवि रूप चंद गुरु केरो शिष्य, गौतम गुरू प्रणमो निशदिस ॥ कहे गुण चंद ए शमता गार ॥ जयो ॥५॥इति ॥ ॥अथ पार्श्वनाथ बंद ॥ ॥ चोपा ॥ सकलसार सुरतरु जगजाणं, जसु जस वास जगत परिमाणं ॥ सकल देव शिरमुगुट सुचंगं, नमो नमो जिनपति मनरंगं ॥१॥पामधी च्छेद ॥ जो जन मन रंगं, अकल अजंगं, तेज तुरं गं नीलंगं ॥ सवि शोना संगं, दग्ध अनंगं, शिश जुजंगं चतुरंग ॥ बहु पुण्य प्रसंगं, नित्य उबरंगं, नव नव रंगं नारंगं ॥ कीरति जलगंगं, देश पुरंगं, सुरपति संगं सारंगं ॥ १॥ सारंगा वक्र, पुण्य पवि त्रं, रुचिर चरित्रं जीवित्रं ॥ तेजो जित मित्रं, पंक ज पत्रं, निर्मल नेत्रं सावित्रं ॥ जग जीवन मित्रं, तरु सत सत्रं, मित्रामित्रं मावित्रं ॥ विश्वत्रय चित्रं, चामर बत्रं, सीस धरित्रं पावित्रं ॥ २ ॥ पावित्रा जरणं, त्रिजुवन सरणं मुगुटा नरणं आचरणं ॥ सुर Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. अर्चित चरणं, शिव सुख करणं, दारिज हरणं, श्रावरणं ॥ सुख संपत्ति नरणं जवजल तरणं, अघ संहरणं, जहरणं ॥ गोथमृत फरणं, जन मन हर णं, वरणावरणं श्रादरणं ॥ ३ ॥ आदरणा पालं, जाकऊमालं, नित नूपालं अयुपालं ॥ अष्टमी शशि समनालं, देव दयालं, चैतन चालं सुकमालं ॥ त्रिनु वन रखवालं, महाकालं, महा विकरालं, नय टालं ॥ श्रृंगार रसालं, महकेमालं, हृदयविशालं नूपालं ॥४॥ कलश ॥ उप्पय ॥ अकल रूप उदा र, सार शिव संपत्ति कारक ॥ रोग सोग संताप, रिय उह उःख निवारक ॥ चिहुँ दिश श्राण अखंग, चंम तप तेज दिणंदह ॥ अमर अपनर कोमि, गावे जस नमे नरिंदह ॥ श्री शंखेश्वर सर मणि, पाय अधिक मंगल नीलो ॥ मुनि मेघराज कहे जिनवर जयो,श्रीपार्श्वनाथ त्रिजुवन तिलो ॥५॥ ॥अथ गोमीपार्श्वनाथनो बंद ॥ ॥ दोहा ॥ धवलधिंग गोमी धणी, सेवक जन साधार ॥ पंचम आरे पेखियें, साहिब जग श्रा धार ॥१॥जुजंग प्रयात वृत्तं ॥ तजोमान माया जजो नाव श्राणी, वामानंदने सेवियें सार जाणी ॥ जुवो नाग नागिणी नाथ ध्याने, पाम्या शक्रनी संप दा बोधि दानें ॥ ॥ वश्या पाटणे काल केतो धरामां, पधास्या पर्नु प्रेमशुं पार करमां ॥ थलीमा Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिछेद. ५३३ वली वास कीधो विचारी, पूरे लोकनी श्राश त्रैलो क्य धारी ॥ ३ ॥ धरी हाथमां लाल कब्बान रंगें, ॥ निमी गातमी, रातमी नील अंगें ॥ चडी नीलमे तेजीयें विघ्न वारे, अराध्या थकां पंथ जूलां सधारे ॥ ४ ॥जेणें पाशगोमी तणा पाय पूज्या, शत्रु सर्वदा तेदना सर्व धूज्या ॥ सर्व देव देवी थयां आज बोटां, प्रज्जु पार्श्वनां एक प्राक्रम मोहो टां ॥ ५ ॥ गोमी श्राप जोरे नव खंग गाजे, जेह थी शाकिनी डाकिनी दूर जाजे ॥ पुरे कामना पार्श्व गोडी प्रसिद्धो, हेलां मोहराज जेणे जेर कीधो ॥ ६ ॥ महा पुष्ट मुदत जे नूत मुंडा, प्रजु नाम पामें सर्वत्रास गुमा, जरा जन्मने रोगनां मूल कापे, आरध्यो सदा संपदा सुख थापे ॥ ७॥ उदय रत्न नांखे नमो पार्श्व गोडी, नाखो नाथजी दुःखनी जाल तोडी ॥७॥ . श्रथ चोत्रीस अतिशयनो बंद ॥ ॥श्री सुमति दायक, पुरित घायक, ज्ञान अनु जव श्रीवरी ॥ तस सुगुरु केरा, चरण प्रणमुं, जुग म कर जोडी करी ॥ १ ॥ बहु नाव अक्ते, थुणु जिनवर, चोत्रीसें अतिशयें करी ॥ जे सुगुरु मुख थी, सुएयांते कडं, आगम शास्त्रे अनुसरी ॥२॥ तिहां प्रथम अतिशयें, श्री-जिन केरा, रोम नख वाधे नहीं ॥ नीरोग निर्मल गात्र अस्ति द्वितीय Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ जैनधर्मसिंधु. अतिशय ए सही ॥ ३ ॥ गोदुग्ध सरिखो, मांस लोही, तृतीय तेह वखाणियें ॥ चोथो ते उत्पल गंध सरिखो, श्वासोच्छास सुजाणियें ॥४॥ श्रा हारने नीहार प्रबन्न, एह अतिशय पांचमो ॥ आकाश गत धर्मचक्र हो, गगन बत्र ए सातमो ॥५॥ रह्या अंबर श्वेत चामर, जुगम अष्टम ए कह्यो । फटिक सिंहासन सुनिर्मल, नवम अतिश यए लह्यो ॥६॥श्राकाशगत ध्वज सहस मंमित, इन्छ ध्वज श्रागें चले ॥ ए दशमो अतिशय कह्यो श्रुतमां, देखी परमत खलनले ॥ ७॥ ग्यारमें जि हां, खामी उना, रहे वली बेसे जिहां ॥ च्छाय शु धज देव ततदण, अशोक तरुवर रचे तिहां ॥७॥ छादशम अतिशय प्रजामंडल, पुहें रविकर जीपए ॥ रमणिक सुंदर नोमी नागसो, तेरमो ए दीपए ॥ ॥ए ॥ अधोमुख होय सर्व कंटक चजदमें अतिश य वली ॥ अनुकूल थश्ने परिणमें ऋतु, पंच दशमो सुख लली ॥ १० ॥ संवर्तक पवनें जोमी पूंजे, जो जन खगें ए शोलमे ॥ सुगंध वृष्टी तिहां वरसे, प्रगट अतिशय सतरमे ॥ ११॥ जानु प्रमाणे बीट नीचो, पंचवरण सुहामणा ॥ जलने ते थलना फूल वरसे, अढारमें अतिशय घणा ॥ १२ ॥ अमनोज्ञ शब्दादिकही नासे. जंगणीसमें अतिशयें वली ॥ वीशमें शुनिल थाये, एम कहेते केवली ॥ १३ ॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिछेद. ५३५ एकवीशमें प्रजुतणी देशना, जोजन लगें सविजन सुणे ॥ बाविशमें प्रनु अर्ध मागध, जाषायें जिन जी जणे ॥ १४ ॥ त्रेवीशमे जिनवाणी जननें, हेतु शिव जणी परिणमे ॥ चोवीसमे प्रजु चरण मूलें, वैर जंतुना उपशमे ॥ १५ ॥ अन्यलिंगी नमे जिननें, पंचविंशति अतिशयें ॥ अन्य तीरथी मौन्य थाये, बवीसमें प्रनु निश्चयें ॥ १६ ॥ पण वीश जोजन लगे जिनथी, इतने मारी नहीं ॥ स्वचक्रनें परचक्र न होये, तीस अतिशय ए सही ॥ १७ ॥ अति वृष्टिने अनावृष्टि, उर्जिदत्रण ए नवि उपजे ॥ चोत्री समे प्रजु श्राधि पीडा, व्याधि फुःख न संपजे ॥ ॥ १७ ॥ चोत्रीस अतिशय एह कहिया, सूत्र सम वा यांगमां॥जे जणतां गुणतां हिये धरता, रहे आत म रंगमां ॥ १७ ॥ निज शुद्ध आतम रूप प्रगटे, नावशुं जो ध्यायें ॥ दर्शनादिक रत्न लहियें, पर म सुख पद पाश्य ॥२०॥ अरिहंत जगवंत तणा अतिशय, गणो श्राणी पासता ॥ बहु पुण्य करि यें ध्यान धरियें, सुख लहियें सासता ॥१॥ श्री सूरि विद्या उदधि सेवक, शिष्य एणी परें संस्त वे ॥ मुनि ज्ञान सागर कहे प्रजुपद, सेव मांगु नवो नवें ॥ २२ ॥१७॥ ॥अथ शिखामणनो बंद ॥ ॥ त्रोटक वृत्त ॥ वरदायक माय सलाम करी, Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ जैनधर्मसिंधु. कहुँ सार शिखामण एकखरी ॥ नर नारी सहुहिय डे धरियें, जिम पद संकट उद्धरियें ॥ १ ॥ पर जात समे गुरु देव नमो, जिम दारिद्र दोग दूरें गमो ॥ जगवंत सदा चरणां जजियें, कुलरीति कबू कबु नां तजियें ॥ २ ॥ लमियें नहिं मायनें बापथ की, वढियें नहि कोयथी बाधि जकी ॥ विशवास न कीजें नारि तणो, गुरुराज समीपथी ज्ञान जो ॥ ॥ ३ ॥ दरबार लिकन नां जखियें, घरजींतर अकर नहिं लखियें ॥ रखियें नहिं चाम पमोस सदा, तरियें नहिं नीर सजोर कदा ॥ ४ ॥ विवसाय सहू विधिसें करियें, हग दाव रमी धन ना जरियें ॥ पर देशमां गां फिल नां फरियें, नरपति थकी डरता रहि यें ॥ ५ ॥ जुगटां व्यसनी परि ना रमियें, ऋषि साध नाथकुं ना दमियें ॥ करियें नहिं श्राल अगन्नी तणी, वलि दीजियें सीख सुमित्त जी ॥ ६ ॥ गुरु श्रासन उपरि ना धसियें, दुर्जनसे संगति ना वसि यें ॥ वलि धीज न कीजियें कुछ किसी, घणीवार न कीजियें वात इसी ॥ ७ ॥ वयणां मुख बोलह तें पलियें, सजनथी स्नेह धरी मलियें | परनारिनी संगति प्यार तजो, परमारथ कारज नित्य जो ॥८॥ सुखकार शिखामण एम कहे, कवि उत्तमते जय माल लदे ॥ गुरु चार लहू छाम दीर्घ धरो, इम त्रोटक नामक बंद करो ॥ एं ॥ इति शिखामण बंद Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिबेद. ५३७ को अंथ श्रीअंतरिक पार्श्वनाथ बंद ॥ ॥ प्रनु पासजी ताहरु नाम मी, त्रिहुँ लोकमां एटवू सार दीतुं ॥ सदा समरतां सेवतां पाप नी, मन माहरे ताहरुं ध्यान बेवू ॥ १॥ मन तुह्म पासे वसे रात दीसें, मुखपंकज निरखवा हंस हींसे ॥ धन्य ते घडीजेघडी नयण दीसे, जली नक्ति नावें करीवीनवीसे ॥२॥ अहो एह संसार के फुःख दोरी, इंजजालमां हित्त लागुं गोरी ॥ प्रनु मानियें विनती एक मोरी, मुफ तार तुं तार बलिहारि तो री॥३॥ सही स्वप्न जंजालमा मन मोह्यो, घडी यालमां काल रमतां न जोयो ॥ मुधा एम संसा रमां जन्म खोयों, अहो घृत तणे कारणे जल विलो यो ॥ ४ ॥ एतो जमरलो केसुबां ब्रांति धायो, जई शुक तणी चंचुमांहे जरायो॥ शुकें जंबु जाणी गल्यो दुःख पायो, प्रत्तु लालचे जीवमो एम वाह्यो ॥५॥ जम्यो जर्म नूलो रम्यो कर्मचारी, दयाधर्मनी शर्म में न विचारी ॥ तोरी नर्मवाणी परम सुक कारी, निहुँ लोकना नाथ में न संजारी ॥६॥ विषय वेलमी सेलमी करिय जाणी,नजी मोह तृष्णा तजी तुऊ वाणी ॥ एहवो जलो नूंमो निज दास जाणी, प्रनु राखियें बांहिनी गंहि प्राणी ॥७॥ माहा रा विविध अपराधनी कोमि सहीये, प्रज्जु शरण श्रा व्या तणी लाज वहीयें ॥ वली घणी घणी वीएतिन Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ जैनधर्मसिंधु. म कहीयें, मुंऊ मानसरें परम हंस रहीयें ॥ ८ ॥ कलश ॥ ए कृपा मूरति पास स्वामी, मुगतीगामी गाईयें ॥ यति नक्ति जावें विपति नावे, परम संपद पायें | प्रभु महिम सागर गुण विरागर, पास अंत रिक जे स्तवे ॥ तस सकल मंगल जय जयारव, आनंद वर्द्धन वीनवे ॥ ॥ अथ श्री शांति जिन विनतिरूप बंद ॥ ॥ शारद माय नमुं शिर नामि ॥ हुं गाउं त्रिभुव नको स्वामी || शांति शांति जपे जो कोइ, ता घर शांति सदा सुख होइ ॥ १ ॥ शांति जपी जे कीजें काम, सोइ काम होवे अभिराम ॥ शांति जपी पर देश सिधावे, ते कुशलें कमला लेइ घ्यावे ॥ २ ॥ गर्न थकी प्रभु मारि निवारी, शांतिजी नाम दियो हित कारी ॥ जे नर शांति तथा गुणगावे, रुधि अचिं ती ते नर पावे ॥ ३ ॥ जा नरकूं प्रभु शांति सहाई, ता नरकूं क्या यारति जाइ ॥ जो कतु वंबे सोई पूरे, दारिद्र दुख मिथ्यामति चूरे ॥ ४ ॥ अलख निरं जन ज्योत प्रकाशी, घट घट अंतरके प्रभु वासी ॥ स्वामी स्वरूप कयुं नवि जाय, कहेतां मोमन च रिज थाय ॥ ५ ॥ डार दीए सबही इथियारा, जीत्यां मोह तथा दल सारां ॥ नारि तजी शिवशुं रंग राचे, राज तज्युं पण साहेब साचे ॥ ६ ॥ महा बलवंत कहिजें देवा, कायर कुंथु न एक हणेवा ॥ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिबेद. ५३ए शछि सयल प्रनु पास लहीजें, निदा आहारी नाम कहीजें ॥ ७ ॥ निंदक पूजककू सम नायक, पण सेवकहीकू सुख दायक ॥ तज्यो परिग्रह नये जगना यक, नाम अतित सवे सिछि लायक ॥ ॥ शत्रु मित्र सम चित्त गणीजें, नामदेव अरिहंत जणीजें ॥ सयल जीव हितवंत कहीजें, सेवक जाणी महापद दीजें ॥ ए ॥ सायर जैसा होत गंजीरा, दूषण एक न मांहे शरीरा ॥ मेरु अचल जिम अंतरजामी, पण न रहे प्रजु एकण गमी ॥ १० ॥ लोक कहे जिन जी सब देखे, पण सुपनांतर कबहु न पेखे ॥ रीश विना बावीश परीसा, सेना जीती ते जगदीश ॥११॥ मान विना जग आण मनाई, माया विना शिवशं लय लाई ॥ लोन विना गुणराशि ग्रहीजें, नितु नये त्रिगमो सेवीजें ॥ १२ ॥ निग्रंथपणे शिर उत्र धरावे, नाम यति पण चमर ढलावे ॥ अजयदान दाता सुख कारण, बागल चक्र चले अरिदारण ॥ १३ ॥ श्रीजिनराज दयाल नणीजें, करम सबैको मूल खणीजें ॥ चनविह संघह तीरथ थापे, लबी घणी देखो नवि आपे ॥ १४ ॥ विनयवंत नगवंत कहावे, न काहूकू शीश नमावे ॥ अकिंचनको विरुद धरावे, पण सोवनपद पंकज गवे ॥ १५ ॥ रागनहिं पण सेवक तारे, वेष नहीं निगुणा संग वारे ॥ तजी आरंन निज आतम ध्यावे, शिव रमणीको साथ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० जैनधर्मसिंधु. चलावे ॥ १६ ॥ तेरो महिमा अद्लुत कहियें, तोरा गुनको पार न लहीयें ॥ तुं प्रनु समरथ साहेब मोरा, हुं मनमोहन सेवक तेरा ॥ १७ ॥ तुं रे त्रिलोकतणो प्रतिपाल, हूं रे अनाथ तुं ने दयाल ॥ तुं शरणागत राखणधीरा, तुं प्रज्जु तारक डोवम वीरा ॥ १७ ॥ तुंहि समोवम नागज्युं पायो,तोमेरो काज चड्यो रे सवायो कर जोडी प्रजु विनवू तोसुं, करो कृपा जिनवरजी मोसुं ॥ १५ ॥ जनम भरणना दोष निवारो. नव सागरथी पार उतारो ॥ श्री हलिणाजरमंमन सोहे, तिहां प्रनु शांति सदा मन मोहे ॥२०॥ पद्मसागर गुरुराज पसाया,श्री गुणसागरके मन नाया॥जेनरनारी एक चित्तें गावे, ते मनोवंडित निश्चे पावे ॥१॥इति॥ ॥अथ पार्श्वनाथनो बंद ॥ ॥ जय जय जगनायक पार्श्वजिनं, प्रणताखिल मानवदेवगनं । जिनशासन मंडन स्वामि जयो, तुम दरिसन देखी अनंद लयो ॥ १॥ अश्वसेन कुलां बर नानुनिन्नं, नव हस्तशरीर हरितप्रतिनं ॥ धर सुसेवित पादयुगं, नर नासुरकांति सदा सुनगं ॥२॥ निजरूप विनिर्जित रंजपति, वदनो द्युति शा रद सौमततिं ॥ नयनांबुज दीप्ति विशालतरा, तिल कुसुम सन्निन नासा प्रवरा ॥३॥रसनामृत कंद समान सदा, दशनालि अनार कती सुखदा ॥ धरारुण विधूम रंगघनं, जय शंखपुरा निध पार्श्व Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमपरिबेद. ५४१ जिनं ॥४॥ अतिचारु मुकुट मस्तक दीपे, कानें कुंमल रवि शशि जीपे ॥ तुम महिमा महि मंगल गाजे, नित्य पंच शब्द वाजा वाजे ॥५॥सुर किन्नर विद्याधर श्रावे, नर नारी तोरा गुण गावे ॥ तुक सेवे चोशठ इं सदा, तुज नामें नावे कष्ट कदा॥ ॥६॥ जे सेवे तुऊने नाव घणे, नवनिधि थाये घर तेह तणे ॥अमयडियां तुं आधार कह्यो, समरथ सा हिव में आज लह्यो ॥७॥ मुखीयाने सुखमां तुं दा खे, अशरणने शरणे तुं राखे ॥ तुज नामें संकट वि कट टले, वीमीयां वाला श्रावि मले ॥ ७ नट विट लंपट दरें नासे, तुक नामें चोरचरम त्रासे ॥रण राउल जय तुक नाम थकी, सघले आगल तुक सेवथकी॥ए ॥ यद रादस किन्नर सवि उरगा, करी केशरी दावानल विहगा ॥ वध बंधन नय संघ लां जाये, जे एक मनां तुजने ध्याये ॥ १० ॥ नूत प्रेत पिशाच बली न शके, जगदीश तवानिध जाप थके ॥ महोटा जोटिंग रहे दूरे, दैत्यादिकना तुं मद चूरे ॥ ११ ॥ डायणी सायणी जाय हटकी, जगवंत जयां तुज जजनथकी ॥ कपटी तुक नाम लीया कंपे, पुर्जन मुखथी जीजी जंपे ॥ १५ ॥ मानी मब राला मुह मोडे, तेपण श्रागलथी कर जोडे ॥ उर्मु ख पुष्टादिक तुंही दमे, तुफ जापे महोटा म्लेड नमे ॥ १३ ॥ तुक नामें माने नृप सबाला, तुज यश उ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ जैनधर्मसिंधु. ज्ज्वल जेम चंद्रकला ॥ तुक नामें पामे झकि घ णी, जय जय जगदीश्वर त्रिजग धणी ॥ १४ ॥ चिं तामणि कामगवी पामे, हयगय रथ पायक तुक ना में ॥ जन पद ठकुरा तुं आपे, उर्जन जननां दारि ७ कापे ॥ १५ ॥ निर्धनने तुं धनवंत करे, तूगे को गर नंमार नरे ॥ घर पुत्र कलत्र परिवार घणो, ते सहु महिमा तुम नाम तणो ॥ १६ ॥ मणि मा णक मोती रत्न जड्या, सोवन नूषण बहु सुघम घ ड्या ॥ वली पेहेरण नवरंग वेश घणा, तुम नामें नवि रहे कांश मणा ॥ १७॥ वैरी विरुड नवि ताकि सके, वली चाम चुगल मनथी चमके ॥ बल बिन कदा केहनो नलगे, जिनराज सदा तुऊ ज्योति जगे ॥ १७ ॥ उग गकुर सवि थर हर कंपे, पाखंमी पण को नवि फरके ॥ खूटा दिक सहु नासी जाए, मा रग तुऊ जपतां जय थाए ॥ १५ ॥ जम मूरख जे मति हीन वली, अज्ञान तिमिर तसु जाय टली॥ तुऊ समरणथी माह्या थाये, पंमित पद पामी पूजाये ॥२०॥ खस खांशि खयन पीडा नासे, पुर्बल मुख दीनपणुं त्रासे ॥ गम गुंबम कुष्ट जिके सबलां, तुज जा रोग समे सघला ॥१॥ गहिला गूंगा बहिरा य जिके, तुज ध्याने गतमुख थाय तिके ॥ तनु कां ति कला सुविशेष वधे, तुज समरणशुं नवनिधिसधे ॥२२॥ करि केसरी अहि रण बंध सय, जल जल Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्ठमपरिवेद. ५४३ ण जलोदर श्रष्ट जय ॥ रांधणी पमुहा सबि जाय टली, तुज नामे पामे रंग रखी॥२३॥ श्रीसह श्रीपार्श्व नमो, नमिऊण जपंतां कुष्ठ दमो ॥ चिंता मणि मंत्र जिके ध्याये, तिण घर दिन दिन दोलत थाये ॥ २४ ॥ त्रिकरण शुझे जे आराधे, तस जश कीर्ति जगमा वाधे ॥ वली कामित काम सवे साधे, सम हित चिंतामणि तुऊ लाधे ॥ २५॥ मद मकर मनश्री दूर तजे, नगवंत जली परें जेहनजे ॥ तसघर कमला कबोल करे. वली राज्य रमणी बहु लील वरे ॥ २६ ॥ जय वारक तारक तुं त्राता, सजान मन गति मतिनो दाता ॥ मात तात सहोदर तुं खामी; शिवदायक नायक हितकामी ॥ २७ ॥ करुणाकर ग कुर तुं महारो, निशिवासर नाम जपुं ताहारो, ॥ सेवकशुं परम कृपा करजो, वालेसर वंडित फल दे जो ॥ ॥ जिनराज सदा जय जयकारी, तुज मूर्ति थति मोहन गारी॥ गुजार जनपद माहे राजे, त्रि नुवन ठकुरा तुऊ बाजे ॥ए ॥ श्म नाव नले जि नवर गायो, वामासुत देखी बहु सुख पायो ॥ रवि मुनि शशि संवबर रंगें, जयदेवसूरिमहा सुख संगें ॥ ३० ॥ जय शंखपुरानिध पार्श्व प्रनो, सकलार्थ समीहित देहि विनो ॥ बुध हर्षरुचि विजयाय मुदा, तप लब्धि रुचि सुख दाय सदा ॥३१॥ कलश ॥ छ स्तुतः स कलकामितसिकिदाता, यदधिराजनत Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु शंखपुराधिराजः ॥ स्वस्ति श्रीहर्ष रुचि पंकज सुप्र सादात्, शिष्येण लब्धि रुचिनेति मुदा प्रसन्नः ॥३२॥ ॥ ॥ सरसति संपति दियो मुजसदा || लिय विघनन विवेकदा ॥ नयरि उजेली विक्रमराय ॥ सजापूरीनें बेवो गाय ॥ १ ॥ जोतिषीया सजामां दिजां | | नवग्रहनाते करेवखाण ॥ एककडे शनिश्वर तिक्रूर || देखाडे यति प्राणी नेरुड ॥ २ ॥ निजप्रष्टि शनिसर पांगलो ॥ पितासारथी तुमेसांजलो ॥ राजा विक्रमबोले इस्युं ॥ इणेरांक बापडे चाले किस्युं ॥ ३ ॥ इ अवसर सनीसरबै जब ॥ अवधी ज्ञाने जोवे तब ॥ जोतांमुज विक्रम अवगुणे ॥ वेगियावी राय प्रते जणे ॥४॥ सांजल राजा माहरांकांम ॥ हुंरुको टा लुंतुक ठगंम ॥ बिहतो विक्रम बोले वांण ॥ खमजो जे बोल्युं श्रज्ञान || पुजी प्रणमी शनीस्वर पाय ॥ संतो ष्यो निज थानक जाय ॥ पिण संका मनमांहि पयठ ॥ केतेक काले शनिस्वर बेठ ६ निसदिन बीतो जेहने नाम ॥ ते लाग्यो मुजशनीस्वर स्वांम ॥ तेमी मंत्रीनें पेंराज ॥ में जावुं पर देसे खाज ॥ ७ ॥ सुंपीराज गयो परदेस ॥ चंपा नयरी करे प्रवेस ॥ श्रीपतीने हाटे जइबे ॥ तव तस नयणें अमीय पयठ ॥ ८ ॥ सेठ ज‍ नेहा वस्तु अनेक ॥ थोमी वेला मांहि वेची बेक ॥ जाग्यवंत नर जाण्यो जांम ॥ जिमवानें घर लाव्यो त्ताम || || जोजन जक्ती जली सांचवे ॥ सुख सज्याई ५४४ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिबेद. ५४५ सुवापाठवे॥पासे जीतने डोहित गम ॥सारस हंसने मोर चित्रांम ॥ १० ॥ जोवेराजा कौतिक धरी ॥ नाहितव श्रीपति कुंमरी ॥ हारघोमले मुकेजांम ॥ श्णे अवसर शनि जोवेतांम ॥ ११॥ मुज उवेषी विक्रम राय ॥ चंपा नगरी वेगेगय ॥ सुख शज्या सुतो रंगधरी ॥ तो प्राक्रम देखाडु करी ॥ १ ॥ शनी संक्रम्यो हंस मुकार ॥ चुणी हारने बेगेगर॥ तेदेषीने बीहनो राय ॥ कलंक जणीते नागेजाय ॥ १३ ॥ पुत्री नाहि करे सिणधार ॥नवि देखे एकाव लहार॥श्री पतिजोवे घणोखपकरी ॥रायजणे तव का दयोफरी ॥ १४ ॥ चोरजणी ते बेद्या हाथ ॥ चउटे पमी तवनरनाथ ॥ तेली एके दीगे जिसें ॥ काली हाथने आण्यो तिसे॥१५॥ काष्टतणा तव कर जोमवे॥ वलीबेगे घाणी फेरवे ॥ खायखोलने तेल रोटला॥ बत्रीस राग करें तिहां नला॥१६॥ पुःख वीसरीनी जघरतणो॥सरलें सादे गावेघणो॥नरपति पुत्री मंदिर पास॥सुणी साद जोवा थश्वास ॥१७॥ तव तिहाथी दासीनें कहे ॥घांची घरपुरुष जे रहे ॥वेगें तेमी तेह ने लाव्य॥आवे घांची घर तव धाव ॥१॥ तेह पुरुष लावेसापास॥ तव उतरी शनिशरतास ॥अनंत रूप देखी अतिघणुं॥वचन कहे तव वरवा तणुं ॥१५॥ कहे विक्रम कर माहरे नथी॥नवी परणांए में तेहथी॥ चमी मंत्र कुंयरी साधीनसोवरमागीते कर ली। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ जैनधर्मसिंधु. ॥२०॥ गंनो परण्यो विक्रम राय ॥ केतलेकाले जाणे माय॥प्रगट परणावितव पुत्रीका॥श्रीपती नेटी पड्या तव तिका॥२१॥नरपतीनांप्रणमी त्यांपाय॥श्रीपती निजघर लेई जाय॥असन पान करीराजा सुए॥सेठ सहित नृप चित्रामण जुवे ॥२॥ बोल्याबरस जब साढासात ॥ अविलोके शनी नृपनीवात ॥श्रावी हंस मध्ये संक्रमी॥हार घोमले मुक्यो वमी ॥२३॥ अढी संवटर मस्तकें रहे॥ अढी नाजि जोतीषीया कहे ॥ अढी संवत्सर चरणे वासाहु सनी सर त्रीजो तास॥ ॥२॥ जन्मद्वितिय चोथो श्राठमो ॥छादसमोशनी सरवडो॥ एह कथा सांजलस्ये जेह ॥ कुंन रास फल पामें तेह ॥ २५ ॥ तेदने तुंपीडेनही कदा॥ ए वर थापो शनिसर सदा ॥ वर देई शनी थानकें गयो। होराय उजेणी गयो ॥ २७ ॥ चाल्यो चतुरंगसे नाकरी॥श्राव्यो जिहा उजेणी पुरी ॥ निज जुवने विक्रम श्रावी ॥अखिल लोक वधावो दिउँ ॥२॥ सिझसेन गुरु वचनें करी॥ लह्यो धर्म समकित बाद रीमहाकाल तिरथ जहरी॥पर फुःखटालण दानेश्वरी ॥शए ॥ सुखे समाधे पालेराज ॥लहि समकित नर सारे काज॥ निरयावली उपांगे कह्यो॥ एका वतारी शनि सर लह्यो ॥ ३० ॥ एह कथा डे शनीवर तणी । पीमा नकरे चोपई जणी ॥ सुख संपति ते सघली लदे ॥ पंमित ललित सागर श्म कहे ॥३१॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिश्छेद. ԱՍ ॥ एकादश गणधरनां नाम, प्रह उठीनें करूं प्र गाम ॥ इंद्रभूति पहेलो ते जाण, अग्निभूति बीजो गुणखा ॥ १ ॥ वायुभूति त्रिजो जग सार, गण धर चोथो व्यक्त उदार ॥ शासनपति सुधर्मा सार, मं मित नामें बहो धार ॥ २ ॥ मौर्यपुत्र ते सातमो जेड़, अकंपित अष्टम गुणगेह ॥ मुनिवरमांहे जे पर धान, अचल चात नवमो ए नाम ॥ ३ ॥ नामथ की होय कोंडी कल्याण, दशमो मेतारज अविरल वाण ॥ एकादशमो. प्रजास कदेवाय, सुखसंपत्ति जस नामें थाय ॥ ४ ॥ गाया वीर तथा गणधार, गुणमणि रयण तथा भंडार ॥ उत्तमविजय गुरुनो शिष्य, रत्नविजय वंदे निशदिस ॥ ५ ॥ इति ॥ अथ गौतमप्रजातिस्तवनं ॥ ॥ राग प्रजाती ॥ मात पृथ्वीसुत प्रात ऊठी नमो गणधर गौतम नाम गेलें ॥ प्रहसमे प्रेमशुं जेह ध्यातां सदा, चढती कला होय वंशवेले ॥ मा० ॥ १ ॥ वसुभूपति नंदन विश्वजन वंदन, डुरित निकंदन नाम जेहनुं ॥ नेद बुझें करी न विजन जे नजे, पूर्ण पोहोचे सहि जाग्य तेनुं ॥ मा॥२॥ सुरमणि जेह चिंतामणि सुरतरु, कामित पूरण काम धेनु ॥ तेह गौतमनुं ध्यान हृदयें धरो, जेहथकी अधिक नहीं माहात्म्य केनुं ॥ मा० ॥ ३ ॥ प्रणव यादें धरी माया बीजें करी, स्वमुखें गौतमनाम Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनधर्मसिंधु ध्याये ॥ कोमि मनकामना सफल वेगें फले, विध न वैरी सवे दूर जाये ॥ मा० ॥ ४ ॥ ज्ञान बल तेजने सकल सुखसंपदा, गौतमनामश्री सिकि पा मे ॥ अखंग प्रचंम प्रताप होय अवनिमां, सुर नर जेहनें शीश नामे ॥ मा० ॥ ५॥ पुष्ट दूरे टले स्वज न मेलो मले, आधिउपाधिने व्याधि नासे ॥ नूत नां प्रेतना जोर लांजे वली, गौनमनाम जपतां उल्हा सें ॥ मा० ॥ ६ ॥ तीर्थ अष्टापदें आप लब्धं जज्ञ, पन्नरसें त्रणने दीरकदीधी ॥ अहमने पारणे तापस कारणें, दीरलब्धे करी अखुट कीधी ॥ मा० ॥ ॥ ॥ वरस पच्चास लगे गृहवासें वस्या, वरस वली त्रीश करी वीरसेवा ॥ बार वरसां लगें केवल लोग व्युं, नक्ति जेहनी करे नित्य देवा ॥ मा० ॥ ७ ॥ महियल गोतम गोत्रमहिमा निधि, गुणनिधि शकि ने सेकि दाई ॥ उदय जस नामथी अधिक लीला लहे, सुजस सौजाग्य दोलत सवाई॥ मा० ॥ इति ॥ ॥अथ दोधक बावनी लिख्यते ॥ यह अदर सारहें।ऐसा अवरन कोय॥सिक सरुप नगवान शिव सिरसा वंद्र सोय ॥१॥ नमीयें देव जगतगुरु, नमी ये सद गुरुपाय॥दयायुक्त नमीयें धरम, शिव सुखलेय उपाय ॥२॥ मनकी ममता दूरकर, समता धर घट मांहिं, रमतां रामपिठानकें, शिव सुख ले क्यु नाहि ॥३॥ शिवमंदिरकी चाह धर, अथिर अंध तजिदूर॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिच्छेद. ხედ लपट रह्यो क्या कीच में, शुचि जिहां जरपूर ॥ ४ ॥ धंधाही में पचरह्यो ॥ श्ररंजकी ए अपार ॥ उठ चलेगो एकलो, शिरपर रहेंगो नार ॥ ५ ॥ अन्यायी जन देतधन, बहुत, रहित फल सोय ॥ दान स्वल्प फल पि वहुत न्याय उपार्जित होय ॥ ६ ॥ श्रातम परहित आपकुं, क्या परकुं उपदेश, निज श्रातम समज्यो नही, किनो बहुत कलेस ॥ ७ ॥ इतनाही में समजलें, क्या बहुत पढेंसो ग्रंथ ॥ उपशम विवेक संवर लढ़ें, याको शिव पुर पंथ ॥ ८ ॥ इति निति यायें गई, प्रगट जई सबरीत ॥गीत मार्ग पेदाकी गाउँ तिनके गीत || || उदय जएरविके जसा, जावे सब अंधार || त्यौंसद गुरुर्के वचनथें, मिटें मिथ्यात अपार ॥ १० ॥ ऊगत बीज सुखेतमें, जसा सुजल संयोग ॥ त्यसद गुरुके वचनथें, उपजत बोध प्रयोग ॥ ११ ॥ एक टेकधरीए जसा, निर्गुण निर्मम देह ॥ दोषरोग जामें नही, करीयें ताकीसेव ॥ १२ ॥ ए विषम गति कर्मकी, लिखी नकाहुं जात ॥ रंकनथें राजाकरें, राजारंक दिखात ॥ १३ ॥ उस बिंदु कुशा ग्रंथें, परत नलग्गे वार, श्रायु थिर तेसें जसा, कर कबु धर्म विचार ॥ १४ ॥ ऊषध न मिलें मीत्त ज्युं जायें मरें न कोय ॥ करउषध एक धर्मको, जसा अमर तुं होय ॥ १५ ॥ अंध पंगु ज्यों एक हे, जरे न पावक मांहिं ॥ ग्यान सहित क्रिया करे, जस्सा Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० जैनधर्मसिंधु. अमर पुर जांहि ॥ १६ ॥ अमर जगतमें कोनही॥ मरेंअमर सुर राज॥गढ मढ मंदिर ढह परै, अमर सुज स जस राज ॥१७॥ कंचनसें पीतर गृहै, मूरख मुढ़ गिमार॥ तजै धर्म मिथ्यामती, नजै अधर्म असार ॥ १७ ॥ खल संगति तजियें जसा, विद्या सोनित तोय ॥ पन्नग मणि संयुक्तसो॥ क्यौंन जय कर होय ॥ १५॥ गाज सरदकी कारिमी, करतहें बहुत थ वाज॥ तनक न वरसे दान त्यौं, कृपण नदें जसराज ॥ २० ॥ घरटी के दो पुम विचे, कण चूरण ज्यौं होय॥त्यौंदो नारी विच पोड्यो, नर उगरेंन कोय॥२९॥ नही ग्यान जामें जसा ॥ नही विवेक विचार॥ताको संगन कीजीई, पर हरी निरधार ॥॥ चपला कमला जानकें, कलु खरचो कबु खाजाश्कदिन नों सुवो जसा॥लांबा करकें पाठ ॥३॥ बलकर बलकर बुधिकर, करके जसा उपाय॥यातम वसकर आपनो दूर जन दूर तजाय ॥ २४ ॥ जुवती सब युगवस की किसीन राखीमांम॥ तासों जो न्यारारहै, ताको जसा प्रणाम ॥ २५ ॥ जाजी वात न कीजी,थोडा हीमें श्रानि॥जसा बराबर लेखवो, श्रापप्रानपरप्रान ॥ २६ ॥ नग मुहिता पति आजरण॥ ताको अरि जसराज ॥ तसपति नारी बिनु पुरुष ॥ नवधे सोना लाज ॥२७॥ टांणा टुंणा बोरदें, याथे न सरें काज॥ चोखे चित जिन धर्मकर, ज्यूं काजसरें जसराज Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमपरिछेद. ५५१ ॥२॥ उगसो जो पर मनहगें, पर उपजावें रीऊ॥ जासकरें वस जगतकौं॥ साचा ठग सोज ॥राए॥ मरें कहा जस राज कहें,जो अपने मन साच॥क्षिण में परगट होयगा, ज्यौं प्रगटायो काच ॥ २०॥ ढहै कोट श्रग्यांनका,गोलाग्यांन लगाय।मोदरायकौं मार लैं, जसा खगें सब पाय ॥ १ ॥ नदी नखीनारी तणो।नागन कुल जसराज॥नरस्त्री नरपति निर्गुणिन, श्राठे करें अकाज ॥ ३२ ॥ तारे ज्यौं नरकौं जसा नर सायरमें पोत ॥ त्यौं गुरु तारें जव जलधि॥ करें ग्यांन उद्योत ॥ ३३॥ थोन लोजनहि जीउकौं, जो लाख कोटिधन होतासमता जो श्रावें जसा,सुखी सदा मन पोत ॥ ३४ ॥ दक्षिण उत्तर च्यार दिस, जसालमें धन काज॥प्रापति विना नपाईयें, कोमि करो सुउपाय ॥ ३५ ॥ धन पाया खाया नही, दीयानि कबु नाहि,सो वागुरी होयें धनमें जसा,ढुंढतदै धन मांहि ॥ ३६ ॥ निर्गुन पतित नारी निलज, कूपक खारो नी॥नीच मीत जसराज कहें, पांचों दहें शरीर ॥३॥ पर उपगारी जगतमें ॥ अलप पुरुष जसराज, सीतल वचन दया मया, जाके मुख परलाज ॥३॥ फोज दिसो दिस मिल गई, जसा घुरे निसाणामुळं सन मुख जायनें, सूरगणे नहि प्राण ॥ ३ए ॥ बुंब परें सब दोर है, लैलै आयुध हाथ ॥ बदन मलिन कर हैं जसा, जब जाचें कोय अनाथ ॥ ४० ॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए५२ जैनधर्मसिंधु. जगति नली जगवंतकी, संगति नली सुसाध ॥र नकी संगति जसा, आठों पोहोर उपाध ॥४१॥ मूर ख मरण नदेखकें, करत बहुत आरंन ॥ सात विसन सेवें जसा, करें धर्म विच दंन ॥४२॥ याग करें प्राणी हणे,ना धर्म उलंगादेखोग्यान बिचारकें, क्यों पावें वैकुंठ ॥ ४३ ॥रीस त्याग वैरागधर, होय जोगी अवधूत ॥ शिव नगरी पावें जसा, कर एसी कर तूंत ॥४॥ लहैणा देणा कबु नही, मुह कि मिठी बात ॥ हृदय कपट धर है जसा, ताके शिरपर लात ॥४५॥ वरसें वारधि श्रहोनिसे, खाखरती-पाननाग्य विना पावें नही, याचक दाता दान ॥४६॥ शंखसरीखां ऊजला, नर फूटरा फरक ॥जसा न सोन्ने दान बिण, बुटी कान धरक ॥४७॥ परोपंथ हें सूरको, रणबि च मुंड विहंड ॥ पाबा पाउँ धरेंनही,जो होई शतखंड ॥४॥सायर मोती नीपजै, हीरा हीरा खांण ॥ग्यांन ध्यान त्यां नीपजै, जसा सुगुरुकी वाण ॥४ए ॥ हस्त को मंडण दांनहें,घर मंमण वर नार॥ कुल मंडण अंग ज जसा, धन मंडण संसार ॥५॥ लंबन निसपति श्यामरुचि, सूरज लंडन ताप ॥ दाता लंबन धनवि ना, सबहुं देत सराप ॥५१॥ दांत दांत समतार ती,हणे नही षट काय ॥ जसा ग्यांन किरिया गमन, सो साधु कहेंवाय ॥ ५५ ॥ सतरसें तीसें समें, नव मी शुकल आषाढ ॥दोधक बावनी जसमुनी, पुरन करी आगध ॥ इति षष्टम परिबेद समाप्त ॥ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिबेद. ए५३ ॥ सप्तमपरिछेद प्रारंजः॥ साधुसाध्वीयोग्य श्रावश्यक क्रियाके सूत्रे. नमो अरिहंताणं । नमो सिकाणं । नमो श्राय रियाणं । नमो जवसायाणं । नमो लोए सब साहणं । एसो पंच नमुक्कारो सब पाव पणा सणी ।मंगलाणं च सवेसि । पढमं हवमंगलं ॥ ॥१॥ श्री करेमिनंते ॥ ॥ करेमि ते सामाश्यं । सवं सावज जोगं पञ्च कामि । जावजीवाए । तिविहं तिविहेणं । मणेणं वायाए काएणं । न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स जंते पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ॥२॥ श्री श्छामि गमि ॥ ॥ श्छामि गमि काउस्सग्गं । जो मे देवसि अश्यारो कर्म । का वा माणसि । उस्सुत्तो। उम्मग्गो । कप्पो।श्रकरणिजो। दुकाउँ। पुखि चिंति । श्रणायारो। श्रणिजियहो । असमण पाज ग्गो । नाणे दंसणे चरित्ते । सुए सामाश्ए । तिएहं गुत्तीणं । चउएहं कसायाणं । पंचएहं मह बयाणं । बएहं जीव निकायाणं । सत्तएहं पिंडेसणाणं । अठ एहं पवयण माउणं । नवएहं बंजचेरगुत्तीणं । दस विहे समण धम्मे । समणाणं जोगाणं । जं खंमियं जं विराहियं । तस्स मिलामिछक्कम ॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પણs जैनधर्मसिंधु. वाकारेण संदिसह जगवन देवसियंत्रालोजं। जो मे देवसिन अश् यारो क॥शेषं उपर प्रमाणे ॥ श्वामि पडिकमिजं । जो मे देवसि अश्यारो क॥ शेषं उपर प्रमाणे. ॥३॥ देवसिक अतिचार ॥ ॥ गणे कमणे चंकमणे । श्राऊत्ते अणाऊत्ते । हरियकाय संघहे। बीयकाय संघटे । त्रसकाय संघट्टे । थावरकाय संघहे। उप्पश्संघहे । गणार्ड गणं संकामीया । देहरे गोचरी मार्गे जातात् श्रावतां स्त्री तीर्यचतणा संघट्ट परिताप उपजव हुश्रा, । दिवस मांहि चार वार सकाय सात वार चैत्यवंदन कीधां नहिं, प्रतिलेखण आधी पड़ी जणावी, अस्तो व्यस्त कीधी,वार्तध्यान रौषध्यानध्यायां,धर्मध्यान शुक्नध्यान ध्यायां नहीं, गौचरीतणा दोष उपजता जोया नहीं, पांच दोष मंमलितणा टाल्या नहीं, मा श्रणपुंजे लीg, अणपूंजी नूमिकायें परवव्यु, देहरा उपाश्रयमांहिपेसतां निसरतां निसिही श्राव स्सही कहेवी विसारी, जिनजुवने चोराशी श्राशा तना, गुरु प्रतें तेत्रिश श्राशातना, अनेरं जे कांश दिवस संबंधीऊ पापदोष लाग्युं होय ते सवीडं मने वचने कायाए करीने तस्स मिलामि उक्कम ॥ ॥४॥ रात्रिक अतिचार ॥ ।संथाराऊट्टणकी। परियहणकी। श्राऊंटणकी। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिवेद. पसारणकी । बप्पिय संघट्टणकी । संथारो उत्तरपट्टो टाली अधिकुं उपगरण घाव्यु, श्रणपडि लेडं हला व्युं, मा अणपडिलेडं लीधुं, अणपुंजी नूमिए पर व्यु, परश्वतां अणुजाणह जस्सगो कीधो नहीं, परव्या पुंठे वार त्रण वोसिरे वोसिरे कीधुं नहीं, संथार पोरसी जणवी विसारी, पोरसी नणाव्या विना सुता, कुस्वप्न लाधुं सुपनांतरमांहि शिलनी वि राधना हुश्, आहह दोहह चिंतव्युं, संकल्प विकल्प कीधो, रात्रीसंबंधीजे को अतिचार लाग्यो होय, तेसवी मने वचने कायाए करी तस्स मिबामि पुक्कम.॥ ॥५॥ श्री श्रमणसूत्र ॥ ॥ नमो अरिहंताणं० ॥ करेमि नंते सामा अं० ॥ चत्तारि मंगलं ॥ अरिहंता मंगलं । सिका मंगलं । साहु मंगलं । केवली पन्नतो धम्मं मंगलं ॥ चत्तारी सरणं पवजामि। अरिहंते सरणं पवजामि सिके सरणं पवजामि साहु सरणं पवजामि। केवली पन्नत्तोधम्मो सरणं पवजामि॥चत्तारी लोगुत्तमा अरि हंता लोगुत्तमासिका लोगुत्तमा।साहु लोगुत्तमा केव ली पन्नत्तो। धम्मोलोगुत्तमो॥श्वामिपमिकमिजो मे देवसि। श्वामि पमिकमिजं । रियाव हिआए। श्वामि पमिकमिजं ॥ पगामसिजाए ॥ निगामसि जाए ॥ संथारा जवणाए ॥ परिअट्टणाए ॥ श्राउ टण पसारणाए । उप्पश्या संघट्टणाए ॥ कुश्ए । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ जैनधर्मसिंधु. ककराइए बीए । जंजाइए ॥ श्रामोसे ॥ ससरका मोसे ॥श्राउसमाजलाए ॥ सोश्रणवत्तिश्राए ॥श्वी विप्परिासियाए । दिहीविप्परियासियाए । मण विप्परिश्रासियाए। पाणनोश्रण विप्परिश्रासियाए। जो मे देवसि अश्वारो कर्म। तस्स मिलामि उक॥ पमिकमामि गोश्रचरिथाए॥ निकायरियाएउग्घा मकवाम नग्धामणाए । साणावबादारा संघट्टणाए॥ मंमिपाहु मिश्राए ॥ बसिपाहुडियाए ॥ उवणापाहु मिश्राए संकिए ॥ सहसागारिए । अणेसणाए पाणे सणाए ॥ पाणजोषणाए ॥ बीअनोत्रणाए ॥ हरि बजोअणाए ॥ पकम्मिश्राए ॥ पुरेकम्मिश्राए ॥ श्रदिहमाए ॥ दगसंसहमाए रयसंसहमाए ॥ पारिसामणियाए ॥ पारिठावणियाए ॥ उहासण निरकाए ॥ जं जग्गमेणं उप्पायणेसणाए ॥ अपरि सुझं पडिगाहिरं ॥ परिजुत्तं वा ॥ जं न परिहविध तस्स मिठामि मुक्कम ॥ पमिकमामि चाउकालं ससा यस्स अकरणयाए । उनकालं नंमोव गरणस्स थप्पमिलेहणाए ॥ पुप्पमिलेहणाए ॥श्र प्पमजणाए ॥ पुप्पमळणाए ॥ अश्कमे ॥ वश्क मे । अश्यारे ॥ अणायारे ॥ जो मे देविसि अझ यारो कर्ड ॥ तस्स मिठामि मुक्कम ॥ पडिकमामि एगविहे असंजमे ॥ १ ॥ पकिमामि दोहिं बंधणे हिं । राग बंधणेणं ॥ दोस बंधणेणं ॥ २ ॥ पडिक्क Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिबेद. ५५७ मामि तिहिं दंडेहिं ॥ मणदंडेणं । वयदंडेणं । कायदं डेणं ॥ पमिकमामि तिहिं गुत्तीहिं ॥ मनगुत्तीए ॥ वयगुत्तीए ॥ कायगुत्तीए ॥ पमिकमामि तिहिं सो हिं ॥ माया सबेणं ॥ नियाण सढेणं ॥ मिलादंस ण सद्देणं ॥ पमि० ॥ तिहिं गारवेहिं ॥ढी गार वेणं । रसगारवेणं ॥ साया गारवेणं ॥ पमि० ॥ तिहिं विराहणाहिं ॥ नाण विराहणाए देसण विरा हणाए । चरित्त विराहणाए ॥३॥ पमिणाचनहिं कसा एहिं ॥ कोह कसाएणं ॥ माण कसाएणं ॥ माया कसाएणं ॥ खोज कसाएणं ॥ पमि॥ चनहिं सन्ना हिं ॥ थाहार सन्नाए ॥ जय सन्नाए ॥ मेहुण सन्ना ए ॥ परिग्गह सन्नाए ॥ पमि० ॥ चनहिं विकहा हिं ॥ इठिकहाए ॥ नत्तकहाए ॥ देसकहाए ॥ राय कहाए ॥ पमि॥चउर्दि जाणेहिं॥ श्रहेणं फाणेणं॥ रुदेणं जाणेणं ॥ धम्मेणं माणेणं ॥ सुक्केणं जाणेणं॥४॥ ॥ १० ॥ पंचहिं किरिश्राहिं ॥ काश्याए ॥ अहिग रणियाए ॥पाउसिथाए॥पारितावणियाए ॥ पाणा श्वाय किरिथाए ॥ प० ॥ पंचहिं कामगुणेहिं॥ ॥ सद्देणं ॥ रूवेणं रसेणं ॥गंधेणं ॥ फासेणं ॥ ॥ ५० ॥ पंचहिं महत्वएहिं पाणावाया वेरमणं ॥ मुसावाया बेरमणं ॥अदिन्नादाणा वेरमणं ॥मेह णा वेरमणं ॥ परिग्गहाळ वेरमणं ॥ प० ॥ पंचहिं समिहिं ॥ इरिश्रासमिश्ए ॥ नासासमिश्ए ॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. एसणासमिश्ए ॥ श्रायाणगंम्मतनिकेवणा समि इए ॥ उच्चारपासवणखेलजलसिंघाण पारिठावणि श्रा समिश्ए ॥५॥ १० ॥ बहिं जीव निकाएहिं॥पुढवि काएणं ॥ श्राउकाएणं ॥ तेउकाएणं ॥ वाचकाएणं ॥ वणस्सश्काएणं तसकाएणं ॥ १० ॥ बहिं खेसाहिं॥ किएहलेसाए॥नील खेसाए॥कार्ड लेसाए।तेउलेसाए पलमलेसाए ॥सुक खेसाए ॥६॥पण॥ सत्तहिं जयहाणे हिं॥श्रहहिं मयहाणेहिं ॥ नवहिं बंजचेर गुत्तीहिं॥ दसविहे समणधम्मे ॥ गारसहिं उवासग पमिमा हिं ॥ बारसहिं निख्खुपमिमाहिं ॥ तेरसहिं किरिया गणेहिं ॥ चउद्दसहिं ॥ अगामेहिं ॥ पन्नरसहिं ॥ परमाहम्मिहि ॥ सोलसहिं गाहासोलसएहिं ॥ सत्त रस विहे असंजमे ॥ श्रहारसविहे अबंने ॥ एगूण वीसाए नायशयणेहिं ॥ वीसाए असमाहि हाणेहिं॥ श्कवीसाए सबसेहिं ॥ बावीसाए परीसहेहिं ॥ ते वीसाए सुश्रगमनयणेहिं ॥ चवीसाए देवेहिं ॥ पणवीसाए नावणाहिं ॥ ब्बीसाए दसाकप्पववहारा णं उद्देसणकालेहिं ॥ सत्तावीसाए अणगार गुणेहिं॥ अहावीसाए आयारपकप्पेहि ॥ एगुणतीसाए पाव सुअपसंगेहिं ॥ तीसाए मोहणीअठाणेहिं ॥ गती साए सिझा गुणेहिं ॥ बत्तीसाए जोग संगहेहिं ॥ तित्तीसाए आसायणाएहिं ॥ अरिहंताणं श्रासाय पाए ॥ सिकाणं आसायणाए आय रियाणं आसा Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिच्छेद . एय यणाए ॥ उवझायाणं श्रसायणाए ॥ साहूणं आसा याए || साहुणी आसायलाए ॥ सावयाणं आसा याए || सावियाणं श्रसायणाए ॥ देवाणं श्रसा याए || देवीणं सायणाए ॥ इहलोगस्स श्रासा याए ॥ परलोगस्स सायपाए ॥ केवलि पन्नत्तस्स धम्मस्स सायणाए ॥ सदेवमणु श्रासुरस्लोगस्स श्रसायणाए ॥ सवपाणनूअ जीवसत्ताणं श्रसायणाए ॥ कालस्स आसायलाए ॥ सुस्स आसाणाए ॥ सुदेवयाए श्रसायणाए ॥ वायणारिस सायपाए ॥ जं वाइयं वच्चामे लि हीरकरं । अञ्च्चकरं । पयहीणं विण्यहीणं । घोस हीणं । जोगहीणं । सुहुदिन्नं हुपमिचियं । श्रका ले कर्जसझार्ड । काले न कर्ज सझा । श्रसझाए सझायं । सझाए न सझायं । तस्स मिठा मिडु कमं० ॥ नमो चवीसाए तिष्ठयराणं । उसजाइ महावीर पवसाणाणं । इयमेव निग्गं थंपावयणं । सच्चं । श्रणुत्तरं । केवलिश्रं । पमिपुन्नं । नेयाजयं । संसुद्धं । लगत्तणं । सिद्धिमग्गं । मुत्ति मग्गं निका ण मग्गं । निवाण मग्गं । श्रवितहमविसंधिं । सव पुस्कप्पहीण मग्गं । इयं विश्रा जीवा । सिद्धंति । बुजंति। मुच्चंति । परिनिवायंति । सवडुरकाणमंत करंति । तं धम्मं सद्दद्दामि । पत्तियामि । रोए मि । फासे मि । पाले मिश्रणुपाले मि । तं धम्मं सहतो । पत्ति Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जैनधर्मसिंधु अंतो। रोश्रतो । फासंतो। पालतो । अणुपालंतो। तस्सधम्मस्स अपहिमि आराहणाए । विरमि विराहणाए । असंजमं परियाणामि । संजमं उव संपजामि । अबंनं परियाणामि । बंनं जवसंपला मि । श्रकप्पं परित्राणामि । कप्पं उवसंपजामि अनाणं परि श्राणामि । नाणं जवसंपजामि। अकि रिश्र परित्राणामि । किरिश्र उवसंपजामि । मिछ तंपरियाणामि । सम्मत्तं उवसंपजामि। श्रबोहिं परित्राणामि । बोहिं उवसंपजामि।श्रमग्गं परिश्रा णामि । मग्गं जवसंपजामि ।। जं संजरामि । जं च न संजरामि । जं पडिकमामि । जं च न पमिकमा मि तस्स सबस्स देव सिधस्स अवारस्स पडिक मामिासमणोहं संजय । विरय पमिहय पञ्चरस्काय पाव कम्मे । अनिश्राणो । दिहिसंपन्नो । मायामोस विव जि । श्रद्वाश्ोसु दीवसमुद्देसु । पन्नरससु कम्म नूमीसु । जावंत केश साहू । रयहरण गुबपमिग्गह धारा । पंचमहत्वय धारा । अहारससहस्स सीलंग धारा । अकायार चरित्ता । ते सत्वे सिरसा मणसा मबएण वंदामि ।खामे मि सब जीवे,सवेजीवा खमंतु मे ॥ मित्ती मे सबनूएसु । वेरं मशं न केण ॥१॥ एवमहं बालोश् अ । निंदिश गरहिथपुगंविध सम्मं ॥ तिविहेण पमिकंतो । वंदामि जिणे चउकी सं ॥२॥ इतिश्री यतिप्रतिक्रमणसूत्रं ॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिवेद. ५६१ ॥६॥ पाक्षिक अतिचार ॥ ॥ नाणं मि दंसणं मि अ।चरणं मि तवम्मि तहय विरयं मि। श्रायरणं आयारो। श्य एसो पंचहा नणि ।१। ज्ञानाचार । दर्शनाचार । चारित्राचार । त पाचार । वीर्याचार । ए पंचविध श्राचार मांदे जे को अतिचार पद दिवस मांहिं सूक्ष्म बादर जा णतां हुर्ड होय ते सविडं मन वचन काया करी मिछामि उक्कम । १। । तत्र ज्ञानाचारे श्राव अतिचार।काले विषये बह माणे । उवहाणे तहय निन्हवणे ॥ वंजण अब त उन्नए । अहविहो नाणमायारो ॥२॥ ज्ञान काल वेला मांहिं पढ्यो गुण्यो परावयों नहीं । अकाले पढ्यो। विनयहीन बहुमानहीन योग उपधानहीनथ नेराकन्हे पढ्यो भनेरो गुरु कह्यो । देववंदण वांद णे । पमिकमणे सद्याय करतां । पढतां गुणतां कूमो अक्षर कानें मात्रोंश्रागलो उठो लण्यो गुण्यो । सूत्रा र्थ तनय कूमां कह्यां। काजो अणउधरूं । मांडा श्रण पमिलेह्यां वस्ति अणसोध्यां अणपवेयां । श्रस घाइ। अणोद्या कालवेला मांहिं श्री दशवैकालिक प्रमुख सिद्धांत पढ्यो गुण्यो परावो । थविधे योगो पधान कीधा कराव्या । ज्ञानोपगरण । पाटी पोथी ठवणी ॥ कवली। नोकारवाली। सांपमा । सांपनी। दस्त्री वही। कागलिश्रा लियाप्रतें। पग लाग्यो Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जैनधर्मसिंधु. थूकलाग्यो । थूकें अक्षर जांज्यो । ज्ञानवंतप्रते द्वे ष मर वह्यो । अंतराय अवज्ञा शातना कीधी । कुहिप्रतें तोतलो बोबो देषी इस्यो वित्तयों । मतिज्ञान | श्रुतज्ञान । अवधिज्ञान । मनपर्यवज्ञान | केवलज्ञान । ए पांच ज्ञानतणी आशातना कीधी । ज्ञानाचार विष । अनेरो जे कोइ अतिचार ० । २ । दर्शनाचारे व अतिचार | निस्सं कि निक्कं खि । निवित्तिमिवाश्रमूढ दिडी ॥ उववूय थिरी करणे । वल पजावणे अ ॥ २ ॥ देव गुरु धर्म तणे विषे निस्संकपणुं न कीधुं । तथा एकांत निश्च य ध नही । धर्म संबंधिच्या फलतणे विषे निस्सं देह बुद्धि धरी नही । साधु साध्वीतणी निंद्या जुगु प्सा कीधी । मिथ्यात्वीतणी पूजा प्रजावना देखी । संघमांहिं गुणवंतती अनुपवृहणाकीधी स्थिरीकर वात्सल्य क्ति निपजावी । तथा देवद्रव्यगुरु द्रव्य । जक्षित उपेक्षित । प्रज्ञापराधे विणास्यो । विणसंतो उवेख्यो । बतीशक्तिं सारसंजाल न कीधी । aarard हाथथकी पाड्यो । पकिलेहवो विस स्यो । जिनजुवनतणी चोरासी आशातना कीधी । दर्शनाचार विष । अनेरो जे कोइ अतिचार० । ३ । चारित्राचारे व अतिचार || पणिहाणजोग जुत्तो | पंचहिं समिहिं तिहिं गुत्तिहिं ॥ एस चरिता यारो । विहो होइ नायवो ॥४॥ ईर्यासमिति, जा Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिछेद. ५६३ षासमिति, एषणासमिति, श्रादाननंडमत्त निदेपणा समिति, पारिष्टापनिका समिति, मनोगुप्ति, वचनगु प्ति, कायगुप्ति ए अष्ट प्रवचनमाता रूडी परे पाली नही, साधुतणे धर्मे सदैव, श्रावकतणे धर्मेसामायिक पोसह लीधे, जे कांश खंमन विराधना कीधी होय, चारित्राचार विष अनेरो जेको अतिचार ॥४॥ ॥ विशेषतश्चारित्राचारे तपोधनतणे धर्मे ॥ वयब कं कायबकं, अकप्पो गिहि जायणं ॥ पलिअंक नि सिजाए, सिणाणं सोनवजणं ॥५॥ ॥ व्रत षट्के, पहिले महावतें प्राणातिपात, सूदम बादर, त्रस थावर जीवतणी विराधना दूई, बीजे महावतें क्रोध लोन हास्य जय लगें जूतुं बोल्या, तीजे अदत्तादानविरमण महाव्रते ॥सामिजीवादत्तं, तिबयरत्तं तदेवय गुरुहि ॥ एवमदत्तंचजहा । परम तंवीयराएहिं ॥ १ ॥ स्वामी अदत्त, जीव अदत्त, तीर्थकर अदत्त, गुरु अदत्त, ए चतुर्विध अदत्तादान मांदि जेकांश अदत्त परिजोगव्युं ॥ चोथे महाव्रते ॥ वसहीकह निसिडिंदिय, कुमित्तरपुवकी लिए पणिए॥ अश्मायाहार विनूसणारं, नवबंजचेरगुत्तिर्च ॥ १ ॥ ए नववाडी सूधी पाली नही, सुहणे स्वप्नांतरें दृष्टि विपर्यास हू ॥ पंचमे महावते, धर्मोपगरणने विषे श्वा मूळ गृहि आसक्ति धरी, अधिका उपगरण वावस्वार्या, पर्व तिथि पमिलेहवो विसास्यो ॥ बजे Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जैनधर्मसिंधुःरात्री जोजन विस्मण व्रतें, असूरां पाणी कीधां, गरोद्गार श्राव्यो, पात्रे पात्राबंधे तक्रादिकनो गंटो लाग्यो, खरमयो रह्यो, लेप तेल उषधादिकतणो संनिधि रह्यो, अतिमात्रायें आहार लीधा, ए बहा ब्रत विषा अनेरो जे को अ० ॥६॥ ॥ कायषट्के । गामतणे पश्सारे नीसारे पग पमिलेहवा विसास्या, माटी मीतुं खमी धावनी अरणेटो, पाषाणतणी चातली उपर पग श्राव्यो, अप्पकाय वाघारी फूसणा हुवा, विहरवा गया, जल खो हाल्यो, लोटो ढोल्यो, काचा पाणीतणा गंटा लाग्या, तेउकाय वीज दीवातणी उजेही हुश्, वाज काय, उघानें मुखें बोल्या, महावाय वाजतां कपमा कांबली तणा बेमा साचव्या नहीं, फूक दीधी ॥ वनस्पतिकाय, नीलफूल सेवाल थममूल फल फूलवृद शाखा प्रशाखातणा संघट्ट परंपर निरंतर हवा ॥ प्रसकाय, बेरिंडी तेरिंडी चरिंडी पंचेंडी काग बग उमाव्या, ढोर त्रासव्यां बालक बीहाव्यां षट् काय विष अनेरो जे को अतिचार ॥७॥ __अकल्पनीय सय्या वस्त्र पात्र पिंम परिजोगव्यो, सिज्जातरतणो पिंक परिजोगव्यो, उपयोग कीधा पाखे विहस्या, धात्री दोष, त्रस बीजसंसक्त पूर्वक र्म पश्चात्कर्म उद्गम उत्पादना दोष चिंतव्या नहीं, गृहस्थतणो नाजन नांज्यो, फोम्यो, वली पाने Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिजेद. ५६५ आप्यो नहीं, सूतां संथारिया उत्तरपट्टा टलतो अधिको उपगरण वावों, देशतः स्नान मुखें नीनो हाथ लगामयो, सर्वतः स्नानतणी वांबा कीधी, शरी रतणो मल फेमयो, केश रोम नख समास्या, अने रीजे कां गाडाविजूषा कीधी, अकल्पनीय पिंमादि विष अनेरो जे कोण ॥ ७॥ श्रावस्सयसघाए, पमिलेहणवाण निरक अन्न त॥ आगमणे नीगमणे । गणे निसिपणे तु अद्दे ॥ १ ॥ आवश्यक उन्नयकाल व्यादिप्त चित्तपणे पमिक्कमणुं कीg, पमिकमणा मांहि जंघ आवी, बेग पमिकमणुं को,, दिवस प्रतें चार वार सद्याय, सात वार चैत्यवंदन न कीधां, पमिलेहणा आधी पाबीनणावी, अस्तो व्यस्त कीधी, आर्त रोज ध्यान ध्यायां, धर्मध्यान शुक्नध्यान ध्यायां नहीं, गोचरी गयां बेंतालीश दोष उपजता चिंतव्या नहि, बती शक्तिए पर्व तिथे उपवासादिक कीधो नहि, उपा सरा देहरामांहि पेसतां निसिही निसरतां श्रावस्स ही कहेवी विसारी, श्वामिछादिक दशविध चक्रवाल समाचारी सांचवी नहि, गुरुतणो वचन तहत्ति करी पडिवयों नहि,अपराध आव्यां मिठामि कुकर दी धा नहि, स्थानके रहेतां हरियकाय बियकाय कीमी नगरां सोध्यां नहीं, उघो मुहपत्ति चोलपट्टो संघव्या, स्त्री तीर्यचतणा संघट्ट अनंतर परंपर हवा, Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ जैनधर्मसिंधु. वमा प्रतें पसा करी, लहुडां प्रतें श्वाकार इत्या दिक विनय साचव्यो नहि, साधु सामाचारी वि० अ० पक्षिण सु० बाण जाणतां अजाणतां हुई होय, ते सवितु मन वचन कायायें करी मिलामी पुकम. ॥ए ॥ इति साधु अतिचार संपूर्णः ॥ ७॥ पाक्षिक सूत्र.॥ तिबंकरे अति, अतिबसिकेत्र तिबसिद्धेय ॥ सिझेजिणे अ रिसी, महरिसी नाणं च वंदा मि ॥१॥जे श्मं गुण रयण सायर, मविरा हिऊण तिमसंसारा ॥ ते मंगलं करित्ता, अहम विश्राराहणानिमुहो ॥२॥ मम मंगल मरिहंता। सिका साहु सुरं च धम्मोत्र ॥ खंती गुत्ती मुत्ती । अजा वया मदवं चेव ॥३॥ लोगंमि संजया जं करिति । परमरिसि देसियमुश्रारं ॥ अहम वि उवहितं । महत्वय उच्चारणं काजं ॥॥ से किं तं महत्वय उ चारणा । महवय उच्चारणा पंच विहा पमत्ता॥ रालोअणवेरमण बहा । तंजहा ॥ सवा पाणाश्वाया उ वेरमणं ॥१॥ सवा मुसावाया वेरमणं ॥२॥ सबा श्रदिन्नादाणा वेरमणं ॥३॥ सबा मेहुणा उ वेरमणं ॥४॥ सवाः परिग्गहा वेरमणं ॥५॥ सबाट राश्नोत्रणा वेरमणं ॥६॥ तखलु पढमे नंते महत्वए. पाणावाया वेर मणं सर्व नंते पाणाश्वायं पच्चरकामि से सुहुमं वा। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिजेद. ५६७ बायरं वा । तसं वा । थावरं वा । नेवसयं पाणे अझ वाजा । नेवन्नेहिं पाणे अश्वाया विजा । पाणेश श्वायंते वि। अन्ने न समणुकाणामि । जावड़ीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणमि । तस्स जंते पमिकमामि निंदामि गरिहामि आप्पाणं वोसि रामि ॥ से पाणश्वाए चनबिहे पन्नत्ते । तंजहा । दव खित्त काल नाव । दवणं पाणाश्वाए बसु जीवनिकाएसु । खित्तणं पाणावाए सवलोए। कालणं पाणाश्वाए दिशावा राउवा । नावणं पा णाश्वाए रागणवा दोसेणवा । जं मए श्मस्स धम्मस्स केवलिपलत्तस्स अहिंसालकणस्त सञ्चाहिहिस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरणसोवणियस्स जवसमप्पलवस्स नवबंनचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स निरकावित्तिअस्स कुकीसंबलस्स निरग्गिसरणस्त संपरकालिअस्स चत्तदोसस्स गुणग्गहिअस्त निवि त्तिलकणस्त पंचमहत्वयजुत्तस्स असं निहिसंचियस्स श्रविसंवाश्थस्स संसारपारगामिअस्स निवाणगम पावसाणफलस्स पुर्विअन्नाणयाए असवयाए श्र बोहिआए अणनिगमेणं अनिगमेणवा पमाएणं राग दोसपबिश्राए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्ड याए तिगारवगुरुवाए चउकसावगएणं पंचिंदिग्व सट्टेणं पमिपुन्ननारिश्राए सायासुरकमणुपालयंतेणं Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जैनधर्मसिंधु. उदंबानवे शन्नेसु वा नवग्गहणेसु पाणावा कर्म वा ! कराविड़वा कीरंतोवा परेहिंसमणुन्ना तं निं दामि गरिदामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कापणं अश्यं निंदामि पमुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पचरका मि मवं पाणाश्वायं जावोवाए अणि स्सि नंट नेवन्नहिं पाणे अश्यायाविजा पाणे अश्वायते त्रि अन्न न समाजाणिका तं जहा अरिहंतस रिक जां निकमरिक साइंस रिकअं देवस रिकअं एवं वन निरुणीवा संजय त्रिरयपमिहय पञ्चरकाय पान अम्मे दिपावा रानवा एगवा परिसागवा सु संवा जागरमाणेवा एस खलु पाणावायस्त वेर मोहिए मुहे खमे निस्सेसिए आणुगामिए पार गामिए सवसिं पाणाणं सवसिं नूयाणं सवेसि जी वाणं सवेसिं सत्ताणं असोश्रणयाए अजूरणयाए श्र निप्पणयाए अपीडणयाए अपरिश्रावणयाए अणुद्द वयाए महछे महाणु नावे महापुरिसाणु चिन्ने परम सिंदे लिए पसने तंपुरकरकयाए कम्मरकयाए सरकयाए वो हिलानाए संसारुत्तारणाए तिकट्ट उव मंपत्तिाणं विहरामि पढमेनंतेमहत्वए उवहिमि मवानपाणावायानवेरमणं ॥१॥ __ अहावरे दोच्चे नंते महत्वए मुसावा वेरमणं । सत्र नंते मुसा वायं पञ्चरकामि से कोहा वा १ लोहा बा २ नया वा ३ हासा वा ४ नेवसयं मुसंवश्जा ने Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिजेद. ५६ए वन्नेहिं मुसंवाया विजा मुसंवयंतेवि अन्ने न समणु जाणामि जावजीवाए ति विहं तिविहेणं मणेणं वा याए कारणं न करेमि न कारवेमि ॥ तस्स नंते प मिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि॥ से मुसाए चउबिहे पन्नत्ते।तं जहा। दव १ खित्तर कल ३ नाव ४ । दवणं मुसावाए सवेदवेसु । खित्तणं मुसावाए लोएवा अलोएवा । काल उणं मुसावाए दियावा राउवा। नाबढणं मुसा वाए रागणवा दोसेणवा । जं मए मस्स धमस्स केवलि पमत्तस्स अहिंसालकणस्स सच्चा हिहिय स्स विणय मूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरमसो वमियस्स जवसमप्पलवस्स नवबंजचेरगुत्तस्स अ पय माणस्स निकावित्तिबस्स कुरिक संबलस्स निरग्गिसरणस्स संपरकालिअस्स चत्तदोसस्स गुण ग्गा हिअस्स निव्विारस्स निवित्तिलकणस्स पंच महत्वयजुत्तस्स असं निहिसंचियस्स अविसंवाश्थस्स संसारपारगामिश्रस्स निव्वाणगमण पङावसा णफल स्स पुट्विंअन्नाणयाए असवणयाए अबोहियाए अण निगमेणवा पमाएणं रागदोसपडिबझयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगुरुवाए चउकसावगएणं पंचिंदिवसट्टेणं पमिपुमं नारयाए सायासुरकमणु पालयंतेणं हं वा नवे अन्नेसु वा नवग्गहणेसु मुसावा नासिवा नासाविउँ वा नासिजंतोवा परेहिं Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० जैनधर्मसिंधु. समणुन्नार्ड तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं अश्अंनिंदामि पम्पन्नंसंवरे मि अणागयंपच्चरकामि सव्वंमुसावायं जावजीवाए अणिस्सिहं नेवसयं मुसं वाला नेवन्नेहिंमुसं वाया विजा मुसं वायंतेवि अन्ने न समणुजाणिजा। तं जहा अरिहंतसरिकथं सिकस रिकथं साहुसरिक अं देवसरिक अप्पस रिकअं एवंहव निरकुवा नि कुणीवा संजय विरय पमिहय पच्चख्खाय पावकम्मे दियावा राउवा एगढवा परिसागढवा सुत्तेवा जाग रमाणेवा एसखलु मुसावायस्सवेरमणे हिए सुहे। खमे निस्सेसिए श्राणुगामिए सव्वेसिंपाणाणं सव्वे सिंाणं सव्वेसिंजीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अपुरक णयाए असोअणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीमणयाएं अपरिश्रावणयाए अणुदवणयाए मह जे महागुणे महाणुनावे महापुरिसाणुचिन्ने परमरि सिदेसिए पसछे तं पुस्करकयाए कम्मरकयाए मुक याए बोहिलानाए संसारुत्तारणयाए तिकटु जवसं पलिताणं विहरामि दोच्चे जंते महत्वए उवकिमि सवाई मुसावाया वेरमणं ॥२॥ __॥ अहावरेतच्चे जंते महत्वए अदिन्नादाणा वेर मणं । सवं ते अदिन्नादाणं पच्चरकामि । से गामे वा नगरेवा रमेवा अप्पंवा बहुंवा अणुंवा थुलंवा चित्तमंतंवा अचित्तमंतंवा । नेवसयं अदिन्नं गिरिह Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिच्छेद. झा नेवन्नेहिं श्रदिमं गिएहाविजाअदिणं गिएहंतेवि अन्नेन समणुजाणामि जावजीवाए तिविहंतिविहेणं मणेणं वायाए काएणं नकरेमि नकारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स नंते पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ से अदि न्नादाणे चनविहे पन्नते । तं जहा । दव्व खित्त काल जाव: । दव्वउणं अदिन्नादाणे गहणधारणि घेसु दव्वेसु; खित्तणं अदिन्नादाणे गामेवानगरेवा रमेवा, कालणं अदिन्नादाणे रागणवा दोसेणवा, जं मए श्मस्स धम्मस्म केवलिपन्नत्तस्स अहिंसालक पस्स जवसमपनवस्स नवबंजचेरगुत्तस्स अपयमा णस्स निरका वित्तियस्स कुरिकसंबलस्स निरग्गिसरण स्स संपकालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गा हिस्स निवियारस्स निवित्तिलकणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असं निहिसंचयस्स अविसंवाश्यस्त संसारपारगामि अस्स निव्वाणगमणपद्यवसाणफलस्स पुट्विअन्नाण याए श्रसवणयाए अबोहियाए अणनिगमेणं अनि गमेणवा पमाएणं रागदोसपडिबश्राए बालाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगुरुवाए चल कसाठवगएणं पंचिंदिअवसट्टेणं पमिपुमं नारियाए सायासुकमणुपालयंतेणं हंवा नवे अन्नसुवा नव ग्गहणेसु अदिन्नादाणं गहिकंवा गाहाविश्रवा घिप्पं तंवा परेहिं समणुन्नार्ड तंनिंदामि गरिहामि तिविहं Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ जैनधर्मसिंधु तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अईशं निंदामि पड्डप्पलंसंवरेमि अणागयं पच्चरकामि सव्वं अदिना दाणं जावजीवाए अणि स्सिहं नेवसंयं अदिन्नं गिएिहजा नेवन्नेहिं अदिन्नंगिएहाविद्या अदिन्नं गिएहंतेवि अन्ने न समणुजाणिजा। तं जहा । अरिहंतसरिक सिझसरिकथं साहुसरिक देवस ख्खियं अप्पस स्किझं एवं हव जिस्कुणीवा संजय विरयपडिहय पच्चरकाय पावकम्मे दियावा राठवा एगढवा परिसागउँवा सुत्तेवा जागरमाणेवा एस खनु अदिना दाणस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्से सिए आणुगामिए सव्वेसिं पाणाणं सबसि जीवाणं सव्वेसिं नूआणं सव्वेसिं सत्ताणं अपुरक णयाए असोश्रणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए थ पीमणयाए अपरिश्रावणयाए अणुदवणयाए महछे म हागुणे महाणुनावे महापुरिसाणुचिन्ने परमरिसि दे सिए पसछे तंमुस्करकयाए कम्मरकयाए मुरकयाए बोहिलालाए संसारुत्तारणयाए तिकट्ठ नवसंपछि ताणं विहरामि तच्चे जंते महव्वए उवहिमि स व्वा अदिन्नादाणा वेरमणं ॥३॥ __ अहावरे चउछे जंते महव्वए मेहुणा वेरमणं। सव्वं नंते मेहुणं पच्चरकामि।से दिव्वंवा माणुस्संवा तिरिकजोणिअंवा। नेवसझं मेहुणं से विद्या नेवन्नेहिं मेहुणं सेवा विद्या मेहुणं सेवंतेवि अन्ने नसमणुजाणा Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिच्छेद. ५७३ मि जावजीवाए तिविदं तिविदेणं मणेणं वायाए काएं नकरेमि नकारवेमि करंतंपि यन्नंन समणुक णामि तस्स जंते पक्किमामि निंदामि गरिदा मि प्पाणं वो सिरामि ॥ से मेहुणे चव्विहे पन्नते । तंज हा दoad खित्त काल जावर्ज । दवणं मेहुणे रूवे सुत्रा रूवसहगएसुवा । खित्तणं मेहुणे उलोएवा हो लोएवा तिरियलोएवा काल काल दियावा रार्जवा । जावर्जणं मेहुणे रागेणवा दोसेणवा । जंम ए इमस्स धम्मस्स केव लिपन्नत्तस्स अहिंसालक स्स सच्चादिस्सि विषयमूलस्स । खंतिप्पाण स्स अहिरन्न सो अस्स उवसमप्पजवस्स नवबंजचेर गुत्तस्स श्रपयमाणस्स जिरका वित्तिस्स कुरिकसंब लस्स निरग्गिसरणस्स संपरका लिास्स चत्तदोसस्स गुणग्गहिस्स निव्विधारस्स निव्वित्तिलरकणस्स पंच महव्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स वि संवाइस संसारपारगामिठास्स निव्वाणगमणप द्यवसाणफलस्स पुर्विवं अन्नाणयाए असवण्याए बोहियाए निगमेणं निगमेणवा पमाए रागदोसप बियाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगुरुच्याए चक्कसार्जवगएवं पंचिं दिवसट्टेणं पमिपुन्नं जारियाए सायासुरक मणुपाल यंतेणं इवाजवे अन्नेसुवा जवग्गणेसु मेहुणं सेवि वा सेवा वियंवा सेवितंवा परेहिं समपुन्नार्ज Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ जैनधर्मसिंधु. तंनिंदामि गरिहामि तिविहं तिविदेणं मणेणं वाया ए कारणं अश्यं निंदामि पमिपुन्नं संवरेमि श्रणा गयं पञ्चरकामि सव्वंमेहुणं जावजीवाए अणि स्ति उहं नेवसयं मेहुणं से विजा नेवन्नेहिं मेहुणं सेवा विद्या मेहुणं सेवंतेवि अन्ने नसमणुजाणिया । तं जहा अरिहंत सरिक सिसस्किअं साहस रिकथं देवसरिक अप्पस रिककं एवं हवश निस्कूवा नि स्कूणीवा संजय विरय पडिदय पच्चरकाय पावकम्मे दियावा राउवा परिसागढवा सुत्तेवा जागरमाणेवा एसखवुमेहुणस्सवेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए श्राणुगामिए सवेसिंपाणाणं सवेसि आणं सवे सिं जीवाणं सबसि सत्ताणं अमुकणयाए असोयण याए अजूरणश्राए अतिप्पणपाए अपीडणयाए अ परियावणयाए अणुदवणयाए महले महागुणे म हाणुनावे महापुरिसाणुचिन्ने परमरिसिदेसिए पसछे तंमुस्करकयाए कम्मरकयाए मुख्याए बोहि लानाए संसारुत्तारणयाए उवसंपचित्ताणं विहरामि चनजेनतेमहत्वए उवहिमिसबा मेहुणावेरमणं। अहावरे पंचमे नंते महत्वए परिग्गहार्डवेरमणं । सवं जंते परिग्गहं पच्चरकामि । अप्पंवा बडंवा श्रj वा थूलंवा चित्तमंतंवा अचित्तमंतंवा नेवसयंपरिग्ग हं परिगिहिया नेवन्नेहिं परिन्गिहं परिगिण्हाविद्या परिग्गरं परिगिएहंतेवि अन्नेन समाजाणामि जाव Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिछेद. ५७५ जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणंबायाए काएणं नकरे मि नकारवेमि करतंपि अन्नं नसमणुजाणामि तस्स नंते पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसि रामि ॥ सेपरिग्गहे चनविहे पन्नत्ते तंजहा दवर्ड खित्तउँ कालर्ड नावउँ । दवउँणं पारग्ग त्ताचित्तमीसेसु दवेसु, खित्तणं परिग्गहे सवलोए कालणं परिग्गहे दिया वा राउँ वा लावणं प रिग्गहे अप्पग्घे वा महग्घे वा रागेण वा दोसेण वा जं मए श्मस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स अहिंसा लकणस्स सच्चाहि हिस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहा णस्स अहिरन्नसोवनिअस्स उवसमप्पलवस्स नव बंजचेर गुत्तस्स अपयमाणस्स निरकावित्तिअस्स कु रिकसंबलस्स निरग्गिसरणस्स संपरकालिअस्स चत्त दोसस्स गुणग्गाहि अस्स निविधारस्स निवित्तिल कणस्स पंचमहत्वय जुत्तस्स असं निहि संचयस्स अविसंवाअस्स संसारपारगामिअस्स निवाणगमणप घवसाणफलस्स पुविंअन्नाणयाए असवणयाए श्र बोहियाएअणजिगमेणं अनिगमेणं वा पमाएणं रा गदोसपमि बाए बालयाए मोदयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगुरुयाए चउकसावगएणं पंचिं दिवसट्टेणं पडिपुन्नंजारियाए साया सुकमणुपालयं तेणं हं वा नवे अन्नेसु वा जवम्गहणेसु परिग्गहो गहिर्जवा गाहाविउँ वा धिप्पंतो वा परेहिं समणु Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ जैनधर्मसिंधु. ना तनिंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाएकाएणं अईशं निंदामि पमुप्पन्नं संबरेमि अ णागयं पच्चरकामि सवं परिग्गरं जावजीवाए अणि स्सिहं नेवसयं परिग्गहं पगिरि हिजा नेवन्नेहिं प रिग्गरं परिगिण्हाविद्या परिग्गरं परिगिण्हतेवि अन्ने न समणुजाणिजा तंजहा अरिहंतसरिकअं सिक सरिक साहु सरिकनं देव सकियं श्रप्प सरिकथं एवं हवश जिस्कू वा निस्कूणी वा संजय विरय पडिहय पच्चरकाय पावकम्मे दियावा रा वा एग वा परि साग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एस खलु परिग्ग हस्त वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए आणुगामि ए सवेसिं पाणाणं सवेसिं नूआणं सवेसिं जीवाणं सबसि सत्ताणं अमुकणयाए असोणयाए अजूरण आए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरिावणयाए अणुद्दवणयाए महले महागुणे महाणुनावे महापुरि साणुचिन्ने परम रिसि देसिए पसले तंपुरस्करकयाए कम्मरकयाए बोहिलानाए संसारुत्तारणायाए तिक टु उवसंपत्तिाणं विहरामि पंचमे नंते महवए उ वहिमि मवा परिग्गहा वेरमणं ॥५॥ अहावरे बसे ते महत्वए राश्य दोषणा वेर मणे सर्व नंते राश्नोअणं पच्चरकामि॥से असणं वा पाणं वा खाश्मं वा साश्मं वा नेवसयं राक्ष जोअणं लुजिजा नेवन्नेहिं राश्नोअणं मुंजा विद्या राश्नोत्र Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिद. ५७७ णं मुंजते वि अन्ने न समाजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविणं मणेणं वायाए काएणं नकरेमि नका रवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्सनंते प मिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि॥ से राश्नोअणे चउबिहे पन्नत्ते दव खित्त काल नावठादवठणं राश्नोत्रणं असणे वा पाणे वा खाश्मे साश्मे वा खित्तणं राईलोअणे समय खित्ते काल णं राश्नोलणे, दिश्रा वा रा वा,नावठणं राश्नोय णे, तित्ते वा कमुए वा कसायले वा अंबिले वा महु रे वा लवणे वा रागेण वा दोसेण वा जमए श्मस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स अहिंसा लकणस्स सच्चाहि हिअस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरणसो वमिश्रस्त जवसमप्पनवस्स नवबंजचेर गुत्तस्स अप यमाणस्स जिरका वित्तिअस्स कुरिकसंबलस्स निरग्गि सरणस्स संपरकालिअस्स चत्तदोसस्स गुणग्गा हि स्स निविधारस्सनिवितिलखणस्स पंचमवयजुत्तस्स असं निहिसंचयस्स अविसंवाश्अस्स संसारपारगामि अस्स निवाणगमणपद्यवसाणफलस्त पुर्विअन्नाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणनिगमेणं अनिगमेणं वा पमाएणं रागदोस पडिबझयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्याए तिगारवगुरुयाए चउकसावएणं पंचिंदिश्रवसट्टेमं पमिपुणंजारिश्राए सायासुकमणुपा लयंतेणं हंवा नवे अन्नेसु वा नबग्गहणेसुवा राश्नो Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० जैनधर्मसिंधु. यणं जुत्तं वा हुंजाविध वा जुजंतं वा परेहिं समणु ना तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविदेणं मणे णं वायाए कारणं अश्वं निंदामि पप्पणं संवरेमि अणागयं पच्चरकामि सवं राश्नोअणं जावजीवाए अणि सिहं नेवसथं राचुंजिका नेवन्नेहिं राई झुंजाविद्या राजुंजते वि अन्ने न समणुजाणिद्या तं जहा अरिहंतसरिक सिकसरिक साहुसकिरं देवसस्कियं अप्पसरिक एवं दवइ जिस्कूवानिरकू णी वा संजय विरय पमिहय पञ्चकाय पावकम्मे दिश्रा वा राउँ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एसखनु राश्लोषणस्स विरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए श्राणुगामिए सत्वेसि पाणाणं सव्वेसि नूत्राणं सवेसि जीवाणं सवेसिं सत्ताणं श्रपुकणयाए असोअणश्राए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीमणयाए अपरिवाए वणयाए अणुहवणयाए महले महागुणे महागुणे महा णुनावे महापुरिसाणुचिन्ने परम रिसि देसियपसछे तं पुस्करकयाए कम्म रकयाए मुरकयाए बोहि ला जाए संसारुत्तारणयाए तिकटु उवसंपधित्ताणं विह रामि ॥ बछे नंते मह वए श्रनु हिमि सबार्ड राश्नोयणा वेरमणं ॥ श्च्चेश् श्राइं पंचमहत्वया राईनोअणवेरमण बहाई अत्तहियहाई उवसंप त्तिाणं विहरामि ॥ अप्पसबाय जे जोगा। परिणामाय दारुणा ॥ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिच्छेद. एउ पाणाश्वायस्स वेरमणे ॥ एस कुत्ते इक्कमे ॥ १॥ ति रागाय जा जाता । तिवदोसा तदेव य ॥ मुसा वायरस वेरमणे | एस वुत्ते कमे ॥ २ ॥ उग्गहं सि जाता ॥ श्रवि दिन्ने उग्गहे || अदिन्नादा एस्स वेरमणे ॥ एसवुत्ते कमे ॥ ३ ॥ सद्दा रुवा रसा गंधा ॥ फासाणं पविचारणे ॥ मेहुणस्स वेरम ऐ ॥ एस बुत्ते इक्कमे ॥ ४ ॥ इछा मुछा य गेही अ ॥ कंखा लोटा दारुणे ॥ परिग्गहस्स वेरमणे ॥ एस कुत्ते मे ॥५॥ अश्मत्ते आहारे ॥ सूरे वित्तंमि संकिए || राईजोयणस्स वेरमणे ॥ एस वु ते मे ॥ ६ दंसणनाण चरिते ॥ श्रविरा हित्ता हि समण धम्मे ॥ पढमंवयमरके ॥ विरयामो पाणावाया ॥ ७ ॥ दंसणनाथ चरिते ॥ विरा हित्ताहि समय धम्मे ॥ बीयंवयमरके ॥ विरयामो मुसावाया ॥ ८ ॥ दंसणनाण चरिते ॥ विराहित्ता हि समण धम्मे ॥ तां वयमपुर के ॥ विरयामो दिन्नदाणा ॥ ए ॥ दंसण नाण चरिते ॥ श्रवरादित्ता हि समण धम्मे ॥ चउछं वयमरके ॥ विरयामो मेहुणा ॥ १० ॥ दंसण नाण चरिते ॥ श्रविराहित्ता हि समणधम्मे ॥ पंचमं वयमरके ॥ विरयामो परिग्गहाई ॥ ११ ॥ दंसण नाए चरिते ॥ श्रविरहित्ता हि समणधम्मे बहं व यमरके ॥ राजोयणा आलयवि ॥ १२ ॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जैनधर्मसिंधु. विहार समि ॥ जुत्तो गुत्तो वि समण धम्मे ॥ पढ मंवयमरके । विरयामो पाणाई वाया ॥ १३ ॥ आलय विचारसमि । जुत्तो गुत्तो हि समण धम्मे ॥ बीयं वय मरके ॥ विरयामो मुसावाया ॥१४॥ श्रा लय वियारसमि । जुत्तो गुत्तो हि समणधम्मे। तीयं वयमपुरके, विरयामोठा दिसा दाणा ॥ १५ ॥ श्रलय विचारसमि । जुत्तो गुत्तो हि समणधम्मे । चउच्चवय मपुरके । विरयामो परिग्गहाई ॥ १६ ॥ श्रालय विया रसमि । जुत्तो गुत्तो हि समणधम्मे ॥ पंचम वयमरके । विरयामो परिग्गहाई ॥ १७ ॥ श्रालय विचारसमि । जुत्तो गुत्तो हि समणधम्मे ॥ बव यमरके ॥ विरयामो राईजोय ॥ १८ ॥ श्रालय विहार समि ॥ जुत्तो गुत्तो वि समण धम्मे ॥ तिविद्वेष मत्तो । रकामि महवए पंच ॥ १५ ॥ सावजोगमेगं ॥ मितं एगमेव अन्नाणं ॥ परिव तो गुतो ॥ रकामि महवए पंच ॥ २० ॥ वद्य जोगमेगं ॥ सम्मत्तं एगमेवनाणं तु ॥ उवसंपन्नो जु तो ॥ रस्कामि महबएपंच ॥ २१ ॥ दो चेव रागदो से || डुसि काणादृरुद्दाई ॥ परिवद्यंतो गुत्तो । रकामि महद्वपंच ॥ २२ ॥ डुविहं चरित्त धम्मं । डुन्नि जाणाई धम्मसुकाई ॥ उवसंपन्नो जुत्तो ॥ रस्कामि महवए पंच ॥ २३ किएहा नीला काउ ॥ तिन्नि लेसा असा ॥ परिवद्यंतो गुतो र R Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर सप्तमपरिछेद. कामि महत्वए पंच ॥ २४ ॥ तेन पह्मा सुक्का । ति निथ लेसा सुप्पसबा ॥ उवसंपन्नो जुत्तो ॥र कामि महबए पंच ॥ २५॥ मणसा मणसच्चविल ॥ वायासच्चेण करण सच्चेण ॥ तिविहेण सच्चविउ ॥ रकामि महत्वए पंच ॥ २६ ॥ चत्तारि उह सिजा ॥ चउरो सन्ना तहाकसायाय ॥ परिवातो गुत्तो ॥ रकामि महत्वए पंच ॥ २७॥ चत्तारि श्र सुह सिजा ॥ चविहं संवरं समाहिहाणं ॥ उवसं पन्नो जुत्तो ॥ ररकामि महत्वए पंच ॥ २ ॥ पंचेवय काम गुणे ॥ पंचेवय अएहवे महादोसे ॥ परिवछतो गुत्तो ॥ रकामि महत्वए पंच ॥ श्ए ॥ पंचिंदिश सं वरणं ॥ तदेव पंच विहमेव सद्यायं ॥ उवसंपन्नो जुत्तो ॥ रकामि महत्वए पंच ॥३०॥ बजीवनिकाय वहं ॥ बप्पिथ नासा अप्पसत्था ॥ परिवव्रतो गुत्तो ॥ रकामि महत्वए पंच ॥३१॥ बबिहमप्रिंत रयं ॥ बनपित्र बविहं तवो कम्मं ॥ उवसंपन्नो जुत्तो ॥ रस्कामि महत्वए पंच ॥ ३२ ॥ सत्त य जय गणा॥ सत्तविहं चेव नाणविनंग ॥ परिवऊंतो गुत्तोरकामि महत्वए पंच ॥३३॥ पिंडेसण पाणेसण जग्गह सत्ति कया महतयणा ॥ उवसंपन्नो जुत्तो ॥ रस्कामि महत्वए पंच ॥ ३४ ॥ अध्य मयगणा श्र घ्य कम्मई तेसिं बंधंच ॥ परिवचंतो गुत्तो॥रकामि महवए पंच॥३५ अध्य पवयण माया ॥ दिशाह Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैनधर्मसिंधु विद निहिअहिं॥नवसंपन्नो जुत्तो। रकामि महत्व ए पंच ॥३६॥ नव पाव निथाणा॥ संसारबाय न वविदा जीवा ॥ परिवद्यतो गुत्तो । रस्कामि महत्वए पंच ॥ ३७॥ नव बंजचेर गुत्तो ॥ उनवविहं बंजचे र परिसुकं ॥ उवसंपन्नो जुत्तो ॥ उवसंपन्नो जुत्तो। रस्कामि महत्वए पंच ॥ ३५॥ उवघायं च दस विहं॥ असंवरं तहय संकिलेसं च॥परिवचंतागुत्तोरस्कामि महत्वए पंच॥३णा सच्च समाहिठाणे॥ दसचेव दस समण धम्मंच ॥ उव संपन्नो जुत्तो ॥ रकामि म हवए पंच ॥ ४० ॥ श्रासायणं च सवं ॥ तिगुण श्कारसं विवछतो ॥ परिवतो गुत्तो ॥ ररकामि महत्वए पंच ॥४१॥ एवंतिदंग विर ॥ तिगरण सुको तिसब निसरो ॥ तिविहेण पमिकंतो॥ रकामि महत्वए पंच ॥ ४२ ॥ इञ्चेश्वं महत्वय उच्चारणं थिरत्तं सबकरणं । धि बलं ववसा । साहणठो पाव निवारणं । निकाय णा नाव विसोही पडागाहरणं । निथैहणाराहणा गुणाणं । संवरजोगो पसबद्यायो । वउत्तया जुत्तयाय नाणे परमहो उत्तमहोय । एसखनु तिबंकरोहिं । रश् राग दोस महणेहिं । देसि पवयणस्ससारो। जीवनीकाय संजमं । उवए सिझं। तेलुक सक गणं । अप्नुवगया नमोलु ते । सिझ बुझ मुत्त निरय। निसंग माणमूरण । गुण रयण । सायर । मणंत Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिजेद. ५३ मप्पमेथ । नमोबुते महश् महावीर वजमाण सामि स्स । नमोजते अरह । नमोबुते जगवर्ड । तिकडे। एसाखलु । महत्वय उच्चारणाकया ॥ श्छामो सुत्त कित्तणं कालं । नमोतेसिं खमासम णाणं । जेहिं श्मं वाश्यं । विह मावस्सयं । नग वंतं तंजहा । सामाश्च ॥१॥ चवीसब ॥२॥ वंदणयं ॥३॥पमिकमणं ॥४॥ काउसग्गो ॥५॥ पच्चरकाणं ॥ ६ ॥ सोहिं पि एअंमि । बबिहे श्राव स्सए । जगवंते ससुत्ते । सय सगंथे सनिज्जुत्ती ए । ससंगहणिए जेगुणावाजावावा । अरिहंतेहिंलग वंतेहिं । पलत्तावा । परूविश्रावा । तेनावेसदहामो । पत्तियामो । रोएमो फासेमो । पालेमो । अणुपाले मो। तेजावेसदहंतेहिं पत्तियंतेहिं । रोअंतेहिं । फासं तेहिं । पालंतेहिं । अणुपालंतेहिं । अंतोपकस्स जंवा श्रं । पढिरं परिट्टिकं । पुलिअं अणुपालिझं। तंपुरकरकयाए कम्मरकयाए । मुरकयाए । बो दिला नाए । संसारुत्तारणयाए । तिकटु । उवसंपत्तिाणं विहरामि । अंतोपरकस्स । जनवाश्थं नपढियं नप ढिरं नपरियहि । नपुछिकं । नाणुपेहिथ । नाणु पालिकं संतेबले संतेवीरिए । संतेपुरिसक्कारपरिक्कमे। तस्सालोएमो । पमिक्कमामो । निंदामो गरिहामो। विजडेमो । प्रकरणयाएश्रप्रोमो । अहा रिहंतवो कम्मं । पायचित्तंपडिवजामो। तस्स मिला मिरुक्कडं। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन्। जैनधर्मसिंधु. नमोतेसिंखमासमणाणं । जेहिंश्मवाश्यं । अंग बाहिरं उकालिअंजगवंतं । तंजहा। दसवेश्रालियं। कप्पियाकपिधे । चुलकप्पसुझं । महाकप्पसुअं । जवाश्यं रायप्पसेणिवे। जीवानिगमो। परमवणा । महापन्नवणानंदी अणुजंगदाराइंदेविंदथ्थ तंफुल विश्रालिअंचंदाविलियोपमायप्पमायं। पोरिसिमंगलं। मंडलप्पवेसो गणि विद्या। विद्याचारण विणीकाण विजत्ती । मरणविजत्ती । श्रायविसोही । संघहणा सुखं । वीयरायसुझं । विहारकप्पो । चरण विहि । आजरपच्चरकाणं । महापच्चरकाणं ॥२०॥ सवेहिंपि एअंमि । अंगबाहिरे उक्कालिए । जगवंते ससुत्ते । सबछे । सगंथे । सनिकुत्तिए । ससंगहणिए जेगु णावा नावावा । अरिहंतेहिं । नगवंतेहिं । पन्नत्ता वा । परूविधावा । तेनावे सद्दहामो पत्तियामो। रोएमो फासेमो । पालेमो अणुपालेमो । तेनावे सद्द इंतेहिं । पत्तिअंतेहिं । रोअंतेहिं । फासंतेहिं पालते हिं । अणुपादंतेहिं । अंतोपरकस्स । जंवाश्यं पढि अं । परीअट्टियं । पुबिधे । अणुपेहिवे। अणुपालि अं। तंदुरकरकयाए । कम्मख्खयाए । मुख्खयाए। बोहिलालाए संसारुत्तारणयाए। तिकडु । उवसंप वित्ताविहरामि । अंतोपख्खस्स । जनवाश्यं नप ढि नपरिट्टिकं । नपुबिध । नाणुपेदिकं । नाणु पालिकं । संतेबले संतेविरिए । संतेपुरिसक्कारपरिक Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिवेद. एन्य मे।तस्सालोएमो। पमिकमामोनींदामो।गरिहामो। विमो। विसोहेमो।अकरणयाएअषुहेमोथहारिहं तवोकम्म।पायबित्तं पमिवद्यामो। तस्समिबामिदुक्कडं। ___ नमोतेसिंखमासमणाणं । जेहिंश्मवाश्यं अंगवा हिरंकालिअंजगवंतं । तंजहा । उत्तरऊयणाई। द साकप्पो । ववहारो । इसिना सिआई । निसीहं । महानिसीहं । जंबुढीवपणत्ती । सूरपणत्ती । चंदपन्न ती। दीवसागरपन्नत्ती । खुड्डया विमाणपविजत्ती । महबिआविमाण पविजत्ती । अंगचूलिआए। वंग चूलिआए। विवाहचूलियाए अरुणोववाए । वरुणो ववाए गरुलोववाए । धरणोववाए। वेलंधरोववाए । *वेसमणोववाए । देविंदोववाए । उहाणसुए। समुहा णसुए । नागपरित्रावलियाणं । निरयावलिश्राणं । कप्पियाणं । कप्पवमिसियाणं । पुफियाणं । पुष्फ चूलियाणं । वएहीयाणं । वएहीदसाणं श्रासीविस लावणाणं । दिहि विसनावणाणं । चारणसुमिण ना वणाणं । महासुमिणजावणाणं । तेश्रग्गिनिसग्गाणं ॥३६॥ सवेहि पिएअंमि । अंगबाहिरे कालिए जग वंते । ससुत्ते । सबने सगंथे। सणिज्जुत्तिए । ससं गहणिए जेगुणावां लावावा । अरिहंतेहिं । जगवंते हिं । पसत्तावा परूवीसावा तेलावेसदहामो । पत्ति आमो रोएमो । फासेमो पालेमो । अणुपालेमो । ते जावेसदहंतेहिं । पत्तिअंतेहिं । रोयंतेहिं फासंतेहिं । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैनधर्मसिंधु. पालतेहिं । अणु पालंतेहिं । अंतोपख्खस्स जंवाझं पहिलं परिश्रथिं पुलिथं अणुपेहि अणुपालिथं तंपुख्खख्खयाए । कम्मख्खयाए॥ मुख्खयाए।बोहि लानाए। संसारुत्तारणयाए । त्तिकट्ट।उवसंपधित्ताणं विहरामि । अंतोपख्खस्स । जनवाश्यं नपढी नप रियहि नपुलिअं । नाणुप्पेहिअं नाणुपालिथं । सं तेबले । संतेवीरिए । संतेपुरिसकारपरिकमें। तस्सया लोएमो।पमिकमामो। निंदामो गरिहामो । विउद्देमो विसोहेमो । अकरणयाए । श्रनुज्मा।हारिहंतवा कम्मं । पायचित्तंपमिवद्यामो । तस्समिछामिकम् ॥ __नमोतेसिंखमासमणाणं । जेहिंश्मवाश्यं । उवा लसंगंगणि पिळगं । जगवंतं । तंजहा ।आयारो सुश्र गमो गणं । सगवा । विवाहपन्नत्ती । नायाधम्मक हाउँ । उवासगदसाउँ अंतगमदसा । अणुत्तरोववा श्यदसा । पएहावागरणं । विवागसुअं दिग्विाऊ। सोहि पि एअंमि । पुवालसंगे गणिपिमगे। जगवंते। सबजे । ससुत्ते । सगंथे । सणिझुत्तिए । ससंग ह णिए । जे गुणा वा । नावा वा । अरिहंतेहिं । नग वंतेहिं । पन्नत्ता वा । परविश्रा वा । ते नावे सद नामों । पत्नियामो। रोएमो । फासेमो। पालेमो। अणुपालेमो । ते नावे सदहताह । पात्तप्रताह । रोयंतेहिं । फासंतेहिं । पालंतेहिं । अणुपालंतेहिं । अंतोपरकस्स । जंवाअं । पढिअं। परियट्टिअं । पु Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिच्छेद. I 1 वि । अणुपे हि । अणुपासित्रं । तंडुरकरकयाए । कम्मरकयाए । मुरकयाए । बोहिलाजाए । संसारुता रयाए । तिकट्ट । उवसंपद्यित्ताणं विहरामि । अंतो परकस्स जं न वा । न पढिचं । न परित्र्यहि । न पुछि | नाणुपे हियं । नाणुपालि | संते बले । संते वीरिए । संते पुरिसक्कारपरिक्कमे । तस्स थालो एमो पकिमामो । निंदामो गरिहामो । विट्टेमो विसोमो । करणयाए । अनुमो । श्रहारिहं तवोकम्मं । पायवित्तं विद्यामो । तस्स मिठामि डुक्करं ॥ ७ ॥ नमो तेसिं खमासमणाएं । जेहिं इमं वायं 5वा लसंगं गणिपिरुगं । जगवंतं । तं जहा सम्मं कारणं । फासंति । पालंति । प्ररंति । तीरंति किहंति । सम्मं श्रणाए । श्राराहंति । श्रहं च नारामि । तस्स मिठा मिडुक्कमं ॥ ८ ॥ 1 1 सुदेव जगवई । नाणावरणीयकम्मसंघायं । तेसिं खवेन सययं । जेसेिं सु सायरे जत्ति ॥ ७ ॥ इति पादिक सूत्र समाप्तं ॥ पाक्षिकामणा ॥ 6Dh वामि खमासमणो पिअं च मे जंने । हाणं तु ठाणं श्रपयंका | जग्गजोगाएं। सुसीलाएं । सु वयाणं । सायरिज्वनायाणं । नाणेणं । दंसणेणं । चरितेां । तवसा । अप्पाणं । जावेमाणाणं । बहुसु ने ने दिवसो पोसहो । परको वकतो | अन्नो ने Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन्ज जैनधर्मसिंधु कलाणेणं । पछुवहिए। सिरसा मणसा । मबएण वंदामि ॥१॥ तुजेहिं समं ॥ .. श्वामि खमासमणो । पुवि चेश्या वंदित्ता । न मंसित्ता । तुलण्हं पायमूले। विहरमाणेणं । जे केश बहुदेव सिया । साहुणो। दिछासमाणा वा वसमाणा वा गामाणुगामं । पुश्यमाणा वा । राणिया संपु बंति । उमराणिया वंदति । अजया वंदंति अ जिया वंदति । सावया वंदति । साविया वंदंति पई विनिम्माहो बनिनसाग कसलीमा वाण थकं वा । हेज वा । पसिणं वा । वागरणं वा । तुने श्बाराम खमासमणा । अनुाहजह । तुम्नएह । स तिथ। अहाकप्पं वा । वयं वा । पडिग्गहं वा । कं बलं वो। पायपुरणं वा । रयहरणं वा । अस्करं वा। पयं वा । गाहं वा । सिलोगं वा । सिलोगळं वा । अहं वा । हेज वा । पसिणं वा । वागरणं वा । तुले हिं। चिअत्तण दिन्नं । मए। अविणएण । पमिहिरं। तस्समिछामिपुक्क ॥३॥ श्रायरियसंतिथं ॥ श्छामि खमासमणो । अहमपुवाई। कया चमे। किश्कम्मा। आयारमंतरे। विणयमंतरे । सेहि । सेहाविळ । संगहि । उवग्गहिउँ । सारि। वारि चोर्छ । पडिचोछ । चिअत्ता मे। पडिचो यणा । अप्नुहिउहं । तुपएहं तवतेयसिरीए । श्मा चाउरंत संसारकंतारा । साइड । निबा रिस्सामि Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिद. एन्ए तिकडे । सिरसा मणसा । मबएण वंदामि ॥४॥ निबारगपारगाहोह ॥ इति पादिक दामणा ॥ साधुकों दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में अतिचारकी आठ गाथाके स्थानपर गुणनेकी एक गाथा. सयणासन्न पाणे, चे जश् सिज काय उच्चारे । समिश्नावणा गुत्ती,वितहायरणे य श्राश्यारो॥१॥ यह गाथा गुण तेतिस्में कहिहुश् बातें संबंधी जो कुछ अतिचार लगा होसो सांधुने याद करना. सामान्य साधुसे गुरुको अल्प व्यापार होनेसें गुरुने दोवार यह गाथा अर्थ सह विचारनी. __ (प्रातः पमिलेहणकी विधि ), रिश्रावही पमिकमी, खमासमण देके, इलाका रेण संदिसह जगवन् पमिलेहण करूं? 'श्वं' कही मुहपत्ति ५० बोलसें, उघो १० बोलसें, कटासण २५ बोलसें, कंदोरा १० और चोलपट्टा २५ बोलसें पमि खेहना. पिढे इरियावही पमिकमके, खमासमण देके, श्चकारी जगवन् पसाय करी पमिले हणा प मिलेहवोजी, एसा कहके स्थापनाचार्यकी पडिलेह णा करनीसो नीचे प्रमाण. प्रथम कामली पमिलेही संकेलके तिस उपर स्थापनाचार्य रखणी. पिच् थापनाजी. बोमीके प्रथम उपरकी एक मुहपत्ति पमिलेहे पियें "शुशखरूपके Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए जैनधर्मसिंधु धारक गुरु ज्ञानमयी. दर्शनमयी चारित्रमयी, शुद्ध श्रमामय, शुरू प्ररुपणामय, शुक स्पर्शनामय, पंचा चार पाले पलावे, अनुमोदे, मनगुप्ति वचनगुप्ति, कायगुप्तिसें गुप्ता" यह तेरह बोल बोलके पांचोंस्थाप नाजीकी पृथक पृथक् पमिलेहणा करे. पिलें स्थाप नाजी संबंधी उसरी मुह पत्तिये पमिलेहे. ( सांज की पमिलेहण वखत पडेली स्थापनाजीकी सब मु हपत्तियें पमिलेहना. पिलें स्थापनाजी बांधके उवणी उपर रखके खमा समण देके श्वा उपधि मुहपत्ति पडिलेडं ? श्वं कही मुहपत्ति पमिलेही,खमा० श्याम उपधि संदिसाहुं ? श्वं, खमा० श्छा० उपधि पनि लेहु ? छ. कही दूसरे सववस्त्र पडिलेहने अंतमें मंमक पडिलेहना पिढें डंमासण लेके पमिलेही, इरिथावही पमिकमी, काजा लेना पिलें रियावही पमिकमी काजा परग्वना. पिढें इरिश्रावही पमिक मी, खमासण देके श्बा सफाय करूं ? श्वं कही एक नवकार गणी 'धम्मो मंगल मुकिळं, ए सफाय कहेना. इतिप्रातः पमिलेहण विधि (संध्या पमिलेहण विधि ) खमासमण देके श्छा बहु पमिपुन्ना पोरिसि ? खमासमण देके इरियावही पमिकमी खमासमण देके श्या० पमिलेहण करुं? खमा० श्चा० वस्ती प्रमाणु ? श्वं कहके उपवास कीया होय तो मुहप Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिजेद. एए? त्ति, उघो, कटासणं पमिलेहना नहीं तो पूर्ववत् पांच चीजें पमिहना. पिच् इरियावदी पमिकमी खमासमण देके, श्वाकारी जगवन् पसाय करी पडिलेहणा पमिलेहावोजी. यों कहके पूर्वोक्त रीत स्थापनाजीनी पमिलेण करनी. पिढें खमा श्या० उपधि मुहपत्ति पमिलेहुँ ? श्वं कही मुहपति पहि लेहि खमा० श्वा० सकाय करूं ? श्ठ कही एक नवकार गुणके “ धम्मो मंगल मुकि” एसजाय कहे. पिलें आहार कीया होयतो वांदणा देके योग्य पञ्चरकाण करना. उपवास किया होयतो खमसमण देके श्चकारी नगवन् पसाय करी पञ्चकाण श्रादे शदिजीयें यौंकहके पच्चरकाण करे. पिढें खमा०श्वास उपधि संदिसाई ? श्वं. खमा० श्छा उपधि पडिले हुँ ? श्छ कही सर्व वस्त्र पडिलेहे. पि. पूर्वोक्त रीत इरियावही पमिकमी, काजा लेके, इरियावही पनि कमी, काजा परग्वना. ॥ इति ॥ (पोरसिविधि) बघमी दिवस चडे पिढें खमासमण देके श्वा० बहु पमिपुन्ना पोरिसि ? श्वं कही खमासमण देके इरियावही पमिकमना. पिढें खमासमण देके श्छा० पमिलेहण करुं ? श्वं कही मुहपति पमिलेहनी. इति. पच्चरकाण पानेकी विधि. खमासमण देके इरियावही पमिकमी, खमासम Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएस जैनधर्मसिंधु ण देके श्ला० चैत्यवंदन करूं? श्वं कही जगचिंता मणीका चैत्यवंदन जयवियराय संपुर्ण पर्यंत करना. (स्तवन स्थान उव सग्गहरं कहेना.) पिढें खमास मण देके श्छा सजाय करूं ? श्वं कही एक नव कार गणी धम्मो मंगलमुकि सजाय कहेना खमा समण देके श्ला० मुहपति पमिलेहुँ ? श्वं कही मुहपत्ति पहिलेहणी. पिढें खमा श्वा पञ्चरकाण पारुं 'तहत्ति' कही जमणा हाथ उघा उपर स्थापन करके एक नवकार गुणके आंबिख पर्यंतके पच्चरकाण नीचे प्रमाणे कह करपारणा. __ “उग्गए सूरे नमुक्कार सहिअं पोरिसिं साढपो रसिं सूरेजग्गए पुरिमट्ठ मुठि सहिथं पच्चरकाण कीया चनविदार ॥ आंबील, नीवी, एकासणं पच्च काण किया तिविहार ॥ पञ्चरकाण फासिश्र, पालि अं सोहिअं, तीरिक्षं किदिअं, श्राराहि जं च न आराहियं तस्स मिठामि मुक्कम. ॥ इस्में जो पच्चरकाण कीया होय उहांतक बोलनां श्रागेकेपाठ न बोलवा. तिविहार उपवासवालो ने नीचे प्रमाणे कहेना. __“सूरे जग्गए पच्चरकाण किया तिविहार; पाण हार पोरिसि साढपोरिसि पुरिमट्ठ मुह सहिथं पच्चरकाण किया पाणहार; पच्चरकाण फासिअंगपूर्ववत् ए प्रमाणे पच्चरकाण पार्या पिजे नीचे प्रमाणे ॥१७॥ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए३ सप्तमपरिछेद. गाथा कहेनी. धम्मो मंगल मुकिकं । अहीसा संङमो तवो देवावि तं नमसंति । जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ जहा उमस्स पुप्फेसु । नमरो आवियश् रसं । नय पुप्फ किलामे । सो अपीणेश् अप्पयं ॥२॥एमए समणा मूत्ता । जे लोए संति सोहुणो। विहंगमाव पुप्फेसु । दाण जत्तेसणे रया ॥३॥ वयं च वित्तिं ल लामो । न य को उवहम्मई । अहा गडेसुरीयंते । पुप्फेसु नमरी जहा ॥४॥ महुकार समा बुझा । जे जवंति अणि स्सिया । नाणापिमरया दंता ॥ तेणवुच्चं ति साहुणो त्तिबेमि ॥५॥म्म पुफिया अफयणम् ॥१॥ कहन्नु कुद्या सामल । जो कामे न निवारए । पए पए विसीयतो। संकप्पस्स वसंग । ६ । वन गंधमलंकारं। बि सयणाणि य।अबंदा जे नहुँजं ति । न से चाशत्तिवुच्चई । ७ । जेथ कंते पिए नोए। लक्षेवि पिकि कुवई । साहीणे चवर नोए। सेतु चाइत्ति वुच्चई॥७॥समाश्पेदाइ परिवयंतो। सिया मणो निस्सरई बहिका ॥ न सामहं नो वि अहंपि तीसे । श्च्चेव ता विमश्च रागं ॥ ए ॥ आयावया हीचयसोगमङ्गं । कामेकमाहीकमि यं खु उरकं । विं दाहिदोसं विणश्जा रागं । एवंसुही होहिसि संपरा ए ॥१०॥ पकंदे जलियं जोई। धूमकेलं पुरासयं । निति वंतयं नोत्तं । कुले जाया अगंधणे ॥११॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए४ जैनधर्मसिंधु. धिगबु ते जसो कामी । जोतं जोवियकारणा । वंतं ३ बसिश्रावेलं । से अंते मरणं नवे ॥ १२ ॥ अहं च जोग रायस्स । तं चसि अंधगवन्हिणो । माकुले गंध णाहो मो । संजमं निहुउंचर ॥ १३ ॥ ज तं काहि सि नावं । जा जा दिसि नारी। वाया विवह मो। अहि अप्पा जविस्ससि ॥ १४ ॥ तीसे सो व यणं मुच्चा । संजयाश्सु नासियं । अंकुसेण जहा ना गो। धम्मे संपडिवाळ ॥ १५॥ एवं करंति संबुझा। पंमिश्रा पवियरकणा। विणिअति नोगेसु । जहा से पुरिसुत्तमो। तिबेमि ॥ १६ ॥ संजमे सुग्यिप्पा णं । विप्पमुक्काण ताणं । तेसिमेय मणान्नं । निग्गं थाण महेसिणं ॥ १७ ॥ इतिसामन्नपुवियद्ययणम् ॥ गोचरी आलोयण विधि. निसिही कहके उपाश्रयमें प्रवेश करके गुरु स न्मुख शाकें नमो खमासमणाणं मबएण वंदामी' कहके पिलें पग नूमि प्रमार्जी शुद्ध करके गुरु स न्मुख खडे रहके माये पग उपर मांमा रखके दक्षिण हाथमे मुहपत्ति रखके खडेखडे खमासमण देय. पि. श्रादेश मांगके रिश्रावही पमिकमे. एक लोगस्सका काउसग्ग करे. काउसग्गमें जो क्रमसें गोचरीकी जो जो वस्तुयें लीनी होय सो यादकरे तिस्में जहां जहां जो जो दोष लागे होय सो याद करे पियें नमो अरिहंताणं कह पारके क्रम प्रमाण Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिछेद. մաս गुरुकों कह बतावे. पिढें गुरुको श्राहार दिखावे. पियें गोचरी आलोवे सो ए प्रमाणे पमिकमामि गोअरचरिश्राएसें मिलामिछुक प र्यंत (श्रमण सूत्र पगाम सफाय) मे आवे सो बालावा कहे. पि तस्स उत्तरी अन्नब कहके काउसग्ग करे. सो काउसग्गमे नीचेकी गाथा तिन वार विचारे. अहो जिणेही असावजा, वित्ती साहुण देसिया। मुकसाहण हेजस्स, साहु देहस्त धारणा ॥१॥ पिलें काउस्सग्ग पारके लोग्गस्स कहे. ॥इति ॥ स्थंडिल शुझिका विधि. सायंकाले दैवसिक प्रतिक्रमणके प्रारंजमेरिया वही पमिकमी पञ्चखाण करे पियें खमा० श्च स्थं मिल पमिलेहुँ? श्वं कही मंडला करे सो ए प्रमाणे १ आघाडे श्रासन्ने उच्चारे पासवणे श्रणहियासे. २ आघाडे श्रासन्ने पासवणे अणहियासे. ३ श्राघाडे मजे उच्चारे पासवणे अणहियासे. ४ आघाडे म पासवणे अणहियासे. ५ श्राघाडे दूरे उच्चारे पासवणे अणहियासे. ६ श्राघाडे दूरे पासवणे अणहियासे. दूसरे उ मांडलेमे श्रणहियासेके बदल अहिया से' कहेना. तत्पश्चात् दूसरी बारमे आघाडेके बदल आणाघाडे कहेना शेष उपर प्रमाणे कहेना. एकंदर २४ मंडले करना. Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैनधर्मसिंधु. पिढें इरिश्रावदी पक्किमी, चैत्यवंदन करके प raमणां शरु करे. ॥ इति. ॥ संथारा पोरिसीकी विधि. पहोर रात्री पर्यंत सजाय ध्यान किये पिछे संथा रा करनेके अवसर खमा० वा० बहु पडिपुन्ना पोरि सिकही खमासमे देके इरियावह पक्किमे पिढें खमा० वा० 'बहु परिपुन्ना पोरिसि राज्य संथारए वाजं ?' यौं कहके चक्कसायका चैत्यवंदन जय विय बुकमा ना तक विधि तिस्मे चौंदमी गाथा तीनवार कहना पिछे तीन नवकार गुना पिबे बेल्ली तीन गाथा कहेनी तत्प श्चात् निद्रा न आवे तहांतक सजाय ध्यान करना. पाक्षिक प्रतिक्रमण में कोइको ठींक आवे तो करने की विधि. जो पाक्षिक अतिचारके पहिले बींक आवेतो सब नवकार गुना (पब बल्ल । तनि गाय कहना तत्ले श्चात् निद्रा न आवे तहांतक सजाय ध्यान करना. पाक्षिक प्रतिक्रमण में कोइको ठीक यावे तो करने की विधि. - जो पाक्षिक अतिचारके पहिले बींक श्रावेतो सब पुनः करना. तत्पश्चात वृद्धशांति तकमे बीक यावे तो पुरकरकट के काउसग्गके पहिले इरिश्रावदी पक्किमी लोगस्स कही खमासण देके इवा० मुद्रो Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए सप्तमपरिजेद. पडव उंडावणार्थं काउसग्ग करूं? छ कही अन्न कही चार लोगस्सका काउसग्ग सागरवरगंनिरा त क करना नीचेकी गाथा कहके पारना. · सर्वे यहां बिकाद्या ये, वैयावृत्यकरा जिने ॥ कुसोपव संघातं, ते अतं जावयंतु नः ॥१॥ पिछे प्रगट लोगस्स कहेना. बमासि काउस्सग करनेकाविधि चैत्र सुदि ११-१२-१३ तथा श्रासो सुदि १११५-१३ ए तीनतीन दिवसोमे हररोज देवसिक प्र तिक्रमणमे सफाय को पिलें ए काउस्सग्ग करना प्रथम खमासमण देके श्छा सचित अचित्तरज उमावण काउस्सग्ग करूं? श्वं. करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ कही चार लोगस्सका सागरवर गंजिरा तक काउस्सग्ग करना. पारके लोगस्त कहेनाः • लोच करनेके समय काकस्सग्ग करनेका विधि. लोच करना होय तिस दिन लोचकिये अगाउ शरिावही पमिकमी खमा श्छा सचित्तचित्त रज उमावणवं काउस्सग्ग करुं? ना करेमी काउ स्सग्गं अन्नत्थकही चार लोगस्सका काउस्सग्ग साग रवरगंभिरा तक करना. पारके प्रगट लोगस्सकहेना. को साधु काल करे तब साधुकों करनेका विधि. जो साधुनें काल किया होय तिनके पास आके एक साधु नीचेप्रमाण कहे-कोटिक गण, वज्रीशा Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱՍԵ जैनधर्मसिंधु. खा, चंकुल, अमुक श्राचार्य, उपाध्याय, स्थवीर, अमुक पंमितके शिष्य (अमुक मुनि) महापारिगव णीया करेमि काउस्सग्गं' अन्नथ कही एक नव कार कहे. पिने तीन वार 'वोसिरे' कहे. पिने श्रावक संस्कार करनेको ले जाय. तत्पश्चात् जीर्ण काचली प्रमुख नांगना. जीर्ण वस्त्र परग्वना. पवित्र अचित्त पाणीसे नूमिशुकि हस्तपाद वस्त्र शुकि कर ना पिले श्रावक पास गोमूत्रादि बंटायके अवले देव वंदाने. तिसकी विधि नीचे प्रमाणे अंतिम देव वंदन विधि. काल करने वाले साधुके एक शिष्य अथवा ल घु पर्यायवाला को शिष्य प्रथम उलटा काजा (छारसे श्रासन तरफ) लेवे. वस्त्रादि पहेरे उलटा. पिजे काजा संबंधी रिश्रावही पमिकमके उलट्य देव वंदन करे सो इस प्रमाणे. प्रथम कहाणकंदकी एक थोश. पिजे एक नवकारका काजस्सग्ग, पिजे अन्नत्थ अरिहंत चे जयवि० जव सग्गनमोहंत जावंति के खमासमण जावंतीचे नमुथ्युणं चैत्यवंदन लोग्गस्स० एक लोगस्सका काउस्सग्ग अन्नब तस्सज इरिथा वही खमा समण देके. श्रविधि आशातना मिठामि पुक्कम कहे. पिडे सीधा काजा लेके इरियावही पडिकमे. पिजे सना समद सर्व साधु साध्वीने आठ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपरिछेद. ए थोसें सीधे देववंदन करना. तिस्में स्तवनके स्थान अजीसंता कहना.और देव पूरा होनेसें खमाण श्वा० कुञोपजव उमावण काउस्सग्ग करूं? द्धं करेमि काजस्सग्गं अन्नबं कही चार लोगस्सका काउस्सग्ग सागरवर गंनीरा तक करना. स्तुतिके स्थान वृक्ष शांति कहना. पिलें प्रगट लोगस्स कहना. दूसरे गामसें स्वसमाचारीवाले साधुके काल धर्म का समाचार मिलनेसेंनी उपर प्रमाणे पाठ थोश्से, सीधे देव वांदने तथा अजीसंता वृध्धशांति कहना.सा ध्वीने समाचार आनेसे साध्वीोंने देव वंदन करना. कोसाधु कालधर्म पामे तब श्रावककों करनेका विधि. प्रथम स्नान करना केश होय तो प्रथम तरा ना. जरा पगकी अंगुलीको बेदकरना. हाथ पगकी श्रांगलीयोंकों बंध करना. शरीरपर चंदन केशर बरासकाविलेपन करना. मृत्यु स्थानके तथा स्नान क रायके बेगनेके स्थानक लोखंडकी खीली गेकनी. नये वस्त्र पहेनाना. दक्षिण तर्फ रजोहरण (चरव ली) मुहपत्ति रखना. मांही तर्फ जोली, उस्मे न ग्न पात्र एक लमु सहित रखना.रोहिणी, विशाखा. पुनर्वसु तिन उत्तरा ए उ नक्षत्र में दो पुतले दर्ज के करके रखना. ज्येष्टा, आओ, स्वाति, शतनिषा, जरणी अश्लेषा ए उ नक्षत्रे पुतलें न करणा. दूसरे १५ नक्षत्रेमें एक पुतला करणा. वो पुतलेके जमणे Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० जैनधर्मसिंधु. हाथमे उघा(चरवला ) मुहपत्ति देना उर वाम हा थमे नग्न पात्र तथा एक लमु सहीत जोली देनी. दो पुतले होय तो दोनोकों देना. पिवें शोकयुक्त चित्तसे महोत्सव सहित योग्य स्थानके ले जाके चं दनादि काष्टोंसें अग्नि संस्कार करना. प्रांतमें सर्व अग्नि शांत कर रदा योग्य स्थानकों परठवणी पिडे गुरु पास आयके लघुशांति वा वृक्षशांति सुनके अनित्यताका उपदेश श्रवण कर स्वस्थानक जाना. ५ श्राहार कररहै पिंडे जगचितोमणीका. ६ दैवसिक प्रतिक्रमके प्रारंजमे. संथारा पोरिसी नणावणमें चउकसायका २४ साधु दररोज चारवार सकाय करे सोस प्रमाणे, १ सवेरकी पडिलेहणके अंतमें धम्मो मंगल की. २ सांजकी पमिलेहण मध्यमे धम्मो मंगल की. २ देवमिक प्रतिक्रमणके अंतमें कहते हैं सो. संथारा पोरिसी नणावणमें चउकसायका २४ साधु दररोज चारवार सकाय करे सोश्स प्रमाणे, १ सवेरकी पडिलेहणके अंतमें धम्मो मंगल की. २ सांजकी पमिलेहण मध्यमे धम्मो मंगल की. ३ दैवसिक प्रतिक्रमणके अंतमें कहतें हें सो. ४ राश् पमिकमणाके प्रारंजमे जरदेसर की. सप्तम परिवेदः समाप्तः Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टमपरिछेद. ॥ अथ अष्टम परिवेदः प्रारंभः ॥ ॥ अथ षौमश संस्कार प्रारंभ ॥ तत्व ज्ञान भयो लोके, य श्राचारं प्रणीतवान् ॥ केनापि हेतुना तस्मै नम श्राद्याययोगिने ॥ गर्भाधानं पुंसवनं जन्मचन्द्रार्कदर्शनम् ॥ कीराशनं चैव षष्ठी तथा च शुचि कर्म च ॥ तथा च नामकरणमन्नप्राशनमेव च ॥ कर्णवेधो मुनं च तथोपनयनं परम् ॥ पाठारम्नो विवाहश्च व्रतारोपोन्तकर्म च ॥ ६०१ मी षोडशसंस्कारा गृहिणां परिकीर्त्तिताः ॥ भाषार्थ : - गर्भाधान, पुंसवन २, जन्म ३, चंद्र. सूर्यदर्शन ४, क्षीराशन ५, षष्ठी ६, शुचिकर्म ७, ना मकरण, अन्नप्राशन ए, कर्णवेध १०, मुंडन ११, उपनयन १२, विद्यारंभ १३, विवाह १४, व्रतारोप १५, अंतकर्म ९६ येह सोलां संस्कार गृहस्थी को करने चहिये व्रतारोपसंस्कारको वर्जके, शेष १५ पंदरां संस्कार, साधु ने नही करणे. संस्कार कराने वाले गुरु विषे श्रर्हन्मंत्रोपनीतश्च ब्राह्मणः परमाईतः ॥ कुलको वाssसगुर्वाज्ञो गृहिसंस्कारमाचरेत् ॥ १॥ अर्थः- अर्हन्मंत्रोपनीत परमश्रावक, ब्राह्मण, श्रौ र प्राप्त करी है गुरुकी आज्ञा जिसने ऐसा क्षुल्लक ७६ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ जैनधर्मसिंधु. ( श्रावक विशेष ) जिसका स्वरूप आगे लिखेंगे. इन दोनों में से कोई एक गृहस्थोंको संस्कार करावे. प्रथम गर्भाधान संस्कारका विधि. जब गर्भधारण को पांच मास होवे, तब गर्जाधा नविधि, गृहस्थगुरु जैन ब्राह्मणों ने कराना. गर्जा धान १, पुंसवन २, जन्म ३, नाम ४ और अंत ए, इन पांच संस्कारों में यवश्य कर्मके वास्ते मास दि नादिकोंकी शुद्धि न देखनी । श्रवण, हस्त, पुनर्व सु, मूल, पुष्य, मृगशीर्ष, येह नक्षत्र और रवि, मंगल, बृहस्पति, येह वार पुंसवनादिकमोंमें कहे हैं । ईसवास्ते पांचमे मासमें शुभ तिथि, वार, नक्ष के दिनमें पतिको बलवान् चंद्रादि देखकर, देश विरतिगुरु जिसने स्नान करा है, चोटी बांधी है, उपवीत और उत्तरासंग धारण करा है, श्वेतवस्त्र पहिना है, पंचकक्षा धारण करा है, मस्तक में चंद नका तिलक करा है, सुवर्णमुद्रासहित दक्षिणकर सावित्रीक प्रकोष्ठबद्ध पंचपरमेष्ठि मंत्रोद्दिष्ट पांच ग्रंथियुक्त दर्जसहित कौसुंज सूत्रका कंकण है जिस के, तथा जिसने रात्रिमें ब्रह्मश्चर्य पाला है, जिसने उपवास, श्राचाम्ल, निर्विकृति, एकाशनादि प्रत्या ख्यान करा है, संप्राप्तकरी है याजन्मसें यतिगुरुकी श्राज्ञा जिसने ऐसे पूर्वोक्त विशेषणयुक्त, जैनब्राह्म Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. ६०३ ण, अथवा कुखक, गृहस्थोंके संस्कारकर्म करणेके योग्य होता है.॥ उक्तं च ॥ शांतो जितेंजियो मौनी दृढसम्यक्त्ववासनः॥ अर्हत्साधुकृतानुज्ञः कुप्रतिग्रहवर्जितः॥ नाषार्थः-शांत, जितेंजिय, मौनी, दृढसम्यक्त्ववा न्, अर्हन् और साधुकी आज्ञा करनेवाला, बुरा दान न लेवे, क्रोध मान माया लोनका जीपक, कु लीन, सर्व शास्त्रोंका जानकार, अविरोधी, दयावान्, राजा और रंकको समदृष्टिसें देखनेवाला, प्राणोंके नाश होते जी अपने आचारको न त्यागे सुंदर चेष्टावाला होवे, अंगहीन न होवे, सरल होवे, सदा सजुरुकी सेवा करने वाला होवे, विनीत, बुद्धि मान्, दांतिमान् , कृतज्ञ, दोप्रकारसे अव्यनावसे शु चिहोवे; गृहस्थोंके संस्कार करने में ऐसा गुरु चाहिये. सो पूर्वोक्त विशेषण विशिष्ट गुरु, गर्जाधान कर्ममें प्रथम गर्नवंतीके पतिकी घाझा लेवे । और सो गर्जवंतीका पति, नखसे लेके शिखा (चोटी) पर्यंत स्नान करके, शुचि वस्त्र पहिनके निज वर्षानुसार उपवीत उत्तरीय वस्त्र उत्तरासंग करके, प्रथम शा स्त्रोक्त बृहत्स्नात्रविधिसें अर्हत्प्रतिमाका स्नात्र करे. और तिस नात्रके पाणीको शुज जाजनमें स्थापन करे.। तिसपी शास्त्रोक्त विधिसे गंध, पुष्प, धूप, Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनधर्मसिंधुः दीप, नैवेद्य, गीत, वादित्रोंकरके जिनप्रतिमाकी पूजा करे. । पूजाके अंतमें गुरु, गर्जवंतीको, अविध वायोंके हाथोंकरी स्नात्रोदककरके सिंचनरूप अनि षेक करवावे. । पीने सर्व जलाशयोंके जलोंके जलों कों एकत्र मिलाके, सहस्रमूलचूर्ण तिसमें प्रदेप करके, तिस जलको शांतिदेवीके मंत्रकरके, अथवा शांतिदेवीके मंत्रगर्जित स्तोत्रकरके मंत्र.॥ शांतिदेवीमंत्रो यथा ॥ ॐ नमो निश्चितवचसे । नगवते । प्रजामहते। जयवते । यशखिने । यतिस्वामिने । सकलमहासंप त्तिसमन्विताय । त्रैलोक्यपूजिताय । सर्वासुरामरखा मिपूजिताय । अजिताय । जुवनजनपालनोद्यताय । सर्वरितौघनाशनकराय । सर्वाशिवप्रशमनाय । पु ष्टग्रहलूतपिशाचशाकिनीप्रमथनाय । यस्येतिनाममं त्रस्मरणतुष्टा । नगवती। तत्पदनक्ता। विजयादेवी ॐ ही नमस्ते । नगवति । विजये। जय । परे । परापरे । जये । अजिते । । अपराजिते । जया वहे । सर्वसंघस्य नजकल्याणमंगलप्रदे । साधू नां शिवतुष्टिपुष्ठिप्रदे । जय २ जव्यानां कृतसिके । सत्वानां नितिनिर्वाणजननि । अजयप्रदे। खस्तिप्रदे लक्तानां जंतूनां शुनप्रदानाय नित्योद्यते । सम्यग्दृष्टीनां धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदे । जिनशासनर तानां शांतिप्रणतानां जनानां श्रीसंपत्कीर्तियशोव Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. ६०५ हिनि । सलिलात् रद । अनिलात् रक्ष । वि षात् रद । विषधरेन्यो रद । इष्टग्रहेन्यो रद । राज नयेन्यो रद रोग नयेन्यो रदशरण जयेन्योरदश राक्षसेज्यो रद शरिपुगणेन्यो रद । मारिन्यो रद । चौरेन्यो रद । इतिज्यो रद । श्वापदेन्यो रद । शिवं कुरु । शांति कुरु । तुष्टिं कुरु ।। पुष्टिं कुरु । स्वस्तिं कुरु । जगवति । गुणवति । जनानां शिवशांतितुष्टिपुष्टि स्वस्तिं कुरु ।। ॐ नमो हुँ क्षः यः दाही फुट् श खाहा" ॥ इति ॥ शांतिदेवी स्तोत्र ॥ "उँ नमो जगवतेऽर्हते । शांतिखामिने । सकला तिशेषकमहासंपत्समन्विताय । त्रैलोक्यपूजिताय । नमः शांतिदेवाय । सर्वामरसमूहस्वामिसंपूजिताय । जुवनपालनो यताय । सर्वरितविनाशनाय । सर्वा शिवप्रशमनाय सर्वदुष्टाहजूत पिशाचमारिमाकिनी प्रमथनाय । नमो नगवति । विजये । अजिते । श्र पराजिने । जयंति । जयावहे । सर्वसंघस्य । जसक ल्याणमंगलप्रदे । साधूनां शिवशांतितुष्टिपुष्टिस्वस्ति दे। जव्यानां सिद्धिजिनिवृतिनिर्वाणजननि। सत्वा नां अजयप्रदान निरते । जक्तानां शुजावहे । सम्यग् दृष्टीनां धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानोद्यते । जिनशासन निरतानां श्रीसंपत्यशोवर्धिनि । रोगजलज्वलनविष Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ जैनधर्मसिंधु. विषधरपुष्टज्वरव्यंतरज्वरराक्षसरिपुमारि चौरेतिश्वा पदोपसर्गादिनयेच्यो रक्ष। शिवं कुरु । शांति कुरु शतुष्टिं कुरु ।। पुष्टिं कुरु । खस्तिं कुरु । न गवतिश्रीशांतितुष्टिपुष्टिस्वस्ति करु ।। ॐ नमो नमो कुंक्षः यः कः ही फट ५ स्वाहा”॥ इति ॥ इस स्तोत्र करके अथवा पूर्वोक्त मंत्र करके सहस्त्र मूल चूर्ण सर्व जलाशयोंके जलको सातवार मंत्रके, पुत्रवाली सधवा स्त्रीयोंके हाथेकरी मंगलगीतोंके गातेहए गर्नवंतीको स्नानकरावे, सुगंधका अनुलेपन करी सदश वस्त्र (विवाह समय पहिरनेका वस्त्र) प हिराके, संपत्तिअनुसार श्राजरण धारण करवाके, पतिके साथ वस्त्रांचलका ग्रंथिबंधन करके, पतिके वामेपासे शुन्न श्रासनके ऊपर स्वस्तिक मंगलकरके, गर्जवंतीको बिठलावे ग्रंथियोजनमंत्रो यथा ॥ ॐ अहँ । स्वस्ति संसारसंबंधबझ्योः पतिनार्ययोः॥ युवयोरवियोगोस्तु नववासांतमाशिषा ॥१॥ विवाहको वर्जके, सर्वत्र सीमंत्रकरके दंपतीका ( स्त्रीज का ) ग्रंथिबंधन करना.। तदपी गुरु, तिस गर्नवंतीके आगे शुन पट्टे ऊपर पद्मासन लगाके बैठके, मणिस्वर्णरूप्यताम्रपत्रके पात्रोंमें जिनस्नात्रके जलसंयुक्त तीर्थोदकको स्थापन करके, आर्यवेदमंत्र पढके, कुशाग्र बिंऽयोंकरके, गर्जवं तीको सींचन करे. Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६७ आर्यवेदमंत्रो यथा ॥ " अर्ह । जीवोसि । जीवतत्त्वमसि । प्राण्यसि । प्राणोसि । जन्मासि । जन्मवानसि । संसार्यसि । संसरन्नसि । कर्मवानसि । कर्मबद्धोसिानवज्रांतोसि। जव बिज्रमिषुरसि । पूर्णाङ्गोसि । पूर्णपिएकोसि । जा तोपाङ्गोसि । जायमानोपांङ्गोसि । स्थिरो जव नन्दि मान् लव । वृधिमान् नव । पुष्टिमान् नव । ध्यात जिनो नव । ध्यातसम्यक्त्वो नव । तत्कुर्या येन न पुनर्जन्मजरामरणसंकुलं संसारवासं गर्नवासं प्रा नोषि। अह , ॥" इस मंत्रकरके दक्षिणहाथमें धारण करे कुशाग्र तीर्थोदक बिज्योंकरके गर्जवंतीके शिर और शरीर ऊपर सातवार सींचन करे.। तदपीजे पंच परमेष्ठिमंत्र पठनपूर्वक दंपतीको आसनसें उगयकरके, जिनप्र तिमाके पास जाके शक्रस्तव पाठ करके जिनवं दन करवावे. । यथाशक्ति फलमुखा वस्त्र स्वर्णादि जिनप्रतिमाके आगे ढोबे. तदपी गर्नवंती वसंप त्तिके अनुसार वस्त्रागरण अव्य सुवर्णादिदान गुरुको देवे। तदपी गुरु, पतिसहित गर्जवंतीको आशीर्वाद देवे. यथा ॥ ज्ञानत्रयं गर्नगतोपि विंदन् संसारपारकनिबक चित्तः॥गर्नस्य पुष्टिं युवयोश्च तुष्टिं युगादिदेवः प्रक रोतुनित्यम् ॥१॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. सनसें उठायके ग्रंथिवियोजन करे. तदपीछे ग्रंथि वियोजनमंत्रो यथा ॥ ॐ श्रई । ग्रंथौ वियोज्यमानेऽस्मिन् स्नेहग्रंथिः स्थिरो स्तुवां ॥ शिथिलोस्तु जवग्रंथिः कर्मग्रंथिदृढी कृतः॥१॥ इस मंत्र करके ग्रंथि खोल के धर्मागारमें दंपती को लेजाके गुरु को वंदना करवावे, और साधुयोंको नि र्दोष जोजन वस्त्र पात्रादि दिलवावे. ॥ ६०० तदपीछे स्वकुलाचारयुक्तिकरके कुलदेवता, गृह देता, पुरदेवतादि पूजन जानना. ॥ जैन वेद मंत्रोत्पत्ति ॥ यहां जो कहा है कि, जैनवेदमंत्र सो कथन करते हैं. यथा श्रादिदेव (रुषजदेव ) का पुत्र, अवधिज्ञानवान्, यादिचक्री, जरत राजा, श्रीमदादि जिनरहस्योपदेशसें प्राप्त किया है सम्यक् श्रुतज्ञान जिसने सो जरत राजा - सांसारिक व्यवहारसंस्कार की स्थितिकेवास्ते, अनकी आज्ञा पाकरके, धारे हैं ज्ञानदर्शनचा रि त्ररत्नत्रय करणा करावणा अनुमतिसें त्रिगुणरूप तीन सूत्र - मुद्राकर के चिन्हितवक्षःस्थलवाले ब्राह्म पोंको (माहनोंको) पूज्यतरीके मानता हुआ, और तिसवसर में अपनी वैक्रियलब्धिसें चार मुखवा ला होके, चार वेदोंको उच्चारण करता जया तिन के नाम - संस्कारदर्शन १, संस्थापन परामर्शन २, त वावबोध ३, विद्याप्रबोध ४ । सर्व नयवस्तु कथन , Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ६०० करनेवाले इन चारों वेदोंको, माहनोंको पठ न कराता हुआ. । तदपीजे वह माहन, सात तीर्थं करोंके तीर्थतक अर्थात् चंद्रप्रजतीर्थंकरके तीर्थतक सम्यक्त्वधारी रहें, और आईतश्रावकोंको व्यवहार दिखाते रहें, तथा धर्मोपदेशादि करते रहें । तदपी जे नवमे तीर्थंकर श्रीसुविधिनाथपुष्पदंतके तीर्थके व्यवच्छेद हुए, तिस बीचमें तिन माहनोंने परिग्र हके लोजी होके, स्वच्छंदसें तिन शार्यवेदों कि ज गे कुबकसुनी सुनार बातों लेके नवीन श्रुतियां र ची, तिनमें हिंसक यज्ञादि और अनेक देवतायोंकी स्तुति (प्रार्थना) रची (क्रमसें झग, यजुः साम, अथ र्व,) नाम कल्पना करके, मिथ्यादृष्टिपणेको प्राप्तकरे तब व्यवहारपाठसे पराङ्मुख अर्थात् परमार्थरहि त मनःकल्पित हिंसक यज्ञप्रतिपादकशास्त्रोंसे परा ङ्मुख, ऐसे श्रीशीतलनाथा दिके साधुयोंने तिन हिं सक वेदोंको बोरके, जिनप्रणीत आगमकोही प्रमा णचूत माने । तिन ब्राह्मणोमेंसें जी, जिन माहनोंने (ब्राह्मणोंने ) सम्यक न त्यागन करा, अर्थात् जे माहन पुनः तीर्थंकरोके उपदेशसे सम्यक्त्व पाके दृढ रहे,तिनोके संप्रदायमें आजनी नरत प्रणीत वेदका लेश कातरव्यवहार गत सुनते हैं; सोही यहां कहते हैं. Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० जैनधर्मसिंधु. यत उक्तमागमे ॥सिरिजरइचक्कवही श्रारियवेयाण विस्सु कत्ता ॥ माहणपढणच मिणं कहियं सुहजाणववहारं ॥ १ ॥ जितिछे छिन्ने मित्ते माहणेहिं ते वविया ॥ संजया पूया अप्पाणं कारिया तेहिं ॥ २ ॥ व्याख्या;- श्रीजरतचक्रवर्त्ती यार्यवेदों का कर्त्ता प्र सिद्ध है. जरतने श्रर्यवेद किसवास्ते करे, माहनोंके पढने के वास्ते, शुज ध्यान केवास्ते, और जगत्व्यवहार केवांस्ते । जिन तीर्थंकर के तीर्थके व्यवच्छेद हुए वह आर्यवेद तिन माहनोंने मिथ्यामार्ग में स्थापन करे, और असंयतिहोके तिनोने अपनी पूजा जगत्में करवार इन वेदोंका विशेष निर्णय जैनतत्त्वादर्शग्रंथ से जानना ॥ इस गर्भाधानसंस्कारमें इतनी वस्तु चाहिये ॥ पंचामृत स्नात्र १, सर्वतीर्थोदक २, सहस्रमूलचूर्ण ३, दर्ज ४, कौसुंजसुत्र ५, द्रव्य ६, फल ७, नैवेद्य, सदशवस्त्र दो (चुनमी) ए, शुसन १०, शुनपट्ट ११, स्वर्ण ताम्रादिजाजन १२, वादित्र १३, पतिवाली स्त्रीयां १४ और गर्भवतीका पति १५, इति गर्भाधान संस्कार विधि. ॥ अथ पुंसवन संस्कार वर्णन || गर्भसें आठ मास व्यतीत हुए, सर्व दोहदों के Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिबेद. पूर्ण हुए, सांगोपांग गर्नके उत्पन्न हुए, तिसके श रीरमें पूर्णीजाव प्रमोदरूप स्तनोंमें दूधकी उत्पत्तिका सूचक, पुंसवन संस्कार करना । मूल, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, मृगशिर, श्रवण, येह नदात्र; और मंगल, गुरु आदित्य, येह वार, पुंसवन कर्ममें संमत है.। रिक्ता दग्धा, क्रूरा, तीन दिनको स्पर्शनेवाली, अवम् (टी तिथी) षष्ठी, अष्टमी, छादशी, अमावास्या, ये तिथि यां वर्जके; गंमांत और अशुन नक्षत्रवर्जित, पूर्वोक्त वारनक्षत्रसहित दिनमें पतिको चंद्रमाके बल हुए, पुंसवनका श्रारंज करे; सो ऐसें है। पूर्वोक्त वेष,और स्वरूपवाला गुरु पतिके समीप हुए, अथवा न हुए.ग ॥धान कर्मके अनंतर, जो वस्त्रवेष औरकेशवेष धा रण करे हैं, तिसही वस्त्रवेष और केशवेषवाली गर्नवं तीको, रात्रिके चौथे प्रहरमें तारेसहित आकाशहोवे तब मंगलगीतगानपूर्वक आचरणसहित अविधवा स्त्रीयोंकरके,अन्यंग उर्त्तन जलानिषेकोंकरके स्नान करावे. । तदपी प्रनात हुए नवीन वस्त्र गंधमा व्यनूषित गर्नवंतीको सादिणी करके, घरदेहरामें अर्हत्प्रतिमाको तिसका पति, वा तिसका देवर, वा, तिसके कुलका पुरुष, वा गुरु, श्राप पंचामृतकरके वृहत्नात्र विधिसे स्नान करावे. । तदपोडे सहस्रमू लीनात्र प्रतिमाको करे. । पीले तीर्थोदक स्नात्रकरे पीने सर्वस्नात्रोदकोंको सुवर्णरूप्यताम्रादि नाजनमें Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१५ जैनधर्मसिंधु. स्थापन करके, शुजासन ऊपर बैठी हुई सादीनू त करे हैं पतिदेवरादि कुलज जिसने, ऐसी गर्जवं तीको, दक्षिणहस्तमें कुशा धारण करके, कुशाग्रबिं ज्योंकरके स्नात्रोदकसे गर्नवंतीके शिरस्तनउदरको सिंचन करता हुआ, इस वेदमंत्रको पढे. ॥ ___“॥ अहँ । नमस्तीर्थकरनामकर्मप्रतिबंधसंप्रा ससुरासुरेंजपूजायाईते । आत्मन् त्वमात्मायुः कर्मबं धप्राप्यं मनुष्यजन्मगर्जावासमवाप्नोषि तन्नव जन्म जरामरणगर्नवासविछित्तये प्राप्ताहधर्मः अर्हन्नक्तः सम्यक्त्वनिश्चलः कुलजूषणः सुखेन तव जन्मास्तु । नवतु तव त्वन्मातापित्रोः कुलस्यान्युदयः। ततःशां तिः पुष्टिः तुष्टिफिई छिः कांतिः सनातनी अर्ह इस वेदमंत्रको श्राग्वार पढता हुथा, गर्जवंती को अनिषेचन करे. । तदपीले गर्नवंती श्रासनसें कठके सर्वजातिके श्राप ५ फल, स्वर्णरूप्यमयी मु जा श्राप, प्रणाम (नमस्कार) पूर्वक जिनप्रतिमाके आगे ढोवे. । तदपी गुरुके चरणोंको नमस्कार क रके, दो वस्त्र, सोनेरूपेकी आठ मुखा, और तंबो लसहित आठ सुपारी गुरुको देवे.। तदपीने धर्मा गार ( पोषधशाला) में जाकर साधुयोंको वंदना नमस्कार करे, और साधुयोंको यथाशक्तिसें शुद्ध अन्न वस्त्र पात्र देवे. । कुलवृद्धोंको नमस्कार करे. ॥ सदपीने स्वकुलाचारकरके कुलदेवताविपूजन जानन. Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठमपरिजेद. ६१३ पंचामृत १, स्नात्रवस्तु , स्त्रीके नवीन वस्त्र ३, नवीन वस्त्रयुगल , स्वर्णकी श्राप मुमा ५. रूपेकी श्राप मुना ६, सोनेकी , और रूपेकी ७ एवं षोमश (१६) मुजा और , फलकी जाति ; मूलसहित दर्जए, तांबूल १७, सुगंध पदार्थ ११, पुष्प १२, नैवेद्य १३, सधवा स्त्रीयां १४, गीत मंगल १५, इतनी वस्तु पुंसवनसंस्कारमें चाहिये.॥ इति द्वितीय पुंसवन संस्कार विधि अथ तृतीयं जन्मनामा संस्कार वर्णनं ॥ जन्मसमय हुए, ज्योतिषि सहितगुरु,सूतिकागृह के निकट गृहमें एकांतस्थानमें जहां रौला न सुना देवे, स्त्री, बाल, पशु, जहां न श्रावे, तहां घटियंत्र (घमी-कलाक ) सहित उपयोगसहित चित्तवाला होकर, परमेष्टिजापमें तत्पर हुआ थका रहे। यहां पहिला तिथि वार नक्षत्रादि देखना न चाहिये क्यों कि, यह जीव कर्म और कालके अधीन है. ॥ ___ बालकके जन्म हुए समीप रहा हुथा गुरु, ज्यो तिषिको जन्मदण जाननेके वास्ते आझाकरे.तिसने जी सम्यक् जन्मकाल, करगोचर करके धारण करना तदपीछे बालकके पिता, पितृव्य (चाचा-काका ) पितामहोनें, नाल विना द्यां गुरुका, और ज्योति षिका बहुत वस्त्र श्राजूषण वित्तादिसें पूजन करना. क्योंकि, नाल नेद्यांपीछे सूतक हो जाता है. । गुरु Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ जैनधर्मसिंधु -- बालके पिता, पितामह ( दादा ) या दिकको आशी र्वाद देवे. ॥ यथा ॥ 'ईं कुलं वो वर्द्धतां । संतु शतशः पुत्रप्रपौ त्राः । श्रोणमस्त्वायुर्द्धनं यशः च श्रईं ॐ ॥ इति वेदाशीः ॥ यो मेरुशृंगे त्रिदशाधिनाथैर्दैत्याधिनाथैस्सपरिव द्वैश्च ॥ कुंजामृतैः संस्नपितस्सदेव द्यो विदध्यात् कुलवर्द्धनंच ॥ १ ॥ ज्योतिषिकाशीर्वादो यथा शार्दूलविक्री मितवृत्तम् ॥ आदित्यो रजनीपतिः दितिसुतः सौम्यस्तथा वाकूप तिः शुक्रः सूर्यसतो विधुंतुद शिखिश्रेष्टा ग्रहाः पांतुवः ॥ अश्विन्यादिनमएफलं तदपरो मेषादिराशिक्रमः कल्याणं पृथुकस्य वृद्धिमधिकां संतानसप्यस्य च ॥ १ तदपीछे लग्न धारण करके, ज्योतिषिके खघर गये हुए, गुरु सूतिकर्मकेवास्ते कुलवृद्धा स्त्रीयोको, और दाईयोंको निर्देश करे । अन्य घरमें रहाही बालकको स्नान करानेवास्ते जलको मंत्रके देवे ॥ जला निमंत्रण मंत्रो यथा ॥ ॥ श्रई । नमोई सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॥ क्षीरोदनीरैः किल जन्मकाले, यैर्मेरुशृङ्गे स्रपितो जि नेन्द्रः ॥ स्नानोदकं तस्य जवत्विदं च, शिशोर्महामङ्गल पुण्य ॥ १ ॥ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिद. इस मंत्रकरके सात वार जलको मंत्र, तिस जल करके कुलवृझा स्त्रीयों बालकको स्नान करावे. । औ र अपनेश्कुलाचारके अनुसार नालछेद करे.तदपीछे गुरु स्वस्थानमें बैगही चंदन, रक्तचंदन, विश्वका ष्टादि दग्ध करके तिनकी नस्म श्वेतसर्षप और लव ण मिश्रित करके पोहलिका बांधे. रदानिमंत्रणमंत्रो यथा ॥ “ ही श्रीअंबे जगंदबे शुन्ने शुनकरे अमुं बा लं जूतेन्यो रद । ग्रहेन्यो रद । पिशाचेच्यो रद । वेतालेन्यो । शाकिनीन्यो रद । गगनदे वीन्यो रद । उष्टेन्यो रद । शत्रुन्यो रद । कार्मणेच्यो रद । दृष्टिदोषेच्यो रद । २ जयं कुरु विजयं कुरु । तुष्टिं कुरु । पुष्टिं कुरु । कुलवृतिं कुरु । श्री ही नगवति श्रीअंबिके नमः॥ इस मंत्रकरके सातवार मंत्रित रदापोलीको काले सूत्रसे बांधके, लोहेका टुकमा, वरुणमूलका टुकडा, रक्तचंदनका टुकमा और कौडी, श्नोसहित रदापोहलिको कुलवृक्षा स्त्रीयोंके पास बालकके हा थ ऊपर बंधावे.॥ सांवत्सर(पंचांग)घटीपात्र, चंदन, रक्तचंदन, समी पमें एकांत गृह,सरसव,लवण कौशेय कृष्णसूत्र,कौमी गीतमंगल, लोहा,रदा,वस्त्र,ददिणावास्ते धन, सूति का, कुलवृक्षा, सर्व जलाशयका जल, जन्मसंस्कारमें Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. इतनी वस्तु चाहिये. ॥ इतिजन्म सं० विधि; ॥ अ थ कदाचित् अश्लेषामें,ज्येष्टामें,मूलमें,गंमांतमें नामें बालकका जन्म होवे तो बालकको,बालकके मातापि ताको, बालकके कुलको, पुःख, दारिज, शोक, मर णादि कष्ट होवे,इसवास्ते बालकका पिता और कुल ज्येष्ट (कुलका बमा) शांतिकविधिमें कहे विधानके करेविना बालकका मुख न देखे. ॥ इति जन्मसंस्कार विधिः अथ चतुर्थ सूर्यचंप्रदर्शन संस्कार वर्णन तीसरे दिन गुरु समीपके घरमें अर्हत् पूजन पूर्वक जिनप्रतिमाके आगे स्वर्णताम्रमयी वा रक्त चंदनमयी सूर्यकी प्रतिमा स्थापन करे.तदपीने स्नान करके अलंकृत बालककी माताको जिसने दोनों हा थोंमें बालकको धारण किया है ऐसी माताको प्रत्यक्ष सूर्यके सन्मुख लेजाके, वेदमंत्रको उच्चारण करता हुआ, गुरु पुत्रको सूर्यका दर्शन करावे. ॥ सूर्यवेदमंत्रो यथा ॥ “॥ ॐ अहं । सूर्योऽसि । दिनकरोऽसि । सहस्र किरणोऽसि । विजावसुरसि । तमोपहोऽसि । प्रियंक रोऽसि । शिवंकरोऽसि । जगच्चतुरसि । सुरवेष्टितो ऽसि । विततविमानोऽसि । तेजोमयोऽसि । अरुणसा रथिरसि । मार्त्तमोऽसि । द्वादशात्माऽसि । वक्रबांध Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६१७ वोऽसि । नमस्ते जगवन् प्रसीदास्य कुलस्य तुष्टिं पुष्टिं प्रमोदं कुरु २ सन्निहितो नव श्रहं ॥” । ऐसे गुरुके पठन करे हुए, सूर्यको देखके, माता पुत्रसहित, गुरुको नमस्कार करे. गुरु पुत्रसहित मा ताको आशीर्वाद देवे। ___ यथा । श्रार्या ॥ सर्वसुरासुरवंद्यः कारयिता सर्वधर्मकार्याणाम् ॥ नूयात्रिजगच्चकुर्मंगलदस्ते सपुत्रायाः ॥१॥ सूतकमें दक्षिणा नही है.। तदपीछे गुरु स्वस्था नमें आयकर जिन प्रतिमाको और स्थापित सूर्यको विसर्जन करे. माता और पुत्रको सूतकके न यसें तहां जिनप्रतिमाके पास न लावे. तिस दिनमें ही संध्याकालमें गुरु जिनपूजापूर्वक जिनप्रतिमाके आगे स्फटिकरूप्यचंदनमयी चंडमाकी मूर्ति स्थापन करे, तिस चंडमाकी मूर्तिका शांतिकादिक प्रक्रमोक्त विधिकरके पूजन करे. तदपीछे तैसेंही सूर्यदर्शनरीतिसें चंडमाके उदय हुए प्रत्यक्ष चंद्रसन्मुख माता और पुत्रको ले जाके, वेदमंत्र उच्चार करता हुआ, मातापुत्र दोनोंको चंडका दर्शन करावे. ॥ चंजस्य वेदमंत्रो यथा ॥ “॥ ॐ अर्ह । चंसोऽसि । निशाकरोऽसि । सुधा करोऽसि । चंद्रमा असि । ग्रहपतिरसि । नक्षत्रपति रसि । कौमुदीपतिरसि । निशापतिरसि । मदनमि Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ जैनधर्मसिंधु. 1 1 त्रमसि । जगजीवनमसि । जैवातृकोऽसि । क्षीरसा गरोङ्गवोऽसि । श्वेतवाहनोऽसि । राजाऽसि । राजराजोऽसि । औषधी गर्भोऽसि । वंद्योऽसि । पूज्योऽसि । नमस्ते जगवन् अस्य कुलस्य रुद्धिं कुरु । वृद्धिं कुरु । तुष्टिं कुरु । पुष्टिं कुरु जयं विजयं कुरु । जीं कुरु । प्रमोदं कुरु । श्रीशशांकाय नमः । श्र ॥” ऐसें पढता हुआ, माता पुत्रको चंद्र दिखला के खमा रहे । माता पुत्र सहित गुरुको नमस्कार करे . । गुरु आशीर्वाद देवे. ॥ यथा । वृत्तम् ॥ सर्वोषधी मिश्रमरी चिजालः सर्वापदां संहरणप्रवीणः ॥ करोतु वृद्धिं सकलेपि वंशे युष्माकमिन्दुः सततं प्रसन्नः तदपीछे गुरु जिनप्रतिमा, और चंद्रप्रतिमा दोनोंको विसर्जन करे । इसमें इतना विशेष है । कदा चित् तिस रात्रिके विषे चतुर्दशी श्रमावास्या के वशसे वा वादलसहित श्राकाशके होनेसें चंद्रमा न दिखलाई देवे तो जी पूजन तो तिस रात्रिकी ही संध्या में करना; और दर्शन तो और रात्रिमें जी चंद्रमाके उदय हुए हो सक्ता है. ॥ सूर्य और चंद्र माकी मूर्ति, तिसकी पूजा की वस्तु, सूर्यचंद्रदर्श नसंस्कार में चाहिये. ॥ इति चंद्रसूर्य दर्शनसंस्कारविधिः ॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्ठमपरिवेद. ६५ ॥अथदीराशननामा पांचमा संस्कारं ॥ तिसही जन्मसें तीसरेदिन, चंडसूर्यके दर्शनके दिन मेंही, बालकको दीराशनसंस्कार करना । तद्यथा । पूर्वोक्त वेषधारी गुरु, अमृतमंत्रकरके एकसौ आठ वार मंत्रित तीर्थोदकसे बालकको, और बालककी माताके स्तनोंको अनिषेक करके, माताकी गोदी (अंक) में स्थित बालकको दूध पावे. पूर्णांगना शिकासंबंधि स्तन्य पहिला चुंघावे, स्तन्य (दूध) पीते हुए बालकको गुरु श्राशीर्वाद देवे ॥ यथा वेदमंत्र ॥ “॥ ॐ अई जीवोऽसि । आत्माऽसि । पुरुषोऽसि। शब्दशोऽसि । रूपज्ञोऽसि।रसझोऽसि । गंधज्ञोऽसि । स्पर्शज्ञोऽसि । सदाहारोऽसि।कृताहारोऽसि । अन्य स्ताहारोऽसि। कावलिकाहारोऽसि । लोमाहारोऽसि । औदारिकशरीरोऽसि । अनेनाहारेण तवांगं वर्कतां । बलं वळतां । तेजोवळतां । पाटवं वर्षतां । सौष्ठवं वर्कतां पूर्णायुर्जव । अहँ ॐ ॥” इस मंत्रकरके तीन वार आशीर्वाद देवे ॥ अमृतमंत्रो यथा ॥ "" ॥ अमृते अमृतोनवे अमृतवर्षिणि अमृतं . श्रावय २ स्वाहा ॥" इति दीराशनसंस्कार विधिः ॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० जैनधर्मसिंधु. अथ षष्टमं षष्ठीसंस्कारस्वरूपं ॥ के दिनमें संध्याके समयमें गुरु प्रसूतिघरमें श्राकरके षष्ठीपूजन विधिका श्रारंज करे, षष्ठीपूज नमें सूतक नही गिणना. यत उक्तम् ।। स्वकुले तीर्थमध्ये च तथावश्ये बलादपि ॥ षष्ठीपूजनकाले च गणयेन्नैव सूतकम् ॥ १॥ इसवचनसें ॥ सूतिकागृहकी जीत और नूमि दोनोंको सधवायोंके हाथसें गोबरसें खेपन करावे,। तदपीजे दृश्य शुक्रबृहस्पतिके वर्त्तनेवाली दिशाके नींतनागको खडी आदिसें धवल ( श्वेत) करावे, और नूमिजागको चौंकमंडित करावे. । तदपीने श्वेत नींतनागके ऊपर सधवाके हाथेकरी कुंकुम हिंगुलादिवोंसें आठमाताओंको उर्जी, (खमीयां) आठ बैठी, और आठ सुती, लिखवावे. कुलक्रमां तरमें गुरुकर्मातरमें षट् (६) षट् (६) लिखनीया.। तदपीछे सधवा स्त्रीयोंके गीतमंगल गाते हुए चौंकमें शुनासनके ऊपर बैग हुआ गुरु, अनंतरोक्त पूजा क्रम करके मातायोंको पूजे. यथा ॥ “॥ ही नमो जगवति । ब्रह्माणि । वीणापुस्त कपद्मादसूत्रकरे । हंसवाहने श्वेतवर्णे । इह षष्ठी - पूजने आग २ स्वाहा ॥" तीनवार पढके पुष्पकरके आह्वान करे।तदपीछे॥ “॥ ही नमो नगवति । ब्रह्माणि । वीणापुस्त Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. ६१ कपद्मादसूत्रकरे। हंसवाहने। श्वेततवर्णे। मम सन्नि. हिता लव २ स्वाहा ॥” तीनवार पढके सन्निहित करे ॥ पीछे ॥ “ ॥ ही नमो नगवति । ब्रह्माणि । वीणा पुस्तकपद्मादसूत्रकरे । हंसवाहने । श्वेतवर्णे । श्ह तिष्ठ स्वाहा ॥” इति । तीनवार पढके स्थापन करे ॥ पीने ॥ ___“॥ ॐ नमो जगवति । ब्रह्माणि । वीणा पुस्तकपद्माक्षसूत्रकरे । हंसवाहने । श्वेतवर्णे । गंधं गृह्ण २ वाहा ॥” चंदनादि गंध चढावे ॥ “ॐ ही नमो नगवति । ब्रह्माणि । वीणापुस्त कपद्मादसूत्रकरे । हंसवाहने । श्वेतवर्णे । पुष्पं गृह २ खादा ॥" इसीतरे मंत्रपूर्वक। "धूपं गृह्ण ।' दीपं गृह्ण ।' 'अदतान् गृह ।' 'नैवेद्यं गृह्ण २ वाहा ॥” ___ ऐसे एकएकवार मंत्रपाठपूर्वक इन पूर्वोक्त गंधा दिवस्तुयोंकरके नगवतीको पूजे. ॥ ऐसेंही अन्य सात मातायोंकी पूजा करणी। विशेष मंत्रोंमें है, सो लिखते हैं.॥ “ॐ ही नमो नगवति । माहेश्वरि । शूलपि नाककपालखट्वांगकरे। चंदाललाटे। गजचर्मावृते। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ जैनधर्मसिंधु. शेषाहिबळकांचीकलापे । त्रिनयने । वृषनवाहने । श्वेतवर्णे। इह षष्ठीपूजने आगच्छ ॥” शेषंपूर्ववत्र __“॥ ॐ ही नमो जगवति । कौमारि । षण्मु खि । शूलशक्तिधरे । वरदानयकरे । मयूरवाहने गौरवणे । इह षष्ठीपूजने आगच्छ ॥ शेषपूर्ववत् ३ ___" हीनमो नगवति।वैष्णवि । शंखचक्रगदा। सारंगखङ्गकरे । गरुमवाहने । कृष्णवर्णे । श्ह षष्ठी पूजने आगच्छ ॥” शेषं पूर्ववत् ॥४॥ “॥ ॐ ही नमो नगवति । वाराहि । वराह मुहि । चक्रखड्गहस्ते । शेषवाहने श्यामवर्णे । श्ह षष्ठीपूजने आगच्छ ॥” शेषं पूर्ववत् ॥५॥ ___॥ ॐ ही नमो जगवति । इंशाणि । सहस्र नयने । वजहस्ते । सर्वानरणनूषिते । गजवाहने । सुरांगनाकोटिवेष्टिते । कांचनवणे इह षष्टीपूजने आगच्छ २॥” शेषं पूर्वत् ॥६॥ ___॥ी नमो नगवति । चामुंडे । शिराजा लकरालशरीरे । प्रकटितदशने । ज्वालाकुंतले । रक्त त्रिनेत्रे । शूलकपालखगप्रेतकेशकरे । प्रेतवाहने । धूसरवणे । इह षष्टीपूजने आगच्छ २॥" शेषं पूर्ववतू ॥७॥ “॥ उँ ही नमो नगवति । त्रिपुरे । पद्मपुस्तक वरदाजयकरे । सिंहवाहने । श्वेतवर्णे । श्ह षष्ठी पूजने श्रागच्छ ॥" शेषं पूर्ववत् ॥ ७॥ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिद. ६३ एवं जैसें ऊर्ध्व (खमी) मातृका पूजन करे, तैसेंही बैठी और सुप्त मातृयांका नी पूर्वोक्त मंत्रों सेंही तीनवार पूजन करे;। कितनेक चामुंमा, त्रिपु रा, दोनोंको वर्जके षट्मातृकाही पूजन करते हैं.॥ मातृका पूजन करके ऐसें पढे. ॥ ब्राह्माद्यामातरोप्यष्टौ स्वस्त्रास्त्रबलवाहनाः ॥ षष्ठीसंपूजनात्पूर्वं कल्याणं ददता शिशोः ॥१॥ तदपीले मातस्थापनाकी अग्रनमिमें चंदनलेप स्थापना करके, अंबारूप षष्टीको स्थापन करे. । और तिस स्थापनाको दधि, चंदन, अदत, दूर्वा दिकरके पूजे.। तदपी गुरु हस्तमें पुष्प लेके ॥ ॥ भी षष्टि। आम्रवनासीने। कदंबवन विहारे। पुत्रघ्ययुते । नरवाहने । श्यामाङ्गि । इह श्राग २ स्वाहा ॥" __ मातृवत् इसकी जी पूजा करणी । तदपीने बाल कमातासहित अविधवा कुलवृक्षा स्त्रीयां मंगलगी. तगानमें तत्पर वाजंत्रोंके वाजते हुए षष्टीरात्रिको जागरणा करे । तदपीछे प्रातःकालमें ॥ "॥ ॐ नगवति माहेश्वरि पुनरागमनाय स्वाहा ॥" - ऐसे प्रत्येक नामपूर्वक गुरु, मातृको और षष्टीको विसर्जन करे । तदपीने गुरु, बालकको पंचपरमेष्टि Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ जैनधर्मसिंधु. मंत्रपवित्रित जलकरके अनिषेक करता हुथा, वेद मंत्रकरके आशीर्वाद देवे. ॥ यथा ॥ ___“॥ अहं जीवोऽसि । अनादिरसि । अनादि कर्मनागसि । यत्वया पूर्व प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशैरा श्रववृत्त्या कर्मबळं तबन्धोदयोदीरणासत्तानिः प्रति नुव।माशुजकर्मोदयफलजुक्तेरुळेकं दध्याः । नचा शुजकर्मफलजुक्त्या विषादमाचरेः । तवास्तु संवर वृत्त्या कर्मनिर्जरा अहं 3 ॥" सूतकमें दक्षिणा नही है. ॥ चंदन, दधि, दर्वा, अक्षत, कुंकुम, लेखिनी, हिंगुलादिवर्ण, पूजाके उप करण, नैवेद्य, सधवा स्त्रीयां, दर्न, नूमिलेपन, श्त नी वस्तु षष्टीजागरणसंस्कारमें चाहिये. ॥ इति षष्टी संस्कारविधिः समाप्तः॥ ॥ अथ शुचिकर्मसंस्कार ॥ यहां शुचिकर्म स्वस्ववर्णानुसार करके दिनोंके व्यतीत हुए करणा, तद्यथा ॥ शुष्येछिनो दशाहेन छादशाहेन बाहुजः ॥ वैश्यस्तु षोमशादेन शूलो मासेन शुद्ध्यति ॥१॥ कारूणां सूतकं नास्ति तेषां शुछिर्न चापिहि ॥ ततो गुरुकुलाचारस्तेषु प्रामाण्यमिछति ॥२॥ तिस कारणसें स्वस्ववर्णकुलानुसार करके दिनोंके व्यतीत हुए, गुरु सर्वही, सोला पुरुषयुगसें उरे, Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६२५ तिस कुंलवर्गकों बुलवावे. क्योंकि, सूतक सोलां पुरुयुगसें उरे ग्रहण करिये हैं. ॥ यक्तं ॥ नृषोडशकपर्यन्त गणयेत् सूतकं सुधीः ॥ विवाहं नानुजानीयामोत्रे लक्षनृणां युगे ॥ १ ॥ जावार्थ:- सोलां पुरुषपर्यंत (बुद्धीवंत ) पुरुष सूतक गिणे । परंतु एकगोत्र में लक्ष पुरुषयुग व्यतीत हुए जी, विवाह नही करे । तिसवास्ते अपने गोत्रजको बुलवायके तिन सर्वको सांगोपांग स्नान और वस्त्रदालन करनेको कहे. । स्नान करके शुचि वस्त्र पहनके गुरुको साक्षी करके, वे सर्व गोत्रज विविध प्रकारकी पूजासें जिन प्रतिमाका पूजन करे. । तदपीछे बालकके माता पिता पंचगव्य करके अंतस्नान करे । पुत्रसहित नखच्छेदनकरके गांव जोमी दंपती जिनप्रतिमाको नमस्कार करे, सधवा स्त्रीयांके मंगलगीत गाते वाजंत्रोंके वाजते हुए. । और सर्व चैत्योंमें पूजा नैवेद्य ढौकन करे. । साधु योंको यथाशक्ति चतुर्विध आहार वस्त्र पात्र देवे, । और संस्कार करनेवाले गुरुको वस्त्र तांबूल भूषण द्रव्यादिदान देवे. तथा । जन्म, चंद्रसूर्यदर्शन, कीरा शन, षष्ठी, इन संबंधिनी दक्षिणा तिस दिनमें संस्का गुरुकेतis देणी । और सर्व गोत्रज स्वजन मित्र aat यथाशक्ति जोजन तांबूल देनां । तथा गुरु तिस कुलके श्राचारानुसारकर के पंचगव्य, जिनस्ना ७९ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ जैनधर्मसिंधु. त्रोदक, सर्वोषधिजल और तीर्थजल, श्नोंकरके स्नान कराये हुए बालकको वस्त्राचरणादि पहिनावे. ॥ तथा स्त्रीयोंको सूतकदिनोंके पूर्ण हुएजी,आई नद त्रोंमें, और सिंह गजयोनि नदमोंमें सूतकस्नान नही करावणा. । श्रार्ड नक्षत्र दश है. । कृत्तिका १, नरणी २, मूल ३, बार्सा ४, पुष्य ५, पुनर्वसु ६, मघा ७, चित्रा ज, विशाखा ए, श्रवण १०, ये दश आर्य नक्षत्र हैं। इनमें स्त्रीको सूतकस्नान न करावे. यदि स्नान करे तो, फिर प्रसूति न होवे. ॥ धनिष्ठा १, पूर्वानाउपदा २, ये दो सिंहयोनि नक्षत्र जाणने; और जरणी १, रेवती २, ये दो नक्षत्र गजयोनि जाणने. ॥ कदाचित् सूतक पूर्ण हुए दिनमें इन पूर्वोक्त नक्षत्रोंमेंसे को नदत्र थावे, तब एक एक दिनके अंतरे शुचिकर्म करणा. ॥ पूजावस्तु, पंच गव्य, खगोत्रज जन, तीर्थोदक, शुचिकर्मसंस्का रमें चाहिये.॥ इति सप्तमशुचिकर्मसंस्कार विधि अथ नामकरणसंस्कार विधि ॥ मृड, ध्रुव, विप्र और चर, श्न नक्षत्रोंमें पुत्रका जातकर्म करना. अथवा गुरु वा शुक्र, चतुर्थ स्थित होवे, तब नाम करना, सजन पुरुषोंको सम्मत है.॥ शुचिकर्म दिनमें अथवा तिसके दूसरे वा तीसरे Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेदः शुज दिनमें बालकको चंडमाके बल हुए, ज्योतिषि कसहित गुरु तिसके घरमें शुजस्थानमें शुजासनके ऊपर बैग हुआ, पंचपरमेष्ठिमंत्रको स्मरण करता हुश्रा रहे । तिस अवसरमें बालकके पिता, पिता महादि, पुष्प फलकरके हाथ परिपूर्ण करके ज्योति षिकसहित गुरुको साष्टांग नमस्कार करके ऐसें कहे. हे जगवन् ! पुत्रका नामकरण करो. । तब गुरु तिन पिता, पितामहादिको, तिसके कुलके पुरुषोंको, और कुलवृद्धा स्त्रीयोंको, आगे बैगके, ज्योतिषिको जन्म लग्न कहनेकेवास्ते आदेश करे. । तब ज्योतिषिक शुजपट्टेऊपर खट्टिका (खमी) करके तिस बालक के जन्मलग्नको लिखे, स्थान २ में ग्रहोंको स्थापन करे. तब बालकके पिता पितामहादि जन्मलग्नकी पूजा करे. । तिसमें वर्णमुना १२, रूप्यमुना १२, ताम्रमुखा १५, क्रमुक (सुपारी) १२, अन्य फल जाति १२, नालिकेर १२, नागवहीदल (पान) १२. श्नोंकरके छादश लग्नका पूजन करे । इनही नव नव वस्तुयोंकरी नव ग्रहोंका पूजन करे, ऐसे लग्न के पूजे हुए, तिनोंके आगे ज्योतिषिक लग्न विचार कहे. वेनी उपयोगसहित सुणे. । तदपीने व्याव र्णनसहित लग्नको ज्योतिषिक कुंकुमारोंकरके पत्रे में लिखके, कुलज्येष्टको सौंप देवे. । बालकके पिता दिकोंने ज्योतिषिका अपनी संपदानुसार वस्त्र Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० जैनधर्मसिंधु. स्वर्णदान करके सन्मान करणा और ज्योतिषिक जी तिनोंके श्रागे जन्मनक्षत्रानुसारे, नामाक्षरको प्रकाश करके, खघरको जावे. तदपीछे गुरु, सर्व कुलपुरुषोंको और कुलवृद्धा स्त्रीयोंको आगे स्थापन करके ( बिठला ) तिनोंकी सम्मतिसें हाथमें दूर्वा लेके परमेष्टिमंत्रपठनपूर्वक ( कुलवृद्धाके) कानमें जातिगुणोचित नाम सुणावे. । तिसपीछे कुलवृद्धा नारीयां गुरुकेसाथ पुत्र गोदी में लीया तिसकी माता शिबिकादि नरवाहन में बैठी हुई, वा पादचारिणी विधवायोंके गीत गाते हुए, जिनमंदिरमें जावे. । तहां मातापुत्र दोनों जिनको नमस्कार करे, माता चौवीस २ सुवर्णमुद्रा, रूप्यमुद्रा, फलनालिकेरा दि करके जिनप्रतिमाके श्रागे ढौकनिका करे. । तदपीछे देवके आगे कुलवृद्धा स्त्रीयां बालकका नाम प्रकाश करें. चैत्य न होवे तो, घरदेरासर की प्रतिमाके श्रागे यह विधि करना. तदपीछे तिसही रीतिसें पौषध शाला में श्रावे, तहां प्रवेश करके जोजनमंडली स्थान में मंगलपट्ट स्थापन करके तिसकी पूजा करे. मंगली पूजाका विधि यह है. पुत्रकी माता “ श्रीगौ तमाय नमः " ऐसा उच्चार करती हुई, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य करके मंडली पट्टकी पूजा करे. मंगली पोपरि स्वर्णमुद्रा १०, रूप्यमुद्रा १०, क्रमुक १०८, नालिकेर १५, वस्त्रहस्त २ए, स्थापन ! Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद ६२ए करे । तदपीछे पुत्रसहित माता तीन प्रदक्षीणा करके यतिगुरुको नमस्कार करे. । नव सोनेरूपेकी मुजा करके गुरुके नवांगकी पूजा करे. । निलंबना और बारात्रिका (आरती) करके दमाश्रमणपूर्वक हाथ जोडके, “वासकेवंकरेह" ऐसा पुत्रकी माता कहे. तब यतिगुरु वासदेपको, उँ कार ही कार श्रीकार सन्निवेशकरके कामधेनुमुखाकरके, वर्षमा न विद्याकरके जपके, मातापुत्र दोनोंके शिरपर क्षेप करे. तहां जी तिनके शिरमें ही श्री अक्ष रोंका सन्निवेश करे. । तदपीछे बालककों श्रदतस हित चंदनकरके तिलक करके, कुलवृद्धाके अनुवाद करके, नाम स्थापन करे. । तदपी तिसही युक्ति करके सर्व अपने घरको श्रावे.। यतिगुरुयोंको शुद्ध श्राहार वस्त्र पात्रका दान देवे. । गृहस्थगुरुको वस्त्र अलंकार स्वर्णदान देवे. ॥ नांदी, मंगलगीत, ज्योतिषिकसहित गुरु, प्रचूत फल, और मुजा, विविधप्रकारके वस्त्र, वास, चंदन, दूर्वा, नासिकेर, धन, इतनी वस्तु नामसंस्कार कार्यमें चाहिये.॥ इति अष्टम नामकरणसंस्कार विधिः ॥अथ नवमं अन्नप्राशनविधि॥ रेवती, श्रवण, हस्त, मृगशीर्ष, पुनर्वसु, अनुराधा, अश्विनी, चित्रा, रोहिणी, उत्तरात्रय, धनिष्टा, पुष्य, श्न निर्दोष नक्षत्रोंमें और रवि, चंज, बुध, शुक्र, गुरु Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधुः वारों में पुरुषोंको नवीन अन्नप्राशन (खाना)श्रेष्ट हैं. और बालकोंको अन्नजोजनरिक्तादि कुतिथीयां और कुयोगोंको वर्जके श्रेष्ट है. । पुत्रको बठे मासमें, और कन्याको पांचमे मासमें अन्नप्राशन, सत्पुरुषों ने कहा है. । जे नदत्र कहे तिनमें और पूर्वोक्त वारमें सगृहोंके विद्यमान हुए श्रमावासी और रिक्ता, तिथीको वर्जके शुज तिथीमें करणा. क्यों कि, लग्नमें रवि होवे तो, कुष्टी होवे; मंगल होवे तो, पित्तरोगी होवे; शनि होवे तो, वातव्याधि होवे; क्षीणचंड होवे तो, जीख मांगनेमें रत होवे; बुध होवे तो, ज्ञानी होवे; शुक्र होवे तो, जोगी होवे; बृहस्पति होवे तो, चिरायु होवे; और पूर्ण चंजमा होवे तो, पूजा करनेवाला और दान देनेवा ला होवे. कंटक ४।७।१०। अंत्य १२ । निधन । त्रिकोण ५।ए। इन घरोंमें पूर्वोक्त ग्रह होवे तो, शरीरमें शुजफल देते हैं. । बठे और आग्मे घरमें चंजमा अशुज होता है, । केंज १।४।। १०। त्रिकोण ५। ए। इन घरोंमें सूर्य होवे तो, अन्ननाश होवे. ॥ तिसकास्ते बठे मासमें बालकको, और पांचमे मासमें कन्याको पूर्वोक्त तिथी वार नक्षत्र योगोंमें बालकको चंबलके हुए अन्नप्राश नका आरंज करे. । तद्यथा । पूर्वोक्त वेषधारी गुरु, तिसके घरमें जाके सर्वदेशोत्पन्न अन्नोंको एकत्र Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. करे; देशोत्पन्न और अन्य नगरोंमेंसें जे प्राप्त होवे, तिन सर्व फलोंको, और षट्विकृयोंको गृहण करे। तदपीने सर्व अन्नोंको, सर्व शाकोंको, सर्व विकृती योंको, घृत, तैल, कुरस, गोरस, जल, इत्यादिकों सें पकाये हुए बहुतप्रकारके पदार्थोको पृथक् न्यारे २ करे. । तदपी अर्हतप्रतिमाका बृहत्स्नात्र विधि सें (प्रतिष्टा विधिमे लिखेंगे) पंचामृतस्नात्र करके पृथक पात्रोंमें तिन अन्न शाक विकृति पाकादिकोंको जिनप्रतिमाके आगे अईत्कल्पोक्त विंशोपचारी नैवेद्यमंत्रकरके ढोवे. सर्वजातके फलजी ढोवे । तदपीजे बालकको अर्हत्स्नात्रोदक पिलावे. । फिर जिनप्रतिमाके नैवेद्यसें उझरित बची (हुश्) तिन सर्ववस्तुयोंको सूरिमंत्रके मध्यगत अमृता श्रवमंत्रकरके श्रीगौतमप्रतिमाके आगे ढोवे, । तिससे उझरित वस्तुयोंको कुलदेवताके मंत्रकरके गोत्रदेवीकी प्रतिमाके आगे चढावे, । तदपीने कुल देवीके नैवेद्यमेंसे योग्य आहार मंगलगीत गाते हुए माता पुत्रके मुकमें देवे. । और गुरु यह वेद मंत्र पढे. ॥ यथा ॥ . “॥ अहँ लगवानईन् त्रिलोकनाथस्त्रिलोक पूजितः सुधाधारधारितशरीरोपि कावलिकाहारमा हारितवान् । तपस्यन्नपि पारणा विधाविकुरसपरमान्न नोजनातू परमानंदादापकेवलं तद्देहिन्नौदारिकशरी Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. रमातस्त्वमप्याहारय आहारं तत्ते दीर्घमायुरारो ग्यमस्तु अह ॥” ___ यह मंत्र तीनवार पढे । तदपी साधुयोंको षट् विकृतियांकरके षट्रससंयुक्त आहार देवे, यति रुके मंगलीपट्टोपरि परमान्नपूरित सुवर्णपात्र चढावे, गृहस्थगुरुको जोण जोण प्रमाण सर्वजातका अन्न दान करे, । तुला २ प्रमाण सर्व घृत, तैल, गुड लवणादि दान करे, । सर्वजातके एक सौ आठ फल देवे, । तांबेकाचरु, कांसेका थाल, और वस्त्रयु गल देवे. । सर्वजातिके अन्न, सर्वजातिके फल, सर्व विकृतियां, वर्ण, रूप्य, ताम्र, काश्य, श्नोंके पात्र (नाजन) इतनी वस्तुयाँ इस संस्कारमें चाहिये.॥ इति नवमानप्राशनसंस्कार विधिः अथ दशमं कर्णवेधसंस्कारविधि ॥ उत्तरात्रय, हस्त, रोहिणी, रेवती, श्रवण, पुनर्वसू मृगशीर्ष, पुष्य, श्न नदात्रोंमें । रेवती श्रवण, हस्त, अश्विनी, चित्रा, पुष्य, धनिष्ठा, पुनर्वसू, अनुराधा, चंजसहित श्न नक्षत्रोंमें कर्णवेध करना, ।लान ११, तृतीय ३, घरमें शुन ग्रहोंकरके संयुक्त होवे, शुन राशि लग्नमें क्रूर ग्रहोंकरकेरहित बृहस्पतिके लग्ना धिप, वा लग्नमें हुए कर्णवेध करणा. जिसमें चंड नक्षत्र, पुष्य, चित्रा, श्रवण, रेवती, जानने.। मंग Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३३ अष्टमपरिद. शुक्र, सूर्य, बृहस्पति, इन वारमें शुल तिथीमें शुन योगमें कर्णवेध करणा. ॥श्न निर्दोष तिथि वार नक्षत्रमें बालकको चंबलके हुए कर्णवेध श्रारंज करे. । उक्तं च । “ग धान, पुंसवन, जन्म, सूर्यद र्शन, हीराशन, षष्ठी, शुचि, नामकरण, अन्नप्राशन, मृत्यु, इन संस्कारोंमें अवश्य कार्य होनेसे पंमित पुरुषोंने वर्षमासादिकी शुकि न देखणी.। कर्णवेधा दिक अन्य संस्कारों में विवाहकीतरें वर्ष मास दिन नदत्रादिकोंकी शुद्धि अवश्यमेव विलोकन करणी। यथा। तीसरे पांचमे सातमे निर्दोष वर्षमें बालकको और बालककी माताको अमृतामंत्र अनिमंत्रित जलकरके मंगलगानपूर्वक अविधवायोंके हांथेकरी स्नान करावे. । और तयां कुलाचारसंपदा अतिशय विशेषकरके तैल निषेकसहित तीन पांच सात नव ग्यारह दिनांतक स्नानका विधि जाणना, । तिसके घरमें पौष्टिकको करणा, षष्ठीको वर्जके मात्रष्टकपूजन पूर्ववत् करणा, । तदपीने व ५ कुलानुसार अन्य ग्राममें कुलदेवताके स्थानमें पर्वतउपर नदीतीरे वा घरमें कर्णवेधका आरंज करे. । तहां मोदक नैवेद्य करण गीतगान मंगलाचारादि ख कुलागत रीति करके करणा. तदपी बालकको पूर्वाभिमुख श्रास नऊपर बिठलाके तिसके कर्णवेध करे तहां गुरु यह वेदमंत्र पढे । यथा ॥ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ जैनधर्मसिंधु. __“॥ उ अहं श्रुतेनाङ्गोपाङ्गैः कालिकैरुत्कालिकैः पूर्वगतैश्चूलिकानिः परिकर्मनिः सूत्रैः पूर्वानुयोगैः बन्दोनिझक्षणैर्निरुक्तैर्धर्मशास्त्रैर्विद्धकर्णो यासह उ॥" शुभादिकोंको ॥ ॥ ॐ अहँ तव श्रुतिघ्यं हृदयं थम? विज़नस्तु ॥ ऐसें कहना.॥ तदपीजे बालकको यानमें बैठाके, वा नर नारी उत्संगमें लेके धर्मागारमें ले जावे; तहां पूर्वोक्त विधिसें मंडलीपूजा करके बालकको गुरुके चरणां आगे लोटावे. तब यतिगुरु विधिसें वासदेप करे । तदपीछे बालकको घरमें व्याके गृहस्थगुरु कर्णाचरण पहिनावे. । यतिगुरुयोंको शुरू चार प्रकारका श्रा हार वस्त्र पात्र देवे। गृहस्थगुरुको वस्त्र स्वर्णदान देवे। इति दशमंकर्णवेधसंस्कारवर्णनं अथ दौर करणसंस्कारविधि हस्त, चित्रा, खाति, मृगशीर्ष, ज्येष्टा, रेवती, पुनर्वसू, श्रवण, धनिष्टा, इन नदत्रोंमें ।।।३।५।। १३।११। इन तिथियों में । शुक्र, सोम, बुध, श्न वारोंमें चंज वा तारेके बल हुए, दौरकर्म करणा.। दौरनक्षत्रोमें स्वकुल विधिकरके चूमाकरण करना मुनी कहते हैं; परं गुरु, शुक्र और बुध यह तीन Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिद. ६३५ ग्रह केंप्रमें ॥ । १० होने चाहिये । यदि केंजमें सूर्य होवे तो ज्वर होवे. मंगल होवे तो शस्त्रसे नाश होवे । षष्टी (६), अष्टमी (), चतुर्थी (४), सिनीवाली (चतुर्दशीयुक्तश्रमावास्या) चतुर्दशी (१४), नवमी (ए), इन तिथीयोंमें और रवि, शनि, मंगल, इन वारोमें दौरकर्म न करा वणा.। धन २, व्यय १२, त्रिकोण ५। ए, श्न गृहोमें असगृह होवे तो, मृत्यु हुए नी दुरक्रिया सुंदर नही होवे; और इनही घरोमें गुन ग्रह होवे तो कुरक्रिया पुष्टिकी करणहार जाणनी. । तिसवा स्ते बालकको सूर्यबलयुक्त मासके हुए, चंडताराब लयुक्त दिनमें, पूर्वोक्त तिथिवार नदत्रमें कुलाचारा नुसार कुलदेवताकी प्रतिमाके पास अन्य ग्राममें, वनमें, पर्वतके ऊपर, वा घरमें शास्त्रोक्त रीतिसें प्रथम पौष्टिक करे. । तदपीने षष्टीपूजावर्जित मात्र ष्टपूजा पूर्ववत् । तदपीजे कुलाचारानुसार नैवेद्य देवपक्वान्नादि करणा. । तदपीठे सुनात गृहस्थगुरु बालकको श्रासनऊपर बैगके बृहत्स्नात्रविधिकृत जिननात्रोदकसे शांतिदेवीके मंत्रकरके सिंचन करे. तदपीने कुलक्रमागत नापित ( नाइ) के हाथसें मुंमन करावे. । तीन वर्णके शिरके मध्यनागमें शिखा स्थापन करे और शुषको सर्वमुंमनः। चूडा करण करते हुए यह वेदमंत्र पढे. ॥ यथा ॥ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ जैनधर्मसिंधु. _॥ ॐ अहँ ध्रुवमायु, ध्रुवमारोग्य, ध्रुवाः श्रीयो, ध्रुवं कुलं, ध्रवं यशो, ध्रुवं तेजो ध्रुवं कर्म, ध्रुवा च गुण संतति रस्तु. अहँ ॐ ॥ ___ यह सातवार पढता हुआ बालकको तीर्थोदकक रके सींचे.। गीत वाजंत्र सर्वत्र जाणनेतदपीजे पंच परमेष्टिपारपूर्वक बालकको आसनसे उगयकर स्ना न करावे. । चंदनादिकरके लेपन करे. । श्वेतवस्त्र पहिनावे. । नूषणोंकरके नूषित करे. । तदनंतर धर्मागारमें लेजावे. तदपीछे पूर्वरीतिसें मंडलीपूजा गुरुवंदना वासदेपादि.। तदपीछे साधुयोंको शुद्ध वस्त्र, अन्न, पात्र और षमरस विकृति दान देवे। गृहस्थगुरुको वस्त्र वर्ण दान देवे. । नापितको वस्त्र कंकण दान देवे. ॥ ॥ इति दशमंचूमाकरणसंस्कारवर्णनं ॥ अथ उपनयनसंस्कारविधि लिख्यते तिहां उपनयन नाम मनुष्योंको वर्णक्रममें प्रवेश करणेवास्ते संस्कारही वेषमुसाके उदहनसे ख २ गुरुयोंके उपदेशे धर्ममार्गमें प्रवेश करना. यमुक्तं । धम्मायारे चरिए वेसो सवच कारणं पढमं ॥ संजमलजाहेक साहाणं तहय साहूणं ॥१॥ अर्थः-धर्माचारके आचरण करते हुए वेष जो Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. ६३० है, सो सर्वत्र प्रथम कारण है. श्रावक तथा साधु योंको संजमलजाका हेतु है.॥ ___ तथा च श्रीधर्मदासगणिपादैरुपदेशमालायामप्यु क्तम् ॥ यथा धम्मं रकर वेसो संकश् वेसेण दिकिमि अहं - उम्मग्गेण पतं रकश राया जणवऊब ॥१॥ अर्थः-वेष धर्मकी रक्षा करता है. क्योंकि, वेष होनेसें कार्य करता हुश्रा मनमें शंका करता है कि, मैं दीक्षितवेषवाला हूं.मुझको देखके लोक निंदा करेगे, इसवास्ते उन्मार्गमें पमते हुएकी नी वेष रक्षा करता है, जैसे राजा देशकी रदा करता है.॥ तथा इक्ष्वाकुवंशी, नारदवंशी, वैश्य, प्राच्य, उदी च्य, श्न वंशोंके जैन ब्राह्मणको उपनयन और जि नोपवीत धारण करणा. । तथा क्षत्रीयवंशमें उत्पन्न हुए जिन, चक्रि, बलदेव, वासुदेवोंको, श्रेयांसकुमार दशार्णजादि राजायोंको, हरिवंश, इक्ष्वाकुवंश, विद्याधरवंश, इन वंशोंमें उत्पन्न हुएको नी, उपन यन जिनोपवीतधारण विधि है. । जिसवास्ते कहा है.। आगममें, "देवाणुप्पिया, न एवं नूअं, न एवं जवं, न एवं नविस्सं, जन्नं, अरहंता वा, बलदेवा वा, वासु देवा वा, अंतकुलेसु वा, तुबकुलेसु वा, दरिदकुलेसु वा, जिरकागकुलेसु वा, माहणकुलेसु वा, श्रायासु Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३७ जैनधर्मसिंधु. वाश्रआयाति वा, पायाश्स्संति वा, एवं खलु,अरहंता वा, चकबलवासुदेवा वा उग्रकुलेसु वा, जोगकुलेसु वा, रानकुलेसु वा, खत्तियकुलेसु वा, कागकुलेसु वा, हरिवंशकुलेसु वा, अन्नयरेसु वा, तहप्पगारेसु विसुङ जाश्कुलवंसेसु यासु वा, आयाति वा, आयाश्स्संति वा, अखि पुण एसेवि नावे, लोगळेय नूए, अणंताहिं उसप्पिणि ऊस प्पिणीहिं वश्कंताहिं समुपवर, नागगुत्तस्स, वा, कम्मस्स, अरकीणस्स, अवेश्यस्स, अणि विणस्स, उदएणं, जन्नं, अरहंता वा, चकबलवासुदेवा वा, अंतकुलेसु वा, पंतकिविण तुबदरिद निरकागमाहणकुलेसु वा, याइंसुं वा, आयाति वा, आयाश्स्संति वा, नो चेवणं, जोणी जम्मणनिकमिंसु वा, निकमंति वा, निकमिस्संति वा, तं जीअमेअं, तीअपच्चुप्पन्नमणागयाणं सकाणं, देविंदाणं, देवराईणं, अरहंते जगवते, तहप्पगारे हिंतो, अंतकुलेहितो, पंतकुलेहितो, तुबदरिद्द किविण निस्कागमाहणकुलहिंतो; तहप्पगारेसु उग्रजोगराय न्नखत्तियश्रकागहरिवंसकुलेसु वा, अन्नयरेसु वा, तह प्पगारेसु विसुङजाइकुलवंसेसु साहरा वित्तए.॥"* तिसवास्ते कार्तिकशेठ कामदेवादिवैश्योंको जी उप * इस पाठका नावार्थ यह है कि पुर्वोक्त अंतादिकुलमें श्ररिहंतादि नही उत्पन्न होते हैं, किंतु उग्रादि उपनयनादिसंयुक्त कुलमें उत्पन्न होते हैं, शुद्ध होनेसें. ॥ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ६३ए नयन जिनोपवीत धारण करणा. । श्रानंदादि शुनो को जी उत्तरीय धारण करणा.। शेष वणिगादिकों को उत्तरासंगकी अनुज्ञा है. जिनोपवीत जो है सो जगवान् जिनकी गृहस्थपणेकी मुला है.। सर्व बाह्य अत्यंतर कर्म विमुक्त निग्रंथ यतियोंको तो, नव ब्रह्मगुप्तिगुप्ताझानदर्शनचारित्ररत्नत्रयी, हृदयमेंही है क्योंकि, ॥ मुनिजन सर्वदा तनावनानावितही होते है. इसवास्ते नवब्रह्मगुप्तियुक्तरत्नत्रयी सूत्ररूप बाह्य मुखाको नही धारण करते है, तन्मय होनेसें. नही समुह, जलपात्रको हस्तमे करता है.। नही सूर्य दीपकको धारण करता है. यमुक्तं ॥ अग्नौ देवोस्ति विप्राणां हृदि देवोस्ति योगिनाम् ॥ प्रतिमास्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र विदितात्मनाम् ॥ १॥ अर्थः-अग्निहोत्रि ब्राह्मणोंका तो अग्निही देव है, अर्थात् अग्निविषेही देवबुकि है; और योगिज नोंके हृदयमेंही देव है; क्योंकि, योगान्यासी मुनि जन तो, अपने पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत, ध्यानके बलसें अपने हृदयमेंही देवका स्वरूप ध्याय सकते हैं; और जो अल्पबुधि अर्थात् गृहस्थधर्मी श्रावकादि हैं, तिनोंको जगवान्की प्रतिमाही देव है; और तिसकेहो पूजन, ध्यान, प्रनावना, उत्सव, रथयात्रा, करनेसे कल्याण है. और जिनोंने श्रात्म स्वरूप जाना है, ऐसे यति, कृषि, मुनियोंको तो Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० जैनधर्मसिंधु. सर्वजगें देव मालुम होता है, अर्थात् ध्याता, ध्येय, ध्यान, ज्ञाता, झेय, ज्ञान रूपकरके सर्व देवस्वरूपही है. ॥ सवास्ते शिखासूत्र विवर्जित ब्रह्मगुप्तिरत्नत्रय करण कारण अनुमतिमें सदैव श्रादरवाले यतिजन हैं.। और गृहस्थी, ब्रह्मगुतिरत्नत्रयलेशश्रवणस्मरण मात्रसें ब्रह्मगुप्तिरत्नत्रयकोसूत्रमुखाकरके हृदयमें धा रण करते है.। 'प्रतिम।स्वल्पबुद्धीनां इसवचनसें' ॥ ___ तदात्मकत्वके न हुए मुजाका धारण है. । जैसे बद्मस्थको बाह्य श्रन्यंतर तपःका करणा है.। तथा नवतंतुगर्जितसूत्रमय एक अग्र ऐसें तीन अग्र ब्रा ह्मणको, दो अग्र क्षत्रियको, एक अग्र वैश्यको, शूपको उत्तरीमक, और अपरको उत्तरासंगकी श्र नुझा है.। ऐसा विशेष क्यों है ? सोही कहते हैं. ब्राह्मणोंने नवब्रह्मगुप्तियुक्त ज्ञान दर्शनचारित्ररूप रत्नत्रय आप पालन करणे, अन्योंसे करावणे, अन्य करतांको अनुमति देणी. ॥ ब्रह्मगुप्तिगुप्ताइति । ब्राह्मण आप रत्नत्रयीको ध्ययन सम्यकदर्शन चारित्र क्रियायोकरके आचरते है, अन्योसें श्रध्यापन सम्यक्त्वोपदेश श्राचार प्ररूपणा करके रत्नत्रयीका आचरण करवाते हैं, और ज्ञानोपाशन सम्यगदर्शन धर्मोपाशनादिकों करकें श्रद्धा करने वाले ओर अनुज्ञा मांगनेवासे अन्योको अनुज्ञा देते हैं, इसवास्ते नवब्रह्मगुप्तिगर्नि रत्नत्रय करण कारण Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. ६४१ अनुमतिवाले ब्राह्मणोंको जिनोपवीतमें तीन अग्रः । और क्षत्रियोंको आप रत्नत्रयका आचरण करणा. और निजशक्तिसें न्याप्रवृत्तिकरके अन्योसें आच रण करावणा योग्य है. परंतु तिन दत्रियोंको अन्य जनोंको अनुज्ञा देनी योग्य नही है. क्योंकि. वे उकुराश्वाले प्रजुहोंनेसें अन्यों विषे नियमादिकी अनुझा नहीं देते हैं इसवास्ते क्षत्रियोंको जिनोपवी तमें दो अग्र. । वैश्योंने ज्ञाननक्तिकरके सम्यक्त्व धृतिकरके उपासकाचारशक्तिकरके स्वयमेव रत्नत्रय आचरणा । तिन वैश्योंको असामर्थ्य होनेसें अनु पदेशक होनेसे रत्नत्रयका करावणा और अनुमति का देणा योग्य नहीं है; इसवास्ते वैश्योंको जिनो पवीतमें एक अग्र. । श्रूजोंको तो ज्ञानदर्शनचारित्र रूप रत्नत्रयके करणेमें श्रापही अशक्त है तो करा वणा और अनुमतिका देणा तो दूरही रहा. तिनों को अधमजाति होनेसें, निःसत्व होनेसें, अज्ञान होनसे, तिनोंको जिनाज्ञानरूप उत्तरीयका धारण है । तिनसें अपर वणिगादिकोंको देवगुरुधर्मकी उपासनाके अवसरमें मात्र जिनाज्ञानरूप उत्तरासंग मुआहै. ॥ जिनोपवीतका खरूप यह है.॥ स्तनांतर मात्रको चौराशी गुणा करिये तब एकसूत्र होवे तिसको त्रिगुणा करणा, तिसको नी त्रिगुणा करके वर्तन करणां (वटना) ऐसें एक तंतु हुआ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जैनधर्मसिंधु. इसी रीतिसें दो तंतु और योजन करिये, तबतीनो तंतु मिलाके एक अग्र होवे है. । तहां ब्राह्मणको तीन अग्र, क्षत्रियोको दो और वैश्योंको एक.। परम तमें तो ऐसा कथन है ॥ ॥कृते स्वर्णमयं सूत्रं त्रेतायां रौप्यमेव च ॥ छापरे ताम्रसूत्रं च कलौ कर्पासमिष्यति ॥१॥ कृतयुगमें स्वर्णमयसूत्र, त्रेतायुगमें रूपेका, छाप रयुगमें तांबेका और कलियुगमें कर्पासका यज्ञोपवीत करना ॥” परंतु जिनमतमें तो, सर्वदा ब्राह्मणोंको सौवर्णसूत्र, और क्षत्रियवैश्योंको सर्वदा कार्पाससूत्र हीहै. ॥ इतिजिनोपवीतयुक्तिः ॥ अथ उपयनविधि कहते हैं:-उपनीयते वर्णक मारोहयुक्तिकरके प्राणीको पुष्टिको प्राप्त करिये; इत्युपनयनं. । श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, मृगशिर, अ श्विनी, रेवती, स्वाति, चित्रा, पुनर्वसू । तथा च । मृगशिर, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, स्वाति, चित्रा, पुष्य, अश्विनी, श्न नक्षत्रोंमें मेखलाबंध, और . मोद करणा, आचार्यवर्य कहते हैं. । गर्भाधानसें वा जन्मसे आग्मे वर्षमें ब्राह्मणोंको मौंजीबंध उप नयनका प्रारंज कथन करते हैं, दत्रियोंको ग्या रह (११) वर्षमें, और वैश्योंको बारमे वर्षमें । वर्णा धिपके बलवान हुए उपनीतिक्रिया हितकारिणी होती है, अथवा सर्व वौँको गुरु चंद्र सूर्य बल Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६४३ वान् हुए, हित है । बृहस्पतिवार दोवे, बृहस्पति बलमान् होवे, वा केंद्रगत होवे, तो, द्विजोंको उ पनयन श्रेष्ठ है. और बृहस्पति तथा शुक्र नीच घरमें होवे, शत्रुके घर में होवे, वा पराजित होवे तो श्रवणविधी में स्मृतिकर्म हीन होवे | लग्न में बृहस्पति होवे, त्रिकोणमें शुक्र होवे, और शुक्रांश में चंद्रमा होवे तो जैनवेदवित् होवे; शुक्रसहित सूर्य लग्नमें शनिके अंश में स्थित होवे, तदा सीख। दुइ विद्या मूल जावे ऐसा कृतन्न होंवे । केंद्र में बृहस्पति होवे तो, स्वानुष्ठानमें रक्त होवे, प्रवरमतियुत होवे. शुक्र होवे तो, विद्या सौख्य अर्थ युक्त होवे, बुध होवे तो, अध्यापक होवे, सूर्य होवे तो, राजाका सेवक होवे, मंगल होवे, तो, शूरवीर होवे. चंद्रमा होवे तो, व्यापारी होवे. शनि होवे तो, नीच जातीका सेवक होवे । शनिके अंशमें मूर्खता उदय हो, सूर्यके भाग में क्रूरपणा होवे, मंगलके अंश में पाप बुद्धिहोवे, चंद्रांश में तिजमपणा होवे, बुधांश मे प्रति पटुपणा होवे, गुरु शुक्र के जागमें सुज्ञपणा होवे, सुर्य सहित बृहस्पति होवे तो निर्गुण होवे, अर्थ हीन होवे, मंगल सहित सूर्य होवे, तो क्रूर होवे, बुध सहित होवे तो पटु होवे, शनि सहित होवे तो आलस और निर्गुण होवे, चंद्र सहित शुक्र होवे तो अर्थहीन जालना, पूर्वोक्त निर्दोष नक्षत्रो Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ जैनधर्मसिंधु. में मंगल विना अन्य वारोमे दिनशुध्धीमे, शुजग्नह युक्त लग्नमे, विवाह वत् त्याज नक्षत्रदिन मासा दिकको वर्जके, ग्रह निर्मुक्त पांचमें व्रत आचरे. प्रथम यथा संपत्ति करके उपनेय ( जिनोपवीत लेनेवाले) पुरुषकों सात, नव, पांच, वा तीन दिनतक सतैल निषेक स्नान (पीही मर्दन) करावे.तदपीले लग्नदिनमें गृहस्थ गुरु तिसके घरमें ब्राय मूहुर्तमें पौ ष्टिक करे. तदनंतर उपनेयके शिरपर शिखा वर्जके मुं मन करावे,पी वेदी स्थापन करे. तिसके मध्यमे चोकी (बाजोट) स्थापन करे, वेदी प्रतिष्टा विवाहा धिकारसें जाणनां. बाजोटके उपर समव सरणकी रीति मुज ब चोमुख (चारजिन बिंब) स्थापन करना, तिन की पूजा करके गृहस्थ गुरु, जिसने श्वेतवस्त्र पहि नाहे, वस्त्रका उत्तरासंग करा हे, अदत श्रीफल सुपारी हाथमे लिएहें, एसे उपनेयकों समवसरण को तीन प्रदक्षणा करावे, तदपीने गुरु उपनेयकों वामे पासे स्थापके पश्चिम दिशाके सन्मुख जिसका मुखहे तिस जिन बिंबके सन्मुख बेठके प्रथम रुष न देवके स्तोत्र सहित शक्रस्तव (नमुथ्थुणं ) पढे फेर तीन प्रदक्षिणा करके उत्तरानिमुख जिनबिंबके सन्मुख तेसेंहिं शक्रस्तव पढे. एसेंहि त्रिप्रदक्षिणां तरित पूर्वाभिमुख, दक्षिणा निमुख जिन बिंबोके आगेनी शकस्तव पढेः मंगल गीत वाजित्रादिकों Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टमपरिजेद. ६४५ का तिसवखत विस्तार रखणा. उन वखत आचार्य उपाध्याय साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप श्री सकल संघकों एकत्र करना । पीछे प्रदक्षिणा शक स्तव पाठके अनंतर गृहस्थ गुरु उपनयनके प्रारंज वास्ते जैन वेद मंत्रका उच्चार करे. उपनेय (जिनोप वीतलेनेवाला) अपने हाथमें उर्वा फलादीकसे पूर्ण हस्त अंजलिकरके खमाखमासुने. उपनयारंज जैनवेद मंत्रोयथा. __ अह अहज्योनमः, सिकेन्योनमः, श्राचार्ये ज्योनमः, उपाध्यायेन्योनमः, साधुन्योनमः, झाना यनमः, दर्शनायनमः, चारित्रायनमः, संयमायनमः, सत्यायनमः, शौचायनमः, ब्रह्मचर्यायनमः, श्राकिंच न्यायनमः, तपसेनमः, शमायनमः, मार्दवायनमः, आर्जवायनमः, मुक्तयेनमः, धर्मायनमः, संघायनमः, सैधांतिकेन्योनमः, धर्मोपदेशकेच्योनमः, वादिल ब्धियोनमः, षमांग निमित्तेच्योनमः, तपस्खीन्यो नमः, विद्याधरेन्योनमः, श्हलोकसिझेन्योनमः, कवि न्योनमः, ललियोनमः, ब्रह्मचारीन्योनमः, निष्प रिग्रहेन्यो नमः। दयाबुन्यो नमः, । सत्यवादिन्यो नमः । निःस्पृहेन्यो नमः । एतेन्यो । नमस्कृत्यायं प्राणी प्राप्तमनुष्यजन्माप्रविशति वर्णक्रमं अर्ह ॥, ऐसें वेदमंत्रका उच्चार करके फिर भी पूर्ववत् तीन तीन प्रदक्षिणा करके चारों दिशामें युगादिदेव THI निःस्पृहेन्यामाप्रविशति वजी पूर्ववत् Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ जैनधर्मसिंधु. स्तवसंयुक्त शक्रस्तव पाठ करे। तिस दिनमें, जल जवान्न नोजन करके आचाम्लका प्रत्याख्यान उपनेयको करावे । तदपी उपनेयको वामे पासे स्थापके सर्वतीर्थोदकोंकरके अमृताजलमंत्रकरके कुशागोंसे सिंचन करे.।। तदनंतर परमेष्ठिमंत्र पढके. " नमोऽर्हत्सिझाचार्योपाध्यायसर्वसाधुन्यः" ऐसा कहके, जिन प्रतिमाके आगे उपनेयको पूर्वाभिमुख बैगवे; तदपी गृहीगुरु, चंदनमंत्रकरके अनिमंत्रण करे. ॥ चंदनमंत्रो यथा ॥ __“॥ ॐ नमो जगवते. चंप्रनजिनेसाय, शशांक हारगोदीरधवलाय, अनंतगुणाय, निर्मलगुणाय, जव्यजनप्रबोधनाय, अष्टकर्ममूलप्रकृतिसंशोधनाय, केवलालोकावलोकितसकललोकाय, जन्मजरामरण विनाशनाय सुमंगलाय, कृतमंगलाय, प्रसीद जग वन् श्ह चंदनेनामृताश्रवणं कुरु २ स्वाहा ॥" इस मंत्रकरके चंदनको मंत्रके हृदयमें जिनो पवीतरूप, कटिमें मेंखलारूप और ललाटमें तिल करूप, रेखाकरे, तदपी उपनेय " नमोस्तु २ ऐसे कहता हुश्रा, गुरुके चरणोंमें पलके खमा होके हाथ जोडके ऐसें कहै.। “॥नगवन् वर्णरहितोऽस्मि । श्राचाररहितोऽस्मि । मंत्ररहितोऽस्मि । गुणरहितोऽस्मि । धर्मरहितोऽस्मि। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६४७ शौचरहितोऽस्मि । ब्रह्मरहितोऽस्मि । देवर्षिपितृति थिकर्मसु नियोजय मां ॥” ऐ से कहकर फिर “नमोस्तु ” ऐसें कहता हुश्रा, गुरुके चरणों में पमे; गुरु जी. इस मंत्रको पढके उपनेयको चोटीसें पकमके खमा करे । मंत्रो यथा ॥ _ “अहँ देहिन् निमग्नोऽसि नवार्णवे तत्कर्षति त्वांनगवतोऽर्हतः प्रवचनैकदेशरज्जुना गुरुस्तफुत्तिष्ट प्रवचनादानाय श्रद्दाधाहि अहँ उँ॥” । __ ऐसें पढके उपनेयको खडा करके अर्हत्प्रतिमाके आगे पूर्वाभिमुख खडा करे. तदपी गृहीगुरु, त्रितं तुवर्तित-तीन तंतुकी वुणी, एकाशीति (७१) हाथ प्रमाण, मुंजकी मेखलाको अपने दोनों हाथों में लेके, इस वेदमंत्रको पढे.. __“॥ ॐ अहँ आत्मन् देहिन् ज्ञानावरणेन बको ऽसि । दर्शनावरणेन बद्धोऽसि । वेदनीयेन बद्धोऽसि । मोहनीयेन बझोऽसि । आयुषा बकोऽसि । नाम्ना बकोऽसि । गोत्रेण बकोऽसि । अंतरायेण बझोऽसि कर्माष्टकेन प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशैश्च बकोऽसि । तन्मोचयति त्वां जगवतोर्हतः प्रवचनचेतना तद्ध ध्यख मामुहःमुच्यतां तव कर्मबंधनमनेन मेखलाब धेन अहँ ॐ ॥" ___ ऐसा पढके उपनेयकी कटिमें नवगुणी मेखला को बांधे । तदपी उपनेय 'नमोस्तु २' कहता Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४७ जैनधर्मसिंधु. ?श्रा, गृहीगुरुके पगोंमें पडे । मेखलाको एकाशी (१) हाथपणा विप्रको एकाशीतंतुगर्न जिनोपवी त सूचनकेवास्ते, क्षत्रियको चौपन (५४) हाथ तावत्प्रमाणतंतुगर्न जिनोपवीत सूचनकवास्ते, और वैश्यको सत्ताइस (२७) हाथ तर्जसूत्रसूचनके वास्ते है । ब्राह्मणको नवगुणी क्षत्रियको गुणी और वैश्यको त्रिगुणी, मेखला बांधनी। तथा मौंजी, कौपीन, जिनोपवीत, श्नोंका पूजन, गीतादिमंगल, निशाजागरण, तिसके पूर्व दिनकी रात्रिमें करणा। मेखलाबंधनके पीछे फेर गृहस्थगुरु, उपनेयके विलस्त (वेंत) प्रमाण पृथुल (चौमा) और तीन विलस्त प्रमाण दीर्घ (लंबा) कौपिन दोनों हाथों में लेके ॥ ___ “॥ अह आत्मन् देहिन् मतिज्ञानावरणेन श्रुतज्ञानावरणेन अवधिज्ञानावरणेन मनःपर्यायावर णेन केवलज्ञानावरणेन इंजियावरणेन चित्तावर णेन आवृतोऽसि तन्मुच्यतां तवावरणमनेनावरणेन अर्ह ॐ ॥” इस वेदमंत्रको पढता हुआ, उपनेयके अंतःक दकों कौपीन पहरावे । तदपीले उपनेय ‘नमोस्तु २' कहता हुआ, फिर जी गुरुके पगोंमें पडे । फिर तीन २ प्रदक्षिणा करके चारों दिशामें शक्रस्तव पाठ करे.॥ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ६४ए तदनंतर लग्नवेलाके हुए गुरु, पूर्वोक्त जिनोपवी तको अपने हाथमें लेवे पीछे उपनेय फेर खमा होकर हाथ जोमके ऐसें कहे ॥ — “॥ नगवन् वएणों धितोऽस्मि । ज्ञानोधितोस्मि । क्रियोसितो । तङिनोपवीतदानेन मां वर्णज्ञान क्रि यासु समारोपय ॥" ___ ऐसें कहके 'नमोस्तु २, कहता हुआ गुरुके पगों में पडे गुरु फिर पूर्वोक्त उबापनमंत्रकरके तिसको उगके खमा करे । तदपीडे गुरु दक्षिण हायमें जिनोपवीत रखके ॥ _ “॥ अह नवब्रह्मगुप्तीः स्वकरणकारणानुमती कारयेः तददायमस्तु ते व्रतं स्वपरतरणतारणसमर्थो जव अहँ ॐ ॥” इत्रियको ___"॥ करणकारणाच्यां धारयेः स्वस्य तरणसमर्थों नव ॥” वैश्यको ___“॥ करणेन धारयेः स्वस्य तरणसमर्थों जव ॥" शेषं पूर्ववत् ॥ इस वेदमंत्रकरके पंच परमेष्ठिमंत्र पढता हुआ उपनेयके कंवमें जिनोपवीत स्थापन करे । पीछे उपनेय तीन प्रदक्षिणा करके 'नमोस्तु २' कहता हुथा, गुरुको नमस्कार करे. गुरु जी “निस्तारगपा रगो नव” ऐसा आशीर्वाद कहे । तदपी गुरु पूर्वाभिमुख होके, जिनप्रतिमाके आगे शिष्यको Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० जैनधर्मसिंधु. वामेपासे बैगके, सर्व जगत्में सार, महा श्रागम रूप दीरोदधिका माखण, सर्ववांतिदायक, कड़प सुम कामधेनु चिंतामणिके तिरस्कारका हेतु, निमे षमात्र स्मरण करनेसें मोदका दाता, ऐसें पंचपरमे ष्ठिमंत्रको गंधपुष्पपूजित शिष्यके दक्षिणकानमें तीनवार सुणावे पीछे तीनवार तिसके मुखसे उच्चा रण करावे ॥ यथा ॥ "॥ नमो अरिहंताणं । नमो सिसाणं । नमो श्रायरियाणं । नमो जवसायाणं । नमो लोए सब साहूणं ॥” पीछे उपनेयको मंत्रका प्रत्नाव सुणावे.॥ तद्यथा ॥ सोलससु अकरेसु, इकिकं अस्करं जगुजोअं॥ नवसयसहस्स महणो, जम्मि हिउँ पंच नवकारो॥१॥ थंने जलं जलणं चिंतियमत्तो पंच नवकारो॥ अरिमारिचोरराउलघोरुवसग्गं पणासे॥२॥ __एकत्र पंचगुरुमंत्रपदादराणि । विश्वत्रयं पुनरनं तगुणं परत्र ॥ यो धारये किल तुलानुगतं ततोऽपि । वंदे महागुरुतरं परमेष्टिमंत्रम् ॥ ३॥ ये केचनापि सुखमाद्यरका अनंता । सत्सर्पिणीप्रनृतयः प्रययुर्वि वर्ताः ॥ तेष्वप्ययं परतरः प्रथितः पुराऽपि । लब्ध्व नमेव हि गताः शिवमत्र लोकाः ॥ ४॥ जग्मुर्जि नास्तदपवर्गपदं यदैव । विश्वं वराकमिदमत्र कथं विनास्मान् ॥ एतद्विलोक्य जुवनोकरणाय धीरैः। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ६५१ मंत्रात्मकं निजवपुर्निहितं तदाऽत्र ॥ ५॥छर्दिवा करतया रविरिंकुरूपः । पातालमंबरमिलासुरलोक एव ॥ किंजल्पितेन बहुना जुवनत्रयेऽपि तन्नास्ति यन्न विषमं च समं च तस्मात् ॥६॥ सिद्धांतोदधि निर्मथान्नवनीतमिवोझतम् ॥ परमेष्टिमहामंत्रं धार येत् हृदि सर्वदा ॥ ७॥ सर्वपातकहर्तारं सर्ववांलि . तदायकम् ॥ मोक्षारोहणसोपाने मंत्र प्राप्नोति पुण्य वान् ॥ ७ ॥धाोयं नवता यत्नात् न देयो यस्य कस्यचित् ॥ अज्ञानेषु श्रावितोयं शपत्येव न संशयः ॥ ए॥ न स्मर्त्तव्योऽपवित्रेण न जने नाऽन्यसं श्रये ॥ नाऽविनीतेन नो दीर्घशब्देनाऽपि कदाचन ॥ १० ॥ न बालानां नाऽशुचीनां नाऽधर्माणां नई शाम 8 नप्लुतानां न मुष्टानां पुर्जातीनां न कुत्र चित् ॥ ११॥ अनेन मंत्रराजेन नूयास्त्वं विश्वपू जितः ॥ प्राणांतेऽपि परित्यागमस्य कुर्यान्न कुत्रचित् ॥ १२ गुरुत्यागे नवेदःखं मंत्रत्यागे दरिता ॥ गुरु मंत्रपरित्यागे सिझोऽपि नरकं ब्रजेत् ॥ १३ ॥ इति * न स्मर्तव्योपचित्तेन न शनान्यसंश्रये इति पुस्तकांतरे ॥ तथा अन्येषु श्राद्धदिनकृतश्राविधिकौमुदीपंचाशकादिषु शास्त्रे ब्वेवमुक्तं यथा सा काप्यवस्था नास्ति यस्यां नमस्कारो न स्मर्त्तव्य इति ॥ * नाऽपूतानां न कुष्टानां जनानां न कुत्रचित् । इति पुस्तकांतरे ॥ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५५ जैनधर्मसिंधुः ज्ञात्वा सुगृहीतं कुर्या मंत्रममुं सदा ॥ सेत्स्यति सर्वकार्याणि तवास्मान्मंत्रतो ध्रुवम् ॥ १४ ॥ गुरुने ऐसे शिदा दिया हया उपनेय तीन प्रद क्षिणा करके " नमोस्तु ” ऐसें कहता हुआ, गुरुको नमस्कार करे. पी गुरुको वर्णका जिनोप वीत, सुवर्णमौजी, श्वेत वस्त्र रेशमी वसंपदानुसारें देवे. और सर्वसंघको नी तांबूल वस्त्रादि देवे. ॥ श्त्युप नयने व्रतबंधविधिः॥ श्रथ व्रतादेशविधि लिख्यते हैं. ॥ तिसही श्रव सरमें, तिसही संघके संगममें, तिसही गीतवाज त्रादि उत्सवमें, तिसही वेदचतुष्किकामें प्रतिमास्था पन संयोगमें, व्रतादेशका आरंन करे. तिसका यह क्रम है. । गृहस्थगुरु, उपनीत पुरुषके कार्पास रेशमी अंतरीय (उत्तरीय)वस्त्र दूर करके मौंजी, जिनोपवीत कौपीन, येह वस्तुयों तिसकी देहमें तैसेंही स्थापके, तिसके ऊपर कृष्णसारा जिन (कालामृगचर्म ) वा, वृदके वल्कलका वस्त्र पहिरावे. । हाथमें पलाशका दंमा देवे. और इस मंत्रको पढे. __“॥ अह ब्रह्मचार्यसि । ब्रह्मचारिवेषोऽसि अवधिब्रह्मचर्यो सि । धृतब्रह्मचर्योंसि । धृताजिनदं मोसि । बुझोऽसि । प्रबुद्धोऽसि । धृतसम्यक्त्वोऽसि दृढसम्यक्त्वोसि । पुमानसि । सर्वपूज्योऽसि । तद वधिब्रह्मव्रतं आगुरुनिदेशं धारयेः अहँ उँ ॥” Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६५३ ऐसें पढके व्याघ्रचर्ममय आसन के ऊपर, वा कति काष्टमय आसनके उपर उपनीतकों बिठलावे. तिसके दक्षिण हाथकी प्रदेशिनी अंगुली में दर्जसहित कांच नमय षोमश १६ मासे प्रमाण ( पांच गुंजाका एक मासा जाना ) पवित्रिका मुद्रा पहरावे । पवित्रि का परिधापनमंत्रो यथा ॥ 1 "" " पवित्रं दुर्व्वनं लोके सुरासुरनृवचनम् ॥ सुवर्णं हंति पापानि, मालिन्यं च न संशयः ॥ १ ॥ तदपीछे उपनीत, मुखसें पंचपरमेष्ठिमंत्र पढता हुआ, गंध पुष्प अक्षत धूप दीप नैवेद्यकरके चारों दिशामें जिनप्रतिमाको पूजे । तदपीछे जिनप्रति माको प्रदक्षिणा करके और गुरुको प्रदक्षणा करके 'नमोस्तु २' कहता हुआ, हाथ जोंके ऐसें कहे ॥ "जगवन् उपनीतोहूं” गुरु कहे " सुष्नूपनीतो जव । ' फेर उपनीत 'नमोस्तु कहता हुआ नमस्कार करके कहे । " कृतो मे व्रतबंधः । " गुरु कहे । सुकृतोऽस्तु ।” फेर ' नमोस्तु' कहके नमस्कार करके शिष्य कहे । " जगवन् जातो मे व्रतबंधः । " गुरु कहे । " सुजातोऽस्तु ।” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । " जातोऽहं ब्राह्मणः । दत्रियो वा । वैश्यो वा । " गुरु कहे । " दृढव्रतो जव । दृढसम्य aat aa ।” फेर शिष्य नमस्कार करके कहे । 'जगवन् यदि त्वया कृतो ब्राह्मणोऽहं तदादिश " ८८ · " Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ जैनधर्मसिंधु कृत्यं ।” गुरु कहे अहंजिरा दिशामि । ” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । “जगवन् नवब्रह्मगु प्तिगर्न रत्नत्रयममादिष्टं ।” गुरु कहे। “श्रादिष्टं । फेर नमस्कार करके शिष्य । “जगवन् नवब्रह्मगुप्ति गर्न रत्नत्रयं मम समादिश ।” गुरु कहे। “समा दिशामि ।” फेर नमस्कार करके शिष्य जगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्न रत्नत्रयं मम समादिष्टं ।” गुरु कहे। “समादिष्टं ।” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे। " जगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्न रत्नत्रयं ममानुजानीहि”। गुरु कहे । “अनुजानामि ” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे। “नगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्न रत्नत्रयं ममानुज्ञातं ।” गुरु कहे । “अनुज्ञातं " । फेर नम स्कार करके शिष्य कहे । “नगवन् नवब्रह्मगुप्ति गर्न रत्नत्रयं मया स्वयं करणीयं ।” गुरु कहे। " कर पीयं ।” फेर नामस्कार करके शिष्य कहे । “नगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्न रत्नत्रयं मया अन्यैः कार यितव्यं ।" गुरुकहे “कार यितव्यं” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे। "जगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्ज रत्नत्रयं कुर्वतोऽन्ये मया अनु ज्ञातव्याः ” गुरु कहे । “अनुज्ञातव्याः” दत्रि यकों यह विशेष है 'जगवन् अहं क्षत्रियो जातः' आदेश समादेश दोनों कहने, अनुज्ञा न कहनी. करणकारणमें ‘कर्त्तव्यं' 'कारयितव्यं ' ऐसे कहना, 'अनुज्ञातव्यं' ऐसे न कहना. । और वैश्यको Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ६५५ आदेश ही कहना, समादेश अनुज्ञा यह दोनों न कहने । 'कर्त्तव्यं' कहना, 'कारायितव्यं' अनुहा तव्यं 'यह न कहने । तदपी उपनीत हाथ जोम के कहे. । 'हे जगवन् ! आदिश्यतां व्रतादेशः।' तब गुरु आदेश करे अर्थात् व्रतादेश कथन करे । तहां प्रथम ब्राह्मणप्रति व्रतादेश कहते हैं. यथा ॥ ॥मूलम् ॥ परमेष्ठिमहामंत्रो विधेयो हदये सदा ॥ निग्रंथानां मुनीडाणां कार्य नित्यमुपासनम् ॥१॥ त्रिकालमहत्पूजा च सामायिकमपि त्रिधा ॥ शक्रस्तवैस्सप्तवेलं वंदनीया जिनोत्तमाः ॥३॥.. त्रिकालमेककालं वा स्नानं पूतजलैरपि ॥ मद्यं मांसं तथा दौडं तथोउंबरपंचकम् ॥३॥ श्रामगोरससंपृक्तं छिदलं पुष्पितौदनम् ॥ संधानमपि संसक्तं तथा वै निशि नोजनम् ॥४॥ शूछान्नं चैव नैवेद्यं नाश्रीयान्मरणेऽपि हि ॥ प्रजार्थे गृहवासेऽपि संलोगो न तु कामतः ॥ ५॥ आर्यवेदचतुष्कं च पठनीयं यथाविधि ॥ कर्षणं पाशुपाट्यं च सेवावृत्तिं विवर्जयेः॥६॥ सत्यं वचः प्राणिरदामन्यस्त्रीधनवर्जनम् ॥ कषायविषयत्यागं विदध्याः शौचनागपि ॥७॥ प्रायः दत्रियवैश्यानां न जोक्तव्यं गृहे त्वया ॥ ब्राह्मणानामाईतानां जोजनं युज्यते गृहे ॥ ७ ॥ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ जैनधर्मसिंधु. खज्ञातेरपि मिथ्यात्ववासितस्य पलाशिनः ॥ न जोक्तव्यं गृहे प्रायः स्वयंपाकेन जोजनम् ॥ ए॥ आमान्नमपि नीचानां न ग्राह्यं दानमंजसा ॥ चमता नगरे प्रायः कार्यः स्पर्शो न केनचित् ॥१॥ उपवीतं स्वर्णमुखां नांतरीयमपि त्यजेः॥ कारणांतरमुत्सृज्य नोष्णीषं शिरसि व्यधाः ॥११॥ धर्मोपदेशः प्रायेण दातव्यः सर्वदेहिनाम् ॥ व्रतारोपं पंरित्यज्य संस्कारान् गृहमेधिनाम् ॥ १२ ॥ निग्रंथगुर्वनुज्ञातः कुर्याः पंचदशापि हि ॥ शांतिकं पौष्टिकं चैव प्रतिष्टामईदादिषु ॥ १३ ॥ निग्रंथानुझ्या कुर्याः प्रत्याख्यानं च कारयेः॥ धार्य च दृढसम्यक्त्वं मिथ्याशास्त्रं विवर्जयेः॥१४॥ नानार्यदेशे गंतव्यं त्रिशुद्ध्याशौचमाचरेः॥ पालनीयस्त्वया वत्स व्रतादेशो नवावधिः ॥ १५ ॥ ॥ इतिब्राह्मणव्रतादेशः ॥ (जापार्थः ) परमेष्टिमहामंत्र सदा हृदयमें धारण करना, निग्रंथ मुनींजोंकी नित्य उपासना करनी। तीन कालमें अरिहंतकी पूजा करनी, तीनवार सामायिक करनी, शक्रस्तव में सातवार चैत्यवंदना करनी. बने हुए शुद्ध जलसें त्रिकालमें वा, एकका लमें स्नान करना, मदिरा, मांस, मधु, माखण पांच जातिके उंबरफल, आमगोरससंयुक्त अर्थात् Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टमपरिच्छेद. ६५७ कच्चे विना गरम करे गोरस दूध दही बाबके साथ द्विदल अन्न, जिसपर नीली फूली खाजावे सो अन्न, जीवोत्पत्तिसंयुक्त संधान अर्थात् तीन दिन उपरां तका आचार, रात्रिजोजन, शूद्रका अन्न, देवके आगे चढा नैवेद्य इन पूर्वोक्त वस्तुयोंको मरणांतमें जी न खाना । संतानोत्पत्तिकेवास्ते गृहवासमें स्त्रीसें संजोग करना न तु कामासक्त होके । चारों श्रार्य जैन वेद विधिसें पढने खेती, पशुपालपणा और सेवा वृत्ति (नौकरी) येह नही करने । शुचिमान् होके सत्य वचन बोलना, प्राणिकी रक्षा करनी, अन्य स्त्री और अन्य धन येह वर्जने, कषाय विषयको त्यागने, प्रायः क्षत्रिय और वैश्योंके घरमें तेरे जो जन न करना, श्रईत् ब्राह्मणों के घरमें जोजन कर ना तुमको योग्य है । अपनी ज्ञातिका जो मिथ्या त्ववासित होवे, और मांसाहारी होवे तिसके घर में जी जोजन नही करणा । प्रायः यापही पकाके जोजन करना । कच्चे अन्नका जी दान नीचोंके हाथ का न ग्रहण करणा, नगर में भ्रमण करतां किसीका जीप्रायः स्पर्श न करना । उपवीत, स्वर्णमुद्रा और अंतरीय, इनको त्याग न करने. कारणांतरको वर्जके शिरके ऊपर उष्णीष (पगमी ) धारण न करना । प्रायः सर्व मनुष्योंको धर्मोपदेश देना, व्रतारोपको वर्जके निर्बंथ गुरुकी आज्ञासें पंचदश १५ संस्कार ८३ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ जैनधर्मसिंधु. गृहस्थांको करने तथा शांतिक, पौष्टिक, जिनप्रति माकी प्रतिष्टादि करावने । निग्रंथकी श्राझासें प्रत्या ख्यान करना, और अन्यको करावना; सम्यक्त्वको दृढ धारण करना, मिथ्याशास्त्रकी श्रझा वर्जनी । अनार्य देशमें जाना नही, तीनों शुद्धियां गरके शौच श्राचरण करना; हे वत्स ! तैनें पूर्वोक्त व्रता देश जबतग संसारमें रहे तबतक पालना ॥ १५ ॥ इतिब्राह्मणव्रतादेशः ॥ अथदत्रियव्रतादेशः॥ ॥ मूलम् ॥ परमेष्टिमहामंत्रः स्मरणीयो निरंतरम् ॥ शक्रस्तवैस्त्रिकालं च वंदनीया जिनेश्वराः ॥१॥ मयं मांसं मधु तथा संधानोंउंबरादि च ॥ निशि नोजनमेतानि वर्जयेदतियत्नतः ॥२॥ पुष्टनिग्रहयुकादिवर्जयित्वा वधोंगिनाम् ॥ न विधेयः स्थूलमृषावादस्त्यक्तव्य एव च ॥३॥ परनारी परधनं त्यजेदन्यविकत्थनम् ॥ युक्त्यासाधूपासनं च छादशव्रतपालनम् ॥४॥ विक्रमस्या विरोधेन विधेयं जिनपूजनम् ॥ धारणं चित्तयत्नेन खोपवीतांतरीययोः॥५॥ लिंगिनामन्य विप्राणामन्यदेवालयेष्वपि ॥ प्रणामदानपूजादि विधेयं व्यवहारतः ॥६॥ सांसारिकं सर्वकर्म धर्मकर्मापि कारयेत् ॥ जैनविप्रैश्च निर्ग्रथैदृढसम्यक्त्ववासितः ॥७॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. रणे शत्रुसमाकीर्णे धार्यो वीररसो हृदि ॥ युद्धे मृत्युजयं नैव विधेयं सर्वथापि हि ॥ ८ ॥ गोब्राह्मणार्थे देवार्थे गुरुमित्रार्थ एव च ॥ स्वदेशमंगे युद्धेत्र सोढव्यो मृत्युरप्यलम् ॥ ए॥ ब्राह्मणक्षत्रियोर्नैव क्रियात्नेदोस्ति कश्चन ॥ विहायान्यत्रतानुज्ञा विद्यावृत्तिप्रतिग्रहान् ॥ १० ॥ दुष्ट निग्रहणं युक्तं लोनं भूमिप्रतापयोः ॥ ब्राह्मणव्यतिरिक्तं च क्षत्रियोदानमाचरेत् ॥ ११ ॥ ॥ इतिक्षत्रियत्रतादेशः ॥ अथ त्रियव्रतादेश कहते हैं. ॥ परमेष्ठिमहा मंत्र निरंतर स्मरण करना. शक्रस्तवोंकरके त्रिकाल जिनेश्वरको वंदन करना । मद्य, मांस, मधु, संधा न, पांच उडुंबरादि, ( श्रादिशब्द श्रमगोरससंयु त द्विदल, पुष्पितौदन, ) और रात्रिभोजन, इनको यत्तसें वर्जे । दुष्टका निग्रह करना, और युद्धादि वर्जके प्राणियोका बध न करना, स्थूलमृषावाद न बोलना, परस्त्रीका और परधनका त्याग करना; पर की निंदाका त्याग करे, युक्तिसें साधुयोंकी उपास ना करे, और बारां व्रत पालन करे । अपनी शक्ति अनुसार जिनपूजन करना. चित्तयत्नसें अर्थात् उप योगसें खपवीत, और अंतरीयको धारण करना । ! लिंगियोंको, अन्य ब्राह्मणोंको, और अन्यदेवालयों में जी, प्रणाम दान पूजादि काम पडे तो, लोक ६५ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जैनधर्मसिंधुः व्यवहारसें करने । संसारिक सर्व कर्म जैनब्राह्मणों और धर्म कर्म निग्रंथों करके करावे. दृढसम्य क्त्वकी वासनावाला होवे । शत्रुयोंकरके समाकीर्ण रणमें हृदयके विषे वीररस धारण करना, युझमें मृत्युका नय सर्वथा नही करना । गौ ब्राह्मणके अर्थे, देवके अर्थे, गुरु और मित्रके अर्थे, स्वदेशके जंग होते, और युद्धमें, मृत्यु जी सहन करना योग्य है। ब्राह्मण और क्षत्रियकी क्रियामें कुबनी नेद नहीं है, परं अन्यको बतअनुज्ञा देनी विद्यावृत्ति, दान लेनेमे नेद हे. पुष्टोंका निग्रह करना योग्य है, लूमि. और प्रतापका लोन करना, ब्राह्मणसे व्यतिरिक्त क्षत्रिय दान आचरण (गृहण) करे ॥१९॥ इति क्षत्रियव्रतादेशः॥ अथ वैश्यव्रतादेशः॥ ॥ मूलम् ॥ त्रिकालमहत्पूजा च सप्तवेलं जिनस्तवः ॥ परमेष्टिस्मृतिश्चैव निग्रंथगुरुसेवनम् ॥१॥ आवश्यकं छिकालं च द्वादशव्रतपालनम् ॥ तपोविधिहस्था) धर्मश्रवणमुत्तमम् ॥२॥ परनिंदावर्जनं च सर्वत्राप्युचितक्रमः ॥ वाणिज्यपाशुपाल्याच्यां कर्षणेनोपजीवनम् ॥३॥ सम्यक्त्वस्यापरित्यागः प्राणनाशेपि सर्वथा ॥ दानं मुनिन्य आहारपात्राबादनसद्मनाम् ॥४॥ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. कम्मा॑दान विनिर्मुक्तं वाणिज्यं सर्वमुत्तमम् ॥ उपनीतेन वैश्येन कर्त्तव्यमिति यत्नतः ॥ ५ ॥ ॥ इतिवैश्यत्रतादेशः ॥ अथ वैश्यव्रतादेश कहते हैं | त्रिकाल अर्हत् पूजा करनी, सातवार जिनस्तव चैत्यवंदन करना, पंचपरमेष्टिमंत्र का स्मरण करना, निर्बंथ गुरुकी सेवा करनी । दो कालमें ( प्रातः काल में और सायं का लमें) यावश्यक ( प्रतिक्रमणादि) करना. बारां व्रत पालने, गृहस्थोचित तपोविधि करना, उत्तम धर्म श्रवण करना, परकी निंदा वर्जनी, सर्वत्र उचित काम करना, वाणिज्य, पशुपालन और खेती करके आजीविका करनी । सर्वथाप्रकारे प्राणोंका नाश होवे तो जी, सम्यक्त्व नही त्यागना; मुनियोंको अहार, पात्र, वस्त्र, मकान ( उपाश्रय ) का दान करना । कर्मादानसें रहित सर्व उत्तम वाणिज्य (व्यापार) करना, उपनीत वैश्यको ये पूर्वोक्त यत्न करणे योग्य है. ॥ इतिवैश्यत्रतादेशः ॥ अथ चातुर्वएर्यस्य समानो व्रतादेशः ॥ ६६१ ॥ मूलम् ॥ निजपूज्य गुरुप्रोक्तं देवधर्मादिपालनम् ॥ देवार्चनं साधुपूजा प्रणामो विप्रलिंगिषु ॥ १ ॥ धनार्जनं च न्यायेन परनिंदा विवर्जनम् ॥ श्रवर्णवादो न क्वापि राजादिषु विशेषतः ॥ २ ॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६५ जैनधर्मसिंधुः खसत्त्वस्यापरित्यागो दानं वित्तानुसारतः ॥ आयोचितो व्ययश्चैव काले काले च नोचनम् ॥३॥ न वासोऽपजले देशे नदीगुरुविवर्जिते ॥ न विश्वासो नरेन्डाणां नागरीयनियोगिनाम् ॥४॥ नारीणां च नदीनां च लोजिनां पूर्ववैरिणाम् ॥ कार्य विना स्थावराणामहिंसा देहिनामपि ॥५॥ नासत्याहितवाक् चैव विवादो गुरुचिर्न च ॥ मातापित्रोमुरोश्चैव माननं परतत्त्ववत् ॥६॥ शुजशास्त्राकर्णनं च तथा नाऽजदयजक्षणम् ॥ अत्याज्यानां न च त्यागोप्यऽघात्यानामघातनम् ॥७॥ अतिथौ च तथा पात्रे दीने दानं यथाविधि ॥ दरिमाणां तयांधानामापनारनृतामपि ॥ ७॥ हीनाङ्गानां विकलानां नोपहासः कदाचन ॥ समुत्पन्नकुत्पिपासाघृणाक्रोधादिगोपनम् ॥ ए॥ अरिषमवर्गविजयः पदपातो गुणेषु च ॥ देशाचाराऽऽचरणं च नयं पापापवादयोः ॥ १० ॥ उहाहः सदृशाचारैः समजात्यन्यगोत्रजैः॥ । त्रिवर्गसाधनं नित्यमन्योन्याप्रतिबंधतः ॥ ११ ॥ परिझानं खपरयोर्देशकालादिचिंतनम् ॥ सौजन्यं दीर्घदर्शित्वं कृतज्ञत्वं सलजाता ॥ १५ ॥ परोपकारकरणं परपीमनवर्जनम् ॥ पराक्रमः परिजवे सर्वत्र दांतिरन्यदा ॥ १३ ॥ जलाशयश्मशानानां तथा दैवतसद्मनाम् ॥ . Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६६३ निसाहाररतादीनां संध्यासु परिवर्जनम् ॥ १४ ॥ प्रवेशोखंघनं चैव तटे शयनमेव च ॥ कूपस्य वर्जनं नद्यालंघनं तरणीं विना ॥ १५ ॥ गुर्वासना दिशय्यासु तालवृदे कुन्नूमिषु ॥ पुगोष्टिषु कुकार्येषु सदैवासनवर्जनम् ॥१६॥ न लंघनं च गर्तादेर्नपुष्टस्वामिसेवनम् ॥ न चतुर्थीनग्नस्त्रीशकचापविलोकनम् ॥ १७ ॥ हस्त्यश्वनखिनां चापवा दिनां दूरवर्जनम् ॥ दिवासंजोगकरणं वृक्षस्योपासनं निशि ॥ १७ ॥ कलहं तत्समीपं च वर्जनीयं निरंतरम् ॥ देशकाल विरुद्धं च जोज्यं कृत्यं गमागमौ ॥ १५ ॥ जाषितं व्यय आयश्च कर्त्तव्यानि न कर्हि चित् ॥ चातुर्वर्यस्य सर्वस्य व्रतादेशोयमुत्तमः ॥२०॥ ॥इतिचातुर्वर्ण्यस्यसमानोव्रतादेशः ॥ अथ चारों वर्षों का समान व्रतादेश कहते हैं. ॥ अपने पूज्य गुरुके कहे देवधर्मादिकापालना, देव पूजा करनी, साधुकी यथायोग्य पूजा करनी, ब्राह्म ण और लिंगधारीको प्रणाम करना । न्यायसे धन उपार्जन करना. परकी निंदा वर्जनी, किसीका जी अवर्णवाद न बोलना, राजादिविषयक तो विशेषसें श्रवर्णवाद न बोलना.। अपने सत्वको डोमना नही, धनके अनुसार दान देना, लाजानुसार खरच कर ना, जोचनके कालमें जोजन करना. । थोडे जल Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ जैनधर्मसिंधु. वाले देशमें वसना नही, नदी और धर्मगुरुवर्जित देशमें जी नही वसना. । राजा, राज्याधिकारी, स्त्री, नदी, लोजी, पूर्ववैरी, श्नोंका विश्वास नहीं कर नाः । कार्यविना स्थावर जीवोंकी नी हिंसा नहीं करनी. । असत्य अहितकारि वचन नहीं बोलना, गुरुओं (बमों) के साथ विवाद नही करना. माता पिता और गुरु, श्नका उत्कृष्ट तत्त्वकीतरें मान सत्कार करना. । शुज अष्टादश दूषणरहित सर्वज्ञो क्त शास्त्रका श्रवण करना; अजय (नही खाने योग्य ) का लक्षण नही करना; जे त्यागने योग्य नहीं है, उनका त्याग नही कर ना; जे मारणे योग्य नही है, तिनको मारणा नही. अतिथि, सुपात्र, और दीन, इनको यथाविधि यथा योग्य दान देना; दरिज, अंधे, पुःखी, श्नको जी यथाशक्ति दान देना. । हीन अंगवालोंको, और विकलोंको कदापि हसना नहीं । नूख, तृष्णा,(तृषा,) घृणा, क्रोधादि उत्पन्न हुए नी, गोपन करने । षट् (६) अरिवर्गका विजय करना, गुणोंमें पक्षपात करना, देशाचार आचरण करना, पाप और अप वादका जय करना.। सदृश श्राचारवाले, समजाति, और अन्य गोत्रजोंके साथ विवाह करना; धर्म अर्थ कामको निरंतर परस्पर अप्रतिबंधसे साधन करना.। अपने और परायेका ज्ञान करना, देशका Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ६६५ लादिका चिंतन करना, सौजन्य धारण करना, दीर्घ दर्शी होना, लजालु होना. परोपकार करना, परको पीमा न करनी, अपना परिजव (तिरस्कार) होवे तब पराक्रम दिखाना, अन्यथा सर्वत्र दांति कर नी. । जलाशय, श्मसान, देवल, इनमें और तीन संध्यामें नित्रा, आहार, मैथुनादि वर्जना. । कूपमें प्रवेश, कूपका उलंघन, कूपकांठेपर शयन, श्न सर्व को वर्जना; तथा नावाविना नदीका लंघना वर्ज ना. । गुरुके श्रासनशय्यादिके ऊपर, तामवृक्षके हेवें, बुरी नूमिमें, उर्गोष्टिमें, कुकार्यमें, बेंग्ना सदा ही वर्जना । खाम कूदनी नही, लोजी स्वामीकी सेवा, नही करनी; चौथका चंड, नग्न स्त्री, अधनुः, इनको देखना नही. । हाथी, घोमा, नखोंवाले, जनावरों और निंदक, इनको दूरसें वर्जनाः । दिन में संजोग (मैथुन) न करना, रात्रिको वृक्षका सेवन न करना. । कलह, और कलहका समीप, निरंतर वर्जना. । देशकाल विरुक, जोजन, कार्य, गमन, आगमन, नाषण, व्यय (खरच) और आय (लाल) ये कदापि न करने. यह पूर्वोक्त उत्तम व्रतादेश चारों वर्णोंका है. ॥ २० ॥ इति चातुर्वर्ण्यस्य समानोवतादेशः ॥ __ गृहस्थगुरु, पूर्वोक्त प्रकारसे शिष्यको व्रतादेश करके, आगे करके जिन प्रतिमाको तीन प्रदक्षिणा Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ जैनधर्मसिंधु. करावे. फिर पूर्वाभिमुख होके शक्रस्तव पढे । उस पीछे गृहस्थगुरु, आसन ऊपर बैठ जावे, और शिष्य ' नमोस्तु' कहता हुआ गुरुके पगोंमें पक्के ऐसें कहे, “ जगवम् नवनिर्मम व्रतादेशो दत्तः " तब गुरु कहे, " दत्तःसुगृहीतोस्तु सुरक्षितोस्तु स्वयं तर परं तारय संसारसागरात् " ऐसें कहके नमस्का र पढता हुवा ऊके दोनों (गुरु शिष्य ) चैत्यवंदन करें. उसपीछे ब्राह्मणने, विप्र क्षत्रिय वैश्यके घरमें निक्षाटन करना; त्रियने शस्त्र ग्रहण करना; और वैश्यने अन्नदान करना. ॥ इत्युपनयने व्रतादेशः ॥ Bar व्रतविसर्गः कथ्यतेः - श्रथ व्रतविसर्ग कहते हैं. ॥ ब्राह्मणने आठ वर्षसें लेके सोलां वर्षपर्यंत, दंग और जिन धारण करके, निक्षावृत्ति करके जोजन करना, यह उत्तम पक्ष है. क्षत्रियने दंग जिन धारण करके दश वर्षसें लेके सोलां वर्ष पर्यंत आपहिं पाक करके, देवगुरुकी सेवामें तत्पर होके, जोजन करना; और वैश्यने दंग जिन धारण करके स्वकृत जोज न करके बारां वर्षसें लेके सोलां वर्ष पर्यंत जोजन करना; यह उत्तम पक्ष है । यदि कार्यव्यग्रतासें तितने दिन न रह सके तो, ब (६) मास पर्यंत रहना. तदजावे एक मास पर्यंत, तदजावे पक्ष पर्यं त, तदभावे तीन दिन रहना. यदि तीन दिन जी न Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६६७ रह सके तो, तिसही उपनयनबतादेशके दिनमेंही विसर्ग करिये, सोही कहने हैं । उपनीत, तीन २ प्रदक्षिणा करके चारों दिशायोंमें जिनप्रतिमाके श्रागे पूर्ववत् युगादिजिनस्तोत्र सहित शक्रस्तव पढे. तदपी बासनपर बैठे गुरुके आगे नमस्कार करके हाथ जोमके ऐसें कहे ॥" नगवन् देशका लाद्यपेदया व्रतविसर्गमादिश” ॥ गुरु कहे ॥ " आदिशामि॥” फिर नमस्कार करके शिष्य कहे। " जगवन्ममव्रतविसर्ग श्रादिष्टः ॥ गुरु कहे ॥ " श्रादिष्टः ॥” फिर नमस्कार करके शिष्य कहे ॥ " जगवन् ब्रतबंधो विसृष्ट ॥” गुरु कहे ॥ "जिनो पवीतधारणेन अविस्तृष्ठोस्तु स्वजन्मतः षोडशाब्दी ब्रह्मचारी पाउधर्मनिरतस्तिष्ठः ॥ उसपी पंचपरमे ष्ठिमंत्र पढता हुआ शिष्य, मौंजी, कौपीन, वल्कल, दंड, श्नको दूर करके, गुरुके आगे स्थापन करे; और आप जिनोपवीतधारी श्वेतवस्त्र उत्तरीय होके गुरुके आगे नमस्कार करके बैठे, तव गुरु तिस बारां तिलकधारी उपनीतके आगे उपनयनका व्या ख्यान करे। तद्यथा ॥ श्राप वर्षके ब्राह्मणको दश वर्षके क्षत्रि यको, और बारां वर्षके वैश्यको, उपनयन करना तिसमें गर्जमास जी बीचमेंही गणने । तथाच ॥ "जिनोपवीतमिति जिनस्य उपवीतं मुशासूत्रमित्यर्थः” Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. ६६० जिनका उपवीत अर्थात् मुजासूत्र सो कहावे जिनोपवीत. । नवब्रह्मगुप्ति गर्जरत्नत्रय, येह पुरा, श्रीयुगादिदेवने गृहस्थीवर्णत्रयको अपनी मुसाका धारण करना यावत् जीवतांश कहा था. । तदपीछे तीर्थक व्यवच्छेद हुए, मिथ्यात्वको प्राप्त ब्राह्मणोंने हिंसा प्ररूपणेसें चारों वेदको मिथ्या पथमें प्राप्त करे हुए, पर्वत और वसुराजासे प्रायः हिंसक यज्ञके प्रवृत्त हुए, यज्ञोपवीत' ऐसा नाम धारण करा. मिथ्या दृष्टि यथेछासें प्रलाप करो ! परंतु जिनमतमें तो, जिनोपवीतही नाम है, नतु यज्ञोपवीत. तिसवास्ते तैनें इस जिनोपवीतको अहीतरें धारण करना मासमासपीछे नवीन धारण कराना, प्रमादसें जिनो, पवीत जाता रहे, वा टुट जावे तो, तीन उपवास करके नवीन धारण करना. प्रेतक्रियामें दक्षिण स्कंधके ऊपर, और वाम कदाके देखें, ऐसे विपरीत धारण करना. क्योंकि, सो विपरीत कर्म है. । मुनि जी, मृत मुनिके त्यागनेमें तथाविध विपरीतही वस्त्र पहेनते हैं, जिसवास्ते, तूं जन्मकरके शूज आजतक था सांप्रत संस्कार विशेषकरके ब्रह्मगुप्तिके धारणेसें ब्राह्मण, वा दतालाणेन-रक्षणकरनेसे क्षत्रिय, वा न्यायधर्म में प्रवेश करनेसे वैश्य हुआ है; तिसवास्ते, क्रियासहित इस जिनोपवीतको अहीतरें ग्रहण करना अहीतरें रखना. तेरेको सद्धर्मवासना उपन Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठमपरिछेद. ६६ए यनविधि क्षयरहित हो. एसें व्याख्यान करके पर मेष्ठिमंत्र पढकर दोनों गुरु शिष्य खडे होवे. पीछे चैत्यवंदन, और साधुवंदन करे. ॥ इत्युपनयने व्रत विसर्गविधिः ॥ अथ गोदानविधिर्यथा ॥ अथ गोदानविधि दिखते हैं.॥ तदा व्रतविसर्गके अनंतर शिष्यसहित गुरु, जिनको तीन प्रदक्षिणा करके पूर्ववत् चारों दिशामें शक्रस्तवका पाठ करे. पीछे गृहस्थगुरु, श्रासनपर बैठे तब शिष्य गुरुको तीन प्रदक्षिणा करके नमस्कार करके हाथ जोमके खमा होके, गुरुको विज्ञापना करे. यथा ॥ __“॥ जगवन् तारितोहं, निस्तारितोहं, उत्तमः कृतोहं, सत्तमःकृतोहं, पूतः कृतोहं, पूज्यकृतोहं, तनगवन्नादिश, प्रमाद बहुले गृहस्थधम्र्मे, मम किंच नापि रहस्यनूतं सुकृतं ॥" हे जगवान् ! तारा मुझको, निस्तारा मुझको, उत्तम करा मुझको, अतिशयसाधु (श्रेष्ठ) करा मुझको, पवित्रकरा मुजको, पूज्य करा मुझको, तिसवास्ते, हे जगवन् ! प्रमादबहुल गृहस्थधर्ममें मेरेको कुबनी रहस्यनूत सुकृत कथन करो. ॥ तब गुरु कहे॥ "॥ वत्स! सुष्टुनुष्ठितं सुष्टु पृष्टं ततः श्रूयताम् ॥” हे वत्स ! अच्छा करा, जला पूग, तिसवास्ते तूं श्रवण कर.॥ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० जैनधर्मसिंधु. दानं हि परमो धम्मों दानं हि परमा क्रिया ॥ दानं हि परमो मार्गस्तस्माद्दाने मनः कुरु ॥ १ ॥ दया स्यादजयं दानमुपकारस्तथाविधः ॥ सर्वो हि धर्मसंघातो दानेन्तर्भावमर्हति ॥ २ ॥ ब्रह्मचारी च पाठेन निकुश्चैव समाधिना ॥ वानप्रस्थस्तु कष्टेन गृही दानेन शुध्यति ॥ ३॥ ज्ञानिनः परमार्थज्ञा अर्हन्तो जगदीश्वराः ॥ व्रतकाले प्रयच्छन्ति दानं सांवत्सरं च ते ॥ ४ ॥ गृह्णतां प्रीणनं सम्यकूं ददतां पुण्यमक्षयम् ॥ दानतुल्यस्ततो लोके मोक्षोपायोऽस्ति नाऽपरः ॥ ५ ॥ अर्थः- दानही परम उत्कृष्ट धर्म है, दानही परमा क्रिया है, दानही परम मार्ग है, तिसवास्ते दान देनेमें मन कर. । अजयदानसें दया होवे है, दानसेंही तथाविध उपकार होवे है, सर्वही धर्म समूह दानमें अंतर्भाव हो सक्ता है । ब्रह्मचारी पाठ करके, साधु समाधि करके, वानप्रस्थ कष्ट करके, और गृहस्थी दान करके शुद्ध होता है. । तीन ज्ञानके धर्त्ता परमार्थके जाणकार, ऐसें अर्हत जगवंत जगदीश्वर जी व्रतसमय में सांवत्सर दान देते हैं. । दान ग्रहण करनेवालेको तो, दान तृप्त करता है; और देनेवालेको अक्षय पुण्य प्राप्त करा ता है; तिसवास्ते दानके समान दूसरा कोई मोद का उपाय लोकमें नही है. ॥ ५ ॥ जिसवास्ते हे Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. वत्स ! तैनें ब्राह्मणपणा, वा क्षत्रियपणा, वा वैश्य पणा प्राप्त करा है, अंगीकार करा है; तिसवास्ते हे वत्स ! तूं गृहस्थधर्ममें मोदके सोपानरूप दान देनेका प्रारंज कर.। तब नस्कार करके शिष्य कहे, हे जगवन् ! मुझको दानका विधी कहो. । गुरु कहे 'श्रादिशामि' कहता हूं । यथा ॥ गावो नूमिः सुवर्णं च रत्नान्यन्नं च नक्तकाः ॥ गजाश्वाति दानं तदष्टधा परिकीर्तयेत् ॥१॥ एतच्चाष्टविधं दानं विप्राणां गृहमेधिनाम् ॥ देयं न चापि यतयो गृह्णन्त्येतच्चनिःस्पृहाः॥२॥ यतिन्यो नोजनं वस्त्रं पात्रमौषधपुस्तके ॥ दातव्यं अव्यदानेन तौ छौ नरकगामिनौ ॥३॥ ___ अर्थः-गौ १, नूमि २, सुवर्ण ३, रत्न ४, अन्न ५, नक्तक वस्त्र विशेष ६, हाथी ७, और घोमा ७, येह आठ प्रकारका दान कहाहे । यह पूर्वोक्त आठ प्रकारका दान, गृहस्थी ब्राह्मणगुरुयोंको देना. और निःस्पृह यति साधु मुनिराज, इस दानको नही लेते हैं । साधवोको तो, जोजन, वस्त्र, पात्र, औषध पुस्तक, इनका दान देना. साधुकों अव्य (धन) का दान देनेसें, देनेलेनेवाले दोनोंही नरकगामी होते हैं. ॥३॥ तिसवास्ते प्रथम गोदान ग्रहण करना. उपनीत, वडडेसहित कपिला, वा पाटला, वा श्वेत रंगकी, नापित, चर्चित, जूषित, धेनुको, आगे ख्या Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैनधर्मसिंधु. यके पूंबसे पकडके, रूप्यमय खुरा है जिसके, स्वर्ण मय श्रृंग है जिसके, ताम्रमय पृष्ठ है जिसकी, कांस्य मय दोहपात्र है जिसका, ऐसी धेनु, गृहस्थगुरुके तां देवे । गुरु तिस गौकी पूंबको हाथमें धारण करकें, यह वेदमंत्र पढे । यथा ॥ ___ “॥ ॐ है गौरियं धेनुरियं प्रशस्यपशुरियं सर्वोत्तमदीरदधि घृतेयं पवित्रगोमयमूत्रेयं सुधाता विणीयं रसोनाविनीयं पूज्येयं हृद्येयं अनिवाद्येयं तदत्तेयं त्वया धेनुः कृतपुण्यो नव प्राप्त पुण्यो नव श्रदयं दानमस्तु अर्ह 3 ॥" यह कहकर गृहीगुरु धेनुको ग्रहण करे. शिष्य तिस गौकेसाथ प्रोणप्रमाण सात धान्य, तुलामात्र षट् (६) रस और पुरुषतृप्तिमात्र षट् (६) विकृती (विगय) देवे ॥ इतिगोदानम् ॥ अन्य सर्व नूमिर रत्नादिदानों विषे यह मंत्र पढना.। यथा ॥ ___“॥ ॐ अहे एकमस्ति दशमकमस्ति शतमस्ति सहस्रमस्ति अयुतमस्ति लदमस्ति प्रयुतमस्ति को ट्यस्ति कोटिदशकमस्ति कोटिशतकमस्ति कोटिसह समस्ति कोव्ययुतमस्ति कोंटिलतमस्ति कोटिप्रयुत मस्ति कोटाकोटिरस्ति संख्येयमस्ति असंख्येयमस्ति अनंतानंतमस्ति दान फलम स्ति तदक्षयं दानमस्तु ते अह उँ ॥” इति परेषां दानानां मंत्रपाठः ॥ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०३ अष्टमपरिवेद. __ यहां उपनयनमें गोदानकाही निश्चय है, शेष दान क्रमकरके अन्यदा नी देना. गोदानादि दान गृहस्थगुरु ब्राह्मणोंकोही देना. निःस्पृह यतियोंको न देना. तथा तिन यतियोंको, अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, नेषज, वसति, पुस्तकादि दानमें 'धर्मलानः' यही मंत्र जाणनाः । अथ गृहस्थगुरु, उपनीतसें गोदान लेके, पर्णानुझा देके, चैत्यवंदन, और साधु वंदन करायके, तैसेंही संघके मिले हुए, मंगलगीत वाजंत्रोंके वाजते हुए, शिष्यको साधुयोंकी वसतिमें (उपाश्रयमें) ले जावे. तहां मंडलीपूजा, वासदेप, साधुवंदनादि सर्व पूर्ववत् करना. । पीछे चतु विध संघकी पूजा, और मुनियोंको वस्त्र, अन्न, पात्रा दि दान करे. ॥ इति गोदान विधिः ॥ संपूर्णोयं चतुर्विधउपनयनविधिः ॥ अथ शजको उत्तरीयक देनेकी विधि लिख हैं. ॥ सात दिन तैल निषेकस्नान पूर्ववत् जाणना.। तदनंतर यथाविधि पौष्टिक, सर्व शिरका मुंमन, वेदिकरण, चतुष्किकाकरण, जिनप्रतिमास्थापन, पूर्ववत्. । पीछे गृहस्थगुरु, जिनेश्वरकी अष्टप्र कारी पूजा करे. चारों दिशायोंमें शक्रस्तव पाठ करे. पी गुरु श्रासनऊपर बैठ जावे. तब शिष्य श्वेत वस्त्र पहिरके, उत्तरासंगकरके समवसरण और गुरुको, प्रदक्षिणा करके, 'नमोस्तु ' कहता हुआ, गुरुको Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ जैनधर्मसिंधु. नमस्कार करके हाथ जोमके, खमा होयके कहे. " ॥ जगवन् प्राप्तमनुष्यजन्मार्यदेशार्यकुलस्य मम बोधिरूपां जिनाज्ञां देहि ॥” गुरु कहे “॥ ददा मि ॥” शिष्य फिर नमस्कार करके कहे “॥ न योग्योहमुपनयनस्य तजिनाज्ञां देहि ॥” गुरु कहे ददामि ॥" पीने छादश (१५) गर्नतंतुरूप, जि नोपवीतप्रमाण दीर्घ (लंबा) कार्पासका, वा रेश मका, उत्तरीयक, परमेष्ठिमंत्र पढता हुया, जिनो पवीतवत् पहिरावे. पी गुरु, पूर्वानिमुख शिष्यको चैत्यवंदन करावे. । पीने शिष्य ‘नमोस्तु " कहता हुआ, सुखसें बैठे गुरुके पगोंमें पमके, फिर खडा होके, हाथ जोमके, ऐसें कहे. “॥ जगवन् उतरीयकन्यासेन जिनाज्ञामारोपितोहं॥” गुरु कहे “सम्यगारोपितोसि तर नवसागरम् ॥” पीछे गुरु सन्मुख बैठे शूके आगे व्रतानुज्ञा देवे. ॥ यथा ॥ सम्यक्त्वेनाधिष्टितानि व्रतानि छादशैव हि ॥ धार्याणि जवता नैव कार्यः कुलमदस्त्वया ॥१॥ जैनर्षीणां तथा जैनब्राह्मणानामुपासनम् ॥ विधेयं चैव गीतार्थाचीर्ण कार्यं तपस्त्वया ॥२॥ न निंद्यः कोपि पापात्मा न कार्य खप्रशंसनम् ॥ ब्राह्मणेभ्यस्त्वया मानं दातव्यं हितमिलता ॥३॥ शेष चतुर्वर्ण शिक्षाश्लोकव्याख्यानमाचरेत् ॥ उत्तरीयपरिबंशे नंगे वाप्युपवीतवत् ॥४॥ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिबेद. ६७५ कार्यं व्रतं प्रेतकर्मकरणं वृषल त्वया ॥ युक्तिरेषोत्तरासंगानुयायां च विधीयते ॥५॥ दात्राणामथ वैश्यानां देशकालादियोगतः ॥ त्यक्तोपवीतानां कार्यमुत्तरासंगयोजनम् ॥६॥ धर्मकार्ये गुरोर्दृष्टौ देवगुर्वालयेऽपि च ॥ धार्यस्तथोत्तरासंगः सूत्रवत् प्रेतकर्मणि ॥ ७॥ अन्येषामपि कारूणां गुर्वानुज्ञां विनापि हि ॥ गुरुधर्मादिकार्येषु उत्तरासंग इष्यते ॥ ७॥ __ अर्थः-सम्यक्त्वके संयुक्त छादश व्रत तैने धार ण करने, और कुलका मद न करना. । जैन ब्राह्म णोंकी उपासना करनी; तथा गीतार्थाचीर्ण तप करना. । किसी पापात्माको निंदना नही, अपनी प्रशंसा नकरनी, हित इच्छके ब्राह्मणको मान देना. । शेष चतुर्वर्ण शिदाश्लोकमें कहे याचारको आचरण करना; (उत्तरीयके परिभ्रंशमें, वा जंगने उपवीतवत् जाणना. । व्रत करना, प्रेतकर्म करना,) हे वृषलशूज ! उत्तरासंगकी अनुशामें तैने यह युक्ति करनी. । देशकालादियोगसें त्याग किया है उपवीत जिनोंनें, वैसे दत्रिय और वैश्योंको, उत्त रासंग योजन करना. । धर्मकार्यमें,. गुरुकी दृष्टिमें, देव और गुरुके मकानमें, तथा प्रेतकर्ममें, सूत्रकी तरें उत्तरासंग धारण करना.। और नी कारुओंको गुरुकी आज्ञाके विना नी गुरुधर्मादिकार्यों में उत्त Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ जैनधर्मसिंधु रासंग इच्छते हैं.। ऐसा व्याख्यान करके गुरु शिष्य को चैत्यवंदन करावे. । परमेष्ठिमंत्रका उच्चार और मंत्रव्याख्यान पूर्ववत्. । इतना विशेष है. शूमादि कोंको 'नमो' के स्थानमें ‘णमो' उच्चारण कराना. इतिगुरुसंप्रदायः। पीछे शिष्यसहित गुरु, उत्सव करते हुए धर्मागारमें जावे. तहां मंगलीपूजा, गुरु नमस्कार, वासदेपादि पूर्ववत् । पीछे मुनियोंको अन्न, वस्त्र, पात्र दान देवे. और चतुर्विध संघकी पूजा करे. ॥ इति उपनयने शूमादीनां उत्तरीयक न्यासोत्तरासंगानुशोविधिः॥ __ अथ बटूकरणविधिः-अथ बटूकरणविधि लिखते हैं. ॥ जिसवास्ते सम्यक् उपनीत, वेदविद्यासंयुक्त, मुष्प्रतिग्रहवर्जित, अशुजाननोजन करनेवाले, माह नोंके आचारमें रक्त, सर्व गृहस्थोकेसंस्कारप्रतिष्ठादिक ौके करानेवाले, ऐसें ब्राह्मण, पूज्य होते हैं । परंद त्रियादि राजायोंको, सेवा, अन्नपाक, तिसकी आज्ञा करनी, थन्युत्थान, चाटुः-मनोदर वचन, प्रशंसा, विना नमस्कारके आशीर्वाद देना, विज्ञानकर्म, कृषि वाणिज्यकरण, तुरंगवृषनादि शिदाकरण, इत्यादि कर्म करनेवाले ब्राह्मणयोग्य नहीहे. इसवास्ते एसे ब्राह्मणो वा हरको को शुरू ब्राह्मण बनानेके लिए "बटू करण” विधि करनाचहिये. सो बतातेंहे. उक्तं च यतः ॥ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिबेद. ६७ घ्युतव्रतानां ब्रात्यानां तथा नैवेद्यनोजिनाम् ॥ कुकर्मणामवेदानामजपानां च शस्त्रिणाम् ॥१॥ ग्राम्याणां कुलहीनानां विप्राणां नीचकर्मणाम् ॥ प्रेतान्न नोजिनां चैव मागधानां च बंदिनाम् ॥२॥ घांटिकानां सेवकानां गंधतांबूलजीविनाम् ॥ नटानां विप्रवेषाणां पशुरामान्वया यिनाम् ॥ ३॥ अन्यजात्युनवानां च बंदिवेषोपजीविनाम् ॥ इत्यादिविप्ररूपाणां बटकरण मिष्यते ॥४॥ अर्थः-व्रतसे ज्रष्ट हुए, संस्कारहीन, नैवेद्यका जोजन करनेवाले,कुकर्मके करनेवाले,जैन वेदको नही जाणनेवाले, वेद मंत्रोंका जप न करनेवाले, शस्त्रको धारण करनेवाले, कुग्रामके वसनेवाले,कुलहीन, नीच कर्मके करनेवाले, प्रेतके अन्नका लोजन करनेवाले, मागध-स्तुतिपाठ पठनेवाले बंदीराजादिकी स्तुति पढनेवाले, घंटिका बजानेवाले, सेवा करनेवाले, गंधतांबूलकरके आजीविका करनेवाले, विप्रवेष धारण करनेवाले नट, पशुरामके संतानीय, अन्य जातिसे उत्पन्न हुए, बंदिवेषसें आजीविका करनेवा ले, इत्यादि विप्ररूपको बटूकरण इच्छते हैं । तिस का यह विधि है. प्रथम तिसके घरमें गृहस्थगुरु, यथोक्त विधिसें पौष्टिक करे. पीने तिसको शिखा वर्जके मुंडन करावे, पीछे तिसको तीर्थोदक Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० जैनधर्मसिंधु. मंत्रोंकरके मंत्रित जलकरके स्नान करावे. । तिर्थो दकानिमंत्रणमंत्रोयथा ॥ __“॥ ॐ वं वरुणोसि वारुणमसि गांगमसि यामु नमसि गोदावरमसि नार्मदमसि पौष्करमसि सारख तमसि शातज्वमसि वैपाशमसि सैंधवमसि चांउजाग मसिवैतस्तमसि ऐरावतमसिकावेरमसिकारतोयमसि गौमतमसि शैतमसि शैतोदमसि रोहितमसि रोहि तांशमसि सारेयवमसि हारिकांतमसि हारिसलिल मसि नारिकांतमसि नारकांतमसि रौप्यकूलमसि सौवर्णकूलमसि सालिलमसि रक्तवतमसि नैमनस लिलमसि उन्मग्नसलिलमसि पाद्ममसि महापाद्म मसि तैगिमसि केशरमसि जीवनमसि पवित्रमसि पावनमसि तदमुं पवित्रय कुलाचाररहितमपि देहिनं। इस मंत्रसें कुशाग्रकरी सात वार अनिसिंचन करे. पीछे नदीकांठे वा तीर्थऊपर, वा मंदिरमें, वा पवित्र गृहस्थानमें तिस बटूकरण योग्यको, प्रथम तीनगुणी कुशमेखला, तीन प्रकारसें बांधे.। मेखला बंधमंत्रो यथा ॥ ___“॥ ॐ पवित्रोसि प्राचीनोसि नवीनोसि सुग मोसि अजोसि शुफजन्मासि तदमुं देहिनं धृतवत मव्रतं वा पावय पुनीहि अब्राह्मणमपि ब्राह्मणं कुरु॥" इस मंत्रका तीन वार पाठ करे. ॥ पीने कौपीन पहिरावे. । कौपीनमंत्रों यथा ॥ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. ६ए ठे अब्रह्मचर्यगुप्तोपि ब्रह्मचर्यधरोपि वा ॥ व्रतः कौपीनबंधेन ब्रह्मचारी निगद्यते ॥१॥ ऐसें तीन वार पढके कौपीन पहिरावणा। पीछे पूर्वोक्त ब्राह्मणसमान उपवीत, मंत्रपूर्वक पहि रावे.। मंत्रो यथा ॥ __“॥ ॐ सधम्मोसि अधर्मोसि कुलीनोसि अकु नोसि सब्रह्मचर्यो सि सुमनासि उर्मनाथसि श्रद्धालुरसि अश्रझाबुरसि श्रास्तिकोसि नास्तिकोसि श्राईतोसि सौगतोसि नैयायिकोसि वैशेषिकोसि सांख्योसि चार्वाकोसि सलिंगोसि अलिंगोसि तत्त्व झोसि अतत्त्वज्ञोसि तनव ब्राह्मणोऽनोपवीतेन जवंतु ते सर्वार्थ सिद्धयः ॥” इस मंत्रको नव वार पढके उपवीत स्थापन करे.। पीने तिसके हाथमें पलाशका दंम देवे, और मृग चर्म तिसको पहिरावे, और निदा मांगनी करावे. निदामार्गणकेपी उपवीतको वर्जके, मेखला, कौपी न, चर्मदंमादि दूर करे. । दूरकरनेकामंत्र यथा ॥ " ॥ ध्रुवोसि स्थिरोसि तदेकमुपवीतं धारय ॥" ऐसें तीन वार पढे। पीछे गुरु, धारण किया है श्वेतवस्त्रका उत्तरासंग जिसने, ऐसे ब्राह्मणको, आगे बिठलाके, शिक्षा देवे.। यथा ॥ परनिंदां परखोहं परस्त्रीधनवांउनम् ॥ मांसाशनं म्लेबकंदलक्षणं चैव वर्जयेत् ॥१॥ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० जैनधर्मसिंधु. वाणिज्ये खामिसेवायां कपटं मा कृथाः क्वचित् ॥ ब्रह्मस्त्रीचूणगोरदां दैवर्षिगुरुसेवनम् ॥२॥ अतिथीनां पूजनं च कुर्यादानं यथा धनम् ॥ अथात्मघातं मा कुर्या मा वृथा परतापनम् ॥३॥ उपवीतमिदं स्थाप्यमाजन्म विधिवत्वया ॥ शेषः शिदाक्रमः कथ्यश्चातुर्वर्यस्य पूर्ववत् ॥ ४॥ अर्थः-परनिंदा, परखोह, परधनकी वांग, मांस नक्षण, म्लेच्छकंद"लशुना दिनदण, श्नको वर्जना.। वाणिज्यमें स्वामीकी सेवामें, कदापि कपट न करना; ब्राह्मण, स्त्री, गर्न और गौ, इन चारोंकी रक्षा करनी देव ऋषि और गुरुकी सेवा करनी. । अतिथीयोंका पूजन करना, धनके अनुसार दान देना, आत्मघात नही करना, परको पीमा न करनी. । जन्मपर्यंत यावजीवे तबतक विधिपूर्वक उपवीत धारण करना, शेष शिदाक्रम पूर्ववत् चारों वर्णोंका कथन कर ना.॥ पीले सो बटुकृत, गुरुको स्वर्ण, वस्त्र, धेनु, अन्न, दान करे. । यहां बटुकरणमें वेदी, चतष्कि का, समवसरण, चैत्यवंदन, व्रतानुशा, व्रतविसर्ग, गोदान,वासदेपादि नहीं है.॥इति बटुकरणविधिः॥ इति छादशमोपनयनादिसंस्कारवर्णं समाप्तम् ॥ 60.00 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेदः ६८१ ॥ अथ अध्ययनारंग संस्कार लिख्यते ॥ अश्विनी, मूल, पूर्वा ३, मृगशीर्ष, श्रार्द्रा, पुनर्व सु, पुष्य, अश्लेषा, दस्त, शतभिषा, स्वाति, चित्रा, श्रवण, धनिष्ठा, येह नक्षत्र और बुध, गुरु, शुक्र, येह वार विद्यारंभ में शुभ है. अर्थात् इनोंमें प्रारंज विद्या प्राप्त होती है. रवि और चंद्र, मध्यम हैं. मंगल और शनिवार त्यागने योग्य है । अमा वास्या, अष्टमी, प्रतिपत् ( एकम, ) चतुर्द्दशी, रिक्ता, षष्ठी, नवमी, ये तिथियें विद्यारंज में सदाही वर्जनी. । अथ उपनयनसदृश दिन और लग्न में विद्यारंज संस्कारका रंग करिये, तिसका यह विधि है. । गृहस्थगुरु प्रथम विधिसें उपनीत पुरुषके घर में पौष्टिक करे; पीछे गुरु मंदिरमें, वा उपाश्रयमें, वा कदंबवृक्षकेतले, कुशाके सनउपर आप बैठके, शिष्यको वामेपासे कुशासनोपरि बिठलाके तिसके दक्षिण कानको पूजके तीनवार सारखत मंत्र पढे. पीछे गुरु, अपने घर में, वा पाठ शाला में वा पौषधागार में, शिष्यको पालखी, वा घोडेपर चढायके मंगलगीतोंके गाते हुए, दान देते हुए, वाजंत्र वाजते हुए, यति गुरु के पास लेजाके मंगली पूजापूर्वक वास देप करवाके, पाठशाला में लेजावे . पीछे गुरु शिष्यको आगे येह शिक्षाश्लोक पढे । यथा ॥ ८६ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. अज्ञानतिमिरांधानां, ज्ञानांजनशलाकया ॥ नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १ ॥ यासां प्रसादादधिगम्य सम्यक, शास्त्राणि विंदन्ति परं पदंशाः ॥ मनीषितार्थप्रतिपादकान्यो नमोस्तु तान्यो गुरुपा डुकाभ्यः ॥ २ ॥ > सत्येतस्मिन्नर तिर तिदं गृह्यते वस्तु दूरा, दप्यासन्ने प्य सति तु मनस्याप्यते नैव किंचित् ॥ पुंसामित्यप्यवग तवतामुन्मनी जावहेता, विच्छा बाढं जवति न कथं सुरूपासनायाम् ॥ ३ ॥ इति मत्वा त्वया वत्स ! त्रिशुद्धोपासनं गुरोः ॥ विधेयं येन जायंते गोधी कीर्तिधृतिश्रियः ॥ ४ ॥ ऐसें शिष्यको शिक्षा देके, और तिससें स्वर्ण वस्त्र दक्षिणा लेके, गुरु अपने घरको जावे . पीछे उपाध्याय, सर्वको पहिले मातृका पढावे; पीछे विप्रको प्रथम आर्यवेद पढावे, पीछे षरंगी, पीछे न्याय व्याकर्ण धर्मशास्त्र पढावे; क्षत्रियको जी ऐसेंही चतुर्दश विद्या पढावे पीछे आयुर्वेद, धनुर्वेद, दंग नीति और याजी विकाशास्त्र पढावे. वैश्यको धर्म शास्त्र, नीतिशास्त्र, कामशास्त्र और अर्थशास्त्र पढावे. शूद्रको नीतिशास्त्र और आजीविकाशास्त्र पढा वे, कारुयोंको तिनके उचित विज्ञानशास्त्र पढावे . पीछे सा धुयोंको चतुर्विध श्राहार वस्त्र पात्र पुस्तक दान देवे । इति त्रयोदशम विद्यारंभ संस्कारवर्णनं समाप्तं ॥ ६८२ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठमपरिवेद. ६३ अथ विवाह संस्कार विधिलिख्यते ॥ - विवाह जो है सो समानकुलशीलवालोंकाही होता है. यतउक्तं ॥ ययोरेव समं शीलं; ययोरेव समं कुलम् ॥ तयोमैत्री विवाहश्च, न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥१॥ तिसवास्ते समकुलशील, समजाति, जाने है देशकृत्य जिनोंके, तिनका विवाहसंबंध जोडना योग्य है; तिसवास्ते जो अविकृत है, तिसनें विकृ तकुलकी कन्या ग्रहण नही करनी । विकृतकुलं यथा। जिनकेकुलमें शरीरऊपर रोम बहुत होवे, अर्शरोग होवे, दाद होवे, चित्रकुष्टि होवे, नेत्ररोग होवे, उदररोग होवे, ऐसे वंशोंकी कन्या न ग्रहण करनी. विकृत कुल होनेसें. । कन्या विकृता यथा । वरसे लंबी होवे, हीन अंगवाली होवे, कपिला होवे, ऊंची दृष्टिवाली होवे, जिसका नाषण और नाम नयानक होवे, ऐसी कन्या विचरणोंको त्याग ने योग्य है. तथा देवता, ऋषि, ग्रह, तारा, अग्नी. नदी, वृदादिकके नामसे जो कन्या होवे, तथा जिसके शरीरऊपर बहुत रोम होवे, पिंगादी और घरघरावरवाली, ऐसी कन्या नी पाणिग्रहणमें वर्ज .नी. ॥ कन्यादाने वरस्य विकृतं कुलं यथा ॥ हीन होवे, क्रूर होवे, वधूसहित होवे, दरिखी होवे, Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनधर्मसिंधु. व्यसन (कष्ट) संयुक्त होवे, कन्यादानमें ऐसें कुल और पुरुषको वर्जना. मूर्ख, निर्धन, दूर देशमें रह नेवाला, शूर, योझा, मोदा जिलाषी, कन्यासें तीन गुणासे अधिक उमरवाला, श्नको जी कन्या न देनी. तिसवास्ते दोनों अविकृत कुलोंका, और दोनों विकृत कुलवालोंका विवाहसंबंध योग्य है. तथा पांच शुछियें देखके वधूवरका संयोग करना, सोही दिखावे हैं. राशि १, योनि २, गण ३, नामी ४, और वर्ग ५, येह पांच शुछियें दोनोंकी देखके वरवधूका संयोग करना. । कुल १, शील २, स्वामि पणा ३, विद्या ४, धन ५, शरीर ६, और वय ७, येह सातो गुण वरमें देखने, अर्थातू येह सात गुण वरमेंदेखके कन्या देनी. आगे जो होवे, सो कन्या का नाग्य है. गर्नसें आठ वर्षसे लेके ग्यारह वर्ष तांश कन्याका विवाह करना छ तिसके ऊपरांत रज खला होती है. तिसको राका जी कहते हैं. तिस का विवाह शीघ्र होना चाहिये. वरको पाकरके ___* यह कथन प्रायः लौकिकव्यवहारानुसार है. क्योंकि, जैना गममें तो “ जोवणगमणमणुपत्ता" इतिवचनात्, जब वरकन्या योवनको प्राप्त होवे, तब विवाह करना. और 'प्रवचनसारो घार' में लिखा है कि, सोलां वर्षकी स्त्री, और पच्चीस वर्षका पुरुष, तिनके संयोगसें जो संतान उत्पन्न होवे, सो बलिष्ठ होवे है. इत्यादि मूलागमसे तो बाललानका और वृध्धके विवाहका निषेध सिद्ध होता है. ॥ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. ६८५ चंद्रबलके हुए, तुच्छ महोत्सवके जी हुए, विवाह करना उचित है. यतउक्तम् ॥ वर्षमास दिनादिनां शुद्धिं राकाकरग्रहे ॥ नालोकयेच्चंद्रबलं वरं प्राप्य विधापयेत् ॥ १ ॥ पुरुषका आठ वर्षसें लेके ८० वर्षके बीच श् विवाह होना चाहिये. क्योंकि, अस्सी वर्ष उपरांत प्रायः पुरुष शुक्ररहित होता है. । विवाह दो प्रकारके होते हैं, आर्यविवाह १, पापविवाह 2. । चार्य विवाह के चार भेद हैं. ब्राय विवाह १, प्राजापत्य विवाह २, यार्षविवाह ३, और देवत विवाह ४. ये चारों विवाह मातापिताकी ज्ञासें होनेसें लौकिक व्यवहारमें धार्मिक विवा ह गिने जाते हैं. पापविवाह के जी चार भेद हैंगांधर्व विवाह १, सुरविवाह २, राक्षस विवाह ३, और पैशाच विवाह ४. ये चारों स्वेच्छानु सार कर सें पापविवाद गिने जाते हैं. । प्रथम ब्राह्वया विवाह विधि लिखते हैं | शुभ दिन में, शुभ लग्न में, पूर्वोक्त गुणसंयुक्त वरको बुलवाके स्नान अलंकार करके संयुक्त हुए तिस वरकों अलंकृत कन्या देवे ॥ मंत्रो यथा ॥ “ ॐ सर्वगुणाय सर्वविद्याय सर्वसुखाय सर्वपूजिताय सर्वशोजनाय तुभ्यं वस्त्रगंधमाल्यालं Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ६ जैनधर्मसिंधु. कारालंकृतां कन्यां ददामि प्रतिगृह्णाष्व जऊं जवतु ते अँहँ ँ ॥ " इस मंत्र करके बांचलदंपती - स्त्रीजर्ता, अपने घरमें जावे. ॥ इति धार्यो ब्राह्वय विवाहः ॥ १ ॥ प्राजापत्य विवाह जगत् में प्रसिद्ध है, इसवास्ते विस्तारसें कहेगें. ॥ या विवाह में वनमें रहनेवाले मुनि, कृषि, गृहस्थ अपनी पुत्री को, अन्यशषिके पुत्रकों, गौ बैल के साथ देते हैं. तहां अन्य कोइ उत्सवादि नही होते हैं, इस विवाहका मंत्र जैनवेदों में नही है जैनी मंत्र जैन वेदकरके वर्णादि श्राश्रित हुए जैनोंके चार कथन करनेवाले हे और ऐसें विवा ह कृत्य होनेसें जैनोकों कथन करनेकी जरुर नही हे. दैवत | विवाह में जी ऐसेंही जाणना. । इन दोनों विवाहोके मंत्र पर समयसें जाणने ॥ इति धर्म्य श्रार्षविवाहः ॥ ३ ॥ B दैवत विवाहमें तो, पिता, अपने पुरोहितकों श्ष्ट पूर्त्त कर्मके अंत में अपनी कन्याको दक्षिणाकी तरें देवे. यह कार्य जी जैनोंकों सम्मत नही होनेसें इस्के मंत्री कथन करतें नहीं हें ॥ इति दैवत धार्म्य विवादः ॥ ४ ॥ ये चार धार्म्यविवाद हैं. ॥ पिता दिकों की सम्मती विना, अन्योन्यप्रीतिकरके जो विवाह होता है, सो गांधर्व विवाह ॥ १ ॥ " Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. ६८७ · बंध, सो आसूर विवाह ॥ २ ॥ हवसे कन्या ग्रहण करे सो राक्षस विवाह ॥ ३ ॥ सुप्त, और प्रमत्तकन्याको ग्रहण करनेसें, पैशाच विवाह कहा जाता है. ॥ ४ ॥ माता, पिता, गुरु, यादिकी आज्ञा न होनेसें इन चारों विवादोंको विवाह पुरुष पापविवाह कहते हैं. ॥ तथा ब्रहाय ? २, और दैवत ३, येह तीन विवाह दुःखमका लकलियुग में प्रवर्त्तते नहीं हैं । चारों पापविवा होका वेदोक्त विधि जी नही है. धर्म होनेसें. ॥ संप्रति वर्त्तमान प्राजापत्य विवाहका विधि कह ते है ॥ मूल, अनुराधा, रोहिणी, मघा, मृगशिर, हस्त, रेवती, उत्तरा ३, स्वाति, इन नक्षत्रोंमें लग्न करना । वेध, एकार्गल, लत्ता, पात, उपग्रह संयुक्त नक्षत्रों में विवाद नही करना । तथा युति, क्रांति, साम्य, दोष में जी नहीं करना । तीन दिनको स्पर्श नेवाली तिथि में, ( यवम् दय तिथिमें ) क्रूर तिथि में, दग्ध तिथि में, ) रिक्ता तिथिमें, श्रमावास्या, अष्टमी, षष्टी, द्वादशी इनमें विवाह नही करना । नद्रा में, गंगांत में, डुष्टनक्षत्र तिथि वार योगों, व्यतिपात में, वैधृतिमें और निंद्यसमय में विवाद नही करना सूर्यके क्षेत्रमे बृहस्पति होवे और बृहस्पतिके क्षेत्रमें सूर्य होवे तो, दीक्षा, प्रति ष्टा, विवाह प्रमुख वर्जने । चौमासेमें, अधिकमा Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६न्न जैनधर्मसिंधु. समें, गुरु शुक्रके अस्त हुए, मलमासमें, और जन्म मासमें, विवाहादि न करना. । मासांतमें, संक्रांति में, संक्रांतिके दूसरे दिनमें, ग्रहणादि सात दिनोंमें नी, पूर्वोक्त कार्य नही करना. । जन्मके तिथि वार, नक्षत्र, लग्नमें; राशि और जन्मके ईश्वरके अस्त हुए, और क्रूर ग्रहोकरके हत हुए नी, विवाह नही करणा. । जन्मराशिमें, जन्मराशि और जन्मलग्नसें बारमें और आपमेमें, और लग्नके अंशके अधिपके उठे, और आपमे घरमें गए हुए, लग्न नही करना. । स्थिर लग्नमें, वा हिखनावलग्नमें, वा सगुण करी संयुक्त चर लग्नमें, उदयास्तके विशुद्ध हुए, विवाह करना. परंतु उत्पाता दिकरके विदूषितमें नही करना.। लग्न और सप्तम घर, ग्रहकरके वर्जि त होवे; तीसरे, के, और इग्यारमे घरमें, रवि, मंगल और शनि होवे। और तीसरे घरमें, तथा पापग्रहवर्जित पांचमें घरमें राहु होवे; लग्नमें तथा पांचमें, चौथे, दशमे, और नवमे घरमें बृहस्पति होवे । ऐसेंही शुक्र, बुध, होवे; लग्न, बहे, आठमे, बारमे घरसें, अन्यत्र चंडमा होवे, सो नी पूर्ण होवे. । क्रूरकरके दृष्ट, और क्रूरसंयुक्त चंड वर्जना; क्रूर, और अंतस्थ लग्न और चंड वर्जने. । इत्यादि गुणसंयुक्त, दोष विवर्जित लग्नमें, शुन्न अंशमें शुज ग्रहोंकर दृष्ट हुए, पाणिग्रहण शुन्ज है. ॥ इत्यादि Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिबेद. ६८‍ श्री जडबाहु, वराह, गर्ग, लल्ल, पृथुयशः, श्रीपति, विरचित विवाहशास्त्र के अवलोकनसें शुभ लग्न देख के विवाहका आरंभ करना. ॥ श्लोकः ॥ ततश्च कुलदेशादि गुरुवाक्य विशेषतः ॥ अनुज्ञातं विवाहादि गर्गादिमुनिभिः पुरा ॥ १ ॥ वृत्तम् ॥ सूर्यः षट् त्रिदश स्थित स्त्रिदशषट्सप्ताद्यगचंद्रमा जीवः सप्तनवद्विपंचमगतो वक्रार्कजौ षट् त्रिगौ ॥ सौम्यः षट् द्विचतुर्दशाष्टमगतः सर्वेप्युपांते शुजाः शुक्रः सप्तमषदशाष्टर हितः शार्दूलवत्रासकृत् ॥ १ ॥ स्त्रीयोंको बृहस्पति बलवान् होवे, पुरुषोंको सूर्य बलवान् होवे, और दंपती को चंद्र बलवान् होवे तो, लग्न शोधना ॥ प्रथम कन्यादानविधि कहते हैं:- पूर्वोक्त समान कुलशीलवाले, अन्य गोत्री सें कन्या मांगनी । पूर्वो क्त गुणविशिष्ट वरकेतांश कन्या देनी । कन्याके कुलज्येष्ठने वरके कुलज्येष्ठको, नालियर, क्रमुक (सुपारी) जिनोपवीत, व्रीही, दूर्वा, हरिद्रा अप ने २ देशकुलोचित वस्तु दानपूर्वक कन्यादान करना. तदा गृहस्थगुरु वेदमंत्र पढे । स यथा ॥ "“ ॥ ॐ परमसौजाग्याय, परमसुखाय, परम जोगाय, परमधर्म्माय, परमयशसे, परमसन्तानाय, ८७ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. जोगोपोगांतरायव्यवच्छेदाय, इमां अमुकनाम्नीं कन्यां अमुकगोत्रां अमुकनाम्ने वराय अमुकगोत्राय ददाति गृहाण अँहँ ॐ ॥ "" पीछे सर्व लोकोंकेतां कन्याके पक्षी तांबूल देवे । तथा दूर रहे विवाहकालमें वरके जीते हुए, सो कन्या अन्यको न देवे. उक्तंच ॥ ६० " सकृजास्पन्ति राजानस्सकृजल्पन्ति परिकताः ॥ सकृत् प्रदीयते कन्यात्री एयेतानि सकृत् सकृत् ॥ १ ॥ "" राजाओं एकवार बोलते हैं, पंकित जन एक वार बोलते हैं, कन्या एकवार दिइजाती हैं. पूर्वोक्त तीन कार्य एकएकहीवार होते हैं. ॥ तथा वर जी, तिस कन्याको वस्त्र, जरण, गंधा दिउत्सवसहित, तिसके पिताके घरमें देवे. । कन्याका पिता जी, परिजनसंयुक्त वरको महोत्सवसहित वस्त्र मुद्रि कादिक देवे. ॥ " लग्न दिन पहिले मासमें वा पक्षमें, यवकासानु सारें दोनों पक्षोंके स्वजनोंको एकट्ठे करके, सांवत्स र - ज्योतिषिकको उत्तम श्रासनऊपर बिठलाके, तिसके हाथसें विवाहलग्न भूमिके ऊपर लिखवावे; और रूप्य, स्वर्णमुद्रा, फल, पुष्प, दूर्वा करके जन्म लग्नवत् विवाहलग्नको पूजे. । पीढे ज्योतिषिको Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. ६०१ दोनों पक्षोंके वृद्ध वस्त्रालंकार तांबूलदान देना इति विवादारंजः ॥ पीछे कोरे शरावलोंमें यव बोवने । पीछे कन्या के घरमें मातृस्थापना, और षष्ठी स्थापना, षष्ठी पूजनविधिके प्रकारसें करना । वरके घरमें मातृ स्थापन, और कुलकरस्थापन करना । परमतमें गण पति, कंदर्प स्थापन करते हैं. सो सुगम, और लोक प्रसिद्ध है. ॥ कुलकर स्थापन विधि कहते हैं. ॥ गृहस्थ गुरु भूमिपर नहीं पडे गोमय (गोबर) करके लीपी हुई भूमिमें, स्वर्णमय, रूप्यमय, ताम्रमय, वा श्रीप काष्ठमय, पट्टा, स्थापन करे । पट्टकस्थापन मंत्रः ॥ ॐ आधाराय नमः आधारशक्तये नमः । इस मंत्र करके एकवार मंत्रके पट्टेको स्थापन करके, तिस पट्टेको अमृतामंत्रकरके तीर्थजलोंसें निषिंचन करके । पीछे चंदन, अक्षत, दूर्वाकरके पट्टेको पूजे. । पीछे खादिमें. " 66 ॥ ॐ नमः प्रथमकुलकराय, कांचनवर्णाय, श्या मवर्ण चंद्रयशः प्रियतमासहिताय, हाकारमात्रोच्चा रख्यापितन्याय्यपथाय, विमलवाहनानिधानाय, श्ह विवाह महोत्सवादौ श्राग २, इह स्थाने तिष्ट २, सन्निहितो जव २, देमदो नव १, उत्सवदो जव २, आनंददो जव २, जोगदो जव २, कीर्तिदो जव २, Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६‍ जैनधर्मसिंधु. अपत्यसंतानदो जव २, स्नेहदो जव २, राज्यदो जव २, इदमर्घ्यं पाद्यं बलिं चर्चा आचमनीयं गृहाण २, सर्वोपचारान् गृहाण ॥ " २, पीछे ॥ ። ॥ गंधं नमः । ॐ पुष्पं नमः । ॐ धूपं नमः । ॐ दीपं नमः । ॐ उपवीतं नमः । ॐ भूषणं नमः । ॐ नैवेद्यं नमः । ॐ तांबूलं नमः ॥ "" पूर्वोक्त मंत्रकरी आव्हान संस्थापन करके, इस मंत्र से अर्घ्य, पाद्य, बलि, चर्चा, श्राचमनीय, दान देवे. यह बोटे मंत्रोंसें गंधके दो तिलक, दो पुष्प, दो धूप, दो दीप, एक उपवीत, दो स्वर्णमुद्रा, दो नैवेद्य, दो तांबूल, चढावे. ॥ १ ॥ पीछे दूसरे स्थानमें ॥ " ॥ ॐ नमो द्वितीयकुलकराय, श्यामवर्णय, श्या मवर्णचंद्रकांता प्रियतमासहिताय, हाकारमात्रख्या पितन्याय्यपथाय, चक्षुष्मदनिधानाय ॥” शेषं पूर्ववत् ॥ २ ॥ “ ॥ ॐ नमस्तृतीयकुलकराय, श्यामवर्णाय, श्याम वर्णसुरूपा प्रियतमास हिताय माकारमात्रख्यापितन्या य्यपथाय यशस्वा निधानाय ॥ " ॥ शेषं पूर्ववत् ॥ “ ॥ ॐ नमश्चतुर्थकुलकराय, श्वेतवर्णाय, श्याम वर्णप्रतिरूपा प्रियतमास हिताय, माकरमात्रख्यापित न्याय्यपथाय, अनिचंद्रा निधानाय ॥ " शेषं पूर्ववत् ॥ “ ॥ ॐ नमः पंचमकुलकराय, श्यामवर्णाय, श्या मवर्णचकुः कांता प्रियतमास हिताय, धिक्कारमात्रख्या Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ६३ पितन्याय्यपथाय प्रसेनजिदनिधानाय ॥” शेषं पूर्ववत् ॥५॥ '" ॥ ॐ नम षष्ठकुलकराय, स्वर्णवर्णाय, श्यामव श्रीकांताप्रियतमासहिताय,धिक्कारमात्रख्यापितन्या य्यपथाय मरुदेवानिधानाय, ॥” शेषं पूर्ववत् ॥६॥ __“॥ ॐ नमः सप्तमकुलकराय, कांचनवाय, श्या मवर्णमरुदेवा प्रियतमासहिताय, धिक्कारमात्रख्यापित न्याय्यपथाय, नाजीअनिधानाय ॥” शेषं पूर्ववत् ॥ ॥७॥ इतिकुलकरस्थापन पूजन विधिः॥ _ यह कुलकरस्थापना और परसमयमें गणेशमदन स्थापना, विवाहके पीछेनी सात अहोरात्रपर्यंत रखनी चाहिये । पीजे वरके घरमें शांतिक, पौष्टिक करे. और कन्याके घरमें मातृपूजा पूर्ववत् । पीले विवाहकालसें पूर्व सात, नव, ग्यारह, वा तेरह, दिनोंमें वधूवरको अपने ५ घरमें, मंगलगीतवाजंत्र पूर्वक, तैलानिषेक और स्नान, नित्य विवाहपर्यंत करानाः। प्रथमतैलानिषेकदिनमें, वरके घरसे कन्या के घरमें, तैल, शिरःप्रसाधनगंधजव्य, प्रादादि खाद्य, शुष्कफल, नेजने. । नगरकी औरतें वरके घरमें और कन्याके घरमें, तैल, धान्य, ढोकन करें। वधूवरके घरकी वृद्ध नारीयों तिन तैल धान्यढौकने वाली नारीयोंको, पूडे श्रादि पक्कान्न देवें । तहां धारणादि देशाचार, कुलाचारोंसें करना । तैलानि Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ए। जैनधर्मसिंधु. षेक, कुलकर गणेशादि स्थापन, कंकणबंध, अन्य विवाहके उपचारदिक सर्व, वधूवरको चंबलके हुए, विवाहवाले नक्षत्र में करना. । तथा धूलिजक्त, कौर जक्त, सौनाग्यजलल्यावन प्रमुख, कर्म, मंगलगीत वाजंत्रादिसहित देशाचार कुलार विशेषसें करना.। पी जेकर, वर, अन्य ग्रामांतर, नगरांतर, वा देशांतरमें होवे तो, तिसकी गमनयात्रा (जान जनेत बरात) कन्याके निवासस्थानप्रति करनी; तिसका विधि यह है.॥ - प्रथम एक दिनमें मातृपूर्वक सर्व लोकोंको जोजन देना; पीछे दूसरे दिन सुनात होके, चंदन का लेपन करके, वस्त्रगंधमादयादिकरके अलंकृत होके, मुकुट नूषित शिरको करके, घोडेपर, वा हाथी पर, वा पालखीमें श्रारूढ होके, वर चले. । तिसके समीप, अच्छे वस्त्रोंवाले, प्रमोदसहित, पानबीडे चावे हुए, संबंधी ज्ञातिजन, अपनी ५ संपदानु सार घोडेआदि ऊपर चढे हुवे, वा पगोंसें चलते हुए, वरकेसाथ चलें । दोनों पासे, मंगलगानमें तत्पर ऐसी झातिकी नारीयां चलें और आगे जैन ब्राह्मणलोक, गृहशांतिमंत्र पढते हुए चलें. ॥ __“ अँह श्रादिमोहन, श्रादिमो नृपः, श्रादि मो यंता, श्रादिमो नियंता, श्रादिमो गुरुः, आदिमः स्रष्टा, आदिमः कर्ता, आदिमो जर्ता, श्रादिमो Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ६५ जयी, श्रादिमो नयी, आदिमः शिल्पी, आदिमो विछान्, आदिमो जल्पकः, आदिमः शास्ता, आदि मो रौः, श्रादिमः सौम्य, श्रादिमः काम्यः, आदि मः, शरएयः, आदिमो दाता, आदिमो वंद्यः, आदि मः स्तुत्यः, श्रादिमो ज्ञेयः, श्रादिमो ध्येयः, आदि मो नोक्ता, श्रादिमः सोढा, श्रादिम एकः, आदि मोऽनेकः, आदिमः स्थूलः, श्रादिमः कर्मवान् श्रादिमोऽकर्मा, श्रादिमो धर्मवित्, श्रादिमोऽनुष्टे यः, श्रादिमोऽनुष्ठाता, आदिमः सहजः, श्रादिमो दशावान् श्रादिमः सकलत्रः, श्रादिमो निःकलत्रः, श्रादिमो विवोढा, आदिमः ख्यापकः, श्रादिमो झापकः, श्रादिमो विरः, आदिमः कुशलः, श्रादि मो वैज्ञानिकः, आदिमः सेव्यः, आदिमोगम्यः, श्रादिमो विमृश्यः, श्रादिमो विम्रष्टा, सुरासुरनरोरग प्रणतः, प्राप्त विमलकेवलो यो गीयते, सकलप्राणि गणहितो, दयाखुरपरापेदापरात्मा, परंज्योतिः, परं ब्रह्मा, परमैश्वर्यनाक्, परंपरः, परापरो, जगत्तमः, सर्वगः, सर्व वित्, सर्व जित्, सर्वीयः, सर्वप्रकास्यः सर्ववंद्यः, सर्वपूज्यः, सर्वात्माऽसंसारोऽव्ययोऽवार्यवी यः, श्रीसंश्रयः, श्रेयः, संश्रयः, विश्वावश्यायहृत् , संशयहृत्, विश्वसारो, निरंजनो, निर्मम्मो, निकलं को, निःपाप्मा, निःपुण्यः, निर्मना, निर्वाचा, निर्देहो, निःसंशयो,निराधारो,निरवधिःप्रमाणं,प्रमेयं,प्रमाता, Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ए६ जैनधर्मसिंधु जीवाजीवाश्रवबंधसंवरनिर्जराबंधमोक्षप्रकाशकः, स एव जगवान् , शान्तिं करोतु, तुष्टिं करोतु, पुष्टिं करोतु, शर्मि करोतु, वृद्धिं करोतु, सुखं करोतु, सौख्यं करोतु, श्रियं करोतु, लदमीं करोतु अहँ ॥ ऐसें आर्यवेदके पाठी ब्राह्मण, आगे चलें। पी इसी विधिसे महोत्सवकरके, चैत्यपरिपाटी, गुरुवंदन, मंमली पूजन, नगरदेवतादिपूजन, करके, नगरके समीप रहे; पीजे पंथमें चलें । तथा इसी रीतिसे कन्याधिष्ठित नगरमें प्रवेश करना.। तिसही नगरमें विवादकेवास्ते चले हुए वरका नी, यही विधि जाणनाः । तथा नित्यस्नानके अनंतर कौसुन सूत्रकरके वधूवरके शरीरका माप करना. । पीने विवाह दिनके आये हुए, विवाहलग्नसे पहिले, तिस ही नगरका वासी, वा अन्यदेशसें आया वर, तिस ही पूर्वोक्त विधिसें, पाणिग्रहणकेवास्ते चले. तिस की बहिन विशेषकरके लूणश्रादि उत्तारण करे। पीले वर, श्रागंबर और गृहस्थगुरुसहित कन्याके घरके छारमें आवे. तहां खडे हुए वरको, तिसके सासुजन, कपुरदीपकादिकरके आरात्रिक (श्रारति) करे। पीछे अन्य स्त्री, जलते हुए अंगारे, और लवणकरके संयुक्त, त्रम त्रम ऐसे शब्द करते हुए, सरावसंपुटको, वरको निलंबन करके, प्रवेशमार्गके वामे पासे स्थापन करे. । पीछे अन्य स्त्री कौसुं Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. ६७ जसूत्र अलंकृत, मंथानको लाके, तिसरों, तीन वार वरके ललाटको स्पर्श करे । पीछे वर, वाहन सें नीचे उतरके, वामे पगसे तिस अग्निलवण संयुतसंपुटको खंगित करे ( तोडे. ) पीछे वरकी सासु, वा कन्याकी मामी, वा कन्याका मामा, कौसुं जवस्त्रको वरके कंठमें मालके, खेचता हुआ वरको मातृघरमें ले जावे. तहां विभूषाकरके, कौतुकमंग लकरके, प्रथम श्रासन ऊपर बैठी हुई कन्याके वामे पासे, मातृदेवीके सन्मुख, वरको बितलावे. । पीछे गृहस्थगुरु लग्नवेला में शुभांशके हुए, पीसी हुई समी (खेजी) की बाल, और पीपलिकी बाल, चंदनद्रव्य मिश्रितकरके, तिससें लीपे हुए, वधूवरके दोनों दक्षिण हाथ जोडे । उपर कौसुंनसूत्रसें बांधे ॥ हस्तबंधनमंत्रः ॥ “ ॥ ॐ आत्मासि, जीवोसि, समकालो सि, समचित्तोसि, समकर्मासि, समाश्रयोसि, समदेहो सि, सम कि यो सि, समस्नेहो सि, समचेष्टितो सि, समाजिला षोसि, समेच्छोसि, समप्रमोदोसि समविषादो सि, समावस्थोसि, समनिमित्तोसि, समवचाासि, सम कुत्तष्णोसि, समगमोसि, समागमोसि, समविहा रोसि, समविषयोसि, समशब्दोसि समरूपो सि, समगंधोसि, समस्पर्शोसि, समेंद्रियोसि समाश्रवो सि, समबंधोसि, समसंवरोसि, सम निर्जरोसि, सम 1 ८८ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A. ६एज जैनधर्मसिंधु. मोहोसि, तत् एहि एकत्वमिदानी अँई 3॥" इति हस्तबंधनमंत्रः॥ ___ यहां समयांतरमें (वैदिक मतमें) मधुपर्क नक्षण, देशांतरमें वरको दो गौयां देनी, और कुलांतरमें कन्याको श्रारण पहिरावणे, इत्यादि करते हैं । पीले वधुवरको मातृघरमें बैठे हुए, कन्याके पदी, वेदिकी रचना करें; तिसका विधि यह है. ॥ कितनेक काष्ठस्तंज काष्टाच्छादनोंकरके चौकूणी वेदी करते हैं; और कितनेक चारों कूणोंमें स्वर्ण, रूप्य, ताम्र,वामाटीके सात सात कलशोंको ऊपर लघु, लघु, अर्थात् प्रथम बमा उसके ऊपर बोटा, उसके ऊप र फिर बोटा, एवं स्थापन करके चारों पासे चार चार श्रार्ड वांसोंसे बांधके वेदि करते हैं. चारों बारणोंमें वस्त्रमय, वा काष्ठमय तोरण, और चंदन मालिका बांधते हैं; और अंदर त्रिकोण अग्निका कुंम करते हैं.। वेदी बनाया पीने गृहस्थगुरु, पूर्वो क वेष धारण करके वेदिकी प्रतिष्टा करे.। तिस का विधि यह है. ॥ वास पुष्प अक्षतों से हाथ जरके ॥ ____ नमः क्षेत्रदेवतायै शिवायै दाँ दी हुँ दाँ दः इह विवाहमंडपे आगच्छ २ श्ह बलिपरिजोग्यं गृह्ण नोगं देहि,सुखं देहि, संततिं देहि यशोदेहि, Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६॥ अष्टमपरिछेद. शकिं, देहि, वृद्धिं देहि, बुकिं देहि, सर्वसमीहितं देहि, २ स्वाहा ॥" ऐसें पढके चारों कोणोंमें न्यारेन्यारे वास, माल्य, अदत, देप करना; तोरणकी प्रतिष्ठानी ऐसेंही करनी. तन्मंत्रो यथा ॥ ___“ ही श्री नमो हारश्रिये, सर्वपूजिते, सर्व मानिते, सर्वप्रधाने, इह तोरणस्थासर्वसमाहितं देहि २ स्वाहा ॥"॥ इतितोरणप्रतिष्टा ॥ पीले वेदिके मध्य में अग्निकोणेमें अग्निकुंममें मंत्रपूर्वक अग्निको स्थापन करे. । अग्निस्थापन मंत्रो यथा ॥ __“॥ ॐ रां री रूं रौं रः नमोअग्नये, नमो बृह नानवे, नमोनंततेजसे, नमोनंतवीर्याय, नमोनंतर णाय, नमो हिरण्यरेतसे, नमबागवाहनाय, नमो हव्यासनाय, अत्र कुंडे आगच्छ २ अवतर ५ तिष्ट २ स्वाहा ॥” ___ समयांतरमें, देशांतरमें वा कुलांतरमें, वेद्यंतर मेंही, हस्तलेपन करते हैं. देश कुलाचारादिमें मधु पर्क प्राशनके अनंतर, वेदि; और हस्तक्षेपसे पहि ले परस्पर कंबायुझ, वधूवरास्फालन, वेमानयन, मणिग्रथन, स्नान, नाष्टकर्म, पर्याणकर्म, वस्त्रकौसुं जसूत्रांतःकर्षणप्रमुख, कर्म करते हैं. वे देश विशे षलोकोंसें जाण लेने. व्यवहार शास्त्रों में नही कहे Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo जैनधर्मसिंधु. हे परंतु स्त्रीयोंको सौनाग्यप्राप्तिवास्ते, शौक श्रादि न होवे तिसके वास्ते, वरको वशीनूत करनेके वास्ते करते हैं. ॥ __ पीने युक्त हाथवाले, नारी और नरकी कटी उपर चढे हुए वधूवर दोनोंको, गीतवाजंत्रादि बहु त श्रामबरसें दक्षिण छारसें प्रवेश कराके वेदिके मध्यमें लावे. । पीले देशकुलाचारसे काष्टासनोंके ऊपर, वा वेत्रासनोंके ऊपर, वा सिंहासनके ऊपर, वा अधोमुखी शरमय खारीके ऊपर, वधूवरको पूर्व सन्मुख बिठलावे. । तथा हस्तलेपमें, और वेदिक ममें कुलाचारके अनुसार दसियां सहित कौरवस्त्र, वा कौसुनवस्त्र, वा खजाववस्त्र वधूवरको पहिरावे पीले गृहस्थगुरु, उत्तरसन्मुख मृगचर्म ऊपर वेगहुश्रा, शमी, पिप्पल, कपित्थ ( कवठ-एतवे ल) कुटज (कुडची-जिस वृक्षाका फल इंजयव होता है,) बिब्ब, श्रामलकके इंधनकरके अग्निको जगाके, इस मंत्रकरके घृत मधु तिल यव नाना फलोंका हवन करे ॥ मंत्रो यथा ॥ __ “॥ अह अग्ने प्रसन्नः, सावधानो जव, तवाय मवसरः, तदाहारयें यमं नैऋतं वरुणं वायुं कुबेरमी शानं नागान् ब्रह्माणं लोकपालान् ग्रहांश्च सूर्यशशि कुजसौम्यबृहस्पतिकविश निराहकेतून सुरांश्चअसुरना गसुपर्ण विद्युदग्निहीपोदधिदिक्कुमारान् जुवनपतीन् Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ०१ पिशाचनूतयदराक्षसकिन्नरकिंपुरुषमहोरगगंधर्वान् व्यंतरान् चंद्रार्कग्रहनक्षत्रतारकान् ज्योतिष्कान् सौध म्र्मेशान् सनत्कुमारमाहेंब्रह्मलांतकशुक्रसहस्रारान तप्राणतारणाच्युतप्रैवेयकानुत्तरजवान् वैमानिकान् इंअसामानिकपार्षद्यत्रायस्त्रिंशलोकपालानीकप्रकीर्णक लौकांतिकानियोगिकनेदजिन्नांश्चतुर्णिकायानपि स जार्यान् सायुधबलवाहनान् स्वस्खोपल हितचिहान् अप्सरसश्च परिगृहितापरिगृहितन्नेदनिन्नाः सस खिकाः सदासिकाः साजरणा रुचकवासिनीदिक्कुम रिकाश्च सर्वाः समुपनदी गिर्याकरवनदेवतास्तदेतान् सर्वान् सर्वाश्च श्दमयं पाद्यमाचमनीयं बलिं चरुं हुतं न्यस्तं ग्राहय र स्वयं गृहाण र स्वाहा अहँ उँ॥" पी अछीतरें हुत करके प्रदीप्त अग्निके हुए, गृहस्थगुरु, तहांसें उठके दक्षिणपासे स्थित हुई वधूके सन्मुख बैठके, ऐसा कहे.॥ ___“॥ अह इदमासनमध्यासीनौ, स्वध्यासी नौ, स्थितौ, सुस्थितौ, तदस्तु वां, सनातन संगमः, अर्ह जे ॥” ऐसें कहके कुशाग्रतीर्थोदककरके दोनोंको सींचन करे. । पीछे वधूका पितामह, वा पिता, वा चाचा, वा नाश् वा मातामह, वा कुलज्येष्ठ, धर्मानुष्टान करके उचित वेषवाला, वधूवरके आगे बैठे.। शांति क पौष्टिकसे आरंजके विवाहसे मासपर्यंत मंगल Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०५ जैनधर्मसिंधु. गान, वादित्रवादन, लोजन तांबूल वस्त्र सामग्री सदैव करनेचहिये। पीछे गुरु ॥ “॥ ॐ नमोई सिकाचार्योपाध्यायसर्वसाधुन्यः ॥” ऐसें कहके, प्रथम श्रदतपूर्ण हाथवाला होके वधूवरके आगे ऐसा कहे. ॥ विदितं वां गोत्रं संबंधकरणेनैव ततःप्रका श्यतां जनाग्रतः” __ जाना है तुमारा गोत्र, संबंध करनेसेंही; तिस वास्ते प्रकाश करो, लोकोंके आगे.। तब प्रथम वरके पक्षीय, अपने गोत्र, अपनी प्रवर, झाति और अपने अन्वय-वंशको प्रकाश करे,। पीछे वरकी माताके पदीय, गोत्र, प्रवर, झाति, और वंशको प्रकाश करे.। पीले कन्याके पदीय, अपने गोत्र, प्रवर झाति, वंशको प्रकाश करे.। फिर कन्याकी मा ताके पदीय, गोत्र, प्रवर, झाति, वंशको प्रकाश करे.। पी गुरु.॥ - “॥ अह अमुकगोत्रीयः, श्यत्प्रवरः, अमुक झातिः, अमुकान्वयः, अमुकप्रपौत्रः,अमुकपौत्रः अमु कपुत्रः, अमुकगोत्रीयः, श्यत्प्रवर अमुकज्ञातीयः, श्र मुकान्वयः, अमुकप्रदौहित्रः, अमुकदौहित्रः, अमुकः सर्ववरगुणान्वितो, वरयिता, अमुकगोत्रीया, श्यत्प्रव रा,अमुकशातीया,अमुकान्वया, अमुकप्रपौत्री,अमुक पौत्री, अमुकपुत्री, अमुकगोत्रीया, श्यत्प्रवरा, अमुक Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ०३ झातीया,अमुकान्वया, अमुकप्रदौहित्री, अमुकदौहि त्रीश्रमका वा तदेतयोर्वर्यावरयोर्वरवर्ययोनि वि मो विवाहसंबंधोस्तु शांतिरस्तु, तुष्टिरस्तु, पुष्टिरस्तु, धृतिरस्तु, बुझिरस्तु, धनसंतानवृझिरस्तु,अहँ ॥" ऐसें कहे॥ पीने गुरु, वरवधूके पाससें गंध, पुष्प, धूप, नैवेद्य करके अग्निकी पूजा करावे. । पीने वधू लाजांजलिको अग्निमें निदेप करे.। पीछे फिर तैसेंही दक्षिण पासे वधू, और वामे पासे वर बैठे। पीछे गुरु वेदमंत्र पढे. ___“॥ अहँ अनादिविश्वमनादिरात्मा, अनादि कालः, अनादिकर्म, अनादिसंबंधो, देहिनां, देहानु मतानुगतानां, क्रोधोहंकारबद्मलोनैः, संज्वलनप्रत्या ख्यानावरणाप्रत्याख्यानानंतानुबंधिनिः शब्दरूपरस गंधस्प रिहानिछापरिसंकलितैः संबंधो अनुबंधः प्रतिबंधः संयोगः सुगमः सुकृतः स्वनुष्टितः सुनिवृत्तः सुप्राप्तः सुलब्धो ऽव्यजावविशेषेण अहँ उँ॥” यह मंत्र पढके फेर ऐसा कहे. .. __“॥ तदस्तु वां सिम्प्रत्यदं केवलिप्रत्यदं चतु र्णिकायदेवप्रत्यहं विवाहप्रधानाग्निप्रत्यहं नागप्रत्यदं नरनारीप्रत्यदं नृप्रत्यदं जनप्रत्यदं मातृप्रत्यदं पितृप्रत्यदं मातृपक्षप्रत्यदं पितृपक्षप्रत्यदं झाति Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनधर्मसिंधु. स्वजनबंधुप्रत्यदं संबंधः सुकृतः सदनुष्ठितः सुप्राप्तः सुसंगतः तत्प्रदक्षिणी क्रियतां तेजोरा शिर्विजावसुः॥" ऐसें कहके तैसेंही ग्रथित अंचल वरवधू, अग्निकी प्रदक्षिणा करें. तैसें प्रदक्षिणाकरके तैसेंही पूर्वरी तिसें बैठे. लाजांजलीकी तीनों प्रदक्षिणामें आगे वधू और पीने वर हो. दक्षिण पासे वधूका श्रासन, औरवामे पासे वरका श्रासन.॥इति प्रथमलाजाकर्म। पीछे वरवधूके श्रासन ऊपर बैठे हुए, वेद मंत्र पढे. __“॥ अहँ कर्मास्ति मोहनीयमस्ति दीर्घस्थि त्यस्ति निविममस्ति उद्यमस्ति अष्टाविंशतिप्रकृ त्यस्ति क्रोधोस्ति मानोस्ति मायास्ति लोलोस्ति संज्व लनोस्ति प्रत्याख्यानावरणोस्ति अप्रत्याख्यानोस्ति अनंतानुबंध्यस्ति चतुश्चतुर्विधोस्ति हास्यमस्ति रति रस्ति अरतिरस्ति जयमस्ति जुगुप्सरस्ति शोको स्ति पुंवेदोस्ति स्त्रीवेदोस्ति नपुंसकवेदोस्ति मिथ्यात्व मस्ति मिश्रमस्ति सम्यक्त्वमस्ति सप्तति कोटाकोटि सागरस्थित्यस्ति अहँ उँ ॥” यह वेदमंत्र पढके ऐसा कहे. “॥ तदस्तु वां निकाचितनिविमबजमोहनीयक र्मोदयकृतः स्नेहःसुकृतोस्तु सुनिष्टितोस्तु सुसंबंधोस्तु आजवमदयोस्तु तत् प्रदक्षिणी क्रियतां विजावसुः॥" फेर जी तैसेंही अग्निकी प्रदक्षिणा करे ॥ इति हितीयलाजाकर्म ॥ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठमपरिजेद. उ०५. चारोंही लाजामें प्रदक्षिणाके प्रारंजमें वधू, अग्निमें लाजामुष्टि प्रदेप करे. पीछे तिन दोनोंके तैसेंही बैठे हुए, गुरु, ऐसा वेदमंत्र पढे. __“॥ अहँ कर्मास्ति, वेदनीयमस्ति,सातमस्ति, असातमस्ति, सुवेद्यं सातं, पुर्वेद्यमसातं, सुवर्गणाश्र वणं सातं, पुर्वर्गणाश्रवणमसातं, शुनपुनलदर्शनं सातं, छःपुमलदर्शनमसातं, शुजषट्रसास्वादनं सातं, श्रशुलषट्रसास्वादनमसातं, शुनगंधाघ्राणं सातं, अशुनगंधाघ्राणमसातं, शुनपुद्गलस्पर्शः सातं, अशु जपुनलस्पर्शोऽसातं, सर्वं सुखकृत् सातं, फुःखकृद सातं, अँह में इस वेदमंत्रको पढके ऐसें कहे. ___“॥ तदस्तु वां सातवेदनीयं माजूदसातवेदनीयं तत् प्रदक्षिणी क्रियतां विनावसुः ॥” । इति पुनः अग्निको प्रदक्षिणा करके वधूवर दोनों तैसेंही बैठ जावे. ॥ इति तृतीयलाजाकर्म ॥ पीने गुरु ऐसा वेदमंत्र पढे. ___“॥ ॐ अँह सहजोस्ति, स्वजावो स्ति,संबंधोस्ति, प्रतिबद्धोस्ति,मोहनीयमस्ति, वेदनीयमस्ति, नामास्ति, गोत्रमस्ति, आयुरस्ति, हेतुरस्ति, आश्रवबझमस्ति,क्रि याबझमस्ति,कायबझमस्ति,सांसारिकसंबंधःअँह ॥ - ऐसा वेदमंत्र पढके, कन्याके पिताके, चाचेके, जाश्के वा कुलज्येष्टके, हाथको तिलयवकुशदूर्वासं युक्त जलसें पूरके, ऐसे कहे. Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ जैनधर्मसिंधु. ___“॥ अद्य अमुकसंवत्सरे,अमुकायने,अमुकश्तौ , अमुकमासे, अमुकपदे, अमुकतिथौ, अमुकवारे, अमु कनदत्रे, अमुकयोगे, अमुककरणे, अमुकमुहूत्र्ते, पूर्व कर्मसंबंधानुबकवस्त्रगंधमाव्यालंकृतां सुवर्णरूप्यमणि नूषण नूषितां ददात्ययं प्रतिगृह्णीष्व ॥” ऐसें कहके वधूवरके योजित हाथमें जलक्षेप करे.। तब वर कहे. "प्रतिगृह्णामि " तदनंतर गुरु कहे. __ " सुप्रतिगृहीतास्तु, शांतिरस्तु, पुष्टिरस्तु, शकि रस्तु, वृफिरस्तु,धनसंतानवृद्धिरस्तु, ॥" पीने प्रथम तीन लाजामें कन्याके हाथ ऊपर थे अब कन्याके हाथको नीचे करे, और वरके हाथको ऊपर करे, पीले वरवधूको आसनसे जगकर वरको आगे करे, और वधूको पीछे करे. । पीने लाजाकी मुष्टि अग्निमें प्रक्षेप करकेगुरु ऐसें कहे. “प्रददि णी क्रियतां विनावसुः” वर वधूको प्रदक्षिणा करते हुए, कन्याका पिता, यावत् कन्याका कुलज्येष्ट, वरवधूके देनेयोग्य वस्त्र, श्राजरण, स्वर्ण, रूप्य, रत्न, तान, काश्य, नूमि, निष्क्रय, हाथी, घोमा, दासी, गौ, बैल, पल्यंक, तूलिका, उत्सीर्षक, दीप, शस्त्र, पाकके लांडे, श्रादि सर्व वस्तुको वेदिमें व्यावे. । और जी तिसके नाइ, संबंधी, मित्रादि, खसंप दाके अनुसारसें देने योग्य वस्तुयें वेदिमें ल्यावे. । पी प्रदक्षिणाके अंतमें वरवधू, तैसेंही आसन Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ऊपर बैठें. नवरं इतना विशेष है कि, चतुर्थ लाजा के नंतर वरका आसन दक्षिण पासे, और वधू, का आसन वामे पासे करणा । पीछे गुरु, कुश दूर्वा अक्षत वास करके हस्त पूर्ण हुआ था, ऐसें कहे. ॥ शक्रादिदेवको टिपरिवृतो जोग्यफलकर्म जोगा य संसारिजीवव्यवहारमार्गसंदर्शनाय, सुनंदासुमं गले पर्यणैषीत्, ज्ञातमज्ञातं वा तदनुष्ठानमनुष्टितमस्तु” "" ऐसें कह के वास, दूर्वा, अक्षत, कुशको वरवधू के मस्तक ऊपर देप करे । पीछे गुरुके कहने सें वधूका पिता, जल, यव, तिलका तेल हाथमें लेके, ऐसें कहे. सुदायंददामि प्रतिग्रहाण तब वर कहे " प्रतिगृह्णामि प्रतिगृहीतं परिगृहीतं " गुरु कहे " सुगृहीतमस्तु सुपरिगृहीतमस्तु " पुनः तैसें । वस्त्र, भूषण, हस्ति, अश्वादि दाय, देनेमें वधूके पिताका, और वरका यही वाक्य, और यही विधि है । पीछे सर्व वस्तु के दीए हुए गुरु ऐसें कहे. " ॥ वधूवरौवां, पूर्वकर्मानुबंधेन, निबिडेन, निका चितबद्धेन, अनुपवर्त्तनीयेन, छापातनीयेन, अनुपायेन, अथेन, अवश्यजोग्येन, विवाहः प्रतिबद्धो बनूव, तदस्त्वखं गतोऽक्षयोऽव्ययो निरपायो, निर्व्याबाधः, सुखदोस्तु, शांतिरस्तु, पुष्टिरस्तु, रुद्धिरस्तु, वृद्धिरस्तु, धनसंतान वृद्धिरस्तु ॥ "" ऐसा कहके तीर्थोदकोंकरके कुशाग्रसें सिंचन GOD Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១០០ _ जैनधर्मसिंधु. करे. । फेर गुरु तैसेंही वधूवरको उगके मातृघरमें खे जावे, तहां ले जाके वधूवरको ऐसें कहे. . “॥ अनुष्ठितो वां, विवाहो, वत्सौ, सस्नेही सनो गौ, सायुषौ, सधर्मों, समःखसुखौ, समशत्रुमित्रो, समगुणदोषौ, समवाङ्मनःकायौ, समाचारौ, सम गुणौ, नवतां ॥" - पी कन्याका पिता, करमोचनकेवास्ते गुरुप्रतें कहे। तब गुरु ऐसा वेदमंत्र पढे. ___“॥ ॐ अर्ह जीवत्वं कर्मणा बकः, ज्ञानावर णेन बकः, दर्शनावरणेन बफः, वेदनीयेन बकः, मोह नीयेन बफः,आयुषा बकः, नाम्ना बहः, गोत्रेण बकः, अंतरायेण बकः, प्रकृत्या बझः, स्थित्या बकः, रसेन बकः, प्रदेशेन बकः, तदस्तु ते मोदो गुणस्थानारो हक्रमेण अर्ह ॥” इस वेदमंत्रको पढके फेर ऐसें कहे. मुक्तयोः करयोरस्तु वां स्नेहसंबंधोऽखंडितः ॥" - ऐसें कहके करमोचन करे. । कन्याका पिता कर मोचनपर्वमें जामातृ (जमाइ) के मांगेप्रमाण, वसं पत्तिके अनुसार बहुत वस्तु देवे. । दान विधि, पूर्व मंत्रसेंही जानना । पीने मातृघरसे ऊउके, फेर वेदिघरमें थावें. पीने गुरु, श्रासनऊपर बैठे दोनोंको ऐसें कहे. - “॥ वृत्तम् । पूर्व युगादिनगवान् विधिनैव येन, Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. Jou विश्वस्य कार्यकृतये किल पर्यणैषीत् ॥ नार्याद्वयं तद मुना विधिनास्तु युग्म, मेतत्सुकामपरिजोगफला नुबंधि ॥ १ ॥ " ऐसें कहके पूर्वोक्त विधिसें चलमोचन करके " वत्सौलब्ध विषयौ जवतां " ऐसें गुरुअनुज्ञात दोनो दंपती - स्त्रीजर्त्ता, विविध विलासिनीयोंके गए सें वेष्टित, श्रृंगारगृह में प्रवेश करें. । तहां पूर्वस्थापित मदनकी कुलवृद्धानुसार पूजा करे. । पीछे तहां वधूवरको समहीकालमें कीरान्नजोजन कराना. पीछे यथायुक्तिकरके शयन गृहमें जावे । · पीछे तिसही श्रागमनरीतिकरके उत्सवसहि त अपने घरको जावे । पीछे वरके मातापिता, वर को निरंन मंगल विधी स्वदेशकुलाचारकरके करे. । कंकणबंधन, कंकणमोचन, द्यूतक्रीमा, वेणीग्रंथनादि, सर्व कर्म जी, तिस २ देशकुलाचारकरके करणे चाहिये । विवाद से पहिले वधूवर दोनोंके पक्ष में जोजन देना । तदनंतर धूलिनक्त, जन्यनक्त, यदि देश कुलाचारसें करणे । पीछे सात दिनके नं तर वरवधू विसर्जन करना, तिसका विधि यह है. सात दिनतक विविध नक्तिसें पूजित जमाइको, । * इस कथनसें यो यही सिद्ध होता है कि यौवनप्राप्तोंकाही विवाह होना चाहिये क्योंकि उसहि समय कामक्रीमा करनेका विधि इस ग्रंथ में लिखा है. Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनधर्मसिंधु. पूर्वोक्त रीतिसें अंचलग्रंथन करके अनेक वस्तुदान पूर्वक तिसही श्राबरसें खगृहको पहुंचावे. । पीले सात रात्रिपर्यंत, वा मासपर्यंत, वा मासपर्यंत, वा वर्षपर्यंत स्वकुलसंपत्तिदेशाचारानुसार महोत्सव कर ना. सात रात्रिके अनंतर, वा मासअनंतर, कुला चारानुसारकरके कन्याके पदमें पूर्वोक्त रीतिकरके मातृविसर्जन करना.-गणपतिमदनादिविसर्जन विधि लोकमें प्रसिद्ध है. और वरपदमें कुलकर विसर्ज नविधि लिखते हैं। कुलकरस्थापनानंतर, नित्य कुल करकी पूजा करनी. । विसर्जनकालमे कुलकरोंका प्रजन करके, गुरु प्रर्ववत् “अमुककुलकराय" इत्यादि संपूर्णमंत्र पढके “ पुनरागमनाय स्वाहा" ऐसें सर्वकुलकरोंको विसर्जन करे. ॥ पीछे यह पढे. " श्राशाहीनं क्रियाहीनं मंत्रहीनं च यत्कृतं ॥ तत्सर्वं कृपया देव दमख परमेश्वर ॥१॥" इतिकुलकर विसर्जन विधिः॥ पीछे मंडलीपूजा, गुरुपूजा, वासदेपादि पूर्ववत् । साधूओंको वस्त्र पात्र देना.। ज्ञानपूजा करणी। जैन ब्राह्मणोंको याचकोकों अपर मागनेवालोंको यथासंपत्तिसें दान करणा.। ___ तथा देशकुलसमयांतरमें विवाहलग्नके प्राप्त हुए, वरको श्वशुरके घरको प्राप्त हुए, षट् (६) श्राचार करते हैं. प्रथम अंगणमें श्रासन देना। श्वशुर कहे Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. ११ "विष्टरं प्रतिगृहाण " तब वर कहे “ॐ प्रतिय हामि" ऐसें कहके आसन पर बैठे ॥१॥ पीछे श्वशुर वरके पग प्रदालन करे ॥२॥ पीछे दहि चंदन अदत दूर्वा कुश पुष्प श्वेतसरसों और जल करके श्वशुर जमाश्को अर्घ देवे॥३॥पीठे आच मन देवे ॥४॥पी गंधप्रदतसे तिलक करे॥५॥ पीने वरको मधुपर्क प्राशन करावे ॥६॥पीछे गृहके शंदर वधूवरका परस्पर दृष्टिसंयोग और परस्पर दोनोंका नामग्रहण, शेषं पूर्ववत् ॥ इति चतुर्दशमः विवाह संस्कारः समाप्तः ॥ अथ पंचदशम व्रतारोप संस्कारः प्रारनते। इहां जैनमतमें गर्जा धानसें लेके विवाहपर्यंत चतुर्दश १४ संस्कारोंकरके संस्कृत नी पुरुष, व्रतारो पसंस्कार विना इस जन्ममें प्रशंसा पात्र नही होता है. और परलोकमें आर्यदेशादिनावपवित्रित मनुष्य जन्म वर्गमोदादिका जाजन नही होता है. इस वास्ते व्रतारोपही, मनुष्योंको परमसंस्कार है. यत उक्तमागमे। " बंजणो खत्ति वावि, वेसो सुद्दो तहेवय ॥ पयई वादि धम्मेण, जुत्तो मुक्खस्स जायणं॥१॥" अर्थः-ब्राह्मण, वा क्षत्रिय, वा वैश्य, वा शूज, धर्मसे युक्त हुआ, मोदका नाजन होता है.॥१॥ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ१२ जैनधर्मसिंधु . बहत्तर कलाकुशल जी, विवेकसहित जी होवे, तो नी वो नर कुशल नहीं हैं; जो, सर्वकला योंमें प्रधान जो धर्मकला तिसको नही जाणताहो. ॥१॥ परमतमें नी.कहा है । 'उपनीतोपि पूज्योपि कलावानपि नार्गव । न परत्रेह सौख्यानि प्राप्नोति च कदाचन ॥१॥' इसवास्ते सर्वसंस्कार मे प्रधान व्रतसंस्कार कहते हैं.। तिसका विधि यह है. पीबले विवाहपर्यंत संस्कार गृहस्थगुरु जैन ब्राह्म णने वा कुबकने कराने. परंतु व्रतारोपसंस्कार तो, नि ग्रंथ यतिनेही करावणा प्रथम गुरुकी गवेषणा करणी. गुरू कैसे होना! पांच महाव्रतयुक्त,५,पांच प्रकारके श्राचार पाल नेमें समर्थ, ५, पांच समिति, ५, और तीन गुप्ति सहित, ३, एवं बत्तीस गुणोंवाला गुरु होता है। प्रतिरूप, तेजखी, युग प्रधान, आगमका जानकार, मधुर वाक्यवाला, गंजीर, बुद्धिमान्, उपदेश देने में तत्पर, ऐसा श्राचार्य होता है.। किसीका आलो चित दूषण अन्यागे प्रकाशे नही, सोमप्रकृति वाला होवे, शिष्यादिका संग्रह करनेवाला होवे, अव्यादि अनिग्रहमें जिसकी मति होवे, किसीके दूषण न बोले; चपल न होवे, प्रशांतहृदयवाला होवे, ऐसे गुणोंयुक्त गुरु होता है.। कितनेही जिन बरेंज अजरामर पदका पंथ दिखाके मोदको प्राप्त Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिबेद. ७१३ हुए है; परं संप्रति कालमें तो, जिनप्रवचन, श्राचार्य नेही धारण करा है.॥ अब प्रकारांतरकरके गुरुके उत्तीस गुण कहते हैं । श्राचारविनय, श्रुत विनय, विदेपना विनय, दोषका परिघात, एवं चार प्रकारके विनयकी प्रतिपत्ति कर नेवाले गुरु होवे.अथवा सम्यक्त्व, शान, चारित्र, इनप्रत्येकके श्रावनेद हैं; एवं २४, और तपके छादश १२ नेद हैं, ऐसें आचार्यके बत्तीस गुण होते हैं। अथवा आचारादि श्राप , और दश प्रकारका स्थितकल्य १० छादश १५ तप और षडावश्यक ६ ये बत्तीस गुण श्राचार्यके हैं। अथवा संविग्न १, मध्यस्थ २, शांत ३, मृा-कोमलस्वजाववाला ४, सरल ५, पंडित ६, सुसंतुष्ट , गीतार्थ ७, कृतयोगी ए, श्रोताके नावको जानने वाला १०, व्याख्यानादिलब्धिसंपन्न ११, उपदेशदे नेमें निपुण १२, श्रादेयवचन १३, मतिमान् १४, विज्ञानी १५, निरुपपाति १६, नैमित्तिक १७, शरीरका बलिष्ठ १७, उपकारी ९ए, धारणाशक्तिवाला २०, बहुत कुछ जिसने देखा २१, नैगमादि नयमतमें निपुण २२, प्रियवचनवाला २३, अच्छे मधुर गंजीर स्वरवाला २४, तप करणेमें रक्त २५, सुंदर शरीर वाला ५६, शुन्न नली प्रतिनावाला २७, वादियोंको Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ जैनधर्मसिंधु. जीतनेवाला ७, परिषदादिको श्रानंदकारक श्ए, शुचि-पवित्र ३०, गंजीर ३१, अनुवर्ती ३२, अंगीकार करेका पालनेवाला ३३, स्थिरचित्तवाला ३४, धीर ३५, उचितका जाननेवाला ३६, ये पूर्वोक्त ३६, गुण आचार्यके सूत्र में कहे हैं.॥ ___ ऐसें पितापरंपरायसें माने गुरुके प्राप्त हुए, वा, तिसके अनावमें पूर्वोक्त गुणयुक्त अन्यगच्छीय गुरुके प्राप्त हुए, गृहस्थको व्रतारोपणविधि योग्य है, सो विधि यह है. ॥ चतुर्दश संस्कारोंकरके संस्कृत ऐसा गृहस्थी गृहस्थधर्मको अंगीकार करने योग्य होता है। कहा हे की. अनुज १, रूपवान् २, प्रकृतिसौम्य ३, लोकप्रि य ४, अक्रूरचित्त ५, नीरु ६, अशठ , सुदाहिएय ज, लजालु ए, दयालु १० मध्यस्थ सोमदृष्टि ११, गुणरागी १५, सत्कथी १३, सुपदयुक्त १४, सुदीर्घ दर्शी १५, विशेषज्ञ १६, वृक्षानुग १७, विनीत १७, कृतज्ञ १ए, परहितार्थकारी २०, और लब्धलद १ श्कीस गुणोंवाला श्रावक धर्मरत्नके योग्य होता है। अर्थात् इक्कीस गुण जिस जीवमें होवे,अथवा प्रायः नवीन उपार्जन करे, तिस जीवमें उत्कृष्ट योग्यता माननी. और थोडेसे थोडे श्कीस गुणोंमेंसें चाहे को दश गुण जीवमें होवे, तिसको जघन्य योग्य Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. ७१५ तावाला जानना, ११-१२-१३-१४-१५-१६-१७१०-१५-२० शेष गुणवालेको मध्यमयोग्यतावाला जानना. इन श्कीस गुणोंका विस्तारसहित वर्णन अज्ञानतिमिरनास्करके द्वितीय खमके ४६ पृष्ठसें लेके ७३ पृष्ठपर्यंत उहांसें देख लेना. योगशास्त्रमे श्रीहेचंडाचार्यनेंनी एसाहि कहाहै की. न्यायसें धन उपार्जन करनेवाला; शिष्टाचारकी प्रशंसा करनेवाला, जिनका कुलशील अपने समान होवे, ऐसे अन्य गोत्रवांलेके साथ विवाह किया है जिसने; पापसें मरनेवाला, प्रसिद्ध देशाचारको कर नेवाला, अर्थात् देशाचारका उलंघन नही करनेवाला, किसी जगे जी अवर्णवाद नहीं बोलनेवाला, राजा दिकोंमें विशेषसें अवर्णवाद वर्जनेवाला; । अतिप्र कट, वा अति गुप्त स्थानमें नही रहनेवाला, अछा पामोसी होवे तिस घरमें रहनेवाला, जिस मकानके अनेक आनेजानेके रस्ते होवें तिस घरको वर्जने वाला; । सदाचारोंसें संग करनेवाला, मातापिताकी पूजा नक्ति करनेवाला, उपवसंयुक्त स्थानको त्यागनेवाला, जगत्में जो कर्म निंदनीक होवे तिसमें प्रवृत्त नही होनेवाला;। अपनी आमदनीअनुसार खर्च करनेवाला, अपने धनके अनुसार वेष रखने वाला; बुझिके आठ गुणोंसें संयुक्त निरंतर धर्मों पदेश श्रवण करनेवाला; अजीर्णमें जोजनका त्यागी Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनधर्मसिंधु. वखतसर साम्यतासें जोजन करनेवाला, एक दूसरेकी हानी न होवे इस रीतिसें धर्म अर्थ कामको सेवने वाला;। यथायोग्य अतिथि साधु और दीनकी प्रति पत्ति करनेवाला, सदा आग्रहरहित, गुणोंका पद पाती; । देशकालविरुछचर्या त्यागनेवाला,।कोश्नी कार्य करने में अपना बलाबल जाननेवाला, जे पांच महाव्रतमें स्थित होबे और ज्ञानवृक्ष होवे तिनकी पूजा नक्ति करनेवाला, पोषणेयोग्यका पोषण करने वाला, । दीर्घदर्शी, विशेषज्ञ, कृतज्ञ, लोकवखन, ल जानु, दयालु, सौम्य, परोपकार करणेमें समर्थ, काम, क्रोध, लोन, मान, मद, हर्ष, श्न षट ६ अंत रंग बैरियोंके त्याग करनेमें तत्पर, पांच इंजियोंके समूहको वश करनेवाला, ऐसा पुरुष गृहस्थधर्मके वास्ते कल्पता है ॥ १० ॥ ऐसे पुरुषको व्रतारोप करना चाहिये । प्रायःकरके व्रतारोपमें गुरु शिष्यके वचन प्राकृत नाषामें होते हैं, क्यों कि गर्जाधानादि विवाहपर्यंत संस्कारों, प्रायः करके गुरुकेही वचन है, शिष्यके नहीं और गुरु प्रायः शास्त्रविद् होते हैं, इसवास्ते संस्कृतही बोलते है. । इहां व्रतारोपमें बाल, स्त्री, मूर्ख शिष्यों का दमाश्रमणदानपूर्वक वचनाधिकार है, तिस वास्ते तिनको संस्कृत उच्चार असामर्थ्य होनेसें प्राकृत वाक्य है. तिसकी साहचर्यतासें तिसके Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टमपरिछेद. ७१७ प्रबोधवास्ते, गुरुके वचन जी, प्राकृतही है. ॥ यत उक्तमागमे ॥ “ ॥मुत्तण दिद्विवायं का लियउक्का लियंग सिद्धतं ॥ श्री बालवायचंपाश्यमुइयं जिणवरेहिं ॥ १ ॥” अर्थः- दृष्टिवादको वर्जके कालिक उत्कालिक अंग सिद्धांतको स्त्रीबालकों के वाचनार्थ जिनवरोंने प्राकृत कथन करे है. ॥ यथाच ॥ बालस्त्री वृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् ॥ अनुग्रहाय तत्त्वज्ञैः सिद्धांतः प्राकृतः कृतः ॥ १ ॥ और दृष्टिवाद बारमा अंग, परिकर्म १ सूत्र १ पूर्वानुयोग ३, पूर्वगत ४, चूलिकारूप ५ पंचविध संस्कृत में ही होता है, सो बालस्त्रीमूर्खको पठनीय नही है. संसारपारगामी तत्त्वउपन्यासके वेत्ता गीता कोंढी पठनीय है. शेष एकादशांग कालिक उत्का लिकादिशास्त्र योगवाहि साधु साध्वी और संय मी बालकोंके पढने योग्य हैं. इसवास्तेही अरिहंत जगवंतोंनें एकादशांगादि शास्त्र प्राकृतमें करे हैं. तिसवास्ते व्रतारोपमें जी, गृहस्थ बाल स्त्री मूर्ख जनोके उपकारार्थ और तैसें यतियोंकेजी, वचन, प्राकृतमें कड़े है. ॥ अथ मृडु, ध्रुव, चर, क्षिप्र नक्षत्रोंमें प्रथम निक्षा, तप, नंदी, आलोचनादि कार्य करणे शुभ है. और मंगल, शनि, विना सर्व वारोंमें. । वर्ष, Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१७ जैनधर्मसिंधु. मास, दिन, नदात्र, लग्न शुद्धिके हुए, विवाहदीक्षा प्रतिष्ठावत्, शुज लग्नमें गुरु तिसके घरमें शांतिक पौष्टिक करके, फेर देवघरमें, शुज आश्रममें, अन्य त्र, वा, यथाकल्पित समवसरणको स्थापन करे. । पीने स्नान करके खघरमें महोत्सवसहित आये हुए श्रावकको पूर्वानिमुख गुरु, अपने वामे पासें स्थापके ऐसें कहे-कैसे श्रावकको-सकद श्वेत वस्त्र और श्वेत उत्तरासंग धारण किया है जिसने, तथा मुखवस्त्रिका हाथमें धारण करी है जिसने, तथा जिसकी चोटी बांधी हुई है, चंदनका मस्तकमें तिलक करा है जिसने, खवर्णानुसार जिनोपवीत वा उत्तरीय, वा उत्तरासंग धारण किया है जिसने ऐसे श्रावकको-क्या कहे सो कहते हैं। “ सम्मत्तंमि उलके, थश्या नरयतिरियदारा॥ दिवाणि माणुसाणि अ, मुरकसुहाई सहीणाई॥१॥" अर्थः-सम्यक्त्वके लान हुए, नरकतिर्यंचगतिके छार ढांके है, और देवता मनुष्य मोदके सुख स्वाधीन है.। पीछे गुरुकी आज्ञासे श्राधजन, नालि केर अदत सुपारीसें पूर्ण हस्त करके परमेष्ठिमंत्र पढता हुया समवसरणको तीन प्रदक्षिणा करे.। पीडे गुरुके पास आयकर, गुरु श्राफ दोनोही या पथिकीपमिकमे. । पीछे आसन उपर बैठे गुरुके आगे, श्राइजन ऐसें कहे ॥ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. "श्च्छामि खमासमणो वंदिलं जावणिज्काए निसीहियाए मबएण वंदामि ॥ जगवन् इच्छाका रेण तुले श्रमं सम्मत्ताइतिगारोवणिअंनंदिकळाव णियं वासकेवं करेह ॥" __ पी गुरु, वासांको, सूरिमंत्रसें, वा, गणि विद्या अर्थात् वर्धमान विद्यासें, अनिमंत्रके, परमेष्ठि और कामधेनु दोनों मुजाकरके, पूर्वानिमुख खमा होके, वामे पासे रहे श्रावकके शिरमें निदेप करे. । तिस के मस्तकके उपर हाथ रखके, गणधर विद्यासे रक्षा करे. गुरु श्रासनउपर बैठ जावे, और श्राफ पूर्व वत् समवसरणको प्रदक्षिणा करके, गुरु आगे दमा श्रमण देके कहे. ___“॥ इच्छाकारेण तुले अझं सम्मत्तातिगारोव णि चेश्श्राइं वंदावहे ॥” __ पीछे गुरु और श्रावक दोनो, चार वर्षमानस्तु तियों करके चैत्यवंदन करें। जो बंदसें वर्षमान होवे, और चरम जिनकी प्रथम स्तुतिवाली होवे, तिनको वमानस्तुति कहते हे। पीले चारस्तुतिके अंतमें “ श्रीशांतिदेवाराधनार्थं करेमि कासग्गं वंद गवत्तियाण पूश्रणवत्तियाण सकारव० स० जावय प्पाणं वोसिरामि" सत्ताइस उवासप्रमाण अर्थात् 'सागरवरगंजीरा' तक चतुर्विशतिस्तव चितवन करे. । पीले 'नमो अरिहंताणं' कहके पारे । पार Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनधर्मसिंधु. केहे 'नमोर्हसिकाचार्योपाध्यायसर्वसाधुन्यः' यह कहके स्तुति पढे । सोलिखतेहें। ___ “श्रीमते शांतिनाथाय, नमः शांतिविधायिने ॥ त्रैलोक्यस्यामराधीश, मुकुटाज्यर्चितांघ्रये॥१॥"अथवा "शांतिः शांतिकरः, श्रीमान् शांतिं दिशतु मे गुरुः॥ शांतिरेव सदा तेषां, येषां शांतिदे गृहे ॥१॥” पीले “॥ श्रुतदेवताराधनार्थं करेमि काउसग्गं अन्न उससिएणंयावत्अप्पाणं वो सिरामि॥" कायोत्सर्गमें एक नवकार चिंतन करे. पीने 'नमो अरिहंताणं' कहके पारे, पारके - नमोर्हत् कहके स्तुति ॥ यथा ॥ '॥ सुश्रदेवया नगवई, नाणावरणीयकम्मसंघायं ॥, तेसिं खवउ सययं, जेसिं सुयसारे जत्ती॥१॥” अथवा "श्वसितसुर जिगंधालब्धनूंगी कुरंगं, मुखशशि नमजस्त्रं बित्रति या बिनर्ति ॥ विकचकमलमुच्चैः सास्त्वचिंत्यप्रनावा, सकलसुखविधात्री प्राणजाजां श्रुतांगी ॥१॥” "क्षेत्रदेवताराधनार्थं करेमि काउसग्गं अन्नल उससिएणंयावताप्पाणं वोसिरामि ॥” कायोत्सर्गमें एक नमस्कार चिंतन करे, पीने 'नमो अरिहंताणं' कहके पारे, पारके 'नमोई करके थई पढे ॥ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य, साधुभिः साध्यते क्रिया ॥ सा क्षेत्रदेवता नित्यं, नूयान्नः सुखदायिनी ॥१॥ ___“॥ जुवनदेवताराधनाथ करेमि काउसग्गं अन्न व उससिएणं-यावत्-अप्पाणं वोसिरामि ॥" ___ कायोत्सर्गमें एक नमस्कार चिंतन करे, पीले 'नमोअरिहताणं' कहके पारे, पारके ' नमोर्हत् कह के स्तुति पढे.॥ "ज्ञानादिगुणयुक्तानां, नित्यं स्वाध्यायसंयमरतानां ॥ विदधातु जुवनदेवी, शिवं सदा सर्वसाधूनाम् ॥१॥" " शासनदेवताराधनार्थं करेमि काउसग्गं अन्न छ” कायोत्सर्गमें एक नमस्कार चिंतन करे, पीले 'नमोअरिहंताणं' कहके पारे, पारके 'नमोर्हसि का' कहके स्तुति पढे.. " या पाति शासने जैन, सद्यः प्रत्यहनाशिनी ॥ सानिप्रेतसमृद्ध्यर्थं, नूयाच्छासनदेवता ॥ १॥" ___“समस्तवैयावृत्त्यकराराधनार्थं करेमि काउसग्गं अन्नष्ठा ” कायोत्सर्गमें एक नमस्कार चिंतन करे, पीछे 'नमो अरिहंताणं' कहके पारे, पारके 'नमो हसिका' कहके स्तुति पढे. “ ये ये जिनवचनरता वैयावृत्त्योद्यताश्च ये नित्यम् ॥ ते सर्वे शांतिकरा जवंतु सर्वाणुयदाद्याः॥१॥" 'नमो अरिहनाणं' कहके बैठके “ नमुथ्थुणं० ९१ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ जैनधर्मसिंधु. जावंतिचेश्याइं० ” और “ अर्हणादिस्तोत्र ” पढे. सो लिखते हे. अरिहाण नमो पूअं, अरहंताणं रहस्स रहिआणं ॥ पयो परमिहिणं, अरुहंताणं धुअरयाणं ॥१॥ निद्दव अहकम्भिधणाण, वरनाणदसणधराणं ॥ मुत्ताण नमो सिफाणं, परमपरमिहिनूयाणं ॥२॥ आयारधराण नमो, पंच विहायारसुहियाणं च ॥ नाणीणायरियाणं, थायारुवएसयाण सया ॥३॥ बारस विहं अपूवं, दिताण सुअं नमो सुबहराणं ॥ सययमुवज्कायाणं, सज्जायज्जाणजुत्ताणं ॥४॥ सव्वेसि साहूणं, नमो तिगुत्ताण सबलोएवि ॥ तवनियमनाणदंसण, जुत्ताणं बंनयारीणं ॥५॥ एसो परमिहीणं पंचन्ह वि जावो नमुक्कारो ॥ सम्बस्स कीरमाणो, पावस्स पणासणो हो ॥६॥ नुवणेवि मंगलाणं, मणुयासुरअमरखयरम हियाणं ॥ सव्वेसिमिमो पढमो, होश महामंगलं पढमं ॥७॥ चत्तारि मंगलं मे, हुंतु अरहा तहेव सिझा य ॥ साह य सव्वकालं, धम्मो य तिलोयमंगहो ॥॥ चत्तारि चेव ससुरा, सुरस्स लोगस्स उत्तमा हुंति ॥ अरिहंत सिफ साहू, धम्मो जिणदेसियमुयारो॥॥ चत्तारिवि अरिहंते, सिके साहू तहेव धम्मं च ॥ संसारघोररकस, जएण सरणं पवजामि ॥ १० ॥ अहरदयो नगवश्रो, महश्महा वझमाणसामिस्स वासं साण, सजा सुनो Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेदः उ२३ पणयसुरेसरसेहर, वियलिकुसुमुच्चयकमस्स ॥११॥ जस्स वरधम्मचकं, दिणयरबिंबव्व जासुरच्छायं ॥ तेएण पजावंतं, गच्छ पुरयो जिणंदस्स ॥ १२ ॥ आयासं पायालं, सयलं महिमंगलं पयासंतं ॥ मिच्चत्तमोहतिमिरं, हरेश तिएहंपि लोयाणं ॥ १३ ॥ सयलंमिवि जियलोए, चिंतिय मित्तो करे सत्ताणं ॥ रकं रकसमाणि, पिसायगहनूथजरकाणं ॥ १४ ॥ लह विवाए वाए, ववहारे नावो सरंतो अ॥ जूए रणे अ राय, गणे अविजयं विसुद्धप्पा ॥१५॥ पच्चूसपश्रोसेसुं, सययं नव्वो जणो सुहज्जाणो ॥ एवं जाएमाणो, मुकं पश् साहगो होश ॥ १६ ॥ वेशालरुद्ददाणव, नरिंदकोहंमिरेवईणं च ॥ सव्वेसिं सत्ताणं, पुरिसो अपराजिओ हो ॥ १७ ॥ विज्जुब पज्जलंती, सवेसुवि अकरेसु मत्ताओ ॥ पंचनमुक्कारपए, इकिके जवरिमा जाव ॥ १० ॥ ससिधवलसलिल निम्मल,आयरसहं च वन्नियं बिंडं॥ जोयणसहप्पमाणं, जालासयसहस्सदिप्पंतं ॥ १ ॥ सोलससु अकरेसु, शकिकं अकरं जगजोअं॥ नवसयसहस्समहणो, जंमि हियो पंच नवकारो॥२॥ जो गुणहु कमणो, नविय नावेण पंच नवकारं ॥ सो गब सिवलोयं, उजोअंतो दसदिसाओ ॥१॥ तवनियमसंजमरहो, पंचनमोकारसारहिनिउत्तो॥ नाणतुरंगमजुत्तो, नेश फुडं परमनिवाणं ॥२२॥ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैनधर्मसिंधुः सुरूपा सुद्धमणा, पंचसु समिसु संजय तिगुत्तो ॥ जे तम्मि रहे लग्गा, सिग्धं गछंति सिवलो ॥२३॥ थं जलं जलणं, चिंतियमित्तो वि पंच नवकारो ॥ रिमारिचोरराजल, घोरुवसग्गं पणासेइ ॥ २४ ॥ अवय असयं श्रसहस्सं च अकोमी यो ॥ रकंतु मेसरीरं, देवासुरपण मिश्रा सिद्धा ॥ २५ ॥ नमो अरहंताणं, तिलोयपुको संधु जयवं ॥ अमरनररायम दियो, अाइ निदयो सिवं दिसउ ॥ २६ ॥ निहा वि कम्मो, सिवसुद्द यो निरंजणो सिद्धो अमर नरराय महिखो, श्राइ निहणो सिवं दिस। 29 सवे पोसमर, हिश्र हिया पणासमुवयंति ॥ डुगुणी कयधणुस, सोउपि महाधणुसहस्सं ॥ २८ ॥ यतिहुप्पमाणं, सोलसपत्तं जलंतदित्तसरं ॥ अहारवलयं, पंचनमुक्कारचक्क मिणं ॥ २७ ॥ सयलुकोजुवणं, निद्दा विसेससत्तुसंघायं ॥ नासि मित्ततमं विलियमोहं गयतमोहं ॥ ३० ॥ एयरस य मज्जो, सम्मदिठीवि सुद्धचारिती ॥ नाणी पवयणत्तो, गुरुजणसुस्सूसणापरमो ॥ ३१ ॥ जो पंच नमुक्कारं, परमो पुरिसो पराइ जत्तीए ॥ परियत्तेइ पइदिणं, पयओ सुद्धप्प गप्पा ॥ ३२ ॥ वय असया, असदस्सं च अलरकं च ॥ अवय कोडो, सो तश्यनवे लहइ सिद्धिं ॥ ३३ ॥ एसो परमो मंतो, परमरहस्तं परं परं तत्तं ॥ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. १२५ नाणं परमं पेयं, सुद्धं ज्जाणं परं ज्जेयं ॥ ३४ ॥ एवं कवयमज्ञेयं, खाश्यमच्छं पराजुवणरक्खा ॥ जोईसुन्नं बिंदु, नाओ तारालवो मत्ता ॥ ३५ ॥ सोलस पर मक्खरबी बिंगो जगुत्तमो जोश्रो ॥ सुबारसंग सायर, महछपुवञ्च परमठो ॥ ३६ ॥ नासेर चोरसावय, विसहरजलजलणबंधणसयाई ॥ चिंतितो रक्खस, रणरायनयाई जावेण ॥ ३७ ॥ ॥ इति श्ररिहणादिस्तोत्रम् ॥ इस रिहणादि स्तोत्रको पढके " जय वीयराय जगगुरु० " इत्यादि गाथा पढे. पीछे आचार्य उपा ध्याय गुरु साधुओं को वंदना करे । यह शक्रस्तव विधि, गुरु और श्रावक दोनोंही करे. । चैत्यवंदनके अनंतर. श्राद्ध, क्षमाश्रमणदानपूर्वक कहे. << ॥ जगवन् सम्यक्त्व सामायिकश्रुतसामायिकदे शविर तिसामायिकच्या रोव पित्र्यं नंदिकढाव पित्र्यं काउ सग्गं करेमि ॥ " गुरु " कहे कह" तब श्रावक "सम्मत्ताइतिगारोव किरेमि काज सग्गं अन० " इत्यादि कहके सत्ताइस उवास प्रमाण अर्थात् ' सागरवरगंजीरा लग कायोत्सर्ग करे | पीछे नमो अरिहंताणं कद के पारके चतुर्विंशतिस्तव अर्थात् लोगस्स संपूर्ण पढे । पीछे मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनपूर्वक श्रावक द्वादशा वर्त्त वंदन करे, फिर क्षमाश्रमण देके कहे " जग Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ जैनधर्मसिंधु. 1 66 वन् सम्मत्ताइतिगं श्रारोवेह " गुरु कहे “ आरो वेमि " पीछे श्रावक गुरुके आगे खमा होके, अंज लि करके, मुखवस्त्रिकारों मुखाच्छादन करके, तीनवार परमेष्ठिमंत्र पढे । पीछे सम्यक्त्वदंकक पढे. सयथा ॥ “ ॥ श्रहणं नंते तुह्माणं समीवे वित्ताओ पडी कमामि सम्मत्तं उवसंपामि । तंजढ़ा दवयो खित्तयो कालो जाओ। दवणं मित्तकार पाई पच्चक्खामि सम्मत्तकारणाएं उवसंपामि नो मेकप पनि अन्न वा अन्न विदे वयाणि वा अन्नविपरिग्गहियाणि अरिहंतचे‍ आणि वंदित्तए वा नमंत्तिए वा पुत्रिं पालते श्रलवित्त वा संल वित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाश्मं वा साइमं वा दानं वा अणुप्पयाजं वा । वित्तश्रोणं श्हेव वा अन्न वा । कालखोणं जाव जीवाए | जावोणं जाव गहेणं न गहिजा मि जाव बलेां न बलियामि जाव सन्निवारणं नानि विस्सामि जाव अन्ने वा केइ परिणामवसे परिणामो मे न परिवड ताव मे एवं सम्मदंसणं अन्न राया जियोगेणं बलाजियोगेणं गया जियो गेणं देवयानियोगेणं गुरुनिग्गदेणं वित्तीकंतारएणं वो सिरामि ॥ " ऐसें तीनवार दंडक पाठ कहना ॥ अन्ये तु दंड कमिमुच्चारयति यथा ॥ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. २७ “॥ अहणं नंते तुह्माणं समीवे मिबत्ताश्रो पनि कमामि सम्मत्तं उवसंपजामि नो मे कप्पश् अज प्पनिई अन्नजहिए वा अन्नउछियदेवयाणि वा अन्न उछियपरिग्ग हियाणि चेश्याणि वंदित्तए वा नमं सित्तए वा पुविं अणालत्तेणं बाल वित्तए वा संल वित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाश्मं वा साश्मं वा दाजं वा अणुप्पयाडं वा अन्नब रायानि योगेणं गणानियोगेणं बलानियोगेणं देवयानि श्रोगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकंतारेणं तं चउविहं । तंजहा । दवोखित्तयो कालो जावो । दवयो णं दसणदवाइं अंगीकयाई । खित्तश्रोणं उद्दलोए वा अहोलोए वा तिरिअलोए वा । कालोणं जाव जीवाए । जावोणं जाव गहेणं न गहिजामि जाव लेणं न बलिजामि जाव सन्निवाएणं नानि जविस्सामि अन्नेण वा केण परिणामवसेण परि णामो मे न परिवमय ताव मे एसा देसणपमिवत्ती॥ इति गुरुविशेषेण द्वितीयो दंगकः ॥ प्रथम दंग क दोनोमेंसें को एक दंमक तीन वार उच्चारण करे. पी गाथा ॥ ___“श्य मिलत्तायो विर मिश्र सम्म उवगम्म जण गुरुपुरो ॥ अरिहंतो निस्संगों, मम देवो दक्ख णा साहू ॥ १॥” गुरु तीन वार यह गाथा पढके श्राछके मस्तको दसणदवार तिरिअलोए बन गहिजो Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनधर्मसिंधुः परि वासक्षेप करे। पीने गुरु, श्रासन ऊपर बैठके गंध थक्षत वासांको सूरिमंत्रसें, वा गणिविद्यासें मंत्रे । पी गंधादत वासांको हाथमें लेके जिन चरणोंको स्पर्श करावे. । पीछे साधु, साध्वी, श्राव क, श्राविकाओंको देवे. ते साधुश्रादि, मुहीमें लेले वे. । पीछे श्राफ गुरुके आगे दमाश्रमण देके कहे ॥ " जयवं तुने श्रमं सम्मत्ताश्यतीअंधारोवेद ।" गुरुकहे " श्रारोवेमि” फिर श्रावक क्षमाक्षमण देके प्रोवेक कहित छिमाणसागा कडेन: अंबित क्षमाश्रमण देके कहे " तुह्माणं पवेश्यं संदिसह साहूणं पएवेमि” गुरु कहे “ पवेयह ” पीने श्रावक परमेष्ठिमंत्र पढता हुथा, समयसरणको प्रदक्षिणा करे. । और संघ पूर्वे दिये हुए वासांको, तिसके . मस्तकोपरि देपण करे. । गुरु श्रासनऊपर बैठे, वहांसें लेके वासदेपपर्यंत क्रिया, तीन वार सहि साई। परवान उस पा९ १९ो परमेष्ठिमंत्र पढता हुथा, समयसरणको प्रदक्षिणा करे । और संघ पूर्वे दिये हुए वासांको, तिसके . मस्तकोपरि देपण करे. । गुरु श्रासनऊपर बैठे, वहांसें लेके वासदेपपर्यंत क्रिया, तीन वार सहि रीतिसें करना.। फिर श्रावक दमाश्रमण देके कहे "तुह्माणं पवेश्य” फिर दमाश्रमण देके कहे “साहू णं पवेश्यं संदिसह कालसग्गं करेमि ” गुरु कहे Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठमपरिबेद. ए "करेह” पीने श्रावक-सम्मत्तातिगस्सथिरीकर एवं करेमि काउसग्गं अन्नक-सागरवरगंजीरातक कायोत्सर्ग करे. पारके संपूर्ण लोगस्स कहे। पीछे चारथुश्वर्जित शकस्तवसे चैत्यवंदन करे. । पीने श्रावक, गुरुको तीन प्रदक्षिणा देवे. पी आसन ऊपर बैग हुआ गुरु, श्रावकको आगे बिगके निय म देवे. ॥ नियमयुक्तिर्यथा ॥ ___ गुलर, प्लक्षण, काकोडुबरि, वट और पिप्पल, ये पांच जातिके फल ५. मांस, मदिरा, माखण और मधु, ये चार विकृति ४-एवं ए-अज्ञात फल १० , अशात पुष्प १९, हिम (बरफ) १२, विष १३, करहे (श्रोले-गडे ) १४, सर्वसचित्तमही १५, रात्रिनोजन १६, घोलवमा-काचे दूध दहि बाबमें गेरा हुश्रा विदल १७, बरंगण १७, पंपोटा-खसख सका दोमा ९ए, सिंघाडे २०, वायंगण २१, और कायंबाणि २२, येह बावीस अव्य श्रावकोंको जद ण करने योग्य नहीं है. अन्य प्रकारसे २२ अनदय यह हे की पांच जातिके जंबरादि फल ५ चार महा विगए, हिम १०, विष ११, करह १२, सर्व मृत्तिका १३, रात्रि जोजन १४, बहुबीज वाले फल १५, अनं त काय १६, अचार १७, घोलवमा १७, वेशंगण १ए, अज्ञात फल फूल २०,तुब फलस,चनितरस १२ ऐसें नियम देके यह गाथा उच्चारण करावे ॥ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० जैनधर्मसिंधु "अरिहंतो मह देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो ॥ जिणपणत्तं तत्तं, इत्र समत्तं मए गहिथं ॥१॥" तदनंतर अरिहंतको वर्जके अन्यदेवको नम स्कार करनेका, जैनयति महाव्रतधारी शुरु प्ररू पकको वर्जके अन्य लिंग विप्रादिकोंको नावसे अर्थात् मोक्षलाज जानके वंदना करनेका, और जिनोक्त सप्त तत्वको वर्जके तत्वांतरकी नका करनेका, नियम करना. अन्य देव और अन्य लिंगि विप्रादिकोंको नम स्कार और दान,लोकिकव्यवहारकेवास्ते करना.और अन्यमतके शास्त्रका श्रवण पठन नी, ऐसेंही जान ना. । पीछे गुरु सम्यक्त्वकी देशना करे. ॥ सोब ताते हे. ॥ मानुष्यमार्यदेशश्च जातिः सर्वातपाटवम् ॥ आयुश्च प्राप्यते तत्र कथंचित्कर्मलाघवात् ॥१॥ प्राप्तेषु पुण्यतः श्रझा, कथकः श्रवणेष्वपि ॥ तत्त्वनिश्चयरूपं तद्बोधिरत्नं सुर्खनम् ॥२॥ ॥ गाथा ॥ कुसुमयसुईण महणं सम्मत्तं जस्स सुम्पिं हियए॥ तस्स जगुजोयकरं नाणं चरणं च नवमहणं ॥१॥ अर्थः-मनुष्यजन्म १, थार्यदेश २, उत्तमजाति ३, सर्वति संपूर्ण ४, आयुः ५, ये कथंचित् कर्म की लाघवतासें प्राप्त होते है । पुण्योदयसें पूर्वोक्त Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३१ अष्टमपरिवेद. प्राप्ति हुये जी श्रद्धा १, शुद्ध प्ररूपकका योग २, और सुणनेसें तथा निश्चयरूप बोधिरत्न सम्यक्त्व ३, ये अतिही उझन हैं. ॥ कुत्सितसमयएकांतवादि योंके शास्त्र और तिनकी श्रुतियोंको मथन करनेवाला सम्यक्त्व, जिसके हृदयमें अलीतरें स्थित है, तिस पुरुषको जगत्के उद्योत करनेवाले, और जव-संसा रको मथनेवाले, ज्ञान और चारित्र प्राप्त होते हैं.॥ ॥श्लोकाः॥ या देवे देवताबुधिरौ च गुरुतामतिः ॥ धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥१॥ अदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या ॥ अधम्म धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तहिपर्ययात् ॥२॥ सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः ॥ यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥३॥ ध्यातव्योयमुपास्योयमयं शरण मिष्यताम् ॥ अस्यैव प्रतिपत्तव्यं शासनं चेतनाऽस्ति चेत् ॥४॥ ये स्त्रीशस्वादसूत्रादिरागाद्यंककलंकिताः॥ निग्रहानुग्रहपरास्ते देवा स्युन मुक्तये ॥५॥ नाट्याट्टहाससंगीताद्युप्लव विसंस्थुलाः॥ लंजयेयुः पदं शांतं प्रपन्नान् प्राणिनः कथं ॥६॥ महाव्रतधरा धीरा नेयमात्रोपजीविनः ॥ सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥॥ सर्वाजिलाषिणः सर्वनोजिनः सपरिग्रहाः॥ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ শুই जैनधर्मसिंधु. अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥ ७ ॥ परिग्रहारंजमनास्तारयेयुः कथं परान् ॥ खयं दरिलो न परमीश्वरी कर्तृमीश्वरः ॥ ए॥ पुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाहर्म उच्यते ॥ संयमादिर्दश विधः सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ॥ १० ॥ अपौरुषेयं वचनमसंजवि नवेद्यदि ॥ न प्रमाणं नवेद्याचां ह्याप्ताधीना प्रमाणता ॥ ११ ॥ मिथ्यादृष्टिनिरारव्यातो हिंसाद्यैः कलुषीकृतः॥ स धर्म इति चित्तोपि नवज्रमणकारणम् ॥ १५ ॥ सरागोपि हि देवश्चेशुरुरब्रह्मचार्यपि ॥ कृपाहीनोपि धर्मः स्यात् कष्टं नष्टं हहा जगत्॥१३॥ शमसंवेगनिदानुकंपास्तिक्यलदणैः ॥ लक्षणैः पंचनिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ १४॥ स्थैर्य प्रनावनानक्तिः कौशलं जिनशासने ॥ . तीर्थसेवा च पंचास्य नूषणानि प्रचक्ष्यते ॥ १५ ॥ शंका कांदा विचिकित्सा मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् ॥ तत्संस्तवश्च पंचापि सम्यक्त्वं दूषयंत्यमी ॥ १६ ॥ अर्थः-साचे देवमें जो देवपणेकी बुकि, साचे गुरुंके विषे गुरुपणेकी बुद्धि और साचे धर्मके विषे धर्मकी बुद्धि, कैसी बुद्धि ? शुद्धा सूधी निश्चल संदेहरहित, इसको सम्यक्त्व कहते हैं । ऐसी सम्यक्त्वकी बुद्धि थोडे वखत नी जिसको श्राजा वेगी, सो प्राणि अर्डपुजलपरावर्तकालमेंही संसार Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ७३३ से निकलके मोदको प्राप्त होगा, यह निश्चय जाण ना. यत उक्तम् ॥ अंतोमुहुत्तमित्तंपि फासियं जेहिं हुज्क सम्मत्तं ॥ तेसिं अवटु पुग्गलपरिअट्टो चेव संसारो ॥१॥ जावार्थः-अंतर्मुहर्तमात्र जी जिनोंने सम्यक्त्व स्पर्श किया है, तिनोंका अईपुजलपरावर्त्तही उत्कृष्ट संसा र जाणना, तदनंतर अवश्यमेव मोदको प्राप्त होवे. इति सम्यक्त्वस्वरूपम् ॥१॥ । अथ मिथ्यात्वखरूपमाह ॥ जिसमें देवके गुण नही हैं, ऐसे अदेवमें देवकी बुद्धि-जैसे तममें उद्योतकी बुद्धि । जिसमें गुरुके गुण नहीं हैं, ऐसे अगुरुमें गुरुकी बुद्धि-जैसें नींबमें आम्र की बुद्धि । अधर्म यागादि, जीवहिंसादिक के विषे धर्म की बुद्धि-जैसें सर्पके विषे पुष्पमालाकी बुद्धि, सो मिथ्यात्व है. सम्यक्त्वसें विपर्यय होनेसें, अर्थात् साचे देवके ऊपर अदेवपणेकी बुद्धि, जैसें कौशिक (घूश्रम) की सूर्यके तेजऊपर अंधकारकी बुद्धि, साचे गुरुऊपर अगुरुपणेकी बुद्धि, जैसें श्वेतशंखके ऊपर काचकामलरोगवालेकी नीलशंखकी बुद्धि । तिसको मिथ्यात्व कहतेहैं. । सो मिथ्यात्व पांच प्रका रका हैं. १ आनिग्रहिक, अनानिग्रहिक, ३ श्रानि निवेशिक, ४ सांशयिक, ५ अनाजोगिक.॥ (१) प्रथम आजिग्रहिकमिथ्यात्व, सो, जिस्को Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ जैनधर्मसिंधु. मिथ्या कुशास्त्रोंके पढनेसें कुदेव कुगुरु कुधर्मके ऊप र आस्था दृढ है, जिससे ऐसा जानता है कि, जो कुब मैने समजा है सोही सत्य है, औरोंकी समऊ ठीक नही है, जिसको सत्यासत्यकी परीक्षा करने का अब मन जी नहीं है, और जो सत्यासत्यका विचार भी नही करता है. यह मिथ्यात्व, दीक्षित शाक्यादि श्रन्यमतममत्वधारीयों को होता है. वे अपने मन में ऐसें जानते हैं कि, जो मत हमने अंगिकार किया है, वोही सत्य है; और सर्व मत झूठे हैं. ऐसें जिसके परिणाम होवे, सो श्रजिय दिक मिथ्यात्व है. ( 2 ) दूसरा वना जिग्रहिक मिथ्यात्व, सो सर्व मतोंको आच्छा जाणे, सर्व मतोंसें मोक्ष है, इस वास्ते किसीको बुरा न कहना सर्व देवोंको नम स्कार करना, ऐसी जो बुद्धि, तिसको अनाजिय हिक मिथ्यात्व कहते हैं. यह मिथ्यात्व जिनोंने को दर्शन ग्रहण नहीं करा ऐसें जो गोपाल बाल कादि तिनको है. क्योंकि, यह अमृत और विषको एकसरिखे जाननेवाले हैं. (३) तीसरा अनिनिवेशिक मिथ्यात्व, सो जो पुरुष जानकरके झूठ बोले, प्रथम तो अज्ञानसें किसी शास्त्रार्थको मूल गया, पीछे जब कोई विद्वा न् कहे कि, तुम इस विषयमें भूलते हो, तब अप Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ३५ ने मनमें सत्य विषयको जाणता हुश्रा जी, फूले पक्षका कदाग्रह, ग्रहण करे, जात्यादि अनिमानसें कहना, न माने, उलटी वकपोलकल्पित कुयुक्तियों बनाकरके अपने मनमाने मतको सिक करे, वादमें हार जावे तो जी न माने, ऐसा जीव, अतिपापी, और बहुल संसारी होता है. ऐसा मिथ्यात्व, प्रायः जो जैनी, जैन मतको विपरीतकथन करता है, उस में होता है, गोष्ठमाहिलादिवत् ॥ (४) चौथा सांशयिकमिथ्यात्व, सो देव गुरु धर्म जीव काल पुजलादिक पदार्थों में यह सत्य है कि, यह सत्य है ? ऐसी बुद्धि, तिसको सांशयिक मिथ्यत्व कहते हैं. तथा क्या यह जीव असंख्य प्रदे शी है ? वा नही है ? इसतरें जिनोक्त सर्व पदा र्थमें शंका करनी । “ सांशयिकं मिथ्यात्वं तदशेषया शंका संदेहो जिनोक्ततत्त्वेष्वितिवचनात् ॥” । (५) पांचमा अनाजोगिकमिथ्यात्व, सो जिन जीवोंको उपयोग नही कि, धर्म अधर्म क्या वस्तु है ? ऐसें जे एकेजियादि विशेषचैतन्यरहित जीव, तिनको अनाजोगमिथ्यात्व होता है. ॥२॥ ___ श्रथदेवलक्षणमाह ॥ देव सो कहिये, जो सर्व ज्ञ होवे, परंतु जैसें लौकिक मतमें विनायकका मस्तक ईश्वरने बेदन कर दिया, पीने पार्वतीके आग्रहसे सर्वत्र देखने लगा, परं किसी जगे जी Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ जैनधर्मसिंधु. मस्तक न देखा, तब हाथीके मस्तकको लायके विनायकके मस्तकके स्थानपर चेप दिया, जिसवा स्ते विनायकका (गणेशका) नाम “ गजानन" प्रसिद्ध हुथा. इत्यादि-यदि ईश्वर (महादेव) सर्व ज्ञ होता तो, पार्वतीका पुत्र जाणके विनायकका मस्तक कनी न बेदन करता. यदि बेदा, तो जगतमें विद्यमान तिस मस्तकको क्यों न देखा ? इसवास्ते ऐसे अधूरेशानवालेको देव न कहिये । तथा — जित रागादिदोषः' जे संसारके मूलकारण राग द्वेष काम क्रोध लोन मोहादिक दोष, तिन सर्वको जिसने जीते हैं, निर्मूल किये हैं, तिसको देव कहिये. जिस में रागादि दोष होवे, तिसको अस्मदादिवत् संसा री जीवही कहिये, तिसमें देवपणा न होवे । तथा 'त्रैलोक्यपूजितः' वर्गमर्त्यपातालके स्वामी इंसादि क परम नक्तिकरके जिसको वांदे, पूजे, नमस्कार करे, सेवे, सो देव कहिये. परंतु कितनेक इसलोकके अर्थीयोंके वांदनेसें, वा पूजनादिकसें देवपणा नही होता है. । तथा' यथा स्थित सत्यपदार्थका वक्ता, सो देव कहिये, परंतु जिसका कथन पूर्वापरविरोधि होवे, और विचारते हुए सत्य २ मिले नही, सो देव न कहिये. ॥ देवो हत् परमेश्वरः ये पूर्वोक्त चार गुण पूर्ण जिसमें Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टमपरिछेद. ३० होवे, सो अरिहंत, वीतराग, परमेश्वर, देव, कहिये, इससे अन्य को देव नही है. ॥३॥ __ ऐसा पूर्वोक्त साचा देव, पिडानके आराधना, सोही कहते हैं । ध्यातव्योयमित्यादि-पूर्व जो देवके लक्षण कहे, तिन लक्षणों संयुक्त जो देव, तिसको एकाग्र मनसें ध्यावना, जैसें श्रेणिक महाराजने श्रीमहावीरजीका ध्यान किया. । तिस ध्यानके प्रता वसे आगमी चनवीसी में श्रेणिक, वर्ण, प्रमाण,संस्थान, अतिशयादिकगुणोंकरके श्रीमहावीरखामिसरिखा 'पद्मनाज,' नाम प्रथम तीर्थंकर होगा. इसीतरें औरोने नी तबीनपणे देवका ध्यान करना, तथा 'उपास्योयम् ' ऐसे पूर्वोक्त देवकी सेवा करनी श्रेणि कादिवत् । तथा इसी देवका, संसारके जयको टाल नहार जाणके, शरण वांडना.। इसी देवका शासन, मत, श्राज्ञा, धर्म, अंगीकार करना. । 'चेतनास्ति चेत् ' जो कोश् चेतना चैतन्यपणा है तो, सचेतन सजाण जीवको उपदेश दिया सार्थक होवे, परंतु अचेतन अजाणको दिया उपदेश क्या काम श्रावे ? इसवास्ते 'चेतनास्ति चेत् ' ऐसें कहा.॥४॥ श्रथादेवत्वमाह ॥ अथ श्रदेवके लक्षण कहतें है. ॥ ये स्त्री० ॥ जिनके पास स्त्री (कखत्र) होवे तथा खङ्ग धनुष्य चक्र त्रिशूलादिक शस्त्र (हथि यार) होवे, तथा अनसूत्र जपमाला श्रादि शब्द Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ३० जैनधर्मसिंधु. से कमंमयुप्रमुख होवे, ये कैसे है ? रा रागादि कके अंक-चिन्ह है, सोही दिखावे हैं. स्त्री रागका चिन्ह है, । जो पासे स्त्री होवे तो जाणना कि, इसमें राग हैं. । शस्त्र द्वेषका चिन्ह है, जो पासे हाथियार देखीए तो, ऐसा जाणिये कि तिसने किसी वैरीको मारना चूरना है, अथवा किसीका जय हैं, जिस वास्ते शस्त्रधारण किये हैं. । अद सूत्र असर्वज्ञपणाकाचिह्न है. यदि होवे तो, मणके विना गिणतीकी संख्या जाणलेवे. अथवा तिससे अधिक बडा अन्य कोश है, जिसका वो जाप करता - है ? । कमंमलु अशुचिपणेका चिन्ह है, यदि हाथ में कमंमलु पाणीका नाजन देखीए तो, ऐसा जाणि ये की, यह अशुचि है. शौच करणेके वास्ते यह कमंगलु धारण करता है. यतउक्तं ॥ स्त्रीसंगः काममाचष्टे छेषं चायुधसंग्रहः ॥ व्यामोहं चादसूत्रादिरशौचं च कर्ममबुः ॥१॥ इन पूर्वोक्त दोषोंकरके जे दूषित है, तथा निग्र हा जिसके उपर रुष्टमान होवे, तिसको निग्रह (बंधनमरणादिक) करें, और, जिसके उपर तुष्ट मान होवे, तिसको अनुग्रह (राज्यादिकके वर) देवें; तेदेवा वे देव, मुक्तिके हेतु नही होते हैं __ऐसे पूर्वोक्त देव अपने सेवकोंको मोद नहीं दे सकते हैं, सोही वात फिर कहते हैं । नाट्या जे Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. देव नाटक के रसमें मग्न हैं, अट्टाट्टहास करते इत्यादि संसारकी चेष्टा जो अस्थिर हैं; लंजयेयुः - जे यापही ऐसे हैं, वे देव, अपने आश्रित सेवकोंको शांतपद, ( संसार चेष्टारहित मुक्ति, केवलज्ञाना दि कपद, ) कैसे प्राप्त कर सकते हैं? जैसें एरंमवृक्ष कल्प वृक्ष की तरें या नही पूर सकता है, यदि किसी मूढ पुरुषने एरंगको कल्पवृक्ष मान लिया तो, क्या वो कल्पवृक्ष की तरें मनोवांबित दे सकता है ? ऐसें ही कीसी मिथ्या दृष्टीनें पूर्वोक्त दूषणोंवाले कुदेवोंकों देव मान लिये तो, क्या वे देव परमेश्वर मोक्ष दाता हो सकते हैं ? कदापि नही हो सकते हैं ॥६॥ अथगुरुलक्षणमाह ॥ अथ गुरुके लक्षण कहते हैं | महात्र हिंसादि पांच महाव्रतके धारने पालनेवाले और आपदा में जी धीर साहसिक होके अपने व्रतोंको विराधे नहीं बेतालीश ( ४२ ) दूषण रहित निक्षावृत्ति ( माधुकरी वृत्ति) करके अपने चारित्रधर्म के तथा शरीरके निर्वाहवास्ते जोजन करे, जोजन जी कनोदरता संयुक्त करे, जोजनकेवास्ते अन्न पाणी रात्रिको न राखे, धर्मसाधनके उपकरण विना और कुछ जी संग्रह न करे, तथा धन, धान्य, सुवर्ण, रूपा, मणि, मोती, प्रवालादि परिग्रह, न राखे । सामा० रागद्वेषके परिणामरहित मध्यस्थ वृत्ति होकर सदा सामायिकमें वर्त्ते । धर्मोप० जो ३० Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sau जैनधर्मसिंधु. धर्मी जीवोंके उकारवास्ते सम्यग् ज्ञानदर्शनचारि वरूप जगवंतके स्याहाद अनेकांतवरूप निरूपण किया है, तिस धर्मका उपदेश करे, परंतु ज्योति षशास्त्र, अष्टप्रकारका निमित्त शास्त्र, वैद्यकशास्त्र, धन उत्पन्न करनेका शास्त्र, राजसेवादि अनेकशास्त्र, जिनसें धर्मको बाधा पहुंचे तिनका उपदेश न करे, ऐसे गुरु कहिये । काष्ठमय बेमीसमान श्राप जी तरें, और औरोंको नी तारें. ॥७॥ अथ अगुरुलक्षणमाह॥अथ श्रगुरुके लक्षण कहते हैं ॥ सर्वा स्त्री, धन, धान्य, हिरण्य, रूपादि सर्व धातु, क्षेत्र, हाट, हवेली, चतुःपदादिक अनेक प्रका रके पशु, इन सर्वकी अभिलाषा है जिनको, सर्व जोजिनः । मधु, मांस, मांखण, मदिरा, अनंतकाय, अनदयादिक सर्व वस्तुके नोजन करनेवाले, सपरि ग्रहाः । जे पुत्र, कलत्र, धन, धान्य, सुवर्ण, रूपा, क्षेत्रादि सहित हैं, । अब्रह्म तथा अब्रह्मचारी हैं। मिथ्यो मिथ्या धर्मका उपदेश करें, ज्योतिष, निमि त्त, वेदक, मंत्र तंत्रादिकका उपदेश देवें, वे गुरु नही. लोहमय बेमी (नावा) समान, आप जी मुबें, औरोंको जी मुबावे ॥ ७॥ प्रोक्त वातही कहते हैं। परिग्रहा० स्त्री, घर लदमी श्रादि परिग्रह, और क्षेत्र, कृषी, व्यवसा यादि श्रारंन इनमें जे मग्न है, श्रापही जवसमु Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. ४१ अमें मुबे हुए, हैं, ता वे, किसतरेंसें दूसरे जीवोंको संसारसागरसें तार सकते हैं ? इसवातमें दृष्टांत कहते हैं । जो पुरुष श्रापही दरिद्धी है, सो परको ईश्वर लदमीवंत करनेको समर्थ नहीं है; तैसेंही वे कुगुरु, श्रापही संसारमें मुबे हुए, पर अपने सेवकोंको कैसें तार सके ? ॥ ए॥ धर्मलक्षणमाह ॥सत्य धर्मका स्वरूप कहते हैं। पुर्गति नरक, तिर्यंच, कुमनुष्य, कुदेवत्वादि उर्गति में गिरते हुए प्राणिकी रदा करे, गिरने न देवे, इस वास्ते धारण करनेसें धर्म कहिये, सो, संयमादि दशप्र कार सर्वज्ञ कथित धर्म, पालनेवालेको मोदकेवास्ते होता है. । संयमादि दश प्रकार ये है. संयम जीवदया १, सत्यवचन २, अदत्तादानत्याग ३, ब्रह्म चर्य ४, परिग्रहत्याग ५, तप ६, क्षमा ७, निरहंका रता ज, सरलता ए, निर्लोजता १०, ॥ इससे उलटा हिंसादिमय असर्वज्ञोक्त धर्म, उर्गतिकाही कारण है.॥१०॥ अधर्मत्वमाह ॥ अपौरुषेयं० अपौरुषेय वचन, असंजवि-संजवरहित है. क्योंकि, जो वचन है सो किसी पुरुषके बोलनेसेंही है, विना बोले नही. वचू परिनाषणे इति वचनात्. और अक्षरोत्पत्तिके श्राप स्थान नियत है, सो जी पुरुषकोंही होते हैं. इस वास्ते बचन पुरुषके विना संजवे नही । नवेद्य Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधुः दि-न प्रमाणं । यहि होवे तो, वेदको प्रमाणता नही. क्योंकि, । नवेछाचां ह्याप्ताधीना प्रमाणता। वचनोंकीप्रमाणता, श्राप्त पुरुषोंके श्राधीन है.॥११॥ ___ असर्वोक्त धर्म प्रमाण नही यही कहते हैं.॥ मिथ्यादृष्टि असर्वज्ञोंने अपनी बुद्धिसें कहा हुश्रा, पशुमेध, अश्वमेध, नरमेधादि यझोंके कथनसें, और अपुत्रस्य गतिर्नास्ति इत्यादि कथनसें, जीववधादि कोंकरके जो धर्मही है, ऐसा अजाण लोकोंमें विशे ष प्रसिक है. तो जी, जवज्रमण (संसारज्रमण) का कारण है. यथार्थ धर्मके अनावसे ॥ १५ ॥ ___ कुदेवकुगुरुकुधर्मनिंदामाह ॥ सरागोपि० यदि जगत्में सरागः रागद्वेषादि सहित नी देव होवे, अब्रह्मचारी मैथुनाजिलाषीनी गुरु होवे, और दया हीन जी धर्म होवे, तो, हाहा ! इति खेदे बमा जारी कष्ट है, संसारलदण जगत् नष्ट हुआ, उर्ग तिमें पमनेसें. क्योंकि, पूर्वोक्त देव गुरु धर्मकरके मुबनाही होवे. यतः उक्तं ॥ रागी देवो दोसी देवो तामिसूमंपि देवो रत्ता मत्ता कंता सत्ता जे गुरू तेवि पुजा। मजे धम्मो मंसे धम्मो जीव हिंसाइ धम्मो हाहा कष्टं नको लोश्रो अट्टमटुं कुणंतो ॥१॥१३॥ ऐसें पूर्वोक्त अदेव,अगुरु, अधर्मकापरित्याग करके, सत्य देव, गुरु, धर्मकी, आस्था करनी, तिसका नाम Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ अष्टमपरिछेद. सम्यक्त्व है. सो सम्यक्त्व हृदयमें है, ऐसा पांच लद णोंकरके मालुम होता है, वे पांच लक्षण कहते हैं.॥ शमसं0-जिस जीवमें अनंतानुबंधि क्रोध मान माया लोनका उपचय देखिये, अर्थात् अपराध कर नेवालेके ऊपर जिसको तीव्र कषाय उत्पन्न होवेही नही, यदि उत्पन्न होवे तो, तिस क्रोधादिको निष्फ ल करदेवे, इस शमरूप लक्षणसें जाणिये कि, इस जीवमें सम्यक्त्व है।१। संवेग-जिसके हृदयमें संवेग संसारसे वैराग्यपणा होवे, तिस जीवमें संवे गरूप लक्षणसें सम्यक्त्व जाणना । २ । संसा रके सुखों ऊपर वेषी, वैराग्यवान्, परवशपणेसें कुटुं बादिकके पुःखसे गृहस्थपणेमें रहा हुआ मोदानि लाषी, जो जीव है, तिसमें निर्वेदरूप लक्षणसें सम्य क्त्व हैं.। ३। जिसके हृदयमें फुःखिजीवोंको देख के अनुकंपा (दया) उत्पन्न होवे, खिजीवोंके पुःखोंको दूर करनेका जिसका मन होवे, जो फुःखि जीवको देखके अपने मनमें दुःखी होवे, शक्तिश्र नुसार दुःखिजीवके पुःखोंको दूर करे, तिसमें अनु कंपारूप लक्षणसें सम्यक्त्व उपलब्ध होता हैं।४। जिनोक्त तत्त्वोंमें अस्तिनाव का होना, सो आस्ति क्य । ५। एतावता शम १, संवेग २, निर्वेद ३, अनुकंपा ४, और श्रास्तिक्य ५, इन पांचों लक्षणों सें हृदयगत सम्यक्त्व जाणना, ॥ १४ ॥ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ଏ जैनधर्मसिंधु. ॥अथ सम्यक्त्वके पांच जूषण कहते हैं. ॥ स्थैर्य-स्थैर्य जिनधर्मकेविषे स्थिरता ।। जिन धर्मकी अनावना।। जिनधर्ममें नक्ति । ३। जिन शासनमें कुशलता ।।। और तीर्थसेवा । ५। ये पांच सम्यकत्व के जुषण हैं. ॥ १५ ॥ अथ सम्यक्त्वके पांच दूषण कहते है. ॥शं का शंका धर्म. है, वा नही ? इत्यादि संदेह ।। आकांक्षाअन्य २ धर्मकी अनिलाषा ।। विचि कित्साधर्मके फलका संदेह । ३। मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा ।४। और मिथ्याष्टियोंका परिचय । ५। ये पांच सम्यक्त्वको पुषित करते हैं. ॥ १६॥ ऐसें पूर्वोक्त उपदेशकरके श्रेणिक, संप्रति, दशार्ण नादि सम्यक्त्वमें दृढ राजायोंके व्याख्यान करे। उस दिनमें श्रावक एकजक्त आचाम्लादि तप करे। साधुयोंको अन्न, वस्त्र, पुस्तक, वसति, यथायोग्य देवे । मंमलीपूजा करनी. । चतुर्विधसंघवात्सल्य करना. । और संघपूजा करनी. ॥ इतिव्रतारोपसंस्कारेसम्यक्त्वसामायिकारोपण विधिः। देशविरतिसामायिकारोपणविधिः सम्यक्त्व सामायिकारोपणानंतर तत्कालही, तिस की वासनानुसारें, वा मास वर्षादिके अतिक्रम हुए, Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ अष्टमपरिछेद. देशविरतिसामायिक श्रारोपण करना हैं.। तहां नंदि, चैत्यवंदन, कायोत्सर्ग, दमाश्रमणादि, सर्व विधि पूर्ववत् जाणनी. परंतु सर्वत्र सम्य क्त्वसामायिकके स्थानमें देशविर तिसामायिककानाम ग्रहण करना. । सर्वत्र तैसें करके फिर दूसरी नंदि दंगकोच्चारकालमें नमस्कार तीन पागनंतर, हाथमें ग्रहण करे परिग्रह परि माण टिप्पनक(फहरिस्त-नोंध) ऐसे श्रावकको गुरु, देशविरतिसा मायिकदमक उच्चरावे. ॥ सयथा ॥ ___“॥ अहणं जंते, तुह्माणं समीवे, थुलगं, पाणा श्वायं, संकप्पश्रो, बीइंदियाश्जीवनिकायनिग्गहनि यटिरूवं, निरावराहं, पञ्चक्खामि जावजीवाए, 3 विहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, कारणं, न करेमि, न कार वेमि, तस्स नंते पमिकमामि, निंदामि, गरि हामि, अप्पाणं, वोसिरामि, ॥" यह पाठ तीनवार कहना ॥१॥ इसीतरें सर्व व्रतोंमें तीन २ वार पाठ पढना.॥ ___“ ॥ अहणं नंते, तुह्माणं, समीवे, थूलगं, मुसा वायं, जीहाव्याशनिग्गहहेऊअं, कन्ना, गोनूमि, निकेवावहार, कूम सरकाश, पंचविहं, दरिकन्ना अविसए, अहागहिथ जंगएणं, पञ्चरकामि, जावजीवाए, विहं तिविदेणं, मणेणं वायाए, काएणं ॥५॥" Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. " “ ॥ यहणं, जंते, तुह्माणं, समीवे, थूलगं, यदि न्नादाणं, खत्तखणणाश्चोरकारकरं, राय निग्गहकरं, स चित्ता चित्त वत्थु विसयं, पच्चरकामि, जावजीवाए, डुविहं तिविद्वेणं ॥ ३॥" १४६ “ ॥ श्रहणं, जंते, तुह्माणं, समीवे, थूलगमेहुणं, जरा लिय, वेजवियां, अहाग हिा जंगएणं, तब डुविहं तिविदेणं दिवं एगविहं तिविहेणं तेरिछं, एग विहमेग विदेणं माणुस्सं, पच्चक्खामि, जावजी वाए, डुविहं तिविदेणं० ॥ ४ ॥ "" 66 " “ ॥ श्रहणं ते तुह्माणं, समीवे, अपरिमिां, परिग्गदं धणधन्नाश्नव विहवत्थु विसयं, पञ्चरका मि, छापरिमाणं, अहाग हिा जंगएणं, उवसंपकामि, जावजीवाए, डुविहं, तिविहेां ॥ ५ ॥ "" " जंते, तुह्माणं, समीवे, पढमं गुणवयं, दिसिपरिमाणरूवं, परिवामि, जावजी दाए, डुवि हं, तिविणं ॥ ६ ॥ " 66 “ ॥ श्रहणं जंते, तुह्माणं, समीवे, जवजोगपरि जोगवयं, जोयण, अतकाय बहुबीय राईनोय पाईंबावी सवत्थंरूवं, कम्मणा, पन्नरस, कम्मादाण, इंगालकम्मा इबहुसावऊं, खरकम्माइ, राय निर्उगं च, परिहरामि, परिमियं, जोगउवजोगं, उवसंप कामि, जावजीवाए, दुविहं, तिविदेणं ॥ ७ ॥” " ॥ श्रहणं जंते, तुह्माणं समीवे, अणत्थदंगु Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. णवयं, श्रद्दरुद्दशाण, पावोवएस, हिंसोवयारदाण,पमा यकरणरूवं, चनविहं, जहासत्तीए, पमिवजामि, उविहं तिविहेणं ॥ ७॥" __ “॥ श्रहणं नंते. तुह्माणं समीवे, सामाश्यं, जहासत्तीए, पमिवजामि, जावजीवाए, उविहं, तिविहेणं ॥ ए॥" __“॥ अहणं नंते, तुह्माणं समीवे, देसावगासिलं, जहासत्तीए पमिवजामि, जावजीवाए, उविहं तिविहेणं ॥ १० ॥” “॥ श्रहणं जंते, तुह्माणं समीवे, पोसहोववासं, जहासत्तीए, पडिवजामि, जावजीवाए, कुविहं, तिविहेणं० ॥ ११॥" ___“ ॥ अहणं नंते, तुह्माणं समीवे, अतिहिसंवि लागं, जहासत्तीए, पमिवजामि' जावजीवाए, छ विहं' तिविहेणं० ॥ १५ ॥" ___“॥ श्च्चेयं सम्मत्तमूलं पंचाणुवश्यं, तिगुणवश्यं, चनसिकावश्यं, वालसविहं, सावगधम्म, उवसं पङित्ताणं, विहरामि ॥ इति ॥ दमकोच्चारणानंतर कायोत्सर्ग, वंदनक, दमान मण, प्रदक्षिणा, वासदेपादिक पूर्ववत् ॥ परिग्रहप्रमाण टिप्पनकयुक्तिर्यथा ॥ नापार्थः-अमुक जिनेको नमस्कार करके, अमु Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैनधर्मसिंधु. क श्राविका, वा अमुक श्रावक अमुक गुरुके पास, गृहस्थ धर्मको अंगीकार करता है. ॥ १ ॥ श्री अरिहंतको वर्जके अन्य देवको नमस्कार न करूं, जिनमतके सुसाधुकों बोमके अन्य लिंगिकों धर्मार्थे नमस्कार न करूं । २ ॥ जिन वचन स्याद्वा दयुक्त सप्त वा नव तत्त्व को सत्य कर जान ता हुं, मिथ्याशास्त्रोंके श्रवण पवन लिखनेका मुक को नियम हो । ३ । परतीर्थिको प्रणाम, गुणानुवाद, स्तवन, जक्ति, राग, सत्कार, सन्मान, दान, विनय, वर्जुन करुं. । ४ । धर्मकेवास्ते अन्य तीर्थमें तप, स्नान, होमादिक नही करूं. तिनके उचित करने योग्य कर्ममें जयणा मुऊको हो । ५ । तीन, वा पांच, वा सातवार यथाशक्तिसें चैत्यवंदन करूं, एक, वा दो वा तीन वार, प्रतिदिन सुसाधुको नमस्कार करूं, और तिसकी सेवा करूं. । ६ । एक, वा दो, वा तीनवार प्रतिदिन जिनपूजा करूं; और पर्व दिनमें स्नानादि अधिक अधिकतर पूजा करूं. इति सम्यक्त्वम् । कुलाचार विवाहादि कृत्यमें जीवबध होते जयणा करुं । ७ । विना प्रयोजन एकेंप्रियका जी बध न करूं, प्रयोजनके हुए जयणा करूं, । इतिप्रथमत्रतम् । । कन्या यदि पांच प्रकारका मृषावाद, नियमक रके वर्जता हुं. । इति द्वितीयत्रतम् । J Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. ७४‍ जिससें चोर नाम पडे, और राजदंग होवे, ऐसा धन वर्जु, अर्थात् चोरी वर्ज्. । इतितृतीयत्रतम् । दो करण तीन योगसें देवतासंबंधि, एकविध त्रिविधें करी तिर्यंच संबंधि, मैथुनका नियम करता हुं. । ए । अनुभव करके स्तंजसमान ब्रह्मत्रतको अपने मन में धारण करूं, और जावजीव मनुष्य संबंधि मैथुनकायाकरके वर्ज्. । १० । परनारीको, और परपुरुषको ( स्त्री व्रतग्राहिता घ्याश्रित ) वर्जुइनके उपरांत अन्य क्रियाकी मुक्कों जयणा । इति चतुर्थव्रतम् ॥ नव प्रकार के परिग्रह में परिग्रहकी संख्याका प्रमाण यह है. । ११ । इतने मात्र रूपय्ये, इतने मोहोर, इतने मात्र गिति । १२ । इतने गिए तिमें रूपय्ये, यह गणिमवस्तुका ग्रहण है. इतनी वस्तु तोलमे और मापसें इतनी वस्तु | १३ | हाथ अंगु लसें मेय वस्तुका इतने प्रमाण मात्र मुजको संग्र ह करना कल्पे, तथा दृष्टिसें देखके जिनका मोल करा जावे ऐसे पदार्थ इतने रुपयोंके मोलके रखने. । १४ । इतनी खांमी अन्नकी एक वर्षमें रख नी, इतनी मुजको परिग्रह में भूमि रखनी कल्पे; इतने पुर, इतने गाम, इतने हाह, इतने घर, चौर इतने प्रमाण क्षेत्र, मुजको कल्पे. । १५ । इतने सेर, वा इतने तोले प्रमाण सोना, इतना मात्र रूपा, Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० जैनधर्मसिंधु. इतना कांसा, इतना तांबा, इतना लोहा, इतना तरुया, इतनासीसा, अपने घरमे रखना.। १६ । इतने दास, इतनी दासी, इतने सेवक-नौकर और इतने दासचेटकोंकी संख्यां मुजको रखनी कल्पे. । १७ । इतने हाथी, इतने घोडे, इतने बलद, इतने ऊंट, इतने गाडे, इतनी गौ, इतनी महिषी (जैस) । १७ । इतनी बकरी, इतनी नेमें, और इतने हल रखने मुफको कल्पे. और अमुक अमुक कर्मका मुजको नियम हो.। १ए । इति पंचमव्रतम् ॥ दसोंही दिशायोंमें अपने वशसें इतने योजन प्रमाण जावजीव गमन करना, और तीर्थयात्रामें जानेकी जयणा । २० । इतिषष्ठव्रतम् । कर्ममें लोगोपनोगमें, खरकर्ममें, पंदरा कर्मादा नमें, कुप्पोल आहार अज्ञात फूल फल श्नको वर्जु. । १। पांच ऊंबर ५, चार महा विग, हिम १७, विष ११, कारक १२, सर्व जातकी मट्टी १३, रात्रिनोजन १४, बहुबीजा १५, अनंतकाय १६, सं धान (बोल आचार) १७.। २२ । घोलवमां (विदल) १०, वृंताक १ए, अज्ञात फल फूल २० तुब फल २१ और चलितरस २२, ये बावीस वस्तुयोको वर्जु. । २३ । वर्जके अन्य फल फूल पत्रमेसें अमुक अमुक प्राणांतमें नी, नदण न करूं. २४ । इतने मात्र प्रासुक अनंतकायकी मुझको जयमा हो, इतने Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. १५२ अपक फल और अखंमित जी जण न करूं । २५ । या जन्मतक इतनी सच्चित्त वस्तुओं मेरेको नक्षण करने योग्य है, इतने पुष्टिकारक द्रव्य और इतने व्यंजन शाकादि मुजको कल्पे; तथा घृत, डुग्ध दहि प्रमुख । २६ । इतनी विगइ मुकको कल्पे. इतने पियादे, इतने गज, इतने तुरंग और इतने प्रधान रथोंकी मुजको जयणा हो । २७ । इतनी सुपारी, इतने लवंग, इतने एलाफल ( इलायची ) जायफल आदि मेरेको नित्य इतने प्रमाण कल्पे. सूतके, रेशमके, ऊनके, औरके, इन चार प्रकारके |२८| वस्त्रों में भी इतने वस्त्र पहिरने मुजको कल्पे; और इतनी जातिके फूल मेरे अंगके जोगवास्ते कल्पे. । २७ । श्रासन, सिंहासए, पीठ, पट्टे, बाजोट, पक, गदेला, रजाई, और खाट यदि ये सर्व इतने प्रमाण मुक्कों कल्पे. । ३० । कर्पूर, अगर, कस्तूरी, चंदन केशरादि मात्र मेरे अंगके वास्ते इतने कल्पे; और पूजामें जयणा । ३१ । इतनी नारी मेरे संजोग में इतने कालमात्र इतने घडे, बाणे हुए जल और प्रासुक जलके मेरेकों स्नान वास्ते कल्पे. । ३२ । इतनी वार दिनमें इतनी जातिके तेल मर्दन के वास्ते, इतने प्रकारके जात रोटी यादिक जोजन, और दिनमें इतनी वार जोन न करना । ३३ । यह सच्चित्तादिका जोग परिजोग Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु जावजीवतक है, इनका जी फेर प्रमाण दिनदिनमें करूं, ॐ ।३४ । इतने मात्र मणि, कनक, रूपा, मोती नूषण, अंगऊपर धारण करूं. इतने मात्र गीत, नृत्य, वाजंत्र, मुजको उपनोगवास्ते कल्पे. । ३५ । इतिसप्तमव्रतम् ॥ वैरिका घात, वैर लेना, इत्यादिक आर्त, रौष, ध्यान, श्रदाहिएयताविषे पापोपदेशका देना, श्नको वर्जु. । ३६ । श्रदाक्षिण्यताविषे हिंसाकारी गृहोप करणादि देना तथा कामशास्त्रकापढना,जूआखेलना, मद्य पीना, श्नको परिहरु. । ३७) हिंगोलेका विनो द, जक्त (नोजन ), स्त्री, देश, और राजा, इनकी स्तुति, वा निंदा; पशु पदीका युक, अकालमें नींद लेनी, संपूर्ण रात्रिमें सोना, । ३० । इत्यादि प्रमाद स्थानक, अनर्थादंमनामक गुण व्रत में वर्जु. । इति अष्टमव्रतम् ॥ एक वर्ष में इतने सामायिक कलं. तिनवमव्रतम्॥ इतने योजन मेरेको दिन, वा रात्रिमें दशोदिशा ोंमें जाना थाना कल्पे. । शतिदशमव्रतम् । एक वर्षमें इतने पौषध करु. इत्येकादशवतम् ॥ साधुओंको संविनाग नोजन वस्त्र आदिकसे करूं. ४० । प्रथम यतिको देके और नमस्कार करके पीछे ___* दिन २ में जो प्रमाण करना है, सो दशम देसावकाशिकवतांतर्गत जाणना.॥ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. ७५३ आप पारणा करूं; जो सुविहित साधुओं का योग न होवे तो, दिशावलोकन करके जोजन करूँ. । ४१ । इतिद्वादशत्रतम् ॥ यह द्वादश व्रतरूप श्रावकधर्म, पूर्वोक्त विधिसें पालुं विना बाएया जलका पान और स्नान, मरणां तमें जी न करुं । ४२ । कंदर्प, दर्प, थूकना, सोना, चार प्रकारका श्राहार करना, विकथा, कलद, इत्या दि जिनमंरुपमें वर्जु । ४३ । अमुक महाग में, अमुक गुरु सूरिके संतानमें, अमुक के शिष्य के पास, अमुक सूरिके पादांतमें. ४४ । अमुक संवत्सरमें, अमुक मासमें, श्रमुक पक्षमें, अमुक तिथिमें, अमुक वारमें, अमुक नक्षत्र में, अमुक नगर में. । ४५ । मुकका पुत्र, अमुक नामका श्रावक, यहां गृहस्थधर्म ग्रहण करता है. श्रमुककी पुत्री श्रामुककी जार्या, अमुक नामकी श्राविका, वा व्रत ग्रहण करती है. । ४६ । नवरं क्षत्रियके वास्ते प्राणातिपात स्थान में प्रथम व्रतमें 8७ । ४८ । यह दो गाथा, अधिक जाननी । युद्ध में, कोइ गौको चुरा लेजाता होवे तिसके हटानेमें, चैत्य, गुरु, साधु, संघको उपसर्ग देनेवा लेको हटानेमें, तथा पुष्टके निग्रहमें, जीवके वध हुए मुऊको दोष नही । ४५ । जनोंके, और देशके रक्षणवास्ते सिंह, व्याघ्र, शत्रुओंके हननेमें मुफको १५ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . जैनधर्मसिंधु. दोष नहीं;अर्थात् इन कामोंके लिए हिंसा करनेसें मेरा व्रत नंग न होवे।जल पीनेमें बाणना,अन्यत्र स्नाना दिमें यथाशक्तिः । ४ । इनमें प्रमादके होनेसें, गुरुके वचनसे यह तप करूं; अल्प बहुत नांगेसें, तिससे मेरी विशुद्धि होवे।४ए ॥ इति परिग्रह प्रमाण टिप्पनकविधिः॥ __इन बारह व्रतोंमेंसे को कितनेही व्रत अंगी कार करे, तिसको तितनेही उच्चार करावने । जिस को उ मासिक सामायिक व्रत अरोपतें हैं, तिसका यह विधि है. ॥ चैत्यवंदना, नंदि, क्षमाश्रमणादि सर्वपूर्ववत् सामायिकके अनिलाप करके और विशे षयह हैं; । कायोत्सर्गके अनंतर तिसके हस्तगत नूतन मुखवस्त्रिकाके ऊपर वासदेप करना.। तिसही मुखव स्त्रिकाकरके षट्र (६) मासपर्यंत उन्नयकाल सामायिक ग्रहण करे. । पीछे तीनवार नमस्कारका पाठ करके दंगक पढावे. सयथा ॥ ___“॥ करेमि जंते सामाश्यं, सावज्जं जोगं पच्च कामि, जावनियमं पछुवासामि, मुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाएकाएणं, न करेमि, न कारवेमि, तस्स नंते पमिकमामि, निंदामि, गरिहामि अप्पाणं, वोसि रामि, । से सामाश्ए चउबिहे तंजहा दव खित्त: काल नाव दवणं सामाश्शं पडुच्च, खित्तउणं श्हेव वा अन्नब वा, कालजेणं जाव बम्मासं, नाव Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठमपरिजेद. ७५५ उणं जाव गहेणं न गहिजामि,जाव बसेणं न बखि जामि, जाव सन्निवाएणं नाजिनविजामि, ताव मे एसासामाश्य परिवत्ती॥" __ ऐसें तीनवार पढावना.। मस्तकोपरि वासक्षेप करना, अदतवासाको अनिमंत्रणा, और संघके हाथ में वासदेप देना, यहां नहीं है परंतु प्रदक्षिणा तीन, करावनी. । इतिषाएमासिक सम्यक्त्वारोपण विधिः ॥ इसीतरें सम्यक्त्वका, और छादश व्रतोंका न। सही दंगकसें तिस अनिलापसें मास, षटू (६) मास वा वर्ष पर्यंत, सम्यक्त्व व्रतोंका उच्चारण करना.। नवरं सम्यक्त्वका सम्यक्त्वदंडसे उच्चार करना. नवरं इतना विशेष है कि, सम्यक्त्वकी अव धिमें 'जावजीवाए' यह पाठ न कहना. किंतु, 'मासं उम्मासं वरिसं' इत्यादि कहना. शेष ब्रतोंमें नी जावजीवाएके स्थानमें 'मासं बम्मासं वरिसं' इत्यादि कहना.॥ अथ प्रतिमोहन विधिः ॥ यावजीवतक नियम स्थिरीकरण प्रतिज्ञा जो है, तिसको प्रतिमा कहते हैं. तिनमें कालादिमें नियमव्यक्बेद नही है.। ते प्रतिमा एकादश (११) गृहस्थोंकी हैं.। तद्यथा ॥ ___“ ॥ दसण १, वय २, सामाश्य ३, पोसह ४, पमिमाय ५, बंन ६, श्रचित्ते, ॥ आरंज , पेस ए, उहिछ, वजाए १०, समणनूए य ११, ॥१॥" Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. अर्थः-तहां जिस प्रतिमामें मासतक श्रावक निःशंकितादि सम्यग् दर्शनवाला होवे, सा प्रथम दर्शनप्रतिमा १. व्रतधारी द्वितीया २. कृतसामायिक तृतीया ३. अष्टमी चतुर्दश्यादिमें चतुर्विध पौषध करना, चतुर्थी ४. पौषधकालमें, रात्रिकी आदि प्रतिमा, अंगीकार करनी, स्नान, प्राकनोजी, दिनमें ब्रह्मचारी, रात्रिमें परिमाण करे और कृत पौषध तो, रात्रिमें जी ब्रह्मचारी, इति पंचमी ५. सदा ब्रह्मचारी षष्ठी ६. सच्चित्तादारवर्जक सप्तमी 9. आप आरंभ नही करना, अष्टमी, नौकरोंसें रंज नही करावना, नवमी एए. उद्दिष्टकृताहारव र्जक, कुरमुमित, शिखासहित, वा निराधारीकृतध नका, पुत्रादिकोंको बतलानेवाला, इति दशमी १०. कुरमुंमित, लुंचितकेश, वा रजोहरणपात्रधारी, साधु समान, निर्ममत्व, अपनी जातिमें श्राहारादिके वास्ते विचरे, इतिएकादशी ॥ ११ ॥ १५६ यहां पहिली एक मास, दूसरी दो मास, तीस री तीन मास, एवं यावत् इग्यारहमी इग्यारह मास पर्यंत. तथा जो अनुष्ठान, पूर्व प्रतिमामें कहा है, सोही अनुष्ठान, यागेकी सर्व प्रतिमायोंमें जानना. इनमें वितथ प्ररूपणा श्रद्धानादि करना, सो प्रति चार है । तिनमें पहिली ' दर्शन प्रतिमा ' तिसमें 1 नंदि, चैत्यवंदन, क्षमाश्रमण, वासक्षेप, श्नोंका विधि Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. ԺԱՄ दर्शनप्रतिमा के जिलापसें सोही पूर्वोक्त रीतीसें जा नना और दंडक ऐसें हैं । "॥ श्रहणं नंते तुह्माणं समीवे, मिछत्तं, दवना वनि नं, पञ्चरका मि, दंसणपडिमं, उवसंपकामि, नो मेकप्प इ, ऊप्प नई अन्न थिए वा अन्न त्थिदेवयाणि वा, अन्न त्थियपरिग्ग हिश्राणि वा अरिहंतचे‍ आणि वा, वंदित्तएवा, नमं सित्तए वा, पुव्विं श्रणाल तेल वित्तए वा, संल वित्तए वा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाश्मं वा दानं वा, अणुप्पयाडं वा, तिवि हं तिविदेणं, मणेणं वायाए कारणं, न करेमि न कारवेमि, करंतंपि श्रन्नं न समणुजाणामि, तहा श्रई निंदामि, पप्पन्नं संवरेमि, अणागयं पच्चश्खा मि, अरिहंतस रिकां, सिद्धसरिक, साहु सरिकां, अप्पस रिकधं, वोसिरामि, तदा दवा खित्तयो कालो जावो, दवयोणं एसा दंसणप डिमा, खित्तणं देव वा अन्नत्थ वा, काल श्रोणं जाव मास, जावोणं जाव गहेणं न गहिजामि, जाव बलेणं न बलिकमि, जाव सन्निवारणं नाजि विजामि ताव मे एसा दंसणपडिमा || " शेषं पूर्ववत् । प्रदक्षिणात्रयादिक, दर्शनप्रतिमा स्थिरीकरणार्थ कायोत्सर्गादि. यहां निग्रह मासा तिक यथाशक्ति श्राचाम्लादि प्रत्याख्यान करना, तीनों संध्यामें विधिसें देवपूजन करणा पार्श्व Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. स्थादिवंदनका परिहार करना. शंकादि पांच अतिचारोंका त्याग करना. राजानियोगादि । (६) कारणोंसें जी यह दर्शन प्रतिमा नही त्यागनी. ॥ शतिदर्शनप्रतिमा. ॥१॥ अथ दूसरी व्रतप्रतिमा, सा, मास दो तक यावत् निरतिचार पांच अणुव्रत पालनविषया, गुणवत ३, शिक्षाव्रत ४, इनका पालना नी साथही जानना. अर्थात् दो मासपर्यंत निरतिचार छादश (१२) व्रतोंका पालना. यहां नंदिक्षमाश्रमणादि तिसतिस प्रतिमाके अनिलापसे पूर्ववत् । प्रत्याख्यान नियम चर्यादि सर्व तेसेंही जानने. दमक नी तिसके अनि लापसें सोही जानना. ॥ इतिव्रतप्रतिमा ॥२॥ अथ तीसरी सामायिक प्रतिमा, सा, तीन मास तक उनयसंध्यामें सामायिक करनेसें होती है. शेष नंदिनियम व्रतादिविधि सोश् अर्थात् पूर्वोक्तही जान ना. और दंडक सामायिकके अनिलापसे कहना.॥ इतिसामायिकप्रतिमा ॥३॥ अथ चौथी पौषधप्रतिमा, सा, चार मास यावत् अष्टमी चौदशको चार प्रकारके थाहारके त्यागमें रक्तको चार प्रकारके पौषधके करनेसे होती है. प्रव्यादिनेदसे दो आदि मासपर्यंत इस कथनसे यथाशक्ति सूचन कि गश्. यहां नंदिव्रत नियमा Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. दिविधि सोही और दंक तिसके (पौषधप्रतिमाके) जिलापसें कहना ॥ इतिपौषधप्रतिमा ॥ ४ ॥ ऐसें पांचमासादिकालवाली शेषप्रतिमायोमें जी यही पूर्वोक्त विधि है. नंदिकमाश्रमण दंगकादि तिसतिस प्रतिमाके जिलापसें. व्रतचर्या सोही है, परं संप्रतिकाल में, पर्यायसें, वा संहननकी शिथि लतासें, पांचमी प्रतिमासें लेके इग्यारहमीतक प्रति मानुष्ठानका विधि शास्त्रोंमें नहि दिखतादें प्रतिमाका आरंभ शुभ मुहुर्तमें करना ॥ इति देश विरतिसामा विकारोपण विधिः ॥ उपधान विधि ॥ uდ श्रुतसामा विकारोपण विधि कहते हैं. ॥ तहां यति योकों श्रुतसामायिकारोपण, योगोऽइन विधिसें होता है. उनका श्रुतारोपण, श्रागम पाठसें होता है. और योगोहन श्रागमपाठ रहित एसे गृहस्थोंको, श्रुत सामा विकारोपण, उपधानोद्वहनसें होता है. सो श्रु तारोपण, परमेष्ठिमंत्र, ईर्यापथिकी, शक्रस्तव, चैत्यस्त व, चतुर्विंशतिस्तव श्रुतस्तव, सिद्धस्तवादि पाठकरके होता है. ॥ उपधीयते ज्ञानादि परीक्ष्यते श्रनेनेत्युपधानं - जि ससें ज्ञानादिकी परीक्षा करिये, तिसको उपधान कहते है. अथवा चार प्रकार के संवर समाधिरूप सुखशय्यामें उत्तम होनेसें उत्सीर्षक स्थानमें उप Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ០ जैनधर्मसिंधु. धीयते स्थापन करिये, तिसको उपधान कहिये. तिस उपधानमें 3 (६) श्रुतस्कंधोंका उपधान होता है, सोही दिखाते हैं. परमेष्ठिमंत्रका १, श्योपथि कीका २, शक्रस्तवका ३, अर्हत् चैत्यस्तवका ४, चतु विंशतिस्तवका ५. श्रुतस्तवका ६. सिझस्तवकी वाचना उपधानविना होती है. प्रथम परमेष्ठिमंत्र महाश्रुतस्कंधके पांच अध्य यन है, और एक चूलिका है. दो दो पदके श्राला वे पांच है, सात २ अदरके अर्हत् श्राचार्य उपा ध्याय नमस्कार रूप तीन पद है. सिझनमस्कृति. रूप दूसरा पद पांच अदरोंका है, साधुओंको नम स्काररूप पांचमा पद नव श्रदरोंका है, एवं पांच पद. तिसके पीछे चूलिका, तिसमें दो पदरूप प्रथ म बालापक सोलां (१६) अदरोंका है, तृतीय पदरूप दूसरा आलापक पाठ (G) अदरोंका है, और चौथे पदरूप तीसरा आलापक नव (ए) अक्षरोंका है. तहां पंचपरमेष्ठिमंत्रमें पांचो पदोंमें तीन उद्देशे है, और चूलिकामें ली उद्देशे तीन है एवं उद्देशे ६. ॥प्रथमके पांचो पदोंमें पैंतीस (३५) अदर है, और चूलिकामें तेतीस (३३) श्रदर है. पांच अध्ययन ऐसें है ॥ नमो अरिहंताणं १ । नमो सिकाणं २ । नमो Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. श्रायरियाणं ३। नमो जवसायाणं ।। नमो लोए सबसाहूणं ॥ ५॥ एका चुलिका यथा ॥ एसो पंच नमुक्कारो; सबपावप्पणासणो, मंगलाणं च सवेसिं, पढम हवश् मंगलं ॥१॥ दो दो पदके थालापक यह है॥ नमो अरिहंताणं । नमोसिसाणं ॥१॥ , नमो आयरियाणं ।नमो उवसायाणं ॥५॥, नमो लोए सबसाहणं ॥३॥ एसोपंच नमुक्कारो। सबपावप्पणासणो॥४॥, मंगलाणं च सवेसिं । पढमं हवश् मंगलं ॥५॥ सात २ अक्षरके तीन पद यह है ॥ नमो अरिहंताणं । । नमोथायरियाणं । । नमो उवसायाणं । ७।॥१॥, __ पांच अक्षरोंका तीसरा पद “नमो सिकाणं।,,२ पांचमां पद नव अक्षरप्रमाण “नमोलोएसवसाहूणं।३,, चूलिकामें (१६) अक्षरप्रमाण प्रथम आलापक॥ नमुक्कारो, सवपावप्पणा सणो ॥१॥ श्राव अक्षर प्रमाण दूसरा आलापक,, मंगलाणं च सवेसि ॥२॥, चूलिकामे नव श्रदर प्रकार तीसरा आलापक "पढमं हव मंगलं ॥३॥, सर्व अक्षर पडसठ (६०) तिसका जपधान ऐसे है. ॥ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधुः नदि देववंदन. कायोत्सर्ग, कमाश्रमण, वंद नक, प्रमुख नमस्कारश्रुतस्कंधके अनिलापसे पूर्व वत जाणना. और अनिमंत्रित वासदेप नी प्रर्व वत् जाणना. । तहां पूर्वसेवामें एकलक्तके अंतरे उपवास पांच, एवं दिन ११, तहां प्रथम नंदिदिन में एकजक्त, वा निविगइ, दूसरे दिन उपवास, तीसरे दिन एकजक्त, चौथे दिन उपवास, पांचमे दिन एकनक्त, बछे दिन उपवास, सातमे दिन एक जक्त, आठमे दिन उपवास, नवमे दिन एकनक्त, दशमे दिन उपवास, एकादशमे दिन एकनक्त. ऐसें छादशम तप पूर्व सेवामें करना. । तहां पंचपरमेष्ठि पदोंकी वाचना नंदिविना नी देनी. शक्रस्तवका पढना, वासदेपपूर्वक तीन नमस्कारोंका पढना, सर्व वाचनाओंमें जाणना.। तहां श्रेणिबह आठ आचा म्ल करने, ऐसें एकोनविंशति (१ए.) दिन. पीले वीसमे दिन एकनक्त, श्कवीसमे दिन उपवास, बावीसमे दिन एकनक्त, तेवीसमे दिन उपवास, चौवीसमे दिन एकनक्त, पच्चीसमे दिन उपवास.। ऐसें अष्टम तप उत्तर सेवामें. । पीछे चूलिकाकी वाचना एसो पंच यहांसें लेके हव मंगलं ॥ इति नमस्कारस्योपधानं॥पीछे तिसकी वाचना, तिसका विधि यह है. ॥ पहिला सामाचारीका पुस्तक पूजना, पीछे मुखवस्त्रिकासे मुख ढांकके Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ७६३ ऐर्यापथिकी (इरियावहियं ) पक्किमके क्षमाश्रमण पूर्वक कहैं. ॥ " ॥ जगवन् नमुक्कारवायणासं दिसावणियं वाय पालेवावशियं वासरकेवं करेह । चेश्याएं च वंदावेद ॥' ऐसें नंदि करके बीसमें दिन एकनक्त करें, वाचना देनी चूलिका के चारों पदोंके सर्व उपधानों में प्रति दिन व्यापार पौषध करना, सवेरे २ पौषध पारके पुनः २ नित्य पौषध ग्रहण करना, और नमस्कार सहस्र गुणना ॥ इतिप्रथममुपधानम् ॥ १ ॥ ऐर्यापथिकीका जी उपधान ऐसेंही है. श्रादिकी, औरतकी, दोनोंही नंदि तिसके- ऐर्यापथिकी के जिलापसें करनी । तदां वाचनामें या अध्ययन, और वाचना दो-एक पांच पदोंकी और दूसरी तीन पदोंकी पांच पदोंकी एक चूलिका ॥ “ ॥ इछामि पडिक्कमितं इरिश्राव हिश्राए विरा हपाए । १ । गमणागमणे । २ | पाणक्कमणे, बी यक्कमणे हरीयक्ककमणे ॥३॥ श्रोसाउत्तिंग पण गदगमट्टी मक्कमासं ताणासंकमणे । ४ । जे मे जीवा विराहिया | ५ | यह एक वाचना, द्वादशम तपके पीछे देते हैं. ॥ १ ॥ " ॥ एगिं दिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिं दिया, पंचिं दिया | ६ | अजिया, वत्तिया, लेसिया, संघाइ या, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, गाओ ठाणं संका मिया, जी वियाश्रो ववरो विया, Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ जैनधर्मसिंधु. तस्स मिलामि उक्कम । । तस्सउत्तरीकरणेणं, पायचित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसबीकरणेणं, पावाणं कम्माणं निनायणमाए, गमि काउस्सग्गं।। यह दूसरी वाचना, श्राप चाम्लके अंतमें देनी. ॥२॥ इसके पीछे ॥ ___ “॥ श्रन्नथ्थ उससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, बीएणं, जंजाइएणं उगएणं, वायनिसग्गेणं, नमलि ए, पित्तमुछाए, ॥ १ ॥ सुहुमेहिं अंगसंचाहिं, सुहुमेहिं खेलसंचाहिं, सुहुमेहिं दिहिसंचाहिं।। एषमाश्एहिं, श्रागारेहिं, अजग्गो अविराहियो, हुऊ मे कामस्सग्गो । ३ । जाव अरिहंताणं, जगवं ताणं, नमुक्कारेणं, न पारेमि ।। ताव कायं, गणे णं, मोणेणं, जाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि । ५।" यह चूखिकाकी वाचना, अंत दिनमें देनी.॥ इतिऐर्यापथिक्याउपधानम् ॥२॥ अथ शक्रस्तवका उपधान कहते हैं. ॥ तहां नंदिश्रादि सर्व शक्रस्तवके श्रमिलापसे पूर्ववत् । तथा प्रथम दिनमें एकजक्त, दूसरे दिन उपवास, तीसरे दिन एकनक्त, चौथे दिन उपवास, पांचमे दिन एकनक्त, के दिन उपवास,सातमे दिन एक . जक्तः । तहां तीन संपदायोंकी प्रथम वाचना देते हैं. ॥ यथा ॥ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६५ “॥ नमुथ्थुणं अरिहंताणं जगवंताणं । १ । श्रा गराणं तिथ्थयराणं सयंसंबुझाणं ।। पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुमरीआणं पुरिसवरगंधह श्थीणं । ३ । इत्येका वाचना। __यह एक वाचना । नमुथ्थुणं । यह पद जिन्न है. । तीनोंही संपदा अनुक्रमे दो, तीन, चार पद वाली है.। पीछे एकश्रेणिकरके निरंतर सोलां (१६) श्राचाम्ल करने. । तिसमें पांच २ पदोंवाली तीन संपदाकी वांचना देते हैं. ॥ यथा ॥ ॥ लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिवाणं लोगप ध्वाणं लोगपजोअगराणं ।।। अजयदाणं चरकद याणं मग्गदयाणं सरणदयाणं बोहिदयाणं ५॥ धम्म दयाणं धम्मदेसियाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचकवट्टीणं । ६। यह दूसरी वाचना।। __ पीछे फिर नी तिसही श्रेणिकरके सोलां आचा म्ल करने. । तिसमें दो तीन पदोंवाली तीन संप दाकी वाचना देनी-॥ यथा ॥ ॥अप्पमिहयवरनाणदंसणधराणं विश्रबनमा णं ।। जिणाणं, जावयाणं तिन्नाणं तारयाणं, बुझा णं बोहयाणं, मुत्ताणं मोअगाणं । ७ । सवन्नूणं सब दरिसिणं सिवमयलमरश्रमणंतमरकयमबाबादमपुण राविति,सिफिगश्नामधेयं,मणं संपत्ताणं,नमो जिणा एं जिअनयाणं । ए।” यह तीसरी वाचना ॥३॥ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ जैनधर्मसिंधु. " ॥ जेा अईया सिद्धा, जेा नविस्सं तिला गए काले ॥ संप का वहमाणा, सवे तिविद्वेष वंदा मि ॥ " इस अंतिमगाथाकी वाचना जी, तीसरी वाचनाके साथही देनी ॥ इतिशक्रस्तवोपधानम् ॥३॥ अथ चैत्यस्तवका उपधान कहते हैं. ॥ नंदिया दिपूर्ववत् । प्रथम दिने एक जक्त, दूसरे दिन उप वास, तीसरे दिन एक जक्त; पीछे श्रेणिकरके तीन चामल करने. अंत में तीनोंही अध्ययनोंकी सम कालें एक वाचना देनी ॥ यथा ॥ “ ॥ श्ररिहंतचेश्श्राणं, करेमि काउस्सग्गं, वंदण वत्तिश्राए, प्राणवत्तिश्राए, सक्कारवत्तिश्राए, सम्माण वत्तिश्राए, बोहिलाजवत्तिश्राए, निरुवसग्गवत्तिश्राए | १ | सकाए, मेहाए, धीईए, धारणाए, अणुप्पेहाए, माणीए, गमिकाजस्सग्गं । २ । अन्नध्यउस सिए - यावत् - वो सिरामि ॥ ३ ॥ " यह एकही वाचना है. ॥ इति चैत्यस्तवोपधानम् ॥ ४ ॥ अथ चतुर्विंशतिस्तवका उपधान कहते हैं. ॥ नंदि, दो पूर्ववत् । प्रथम दिने एकनक्त, दूसरे दिन उपवास, तीसरे दिन एकनक्त, चौथे दिन उपवास, पांच दिन एकनक्त, बठे दिन उपवास, सातमे दिन एकनक्त । एसें अष्टम तप । अंत में प्रथम गाथाकी एक वाचना. यथा ॥ "" ॥ लोगस्स उमोगरे, धम्मतिथ्ययरे जिये । Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ६७ अरिहंते कित्तस्सं, चवीसंपि केवली ।।" यह एक वाचना.॥१॥ . पी श्रेणिकरकेही बारां (१२) आचाम्ल कर ने. तिसके अंतमें तीन गाथाकी वाचना.॥ यथा ॥ ॥ उसनम जियं च वंदे,संजवमनिणंदणं च सुम च।पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदेशसुवि हिं च पुप्फदंतं, सीअल सिजंस वासु पुऊंच॥ विमल मणंतं च जिणं,धम्मं संतिंच वंदामि ३। कुंथं अरंच मलिं, वंदे मुणि सुव्वयं नमिजिणं च ॥वंदामिरिहनेमि, पासं तह व माणं च ॥ यह दूसरी वाचना.॥२॥ ___पी तिस श्रेणिकरकेही तेरा (१३) श्राचाम्ल करने. तिसके अंतमें तीसरी वाचना ॥ यथा ॥ ॥ एवं मए अनिथुथा, विहुयरयमला पहीणजर मरणा ॥ चनवीसंपि जिणवरा, तिथ्ययरा मे पसीयंतु । ५। कित्तियवंदियमहिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिका । श्रारुग्गबोहिलानं समाहिवरमुत्तमं दिंतु । ६ । चंदेसु निम्मलयरा, श्राश्च्चेसु अहियं पयास यरा । सागरवरगंजीरा, सिझा सिकिं मम दिसंतु ॥७॥” यह तीसरी वाचना. ॥३॥ इति चतुर्विं शतिस्तवोपधानम् ॥५॥ अथ श्रुतस्तवका उपधान कहते हैं। नंदि, दो पूर्ववत् । प्रथम दिने एकजक्त, दूसरे दिन उपवास, तीसरे दिन एकजक्त,पीजे श्रेणिकरके पांच आचाम्ल Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. करने. तिसके अंतमै दोगाथाओंकी और दोनों वृत्तों की समकालही वाचना. तिसमें पांच अध्ययन है। तिसमें प्रथमकी दो गाथाओंके दो अध्ययन ॥ यथा॥ ____“॥ पुरकरवरदीवढे, धायश्संडे श्र जंबुदीवेश्र। जरहेरवय विदेहे, धम्माश्गरे नमसामि । १। तम तिमिरपमल विसणस्स, सुरगणनरिंदमहिअस्स । सीमाधरस्स वंदे, पप्फोमिअमोहजालस्स । ३। तीस . रा अध्यायन वसंततिलका वृत्तसें ॥ यथा ॥ ॥जाजरामरणसोगपणासणस्स, कहाणपुक्ख .लविसालसुहावहस्स । को देवदाणव नरिंदगण चिस्स, धम्मस्स सारमुवलन करे पमायं ।३। चौथा अध्ययन शार्दूलविक्रीमितवृत्तके पूवार्डसें। यथा ॥ लोगो जल पहिलं जगमिणं तेलुकमच्चासुरं, धम्मो वहुउँ सास विजय धम्मुत्तरं वदउँ ।। ॥५॥” इति श्रुतस्तवोपधानम् ।।इति षमुपधानानि । तथा सिहस्तवमें प्रथम तीन गाथाकी वाचवा यथा ___“ सिकाणं बुखाणं, पारगयाणं परंपरगयाणं । लोअग्ग मुवगयाणं, नमो सया सबसिकाणं ।। जो देवाण विदेवो, जं देवा पंजली नमसंति । तं देवदेवमहिरं, सिरसा वंदे महावीरं ।। कोवि नमुक्कारो, जिणवरवसहस्स वझमाणस्स । संसार सागराऊ, तारे नरं व नारिं वा ॥३॥” शेष दो गाथा ॥ यथा ॥ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिच्छेद. १६ " ॥ उति सेल सिहरे, दिरका नाणं च निसी हि या जस्स । तं धम्मचक्कवहिं, श्ररिनेमिं नम॑सामि | ४ । चत्तारि दस दो छा, वंदिया जिणवरा चवीसं । परमहनि हिडा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसं तु ॥ ५ ॥ इत्युपधानवाचना स्थितिः ॥ श्रथ विस्तार, निशीथ सिद्धांत उधृत उपधानप्रकरणसें 'जानना. ॥ "" नावार्थ:- पांच नमस्कार में पांच उपवासका उप धान होता है, आठ श्राचाम्ल तथा अंत में एक श्रष्टमतप, और बत्तीस श्राचाम्ल. चैत्यस्तवमें एक उपवास, और तीन याचाम्ल करणे. । चतुर्विंशति स्तवमें एक षष्ठतप, एक उपवास, और पंचवीस (२५) चाल करणे । श्रुतस्तव में एक उपवास, और पांच श्राचाम्ल । तीर्थंकर गणधरोंने चैत्यवं दनादि सूत्रमें यह उपधान कथन करा है. ॥ ५ ॥ व्यापाररहित, विकथाविवर्जित, रौद्र ध्यान रहित, विश्राम रहित उपयोगसहित, उपधान करे, ॥ ६॥ यह उत्सर्ग कहा . ब अपवाद कहते हैं. अथ कदापि उपधानवादी बालक होवे, वा वृद्ध होवे, वा शक्तिरहित तरुण होवे तो, अपनी शक्तिप्रमाण उपधान प्रमाण पूर्ण करे । रात्रिजोजनकी विरति, चतुर्विधादार, वा त्रिविधाहार वा द्विविधाहार प्रत्या ख्यानरूप करे; नवकारसहिश्रादि पञ्चरकाण कर ९७ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. के. । एक शुद्ध श्रांबिलकरे, अथवा इतर दो आंबि लकरनेसें, एक उपवास होता है. पणतालीस (४५) नवकारसहि करनेसे एक उपवास होता है. चौवी स (२४) पोरसि करनेसें, और दश (१०) साढपो रसी करनेसें, एक उपवास होता हैं. तीन निवि करनेसें, और चार एकलगणे करनेसें, एक उपवास होता है. श्राचरणासे सोलां (१६) पुरिमढ कर नेसें उपवास होता है. चार एकासनेसें, और पाठ बियासणे करनेसें नी, उपवास होता है. अर्थात् उपवासका जो फल है, सोही प्रायः पूर्वोक्त तपका फल है. इसवास्ते जिसकी पूर्वोक्त उपधानकी शक्ति न होवे सो, श्न तपोंमेसें किसी जी तपके करनेसें उपधान प्रमाण पूर्ण करे. ॥ ११॥ गौतमखामी कहते हैं. हे जगवान् ! ऐसे करते हुए प्राणीको बहोत काल होवे तो, कदापि नवका रवर्जित नि, तिसका मरण हो जावे, तो नवकार वर्जित सो प्राणी, अनुत्तर, निर्वाण, कैसे प्राप्त करें ? तिसवास्ते नवकार प्रथमही ग्रहण करो, उपधान होवे, वा न होवे. ॥ १३ ॥ महावीर स्वामी कहते हैं. हे गौतम ! जो प्राणी जिस समयमें व्रतोपचार (उपधानारंज) करे, तिसही समयमें, तूं जिनाज्ञाकरके ग्रहण करा हैं व्रतार्थ जिसनें, ऐसा तिसको जाण. ॥ १४ ॥ ऐसें जिसने Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७१ अष्ठमपरिवेद. उपधान करा है, सो प्राणी नवांतरमें सुलजबोधि होतेंहैं. और उपधानके अध्यवसायवाले जी, हे गौतम ! आराधक होतें है. परंतु हे गौतम ! जक्ति वाला जी प्राणी, जो उपधान विना श्रुतको ग्रहण करे, तिसको नही ग्रहण करनेवालेके सदृश जाण ना. तथा सो जीव, तीर्थंकरकी, तीर्थंकरके वच नोंकी, संघकी, और गुरुजनकी, आशातना करता है. सो श्राशातना बहुल प्राणी, हे गौतम संसा रमें ब्रमण करता है. उपधानवीना नवकार जिसने पढ लिया है, तिसको जी उपधान पीसेनी कर नेसें बोधि, (जिनधर्मप्राप्ति) सुलन कही है. यह उपधानकरके प्रधान, निपुण, संपूर्ण जी वंदन विधान, जिनपूजा, पूर्वकही श्रुतोक्त नीतिकरके पढना. तिस पंच मंगलको खर, व्यंजन, मात्रा, बिंड, पदच्छेद, स्थानोंकरके शुद्ध पढके, चैत्यवंदन सूत्रको, और अर्थको विशेषकरके जाणना. तिसमें जहां सूत्र विषे, वा अर्थविषे, संदेह होवे तो, तिस को बहुशः विचारके संपूर्ण संदेहरहित करना.॥२१॥ अथ शुजतीथि, करण, मुहूर्त, नत्र, जोग, लग्नमें, चंबलके अनुकूल हुए, कल्याणकारी प्रश स्त समयमें, अपने विनवानुसार जगवानका पूजन कर, परम जक्तिसें विधिपूर्वक साधुवर्गको प्रतिलान के, अतिसमूह सहित, हर्षवशसें खडे हुवें हैं, Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ जैनधर्मसिंधु. पुलक (रोम) जिसके, श्रद्धासंवेगविवेक परम वैरा ग्ययुक्त, निविमरागद्वैषमोह मिथ्यात्वमलरूप कलंक रहित, अति उबसायमान, निर्मल अध्यवसाय करके, अनुसमय, त्रिनुवनगुरु जिन नगवानकी प्रति मामे स्थापन किये हैं, नेत्र, और मन जिसने, तथा जिन चंद्रको वंदना करनेसे मैं धन्य हूं ऐसे मानते हुए, अपने मस्तकके ऊपर रचा है करकम लरूप मुकुट जिसने, जंतुरहित स्थानमें पदपदमें निःशंक सूत्रार्थको जावते ( विचारते) हुए, ऐसे पूर्वोक्त विशेषणवाले उपधानवाहिने, जिननायके कथन करे गंजीर समयसिद्धांतमें कुशल, शुनचारि त्रसंयुक्त, अप्रमादादि बहुविध गुण संयुक्त, ऐसे गुरुके साथ, चतुर्विध संघसंयुक्त, विशेषसे निजबंधु सहित, इस निपुण विधिकरके जिनबिंबको वंदना करनी. ॥ ए॥ - तदनंतर उपधानवाही, गुणाढ्यसाधुओंको परम नक्तिसें वंदना करे. तथा साधर्मियोंको यथायोग्य प्रणामादि करे. पीछे बहुमोलके उत्कृष्ट वस्त्र प्रदान पूर्वक नक्ति करके उपधानवाहिने, श्रीसंघका जारी सन्मान करना. ॥३१॥ इस अवसरमें अहीतरें जान्या है गंजीर सिझां तका सार जिसने, ऐसे गुरुने, आदपिणी, विज्ञपि णी, संवेदिनी, और निर्वेदिनी, यद चार प्रकारकी Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७३ अष्टमपरिजेद. धर्मकथा श्रझासंवेग साधनेमें निपुण जारी प्रबंध करके करनी. ॥३३॥ -पीने तिस नव्यजीवको श्रमासंवेगमें तत्पर जाण के, निपुणमति श्राचार्य, चैत्यवंदनादि करनेमें यह वचन कहे. ॥ ३४ ॥ . - जो जो देवानुप्रिय ! निज जन्म साफल्यताको प्राप्त करके तेंने थाजसें लेके जावजीवपर्यंत तिनों ही कालमें एकाग्र सुस्थिर चित्तकरके अर्हत्प्रतिमा को वंदना करनी. क्योंकि, क्षणभंगुर मनुष्यपणेमें यही सार है, तहां तैंने पुर्वान्हमें जिनप्रतिमाको और साधुयोंको वंदना करकेही जोजन करना कल्पे, और अपराह्नमें जी फिर वंदना कर केही सोना कल्पे, अन्यथा नही. ॥ ३ ॥ ऐसें अनिग्रहबंधन करके पीने वर्डमान विद्यासें अनिमंत्रके गुरु सात मुष्टीप्रमाण गंध (वासदेप) ग्रहण करे. पीजे तिस उपधानवाहीके मस्तकऊपर " निथ्थारगपारगो हविज तुम" ऐसे उच्चारण कर ता हुआ गुरु, नमस्कारपूर्वक निक्षेप करे (माले) इस विद्याके प्रजावके जोगसे निश्चय यह नव्य प्रारंजित कार्योंका शीघ्र निस्तार करनेवाला, और पार होनेवाला होवे. ॥४१॥.... अथ चतुर्विध संघजी, तूं, निस्तारक पारग हो, Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु तूं धन्य है. सलक्षण है, इत्यादि बोलता हुआ, तिसके मस्तकऊपर वासदेप करे. ॥ ४५ ॥ पीछे जिनप्रतिमाके पूजादेशसे सुरजिगंधसंयुक्त अम्लान श्वेतमाला ग्रहण करके, गुरु अपने हाथों सें तिस उपधानवाहीके दोनों खंधोंऊपर आरोपण करता हुआ, शुभ चित्तकरकेनिसंदेह ऐसा वच न कहे.॥४४॥ अछीतरें प्राप्त किया निज जन्म जिसने, तथा संचय करा है अतिवारी पुण्यका समूह जिसने, ऐसें जो जो जव्य ! तेरी नरकगति, और तिर्यग् गति, अवश्यमेव बंद होगई. हे सुंदर ! आजसे लेके, तूं, अपयस, नीच गोत्रोंका बंधक नहीं है. तथा जन्मांतरमें जी, यह पंचनमस्कार तुझको उर्ल ज नही है. पांच नमस्कारके प्रजावसें जन्मांतरमें जी तुकको प्रधान जाति, कुल, आरोग्य संपदाएं प्राप्त होवेगी. और इसके प्रत्नावसे मनुष्य कदापि संसारमें दास, प्रेष्य, उर्जग, नीच. और विकलें जिय नहीं होते हैं. किं बहुना. जोइस विधिसें इस श्रुतज्ञानको पढके श्रुतोक्त विधिसे शुभ याचा रमें-क्रिमा करे, वे, यदि तिसही जवमें उत्त म निर्वाणको प्राप्त न होवे तो, अनुत्तर अवेयकादि देवलोकोंमें चिरकाल क्रीमा करके उत्तम कुलमें उत्कृष्ट प्रधान सर्वांगसुंदर प्रकट सर्वकला प्राप्त करी Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. उ " हैं जिनोंने, ऐसेलोकोंके मनको आनंद देनेवाले होके, देवेंद्रसमान रुद्धिवाले, दयामें तत्पर, दानविनयसं युक्त, कामजोगों से विरक्त, संपूर्ण धर्मके अनुष्ठांनसें, शुभ ध्यानरूप अग्निसें चार घातिकर्मरूप इंधन कौ दग्ध किये हैं- जिनोंनें ऐसें महासत्त्व, निर्म ल केवल ज्ञान, सर्व मलकर्मसें रहित, होकर शीघ्र सिद्ध होते हैं. ॥ ५३ ॥ यह निर्मल फल जाणके बहोत मान देने योग्य जो देव, सोही नये सूरि, ऐसें जो जिन तिनके वचनसें यह उपधान महानि शीथ सूत्रसें सिद्ध करो . - इस अंतिम गाथामें प्रक रणकर्त्ता श्रीमान देवसूरिने जगवान्‌के 'महमाणदे वसूरिस्स' इस विशेषणद्वारा अपना जी नाम, सूचन करा है. ॥ ५५ ॥ इत्युपधानप्रकरणनावार्थः॥ ॥ इत्युपधानविधिः ॥ अथ मालारोपण विधि कहते हैं. ॥ तहां पिठ लाही नंदि क्रम जाणना । और इतना विशेष दे कि, मालारोपनतपके पूर्ण हुए तत्कालही वा दिनां तरमें होता है तहां यह विधि है. ॥ मालारोपण सें पहिले दिनमें साधुयोंकों छान्न पान वस्त्र पात्र वस ति पुस्तक दान देवे, संघको जोजन देवे, वस्त्रादि कसें संघकी पूजा करे, शुभ तिथि वार नक्षत्र लग्न में, दीक्षाके उचित दिनमें, परम युक्तिसें बृहत्स्नात्र विधिसें जिनपूजा करे, माता पिता परिजन साधर्मि Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ जैनधर्मसिंधु. कादिकोंको एकडे करे, पीछे मालाग्राही कृतज चित वेष, कृतधम्मिल, उत्तरासंगवाला, निजवर्णानुसार सें जिनोंपवीत उत्तरीया दिधारी, सज करके प्रचुरगंधादि उपकरण अक्षत नालिकेर हाथमें लेके पूर्ववत् सम वसरणको तीन प्रदक्षिणा करे । पीछे गुरुके समीपे क्षमाश्रमपूर्वक कहे ॥ " इछाकारेण तुने म्हं पंचमंगलमहासुरकंध इरिश्राव हिश्रा सुअरकंध, स क्कथ्ययसुअरकंध,चेश्ाध्यय सुष्ठाकंध, चडवी सथ्ययसु अरकंध, सुयथ्ययसुरकंध, अणुजाणावणिचं, वासरके वं करेह " ॥ पीछे गुरु जी निमंत्रित वासक्षेप करे । फिर श्राद्ध क्षमाश्रमणपूर्वक कहे " चेश्याई च वंदावेद" पीछे वर्द्धमानस्तुतियोंसें चैत्यवंदन कराना, शांतिदेवादि स्तुति पूर्ववत्. फिर शक्रस्तव श्रादि स्तोत्र कहना. पूर्ववत् । पीछे ऊठके “पंच मंगलमहासुरकंध परिक्रमण सुारकंध जावारिहं तथ्यय ग्वणारिहंतथ्यय चडवीसथ्यय नापथ्यय सिद्धथ्य जाणावणियं करेमि काउस्सग्गं अन्न थ्य उस सिएणं - यावत् - अप्पाणं वो सिरामि " कह के चतुर्विंशतिस्तव चिंतन करे, पारके प्रकट चतुर्विंश तिस्तव पढे । गुरु तीनवार परमेष्ठिमंत्र पढके यासन ऊपर बैठ जावे, संघ और परिजनसहित श्राद्धको जो जो देवाणु पिया, संपाविष्टा निययजम्मसाफलं ॥ तुमए अप्प निई, तिक्कालं जावजीवाए ॥ १॥ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. वंदे श्रवाई चेश्याई, एगग्गसुथिरचित्तेणं ॥ खणजंगुराशो मणुअत्तणा श्णमेव सारंति ॥२॥ तथ्य तुमे पुवएहे, पाणंपि न चेव ताव पायवं ॥ नो जाव चेश्याई, साइविध वंदिया विहिणा॥३॥ मलएहे पूणरवि, वंदिऊण निअमेण कप्पए जुत्तुं ॥ अवरएहे पुणरवि, वंदिऊण निश्रमण सुअणंति॥४॥ इत्यादि महानिशीथमध्यगत वीस गाथामें कही हुई देशना देके, तीन संध्या में चैत्यवंदन साधुवंदन करनेके अनिग्रह विशेषोंको देवे. पीले वासमंत्रके सात गंधकी मुष्ठी “ निथ्थारगपारगो होहि " ऐसें कहता हुआ गुरु, तिसके शिरमें प्रदेप करे. । पीछे अदतसहित वासदेपको मंत्रे । तिस समयमें सुर जिगंध अम्लान श्वेत पुष्पोंके समूहसे ग्रंथन करी हुई मालाको जिनप्रतिमाके पगोंऊपर स्थापन करे। सूरि खमा होके अनिमंत्रित वासको जिनचरणोंके ऊपर देप करे, पास रहे साधु साध्वी श्रावक श्रावि का सबको गंधादत देवे । श्राफ नमस्कारअनुज्ञा केवास्ते तीन प्रदक्षिणा देवे । तब गुरु “ निबारग पारगो होहि गुरुगुणेहिं वुढाहि” ऐसें कहे. और जन (संघ) “पूर्णमनोरथवाला तूं हुआ है, तूं धन्य है, तूं पुण्यवान् है" ऐसें कहते हुए उनके उपर गुरुसंघादि वासदेप करे । पीछे फिर श्राफ समवसरणको तीन प्रदक्षिणा देवे। पीछे गुरु और Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. समवसरणको तीन प्रदक्षणा देवे, पीछे गुरुसंघसहित समवसरणको तीन प्रदक्षिणा देवे, पीछे नमस्कारा दिश्रुतस्कंधानुज्ञापनार्थ कायोत्सर्ग करे, एकलोग सकाकाजसग करें, पारके प्रगट लोगस्स कहे. पीछे माला धारण करनेवाला तिसके स्वजनों के साथ प्रतिमाके आगे जाके शक्रस्तव पढके “ श्रणुजा उ मे जयवं रिहा ” ऐसें कहके जिनपदऊपरि पूर्व स्थापित मालाको लेके निजबंधुके हाथमें स्थाप न करके नंदिके समिप श्राय कर, श्राद्ध, मालाको गुरु मंत्रित करावे, । पीछे गुरु खमा होकर उपधा विधिका व्याख्यान करे. सो श्राद्ध जी, खमा होके श्रवण करे. " परमपयपुरिपछि " इत्यादि मालाकी गाथा महिमां दर्शकसें गुरु देशना करे. । तत्तो जिप डिमाए, देसा सुरनिगंबङ्कं ॥ मिला सिदामं, गिरिह गुरुणा सहवे ॥ १ ॥ तस्सोजयखंधेसु, यरोवंते सुद्धचित्ते ॥ निसंदेहं गुरुणा, वत्तवं एरिसं वयणं ॥ २ ॥ जो जो सुलद्ध निजम्म, निचिश्राइ गरुा पुन्नपनार ॥ नारयतिरिक्षगईयो, तुझावस्सं निरुद्धाओ ॥ ३ ॥ नो बंधगोसि सुंदर, तुम मित्तो कयनीगुत्ताणं ॥ नो ल्लो तुह जम्मं, तरेवि एसो नमुक्कारो ॥ ४ ॥ पंचनमुक्कार जावो य जम्मंतरेवि किर तुझ ॥ जाईकुलरुवग्ग, संपयाओ पहाणा ॥ ५ ॥ 996 Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिवेद. ए अन्नं चश्मायोचिश,न हुँति मणुश्रा कयाविजीअलोए दासा पेसा कुनगा, नीथा विगलिंदिया चेव ॥ ६ ॥ किं बहुणाजेशमिणा, विहिणा एवं सुझं अहि जित्ता॥ सुअनणि विहाणेणं, सुके सीले अनिरमिजा॥७॥ नो ते जश् तेणं चित्र, नवेण निवाणमुत्तमं पत्ता ॥ तोणुत्तर गेविजाइएसु सुरं अन्निरमेलं ॥ ७ ॥ उत्तमकुल म्मि उकि, लहसवंगसुंदरापयमा॥ सबकलापतहा, जणमणाणंदणा होऊं ॥ए॥ देविंदोवमरिकी, दयावरा दाणविणयसंपन्ना ॥ निविणकामनोगा, धम्म सयलं अणुठे ॥ १० ॥ सुहसाणानल निदव, घाश्कम्मिधणा महासत्ता ॥ उप्पन्न विमलनाणा, विहुयमला जत्ति सिशंति ॥११॥ __ यह गाथा तीनवार गुरु कहे । इन गाथायोंका नावार्थ उपधानप्रकरणलावार्थ में लिख दिया है. ॥ पीने तिसके स्कंधमें मालाप्रदेप करनी. ॥ पीने श्राकवर्ग बारात्रिक (भारती) गीननृत्यादि बहु त करे. । उपधानवाही श्रावकने तिस दिनमें श्राचा म्लादि तप करना; यदि पौषधशालामें मालारोपण होवे, तदा संघसहित जिनमंदिरमें जावे, चैत्यवं दना करके फिर पौषधागामें श्रायकर मंगलीपूजा दि करे. ॥ इस उपधान विधिको निशीथ, महानि शीथ, सिद्धांतके पढनेवालोंनेश्रुतसामायिकसमान माना है. और निशीथ महानिशथके तिरस्कार Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. करनेवालोंने नही अंगीकार करा है. तिनोंने तो प्रतिमोहन विधिकोही श्रुतसामयिक कथन करा है. ॥ माला जी कितनेक कौशेय पट्टसूत्रमयी ( रे शमी ) स्वर्ण, पुष्प, मोति, माणिक्य गर्जित, आरो पते हैं. और कितनेक श्वेत पुष्पमयी श्रारोपते हैं. तिसमें तो, अपनी संपत्तिही प्रमाण है. ॥ इति श्रुतसामायिक विधिः ॥ 900 ॥ चप्रथ श्रावक दिन चर्या ॥ दो मुहुर्त शेष रात्रि रहे श्रावक सूता ऊठे, मल मूत्रकी शंका दूर करे, और शुचि होकर पवित्र आसन ऊपर स्थित हुआ यथाविधि परमेष्ठि महा मंत्र का जाप करे पीछे कुल, धर्म, व्रत, श्रद्धाका, विचार करके, और स्तोत्रपाठसंयुक्त चैत्यवंदन कर के, अपने घर में, वा पौषधशालादि में स्थित होकर, प्रतिक्रमणादि करे । पीछे प्रत्युष कालमें अपने घर में स्नान करके, शुचि ढोके, शुचि वस्त्र पहिरके, संसारिक सुख, और मोक्ष देनेवाले, अरिहंतकी पूजा करे । तिसवास्ते जिनाचन विधि, अर्हत्कल्प के कथनानुसारें कहते हैं ॥ ॥ प्रर्दत् कल्पोक्त जिनपूजा विधि ॥ श्राद्ध प्राप्तगुरुउपदेश, जिनघरमें, वा बडे मंदि रमें, शिखा बांधी, शुचि वस्त्र पहरि, उत्तरासंग Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. उजर करी, स्ववर्णानुसार जिनोपवीत उत्तरीय उत्तरासंग धारी, मुखकोश बांधी, एकाग्रचित्त, एकांतमें जिन पूजन, करे. । प्रथम जल, पत्र, पुष्प, अदत, फल, धूप, अग्नि, दीपक, गंधादिकोंको निःपापता करे. ॥ ॥जलादिकोकी शुद्धीके मंत्र ॥ __“॥ ॐ आपोऽपकाया एकेंखिया जीवा निरव द्यार्हत्पूजायां निर्व्यथाः संतु, निरपायाः संतु, सद् तयः संतु, न मेस्तु संघट्टनहिंसापापमहदर्चने ॥" इति जलानिमंत्रणम् ॥ _ “॥ ॐ वनस्पतयो, वनस्पतिकाया जीवा, एकेंति या, निरवद्यार्हत्पूजायां, निर्व्यथाः संतु, निरपायाः संतु, सद्गतयः संतु, न मेस्तु संघट्टनहिंसापापमईद र्चने ॥” इतिपत्रपुष्पफलधूपचंदनाद्यनिमंत्रणम् ॥ __“॥ ॐ अग्नयोऽग्निकायाजीवा, एकेडिया, निरव द्याईत्पूजायां निर्व्यथाःसंतु, निरपाया संतु, सातयः संतु, नमेस्तु संघट्टनहिंसा पापमईदर्चने ॥” इति व न्हिदीपायनिमंत्रणम्॥सर्वका अनिमंत्रण वासदेपसें तीनवार करना.॥ पीछे । पुष्पगंधादि हाथमें लेके ॥ ___“॥ ॐ त्रसरूपोहं, संसारिजीवः,सुवासनः, सुमेध एकचित्तो, निरवद्याईदर्चने निय॑थो नूयासं, निःपा पो जुयासं, निरुपलवो जुयासं, मत्सं श्रिता अन्येपि संसारिजीवा निरवद्याईदर्चने निर्व्यथा नूयासुः,निःपा पाचूयासुः॥" Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य जैनधर्मसिंधु. __ ऐसें कहके अपने आपको तिलक करना, पुष्पा दिकरके अपना शिर अर्चन करना. ॥ फिर पुष्प श्रदतादि हाथमें लेके ॥ __“उँ पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतित्रसकाया एकछि त्रिचतुः पंचेंडियास्तिर्यङ्मनुष्यनारकदेवगतिगताश्च तुर्दशरज्वात्मकलोकाकाश निवासिनः श्ह जिनार्च ने, कृतानुमोदना; संतु, निःपापाः संतु,निरपायाः संतु, सुखिनः संतु प्राप्तकामाः संतु, मुक्ताः संतु, बोध माप्नुवंतुः॥” ऐसें पढके दशों दिशाओं में गंध, जल, श्रदतादि क्षेप करना. पी। शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरताजवंतु नूतगणाः॥ दोषा प्रयांतु नाशं, सर्वत्र सुखीजवंतु लोकाः॥१॥ सर्वेपि संतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः ॥ सर्वे नमाणि पश्यंतु, मा कश्चिदुःखनाग नवेत्॥२॥ यह आर्या और अनुष्टुप बंद पढने. ॥ पीने ॥ “ नूतधात्री पवित्रास्तु अधिवासितास्तु सुप्रो षितास्तु ॥” ऐसें पढके प्रथम लीपी हुई नूमिमें जलसें सेचन करे. ॥ पी॥ ___“ॐ स्थिरायशाश्वताय निश्चलाय पीठाय नमः॥" ऐसें पढके धोयके चंदनसें लेपन करके स्वस्ति कसे अंकित ऐसा पूजापट्ट (स्थालादि) स्थापन करे, और चैत्यमें तो स्थिरबिंब होनेसें इन दोनों Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. | ততই मंत्रोंसे नूमिजलपट्टादि अधिवासन करने. पी. ॥ __“॥ अत्र क्षेत्रे, अत्र काले, नामाहतो, रूपाईं तो, अव्याहँतो, जावाईतः समागताः, सुस्थिताः, सु निष्ठिताः, सुप्रतिष्ठिताः संतु॥” ऐसें पढके अर्हत् प्रतिमाको स्थापन करे निश्च लबिंबके हुए, चरण अधिवासन करे. ॥ पीछे अंज लि में पुष्प लेके ॥ ___“॥ 3 नमोहन्यः सिद्धेन्यस्तीर्णेन्यस्तारकेच्यो बुझेन्यो बोधकेन्यः सर्वजंतुहितेन्यः इह कल्पन बिंबे जगवंतोहंतः सुप्रतिष्ठिताः संतु ॥” ऐसें मौन करके कहके जगवत्के चरणोपरि पुष्प स्थापन करे. । फिर जी जलार्ड फूलोसे पूजापूर्व क कहे.॥ यथा ॥ "॥ स्वागतमस्तु सुस्थितमस्तु सुप्रतिष्ठास्तु ॥” पीने फिर पुष्पानिषेक करके ॥ ___“॥ श्रयंमस्तु, पाद्यमस्तु. श्राचमनीय मस्तु, सर्वोपचारै पूजास्तु ॥” इन वचनोंकरके वारंवार जिनप्रतिमाके ऊपर जलाई पुष्पारोपण करे ॥ पी जल लेके। ॐ अह वं । जीवनं तर्पणं हृद्यं, प्राणदं मलनाशनं ॥ जलं जिनार्चनेत्रैव, जायतां सुखदेतवे ॥१॥ यह मंत्र पढके जलसें प्रतिमाको अनिषेक करे. Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनधर्मसिंधु. पी चंदन कुंकुम कर्पूर कस्तूरी आदि सुगंध हाथमें लेके ॥ ॐ अहलं । इदं गंधं महामोदं, वृहणं प्रीणनं सदा ॥ जिनार्चने च सत्कर्म, संसिहयै जायतां मम ॥१॥ __ यह मंत्र पढके विविध गंध जिनप्रतिमाको विले पन करे. ॥ पीछे पुष्पपत्रादि हाथमें लेके ॥ ऊँ अँह दं । नानावण महामोदं, सर्वत्रिदशवबन्नं जिनार्चनेत्र संसिद्ध्यै, पुष्पं नवतु मे सदा ॥१॥ यह मंत्र पढके जिनप्रतिमाके ऊपर सुगंधमय विविध वर्णके पुष्प चढावे.॥ उँ त।प्रीणनं निर्मलं बल्यं, मांगल्यं सर्वसिद्धिदं॥ जीवनं कार्यसं सिध्यै, यान्मे जिनपूजने ॥१॥ ___ यह मंत्र पढके जिनप्रतिमाके ऊपर अदत आरोपण करे. ॥ सुपारी प्रमुख फल हाथमें लेके जायफलं स्वर्गफलं, पुण्यमोक्षफलं फलं ॥ दद्याजिनार्चनेत्रैव, जिनपादारसंस्थितम् ॥ १॥ ___ यह मंत्र पढके जिनपादाग्रे फल ढोवे. ॥ पीछे धूप लेके ॥ ॐ अँह रं। श्रीखंमागरुकस्तूरी, उमनिर्याससंनवः ॥ प्रीणनः सर्व देवानां, धूपोस्तु जिनपूजने ॥१॥ यह पढके अग्निमें धूपदेप करे. ॥ पीले फूल लेके। “॥ ॐ अँह जगवन्नयोहजयो जलगंधपुष्पादत फलधूपदीपैः संप्रदानमस्तु ॐ पुण्याहं प्रीयंतां जग Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. उज्य वंतोहतस्त्रिलोकस्थिताः नामाकृतिव्य नावयुताःखा हा ॥” यह पढके फिर जिनपूजन करे. ॥ पीले वासक्षेप लेके ॥ ___ “॥ ॐ सूर्यसोमांगारकबुधगुरुशुक्रनैश्चरराहुकेतु मुखाग्रहाः इह जिनपादाग्रे समायांतु पूजां प्रतीळ तु ॥” ऐसें पढके जिनपादसे नीचे स्थापित ग्रहोंके ऊपर, वा स्नानपट्टके ऊपर वासदेप करे. ॥ पीने ॥ “॥ आचमनमस्तु गंधमस्तु पुष्पमस्तु अक्षत मस्तु फलमस्तु धुपोस्तु दीपोस्तु ॥" ऐसें पढके क्रमसें जल, गंध, पुष्प, अक्षत, फल, धूप, दीपसें ग्रहोंका पूजन करे. ॥ पीजे अंजलिमें फूल लेके। ___ “॥ ॐ सूर्यसोमांगारकबुधगुरुशुक्रशनैश्चरराहुके तुमुखाग्रहाःसुपूजिताः संतु, सानुग्रहाः संतुं, तुष्टिदा संतु, पुष्टिदाः संतु, मांगल्यदाः संतु, महोत्सवदाः संतु ॥” ऐसें कहके ग्रहोंके ऊपर पुष्पारोपण करे. ॥ फिर इसी रीतिकरके। ___“॥ ॐ शानियमनिईतिवरुणवायुकुबेरेशानना गब्रह्मणो लोकपालाः सविनायकाः सक्षेत्रपालाः श्ह जिनपादाग्रे समागळंतु पूजा प्रतिबंतु॥" ऐसे कदके पूजापट्टो परि लोकपालोंको वासदेप करे. ॥ पीने ॥ * “॥ श्राचामनमस्तु गंधमस्तु पुष्पमस्तु श्रदत मस्तु फलमस्तु धुपोस्तु दीपोस्तु ॥” ऐसें पढके Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्द जैनधर्मसिंधु. क्रमसें जल, गंध, पुष्प, अक्षत, फल, धूप, दीपसे लोकपालोंका पूजन करे. ॥पी अंजलिमें पुष्प लेके। __“॥ इंसानियमनिई तिवरुणवायुकुबेरेशाननाग ब्रह्मणो लोकपालाः सविनायकाः सदेत्रपालाः सुपू जिताः संतु, सानुग्रहाः संतु, तुष्टिदाः संतु, पुष्टिदाः संतु, मांगल्यदाः संतु, महोत्सवदाः संतु ॥” यह पढके लोकपालोपरि पुष्पारोहण करे. ॥ पी पुष्पां जति लेके ॥ __“॥ अस्मत्पूर्वजा गोत्रसंचवा देवगतिगताः सुपू जिताः संतु, सानुग्रहाः संतु, तुष्टिदाः संतु, पुष्टिदाः संतु, मांगल्यदाः संतु, महोत्सवदाः संतु ॥” ऐसे कहके जिनपादाग्रे पुष्पांजलिदेप करे.॥ पीछे फिर जी पुष्पांजलि लेके ॥ ___ “॥ हैं अर्हनताष्टनवत्युत्तरशतदेवजातयः सदेव्यःपूजां प्रतिबंतु सुपूजिताः संतु, सानुग्रहाः संतु तुष्टिंदाः संतु, पुष्टिदाः संतु, मांगल्यदाः संतु, महोत्सवदाः संतु ॥” ऐसें कहके जिनपादाग्रे अंज लिकेप करे.॥ पी अंजलिके अग्रजागमें पुष्प धारण करके अर्हन्मंत्र स्मरण करके तिस फूलसें जिनप्रतिमाको पूजे ॥ अर्हन्मंत्रो यथा ॥ " “ ॥ ॐ अँई नमो श्ररहंताणं, 3 अँह नमो सयं संबुजाणं, अँ नमो पारगयाणं ॥” Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gos श्रष्ठमपरिवेद. यह त्रिपद मंत्र श्रीमत् अर्हन् जगवंतोंके आगे नित्य स्मरण करे. कैसा है मंत्र ? देवलोकादि सुख और मोदका, देनेवाला, सर्व पापोंका नाश करने वाला है.। विशेष इतना है कि, यह मंत्र अपवित्र पुरुषोंने, उपयोगरहित पुरुषोंने, नही स्मरण करना. तथा उच्चशब्दसे नही स्मरण करना, नास्तिकोंको और मिथ्यादृष्टियोंको नही सुनाना.। यह पूर्वोक्त अर्हन्मंत्र एकसौयाउ (१७) वार, वा तदर्ष ५४ वार जपना ॥ पीछे दो पात्रोंमे नैवेद्य धरे. पीले एक पात्रमें जल लेके। ‘उँ अ । नानाषप्रससंपूर्ण, नैवेद्यं सर्वमुत्तमं। जिनाग्रे ढौकितं सर्व, संपदे मम जायतां ॥१॥ यह पढके जलढोकना ॥ फिर दूसरा जल लेके। __“॥ ॐ सर्वेगणेशदेत्रपालाद्याः सर्वेग्रहाः सर्वे दिक्पालाः सर्वेऽस्मत्पूर्वजोन्नवादेवाः सर्वे अष्टनवत्युत्त रशतं देवजातयः सदेव्योऽहनताः अनेन नैवेद्येन संतर्पिताः संतु, सानुग्रहाः संतु, तुष्टिदाः संतु, पुष्टि दाः संतु, मांगल्यदाः संतु, महोत्सवदाः संतु ॥” ऐसें कहके दूसरे नैवद्यके पास जल ढोकन करे. ॥ यो जन्मकाले पुरुषोत्तमस्य, सुमेरुशृंगे कृतमङनैश्च ॥ देवैःप्रदत्तःकुसुमांजलिस्स,ददातुसर्वाणिसमीहितानि राज्याभिषेकसमये त्रिदशाधिपेन । बत्रध्वजांक तलयोः पदयोर्जिनस्य ॥ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. क्षिप्तोतिजक्तित्जरतः कुसुमांजलिर्यः । स प्रीणयत्वनुदिनं सुधियां मनांसि ॥२॥ देवेंः कृतकेवले जिनपतौ सानंदलत्यागतैः। संदेहव्यपरोपणदमशुजव्याख्यानबुट्याशयैः ॥ श्रामोदान्वितपारिजातकुसुमैर्यः खामिपादाग्रतो । मुक्तस्स प्रतनोतु चिन्मयहृदां जाणि पुष्पांजलिः।३। इन तीनों वृत्तोंकरके तीन वार पुष्पांजलिोप करे.॥ लावण्यपुण्यांगनृतोहतोय,स्तवृष्टिनावं सहसैव धत्ते। सविश्वननुर्खवणावतारो, गर्जावतारं सुधियां विहंतु।। लावण्यैकनिधेर्विश्व, न स्तवृद्धिहेतुकृत् ॥ लवणोत्तारणं कुर्या, नवसागरतारणम् ॥२॥ इन दो वृत्तोंकरके दो वार लवण उत्तारना.॥ साक्षारतां सदासक्तां, निहंतुमिव सोद्यमः॥ लवणाब्धिझवणांबु, मिषात्ते सेवते पदौ ॥१॥ यह पढके लवण मिश्र जल उत्तारना. ॥ जुवनजनपवित्रताप्रमोदप्रणयनजीवनकारणं गरी यः॥ जलमविकलमस्तु तीर्थनाथक्रमसंस्पर्शिसुखावहं जनानाम् ॥१॥ यह पढके केवल जलक्षेप करे. ॥ सप्तजीतिर्विघाताई सप्तव्यसननाशकृत् ॥ यत् सप्तनरकछारसप्ताररितुलां गतम् ॥ १॥ सप्तांगराज्यफलदानकृतप्रमोदं । सत्सप्ततत्वविदनंतकृतप्रबोधम् ॥ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gou अष्टमपरिवेद. तबक्रहस्तधृतसंगतसप्तदीप, । मारात्रिकं नवतु सप्तमसझुणाय ॥२॥ यह पढके श्रारात्रिकावतारण करे. ॥ विश्वत्रयत्नवैर्जीवैः, सदेवासुरमानवैः ॥ चिन्मंगलं श्रीजिनेजात्, प्रार्थनीयं दिने दिने ॥१॥ यन्मंगलं नगवतः प्रथमाईतः श्री, संयोजनैः प्रतिबनूव विवाहकाले ॥ सर्वासुरासुरवधूमुखगीयमानं । सर्वर्षिनिश्च सुमनोनिरुदीर्यमाणम् ॥२॥ दास्यंगतेषु सकतेषु सुरासुरेषु । राज्येर्हतः प्रथमसृष्टिकृतो यदासीत् ॥ सन्मंगलं मिथुनपाणिगतीर्थवारि। पादाभिषेक विधिनात्युपचीयमानम् ॥३॥ यधिश्वाधिपतेः समस्ततनुनृत्संसार निस्तारणे । तीर्थे पुष्टिमुपेयुषि प्रतिदिनं वृध्धिं गतं मंगलम् ॥ तत् संप्रत्युपनीतपूजन विधौ विश्वात्मनामर्हतां । नूयान्मंगलमयं च जगते खस्त्यस्तु संघाय च ॥४॥ इन चारों वृत्तोंकरके मंगल प्रदीप करे. । पीले शक्रस्तव पढे ॥ इति कल्पोक्त जिनपूजन विधि. ॥अथ स्नात्र विधि ॥ अथ अतिशय अईन्नक्तिवाला श्रावक, नित्य, वा पर्वदिनमें, वा कीसी कार्यातरमें, जिनस्नात्र कर नेकी श्छा करे, तिसका विधि यह है । Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. प्रथम स्नात्रपीठके ऊपर, दिपालग्रह अन्य दैवतपूजन वर्जके, पूर्वोक्त प्रकारकरके जिनप्रतिमा को पूजके, मंगलदीप वर्जित श्रारात्रिक करके, पूर्वोपचारयुक्त श्रावक, गुरुसमद संघके मिले हुए, चार प्रकारके गीतवाद्यादि उत्सवके हुए पुष्पांजा लि हाथमें लेके । __“॥ नमो अरहंताणं नमोई सिकाचार्योपाध्याय सर्वसाधुन्यः ॥” यह पढके दो बंद पढे.। कल्याणं कुलवृद्धिकारि कुशलं श्लाघाईमत्यद्भूतं । सर्वाघप्रतिघातनं गुणगणालंकारवित्राजितम् ॥ कातिश्रीपरिरंजणं प्रतिनिधिप्रख्यं जयत्यहतां । ध्यानं दानवमानवैर्विरचितं सर्वार्थसंसिझये ॥१॥ नुवननविकपापध्वांतदीपायमानं । परमतपरिघातप्रत्यनीकायमानम् धृतिकुवलयनेत्रावश्यमंत्रायमानं । जयति जिनपतीनां धाममत्युत्तमानाम् ॥२॥ यह पढके पुष्पांजलिदेपण करे. ॥ इतिपुष्पां जलिदेपः ॥ कर्पूरसिब्हाधिककाकतुंम,कस्तुरिकाचंदनवंदनीयः॥ धूपो जिनाधीश्वरपूजनेऽत्र, सर्वाणि पापानि दहत्व जस्त्रम् ॥१॥ यह पढके सर्वपुष्पांजलियोंके बीचमें धूपोत् Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. १ देप करे. ॥ और शक्रस्तव पढे. ॥ पीछे जलपूर्ण कलश लेके, दो श्लोक पढे. ॥ केवली जगवानेकः, स्वाद्वादी मंगनैर्विना ॥ विनापि परिवारेण, वंदितः प्रभुतोर्जितः ॥ १ ॥ तस्ये शितुः प्रतिनिधिः सहज श्रियाढ्यः । पुष्पैर्विनापि हि विना वसनप्रतानैः ॥ गंधैर्विना मणिमयाभरणैर्विनापि । लोकोत्तरं किमपि दृष्टिसुखं ददाति ॥ २ ॥ यह पढके प्रतिमाको कलशाभिषेक करे. ॥ इति प्रतिमायाः कलशा निषेकः ॥ पुष्प छालंकारादि उत्ता रके, कलशा निषेक करके पीछे फिर पुष्पांजलि लेके, दो काव्य पढे. । विश्वानंदकरी जवबुधितरी सर्वापदां कर्तरी । मोक्षाध्वैकविलंघनाय विमला विद्या परा खेचरी ॥ दृष्टया जावितकल्मषापनयने बद्धाप्रतिज्ञा दृढा । रम्यात्प्रतिमा तनोतु जविनां सर्वं मनोवांछितम् ॥ १ ॥ परमतररमासमागमोत्थप्रसृमर हर्ष विना सिसन्निकर्षा जयति जगति जिनेशस्य दीप्तिः प्रतिमा का मितदा यिनी जनानाम् ॥ २॥ " यह पढके फिर पुष्पांजलिप करे. पीछे पूर्वोक्त कर्पूर सिल्हा ' वृत्तकरके धूपोत्क्षेप करे, और श स्तव पढे । पीछे फिर पुष्पांजलि हाथमें लेके, दो काव्य पढे. ॥ यथा ॥ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उएर जैनधर्मसिंधु. न मुखमतिमात्रकं न विपदां परिस्फूर्जितं । न चापि यशसां दितिर्न विषमा नृणां उस्थता ॥ न चापि गुणहीनता न परमप्रमोद क्षयो । जिनार्चनकृतां नवे नवति चैव.निःसंशयम् ॥१॥ एतत्कृत्यं परममसमानंदसंपनिदानं । पातालोकः सुरनरहितं साधुनिः प्रार्थनीयम् ॥ सर्वारंजापचयकरणं श्रेयकां सं निधानं । साध्यं सर्वैर्विमलमनसा पूजनं विश्वन ः ॥२॥ यह पढके फिर पुष्पांजलिदेप करे. । पीने धूप हाथमें लेके पढे। कर्परागरुसिव्हचंदनबलामांसीशशैलेयक । श्रीवासजुमधूपरालघुसृणैरत्यंतमामोदितः ॥ व्योमस्थप्रसरबशांककिरणज्योतिःप्रतिछादको। धूपोत् क्षेपकृतो जगत्रयगुरोस्सौजाग्यमुत्तंसतु ॥१॥ सिकाचार्यप्रनृतीन्, पंच गुरून् सर्वदेवगणमधिकम् ॥ क्षेत्रे काले धूपः प्रीणयतु जिनार्चने रचितः ॥२॥ _ यह पढके धूपोत्क्षेप करे. । शक्रस्तव पढे. ॥ पीने फिर पुष्पांजलि लेके ॥ जन्मन्यनंतसुखदे नुवनेश्वरस्य । सुत्रामनिः कनकशैलशिरःशिलायाम् ॥ स्नात्रं व्यधायि विविधांबुधिकूपवापी। कासारपस्वलसरित्सलिलैः सुगंधैः ॥१॥ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. तां बुद्धिमाधाय हृदीहकाले, स्नात्रं जिनेंद्रप्रतिमाग स्य ॥ कुर्वति लोकाः शुभभावनाजो, महाजनो येन गतः स पंथाः ॥ २ ॥ यह पढके पुष्पांजलि क्षेप करे ॥ २ ॥ UB परिमलगुणसार सगुणाढ्या, बहुसंसक्तपरिस्फुरद्विरे फा | बहुविध बहुवर्णपुष्पमाला, वपुषि जिनस्य जव त्वमोघयोगा ॥ १ ॥ · यहवृत्त पढके पगोंसें लेके मस्तकपर्यंत जिनप्रति माको पुष्पारोपण करे | पीछे ' कर्पूर सिब्दाधि० ' इसकरके धूपोत्क्षेप करे । पीछे शक्रस्तव पढे । पीछे फिर पुष्पांजलि हाथमें लेके । साम्राज्यस्य पदोन्मुखे जगवति स्वर्गाधिपैर्गु फितो । मंत्रित्वं बलनाथतामधिकृतिं स्वर्णस्य कोशस्य च ॥ बिङ्गिः कुसुमांज लिर्विनिहितो जक्त्या प्रोः पाद यो दुःखौघस्य जलांजलिं सतनुतादालोकनादेव हि || चेतः समाधातुमनिं प्रियार्थं पुएर्य विधातुं गणनाय तीतम् ॥ निक्षिप्यतेत्प्रतिमापदाग्रे, पुष्पांजलिः प्रोज तनक्तिनावैः ॥ २ ॥ यह पढके पुष्पांजलिप करे . । सर्व पुष्पांजलि योंके अंत में धूपोत्क्षेप, और शक्रस्तवपाठ अवश्य करना. ॥ तदनंतर पुष्पादिकरके प्रतिमा पूजे. । पीछे मणि, स्वर्ण, ताम्र, मिश्रधातु, माटीमय, कलशे नाकी चौकीऊपरि स्थापन करना. तिनमें गंगो Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ guy जैनधर्मसिंधु. दकमिश्रित सर्व जलाशयोंके पानी स्थापन करे. चंदन केसर कर्पूरादि सुगंधी व्य करके वासित करे. चंदनादि और पुष्पमालासें, कलशोंको पूजे. जल पुष्पादिश्रनिमंत्रणकेमंत्र पूर्वे कहे हैं सो जानने। पीजे एक श्रावक, अथवा बहुत श्रावक, पूर्वोक्त वेष शौचवाले गंधसे हस्तको लेपन करके, मालालू षित कंउवाले तिन कलशोंको हाथऊपरि रके पीछे खखबुधिअनुसारसे जिनजन्मानिषेकचिन्हित स्तोत्रों को जिनस्तुतिगर्जित षट्पदादि (बप्पयादि) को पढे । पीने शार्दूलवृत्त पढे। जाते जन्मनि सर्व विष्टपपतेरिंखादयो निर्जरा। नीत्वा तं करसंपुटेन बहुनिः साई विशिष्टोत्सवैः ॥ शंगे मेरुमहीधरस्य मिलिते सानंददेवीगणे । स्नात्रारंजमुपानयंति बहुधा कुंजांबुगंधादिकम् ॥१॥ योजनमुखान् रजतनिष्कमयान् मिश्रधातुमृनचितान् दधते कलशान् संख्या तेषां युगषट्रखदंतिमिता॥२॥ वापीकूपइदांबुधितडागपत्वलनदनिकरादिन्यः ॥ थानीतैर्विमलजलैः स्नानाधिकं पूरयति च ते ॥३॥ कस्तूरीधनसारकुंकुममुराश्रीखंगकंकोलकै । हीबेरादिसुगंधवस्तुनिरखकुर्वति तत्संवरम् ॥ देवेंा वरपारिजातबकुलश्रीपुष्पजातीजपा। मालानिः कलशाननानि दधते संप्राप्तहारस्रजः॥४॥ ईशानाधिपतेर्निजांककुहरे संस्थापितं खामिनं । Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. सौधर्माधिपतिम्मिताङ्गतचतुःप्रांशुक्षश्रृंगोजतैः ॥ धारावारिजरैःशशांकविमलैः सिंचत्यनन्याशयः । शेषाश्चैव सुराप्सरस्समुदयाः कुर्वंतिकौतूहलम् ॥५॥ वीणांमृदंगतिमिलाकटाईनूर । ढक्कहुमुक्कपणवस्फुटकाहलानिः ॥ सणुऊर्शरकउंछनिषुषुणी नि यैिः सृजति सकलाप्सरसो विनोदनू ॥६॥ शेषाः सुरेश्वरास्तत्र, गृहीत्वा करसंपुटे ॥ कलशां स्त्रिजगन्नाथ, नपयंति महामुदः ॥७॥ तस्मिंस्तादृशउत्सवे वयमपि खोकसंवासिनो। ज्रांता जन्मविवर्त्तनेन विहितश्रीतीर्थसेवाधियः॥ जातास्तेन विशुद्धबोधमधुना संप्राप्य तत्पूजनं । स्मृत्वैतत्करवाम विष्टपविनोः स्नात्रं मुदामास्पदम्॥॥ ___ बालत्तणम्मि सामिश्र, सुमेरुसिहरम्मि कणयकल सेहिं ॥ तियसासुरेहिं एह विश्रो, ते धन्ना जेहिं दिहोसि ॥ए॥ ___ यह पढके कलशोंकरके जिनप्रतिमाको अनि षेक करे. । पीछे बडे बोटेके क्रमकरके सर्व पुरुष स्त्रि जी गंधोदकोंसे नात्र करे. । पीछे अनिषेकके अंतमें गंधोदकपूर्ण कलश लेके वसंततिलकावृत्त पढे । संघे चतुर्विध इह प्रतिनासमाने, श्रीतीर्थपूजनकृत प्रतिनासमाने ॥ गंधोदकैः पुनरपि प्रनवत्वजस्नं, स्नानं जगत्रयगुरोरतिपूतधारैः॥१॥ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जए जैनधर्मसिंधुं. यह पढके जिनपादोपरि कलशानिषेक करके स्नात्रनिवृत्ति करे पीछे पुष्पांजलि लेके पढे । इंसाने यम निईते जलेश वायो वित्तेशेश्वर जुजगा विरंचिनाथ ॥ संघहाधिकतमनक्तिनारनाजः स्नात्रोस्मिन् जुवन विनोः श्रीयं कुरुध्वम् ॥१॥ यह पढके स्नात्रपीठके पास रहे कहिपत दिक पासपीठऊपरि, पुष्पांजलिदेप करे. । पीले प्रत्येक दिशामें यथाक्रमकरके दिकपालोंको स्थापन करे । पीजे एकैक दिक्पालका पूजन करे। सुराधीश श्रीमन् सुदृढतरसम्यक्त्ववसते । शचीकांतोपातस्थित विबुधकोट्यानतपद ॥ ज्वलज्राघातक्षपितदनुजाधीशकटक । प्रजोः स्नात्रे विघ्नं हर हर हरे पुण्यजयिनाम् ॥ १॥ __“ शक्र श्ह जिनस्नात्रमहोत्सवे आगन्छ । दं जलं गृहाण । गंधं गृहाण । पुष्पं गृहाण । धूपं गृहाण । दिपं गृहण । नैवेद्यं गृहाण । विघ्नं हर । पुरितं हर । शांतिं कुरु । तुष्टिं कुरु। पुष्टिं कुरु । किं कुरु ।। वृद्धिं कुरु । वाहा ॥” इति पुष्पगंधादिनिरिंभपूजनम् ॥१॥ बहिरंतरनंततेजसा विदधत्कारणकार्यसंगतिः॥ जिनपूजनश्राशुशुक्षणे, करु विघ्नप्रतिघातमंजसा॥१॥ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टमपरिछेद. “ ॥ ॐ श्रग्ने इह शेषं पूर्ववत् ॥” इत्यग्निपू जनम् ॥२॥ दीतांजनप्रनतनो तनुसं निकर्ष। वाहारिवाहनसमुफुरदंगपाणे ॥ सर्वत्र तुल्यकरणीयकरस्थधर्म ॥ कीनाश नाशय विपछिसरं क्षणेत्र ॥१॥ - “यम श्ह शेषं पूर्ववत् ॥” इति यमपू जनम् ॥३॥ राक्षसगणपरिवेष्टितचेष्टितमात्रप्रकाशहतशत्रो ॥ स्नात्रोत्सवेत्र निईते, नाशय सर्वाणि फुःखनि ॥१॥ __“॥ ॐ निईतें इह शेषं पूर्ववत् ॥” इति नैर्शतपूजनम् ॥४॥ कल्लोलानीतलोलाधिक किरणगणस्फीतरत्नप्रपंच । प्रोतौर्वाग्निशोनं वरमकरमहापृष्टदेशोक्तमानम् ॥ चंचच्ची रितिशृंगिप्रतिकषगणैरंचितं वारुणं नो। वर्मबिंद्यादपायं त्रिजगदधिपतेः स्नात्रसत्रे पवित्रे॥१॥ ___“॥ ॐ वरुण श्ह० शेषं पूर्ववत् ॥” इति वरु पपूजनम् ॥५॥ ध्वजपटकृतकीर्तिस्फूर्तिदीप्यधिमान । प्रस्मरबहुवेगत्यक्तसर्वोपमान ॥ . इह जिनपतिपूजासंनिधौ मातरिश्व- .. नपनयसमुदायं मध्यबाह्यातपानाम् ॥ १॥ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OLVO जैनधर्मसिंधु. “ ॥ ऊँ वायो ईहण शेषं पूर्ववत् ॥” इति वायु पूजनम् ॥ ६॥ कैलासवास विलसत्कमलाविलास । संशुझहासकृतदौस्थ्यकथानिरास ॥ श्रीमत्कुबेरजगस्नपनेत्र सर्वं । विघ्नं विनाशय शुजाशय शीघ्रमेव ॥१॥ “॥ ॐ कुबेर इह शेषं पूर्ववत् ॥” इति कुबेर पूजनम् ॥ ७॥ गंगातरंगपरिखेलनकीर्णवारि, प्रोद्यत्कपईपरिमंमित पार्श्वदेशम् ॥ नित्यं जिननपनदृष्टहृदः स्मरारे, विघ्नं निहंतु सकलस्यजगत्रयस्य ॥१॥.. " ईशान इह शेषं पूर्ववत् ॥” इतीशान पूजनम् ॥ ७॥ फणमणिमहसा विनासमानाः । कृतयमुनाजलसं श्रयोपमानाः ॥ फणिन इह जिनानिषेककाले । बलि जवनादमृतंसमानयंतु ॥१॥ “ॐ नागा श्ह० शेषं पूर्ववत् ॥” इति नाग पूजनम् ॥१॥ विशदपुस्तकशस्तकरयाप्रथितवेदतया प्रमदप्रदः॥ जगवतः स्नपनावसरे चिरं । हरतु विघ्नजरं जुहि यो विजुः ॥१॥ “॥ ॐ ब्रह्मन् श्ह० शेषं पूर्ववत् ॥” इति ब्रह्म पः पूजनम् ॥१०॥ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ऐसें क्रमसें दिकपालपूजन करे। पीछे फिर जी हाथमें पुष्पांजलि लेकर आर्या पढे ॥ दिनकरहिमकरसुत, शशिसुतबृहतीशकाव्यर वित नयाः ॥ राहो केतो क्षेत्रप, जिनार्चने जवत सन्नि हिताः॥१॥ यह पढके ग्रहपीगेपरि पुष्पांजलिदेप करे । पीले पूर्वादिक्रमसे सूर्य, शुक्र, मंगल, राहु, शनि, चंड, बुध, बृहस्पति, श्नको स्थापन करे. हेठ केतु को, और उपर क्षेत्रपालकों स्थापन करे, पीछे प्रत्येक ग्रहकका पूजन करे। विश्वप्रकाशकृतजव्यशुनावकाश । ध्वांतप्रतानपरिपातनसहिकाश ॥ श्रादित्य नित्यमिह तीर्थकरा निषेके । कल्याणपल्लवनमाकलय प्रयत्नात् ॥१॥ “॥ ॐ सूर्य श्ह शेषं पूर्ववत् ॥” इति सूर्य पूजनम् ॥१॥ स्फटिकधवलशुमध्यानविध्वस्तपाप । प्रमुदितदितिपुत्रोपास्यपादारविंद ॥ त्रिभुवनजनशश्वजंतुजीवानुविद्य । प्रथय जगवतोर्चा शुक्र हे वीतविनाम् ॥१॥ “॥ ॐ शुक्र श्हा शेषं पूर्ववत् ॥” इति शुक्र पूजनम् ॥ ॥ . प्रबलबलमिलितबहुकुशल, सालनाल लितकसित Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ថិ០០ जैनधर्मसिंधु. विघ्नहते । नौमजिनस्नपनेऽस्मिन् विघटय विघ्नागमं सर्वम् ॥१॥ ॥ ॐ मंगल शह० शेषं पूर्ववत् ॥” इति मंग लपूजनम् ॥३॥ .. अस्तांहः सिंहसंयुक्त, रथ विक्रममंदिर ॥ सिंहिकासुत पूजाया, मत्र संनिहितो जव ॥१॥ __ “ॐ राहो हा शेषं पूर्ववत् ॥” इति राहु पूजनम् ॥४॥ ' फसिनीदल लीलयांतः, स्थगितसमस्तवरिष्ठविघ्न जात । रवितनय प्रबोधमेतात् जिनपूजाकरणैकसा वधानान् ॥१॥ “ॐ शने श्हण शेषं पूर्ववत् ॥” इति शनि पूजनम् ॥५॥ 'अमृतवृष्टिविनाशितसर्वदो, पचितविघ्न विषः शश लांबनः ॥ वितनुतात्तनुतामिह देहिनां, प्रसृततापन रस्य जिनार्चने ॥ १॥ - ___ “॥ ॐ चंद्र इह शेषं पूर्ववत् ॥” चंपूज नम् ॥६॥ बुधविबुधगणार्चितांघ्रियुग्म, प्रमथितदैत्य विनी तपुष्टशास्त्र ॥ जिनचरणसमीपगोधुनात्वं, रचय मतिं जवघातनप्रकृष्टाम् ॥१॥ “॥ ॐ बुध हा शेषं पूर्ववत् ॥” इति बुधप्पू जनम् ॥७॥ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टमपरिछेद. G०१ सुरपतिहृदयावतीर्णमंत्रप्रचुर, कलाविकलप्रकाश नावन् ॥ जिनपतिचरणानिषेककाले, कुरु बृहती वर विघ्न विप्रणाशम् ॥१॥ “॥ ॐ गुरो इह शेषं पूर्ववत् ॥” इति गुरु पूजनम् ॥ ७॥ निजनिजोदययोगजगत्रयी, कुशल विस्तरकारण तां गतः ॥ नवतुकेतुरनश्वरसंपदां, सततहेतुरवारि तविक्रमः॥१॥ __“॥ ॐ केतो हा शेषं पूर्ववत् ॥” इति केतु पूजनम् ॥ ए॥ कृष्ण सितकपिलवर्ण, प्रकीर्णकोपासितांघ्रियुग्मस दा॥ श्रीक्षेत्रपाल पालय, नविकजनं विघ्नहरणेन॥१॥ “ ॥ ॐ क्षेत्रपाल इह शेषं पूर्ववत् ॥” इति देत्रपालपूजनम् ॥ १०॥ __ पीडे गंध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीपसे पूर्व कहे मंत्रोंसेंही जिनप्रतिमाकी पूजा करे. पीछे हाथमें वस्त्र लेके वसंततिलकावृत्तपाठ पढे। त्यक्त्वाखिलार्थवनितादिकनूरिराज्य निःसंगतामुपगतो जगतामधीशः ॥ निगुर्जवन्नपि स वमणि देवदूष्य मेकं दधाति वचनेन सुरेश्वराणाम् ॥१॥ यह पढके वस्त्र चढावे. इत्ति वस्त्रपूजा ॥ पीछे नानाविध खाद्य, पेय, लक्ष्य, लेह्यसंयुक्त १०१ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२ जैनधर्मसिंधु. नैवेद्य. दो स्थानमें करके तिनमेंसें एक पात्र जिनके श्रागे स्थापके, श्लोक पढे। सर्वप्रधानसनतं, देहिदेहिसुपुष्टिदम् ॥ अन्नं जिनाग्रे रचितं, कुःखं हरतु नः सदा ॥१॥ यह पढके जलचुलुककरके जिनप्रतिमाको नैवैद्य देवे. पीछे दूसरे पात्रमें चुबुककरकेही, ग्रह दिक्पाला दिकोंको श्लोक पढके नैवेद्य देवे। जोजो सर्वे ग्रहालोक, पालाः सम्यग्दृशः सुराः ॥ नैवैद्यमेतगृह्णन्तु, नवंतो जयहारिणः ॥१॥ स्नात्र करायाविना जी पूजामें जिनप्रतिमाको इसही मंत्रकरके नैवेद्य देना. ॥ पी आरात्रिक मंगलदीपक पूर्ववत् । और शक्रस्तव जी पढना. ॥ जिस प्रतिमाका स्थान स्थितहीका स्नपन कराया जावे, तिसके वास्ते सर्वकुब तहांही करना.॥ __श्रीखंडकर्पूरकूरंगनानि, प्रियंगुमांसीनखकाकतुं डैः ॥ जगत्रयस्याधिपतेः सपर्या, विधौ विदध्यात्कुश लानि धूपः॥१॥ __ इस वृत्तकरके सर्वपूष्पांजलियोंके बिचाले धूपोत् क्षेप करना, और शकस्तवपाठ पढना.॥ प्रतिमा विसर्जनं यथा ॥ “॥ ॐ अह नमो जगवतेईते समये पुनःपूजां प्रतील स्वाहा ॥' इति पुष्पन्यासेन प्रतिमा विसर्जनं ॥ __“॥ झः इंशादयोलोकपालाः सूर्यादयो ग्रहा Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ८०३ सक्षेत्रपालाः सर्वदेवाः सर्वदेव्यः पुनरागमनाय स्वा हा ॥ " इति पुष्पादि निर्दिक्पाल ग्रह विसर्जनम् ॥ श्राज्ञाहीनं क्रियाहीनं, मंत्रहीनं च यत्कृतम् ॥ त्सर्वं कृपया देवाः, कमंतु परमेश्वराः ॥ १॥ आव्हानं न जानामि, न जानामि विसर्जनम् ॥ पूजां चैव न जानामि त्वमेव शरणं मम ॥ २ ॥ कीर्त्तिः श्रियो राज्यपदं सुरत्वं न प्रार्थये किंचन देव देव ॥ मत्प्रार्थनीयं जगवत्प्रदेयं स्वदासतां मां नय सर्वदापि ॥ ३ ॥ इति सर्वकरणीयांते जिनप्रतिमादेवादि विसर्जन विधि अर्हत् अर्चन विधिमें जी ऐसें ही विसर्जन जानना ॥ इति लघुस्नात्र विधिः ॥ पीछे (गृह चैत्यपूजानंतर ) बडे देवमंदिरमें जाक र, शकस्तवादिस्तोत्रोंकरके जिनराजकी स्तवना कर के, और जिनराजका पूजन करके, प्रत्याख्यान चिंत वन करे. | पीछे चैत्यको प्रदक्षिणा करके, पौषधशा ला ( उपाय ) में जाकर, देवकीतरें बड़े श्रानंदसें साधुको वंदन करे. सुंदरबुद्धिवाला होकर, पूजा सत्कार करे. | पीछे एकाग्रचित्त होकर साधुके मुख सें धर्मदेशना श्रवण करे. पीछे मनमें धारा हुआ प्रत्याख्यान करे. पीछे गुरुको नमस्कार करके कर्मा दानको तरें त्यागके, धन उपार्जन करे. यथा योग्य स्थानमें व्यापार समाचरे. कुत्सित बुरा कर्म Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४ जैनधर्मसिंधु. प्राणोंके नाश हुए जी न करे.। पीछे अपने घरदेह रामें अर्हत्की मध्यान्हपूजा करके, अन्नपानी समा चरे. नक्तिसें साधुओंको दान देके, अतिथीयोंकी पूजा श्रादरसत्कार करके, ओर दीन अनाथ मार्ग गणको संतोषके, अपने व्रतऔर कुलके उचित जोज्य वस्तुका जोजन करे. ॥ साधुको आमंत्रण ऐसें करे. ॥ दमाश्रमण पूर्वक गृहस्थ कहें। ___“॥ हे जगवन् फासुएणं एसणिणं असण पाणखाश्मसाश्मेणं वथ्थकंबलपायपुरणपमिग्गहेणं श्रोसहनेसजेणं पामिररूवेणं सिङासंथारएणं जयवं मम गेहे अणुग्गहो कायवो ॥” जोजनानंतर गुरुके पास शास्त्रका विचार करे, पढे, सुने. । पीछे धन उपर्जन करके घरको जाकर संध्यापूजा करके सूर्यके अस्त होनेसें दो घमी पहि ले, निजवांबित नोजन करे. सायंकालमें धर्मागार में सामायिककरके षमावश्यक प्रतिक्रमण करे. पीछे अपने घरमें थाके शांतबुद्धिवाला हुश्रा, जब एक पहर रात्रि जावे तब अहेतुस्तवादिक पढके प्रायः ब्रह्मचर्यव्रतधारी होके सुखसे निमा लेवे. जब निमाका अंत आवेतब परमेष्टिमंत्रस्मरणपूर्वक जिन, चक्री, आदिके चरित्रोंको चिंतन करे. और व्रता दिकोंके मनोरथ अपनी श्वासें करे, ऐसें अहोरा त्रिकी चर्या अप्रमत्त होके समाचरता हुथा, और Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. G०५ यथावत् कहे व्रतमें रहा हुश्रा, गृहस्थ जी कल्याण जागी होता है. । इति व्रतारोपसंस्कारे गृहिणां दिनरात्रिचर्या ॥ वासनागुरुसामग्री, विनवो देहपाटवम् ॥ संघश्चतुर्विधो हर्षा, व्रतारोपे गवेष्यते ॥१॥ वरकुसुमगंधकय, फलजलनेवऊधूवदीवेहिं ॥ अविहकम्ममहणी, जिणपूश्रा अहाहा होई ॥२॥ इति व्रतारोप संस्कार ॥ अथ अंत्य संस्कार विधिः ॥ श्रावक यथावत् व्रतोंकरके निज लवको पालके कालधर्मके प्राप्त हुए, उत्कृष्ट आराधना करे, तिस का विधि यह है. । जिन अरिहंतोंके कल्याणक स्थानोंमें, निर्जीव शुचि पवित्र स्थंमिल-जगामें, वा अरण्यमें, वा अपने घरमें, विधिसे अनशन करना। तहां शुजस्थानमें ग्लानको पर्यंत आराधना कराव नी। तथा अवश्यमेव अमुकवेला निकट मरण होवे गा ऐसें ज्ञानके हुए, तिथिवारनदात्रचंबलादि न देखना । तहां संघका मीलना करना । गुरु, ग्लान को जैसे सम्यक्त्वारोपणमें तैसेंही नंदि करे. । नवरं इतना विशेष है. सर्व नंदि देववंदन कायोत्सर्गादि पूर्वोक्त विधि 'संदेहणा आराहणा' इस नाम करके करावणा.और वैयावृत्त्य कर कायोत्सर्गानंतर। “॥ आराधना देवता आराधनार्थं करेमि काज Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ जैनधर्मसिंधु. स्सग्गं अन्नथ्थउस सिए० जाव - अप्पाणं वोसि रामि ॥” कहके कायोत्सर्ग करना. कार्योंत्सर्गमें चार लोगस्स चितवन करना, पारके श्राराधना स्तुति कहनी ॥ सा यथा ॥ यस्याः सान्निध्यतो जव्या, वांबितार्थप्रसाधकाः श्रीमदाराधना देवी, विघ्नत्रातापहास्तु वः ॥ १ ॥ शेषं पूर्ववत् ॥ पीछे तिसही पूर्वोक्त विधिसें सम्यक्त्वदंककका उच्चारण, द्वादशव्रतोंका उच्चारण करावणा । वास क्षेपकायोत्सर्गादि जी, ' संलेखना श्राराधना' के श्रालापककर के तैसेंही जाणना. । प्रदक्षिणा करनी, ग्लानकी शक्ति के अनुसार होवे जी, और नही जी होंवे । दंमकादिमें 'जावनियमंपतवासामि' के स्थान में 'जावजीवाए' ऐसें कहना । पीछे सर्व जीवों केसाथ अपराध की क्षामणा करनी । पीछे श्रावक परमेष्ठिमंत्रोच्चारपूर्वक गुरुके सन्मुख हाथ जोडके कहें खामि सजीवे सवे जीवा खमंतु मे ॥ मित्ती मे सवनूएस वेरं मझ न केाइ ॥ १ ॥ गुरु कहें “ ॥ खामे जो खमइ तस्स श्री राहणा "" जो न खमइ तस्स नहि राहणा ||" पीछे श्राव क क्षमाश्रमणपूर्वक कहें । " जयवं श्रणुजाह । गुरु कहें " । श्रणुजाणामि । " श्रावक परमेष्ठिमंत्र पाठपूर्वक कहें । Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. “ ॥ जे मए अणंतेणं जवप्रमणेणं पुढविकाइया श्राकाश्या ते काइया वाउकाइया वणस्सका GOS एगें दिया सुहमा वा, बायरा वा, पत्ता वा, पत्ता वा, कोहेण वा, माणेण वा, मायाए वा, लोहे पांच दिश्रट्टे वा, रागेण वा, दोसे वा, घाइयावा, पीडिया वा, मणेणं वायाए कारणं, तस्स मिठामि डुक्करं ॥ जो मेरे जीवने अनंत जव Hd पृथिवीप तेज वायु वणस्पती के एकें प्रिय जीव, सुक्ष्महो बादरहो पर्याप्तेहो पर्याप्ते हो क्रोधसें, मानसे, मायासें, लोनसें, पंचेंद्रियपणे, राग सें, द्वेषसें, घातित किएहों, पीमित किएद्दों, तिसका मन वचन काया करके मिठामि डुक्कम दो ॥ " फिर परमेष्ठिमंत्र पढके | “ ॥ जे मए तेणं वनमणेणं बेदिया वा सुहमा वा बायरा वा० शेषं पूर्ववत् ॥ " जो मेरे जीवनें अनंत जव जमते थके बेरिंद्रिय जीव, सुक्ष्म मबादर क्रोधादिकसें घातित पीमित कीए होय तिनका त्रिकोटी मि० " फिर परमेष्ठिमंत्र पढके । “ ॥ जे मए अणंतेणं जवनमणेणं तेइंदिया सुह मावा, बायरा वा० शेषं पूर्ववत् ॥ " जो मेनें नं तव नमते थके तेरिंडि जीव सुक्ष्म वा बादर क्रोधादिकसें घातित वा पीमित किए होय सो त्रिकोटी मि० ॥ फिर परमेष्ठिमंत्र पाठपूर्वक कहें Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. जे मए यांत जवनमणेण चरिं दिया जीवा, सुहमा वा बायरावा, शेषं पूर्ववत् । जो मेनें अनंत जव जमते थके चरिंदिय जीव, क्रोधादिकसें, घातित पीमित किए होय तिनका त्रिकोटी मिठा मि डुक्कम हो. " ॥ जे मए अणंतेणंजवनमणेणं पंचिंदिया देवावा मणुया वा, नेरइया वा, तिर रकजो पिया वा, जलयरा वा, थवलयरा वा, खयरा वा, सन्निया वा, सन्निया वा, सुदमा वा, बायरा वा०शेषं पूर्ववत् ॥ जो मेनें अनंत जव जमते थके पंचेंद्रिय जीव, देव, मनुष्य, नारकी, तिर्यंच, जलच र थलचर, खेचर, संज्ञी, असंझी, सुका बादर, क्रोधा, दिकसें घातित पीमित किए होय सो त्रिकोटी मिथ्या दुष्कृत हो. ॥ फिर परमेष्ठिमंत्र पाठपूर्वक श्रावक कहें । GOG "" ॥ जं मए अतेणं नवनमणेणं अलि नणि अं कोण वा, माणेण वा, मायाए वा, लोहेण वा, पंचिंदिप्रहेण वा, रागेण वा, दोसेण वा, मणेणं वायाए कारणं तस्स मिठामि डुक्कडं ॥ जो मैंने अनं त जव जमते के असत्य जाण कियाहो, क्रोधा दिक करके सो त्रिकोट । मिथ्यादुष्कृतहो. ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके कड़े | " ॥ जं मए श्रणंतेणं वनमणेणं यदिन्नं गहि श्रं कोण वा, माणेण वा० शेषं पूर्ववत् ॥ जो मेनें Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G०ए अष्टमपरिछेद. अनंत जव जमते थके श्रदत्त ग्रहण कियाहो क्रोधा दि करके सो त्रिकोटीसें मिथ्याऽष्कृतहो ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके। ___“॥ जं मए अणंतेणं जवनमणेणं दिवं माणुस्सं तिरिक्षं मेहुणं सेविअं कोहेण वा माणेण वाण शेष पूर्ववत् ॥ जो मेने अनंत नव नमते थके देव संबंधी, मनुष्य संबंधी, तिर्यंच संबंधी, क्रोधादि कसे मैथुन सेवन किया हो सो त्रिकोटी मिथ्या पुष्कृतहो. ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके। ___“॥ जं मए अणंतेणं नवप्रमणेणं अठारस्स पावहाणा कया कोहेण वा, माणेण वा, शेषं पूर्ववत् जो मेने अनंत नव जमते थके अठारह पापस्थानक सेवन किए हो. सो त्रिकोटी मिथ्यामु प्कृत हो ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके । ___“॥ जं मे पुढ विकायगयस्स सिलालेछुसकरास न्हावाबुयागेरिअसुवन्नाश्महाधानरूवं सरीरं पाणि वहे पाणिसंघट्टणे पाणिपीमणे पाववणे मिउत्तपो सणे गणे संलग्गं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि॥" जो मेराजीव पृथवी कायगत होके शिला पर कांक रे रेती वाबुका मट्टी सुवर्णादि सप्त धातु रूप शरी र वान् होके, प्राणिवध, प्राणि संघात, प्राणि पीमन, पाप वर्धक, मिथ्यात्व पोषक स्थानमे लगा होय Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० जैनधर्मसिंधु. तिनकों निंदताहुँ गर्दा करताहुं और तिन पापोंकों त्याग करताहुं" ___“॥ जं मे पुढ विकायगयस्स सिलाले सक्करासन्हा वावुआगेरिअसुवन्नाईमहाधानरूवंसरीरं अरिहंतचे इएसु अरिहंतबिंबेसु धम्महाणेसु जंतुरकणठाणेसु धम्मो वगर णेसु संलग्गं तं अणुमोआमि कहाणेणं अनिनंदे मि॥जो में पृथ्वीकायगत शिक्षा पर कांकरे वायुकारेती माटी सुवर्णादि सप्तधातु रूप शरीर हो के अरिहंत चैत्यमें अरिहंत बिंबमें, धर्म स्थानमें, जीव रक्षण स्थानमें, धर्मोपकरणमें, लगा हो तो तिनकों अनुमोद ताहुं कल्याण कारक जाणके श्रा नंदित होता हूँ।" फिर परमेष्टिमंत्र पढके।। ___“॥ जं मे आजकायगयस्स जलकरगमहिया श्रोस्साहिमहरतणुरूवं सरीरं पाणिवहे पाणिसंघ दृणे पाणिपीमणे पाववद्वणे मिबत्तपोसणे गणे संल ग्गं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥" जो में अपकायगत पानी करा हिम हार औस हेम हर तनुरूप शरीर होके प्राणि वध, प्राणि संघा त, प्राणि पीमक, पाप वर्धक, मिथ्यात्व पोषक स्थान में, लगा हो तो तिनपापकों निंदा गर्दा करके त्यागताहुँ' “॥ जं मे आजकायगयस्स जलकरगमहिथाश्रो स्साहिमहरतणुरूवं सरीरं अरिहंतचेश्एसु अरिहं Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिछेद. ११ तबिंबेसु धम्मघाणेसु जंतुरकणहाणेसु धम्मोवगर णेसु जिणन्हाणेसु तन्हदाहावहरणेसु संलग्गं तं अणु मोथामि कहाणेणं अनिनंदेमि ॥ जो में उपरोक्त अप्काय होके अर्हत् चैत्यमें, अर्हत् बिंबमें, धर्म स्थानमें, जीव रदाकाममें, धर्मोप करण कार्यमें, स्नात्रा निषे कमें, तृषादाह शमनमें, लगा हो तो तिनकों अनुमोदताहुँ ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके । “॥ जं मे तेउकायगयस्त अगणिशंगालमम्मुर जालायलायविझुजकातेश्ररूवं सरीरंपाणिवहे पाणि संघट्टणे पाणिपीडणे पाववढणे मिबत्तपोसणे गणे संसगं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥” “जो में अग्नी कायगत अग्नि शंगाला मुर्मुर ज्वाला धूम्र सहित विद्युत् उदका रूप शरीर होके प्राणिवधमें, प्राणि संघातनमे, प्राणि पीमनमे, पाप वनमे, मिथ्यात्व पोषककें स्थानमें, लगा होठं तिनकों, निंदा गर्हासें त्यागताहुँ” ___“॥ जं मे तेउकायगयस्स अगणिशंगालमम्मुर जाला अलायविजुनक्कातेश्ररूवं सरीरं सीश्रावहारे जिणपूशाधूवकरणे नेवेजपाए बुहाहरणाहारपाए संलग्गं तं अणुमोएमि कहाणेणं अनिनंदे मि ॥" " जो में अग्नीकाय गत अग्नि इंगाला मुर्मुर ज्वाला धूम्रसहित विद्युत् उल्का रूप शरीर होके, मी दूर करनेमें, जिनराजके आगे धूप करनेमें, पूजाके उप Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ जैनधर्मसिंधु. योगमें, नैवेद्य काममें, कुधाहरण थाहार पाणिके उपयोगमें, लगा हो तिनका अनु मोदताहुं कल्या ण कारक जाणके थानंदित होताहुँ” फिर परमेष्ठि मंत्र पढके । __“॥ जं मे वाकायगयस्स वाउऊंफासासरूवं सरीरं पाणिवहे पाणिसंघट्टणे पाववढणे मिलत्तपो सणे गणे संलग्गं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ___“जो में वायु कायगत शुभवायु ऊंझावायु श्वास रूप वायु शरीर होके प्राणि वधमें, प्राणि संघातनमें, पापर्कनमें, मिथ्यात्व पोषणके कारणमें, लगा हो तिनकों निंदा गर्दा करके त्यागताएं ॥" .. “॥ जं मे वाजकायगयस्स वाजऊंकासासरूवं सरीरं पाणिरकणे पाणिजीवणे साहूण वेयावच्चे धम्मावहारे संलग्गं तं श्रणुमोएमि कहाणेणं अनि नंदेमि ॥ जो में वायुकायगत, शुशवायु ऊंजावायु श्वास वायुरूप शरीर होके प्राणि रक्षणके कार्यमे, प्राणि जीवनके कारणमें, साधुओंकी वैय्यावच्चके काममें, गर्मीकी शांतिके कारणमें, लगाहो तिन कों अनु मोदताहुँ, कल्याण कारक जाणके आनं दित होता हुँ” फिर परमेष्टिमंत्र पढके। ___“॥ जं मे वणस्सश्कायगयस्स मूलकबझिपत्त पुप्फफलबीअरस निजासरूवं सरीरं पाणिवहे पाणि संघट्टणे पाणिपीमणे पाववद्हणे मिबत्तपोसणे गणे Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिबेद. १३ संलग्गं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥ जो में वनस्पती कायगत मूल बाल काष्ट पत्र पुष्प फल बीज रस थम रूप शरीर होके प्राणि वधमे, प्राणि संघातनमें, पाणि पीमनमें, पाप वईनमें, मिथ्यात्व पोषक स्थानोमें, लगा हो तिनकों निंदा गर्दा करके त्याग करता हुँ” ___“॥ जं मे वणस्सइकायगयस्स मूलक/बविपत्त पुप्फफलबीअरसनिङासरूवंसरीरं बुहाहरणेसुथरि हंतचेश्अपूयणेसु धम्महाणेसु नेवळकरणेसु जंतुर कणहाणेसु संलग्गं तं अणुमोएमि कहाणेणं अनि नंदे मि॥जो में वनस्पती कायगत मूल काष्ट बाल पत्र पुष्प फल बीज रस थम रूप शरीर होके कुधादूर करनेमे, अर्हत् प्रतिमाके पूजनमें, धर्म स्थानमें, नैव द्य करनेमें, जीव रक्षाके कारणमें, लगा हो तिन कों अनु मोदताहुं कल्याण कारक जाणके श्रानं दित होता हुँ” फिर परमेष्टिमंत्र पढके। ___“जं मे तसकायगयस्स रसरत्तमंसमेअहिमजा सकचम्मरोमनहनसारूवं सरीरं पाणिवहे पाणिसंघ दृणे पाणिपीडणे पाववडणे मिउत्तपोसणे गणे संल ग्गं तंनिंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥ जो में त्रस काय गत रस रुधीर मांस मजा मेद शुक्र चर्म, रोम नक नसा रूप शरीर होके प्राणि वधमें, प्राणि संघातनमें, प्राणि पीडनमे, पाप वर्जनमे, मिथ्यात्व Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ जैनधर्मसिंधु. पोषणमे लगा होउं तिनकों निंदापूर्वक त्यागताहुँ " जं मे तसकायगयस्स रसरत्तमंसमेाहि मका सुक्कचम्म रोमनदनसारूवं सरीरं अरिहंतचे‍ एस अरिहंतबिंबेसु धम्महाणेसु जंतुररकणठाणेसु धम्मो वगरणेसु संलग्गं तं श्रणुमोए मि कल्लाणेणं अनि नंदेमि ॥ जो में त्रस काय गत रस रुधीर मांस दाम चरबी शुक्र चर्म रोम नखरूप शरीर होके श्रर्हच्चैत्य में, अर्हत् बिंबमें, धर्म स्थानमे, जंतु रक्षा मे, धर्मो पकणमें लगा होउं तिनकों अनु मोदके आनंदित होता हुं ॥ " फिरपरमेष्टिमंत्र पढके । " ॥ जं मए इव जवे, मणेणं वायाए कारणं डुवं चिंतियं, डुधं नासित्रं, डुधं कयं तं निंदामि गरिहामि वो सिरामि ॥ जो मेनें इह जवमें छानंत जव म में मन वचन काया करके पुष्ट विचार किया हो दुर्वचन बोले हो, दुष्ट प्रवृत्ति करी हो तिन कों निदा पूर्वक त्याग करताहुं "" " “ ॥ जं मए व जवे, मणेणं वायाए कारणं सुबु चिंतियं, सुठु जासि, सुहु कयं तं श्रणुमोणुमो एमि कलाषेणं अजिनंदे मि ॥ जो मेने इह जवमें, अनंत नव भ्रमणमें, मन वचन काया करके श्रेष्ट विचार कियाहो, श्रेष्ट जाषा बोली हो, श्रेष्ट प्रवृत्ति करी हो तिनकी अनुमोदना करताहुँ, कल्याण कार क जानके आनंदित होताहुं ॥ "" "" Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठमपरिजेद. ७१५ यहां पहिला समारोपितसम्यक्त्व व्रतको जी फिर सम्यक्त्व व्रतारोप करना. और जिसको पहि लें सम्यक्त्व व्रतारोप न करा होवे, तिसको जी अंतकालमें सम्यत्व व्रतारोप करना योग्य है.। जिस को पहिलो व्रतारोप करा होवे, तिसको इस अंत समयमें एकशोचौवीस अतिचारोंकी थालोचना करा नी.। वे अतिचार आवश्यकादि सूत्रोंसें जान लेने.' पीथालोचना विधि करना, सो प्रायश्चित्तविधिसें जानना.। पीछे गुरु सर्व संघसहित वासश्रदतादि ग्लानके शिरमें निदेप करे. ॥ ॥ इति अंत्य संस्कारे आराधना विधिः॥ पीजे ग्लान (रोगी-बीमार ) दमाश्रमण परमे ष्टिमंत्र पाठपूर्वक कहें ॥ थायरियउवशाए, सीसे साहिम्मिए कुलगणे श्र॥ जे मे कया कसाया, सत्वे तिविहेण खामेमि ॥१॥ सवस्त समणसंघस्स, जगवयोअंजलिं करियसीसे॥ सवं खमावश्त्ता, खमामि सबस्स अयंपि ॥२॥ सबस्स जीवरासिस्स,नाव धम्म निहियनियचित्तो। सवं खमावश्त्ता, खमामि सबस्सहयंपि ॥३॥ ___ “॥ जयवं जं मए चउगगएणं देवा तिरिया मणुस्सा नेरश्था चउकसाश्रोवगएणं पंचिंदिवस हेणं हम्मि नवे अन्नेसु वा जवग्गहणेसु मणेणं वायाए कारणं दूमिया संताविश्रा अनिताश्या तस्स ष्टिमंत्र पाए, सीस विदेण खा Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनधर्मसिंधु. मिछामि उक्कम जेहिं अहं अनिदूमियां संताविश्रो अजिहयो तमहंपि खमामि ॥” । __ पीछे गुरु दंगकसहित इन तीनों गाथाका विस्ता रसे व्याख्यान करे। पीडे ग्लान, गुरु साधु साध्वी श्रावक श्राविकायोंको प्रत्येकदामणां करे. । यहां गुरुओंको वस्त्रादि दान, और संघको पूजासत्कार जानना. ॥ इत्यंतसंस्कारे दामणाविधिः ॥ __ अथ मृत्युकालके निकट हुए, ग्लान, पुत्रादि कोंसें जिनचैत्योंमें महापूजा स्नात्रमहोत्सव ध्वजा रोपादि करावे, चैत्यधर्मस्थानादिमें धन लगावे.। पीजे परमेष्ठिमंत्रोच्चारपूर्वक पढे। जे मे जाणंतु जिणा, अवराहा जेसु २ गणेसु ॥ तेहं आलोएमि, उवडिओ सबकालंपि ॥१॥ बजमबो मूढमणो, कित्तियमित्तंपि संचरइ जीवो ॥ जं च न सुमरामि अहं, मिठामि पुक्क तस्स ॥२॥ जं जं मणेण बझ, जं जं वाया जासिकं किंचि ॥ जं जं काएण कयं, मिठामि दूंकडं तस्स ॥३॥ खामेमि सबजीवे, सवे जीवा खमंतु मे ॥ मित्ती मे सबलूएसु वेरं मद्य न केण ॥४॥ पीले तीन नमस्कार पारपूर्वक कहें। "॥ चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिका मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपन्नत्तो धम्मो, मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिझा लोग Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अष्टमपरिबेद. त्तमा, साह लोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मो लोग त्तमो । चत्तारि सरणं पवजामि, अरिहंते सरणं पव जामि, सिझे सरणं पवजामि, साह सरणं पव जामि, केवलिपन्नत्तं धम्म, सरणं, पवजामि ॥" यह पाठ तीन वार पढे । पी गुरुके वचनसें अष्टादश (१०) पापस्थानकोंको वोसरावे यथा. ___“॥ सवं पाणाश्वायं पच्चरकामि । सवं मुसावायं पच्चरकामि । सवं अदिन्नादाणं प० । सवं मेहुणं प। सत्वं परिग्गहं प० । सत्वं राइनोश्रणं प० । सवं कोहं प० । सवं माणं प० । सवं मायं प० । सवं लोहं प० । पिऊं प० । सवं दोसं कलहं अनरकाणं अरहरईपेसुन्नं परपरिवायं मिबादसणसवं श्च्चेश्थाई अहारस पावठाणाशं सुविहं तिविहेणं वोसिरामि अपबिमम्मि ऊसासे तिविहं तिविहेणं वोसिरामि॥" पीजे गीतार्थगुरु, श्रीयोगशास्त्रके पांचमे प्रकाशके कथनसें, और कालप्रदीपा दिशास्त्रके कथनसें, ग्ला नके श्रायुका क्षय जानके (जक्तप्रत्याख्यानप्रकीर्णक शास्त्रमें लिखा है कि, यदि को तथ्यज्ञानी कहे, अथवा को सम्यग्दृष्टी देवता कहे कि, अमुकदि न तेरा अवश्य मरण है, तबतो अपना संहनन तिबल जानके यावत् जीवका अनशन करना. परंतु, जो कोइ मरणदिनके निश्चयविना यावत् जीवका अनशन करे, करावे, सो आत्मघाती साधुश्रावक १०३ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. घाती पंचेंजियघाती है;) (कालज्ञानके विषयमे कितने क शास्त्रोमे एसे लक्षण लिखेहें कि निरंतर पंदरे दिन सूर्यनामी प्रातःकाल वहे तो पनरे दिनका आयु. एक मास तक प्रातःकाल सूर्यनामी वहे तोषट् मासायु. पांचदिन अखंग सूर्य नामी वहे तो मासायु. वायु की नामि पित्तके स्थानमे, पित्तकी नामी कफके स्थानमे,कफ कंठमे आवे तो रोगी वचेगा नही.मस्तक गरम हृदय, नानि, नाशिका हाथ पग ठंडे रहे तो मरण. उश्वास गरम व नीश्वास ठंमा वहे तो मर ए. अंग कंप, गतिनंग, शरीरका वर्णका बदलना, खाद वा गंधकों न समजे तो अवश्य करण जाणना, हाथ पावकी घुटी,कपोल,गलेके पासकीनाडी चलनी रुक जाय वा मंद पमजाय तो मरण कहना. जो अपनी जिव्हाग्र, नासाग्र, चुकुटी, न देखेतो मरण. अपनी तीन अंगुली मुखमें न जावे तो मरण. कुटी न दीखे तो सातदिन, कर्णश्वर न सूने तो पाच दिन कों मरण होना समजना. जिव्हा काली पडे वा, मुख लाल हो जाय तो मरण. पिसाबकी धारामे बिंदु होजाय वा वीर्यपात हो जाय तो सातमे दिन मरण. नामीयोंका मंद पमना, इंजियोंके विषयका न समजना,गतीका नंग होना,कंठमें कफका रुकना, नाशिकाके पवनका ठंमा वहना, नाशिका टेडी होना, जमणी नूजा मे उर्फ श्वासका वहना यह Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टमपरिवेद. १५ तात्कालिक मरणके चिन्द जाणने ॥ रोगी दर्पणमें अपना मस्तक न देखे तो अवश्य मरे. जरणी, मघा, अश्लेषा, मूल, कृत्तिका, जेष्टा, आओ, शत निषा, तीनपूर्वा, यह नक्षत्रमे मांदा पडेतो रोगी न बचे. जिस्का बलगम चिकना होके गलेसें बुटे नही तो समजो कि अब श्रायुष्य बिलकुल कम हे. जिस्कों बीकानेके साथ जामा पेसाब हो जाये तो, जिस्की जबानपर कांटे आ जावे, वा काली पमजावे व अबाज न देशके तो, जानो तीन रोजका जीनाहे. जिस्की नेत्रोंकी एकवा दोनोहि पुतली फिरजाय वा नेत्रो से दिखाई न देवे तो जानो कि मरना नजीक हे. जिस्के हाथ फेरके वीसोनख काले पमजाय, हाथ पेरमें ठंमार होके शिरमे गरमी बाजाय तो जानो मरना नजीक आया. जिस्का उच्चार शुरु न हो, नेत्रोमें रोशनी नहो, कानोंसे सुनना, नाकसे खुश बो लेना, बंध हो जाय,अनामीका उंची नउपड शके, तो जानोकी अवश्य अपना काल समय नजीक हे. यद्यपि यह लक्षणोंसे प्रायः मरणका निश्चय होजोता हि हे तथापि कोइ अतिशय ज्ञानी वा देवादिकोंके यथातथ्य वचन सिवाय अनागर अपशन उच्चराने कि आज्ञानहीहे. इसलिये सागारी अनशन कराना उचितहे) संघ की, ग्लानके संबंधियोंकी, तथा नगरके राजादिकी अनुमति लेके, अनशनका उच्चार कराना. Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनधर्मसिंधु. ग्लान, शकस्तव पढके तीनवार परमेष्ठिमंत्रको पढके गुरुके मुखसे उच्चरे । यथा. " ॥ नवचरिमं पच्चरकामि तिविहं पि श्राहारं असणं खाश्मं साश्म अन्नबणानोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि॥" इति सागारानशनम् ॥ अंतर्मुहूर्त शेष रहे हूए,निरागार अनशन कराना.॥ यथा ॥ " ॥ नवचरिमं निरागारं पच्चरकामि, सवं असणं, सत्वं पाणं, सवं खाश्म, सवं साश्मं,अन्नाबणानोगेणं, सहसागारेणं, अश्यं निंदामि, पमिपुन्नं संवरेमि,श्रणा गयं पञ्चकामि, अरिहंतसस्कियं, सिसस्कियं, साहु सस्कियं देवसरिस्कयं, अप्पस स्कियं, वो सिरामि ॥" जश मे हुङ पमा, श्मस्स देहस्स श्मा वेलाए ॥ आहारमुवहिदेहं, तिविहं तिविहेण वोसिरियं ॥१॥ तब गुरु “निबारगपारगो होहि" ऐसें कहता हुथा संघसहित वासअक्षतादि ग्लानके सन्मुख देप करे. । शांतिके वास्ते 'अहावयंमि उसहो' इत्यादि स्तुति पढे. और, 'चवणं जम्मणनूमी' इत्यादि स्तव पढे । गुरु निरंतर ग्लानके आगे तीनजुव नके चैत्योंका व्याख्यान करे, अनित्यतादि बारां जावनाका व्याख्यान करे, अनादिनवस्थितिका व्या ख्यान करे, अनशनके फलका व्याख्यान करे। और Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. संघ गीतनृत्यादि उत्सव करे. । ग्लान जीवितमरण की श्वाको त्यागके समाधिसहित रहे। पीजे अंतर्मु हर्त्तके श्रायां, ग्लान “सवं श्राहारं, सत्वं देहं, सवं उवहिं, वोसिरामि” ऐसें कहें। पीले ग्लान पंचपरमे ष्टिस्मरणश्रवणयुक्त शरीरको त्यागे ॥ ॥ इति अनशनविधिः॥ ॥ अग्निसंस्कार विधि.॥ मरणकालमें ग्लानको कुशकी शय्याऊपर स्थापन करना ।“ । जन्ममरणे नूमावेव इति व्यवहारः।" अथ सर्वजावके नोक्ता कर्मके जोमनेवाले चेत नारूप जीवके गये हुए, अजीव पुजलरूप तिसके शरीरको सनाथता ख्यापनार्थ, तिसके पुत्रादिकोंके वास्ते, तीर्थसंस्कार विधि कहते हैं । सर्व ब्राह्मणको शिखा वर्जके शिर दाढी मूंब मुंमन कराना चाहिये, कितनेक क्षत्रियवैश्यको जी कहते हैं । तथा शबका संस्कार सर्व स्ववर्ण ज्ञातियोंने करना, अन्यवर्ण शातिवालोंने तिसका स्पर्श नही करना.। पी गंध तैलादिसें और जले गंधोदकसे शबको स्नान करना, गंधकुंकुमादिसें विलेपन कराना, मालापहि राना स्वस्वकुलोचित वस्त्राजरणासें विनूषित करना शूज जातिको सर्वथा मुंगन नही. । पीछे नवीन काष्टकी पगविनाकी कुश संथरीनले वस्त्रसे ढांकी Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मसिंधु. हुई शय्याके ऊपर, शय्याके उपकरणसहित, शबको स्थापन करना। यहांगृहस्थके मृत्युनदत्रके नक्षत्रपूत लेका विधान, कुशपुत्रादिविधि यतिकीतरें जानना.नवरं कुशपुत्रक गृहस्थवेषधारी करणे 8 वर्णानुसार तिसके ऊपर नानाविध वस्त्र सुवर्ण मणि विचित्र वस्त्रका कराप्रासाद (मांमवी)स्थापन करना।पीने स्वज्ञातीय चारजणे परिजनके साथ स्कंधऊपर उगए शबको, स्मशानमें ले जावे.। तहां उत्तरनागमें शबका शिर रखके चितामें स्थापन करके, पुत्रादि अग्निसे संस्कार करे. । श्रन्न नही खानेवाले बालकोंको नूमिसंस्कार करना । तहां प्रेतप्रतिग्राहियोंको दान देना। पीछे सर्व स्नान करके, अन्यमार्ग होकर अपने घरको आवे. तीसरे दिनमें चिताजस्मका, पुत्रादि नदीमें प्रवाह करावे. । तिसके हाम तीर्थों में स्थापन करे। तिसके अगले दिनमें स्नान करके शोक दूर करे. । जिनचैत्योंमे जाके, परिजनसहित जिनबिंबको विना स्पर्श, चैत्यवंदन करे। पीछे उपाश्रयमें आके गुरुको नमस्कार करे. गुरु नी संसारकी अनित्यतारूप * रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराषाढा, उत्तराफागुनी, उत्तरा नाजपद, ए व नत्रमेंसे कोश्नी एक नक्षत्र मरण समय होय तो दनके दो पुतले बनाके नीनामीके साथ रखणा. जेष्टा, आळ, स्वाती, शतभिषा, नरणी, अश्लेषा ए उ नदत्रमेंसें कोइली होय तो पुतले न करना. और उसरे १५ नक्षत्रमेंसें कोइ नत्र होय तो एक पुतला करना. Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमपरिजेद. २३ धर्मदेशना करे। पीने स्वस्वकार्यमें सर्व तत्पर होवे। अंत्य आराधनासें लेके, शोक, दूर करनेतक मुह "दि न देखना, अवश्य कर्त्तव्य होनेसें. । यमलयो गमें, त्रिपुष्करयोगमें, मृगशिर । चित्रा । धनिष्ठा । मंगल । गुरु । शनि । । १२ । ७। इतित्रयाणां योगे यमलयोगः ॥ कृतिका । पूर्वाफाल्गुनी । विशा खा । उत्तराषाढा। पूर्वानाउपदा । पुनर्वसु । मंगल। गुरु । शनि ।।१५।। इति त्रिपुष्करयोगः ॥ कृति का । विशाखा । जरणी। इति मिश्रनदत्राणि ॥ जर णी। मघा। पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढा । पूर्वानाउपदा इति क्रूरनदात्राणि ॥ रोहिणी । उत्तराफा । उत्त राषा । इति ध्रुवनदात्राणि ॥ आजा, मूल, अनुरा धा, मिश्र, क्रूर और धूव, इन नक्षत्रोमें प्रेतक्रिया नही करनी । धनिष्टासें लेके पांच नक्षत्रोंमें तृणका ष्टादि संग्रह नही करना । शय्या, दक्षिण दिशकी यात्रा, मृतक कार्य, गृहोद्यम, (घर बनाना) आदि नही करनाः । रेवती, श्रवण, अश्लेषा, अश्विनी, पुष्प, हस्त, स्वाति मृगशिर, इन नक्षत्रोंमें, और सोम, गुरु, शनी, इन वारोंमें प्रेतकर्म करना बुद्धि मान् कहते हैं: । स्वस्व वर्णके अनुसार जन्ममरण का सूतक एकसदृश होता हैं ब्राह्मण,कत्रीय,वैश्यकों पुरुषोका दश और स्त्रीका एकादश दिन सूतक होता हे. परदेशका जन्म मरण सूतक धार्मिक Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 जैनधर्मसिंधु. कार्यमे बाधकारी न होता हे. और गर्नपातमें तीन दिनका सुतक होता है. अन्य वंशवालेके मृत्यु हुए, वा जन्म हुए विवाहित पुत्रिकों सूतकवालेके अन्न के खानेसें, श्न सर्वमें तीनदिनका सूतक होता. है। अन्न नही खानेवाले बालकका सूतक तीन दिनका होता है। श्राउ वर्षसे कम ऐसें बालकका जी त्रिना गोन सूतक होता है. स्वस्ववर्णानुसार सूतकके अंत में जिनस्तव महोत्सवादि और साधर्मिकवात्सल्या दि करना, जिससेंकल्याणप्राप्ति होवे. // इति अंत्य संस्कार विधिः // तत् समाते समाप्तोयं अष्टम परिछेदः शिवमस्तु सर्वजगतः, परहित निरता जवंतु नूत गणाः // दोषाः प्रयांतु नाशं, सर्वत्र सुखिनो जवंतु लोकाः // लेखकपाठकयोः शिवमस्त्वीति // // इति प्रथम विनागः समाप्तः // -