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४१४ जैनधर्मसिंधु. खें देश, शणगार जार एवं धस्या ॥ ए उली जीहा आखें पीहा, कान कूपा मल नया ॥ नारी अग्नि पुरुष माखण, बोलतां वीगरे । स्त्री देदमां शुं सार दीगो, मूढ महिआंकां करे ॥ ७॥ ढाल ॥ इंजिय वाह्यो रे, जीव अज्ञानी पापि ॥ माने नरगह रे, सरग करी विष व्यापी॥ कां नूलो रे, शणगार देखी एहना ॥ जाणी प्राणी रे, ए ले पुःखनी अंग ना ॥णात्रुटक॥ अंगना तुंडोमी जो करे,तो जश की ति सघले लहे ॥ कुशीलनुं जो नाम लियेको, पर लोक मुरगति सुखसहे, विजय ना बोले जे न मोले, शीयल थकीजे नरवरा॥तस पायें लायु सेवा मागु, जे जगमांहे जयकरा॥१॥इतिाशील सद्याय॥
॥अथ प्रजातें वाहाणलां गावानो सद्याय ॥
॥ मिथ्यामति रे रजनी असरालके ॥ वाहाणलां जलें वायांरे ॥ जीहां जंघे रे प्राणी बहुकाल के ॥ वहाणां ॥ नवि जाणे रे जीहां यमनी फाल के ॥ ॥ वा ॥ तिहां पामे रे पग पग जंजाल के ॥ वाण ॥१॥ जीहां ऊमपे रे क्रोध दवनी काल के॥वा॥ मानरुपी रे अजगर विकराल के॥ वा०॥ डंसे मा या रे सापणी रोषाल के ॥ वा ॥ जीहां चावो रे लोन रुप चंमाल के ॥ वा ॥२॥रागादिक रे राद स महावृंद के ॥ वा श्राप कर्मना रे जीहां मांड्या फंद के ॥वा॥ जीहां देखे रे पुर्गति दुःख दंद के