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जैनधर्मसिंधु. ___“॥ अद्य अमुकसंवत्सरे,अमुकायने,अमुकश्तौ , अमुकमासे, अमुकपदे, अमुकतिथौ, अमुकवारे, अमु कनदत्रे, अमुकयोगे, अमुककरणे, अमुकमुहूत्र्ते, पूर्व कर्मसंबंधानुबकवस्त्रगंधमाव्यालंकृतां सुवर्णरूप्यमणि नूषण नूषितां ददात्ययं प्रतिगृह्णीष्व ॥”
ऐसें कहके वधूवरके योजित हाथमें जलक्षेप करे.। तब वर कहे. "प्रतिगृह्णामि " तदनंतर गुरु कहे. __ " सुप्रतिगृहीतास्तु, शांतिरस्तु, पुष्टिरस्तु, शकि रस्तु, वृफिरस्तु,धनसंतानवृद्धिरस्तु, ॥"
पीने प्रथम तीन लाजामें कन्याके हाथ ऊपर थे अब कन्याके हाथको नीचे करे, और वरके हाथको ऊपर करे, पीले वरवधूको आसनसे जगकर वरको आगे करे, और वधूको पीछे करे. । पीने लाजाकी मुष्टि अग्निमें प्रक्षेप करकेगुरु ऐसें कहे. “प्रददि णी क्रियतां विनावसुः” वर वधूको प्रदक्षिणा करते हुए, कन्याका पिता, यावत् कन्याका कुलज्येष्ट, वरवधूके देनेयोग्य वस्त्र, श्राजरण, स्वर्ण, रूप्य, रत्न, तान, काश्य, नूमि, निष्क्रय, हाथी, घोमा, दासी, गौ, बैल, पल्यंक, तूलिका, उत्सीर्षक, दीप, शस्त्र, पाकके लांडे, श्रादि सर्व वस्तुको वेदिमें व्यावे. ।
और जी तिसके नाइ, संबंधी, मित्रादि, खसंप दाके अनुसारसें देने योग्य वस्तुयें वेदिमें ल्यावे. । पी प्रदक्षिणाके अंतमें वरवधू, तैसेंही आसन