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अष्टमपरिछेद.
ऊपर बैठें. नवरं इतना विशेष है कि, चतुर्थ लाजा के नंतर वरका आसन दक्षिण पासे, और वधू, का आसन वामे पासे करणा । पीछे गुरु, कुश दूर्वा अक्षत वास करके हस्त पूर्ण हुआ था, ऐसें कहे. ॥ शक्रादिदेवको टिपरिवृतो जोग्यफलकर्म जोगा य संसारिजीवव्यवहारमार्गसंदर्शनाय, सुनंदासुमं गले पर्यणैषीत्, ज्ञातमज्ञातं वा तदनुष्ठानमनुष्टितमस्तु”
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ऐसें कह के वास, दूर्वा, अक्षत, कुशको वरवधू के मस्तक ऊपर देप करे । पीछे गुरुके कहने सें वधूका पिता, जल, यव, तिलका तेल हाथमें लेके, ऐसें कहे. सुदायंददामि प्रतिग्रहाण तब वर कहे " प्रतिगृह्णामि प्रतिगृहीतं परिगृहीतं " गुरु कहे " सुगृहीतमस्तु सुपरिगृहीतमस्तु " पुनः तैसें । वस्त्र, भूषण, हस्ति, अश्वादि दाय, देनेमें वधूके पिताका, और वरका यही वाक्य, और यही विधि है । पीछे सर्व वस्तु के दीए हुए गुरु ऐसें कहे.
" ॥ वधूवरौवां, पूर्वकर्मानुबंधेन, निबिडेन, निका चितबद्धेन, अनुपवर्त्तनीयेन, छापातनीयेन, अनुपायेन, अथेन, अवश्यजोग्येन, विवाहः प्रतिबद्धो बनूव, तदस्त्वखं गतोऽक्षयोऽव्ययो निरपायो, निर्व्याबाधः, सुखदोस्तु, शांतिरस्तु, पुष्टिरस्तु, रुद्धिरस्तु, वृद्धिरस्तु, धनसंतान वृद्धिरस्तु ॥
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ऐसा कहके तीर्थोदकोंकरके कुशाग्रसें सिंचन
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