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जैनधर्मसिंधु.
॥ २८ ॥ खीरखं घृत आणि अमिश्र वूठ अंगुठ वे ॥ गोयम एक पात्र करावे पारपुंसवे ॥ पंच सया शुभ जाव, उऊल नरि खीरमीसें ॥ साचो गुरुसंजोग, कवल ते केवल रूप हुई ॥ २७ ॥ पंच सया जिणनाह, समवसरण प्रकारत्रय ॥ पेखवि केवल नाण, उप्पन्नो उजोय करे ॥ जाणे जिल्ह पीयूष, गाजंती घणमेघ जिम ॥ जिवाणी निसुणे, नाणी पंचसया ॥ ३० ॥ वस्तुछंद ॥ इणे अनु क्रमेणे अनुक्रमें नापसंपन्न || पन्नर सय परवरिय, हरिय पुरिय जिणनाद वंदिय || जाणवी जगगुरु aru, तिह नाप अप्पा निंद ॥ चरम जिणे सर इम जाइ, गोयम मकरिस खेउ ॥ बेह जइ
पण सही, होसुं तुल्ला बेउ ॥ ३१ ॥ जाषा ॥ सामि ए वीर जिणंद, पूनिम चंद जिम उल्ल सि ॥ विहरि ए जरहवासम्म वरिस बहुत्तर संवसिा ॥ तो एक पमेव, पायकमल संघें सहिश्र ॥ आ िए नयणाणंद, नयर पावापूरिसुरमहिय ॥ ॥ ३२ ॥ पेखी ए गोयम सामी, देवशर्मा प्रति बोध करे | आपण ए त्रिशला देव, नंदन पोतो परम पए ॥ वलतो ए देव आकाश, पेखवि जाणिय जिसमे ए ॥ तो मुनि ए मन विखवाद, नाद जेद जिम उपनो ए ॥ ३३ ॥ कुण समो ए सामिय देखि आप कहे हुं टालि ए ॥ जाणंतो ए तिहुश्रण