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जैनधर्मसिंधु
नरा ॥ ५ ॥ खर पवणुडुत्र वणदव, जालावलि मिलिय सयल डुम गहणे ॥ उनंत मुद्ध मय वसु, जीसणरव जी सणंमि वणे ॥ ६ ॥ जगगुंरुणो कमलं, निधाविष्य सयल तिहु णानोयं ॥ जे संजरं ति मणु, न कुणइ जलणो जयं तेसिं ॥ ७ ॥ विलसंत जोग जीसण, फुरियारुण नयण तरल जी हालं ॥ उग्गजुगं नवजलय सबदं जीसयायारं ॥८॥ मन्नंति कीम सरिसं दूर परिढ विसम विसवेगा ॥ तुह नामरकर फुमसि, द्धमंत गुरुवा नरा लोए ॥ ॥ वसु जिल्ल तक्कर, पुलिंद सद्दुल सहनी मासु ॥ जय विदुर बुन्नकायर, जनुरि पहि सासु ॥ १० ॥ विलुत्त विवसारा, तुह नाह पणाम मत्त वावोरा ॥ ववगय विग्धा सिग्धं, पत्ता हिय इयिं गणं ॥ ११ ॥ पलि नलनयणं, दूरवियारियमु हं महाकायं ॥ नह कुलिसघाय विचलिछा, गद कुंजलानोयं ॥ १२ ॥ पणय ससंजम पचिव, नह मणिमाणिक्क पाि पमिस्स ॥ तुह वयणपदण धरा, सीदं कुछपि न गति ॥ १३ ॥ ससिधवल दंतमुसलं, दीहकरुल्लाल बुढि उचाई || महुपिंग नयणजुलं, ससलिल नवजलहरारावं ॥ १४ ॥ जीमं महागदं श्रच्चासन्नंपि ते नवि गणं ति ॥ जे तुझ चलण जुलं, मुवि तुंगं समलीया ॥ १५ ॥