________________
अष्टमपरिछेद.
१५२
अपक फल और अखंमित जी जण न करूं । २५ । या जन्मतक इतनी सच्चित्त वस्तुओं मेरेको नक्षण करने योग्य है, इतने पुष्टिकारक द्रव्य और इतने व्यंजन शाकादि मुजको कल्पे; तथा घृत, डुग्ध दहि प्रमुख । २६ । इतनी विगइ मुकको कल्पे. इतने पियादे, इतने गज, इतने तुरंग और इतने प्रधान रथोंकी मुजको जयणा हो । २७ । इतनी सुपारी, इतने लवंग, इतने एलाफल ( इलायची ) जायफल आदि मेरेको नित्य इतने प्रमाण कल्पे. सूतके, रेशमके, ऊनके, औरके, इन चार प्रकारके |२८| वस्त्रों में भी इतने वस्त्र पहिरने मुजको कल्पे; और इतनी जातिके फूल मेरे अंगके जोगवास्ते कल्पे. । २७ । श्रासन, सिंहासए, पीठ, पट्टे, बाजोट, पक, गदेला, रजाई, और खाट यदि ये सर्व इतने प्रमाण मुक्कों कल्पे. । ३० । कर्पूर, अगर, कस्तूरी, चंदन केशरादि मात्र मेरे अंगके वास्ते इतने कल्पे; और पूजामें जयणा । ३१ । इतनी नारी मेरे संजोग में इतने कालमात्र इतने घडे, बाणे हुए जल और प्रासुक जलके मेरेकों स्नान वास्ते कल्पे. । ३२ । इतनी वार दिनमें इतनी जातिके तेल मर्दन के वास्ते, इतने प्रकारके जात रोटी यादिक जोजन, और दिनमें इतनी वार जोन न करना । ३३ । यह सच्चित्तादिका जोग परिजोग