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पंचमपरिछेद
४५५ ब मूरख, बिन बिन अधिको पागे ॥ श्रो॥१॥ काया गमा काचकी शीशी, लागत ठणका नागे ॥ उ घट ॥५॥ श्रावि व्याधि व्यथा कुःख ऋण न व, नरकादिक फुनि आगे ॥ मगहु न चलत संग विण पोष्या, मारगहमें त्यागे ॥ ७० ॥३॥ मदबक बाक गहेल तज वीरला, गुरु किरपा कोउ जागे ॥ तनधन नेह निवारी चिदानंद, चलीये ताके सागे ॥1॥४॥ इति ॥
॥अथ वैराग्यपदेशी पद ॥ ॥ राग बिनास ॥ जूठी जग माया नर केरी काया, जिम बादरकी गया मारी॥ ए श्रांकणी ॥ ज्ञानंजन कर खोल नयण मम, सदगुरु श्णे विग प्रगट लखारी ॥ जूठी० ॥ मूल विगत विषवेल प्रगटीश्क, पत्र रहित त्रिजुवनमें गरी॥ तास पत्र चुण खात मिरगवा, मुखबीन अचरिज देख हुंआरी ॥ जूठी॥२॥पुरुषएक नारी निपजाइ, तेतो नपुंसक घरमें समाश्री॥पुत्र जुगल जायेति णवालाते जगमा हे अधिक फुःख दारी ॥ जूठी० ॥ ३॥ कारण बिन कारजकी सिकि, केम नश् मुख कही नवि जारी ॥ चिदानंद एम अकल कलाकी, गति मति को विरले जन पारी॥ जठी ॥४॥ इति ॥
॥ अथ ज्ञानोपदेशी पद ॥ ॥ राग सारंग ॥ मेरे घट ग्यात नानु नयो