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जैनधर्मसिंधु. जात अढार, वांचिये साते बेटा ॥ जपतां एहिज जाप, जक्तसुं न करे खेटा ॥ उतरें अंग चढियो पल कमे, तारा वयणे मुदा॥ कहे कांति रोग नावे कदि, सार मंत्र गणियें सदा ॥ १६ ॥ इति ज्वरबंद समा प्त ॥ ए बंद सात वार, अथवा एकवीश वार सांन ले गणे तो ताप जतो रहे ॥ ॥अथ श्री यंत्र महिमा वर्णन बंद ॥
॥ चोपाई॥ ॥ जिण चोवीशे पय प्रणमे वि, सह गुरु तणा व चन निशुणे वि॥ यंत्र तणो महिमा अति घणो, जावे बोर्बु नवियण सुणो ॥ १॥ शोले कोठे लखिये वी श, सघला जय टाले जगदीश ॥ अगवीसमां रोग जय हरे, उत्रीसें युति जय करे ॥॥त्रीशे वलि सायणि नासंति, बत्रीसे सुख प्रसवते हुति ॥ देवध्व जा जो लखियें श्में, परचक्र नय न होवे किमें ॥ ॥३॥ घर बारणे जो लखियें एह, कामण नव परा नवे तेह ॥ शाकणि संहारी न हुवे तिहां, चोत्रीसो यंत्र लखिये जिहां ॥४॥ चालिसे शीस रोग टले, पागे वयरी हेला दले ॥ अने वली करबे बहु मान वसुधा वलि वधारे वान ॥५॥ बासठे वंध्या गर्नज धरे, एसा वयण सद्गुरु उच्चरे ॥ चोसठनो महीमा बे घणो, मार्गे जय न होय को तणो ॥६॥ वारि जय रिपु शाकणि तणां, चोसपना महिमा नहिं म