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जैनधर्मसिंधु.
कहुँ सार शिखामण एकखरी ॥ नर नारी सहुहिय डे धरियें, जिम पद संकट उद्धरियें ॥ १ ॥ पर जात समे गुरु देव नमो, जिम दारिद्र दोग दूरें गमो ॥ जगवंत सदा चरणां जजियें, कुलरीति कबू कबु नां तजियें ॥ २ ॥ लमियें नहिं मायनें बापथ की, वढियें नहि कोयथी बाधि जकी ॥ विशवास न कीजें नारि तणो, गुरुराज समीपथी ज्ञान जो ॥ ॥ ३ ॥ दरबार लिकन नां जखियें, घरजींतर अकर नहिं लखियें ॥ रखियें नहिं चाम पमोस सदा, तरियें नहिं नीर सजोर कदा ॥ ४ ॥ विवसाय सहू विधिसें करियें, हग दाव रमी धन ना जरियें ॥ पर देशमां गां फिल नां फरियें, नरपति थकी डरता रहि यें ॥ ५ ॥ जुगटां व्यसनी परि ना रमियें, ऋषि साध नाथकुं ना दमियें ॥ करियें नहिं श्राल अगन्नी तणी, वलि दीजियें सीख सुमित्त जी ॥ ६ ॥ गुरु श्रासन उपरि ना धसियें, दुर्जनसे संगति ना वसि यें ॥ वलि धीज न कीजियें कुछ किसी, घणीवार न कीजियें वात इसी ॥ ७ ॥ वयणां मुख बोलह तें पलियें, सजनथी स्नेह धरी मलियें | परनारिनी संगति प्यार तजो, परमारथ कारज नित्य जो ॥८॥ सुखकार शिखामण एम कहे, कवि उत्तमते जय माल लदे ॥ गुरु चार लहू छाम दीर्घ धरो, इम त्रोटक नामक बंद करो ॥ एं ॥ इति शिखामण बंद