________________
शष्टमपरिबेद.
५३७ को अंथ श्रीअंतरिक पार्श्वनाथ बंद ॥ ॥ प्रनु पासजी ताहरु नाम मी, त्रिहुँ लोकमां एटवू सार दीतुं ॥ सदा समरतां सेवतां पाप नी, मन माहरे ताहरुं ध्यान बेवू ॥ १॥ मन तुह्म पासे वसे रात दीसें, मुखपंकज निरखवा हंस हींसे ॥ धन्य ते घडीजेघडी नयण दीसे, जली नक्ति नावें करीवीनवीसे ॥२॥ अहो एह संसार के फुःख दोरी, इंजजालमां हित्त लागुं गोरी ॥ प्रनु मानियें विनती एक मोरी, मुफ तार तुं तार बलिहारि तो री॥३॥ सही स्वप्न जंजालमा मन मोह्यो, घडी यालमां काल रमतां न जोयो ॥ मुधा एम संसा रमां जन्म खोयों, अहो घृत तणे कारणे जल विलो यो ॥ ४ ॥ एतो जमरलो केसुबां ब्रांति धायो, जई शुक तणी चंचुमांहे जरायो॥ शुकें जंबु जाणी गल्यो दुःख पायो, प्रत्तु लालचे जीवमो एम वाह्यो ॥५॥ जम्यो जर्म नूलो रम्यो कर्मचारी, दयाधर्मनी शर्म में न विचारी ॥ तोरी नर्मवाणी परम सुक कारी, निहुँ लोकना नाथ में न संजारी ॥६॥ विषय वेलमी सेलमी करिय जाणी,नजी मोह तृष्णा तजी तुऊ वाणी ॥ एहवो जलो नूंमो निज दास जाणी, प्रनु राखियें बांहिनी गंहि प्राणी ॥७॥ माहा रा विविध अपराधनी कोमि सहीये, प्रज्जु शरण श्रा व्या तणी लाज वहीयें ॥ वली घणी घणी वीएतिन