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षष्ठमपरिछेद.
५३५ एकवीशमें प्रजुतणी देशना, जोजन लगें सविजन सुणे ॥ बाविशमें प्रनु अर्ध मागध, जाषायें जिन जी जणे ॥ १४ ॥ त्रेवीशमे जिनवाणी जननें, हेतु शिव जणी परिणमे ॥ चोवीसमे प्रजु चरण मूलें, वैर जंतुना उपशमे ॥ १५ ॥ अन्यलिंगी नमे जिननें, पंचविंशति अतिशयें ॥ अन्य तीरथी मौन्य थाये, बवीसमें प्रनु निश्चयें ॥ १६ ॥ पण वीश जोजन लगे जिनथी, इतने मारी नहीं ॥ स्वचक्रनें परचक्र न होये, तीस अतिशय ए सही ॥ १७ ॥ अति वृष्टिने अनावृष्टि, उर्जिदत्रण ए नवि उपजे ॥ चोत्री समे प्रजु श्राधि पीडा, व्याधि फुःख न संपजे ॥ ॥ १७ ॥ चोत्रीस अतिशय एह कहिया, सूत्र सम वा यांगमां॥जे जणतां गुणतां हिये धरता, रहे आत म रंगमां ॥ १७ ॥ निज शुद्ध आतम रूप प्रगटे, नावशुं जो ध्यायें ॥ दर्शनादिक रत्न लहियें, पर म सुख पद पाश्य ॥२०॥ अरिहंत जगवंत तणा अतिशय, गणो श्राणी पासता ॥ बहु पुण्य करि यें ध्यान धरियें, सुख लहियें सासता ॥१॥ श्री सूरि विद्या उदधि सेवक, शिष्य एणी परें संस्त वे ॥ मुनि ज्ञान सागर कहे प्रजुपद, सेव मांगु नवो नवें ॥ २२ ॥१७॥
॥अथ शिखामणनो बंद ॥ ॥ त्रोटक वृत्त ॥ वरदायक माय सलाम करी,