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जैनधर्मसिंधु. अतिशय ए सही ॥ ३ ॥ गोदुग्ध सरिखो, मांस लोही, तृतीय तेह वखाणियें ॥ चोथो ते उत्पल गंध सरिखो, श्वासोच्छास सुजाणियें ॥४॥ श्रा हारने नीहार प्रबन्न, एह अतिशय पांचमो ॥ आकाश गत धर्मचक्र हो, गगन बत्र ए सातमो ॥५॥ रह्या अंबर श्वेत चामर, जुगम अष्टम ए कह्यो । फटिक सिंहासन सुनिर्मल, नवम अतिश यए लह्यो ॥६॥श्राकाशगत ध्वज सहस मंमित, इन्छ ध्वज श्रागें चले ॥ ए दशमो अतिशय कह्यो श्रुतमां, देखी परमत खलनले ॥ ७॥ ग्यारमें जि हां, खामी उना, रहे वली बेसे जिहां ॥ च्छाय शु धज देव ततदण, अशोक तरुवर रचे तिहां ॥७॥ छादशम अतिशय प्रजामंडल, पुहें रविकर जीपए ॥ रमणिक सुंदर नोमी नागसो, तेरमो ए दीपए ॥ ॥ए ॥ अधोमुख होय सर्व कंटक चजदमें अतिश य वली ॥ अनुकूल थश्ने परिणमें ऋतु, पंच दशमो सुख लली ॥ १० ॥ संवर्तक पवनें जोमी पूंजे, जो जन खगें ए शोलमे ॥ सुगंध वृष्टी तिहां वरसे, प्रगट अतिशय सतरमे ॥ ११॥ जानु प्रमाणे बीट नीचो, पंचवरण सुहामणा ॥ जलने ते थलना फूल वरसे, अढारमें अतिशय घणा ॥ १२ ॥ अमनोज्ञ शब्दादिकही नासे. जंगणीसमें अतिशयें वली ॥ वीशमें शुनिल थाये, एम कहेते केवली ॥ १३ ॥