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जैनधर्मसिंधु
शंखपुराधिराजः ॥ स्वस्ति श्रीहर्ष रुचि पंकज सुप्र सादात्, शिष्येण लब्धि रुचिनेति मुदा प्रसन्नः ॥३२॥ ॥ ॥ सरसति संपति दियो मुजसदा || लिय विघनन विवेकदा ॥ नयरि उजेली विक्रमराय ॥ सजापूरीनें बेवो गाय ॥ १ ॥ जोतिषीया सजामां दिजां | | नवग्रहनाते करेवखाण ॥ एककडे शनिश्वर तिक्रूर || देखाडे यति प्राणी नेरुड ॥ २ ॥ निजप्रष्टि शनिसर पांगलो ॥ पितासारथी तुमेसांजलो ॥ राजा विक्रमबोले इस्युं ॥ इणेरांक बापडे चाले किस्युं ॥ ३ ॥ इ अवसर सनीसरबै जब ॥ अवधी ज्ञाने जोवे तब ॥ जोतांमुज विक्रम अवगुणे ॥ वेगियावी राय प्रते जणे ॥४॥ सांजल राजा माहरांकांम ॥ हुंरुको टा लुंतुक ठगंम ॥ बिहतो विक्रम बोले वांण ॥ खमजो जे बोल्युं श्रज्ञान || पुजी प्रणमी शनीस्वर पाय ॥ संतो ष्यो निज थानक जाय ॥ पिण संका मनमांहि पयठ ॥ केतेक काले शनिस्वर बेठ ६ निसदिन बीतो जेहने नाम ॥ ते लाग्यो मुजशनीस्वर स्वांम ॥ तेमी मंत्रीनें
पेंराज ॥ में जावुं पर देसे खाज ॥ ७ ॥ सुंपीराज गयो परदेस ॥ चंपा नयरी करे प्रवेस ॥ श्रीपतीने हाटे जइबे ॥ तव तस नयणें अमीय पयठ ॥ ८ ॥ सेठ ज नेहा वस्तु अनेक ॥ थोमी वेला मांहि वेची बेक ॥ जाग्यवंत नर जाण्यो जांम ॥ जिमवानें घर लाव्यो त्ताम || || जोजन जक्ती जली सांचवे ॥ सुख सज्याई
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