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चतुर्थपरिछेद. केवल नाण जुगल पावे, तो सविवात बनी आवे रे॥ श्रीयुगः ॥ ७॥ गजलंबन गजगतिगामी, वि चरे विप्रविजय स्वामी, नयरी विजया गुणधामी रे ॥ श्रीयुग ॥ ७ ॥ मात सुतारायें जायो, सुदृढ नरपति कुल आयो, पंमित जिन विजयें गायो रे ॥ श्रीयुग ॥ इति ॥ ॥अथ बीजनुं स्तवन ॥ फतमल पाणीमाने जाय,
॥ए देशी॥ ॥प्रणमी शारद माय, शासन वीर सुहं करूं जी ॥ बीज तिथि गुणगेह, आदरो नवियण सुंदरू जी ॥१॥ एह दिन पंच कल्याण, विवरीने कहं ते सुणो जी ॥ माहा शुदि बीजे जाण, जन्म अनिनं दन तणो जी ॥२॥ श्रावण शुदिनी हो बीज, सु मति चव्या सुरलोकथी जी ॥ तारण नवोदधि तेह, तस पद सेवे सुरथोकथी जी ॥३॥ समेतशिखर शुजाण, दशमा शीतल जिन गणुं जी॥ चैत्र व दिनी हो बीज, वस्या मुक्ति तस सुख घणुं जी ॥४॥ फाल्गुन पासनी बीज, उत्तम उज्ज्वल मासनी जी ॥ अरनाथ तस च्यवन, कर्मदयें तव पास नी जी ॥ ५॥ उत्तम माघज मास, शुदि बीजे वासु पूज्यनोजी ॥ एहिज दिन केवल नाण ॥ शरण करो जीनराजनोजी ॥६॥ करणी रूप करो खेत, सम कित बीज रोपो तिहां जी ॥ खातर किरियाहो