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जैनधर्मसिंधु जाण, खेड शमता करी जिहाजी ॥७॥ उपशम तप नीर, समकित डोम प्रगट होवे जी ॥ संतोष केरी हों वाम, पञ्चरकाण व्रत चोकी सोहे जी ॥७॥ नासे कर्म रिपु चोर, समकित वृक्ष फल्यो तिहांजी ॥ मांजर अनुजव रूप, उतरे चारित्र फल जिहां जी॥ ए ॥ शांति सुधारस वारी, पान करी सुख लीजीयें जी ॥ तंबोल सम त्यो स्वाद, जीवने संतो ष रस किजीयें जी ॥ १० ॥ बीज करो बावीश उत्कृष्टी बावीश मासनी जी ॥ चोविहार उपवास पालियें शील वसुधासनी जी ॥ ११॥ आवश्यक दो य वार, पमिलेहण दोय लीजीये जी ॥ देववंदन त्रण काल, मन वच कायायें कीजीयें जी ॥ १२ ॥ ऊजमणु शुन चित्त, करी धरीयें संयोगथी जी॥ जिन वाणी रस एम, पीजीयें श्रुत उपयोगथी जी ॥ १३ ॥ एणि विध करिये हो.बीज, रागने देष दरें करी जी ॥ केवल पद लहि तास, वरे मुक्ति उलट धरी जी ॥१४॥ जिन पूजा गुरु त्नक्ति, विनय करी सेवो सदा जी ॥ पद्मविजयनो शिष्य,नक्ति पामे सुख संपदा जी ॥१५॥ इति श्री बीज तिथि- स्तवन ॥
॥अथ श्री पंचमीनु लघुस्तवन लिख्यते ॥
॥ पंचमीतप तमें करो रे प्राणी, जेम पामो नि मल ज्ञान रे ॥ पहेलु झानने पड़ी क्रिया, नहिं को
ज्ञानसमान रे ॥ पंचमी ॥१॥ नंदीसूत्रमा झा