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चतुर्थपरिबेद.
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न वखाएयु, ज्ञानना पांच प्रकार रे ॥ मति श्रुत अ वधि ने मनःपर्यव, केवल एक उदार रे ॥ पंचमी ॥२॥ मति अगवीश श्रुत चउदह विह, अवधि असंख्य प्रकार रे ॥ दोय नेदें मनः पर्यव दाख्युं, के वल एक उदार रे ॥ पंचमी० ॥३॥ चंद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा, जेहवो तेज आकाश ॥ केवलझान स मुं नहिं कोश, लोकालो प्रकाश रे ॥ पंचमी ॥४॥ पारसनाथ प्रसाद करीने, मारी पूरो उमेद रे ॥ स मयसुंदर कहे हुं पण पामुं, ज्ञाननो पांचमो नेद रे ॥ पंचमी० ॥५॥ इति ॥
अथ ज्ञानपंचमी स्तवनं ॥ पुण्य प्रशंसी ॥ एदे शी ॥ सुत सिझारथ नूपनोरे ॥ सिझारथ नगवान ॥ बारह परषदा आगो रे ॥ नाचे श्रीवईमानोरे ॥१॥ नवियण चित्त धरो ॥ मन वच काय अमायो रे ॥ ज्ञान नक्ति करो ॥ ए आंकणी ॥ गुण अनंत आतम तणारे, मुख्यपणे तिहां दोय ॥ तेमां पण ज्ञानज वर्मुरे ॥ जिणथी दंसण होयरे ॥२॥नम् ॥ ज्ञाने
चारित्र गुण वधेरे, ज्ञान उद्योत सहाय ॥ ज्ञानें स्थिविरपणुं सहेरे, आचारज जवसायरे ॥३॥ नम् ॥ ज्ञानी श्वासो श्वासमारे, कठिण करम करे नाश ॥वन्दि जिम इंधण दहे रे, क्षणमां ज्योति प्रकाशो रे ॥४॥ नम्॥ प्रथम ज्ञान पढ़ें दया