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३न्य
जैनधर्मसिंधु. नामिनी ते इंप्रथी श्रधिको गणो ॥ चाल ॥ अमर कुमारे रे,तजी सुर सुंदरी ॥ पवनंजयें रे, अंजनापरि हरी ॥॥ परिहरी रामेवनमां सीता, नले दमयंति वली ॥ महा सती माथे, कष्ट पड्यां पण शीयलथी ते, नवि चली ॥ कसोटीनी परें,कसीअ जोतां कंत\ विहडे नहीं ॥ तन मन्न वचनें, शीयल राखे, सती ते जाणो सही ॥६॥ चाल ॥ रूप देखाडी रे, पुरुष न पाडीयें ॥ व्याकुल थश्ने रे मन न बगाडीयें ॥ ॥ ज० ॥ मन न बगामीयें, पर पुरुष, जोग जोता, नवि मले ॥ कलंक माथे, चढे कूमां सगा सहु, दूरे टले ॥ अणसरज्यो, उच्चाट, थाये, प्राण तिहां, ला गी रहे ॥श्ह लोक पामे आपदा, परलोक पीमा बहु सहे ॥ ७॥ चाल ॥ रामने रूपें रे, शूर्पनखा मोह। ॥ काज न सीधुं रे, अने जत खोइ ॥ उम् ॥जत खो देख अजया, शेठ सुदर्शन, नवि च ल्यो ॥ जरतार आगल, पमी नों, अपवाद सघ ले, उबल्यो॥ कामिनी देखी, कामनी बुझें, वंकचूल, वाह्यो घणुं ॥ पणशीयलथी, चुकी नहीं, दृष्टांत एम, केतां नणुं ॥ ७ ॥ चाल ॥ शीयल प्रनावें रे, जुवो शोले सती ॥ त्रिजुवनमांहे रे, जेह थई बती ॥ ॥ सती थने, शीयल राख्यु, कल्पना, कीधी नहीं॥ नाम तेहना, जगत् जाणे विश्वमां ऊगी रही ॥ वि विध रत्ने, जडित नूषण, रूपसंदरि, किन्नरी॥ एक