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जैनधर्मसिंधु.
एकणी ॥ मुख मीठो जूगे मनें जी, कूम कपट नो रे कोट ॥ जीनें तो जी जी करे जी, चित्तमांदे ताके चोट रे ॥ प्रा० ॥ २ ॥ आप गरजें श्रघो पडे जी, पण न धरे विश्वास ॥ मनशुं राखे श्रांतरो जी, ए मायानो पास रे ॥ प्रा० ॥ ३ ॥ जेदशुं बांधे प्री तमी जी, तेहशुं रहे प्रतिकूल ॥ मेल न खंडे मन तणोजी, ए माया नु मूल रे ॥ प्रा० ॥ ४ ॥ तप की धुं माया करी जी, मित्रशुं राखे रे नेद ॥ मल्लि जिनेश्वर जाणजो जी, तो पाम्या स्त्री वेद रे ॥ ॥ प्रा० ॥ ५ ॥ उदयरत्न कहे सांजलो जी, मेलो मायानी बुद्धि ॥ मुक्ति पुरी जावा तणो जी, ए मा रग बे शुद्ध रे ॥ प्रा० ॥ ६ ॥ इति ॥
॥ श्राचारांग सून्नी वाय ॥
॥ कोइलो पर्वत धुंधलो रेलो ॥ ये देशी ॥ श्राचारांग पहेलुं कयुं रेलो अंग इग्यार मकार रे ॥ चतुरनर ॥ अढार हजार पढ़ें जिहां रेलो, दा ख्यो मुनि आचार रे ॥ च० ॥ १ ॥ जावधरीने सां जलोरेलो. जिम जाजे जव जीति रे ॥ च० ॥ पू जा जक्ति प्रजावना रेलो, साचविये सवि रीति रे ॥ च० ॥ जाव० ॥ ए आंकणी || दो सुप्रबंध सुहा मणां रेलो, श्रयणां पणवीस रे ॥ च० ॥ शाश्वता हां कहे रेलो, युक्ति श्रीजगदीश रे ॥ च०॥ जा० ॥ २ ॥ मीडेवयऐं गुरु कयुं रेलो, मीठडुं श्रं