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जैनधर्मसिंधु. पुलक (रोम) जिसके, श्रद्धासंवेगविवेक परम वैरा ग्ययुक्त, निविमरागद्वैषमोह मिथ्यात्वमलरूप कलंक रहित, अति उबसायमान, निर्मल अध्यवसाय करके, अनुसमय, त्रिनुवनगुरु जिन नगवानकी प्रति मामे स्थापन किये हैं, नेत्र, और मन जिसने, तथा जिन चंद्रको वंदना करनेसे मैं धन्य हूं ऐसे मानते हुए, अपने मस्तकके ऊपर रचा है करकम लरूप मुकुट जिसने, जंतुरहित स्थानमें पदपदमें निःशंक सूत्रार्थको जावते ( विचारते) हुए, ऐसे पूर्वोक्त विशेषणवाले उपधानवाहिने, जिननायके कथन करे गंजीर समयसिद्धांतमें कुशल, शुनचारि त्रसंयुक्त, अप्रमादादि बहुविध गुण संयुक्त, ऐसे गुरुके साथ, चतुर्विध संघसंयुक्त, विशेषसे निजबंधु सहित, इस निपुण विधिकरके जिनबिंबको वंदना करनी. ॥ ए॥ - तदनंतर उपधानवाही, गुणाढ्यसाधुओंको परम नक्तिसें वंदना करे. तथा साधर्मियोंको यथायोग्य प्रणामादि करे. पीछे बहुमोलके उत्कृष्ट वस्त्र प्रदान पूर्वक नक्ति करके उपधानवाहिने, श्रीसंघका जारी सन्मान करना. ॥३१॥
इस अवसरमें अहीतरें जान्या है गंजीर सिझां तका सार जिसने, ऐसे गुरुने, आदपिणी, विज्ञपि णी, संवेदिनी, और निर्वेदिनी, यद चार प्रकारकी