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अष्टमपरिजेद. धर्मकथा श्रझासंवेग साधनेमें निपुण जारी प्रबंध करके करनी. ॥३३॥ -पीने तिस नव्यजीवको श्रमासंवेगमें तत्पर जाण के, निपुणमति श्राचार्य, चैत्यवंदनादि करनेमें यह वचन कहे. ॥ ३४ ॥ . - जो जो देवानुप्रिय ! निज जन्म साफल्यताको प्राप्त करके तेंने थाजसें लेके जावजीवपर्यंत तिनों ही कालमें एकाग्र सुस्थिर चित्तकरके अर्हत्प्रतिमा को वंदना करनी. क्योंकि, क्षणभंगुर मनुष्यपणेमें यही सार है, तहां तैंने पुर्वान्हमें जिनप्रतिमाको
और साधुयोंको वंदना करकेही जोजन करना कल्पे, और अपराह्नमें जी फिर वंदना कर केही सोना कल्पे, अन्यथा नही. ॥ ३ ॥
ऐसें अनिग्रहबंधन करके पीने वर्डमान विद्यासें अनिमंत्रके गुरु सात मुष्टीप्रमाण गंध (वासदेप) ग्रहण करे. पीजे तिस उपधानवाहीके मस्तकऊपर " निथ्थारगपारगो हविज तुम" ऐसे उच्चारण कर ता हुआ गुरु, नमस्कारपूर्वक निक्षेप करे (माले) इस विद्याके प्रजावके जोगसे निश्चय यह नव्य प्रारंजित कार्योंका शीघ्र निस्तार करनेवाला, और पार होनेवाला होवे. ॥४१॥....
अथ चतुर्विध संघजी, तूं, निस्तारक पारग हो,