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अष्ठमपरिवेद. उपधान करा है, सो प्राणी नवांतरमें सुलजबोधि होतेंहैं. और उपधानके अध्यवसायवाले जी, हे गौतम ! आराधक होतें है. परंतु हे गौतम ! जक्ति वाला जी प्राणी, जो उपधान विना श्रुतको ग्रहण करे, तिसको नही ग्रहण करनेवालेके सदृश जाण ना. तथा सो जीव, तीर्थंकरकी, तीर्थंकरके वच नोंकी, संघकी, और गुरुजनकी, आशातना करता है. सो श्राशातना बहुल प्राणी, हे गौतम संसा रमें ब्रमण करता है. उपधानवीना नवकार जिसने पढ लिया है, तिसको जी उपधान पीसेनी कर नेसें बोधि, (जिनधर्मप्राप्ति) सुलन कही है. यह उपधानकरके प्रधान, निपुण, संपूर्ण जी वंदन विधान, जिनपूजा, पूर्वकही श्रुतोक्त नीतिकरके पढना. तिस पंच मंगलको खर, व्यंजन, मात्रा, बिंड, पदच्छेद, स्थानोंकरके शुद्ध पढके, चैत्यवंदन सूत्रको, और अर्थको विशेषकरके जाणना. तिसमें जहां सूत्र विषे, वा अर्थविषे, संदेह होवे तो, तिस को बहुशः विचारके संपूर्ण संदेहरहित करना.॥२१॥
अथ शुजतीथि, करण, मुहूर्त, नत्र, जोग, लग्नमें, चंबलके अनुकूल हुए, कल्याणकारी प्रश स्त समयमें, अपने विनवानुसार जगवानका पूजन कर, परम जक्तिसें विधिपूर्वक साधुवर्गको प्रतिलान के, अतिसमूह सहित, हर्षवशसें खडे हुवें हैं,