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जैनधर्मसिंधु. वाले देशमें वसना नही, नदी और धर्मगुरुवर्जित देशमें जी नही वसना. । राजा, राज्याधिकारी, स्त्री, नदी, लोजी, पूर्ववैरी, श्नोंका विश्वास नहीं कर नाः । कार्यविना स्थावर जीवोंकी नी हिंसा नहीं करनी. । असत्य अहितकारि वचन नहीं बोलना, गुरुओं (बमों) के साथ विवाद नही करना. माता पिता और गुरु, श्नका उत्कृष्ट तत्त्वकीतरें मान सत्कार करना. । शुज अष्टादश दूषणरहित सर्वज्ञो क्त शास्त्रका श्रवण करना; अजय (नही खाने योग्य ) का लक्षण नही करना; जे त्यागने योग्य नहीं है, उनका त्याग नही कर ना; जे मारणे योग्य नही है, तिनको मारणा नही. अतिथि, सुपात्र, और दीन, इनको यथाविधि यथा योग्य दान देना; दरिज, अंधे, पुःखी, श्नको जी यथाशक्ति दान देना. । हीन अंगवालोंको, और विकलोंको कदापि हसना नहीं । नूख, तृष्णा,(तृषा,) घृणा, क्रोधादि उत्पन्न हुए नी, गोपन करने । षट् (६) अरिवर्गका विजय करना, गुणोंमें पक्षपात करना, देशाचार आचरण करना, पाप और अप वादका जय करना.। सदृश श्राचारवाले, समजाति,
और अन्य गोत्रजोंके साथ विवाह करना; धर्म अर्थ कामको निरंतर परस्पर अप्रतिबंधसे साधन करना.। अपने और परायेका ज्ञान करना, देशका