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अष्टमपरिवेद. ६६५ लादिका चिंतन करना, सौजन्य धारण करना, दीर्घ दर्शी होना, लजालु होना. परोपकार करना, परको पीमा न करनी, अपना परिजव (तिरस्कार) होवे तब पराक्रम दिखाना, अन्यथा सर्वत्र दांति कर नी. । जलाशय, श्मसान, देवल, इनमें और तीन संध्यामें नित्रा, आहार, मैथुनादि वर्जना. । कूपमें प्रवेश, कूपका उलंघन, कूपकांठेपर शयन, श्न सर्व को वर्जना; तथा नावाविना नदीका लंघना वर्ज ना. । गुरुके श्रासनशय्यादिके ऊपर, तामवृक्षके हेवें, बुरी नूमिमें, उर्गोष्टिमें, कुकार्यमें, बेंग्ना सदा ही वर्जना । खाम कूदनी नही, लोजी स्वामीकी सेवा, नही करनी; चौथका चंड, नग्न स्त्री, अधनुः, इनको देखना नही. । हाथी, घोमा, नखोंवाले, जनावरों और निंदक, इनको दूरसें वर्जनाः । दिन में संजोग (मैथुन) न करना, रात्रिको वृक्षका सेवन न करना. । कलह, और कलहका समीप, निरंतर वर्जना. । देशकाल विरुक, जोजन, कार्य, गमन, आगमन, नाषण, व्यय (खरच) और आय (लाल) ये कदापि न करने. यह पूर्वोक्त उत्तम व्रतादेश चारों वर्णोंका है. ॥ २० ॥ इति चातुर्वर्ण्यस्य समानोवतादेशः ॥ __ गृहस्थगुरु, पूर्वोक्त प्रकारसे शिष्यको व्रतादेश करके, आगे करके जिन प्रतिमाको तीन प्रदक्षिणा