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जैनधर्मसिंधु. ॥२॥ अथ देवसिथ पडिक्कमणे गलं ॥
॥श्वाकारेण संदिसह जगवन् ॥ देवसिप पमिकमणे गजं ॥ श्वं सबस्सवि देवसिअ छ चिंतिम ॥उन्नासिअ उचिहिअ ॥ तस्स मि बामि उक्कडं ॥इति ॥२७॥
॥श्॥ अथ श्वामि गमि॥ ॥ श्वामि गमि कानस्सग्गं ॥ जो मे देव सिउ अश्वारो कठ॥ का वा माणसि उस्सुत्तो जम्मग्गो अकप्पो ॥ अकरणिजो छ घाउँ ॥ विचिंत्ति अणायारो॥ अणिजिअ वो॥असावगपानग्गो॥नाणेतह दंसणे चरित्ता चरित्ते ॥सुए समाइए ॥तिन्हं गुत्तीणं॥चनन्दं कसायणं ॥ पंचन्दमणुव्वयाणं ॥ तिन्हं गुण बयाणं ॥ चनन्दं सिकावयाणं ॥बारसवि हस्स सावगधम्मस्स ॥ जं खंडिअं जं विरा दिअं॥ तस्स मिलामि उक्कडं ॥इति ॥२॥
॥श्॥अथ अतिचारनी आठ गाथा॥
॥ नाणंमि दंसणंमि अ, चरणमि तवंमित दय विरियंमि ॥ आयरणं आयारो, श्अ एसो पंचदा नणि ॥१॥ काले विणए बहुमाणे