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पंचमपरिवेद.
४४५ पामी अनुजव संतहो ॥ एत्रांकणी॥ ध्यान तणी अं गीठिका ॥॥ जोजन तिम संतोष हो ॥ श्रास व समता पीवतां ॥नम् ॥ करजो काया पोष हो ॥ गुण ॥ अ० ॥२॥ मायानिशादरें कीजीयें ॥ न ॥ शुरू स्वन्नावें क्षीण हो ॥ तैलाभ्यंग तिम उदासीनता ॥ ज० ॥ श्रुत तंबोल प्रवीण हो ॥ गु० ॥ अ० ॥३॥ उचा महेल विवेकना ॥न॥ वास करो तेह मांहे दो ॥ अग्यार बोल ते धारियें ॥ ज० ॥ रसपोषण जे जेह हो ॥ गुण ॥ अ० ॥४॥ अग्यार अंगरस सांजली ॥ न ॥ प्रतिमा वहो श्र ग्यार हो ॥ कर्म कठिन दूरे करी ॥ ज० ॥ लहियें यु मुक्ति उवार हो ॥ गु० ॥ अ० ॥५॥ एकाद शी तप कीजियें ॥ ज० ॥ एम एकादश वर्ष हो । अग्यार अंग वाचक होवे ॥ न ॥ पामियें सुजस हर्ष हो ॥ गु० ॥६॥णविध नवियण आदरो ॥ न॥ जाणो एकादशी सार हो ॥ लब्धि कहे नवि सांजलो ॥ना होवे ज्यु नवनिस्तार हो ॥ गुण ॥७॥
॥अथ छादशीनी सद्याय प्राजरंः॥ ॥ रहो रहो वालहा ॥ ए देशी ॥ हादशी कहे नविनावशुं, कीजें धर्मनी गोठ लाल रे ॥ विण दा में रस लीजीयें, जिम साकरनी जरी पोठ॥लाल रे ॥१॥ जावें नवियण सांजलो ॥ ए श्रांकणी ॥ बा रसे बार उपांगना. निसुणो जे कह्या बोल लाल रे