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षष्ठमपरिछेद.
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॥२॥ उगसो जो पर मनहगें, पर उपजावें रीऊ॥ जासकरें वस जगतकौं॥ साचा ठग सोज ॥राए॥ मरें कहा जस राज कहें,जो अपने मन साच॥क्षिण में परगट होयगा, ज्यौं प्रगटायो काच ॥ २०॥ ढहै कोट श्रग्यांनका,गोलाग्यांन लगाय।मोदरायकौं मार लैं, जसा खगें सब पाय ॥ १ ॥ नदी नखीनारी तणो।नागन कुल जसराज॥नरस्त्री नरपति निर्गुणिन, श्राठे करें अकाज ॥ ३२ ॥ तारे ज्यौं नरकौं जसा नर सायरमें पोत ॥ त्यौं गुरु तारें जव जलधि॥ करें ग्यांन उद्योत ॥ ३३॥ थोन लोजनहि जीउकौं, जो लाख कोटिधन होतासमता जो श्रावें जसा,सुखी सदा मन पोत ॥ ३४ ॥ दक्षिण उत्तर च्यार दिस, जसालमें धन काज॥प्रापति विना नपाईयें, कोमि करो सुउपाय ॥ ३५ ॥ धन पाया खाया नही, दीयानि कबु नाहि,सो वागुरी होयें धनमें जसा,ढुंढतदै धन मांहि ॥ ३६ ॥ निर्गुन पतित नारी निलज, कूपक खारो नी॥नीच मीत जसराज कहें, पांचों दहें शरीर ॥३॥ पर उपगारी जगतमें ॥ अलप पुरुष जसराज, सीतल वचन दया मया, जाके मुख परलाज ॥३॥ फोज दिसो दिस मिल गई, जसा घुरे निसाणामुळं सन मुख जायनें, सूरगणे नहि प्राण ॥ ३ए ॥ बुंब परें सब दोर है, लैलै आयुध हाथ ॥ बदन मलिन कर हैं जसा, जब जाचें कोय अनाथ ॥ ४० ॥