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जैनधर्मसिंधु. अमर पुर जांहि ॥ १६ ॥ अमर जगतमें कोनही॥ मरेंअमर सुर राज॥गढ मढ मंदिर ढह परै, अमर सुज स जस राज ॥१७॥ कंचनसें पीतर गृहै, मूरख मुढ़ गिमार॥ तजै धर्म मिथ्यामती, नजै अधर्म असार ॥ १७ ॥ खल संगति तजियें जसा, विद्या सोनित तोय ॥ पन्नग मणि संयुक्तसो॥ क्यौंन जय कर होय ॥ १५॥ गाज सरदकी कारिमी, करतहें बहुत थ वाज॥ तनक न वरसे दान त्यौं, कृपण नदें जसराज ॥ २० ॥ घरटी के दो पुम विचे, कण चूरण ज्यौं होय॥त्यौंदो नारी विच पोड्यो, नर उगरेंन कोय॥२९॥ नही ग्यान जामें जसा ॥ नही विवेक विचार॥ताको संगन कीजीई, पर हरी निरधार ॥॥ चपला कमला जानकें, कलु खरचो कबु खाजाश्कदिन नों सुवो जसा॥लांबा करकें पाठ ॥३॥ बलकर बलकर बुधिकर, करके जसा उपाय॥यातम वसकर आपनो दूर जन दूर तजाय ॥ २४ ॥ जुवती सब युगवस की किसीन राखीमांम॥ तासों जो न्यारारहै, ताको जसा प्रणाम ॥ २५ ॥ जाजी वात न कीजी,थोडा हीमें श्रानि॥जसा बराबर लेखवो, श्रापप्रानपरप्रान ॥ २६ ॥ नग मुहिता पति आजरण॥ ताको अरि जसराज ॥ तसपति नारी बिनु पुरुष ॥ नवधे सोना लाज ॥२७॥ टांणा टुंणा बोरदें, याथे न सरें काज॥ चोखे चित जिन धर्मकर, ज्यूं काजसरें जसराज