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षष्ठमपरिच्छेद.
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लपट रह्यो क्या कीच में, शुचि जिहां जरपूर ॥ ४ ॥ धंधाही में पचरह्यो ॥ श्ररंजकी ए अपार ॥ उठ चलेगो एकलो, शिरपर रहेंगो नार ॥ ५ ॥ अन्यायी जन देतधन, बहुत, रहित फल सोय ॥ दान स्वल्प फल पि वहुत न्याय उपार्जित होय ॥ ६ ॥ श्रातम परहित आपकुं, क्या परकुं उपदेश, निज श्रातम समज्यो नही, किनो बहुत कलेस ॥ ७ ॥ इतनाही में समजलें, क्या बहुत पढेंसो ग्रंथ ॥ उपशम विवेक संवर लढ़ें, याको शिव पुर पंथ ॥ ८ ॥ इति निति यायें गई, प्रगट जई सबरीत ॥गीत मार्ग पेदाकी गाउँ तिनके गीत || || उदय जएरविके जसा, जावे सब अंधार || त्यौंसद गुरुर्के वचनथें, मिटें मिथ्यात अपार ॥ १० ॥ ऊगत बीज सुखेतमें, जसा सुजल संयोग ॥ त्यसद गुरुके वचनथें, उपजत बोध प्रयोग ॥ ११ ॥ एक टेकधरीए जसा, निर्गुण निर्मम देह ॥ दोषरोग जामें नही, करीयें ताकीसेव ॥ १२ ॥ ए विषम गति कर्मकी, लिखी नकाहुं जात ॥ रंकनथें राजाकरें, राजारंक दिखात ॥ १३ ॥ उस बिंदु कुशा ग्रंथें, परत नलग्गे वार, श्रायु थिर तेसें जसा, कर कबु धर्म विचार ॥ १४ ॥ ऊषध न मिलें मीत्त ज्युं जायें मरें न कोय ॥ करउषध एक धर्मको, जसा अमर तुं होय ॥ १५ ॥ अंध पंगु ज्यों एक हे, जरे न पावक मांहिं ॥ ग्यान सहित क्रिया करे, जस्सा