________________
५४
जैनधर्मसिंधु ध्याये ॥ कोमि मनकामना सफल वेगें फले, विध न वैरी सवे दूर जाये ॥ मा० ॥ ४ ॥ ज्ञान बल तेजने सकल सुखसंपदा, गौतमनामश्री सिकि पा मे ॥ अखंग प्रचंम प्रताप होय अवनिमां, सुर नर जेहनें शीश नामे ॥ मा० ॥ ५॥ पुष्ट दूरे टले स्वज न मेलो मले, आधिउपाधिने व्याधि नासे ॥ नूत नां प्रेतना जोर लांजे वली, गौनमनाम जपतां उल्हा सें ॥ मा० ॥ ६ ॥ तीर्थ अष्टापदें आप लब्धं जज्ञ, पन्नरसें त्रणने दीरकदीधी ॥ अहमने पारणे तापस कारणें, दीरलब्धे करी अखुट कीधी ॥ मा० ॥ ॥ ॥ वरस पच्चास लगे गृहवासें वस्या, वरस वली त्रीश करी वीरसेवा ॥ बार वरसां लगें केवल लोग व्युं, नक्ति जेहनी करे नित्य देवा ॥ मा० ॥ ७ ॥ महियल गोतम गोत्रमहिमा निधि, गुणनिधि शकि ने सेकि दाई ॥ उदय जस नामथी अधिक लीला लहे, सुजस सौजाग्य दोलत सवाई॥ मा० ॥ इति ॥
॥अथ दोधक बावनी लिख्यते ॥ यह अदर सारहें।ऐसा अवरन कोय॥सिक सरुप नगवान शिव सिरसा वंद्र सोय ॥१॥ नमीयें देव जगतगुरु, नमी ये सद गुरुपाय॥दयायुक्त नमीयें धरम, शिव सुखलेय उपाय ॥२॥ मनकी ममता दूरकर, समता धर घट मांहिं, रमतां रामपिठानकें, शिव सुख ले क्यु नाहि ॥३॥ शिवमंदिरकी चाह धर, अथिर अंध तजिदूर॥