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६॥
अष्टमपरिछेद. शकिं, देहि, वृद्धिं देहि, बुकिं देहि, सर्वसमीहितं देहि, २ स्वाहा ॥"
ऐसें पढके चारों कोणोंमें न्यारेन्यारे वास, माल्य, अदत, देप करना; तोरणकी प्रतिष्ठानी ऐसेंही करनी. तन्मंत्रो यथा ॥ ___“ ही श्री नमो हारश्रिये, सर्वपूजिते, सर्व मानिते, सर्वप्रधाने, इह तोरणस्थासर्वसमाहितं देहि २ स्वाहा ॥"॥ इतितोरणप्रतिष्टा ॥
पीले वेदिके मध्य में अग्निकोणेमें अग्निकुंममें मंत्रपूर्वक अग्निको स्थापन करे. । अग्निस्थापन मंत्रो यथा ॥ __“॥ ॐ रां री रूं रौं रः नमोअग्नये, नमो बृह नानवे, नमोनंततेजसे, नमोनंतवीर्याय, नमोनंतर णाय, नमो हिरण्यरेतसे, नमबागवाहनाय, नमो हव्यासनाय, अत्र कुंडे आगच्छ २ अवतर ५ तिष्ट २ स्वाहा ॥” ___ समयांतरमें, देशांतरमें वा कुलांतरमें, वेद्यंतर मेंही, हस्तलेपन करते हैं. देश कुलाचारादिमें मधु पर्क प्राशनके अनंतर, वेदि; और हस्तक्षेपसे पहि ले परस्पर कंबायुझ, वधूवरास्फालन, वेमानयन, मणिग्रथन, स्नान, नाष्टकर्म, पर्याणकर्म, वस्त्रकौसुं जसूत्रांतःकर्षणप्रमुख, कर्म करते हैं. वे देश विशे षलोकोंसें जाण लेने. व्यवहार शास्त्रों में नही कहे