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जैनधर्मसिंधु. हे परंतु स्त्रीयोंको सौनाग्यप्राप्तिवास्ते, शौक श्रादि न होवे तिसके वास्ते, वरको वशीनूत करनेके वास्ते करते हैं. ॥ __ पीने युक्त हाथवाले, नारी और नरकी कटी उपर चढे हुए वधूवर दोनोंको, गीतवाजंत्रादि बहु त श्रामबरसें दक्षिण छारसें प्रवेश कराके वेदिके मध्यमें लावे. । पीले देशकुलाचारसे काष्टासनोंके ऊपर, वा वेत्रासनोंके ऊपर, वा सिंहासनके ऊपर, वा अधोमुखी शरमय खारीके ऊपर, वधूवरको पूर्व सन्मुख बिठलावे. । तथा हस्तलेपमें, और वेदिक ममें कुलाचारके अनुसार दसियां सहित कौरवस्त्र, वा कौसुनवस्त्र, वा खजाववस्त्र वधूवरको पहिरावे पीले गृहस्थगुरु, उत्तरसन्मुख मृगचर्म ऊपर वेगहुश्रा, शमी, पिप्पल, कपित्थ ( कवठ-एतवे ल) कुटज (कुडची-जिस वृक्षाका फल इंजयव होता है,) बिब्ब, श्रामलकके इंधनकरके अग्निको जगाके, इस मंत्रकरके घृत मधु तिल यव नाना फलोंका हवन करे ॥ मंत्रो यथा ॥ __ “॥ अह अग्ने प्रसन्नः, सावधानो जव, तवाय मवसरः, तदाहारयें यमं नैऋतं वरुणं वायुं कुबेरमी शानं नागान् ब्रह्माणं लोकपालान् ग्रहांश्च सूर्यशशि कुजसौम्यबृहस्पतिकविश निराहकेतून सुरांश्चअसुरना गसुपर्ण विद्युदग्निहीपोदधिदिक्कुमारान् जुवनपतीन्