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जैनधर्मसिंधु. सम विवेक संवर, नासासमिई जीव करुणा य॥धम्मिअ जण संसग्गो, करणदमो चरिण परिणामो॥४॥ संघोवरि बहु मानो, पुत्रय लिहणं पन्नावणा ति ॥ सट्ठाण किञ्च मेअंनि चं सुगुरूवएसेणं ॥५॥इति ॥ ५० ॥
॥५१॥ अथ श्री तीर्थवंदना ॥ ॥सकल तीर्थ वंड करजोड्य, जिनवरना मे मंगल कोड्य ॥ पहेले स्वर्गे लाख बत्रीश, जिनवर चैत्य नमुं निशदीस ॥ १॥ बीजे ला ख अहाविश कह्यां, त्रीजे बार लाख सर्दह्यां॥ चोथे स्वर्गे अम लख धार, पांचमे वं लाख ज चार,॥२॥ स्वर्गे सहस पचास, सातमे चालिश सहल प्रासाद ॥ आपमे स्वर्ग बद जार, नव दसमे वंडं शत चार ॥३॥ अग्यार बारमे त्रणशे सार, नवग्रैवेयके व्रणशे अढा र ॥ पांच अणुत्तर सर्वे मली, लाख चोराशी अधिकां वली ॥ ४ ॥ सहस सत्ताणुं त्रेविश सा र, जिनवर नुवन तणो अधिकार ॥ लांबां शो जोजन विस्तार, पचास जंचां बोहोंतेर धार ॥ ॥५॥ एकशो एंशी बिंब परिमाण, सनासदि