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जैनधर्मसिंधु.
यत उक्तमागमे ॥सिरिजरइचक्कवही श्रारियवेयाण विस्सु कत्ता ॥ माहणपढणच मिणं कहियं सुहजाणववहारं ॥ १ ॥ जितिछे छिन्ने मित्ते माहणेहिं ते वविया ॥
संजया पूया अप्पाणं कारिया तेहिं ॥ २ ॥
व्याख्या;- श्रीजरतचक्रवर्त्ती यार्यवेदों का कर्त्ता प्र सिद्ध है. जरतने श्रर्यवेद किसवास्ते करे, माहनोंके पढने के वास्ते, शुज ध्यान केवास्ते, और जगत्व्यवहार केवांस्ते । जिन तीर्थंकर के तीर्थके व्यवच्छेद हुए वह आर्यवेद तिन माहनोंने मिथ्यामार्ग में स्थापन करे, और असंयतिहोके तिनोने अपनी पूजा जगत्में करवार इन वेदोंका विशेष निर्णय जैनतत्त्वादर्शग्रंथ से
जानना ॥
इस गर्भाधानसंस्कारमें इतनी वस्तु चाहिये ॥ पंचामृत स्नात्र १, सर्वतीर्थोदक २, सहस्रमूलचूर्ण ३, दर्ज ४, कौसुंजसुत्र ५, द्रव्य ६, फल ७, नैवेद्य, सदशवस्त्र दो (चुनमी) ए, शुसन १०, शुनपट्ट ११, स्वर्ण ताम्रादिजाजन १२, वादित्र १३, पतिवाली स्त्रीयां १४ और गर्भवतीका पति १५,
इति गर्भाधान संस्कार विधि.
॥ अथ पुंसवन संस्कार वर्णन || गर्भसें आठ मास व्यतीत हुए, सर्व दोहदों के