________________
अष्टमपरिबेद. पूर्ण हुए, सांगोपांग गर्नके उत्पन्न हुए, तिसके श रीरमें पूर्णीजाव प्रमोदरूप स्तनोंमें दूधकी उत्पत्तिका सूचक, पुंसवन संस्कार करना । मूल, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, मृगशिर, श्रवण, येह नदात्र; और मंगल, गुरु
आदित्य, येह वार, पुंसवन कर्ममें संमत है.। रिक्ता दग्धा, क्रूरा, तीन दिनको स्पर्शनेवाली, अवम् (टी तिथी) षष्ठी, अष्टमी, छादशी, अमावास्या, ये तिथि यां वर्जके; गंमांत और अशुन नक्षत्रवर्जित, पूर्वोक्त वारनक्षत्रसहित दिनमें पतिको चंद्रमाके बल हुए, पुंसवनका श्रारंज करे; सो ऐसें है। पूर्वोक्त वेष,और स्वरूपवाला गुरु पतिके समीप हुए, अथवा न हुए.ग
॥धान कर्मके अनंतर, जो वस्त्रवेष औरकेशवेष धा रण करे हैं, तिसही वस्त्रवेष और केशवेषवाली गर्नवं तीको, रात्रिके चौथे प्रहरमें तारेसहित आकाशहोवे तब मंगलगीतगानपूर्वक आचरणसहित अविधवा स्त्रीयोंकरके,अन्यंग उर्त्तन जलानिषेकोंकरके स्नान करावे. । तदपी प्रनात हुए नवीन वस्त्र गंधमा व्यनूषित गर्नवंतीको सादिणी करके, घरदेहरामें अर्हत्प्रतिमाको तिसका पति, वा तिसका देवर, वा, तिसके कुलका पुरुष, वा गुरु, श्राप पंचामृतकरके वृहत्नात्र विधिसे स्नान करावे. । तदपोडे सहस्रमू लीनात्र प्रतिमाको करे. । पीले तीर्थोदक स्नात्रकरे पीने सर्वस्नात्रोदकोंको सुवर्णरूप्यताम्रादि नाजनमें