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जैनधर्मसिंधु. स्थापन करके, शुजासन ऊपर बैठी हुई सादीनू त करे हैं पतिदेवरादि कुलज जिसने, ऐसी गर्जवं तीको, दक्षिणहस्तमें कुशा धारण करके, कुशाग्रबिं ज्योंकरके स्नात्रोदकसे गर्नवंतीके शिरस्तनउदरको सिंचन करता हुआ, इस वेदमंत्रको पढे. ॥ ___“॥ अहँ । नमस्तीर्थकरनामकर्मप्रतिबंधसंप्रा ससुरासुरेंजपूजायाईते । आत्मन् त्वमात्मायुः कर्मबं धप्राप्यं मनुष्यजन्मगर्जावासमवाप्नोषि तन्नव जन्म जरामरणगर्नवासविछित्तये प्राप्ताहधर्मः अर्हन्नक्तः सम्यक्त्वनिश्चलः कुलजूषणः सुखेन तव जन्मास्तु । नवतु तव त्वन्मातापित्रोः कुलस्यान्युदयः। ततःशां तिः पुष्टिः तुष्टिफिई छिः कांतिः सनातनी अर्ह
इस वेदमंत्रको श्राग्वार पढता हुथा, गर्जवंती को अनिषेचन करे. । तदपीले गर्नवंती श्रासनसें कठके सर्वजातिके श्राप ५ फल, स्वर्णरूप्यमयी मु जा श्राप, प्रणाम (नमस्कार) पूर्वक जिनप्रतिमाके आगे ढोवे. । तदपी गुरुके चरणोंको नमस्कार क रके, दो वस्त्र, सोनेरूपेकी आठ मुखा, और तंबो लसहित आठ सुपारी गुरुको देवे.। तदपीने धर्मा गार ( पोषधशाला) में जाकर साधुयोंको वंदना नमस्कार करे, और साधुयोंको यथाशक्तिसें शुद्ध अन्न वस्त्र पात्र देवे. । कुलवृद्धोंको नमस्कार करे. ॥ सदपीने स्वकुलाचारकरके कुलदेवताविपूजन जानन.