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जैनधर्मसिंधु
तकः प्रसिध महिमा शत्रुंजयो मंगपः ॥ वैजारः कनकाचलोऽर्बुदिगिरिः श्री चित्रकूटादय, स्तत्र श्रीशषनादयो जिनवराः कुर्वंतु वो मंगलम् ॥ ३३॥ ॥ ५३ ॥ अथ श्री अजितशांतिस्तवन ॥ ॥ जि सिवनयं संतिं च पसंत सव्वगयपावं ॥ जयगुरु संति गुणकरे, दोविजि वरे पणिवयामि ॥२॥ गादा ॥ ववगय मंगुल जावे, तेहिं विडल तव निम्मल सदावे ॥ निरुवम महप्पजावे, योसामि सुदिन सनावे ॥ २ ॥ गादा ॥ सबडुकप्पसंतीणं, सब पावप्पसं तिणं ॥ सया जियसंतीणं, नमो जिप्रसं तिणं ॥ ३॥ सिलोगो ॥ जिय जिए सुदप्पव तणं, तव पुरिसुत्तम नाम कित्तणं ॥ तदय धिइ मइ प्पवत्तणं, तवय जणुत्तम संतिकित्तणं ॥४॥ माग दिया ॥ किरिया विदि संचिच्य कम्म किलेस विमुरकयरं, अजि निचिच् च गु ऐदिं महामुणि सिद्धियं ॥ प्रजिअस्सय सं ति मदामुणिणोवि संतिच्ारं संयय मम नि बुइ कारणयंचनमं सायं ॥ ५ ॥ प्रालिंगणयं ।। पुरिसा जइ एकवारणं, जइ विमग्गह सु
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