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३४५ जैनधर्मसिंधु. ता कुठे श्राव्या विष्णु माता तारीरे॥ जगतवच्छल प्रजु तुंबे आनन्दकारीरे ॥श्रेण ॥२॥खमगीलंडन प्रनु सोहे सुखकारीरे, करुं एक अरजी स्वीकारो प्र लु मारीरे,॥श्रे॥३॥ऽष्ट्र एक रामा मारी, पाउल पनी नारीरे॥ लीधुं बुंटी एव्य मने बहु मार मारीरे;॥श्रेण ॥ लोकोमा लजावी मने कस्यो बे खुवारीरे, नामे डे कुमती तेने काढो प्रजु न्यारीरे; श्रे॥५॥ अहमद नगरे रही करे अर्ज सारीरे; बाल मित्र गाय ने श्रा नन्द हितकारीरे । श्रे० ॥६॥
श्रीवासुपुज्य स्वामीनुं स्तवन ।
गमका तराना ए राह । वासुपुज्य विलाशी, चंपाना वाशी, पुरो श्रमारि श्राश॥ करुं पुजाहुँखाशी ॥केशरघासी, पुष्प सुवासी, पुरो । ए टेक.॥
चैत्यवदंन करूं चित्तथी प्रजुजी, गा, गीतारसा ल ॥ एम पूजा करी विनती करुं बं,थापो मोदद याल । दियो कर्मने फांसी, काढो कुवाशी, जेम जाय नाशी। पू ॥१॥ संसार घोर महो दधिथी, का ढो अमने बहार ॥स्वारथनां सहु को सगा , मात पिता परिवार; बालमित्र उहाशी, बिनय बिलाशी अर्जि खाशी. पुरो० ॥१॥
विमल नाथ स्तवन । पूजो देव करो तुम सेव कुकर्मो तन न न न न त्रुटे।