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अष्टमपरिवेद.
६३ए नयन जिनोपवीत धारण करणा. । श्रानंदादि शुनो को जी उत्तरीय धारण करणा.। शेष वणिगादिकों को उत्तरासंगकी अनुज्ञा है. जिनोपवीत जो है सो जगवान् जिनकी गृहस्थपणेकी मुला है.। सर्व बाह्य अत्यंतर कर्म विमुक्त निग्रंथ यतियोंको तो, नव ब्रह्मगुप्तिगुप्ताझानदर्शनचारित्ररत्नत्रयी, हृदयमेंही है क्योंकि, ॥ मुनिजन सर्वदा तनावनानावितही होते है. इसवास्ते नवब्रह्मगुप्तियुक्तरत्नत्रयी सूत्ररूप बाह्य मुखाको नही धारण करते है, तन्मय होनेसें. नही समुह, जलपात्रको हस्तमे करता है.। नही सूर्य दीपकको धारण करता है. यमुक्तं ॥ अग्नौ देवोस्ति विप्राणां हृदि देवोस्ति योगिनाम् ॥ प्रतिमास्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र विदितात्मनाम् ॥ १॥
अर्थः-अग्निहोत्रि ब्राह्मणोंका तो अग्निही देव है, अर्थात् अग्निविषेही देवबुकि है; और योगिज नोंके हृदयमेंही देव है; क्योंकि, योगान्यासी मुनि जन तो, अपने पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत, ध्यानके बलसें अपने हृदयमेंही देवका स्वरूप ध्याय सकते हैं; और जो अल्पबुधि अर्थात् गृहस्थधर्मी श्रावकादि हैं, तिनोंको जगवान्की प्रतिमाही देव है; और तिसकेहो पूजन, ध्यान, प्रनावना, उत्सव, रथयात्रा, करनेसे कल्याण है. और जिनोंने श्रात्म स्वरूप जाना है, ऐसे यति, कृषि, मुनियोंको तो