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६४० जैनधर्मसिंधु. सर्वजगें देव मालुम होता है, अर्थात् ध्याता, ध्येय, ध्यान, ज्ञाता, झेय, ज्ञान रूपकरके सर्व देवस्वरूपही है. ॥ सवास्ते शिखासूत्र विवर्जित ब्रह्मगुप्तिरत्नत्रय करण कारण अनुमतिमें सदैव श्रादरवाले यतिजन हैं.। और गृहस्थी, ब्रह्मगुतिरत्नत्रयलेशश्रवणस्मरण मात्रसें ब्रह्मगुप्तिरत्नत्रयकोसूत्रमुखाकरके हृदयमें धा रण करते है.। 'प्रतिम।स्वल्पबुद्धीनां इसवचनसें' ॥ ___ तदात्मकत्वके न हुए मुजाका धारण है. । जैसे बद्मस्थको बाह्य श्रन्यंतर तपःका करणा है.। तथा नवतंतुगर्जितसूत्रमय एक अग्र ऐसें तीन अग्र ब्रा ह्मणको, दो अग्र क्षत्रियको, एक अग्र वैश्यको, शूपको उत्तरीमक, और अपरको उत्तरासंगकी श्र नुझा है.। ऐसा विशेष क्यों है ? सोही कहते हैं. ब्राह्मणोंने नवब्रह्मगुप्तियुक्त ज्ञान दर्शनचारित्ररूप रत्नत्रय आप पालन करणे, अन्योंसे करावणे, अन्य करतांको अनुमति देणी. ॥ ब्रह्मगुप्तिगुप्ताइति । ब्राह्मण आप रत्नत्रयीको ध्ययन सम्यकदर्शन चारित्र क्रियायोकरके आचरते है, अन्योसें श्रध्यापन सम्यक्त्वोपदेश श्राचार प्ररूपणा करके रत्नत्रयीका आचरण करवाते हैं, और ज्ञानोपाशन सम्यगदर्शन धर्मोपाशनादिकों करकें श्रद्धा करने वाले ओर अनुज्ञा मांगनेवासे अन्योको अनुज्ञा देते हैं, इसवास्ते नवब्रह्मगुप्तिगर्नि रत्नत्रय करण कारण