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अष्टमपरिछेद.
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नाणं परमं पेयं, सुद्धं ज्जाणं परं ज्जेयं ॥ ३४ ॥ एवं कवयमज्ञेयं, खाश्यमच्छं पराजुवणरक्खा ॥ जोईसुन्नं बिंदु, नाओ तारालवो मत्ता ॥ ३५ ॥ सोलस पर मक्खरबी बिंगो जगुत्तमो जोश्रो ॥ सुबारसंग सायर, महछपुवञ्च परमठो ॥ ३६ ॥ नासेर चोरसावय, विसहरजलजलणबंधणसयाई ॥ चिंतितो रक्खस, रणरायनयाई जावेण ॥ ३७ ॥ ॥ इति श्ररिहणादिस्तोत्रम् ॥
इस रिहणादि स्तोत्रको पढके " जय वीयराय जगगुरु० " इत्यादि गाथा पढे. पीछे आचार्य उपा ध्याय गुरु साधुओं को वंदना करे । यह शक्रस्तव विधि, गुरु और श्रावक दोनोंही करे. । चैत्यवंदनके अनंतर. श्राद्ध, क्षमाश्रमणदानपूर्वक कहे.
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॥ जगवन् सम्यक्त्व सामायिकश्रुतसामायिकदे शविर तिसामायिकच्या रोव पित्र्यं नंदिकढाव पित्र्यं काउ सग्गं करेमि ॥ "
गुरु " कहे कह" तब श्रावक "सम्मत्ताइतिगारोव किरेमि काज सग्गं अन० " इत्यादि कहके सत्ताइस उवास प्रमाण अर्थात् ' सागरवरगंजीरा लग कायोत्सर्ग करे | पीछे नमो अरिहंताणं कद के पारके चतुर्विंशतिस्तव अर्थात् लोगस्स संपूर्ण पढे । पीछे मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनपूर्वक श्रावक द्वादशा वर्त्त वंदन करे, फिर क्षमाश्रमण देके कहे " जग