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जैनधर्मसिंधु. बके कृत्यमें अपने न्यायो पार्जित वित्तसें बहुत नहितो एक दो चारनी प्रतिमा जरावणी.
सातमे कृत्यमें यथाशक्ती प्रतिष्टा अंजन शलाकाके महोत्सव करने. '
आपमे कृत्यमें पुत्रादिकोंकों धर्मयोग्य करने.
नवमें पदस्थोके पद महोत्सव यथाशक्ती करना. . दशमें कृत्यमे नीति, व्यवहारीक, धार्मीक शास्त्रे वांचनेका, संग्रह करनेका सोख रखणा.
ग्यारहमें कृत्यमें पौषधशाला, विद्याशाला, धर्म शाला, औषधशाला, पांगुलाशाला यथाशक्ती करना.
बारहमें कृत्यमे धर्म शुद्धिके लिए प्रतिमा वहना. तेरहमे कृत्यमें जीवित पर्यंत सम्यक्त पालनाचवदमे कृत्यमें जीवित पर्यंत यथाशक्ती व्रत पच्च काणकों निरतिचार परिपालन करना.. पंदरेमे कृत्यमें शक्ती होय तो दीक्षा लेना. सोलहमे कृत्यमें वृद्धावस्थामें श्रारंज परिग्रह और अधिक खटपटोंका त्याग करना. सत्तरामे कृत्यमे वृद्धावस्थामे शीलपरिपालन करना.
अगरहमें कृत्यमें अपना शमाधि मरण होय एसे साधन न रखने ( सत्संगती प्रमुख रखके पुर्गती से बचनां. और मनुष्य जवकों सफल करना॥
॥शत आजन्म कृत्यानि समाप्तानि ॥