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जैनधर्मसिंधु. ॥ अथ पार्श्व जिनस्तुतिः॥
कि धपमप धधमि धोधों ध्रस कि धरधप धौ रवं । दोंदोंकि दोंदों दागिडदि दागिमदिकि अमकिअणरण जेणवं । ऊफिफ्रेंकि केंफ्रें कणणरणरण निजकि निज जन रंजनं । सुरशैल शिखरे नवति सुखदं पार्श्व जिनपति मजनं ॥१॥ कटरेंगि थोगिनि किटति गिगमदां धुधुकि धुटनटपाटवं । गुणगणण गुणगण रणकिणेणे गुणणगुण गण गौरवं । ऊफिकेंकि कें– कणण रणरण निजकि निज जन सजाना। कलयंति कमला कलितकलमल मुकलमीस महेजिना: ॥॥कि → कि →→ शिवझिक झिपट्टा ताड्यते। तललोंकि लोलों त्रेषित्रेषिन में षिविन वाद्यति । उ कि धुंगि धुं गिनिधोंगिधों गिनि कलरवे । जिन मतमनंतं महिमतनुतानमतिसुरनर मुडवे ॥३॥ धुंदांकि षुषुदां षुषुमदि धुंदां षुषुड दि दोंदों अंबरे, चाचपट चच पट रणकिणे णें मणण मेंमें मंबरेतिहांसरगमपधुनि निधपमगरस सस ससस सुरसेवता । जिननाटयरंगें कुशल मनिशं दिसतु शासन देवता ॥४॥ इति ॥
वति वलिहुं ध्या, गाऊं जिणवरवीर । जिण पर वपजूसण दाख्याधरमनी सीर । आसाढचोमासे हुं तीदिनपंचास । पडिकमणोसंवरी करिये त्रिणउप वास ॥१॥ चोवीसे जिनवर पूजा सतरप्रकार ।